अध्याय 17
वे सारे वचन जो परमेश्वर के मुख से निकलते हैं, वस्तुतः मानवों के लिए अनजान हैं; वे सब ऐसी भाषा हैं जो लोगों ने सुनी नहीं है। ऐसे में, कहा जा सकता है कि परमेश्वर के वचन अपने आप में रहस्य हैं। अधिकतर लोग भूलवश मानते हैं कि रहस्यों में केवल वही चीजें समाहित हैं जिन पर लोग अवधारणात्मक रूप से पहुँच सकते हैं, स्वर्ग के विषय जिन्हें परमेश्वर अब लोगों को जानने देता है, या परमेश्वर जो आध्यात्मिक क्षेत्र में करता है उसका सत्य। इससे स्पष्ट है कि लोग परमेश्वर के सभी वचनों को एक बराबर नहीं मानते हैं, न ही वे उन्हें सँजोकर रखते हैं; अपितु वे उस पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिसे वे “रहस्य” मानते हैं। यह साबित करता है कि लोग नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन क्या हैं या रहस्य क्या हैं; वे बस अपनी ही धारणाओं के दायरे के भीतर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि एक भी व्यक्ति नहीं है जो परमेश्वर के वचनों को सचमुच प्यार करता हो, और ठीक इसी कारण से परमेश्वर कहता है कि “लोग मुझे मूर्ख बनाने में माहिर हैं।” ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कहता है कि लोग किसी भी योग्यता से रहित हैं, या वे पूरी तरह गड़बड़ हैं; यह मनुष्यजाति की वास्तविक स्थिति का बखान करता है। लोग स्वयं बहुत स्पष्ट नहीं हैं कि वस्तुतः परमेश्वर उनके हृदय में कितना स्थान ग्रहण करता है; यह तो बस परमेश्वर स्वयं ही पूरी तरह जानता है। इसलिए फिलहाल लोग दूध पीते बच्चों की तरह हैं। वे दूध क्यों पीते हैं और उन्हें क्यों जीवित रहना चाहिए, इन बातों से वे पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। केवल माँ ही बच्चे की आवश्यकताएँ समझती है; वह उसे भूखा नहीं मरने देगी, न ही वह बच्चे को खा-खाकर अपनी जान देने देगी। परमेश्वर लोगों की आवश्यकताएँ सबसे अच्छी तरह जानता है, इसलिए कभी-कभी उसका प्रेम उसके वचनों में मूर्त होता है, कभी-कभी उसका न्याय उनमें प्रकट होता है, कभी-कभी वे लोगों को उनके हृदय की गहराइयों तक घायल कर देते हैं, और कभी-कभी वे गंभीर और खरे होते हैं। यह लोगों को उसकी दयालुता और सुलभता महसूस करने देता है, और यह भी कि वह कोई कल्पित, प्रभावशाली हस्ती नहीं है जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है। न ही लोगों के मन में वह “स्वर्ग का पुत्र” है, जिसका चेहरा सीधे नहीं देखा जा सकता, वह एक जल्लाद तो और भी नहीं है जो निर्दोष का वध करता है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर का समूचा स्वभाव उसके कार्य में प्रकट होता है; आज देहधारी परमेश्वर का स्वभाव भी उसके कार्य के माध्यम से मूर्त होता है। इस प्रकार उसकी सेवकाई वचनों की सेवकाई है, उसकी नहीं जो वह करता है या वह जैसा बाहर से प्रकट होता है। अंततः, सभी लोग परमेश्वर के वचनों से आत्मिक उन्नति प्राप्त करेंगे और उनके कारण पूर्ण बनाए जाएँगे। अपने अनुभव में, परमेश्वर के वचनों से मार्गदर्शित होकर, लोग