63. दयालुता का बदला चुकाने के बोझ से मुक्ति

झेंग ली, चीन

जब मैं नौ साल की थी, मेरे पिता नहीं रहे, और मेरी माँ को हम पाँच भाई-बहनों को मुश्किल हालात में पालना पड़ा। मेरी आंटी को हम पर तरस आया, तो अक्सर हमारे लिए खाना और जरूरत की बाकी चीजें लाने लगीं। जब भी वे कुछ लेकर आतीं, तो मेरी माँ हमसे शुक्रिया कहलाना नहीं भूलती थीं, उन्होंने सिखाया कि दूसरों के उपकार कभी मत भूलना, दूसरों के एहसान का बदला चुकाना और लोगों का धन्यवाद करना, ताकि कोई हमें पीठ पीछे बुरा और एहसान फरामोश न कहे। इतने मुश्किल हालात में भी, हमारे पास जो कुछ भी होता था, उसे हमेशा आंटी के साथ बाँटकर मेरी माँ उनका बदला चुकाती थी। जब मैं बड़ी हुई, तो अक्सर लोगों को कहते सुनती : “जानते हो, फलाने इंसान को आड़े समय मदद मिली तो उसने कुछ साल बाद उस एहसान का बदला चुका दिया? तुमने देखा, अमुक इंसान को मदद मिली पर उसके पास जमीर नहीं है, उसने आभार नहीं जताया? वह एहसान फरामोश निकला।” धीरे-धीरे, मैंने भी जीवन में यही नजरिया अपना लिया, सोचा कि मुझे भी दूसरों के एहसान का बदला चुकाना होगा, नहीं तो मैं एहसान फरामोश कहलाऊँगी, लोग मुझसे नफरत करेंगे और नीची नजरों से देखेंगे। विश्वासी बनने के बाद, यह जानते हुए भी कि मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों से निपटना चाहिए, पीढ़ियों से चले आ रहे परंपरागत विचार मेरे दिल में इतनी गहरी जड़ें जमा चुके थे कि मैं इन विचारों के अनुसार जीकर अपने कर्तव्य में सिद्धांत तोड़ रही थी, जिस कारण मुझसे कलीसिया के काम में रुकावट डालने का अपराध हो गया।

