41. क्या उद्धार के लिए रुतबा जरूरी है?

यीशुन, चीन

कई सालों से, मैं घर से दूर रहकर, अपना कर्तव्य निभा रही थी, मुझ पर कलीसिया के काम की जिम्मेदारी थी। हालांकि, मुझे दिल की पैदाइशी बीमारी थी, फिर भी मेरी सेहत ने मुझे कोई बड़ी तकलीफ नहीं दी। लेकिन पिछले कुछ सालों से, उम्र बढ़ने के चलते, मैं शारीरिक और मानसिक रूप से पहले जैसी नहीं रही। रातों में थोड़ी देर तक जागे रहने से अगले दिन बड़ी थकान हो जाती है, पूरे शरीर में कमजोरी आ जाती है, दिल की हालत भी सही नहीं लगती। साल 2021 के अगस्त में, अगुआ ने मेरी हालत के बारे में सोचा, तो उन्हें लगा कि मेरा शरीर अब अगुआ के ज्यादा तनाव वाले काम का बोझ नहीं उठा सकता, इसलिए उन्होंने मुझे ऐसा काम देने के लिए वापस बुला लिया, ताकि मैं कर्तव्य के साथ-साथ अपनी सेहत का भी ख्याल रख सकूँ। यह सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने सोचा, “किसी कर्तव्य में कुछ अच्छा कर दिखाने का यह एक अहम समय है। तबादला होने पर, अगुआ के बजाय सिर्फ एक सामान्य विश्वासी बन जाने से, मुझे अभ्यास के कम मौके मिलेंगे, मैं बहुत धीरे-धीरे सत्य जानकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकूंगी, इससे बचाए जाने की मेरी संभावना कम हो जाएगी। यह हमेशा भाई-बहनों की विभिन्न समस्याएँ और परेशानियां सुलझाने वाली अगुआ होने जैसा नहीं होगा; उद्धार की बेहतर संभावना के साथ, तेजी से सत्य सीखने और उसमें प्रवेश करने जैसा नहीं होगा। कहीं परमेश्वर इस हालत का इस्तेमाल मुझे उजागर कर निकालने के लिए तो नहीं कर रहा?” मैंने इस बारे में जितना सोचा उतनी ही ज्यादा परेशान हो गई, और अपने आंसू नहीं रोक सकी। बाद में, एक बहन को जब मेरी हालत का पता लगा, तो उसने मेरे साथ संगति की। उसने मुझसे कहा, “इसमें परमेश्वर की कृपापूर्ण इच्छा छुपी है, जब हम परमेश्वर की इच्छा न समझ पाएं, तो पहले हमें समर्पण करना चाहिए, ज्यादा प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, मगर हम कभी भी उसे गलत नहीं समझ सकते या शिकायत नहीं कर सकते।” उसकी संगति ने मुझे याद दिलाया कि ऐसा एकाएक नहीं हुआ, इसके पीछे कोई सत्य जरूर होगा, जिसे खोजकर मुझे उसमें प्रवेश करना होगा और समर्पण करना होगा। लेकिन मैं अभी भी बहुत बेचैन थी। रात में नींद खुलने पर, जब यह बात मन में कौंधती, तो नींद न आने से करवट बदलती रहती, बार-बार सोचती, “मैंने इतने सालों से विश्वास रखा, अब जब आखिर में परमेश्वर का कार्य अहम मुकाम पर है, तो मैंने अगुआ के रूप में सेवा करने का अपना मौका गँवा दिया है। मैं बस एक आम विश्वासी हूँ। क्या अब भी उम्मीद बची है कि मैं बचाई जाऊँगी, पूर्ण की जाऊँगी?” मैं अभी भी अगुआ के रूप में सेवा करते रहना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि मेरी सेहत कभी भी बिगड़ सकती है और इससे कलीसिया के काम पर बुरा असर पड़ सकता है। मैं सिर्फ अपने बारे में सोचकर कलीसिया के कार्य को खतरे में नहीं डाल सकती। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतनी ही परेशान हो गई। मुझे नहीं पता मैं इन हालात से कैसे उबरूं।

अपने धार्मिक कार्यों में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन के पढ़े जिनसे पता चला कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य बदल जाने पर उससे कैसे निपटते हैं, मैं अपने बारे में भी थोड़ा समझ पाई। परमेश्वर कहते हैं : “जब लोगों के कर्तव्यों में समायोजन किया जाता है, तो कम से कम, उन्हें समर्पण करना चाहिए, आत्मचिंतन से लाभ उठाना चाहिए, और साथ ही इस बात का सटीक आकलन करना चाहिए कि उनके कर्तव्यों का प्रदर्शन उपयुक्त है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। वे सामान्य लोगों से अलग होते हैं, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से सहयोग नहीं करते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके प्रति घृणा महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : ‘मुझे यह कर्तव्य क्यों नहीं निभाने दिया जा रहा है? मुझे ऐसा कर्तव्य क्यों सौंपा जा रहा है जो महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह उजागर करके निकालने का तरीका है?’ वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक बुरे होते हैं। ... मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि और हैसियत को अपनी आशीषों की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी यही एकमात्र आशा है। मसीह-विरोधी आशीष पाने को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे परमेश्वर द्वारा आशीष पाने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनका कर्तव्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई रुतबा या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “अपने दिलों में मसीह-विरोधी इस बात की तुलना कि उनकी हैसियत कितनी ऊँची या नीची है, इस बात करते हैं कि उनके आशीष कितने बड़े या छोटे हैं। परमेश्वर के परिवार में हो या किसी अन्य समूह में, उनकी निगाह में लोगों की हैसियत और श्रेणी, और इसी तरह उनका अंतिम परिणाम भी, पत्थर पर खिंची लकीर हैं; इस जीवन में परमेश्वर के घर में किसी का पद कितना ऊँचा है और उसके पास कितनी सत्ता है, यह उनके लिए अगली दुनिया में मिलने वाले आशीषों, पुरस्कारों और ताज के परिमाण के बराबर होता है—वे सीधे जुड़े हैं। क्या ऐसे दृष्टिकोण में दम है? परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा, न ही उसने कभी ऐसा कुछ वादा किया है, लेकिन मसीह-विरोधी के भीतर इस तरह की सोच उठती है। ... क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि मसीह-विरोधियों जैसे लोगों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कुछ समस्याएँ होती हैं? क्या वे अत्यधिक दुष्ट हैं? परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, वे उस पर ध्यान नहीं देते, न ही उसे स्वीकारते हैं। उन्हें लगता है कि वे जो भी सोचते और विश्वास करते हैं वह सही है, और इसमें उन्हें मजा आता है, वे आनंद लेते और खुद को सराहते हैं। वे सत्य नहीं खोजते या इस बात की जाँच नहीं करते कि क्या परमेश्वर के वचनों में यही कहा गया है, या क्या परमेश्वर ने यही वादा किया है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई रुतबा या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से पता चलता है कि मसीह-विरोधी आशीषों और पुरस्कारों के लिए ही आस्था रखते हैं। वे अलग-अलग कर्तव्यों का दर्जा तय करते हैं, ऊंचे या निचले रुतबे को मिल सकने वाली ज्यादा या कम आशीषों के साथ नजदीकी से जोड़ते हैं। वे सोचते हैं कि रुतबे के बिना उन्हें उद्धार का मौका मिलना मुश्किल है, तो वे परमेश्वर को दोष देते हैं, उसे गलत समझते हैं, और उसके खिलाफ लड़ते भी हैं। वे सिर्फ अपने हितों की परवाह करते हैं, सोचते हैं कि उन्हें आशीष मिल सकता है या नहीं, वे कभी भी सत्य नहीं खोजते या सबक नहीं सीखते। इतना ही नहीं, उनके हृदय में परमेश्वर के प्रति कोई भय नहीं होता, न समर्पण भाव होता है, वे प्रकृति से ही दुष्ट और धूर्त होते हैं। अपने बर्ताव के आधार पर, मैं ठीक मसीह-विरोधी जैसी ही थी। अपने रुतबे को अपनी आशीषों की मात्रा से जोड़ती थी, हमेशा यही सोचती थी कि अगुआ नहीं होने का मतलब है मेरे पास रुतबा नहीं होगा और मुझे बचाए