अभ्यास करने के लिए मार्ग प्राप्त करेंगे, और परमेश्वर के मुख के वचनों के माध्यम से लोग उसके समूचे स्वभाव को जानने लगेंगे। उसके वचनों के कारण, परमेश्वर का समस्त कार्य परिपूर्ण होगा, लोग ओजस्वी हो उठेंगे, और सभी दुश्मन परास्त हो जाएँगे। यह प्राथमिक कार्य है, जिसे कोई अनदेखा नहीं कर सकता है। आओ हम उसके वचनों पर दृष्टि डालें : “मेरे कथन गरजते बादल की तरह गूँजते हैं, सभी दिशाओं और समूची पृथ्वी पर रोशनी डालते हुए, और गरजते बादल और चमकती बिजली के बीच, मनुष्यजाति धराशायी कर दी जाती है। गरजते बादल और चमकती बिजली के बीच कभी कोई मनुष्य मज़बूती से टिका नहीं रहा है; मेरी रोशनी के आगमन पर अधिकांश मनुष्य बुरी तरह दहल जाते हैं और नहीं जानते कि क्या करें।” परमेश्वर ज्यों ही अपना मुँह खोलता है, वचन बाहर आते हैं। वह वचनों के माध्यम से सब कुछ संपन्न करता है, और उनके द्वारा सभी चीजें रूपांतरित हो जाती हैं, और उनके माध्यम से हर कोई नया हो जाता है। “गरजते बादल और चमकती बिजली” का क्या अर्थ है? और “रोशनी” का क्या अर्थ है? कोई एक भी चीज़ परमेश्वर के वचनों से बच नहीं सकती है। वह लोगों के मन को उघाड़ने और उनकी कुरूपता को दर्शाने के लिए उनका उपयोग करता है; वह लोगों की पुरानी प्रकृतियों की काट-छाँट करने और अपने सभी लोगों को पूरा करने के लिए वचनों का उपयोग करता है। क्या यह परमेश्वर के वचनों का ठीक-ठीक महत्व नहीं है? पूरे ब्रह्माण्ड में, परमेश्वर के वचनों के सहारे और किलेबंदी के बिना, संपूर्ण मनुष्यजाति बहुत पहले ही अनस्तित्व की सीमा तक नष्ट हो गई होती। अपनी छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना के दौरान परमेश्वर जो करता है, और वह पद्धति है जिससे वह कार्य करता है, उसका यही सिद्धांत है। यह परमेश्वर के वचनों का महत्व दर्शाता है। वे लोगों की आत्माओं की गहराई में सीधे बेधते हैं। उसके वचनों को देखते ही लोग हक्के-बक्के और आतंकित हो जाते हैं, और हड़बड़ी में भाग जाते हैं। वे उसके वचनों की वास्तविकता से बचना चाहते हैं, यही वजह है कि इन “शरणार्थियों” को हर जगह देखा जा सकता है। ज्यों ही परमेश्वर के वचन जारी किए जाते हैं, लोग भाग खड़े होते हैं। यह मनुष्यजाति की कुरूपता की छवि का एक पहलू है जो परमेश्वर दर्शाता है। फिलहाल, सभी लोग धीरे-धीरे अपनी मूर्छा से जाग रहे हैं; यह ऐसा है मानो पहले उन सभी में मनोभ्रंश की अवस्थाएँ विकसित हो गई थीं—और अब जब वे परमेश्वर के वचनों को देखते हैं, वे इस बीमारी के बचे हुए प्रभावों से पीड़ित, और अपनी पूर्व अवस्थाओं को पुनःप्राप्त करने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। सभी लोग वास्तव में ऐसे ही हैं, और यह इन वचनों का सच्चा चित्रण भी है : “तब कई लोग, इस हल्की-सी दीप्ति से प्रेरित होकर, तत्क्षण अपनी मोह-माया से जाग जाते हैं। तो भी कभी किसी ने अहसास नहीं किया कि वह दिन आ गया है जब मेरी रोशनी पृथ्वी पर उतरती है।” यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा : “अधिकांश मनुष्य इस रोशनी के अचानक आगमन से भौंचक्के रह जाते हैं।” इसे इस तरह प्रस्तुत करना पूरी तरह उपयुक्त है। मानवजाति के बारे में परमेश्वर के वर्णन में कोई दरार नहीं है, यहाँ तक कि सुई की नोक बराबर जगह भी नहीं है—और उसने इसे सच में सटीक और त्रुटिरहित ढंग से सूत्रबद्ध किया है, यही कारण है कि सभी लोग सर्वथा विश्वास कर लेते हैं। इतना ही नहीं, इसे जाने बिना, परमेश्वर के लिए उनका प्रेम उनके हृदय के भीतर गहराई से बढ़ने लगता है। वहाँ परमेश्वर का स्थान केवल इसी तरह पहले से कहीं अधिक सच्चा हो जाता है, और यह भी एक तरीक़ा है जिससे परमेश्वर कार्य करता है।
“अधिकांश मनुष्य बस हक्के-बक्के हो जाते हैं; इस रोशनी से उनकी आँखें घायल हो जाती हैं और वे कीचड़ में गिरा दिए जाते हैं।” चूँकि ऐसे लोग परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध जाते हैं (अर्थात, वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं), इसलिए जब परमेश्वर के वचन आते हैं तब अपने विद्रोहीपन की वजह से वे ताड़ना झेलते हैं; यही कारण है कि यह कहा जाता है कि रोशनी से उनकी आँखें घायल हो जाती हैं। ऐसे लोगों को पहले से ही शैतान को सौंप दिया गया है; इसलिए, नए कार्य में प्रवेश करते समय, वे न तो प्रबुद्धता से या न ही रोशनी से युक्त होते हैं। वे सब जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है शैतान द्वारा अधिग्रहित कर लिए गए हैं, और उनके हृदय की गहराई में, परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार, यह कहा जाता है कि वे “कीचड़ में गिरा दिए जाते हैं”। वे सब जो इस स्थिति में हैं, अस्तव्यस्त अवस्था में हैं। वे सही राह पर प्रवेश नहीं कर सकते हैं, न ही वे सामान्यता को पुनः प्राप्त कर सकते हैं; उनके सारे विचार विरोधाभासी होते हैं। पृथ्वी पर हर किसी को शैतान द्वारा चरम सीमा तक भ्रष्ट कर दिया गया है। लोगों में प्राणशक्ति नहीं है और उनसे शवों की दुर्गंध आती है। पृथ्वी के सारे लोग जीवाणुओं की उस महामारी के बीच, जिससे कोई बचकर नहीं निकल सकता, जीवित बचे रहते हैं। वे पृथ्वी पर जीवित रहने के इच्छुक नहीं हैं, किंतु उन्हें हमेशा लगता है कि कुछ न कुछ अधिक बड़ा होगा जिसे लोग स्वयं अपनी आँखों से देखेंगे; ऐसे में, सभी लोग जीते रहने के लिए अपने को बाध्य करते हैं। उनके पास अपने हृदयों में बहुत लंबे समय से कोई शक्ति नहीं रही है; आध्यात्मिक स्तंभ के रूप में वे मात्र अपनी अदृश्य आशाओं का उपयोग करते हैं, और इस प्रकार वे इंसान होने का दिखावा करते हुए टेक लगाकर अपने सिर उठाए रखते हैं और किसी तरह पृथ्वी पर अपने दिन पार लगाते हैं। यह ऐसा है मानो सभी लोग देहधारी शैतान के पुत्र थे। यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा : “अव्यवस्था पृथ्वी को ढँक लेती है, असहनीय ढंग से दुःखद नज़ारा जो, ध्यान से जाँचने पर, ज़बरदस्त उदासी के साथ धावा बोल देता है।” चूँकि यह स्थिति उत्पन्न हो गई है, इसलिए परमेश्वर ने पूरे ब्रह्माण्ड में सर्वत्र “अपने आत्मा के