जाने या आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं होगी। इसी वजह से, अपने कर्तव्य में एक सामान्य बदलाव को भी ठीक से संभाल नहीं सकी। मेरे मन में हलचल मची थी। दरअसल, कलीसिया, हर व्यक्ति के कर्तव्य की व्यवस्था, उसकी असली हालत और सिद्धांतों के अनुसार करता है। मेरी सेहत ठीक नहीं थी। अगुआओं को बहुत-कुछ संभालना होता है, उन्हें बहुत तनाव होता है, और मेरा शरीर जवाब दे रहा था। इससे मेरे कर्तव्य में दिक्कत आएगी। कलीसिया द्वारा मेरे संभाल सकने लायक कर्तव्य की व्यवस्था करना, मेरे और कलीसिया के कार्य, दोनों के लिए अच्छी बात थी। लेकिन मैंने इसे शक और शुबहे की नज़र से देखा। अगुआ न रहने को लेकर मेरा पहला विचार था कि इससे मेरे बचाए जाने की मेरी उम्मीद खत्म हो जाएगी। आशीष न पाने और अच्छी मंज़िल न मिल सकने के विचार से यूं लगा मानो आस्था में मेरी इकलौती उम्मीद छिन गई है। अचानक मेरा पूरा जोश हवा हो गया और मैं बहुत निराश हो गई। मैंने देखा कि मैं चीजों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि इस आधार पर तोल रही थी कि मुझे उनसे फायदा होगा या नहीं। अपनी आकांक्षाएं और इच्छाएं पूरी न होने पर, मैंने सोचा, परमेश्वर इस हालत का इस्तेमाल मुझे उजागर कर निकालने के लिए कर रहा है। मैंने देखा कि मैं बहुत धूर्त हूँ। मेरी कल्पना में, परमेश्वर एक भ्रष्ट इंसान जैसा ही था, वह निष्पक्ष या न्यायपूर्ण नहीं था। मैं सोचती थी कि वह हमारे रुतबे या कर्तव्य की श्रेष्ठता के आधार पर हमारा आकलन कर हमारे परिणाम तय करता हो। मुझे लगता था, अगर लोगों के पास रुतबा है, तो परमेश्वर उनका पक्ष लेगा और उन्हें बचाएगा, वरना उन्हें नहीं बचाएगा। क्या यह परमेश्वर की धार्मिकता को नकारना और उसका तिरस्कार करना नहीं था? इतने वर्षों की आस्था के बाद, मुझे समझ आया, मैं न तो परमेश्वर को समझती हूँ, न ही उसकी आज्ञा मानती हूँ। तथ्यों के जरिये उजागर हुए बिना, मुझे एहसास ही नहीं होता कि अनुसरण को लेकर मेरा नजरिया कितना गलत था।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिनसे मुझे अपने गलत नजरिए को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कई लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है, या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं, या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज, जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से, तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इन अंशों ने सच में मेरे दिल को छू लिया। मैं समझ गई कि बचाए जाने का, अगुआ होने या रुतबा हासिल करने से कोई वास्ता नहीं है। उद्धार शैतान के स्वभाव को छोड़ देने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से होता है। जो सत्य पर अमल करते हैं, जिनके भ्रष्ट स्वभाव बदल गये हैं, जो परमेश्वर को समर्पण करते हैं, उसके वचनों के अनुसार जीते हैं, सिर्फ वे ही सही मायनों में बचाए जा सकते हैं। हम चाहे जो भी कर्तव्य करें, अगर हम सत्य को स्वीकारते हैं, हमारी काट-छाँट होने पर अपने आत्मचिंतन पर ध्यान देते हैं, परमेश्वर के वचनों के जरिए अपनी भ्रष्टता और कमियों को जान लेते हैं, प्रायश्चित कर बदल जाते हैं, तो ऐसे अनुसरण से हम सत्य पाकर बचाए जा सकते हैं। किसी का रुतबा चाहे जितना भी ऊंचा क्यों न हो, कोई कितने भी कष्ट क्यों न उठाए, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसे निकाल दिया जाएगा। ठीक पौलुस की तरह। भले ही उसका रुतबा और प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी, उसने बहुत-कुछ हासिल किया था, लेकिन काम के लिए उसने जितने भी प्रयास किए