बीज बिखेरना” शुरू किया, और उसने पूरी पृथ्वी पर उद्धार का अपना कार्य करना आरंभ कर दिया। यह इस कार्य को आगे बढ़ाना ही था जिसके कारण परमेश्वर ने सभी प्रकार की आपदाएँ बरसाना आरंभ किया, इस प्रकार कठोर-हृदय मनुष्यों को बचाया। परमेश्वर के कार्य के चरणों में, उद्धार अब भी विभिन्न आपदाओं का रूप लेता है, और उनसे ऐसा कोई भी नहीं बच सकता जो अभिशप्त है। केवल अंत में ही पृथ्वी पर वह दृश्य प्राप्त कर पाना संभव होगा, जो “उतना ही शांत है जितना तीसरा स्वर्ग : यहाँ, जीती-जागती चीजें, बड़ी हों या छोटी, सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व में हैं, कभी ‘मुख और जिह्वा के संघर्ष’ में लिप्त नहीं होती हैं।” परमेश्वर के कार्य का एक पहलू समस्त मानवजाति पर विजय प्राप्त करना और अपने वचनों के माध्यम से चुने हुए लोगों को प्राप्त करना है; दूसरा पहलू है विभिन्न आपदाओं के तरीक़े से विद्रोह के सभी पुत्रों को जीतना। यह परमेश्वर के बड़े पैमाने के कार्य का एक भाग है। पृथ्वी पर परमेश्वर जो राज्य चाहता है, वह केवल इसी तरीक़े से पूर्णतः प्राप्त किया जा सकता है, और यह उसके कार्य का वह भाग है जो शुद्ध सोना है।
परमेश्वर निरंतर अपेक्षा करता है कि लोग स्वर्ग की गतिकी को पकड़ें। क्या वे सच में इसे प्राप्त कर सकते हैं? वास्तविकता यह है कि 5,900 से अधिक वर्षों से भ्रष्ट कर दिए जाने की लोगों की वर्तमान, वास्तविक स्थिति के आधार पर, उनकी पतरस से तुलना नहीं की जा सकती है; ऐसे में, वे यह कदापि प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह परमेश्वर के कार्य की पद्धतियों में से एक है। वह लोगों को निष्क्रिय बैठे-बैठे इंतजार नहीं करने देगा; इसके बजाय वह उनसे सक्रिय रूप से तलाश करवाएगा। केवल इसी तरह परमेश्वर को लोगों में कार्य करने का अवसर मिलेगा। तुम्हें थोड़ा अधिक स्पष्टीकरण देना अच्छा होगा; अन्यथा लोगों को मात्र सतही समझ ही होगी। परमेश्वर द्वारा मानवजाति की सृष्टि करने और उन्हें आत्माएँ प्रदान करने के बाद, उसने उन्हें आदेश दिया कि यदि उन्होंने उसे नहीं पुकारा, तो वे उसके आत्मा से नहीं जुड़ पाएँगे, और इस प्रकार, पृथ्वी पर स्वर्ग से “सैटेलाइट टेलीविजन” का प्रसारण प्राप्त कर पाना असंभव होगा। अब जब परमेश्वर लोगों की आत्माओं में नहीं रह गया है, तब अन्य चीजों के लिए एक खाली आसन रह गया है, और इस प्रकार शैतान घुस आने का अवसर झपट लेता है। जब लोग परमेश्वर से अपने हृदय से संपर्क करते हैं, तब शैतान बुरी तरह घबड़ा जाता है और बचने की उतावली में सरपट भागता है। मानवजाति की पुकारों की बदौलत, परमेश्वर उन्हें वह देता है जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है, किंतु वह आरंभ में उनके भीतर “निवास” नहीं करता है। वह उनकी पुकार की वजह से ही उन्हें अनवरत सहायता देता है, और उसी आंतरिक शक्ति से वे मजबूती प्राप्त करते हैं, जिससे शैतान अपनी इच्छानुसार “खेलने” के लिए घुस आने की हिम्मत नहीं करता। इसलिए, यदि लोग परमेश्वर के आत्मा से लगातार जुड़े रहते हैं, तो शैतान घुसने और विघ्न उत्पन्न करने की हिम्मत नहीं करता है। शैतान के विघ्नों के बिना, सभी लोगों के जीवन सामान्य हो जाते हैं, और तब परमेश्वर के पास उनके भीतर बेरोकटोक कार्य करने का अवसर होता है। इस रूप में, परमेश्वर जो करना चाहता है वह मनुष्यों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इससे यह जाना जा सकता है कि परमेश्वर ने लोगों से हमेशा अपना विश्वास बढ़ाने की अपेक्षा क्यों की है, और कहा भी है : “मैं पृथ्वी पर मनुष्य की आध्यात्मिक कद-काठी के अनुसार उपयुक्त माँगें करता हूँ। मैंने कभी किसी को कठिनाइयों में नहीं डाला है, न ही मैंने अपने सुख के लिए कभी किसी से ‘उसका खून निचोड़ने’ के लिए कहा है।” परमेश्वर की अपेक्षाओं से अधिकतर लोग चक्कर में पड़ जाते हैं। वे अचरज करते हैं कि जब लोगों में वह क्षमता है ही नहीं और वे शैतान द्वारा असाध्य रूप से भ्रष्ट कर दिए गए हैं, तो फिर परमेश्वर उनसे लगातार अपेक्षाएँ क्यों करता रहता है? क्या यह परमेश्वर द्वारा लोगों को मुश्किल स्थिति में डालना नहीं है? लोगों के धीर-गंभीर चेहरे देखकर, और फिर उनकी असहज भाव देखकर, तुम हँसे बिना नहीं रह सकते हो। लोगों की तरह-तरह की भद्दी दिखावटें सबसे अधिक हास्यास्पद होती हैं : कभी-कभी वे उन बच्चों की तरह होते हैं जिन्हें खेलना बहुत अच्छा लगता है, जबकि कभी-कभी वे खेल में “माँ” बनी नन्हीं लड़की की तरह होते हैं। कभी-कभी वे चूहा खाते कुत्ते की तरह होते हैं। समझ नहीं आता कि उनकी इन कुरूप अवस्थाओं पर हँसे या रोएँ, और प्रायः, लोग परमेश्वर की इच्छा को जितना कम पकड़ पाते हैं, उतना ही अधिक उनके मुसीबत में पड़ने की आशंका होती है। इसलिए, परमेश्वर के ये वचन—“क्या मैं वह परमेश्वर हूँ जो सृष्टि पर मात्र ख़ामोशी थोपता है?”—यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि लोग कितने निरे नासमझ हैं, और वे यह भी दर्शाते हैं कि कोई भी मनुष्य परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है। यहाँ तक कि यदि वह अपनी इच्छा बता भी देता है तो भी वे इसके प्रति विचारशील नहीं हो पाते हैं। वे केवल मनुष्य की इच्छानुसार ही परमेश्वर का कार्य करते हैं। ऐसे में, वे उसकी इच्छा कैसे समझ सकते हैं? “मैं पृथ्वी पर चलता हूँ, सर्वत्र अपनी सुगंध बिखेरते हुए, और, प्रत्येक स्थल पर, मैं अपना स्वरूप पीछे छोड़ता जाता हूँ। प्रत्येक स्थल मेरी वाणी की ध्वनि से गुँजायमान हो जाता है। लोग सर्वत्र बीते कल के रमणीय दृश्यों पर देर तक ठिठके रहते हैं, क्योंकि समूची मानवजाति अतीत को याद कर रही है ...” यह स्थिति तब होगी जब राज्य बन जाएगा। परमेश्वर ने, वास्तव में, राज्य के साकार होने की सुंदरता की भविष्यवाणी कई स्थानों पर पहले ही कर दी है, और ये सब मिले-जुले रूप में राज्य की पूरी तस्वीर बनाते हैं। परंतु लोग इस पर ध्यान नहीं देते; वे इसे बस ऐसे देखते हैं जैसे यह कोई कार्टून हो।