वे सब आशीष और इनाम पाने के लिए थे। उसने कभी भी सत्य जानने या स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश नहीं की। अंत में, वह न तो खुद को समझ पाया, न ही परमेश्वर को। वह हमेशा अपनी ही गवाही देता रहा, यही बताता रहा कि उसने प्रभु के लिए बहुत कष्ट झेले हैं। वह शेखी बघारता था, “मैं किसी बात में बड़े से बड़े प्रेरितों से कम नहीं हूँ” (2 कुरिन्थियों 11:5), उसने बेशर्मी से अपना डंका बजाया, “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:8)। अपने एक जीवित मसीह होने जैसी विधर्मी बातें कहकर, उसने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित किया और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। लेकिन पतरस अलग था। पतरस अपनी आस्था में रुतबे के पीछे नहीं भागा। उसने सिर्फ परमेश्वर को जानकर उसके आगे समर्पण का प्रयास किया। उसने परमेश्वर के वचनों पर अमल कर उनका अनुभव करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का प्रयास किया, आखिरकार परमेश्वर के लिए उसे सूली पर उल्टा लटका दिया गया। उसने आख़िरी सांस तक समर्पण किया, परमेश्वर से अगाध प्रेम किया। यह हमें दिखाता है कि ऊंचे रुतबे वाला होना या महान कर्तव्य करना उद्धार पाने की कोई शर्त या मानक नहीं है। रुतबे वाला ऐसा इंसान जो सत्य का अनुसरण न करके अक्सर परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, जिसके पास परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने की कोई सच्ची गवाही नहीं है, उसे जरूर निकाल दिया जाएगा। अगर किसी के पास ऊंचा रुतबा नहीं है, मगर वह सही राह पर है, सत्य का अनुसरण करता है, तो भी वह सत्य हासिल कर सकता है, परमेश्वर उसे बचा सकता है। इस बात का एहसास होने पर मैंने बेहतर महसूस किया। मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और शांति से कर्तव्य में बदलाव स्वीकारने को तैयार थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं परमेश्वर की इच्छा को बेहतर ढंग से समझ सकी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जिन्हें तरक्की दी जाती है और विकसित किया जाता है, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय में परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। जिन्हें तरक्की नहीं दी गई है या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है, इसलिए उन्हें तरक्की दी जाती है और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की अपेक्षाओं के कारण होता है। तो फिर लोगों को तरक्की देने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों हैं? चूँकि लोगों की क्षमता और व्यक्तित्व में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग अपनाता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के भिन्न परिणाम होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो अपने कर्तव्य में समर्पित नहीं होते, वे निकाल दिए जाते हैं। परमेश्वर का घर इस आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं या नहीं। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों की हैसियत, स्थान, अहमियत या पदवी में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम से कम उस अवधि के दौरान, जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों के पद, स्थान, अहमियत या हैसियत के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, तरक्की दी जाती है और पोषित किया जाता है, और वे कुछ विशेष कार्य करते हैं, जबकि कुछ लोगों को अपनी क्षमता या पारिवारिक परिवेश में समस्याओं जैसे विभिन्न कारणों से ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? ऐसा नहीं है। क्या उनकी अहमियत और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि उसके घर में, कर्तव्य के लिए ऊंचे या निचले रुतबे में कोई भेद नहीं होता। हर व्यक्ति कार्य की जरूरत के अनुसार अलग-अलग कर्तव्य संभालता है, मगर असल में सत्य के सामने हर व्यक्ति एक समान होता है। जब हम कोई कर्तव्य कर रहे होते हैं, तो हम रुतबे वाले हों या न हों, परमेश्वर के वचन हममें से हर किसी को पोषण देते हैं। रुतबे के आधार पर वह किसी से कोई पक्षपात नहीं करता। परमेश्वर हर किसी की जरूरत के आधार पर, हर तरह के हालात और घटनाओं की व्यवस्था करता है, ताकि लोग उसके कार्य का अनुभव कर सकें और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। वह एक भी इंसान से सत्य का अभ्यास कर उसमें प्रवेश करने का मौका नहीं छीनता। परमेश्वर सभी के साथ निष्पक्ष होता है। सत्य हासिल करना या परमेश्वर द्वारा बचाया जाना हमारे कर्तव्य से नहीं, बल्कि पूरी तरह हमारे अनुसरण से तय होता है। यह कहना सही नहीं होगा कि अगर हम अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, तो परमेश्वर हम पर विशेष कृपा कर हमें प्रबुद्ध करेगा, और अगर हम आम विश्वासी हैं तो वह हमें अनदेखा करेगा। परमेश्वर लोगों को, सत्य के अनुसरण और रवैये के आधार पर, पोषण देता और प्रबुद्ध करता है। इसमें हम उसकी धार्मिकता देख सकते हैं। हालांकि, लोगों के पास अलग-अलग कर्तव्य होते हैं और उनका अलग-अलग चीजों से सामना होता है, लेकिन वे एक जैसे ही अहंकारी, धूर्त और भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण कर उस पर अमल करें और भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ देने को तैयार हों, तो वे परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। दूसरी ओर, अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता, मुश्किलें आने पर सत्य को नहीं खोजता या उस पर अमल नहीं करता, तो चाहे वे जो भी कर्तव्य करते हों, उन्हें प्रशिक्षण के कितने भी मौके मिलते हों, अंत में कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाएंगे और परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकेंगे। मेरी ही तरह, इतने वर्ष अगुआ के पद पर रहने के बाद, अपने रुतबे और प्रशिक्षण के सारे मौके पाकर भी, असल में मैंने कितना सत्य हासिल किया? मैंने सोचा कि कैसे कर्तव्य बदल जाने से, मैं निराश हो गई, गलतफहमी में पड़कर शिकायत करने लगी। मैं परमेश्वर के प्रति जरा भी आज्ञाकारी नहीं थी, मुझमें थोड़ी-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं थी। मैं एक सही मिसाल थी। फिर भी, बेवकूफी से सोचती रही कि रुतबे के ज़रिये उद्धार पा सकती हूँ। रुतबा मेरे सिर चढ़ कर बोल रहा था। हालांकि, कुछ भाई-बहन कभी अगुआ नहीं होते, मगर सत्य का अनुसरण करते रहते हैं, अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाते हैं, मुश्किल वक्त में सत्य खोजने पर ध्यान देते हैं और जाने हुए सत्य पर अमल करते हैं। उनकी भ्रष्टता धीरे-धीरे कम हो जाती है, वे परमेश्वर के प्रति और ज्यादा समर्पण करते हैं। उनके पास परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने की सच्ची गवाही होती है। इससे परमेश्वर की स्वीकृति और मंजूरी मिलती है। इससे मुझे परमेश्वर की एक बात याद आई : “यदि तू सच्चे मन से अनुसरण करे, तो मैं तुझे समग्र जीवन का मार्ग देने, तुझे पानी में वापस आयी किसी मछली की तरह स्वीकार करने को तैयार हूँ। यदि तू सच्चे मन से अनुसरण नहीं करेगी, तो मैं यह सब वापस ले लूँगा। मैं अपने मुँह के वचनों को उन्हें देने को तैयार नहीं हूँ जो आराम के लालची हैं, जो बिल्कुल सूअरों और कुत्तों जैसे हैं!