सहस्त्राब्दि तक शैतान की भ्रष्टता के कारण, लोग हमेशा अंधकार में रहे हैं, इसलिए वे इससे परेशान नहीं होते, न ही वे प्रकाश की लालसा करते हैं। इसीलिए इसका नीचे लिखा परिणाम हुआ है, आज जब प्रकाश का आगमन होता है, “वे सब मेरे आगमन से विमुख हो जाते हैं, और वे सभी रोशनी के आगमन को निर्वासित कर देते हैं, मानो मैं स्वर्ग में मनुष्य का शत्रु होऊँ। मनुष्य अपनी आँखों में रक्षात्मक चमक के साथ मेरा अभिवादन करता है।” यद्यपि अधिकतर लोग नेकनीयत से परमेश्वर को प्यार करने का प्रयास करते हैं, किंतु वह तब भी संतुष्ट नहीं होता है, और वह तब भी मानवजाति की निंदा करता है। यह लोगों को हैरत में डाल देता है। चूँकि लोग अंधकार में रहते हैं, इसलिए वे प्रकाश की अनुपस्थिति में भी परमेश्वर की उसी प्रकार सेवा करते हैं जैसे वे करते हैं। अर्थात्, सभी लोग अपनी धारणाओं का उपयोग करते हुए परमेश्वर की सेवा करते हैं, और जब वह आता है, तब भी उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, और वे नई रोशनी को स्वीकार करके परमेश्वर की सेवा नहीं कर पाते हैं; बल्कि, वे उसी अनुभव से उसकी सेवा करते हैं जो उन्होंने स्वयं प्राप्त किया है। परमेश्वर मानवजाति के “समर्पण” से आनंद प्राप्त नहीं करता है, इसलिए अंधकार में मानवजाति द्वारा प्रकाश की स्तुति नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि परमेश्वर ने ऊपर लिखे वचन कहे; यह वास्तविकता के विपरीत बिल्कुल नहीं है, न ही यह मानवजाति के साथ परमेश्वर का दुर्व्यवहार है, न ही यह उसका उन्हें हानि पहुँचाना है। संसार की सृष्टि के बाद से ही, एक भी व्यक्ति ने सच में परमेश्वर की गर्माहट का आस्वादन नहीं किया है; सारे लोग परमेश्वर की तरफ़ रक्षात्मक रहे हैं, इस गहरे डर से कि परमेश्वर उन्हें मार डालेगा, और उनका अस्तित्व मिटा देगा। इस प्रकार, इन 6,000 वर्षों के दौरान, परमेश्वर ने हमेशा लोगों की शुद्ध हृदयता के बदले गर्मजोशी का आदान-प्रदान किया है, और हमेशा हर मोड़ पर धैर्यपूर्वक उनका मार्गदर्शन करता रहा है। इसका कारण यह है कि लोग बहुत निर्बल हैं, और वे परमेश्वर की इच्छा को पूर्णतः जानने या उससे पूरे हृदय से प्यार करने में असमर्थ हैं, क्योंकि उनके पास शैतान की चालाकी के अधीन होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तिस पर भी, परमेश्वर सहिष्णु बना हुआ है, और इतना धैर्यवान रहने के बाद, एक दिन, अर्थात्, जब वह संसार को नवीन करेगा, तब वह लोगों की माँ की तरह अब और देखभाल नहीं करेगा। इसके बजाय, वह मनुष्यों को वही प्रतिफल देगा जो उनके लिए उपयुक्त है। यही कारण है कि फिर यह होगा : “महासागर की सतह पर शव बहते हैं,” जबकि “जल से रिक्त स्थानों में, अन्य मनुष्य अब भी, हँसी और गाने के बीच, उन प्रतिज्ञाओं का आनंद ले रहे हैं, जो मैंने कृपापूर्वक उन्हें प्रदान की हैं।” यह तुलना उन लोगों की मंजिलों के बीच है जो दण्डित किए जाते हैं और जो पुरस्कृत किए जाते हैं। “महासागर की सतह” का अर्थ मानवजाति की ताड़ना का वह अथाह कुंड है जिसके बारे में परमेश्वर ने बात की है। यह शैतान का गंतव्य है, और यह वह “विश्राम