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। प्रभु यीशु ने भी एक बार कहा : “क्योंकि जिस किसी के पास है, उसे और दिया जाएगा; और उसके पास बहुत हो जाएगा : परन्तु जिसके पास नहीं है, उससे वह भी जो उसके पास है, ले लिया जाएगा(मत्ती 25:29)। परमेश्वर इंसान के साथ निष्पक्ष और धार्मिक है, वह किसी भी व्यक्ति से कोई पक्षपात नहीं करता। चाहे कोई आम विश्वासी हो या कोई अगुआ, अगर वह सत्य का अनुसरण करता है, तो परमेश्वर उसे प्रबोधन और अगुआई देगा। अहम बात यह है कि क्या उसने सत्य का अनुसरण करने और उस पर अमल करने की ठानी है। इस बात को समझना मेरे लिए सचमुच प्रबोधक था। पहले, मुझे हमेशा फिक्र होती थी कि अगुआ न रहने पर मुझे सत्य पर अमल करने के ज्यादा मौके नहीं मिल पाएंगे, फिर मेरी उद्धार पाने की उम्मीद कम रह जाएगी। मैं यह भी सोचती थी कि परमेश्वर मुझे निकाल देना चाहता है, वह मुझे अब नहीं बचाएगा। परमेश्वर को लेकर मेरी गलतफहमियां ऐसी ही थीं, यह ईशनिंदा थी। मुझे परमेश्वर के सच्चे इरादों की जरा भी समझ नहीं थी। सच में जब इस बारे में सोचती हूँ, तो आस्था के इतने वर्षों में मैं अपनी गलत सोच के काबू में रही, सिर्फ आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य करती रही, सोचती रही कि मेरा अनुसरण महान है। मैं अपनी झूठी छवि के मोह में थी, मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया, खुद को बिल्कुल नहीं जाना। कर्तव्य में इस बदलाव ने अनुसरण में मेरी गलत सोच का खुलासा कर दिया, आखिर मैं आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने आ सकी। मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपनी सोच की समस्याओं की थोड़ी समझ हासिल की, फिर मैं परमेश्वर की धार्मिकता को समझ पाई। मैंने यह भी जान लिया कि परमेश्वर किसे बचाता है और किसे निकाल देता है। मैं परमेश्वर के प्रति थोड़ा समर्पण कर पायी। इन हालात से गुजरना ही मेरे लिए सचमुच परमेश्वर की सुरक्षा और उद्धार था।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसने सत्य में प्रवेश के मार्ग को साफ तौर पर समझने में मेरी मदद की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। ... तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, इसलिए परमेश्वर जो भी व्यवस्था करे, मुझे उसके शासन और व्यवस्था के आगे समर्पण करना होगा। मैं सिर्फ आशीषों और पुरस्कारों के लिए आस्था रखकर कर्तव्य नहीं कर सकती। अंत में चाहे मैं बचाई जाऊं या नहीं, मुझे आशीष मिलें या नहीं, जब तक जीवित हूँ, मुझे सत्य का अनुसरण करना होगा, परमेश्वर को जानना होगा। भले ही अंत में परमेश्वर मुझे ठुकरा दे, निकाल दे, यह उसकी धार्मिकता होगी। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मुझ पर इस बात का ज़्यादा असर नहीं पड़ा कि मैं कौन-सा कर्तव्य करती हूँ। मैं अपने कर्तव्य में हुए बदलाव का शांति से सामना कर सकी।

इन हालात ने मुझे जो दिखाया उससे, मैंने अपनी आस्था में अपनी गलत सोच के बारे में कुछ चीज़ों को जाना। मैंने यह भी जाना कि किसी का बचाया जा सकना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसका रुतबा क्या है, या उसने कितना काम किया है। अहम यह है कि क्या उसने सत्य हासिल किया है, क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और क्या उसने अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाया है। तब से, मैं समझदार और व्यावहारिक इंसान बनकर, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ।

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