स्थल” है जो परमेश्वर ने अपना प्रतिरोध करने वाले लोगों के लिए तैयार किया है। परमेश्वर ने हमेशा मनुष्यों का सच्चा प्रेम चाहा है, फिर भी लोग यह नहीं जानते और इसके प्रति संवेदनशून्य हैं, और अब भी बस अपना ही कार्य करते हैं। इसके कारण, अपने सभी वचनों में, परमेश्वर हमेशा लोगों से चीज़ों की माँग करता है और उनकी कमियाँ बताता और उनके लिए अभ्यास का मार्ग बताता है, ताकि वे इन वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकें। उसने स्वयं अपनी मनोवृत्ति लोगों को दिखाई है : “तो भी मैंने कभी एक भी मानव जीवन खेलने के लिए यूँ ही नहीं ले लिया है मानो वो कोई खिलौना हो। मैं देखता हूँ वे पीड़ाएँ जो मनुष्य ने सही हैं और मैं समझता हूँ कि उसने क्या क़ीमत चुकाई है। जब वह मेरे सामने खड़ा होता है, मैं नहीं चाहता कि ताड़ना देने के लिए मनुष्य को चुपके से पकड़ लूँ, न ही मैं अवांछनीय चीजें उस पर न्योछावर करना चाहता हूँ। इसके बजाय, इस पूरे समय, मैंने मनुष्य का भरण-पोषण ही किया है, और उसे दिया ही है।” लोग जब परमेश्वर के ये वचन पढ़ते हैं, वे तत्काल उसकी गर्माहट महसूस करते हैं, और सोचते हैं : सचमुच, अतीत में मैंने परमेश्वर के लिए क़ीमत चुकाई है, किंतु मैंने उसके साथ उथला व्यवहार भी किया है, और कभी-कभी मैंने उससे शिकायत की है। परमेश्वर ने अपने वचनों से हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है और वह मेरे जीवन पर इतना ध्यान देता है, फिर भी मैं कभी-कभी उसके साथ इस तरह खेलता हूँ मानो वह खिलौना हो। मुझे सचमुच यह नहीं करना चाहिए। परमेश्वर मुझे इतना अधिक प्यार करता है, तो मैं पर्याप्त कठोर प्रयास क्यों नहीं कर सकता हूँ? जब उन्हें ऐसे विचार आते हैं, तब लोग वास्तव में अपने ही चेहरों पर थप्पड़ मारना चाहते हैं, और कुछ लोगों की नाक फड़कती हैं और वे ज़ोर से रो पड़ते हैं। परमेश्वर समझता है कि वे क्या सोच रहे हैं और वह उसी के अनुसार बोलता है, और ये थोड़े से वचन—जो न कठोर हैं और न कोमल—उसके प्रति लोगों का प्यार उत्पन्न करते हैं। अंत में, परमेश्वर ने पृथ्वी पर राज्य का निर्माण होने पर अपने कार्य में परिवर्तन की भविष्यवाणी की : जब परमेश्वर पृथ्वी पर होगा, तब लोग आपदाओं और विपत्तियों से मुक्त हो पाएँगे, और अनुग्रह का आनंद उठा पाएँगे; फिर भी, जब वह महान दिन का न्याय आरंभ करेगा, ऐसा तब होगा जब वह सभी लोगों के बीच प्रकट होगा, और पृथ्वी पर उसका समस्त कार्य पूरा होगा। उस समय, चूँकि वह दिन आ गया होगा, इसलिए ठीक वैसा ही होगा जैसा बाइबल में लिखा गया था : “जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे; और जो पवित्र है; वह पवित्र बना रहे।” अधार्मिक ताड़ना की ओर आएगा, और पवित्र सिंहासन के सामने आएगा। कोई एक भी व्यक्ति परमेश्वर का प्यार-दुलार प्राप्त नहीं कर पाएगा; यहाँ तक कि राज्य के पुत्र और लोग भी नहीं। यह सब परमेश्वर की धर्मपरायणता है, और यह सब उसके स्वभाव का प्रकाशन है। वह मानवजाति की कमज़ोरियों के लिए दूसरी बार चिंता नहीं दिखाएगा।