अगस्त 2021 में, कलीसिया को स्वच्छ बनाने की कार्य व्यवस्थाएँ जारी होने के बाद, कलीसिया ने लोगों को पहचानने के सत्य पर संगति करनी शुरू की, और मेरी बड़ी ननद, फैंग लिंग को एक अविश्वासी घोषित किया गया। मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। बरसों विश्वासी होकर भी उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया और अक्सर कलीसियाई जीवन में रुकावट डालती थी। सभाओं में वह हमेशा दूसरों की चुगली करती थी, और हम जैसे ही परमेश्वर के वचन पढ़ने लगते, वह ऊँघने लगती थी। पढ़ने के बाद, उसके पास संगति के लिए कुछ नहीं होता था। जब उसके सामने ऐसी समस्याएँ आतीं जो उसकी धारणाओं से अलग होतीं, तो वह कभी सत्य नहीं खोजती और कभी उन्हें परमेश्वर से आया मानकर नहीं स्वीकारती। वह हमेशा लोगों और चीजों की छानबीन और अपना बचाव करती थी। जब वह कोई सभा आयोजित करती, और अगुआ को कुछ लोगों के गलत व्यवहार के बारे में संगति करते सुनती, तो वह उन लोगों को अगुआ की सारी बातें बता देती, जिस कारण वे अगुआ के खिलाफ होकर सोचने लगते कि वह उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। अगुआ ने बताया कि कैसे वह कलह के बीज बोकर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डाल रही थी, पर उसे अपनी कोई गलती नहीं दिखती थी, उसने अपने बचाव में तमाम बहाने भी बनाए। उसने कहा कि वह तो बस सच बोल रही थी, इससे भला कलीसियाई जीवन में दिक्कत कैसे आई। एक सभा में हमने मेरी भाभी लियु हुई को पहचानने पर संगति की; उसे बुरी मानवता वाली गैर-विश्वासी के रूप में उजागर किया गया, जिसे कलीसिया से तुरंत निकाल दिया जाना चाहिए। बैठक के बाद, फैंग लिंग ने एक बहन को बता दिया कि हम लियु हुई को कलीसिया से निकाल रहे हैं, और कुछ नकारात्मक टिप्पणियाँ भी कीं, जिससे उस बहन की दशा बिगड़ गयी। मैंने फौरन संगति करने के लिए फैंग लिंग को ढूँढा, उसे बताया : कलीसिया लोगों के समग्र व्यवहार के आधार पर ही उन्हें निकालती और निलंबित करती है, परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, यहाँ किसी एक व्यक्ति की नहीं चलती। लियु हुई को इसलिए निकाला जा रहा है, क्योंकि उसमें बुरी मानवता थी, वह अक्सर कलीसियाई जीवन में रुकावट डालती थी, और भाई-बहनों की इतनी बार संगति सुनने के बाद भी उसने पश्चात्ताप करने से इनकार किया। मैंने यह भी उजागर किया कि कैसे फैंग लिंग के व्यवहार से नकारात्मकता और मातम का माहौल बन गया था, और उसने इस तथ्य को ठुकरा दिया कि कलीसिया में सत्य और धार्मिकता का अधिकार है। मुझे हैरानी हुई जब उसने रोते हुए कहा : “मैं जानती हूँ कलीसिया में तुम्हारी चलती है, किसी का निलंबन तुम ही तय करती हो।” उसकी बेतुकी बातें सुनकर मैं थोड़ी बेबस महसूस करने लगी, मेरा दिल जानता था कि फैंग लिंग ने सत्य को नहीं स्वीकारा और वह एक गैर-विश्वासी थी। मगर उसे निकालने के दस्तावेज तैयार करते हुए मुझे संकोच हुआ। हमने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य एक साथ स्वीकारा था, और सालों तक मिलकर सभा की थीं और सुसमाचार फैलाया था। फैंग लिंग बेहद स्नेही थी और जब भी मुझे जरूरत पड़ती तो मेरी मदद करने के लिए सब कुछ करती थी। खास कर, 2013 में, जब मेरे पति बीमार पड़े, तो उसने उनकी देखभाल की ताकि मैं अपना कर्तव्य निभाना जारी रख सकूँ। उसने मेरे घर के काम में और फसलों का ध्यान रखने में भी मदद की। पति के गुजरने के बाद मुझे तमाम कठिनाइयों से जूझना पड़ा, और मैं निराशा की दशा में चली गई। फैंग लिंग हर रोज रात को मुझसे मिलने आती, मेरे साथ परमेश्वर के वचन पढ़ती, और अय्यूब के अनुभवों पर संगति करती। उसका साथ और सहारा पाकर धीरे-धीरे मेरी दशा सुधर गई। उन मुश्किल हालात में, उसने न सिर्फ रोजमर्रा के कामों में मेरी मदद की, बल्कि मेरा हौसला बढ़ाने के लिए परमेश्वर के वचन भी पढ़कर सुनाए। मैंने हमेशा याद किया कि फैंग लिंग ने मेरा कितना ख्याल रखा था। अगर मैंने उसके एहसान का बदला नहीं चुकाया और उसे निकालने के लिए दस्तावेज तैयार किए, तो इसका पता चलने पर वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह कहेगी कि मैं एहसान फरामोश हूँ, मुझमें जमीर नहीं है? मेरे भाई-भाभी हों या मेरी बहनें, सबने देखा था कि उसने इतने सालों में मेरे लिए कितना कुछ किया। मेरे पड़ोसी भी कहते कि फैंग लिंग मेरे लिए सगी बहनों से भी बढ़कर है। जैसी कहावत भी है, “बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिए घुटनों के बल झुकते हैं, और कौवे अपनी माँ को खिलाकर उपकार चुकाते हैं,” जानवरों को भी एहसान का बदला चुकाना आता है, जबकि मैं उस इंसान के साथ थोड़ी नरमी नहीं बरत रही थी जिसने मेरी मदद की थी। क्या वे सभी मुझे एहसान फरामोश समझेंगे और मुझे छोड़कर अलग-थलग कर देंगे? इस तरह क्या मेरा अपना परिवार ही मुझे अलग नहीं कर देगा? यह सब सोचकर मुझे बेहद बेचैनी हुई और मैं असमंजस में पड़ गई। कलीसिया को स्वच्छ बनाने के कार्य और फैंग लिंग के बीच, जिसके एहसान का कर्ज मुझ पर था, मैं फैसला नहीं कर पाई, और दुःख और पीड़ा में जी रही थी। असमंजस के बीच मैंने एक वरिष्ठ भाई के उपदेश में यह सुना : “कलीसिया में किस तरह के लोग सेवा करते रह सकते हैं? जिनकी मानवता बुरी नहीं है, जो सुसमाचार फैलाने में कुशल हैं और यह काम करना चाहते हैं, उन्हें कलीसिया में रहने देना चाहिए।” तभी मुझे एहसास हुआ : “सही बात है! फैंग लिंग सत्य से प्रेम या सत्य का अनुसरण नहीं करती, पर उसे सुसमाचार फैलाना पसंद है और कुछ परिणाम भी पा सकती है। अभी सुसमाचार फैलाने का महत्वपूर्ण समय है, अगर मैं फैंग लिंग की सुसमाचार फैलाने की क्षमता का हवाला देकर उसे कलीसिया में रहने दूँ तो क्या वह निकाले जाने से बच नहीं जाएगी? इस तरह, मैं फैंग लिंग को नाराज भी नहीं करूँगी, और मेरे भाई-भाभी, और बहनें मुझे एहसान फरामोश भी नहीं कहेंगी, और एक एहसान फरामोश बहन के रूप में बदनाम भी नहीं होऊँगी।” यह सोचकर मैंने उसे निकालने का कागजी काम टाल दिया।

लेकिन, जल्दी ही, कुछ बहनों ने मुझे बताया कि सुसमाचार ग्रहण करने वाले दो लोगों में अच्छी काबिलियत और परमेश्वर के वचनों की अच्छी समझ थी, पर फैंग लिंग उनसे इतनी बुरी मानवता के साथ पेश आई कि सुसमाचार ग्रहण करने वाले दोनों लोगों ने निराश होकर उपदेश सुनना बंद कर दिया। दूसरी बहन ने बताया कि फैंग लिंग कलीसियाई जीवन में रुकावट डाल रही थी, कुछ लोग उसके साथ सुसमाचार फैलाना नहीं चाहते थे...। ये सब सुनकर मैं अवाक रह गई। फैंग लिंग का सुसमाचार के कार्य में रुकावट डालने का सीधा संबंध मेरे फैसले से था! मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप कर अपने पाप कुबूल लिए। उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कुछ लोग ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति अपने रवैये में अत्यधिक लापरवाह होते हैं। उनका मानना है, ‘ऊपरवाला कार्य व्यवस्था बनाता है, और कलीसिया में हम कार्य करते हैं। कुछ वचनों और मामलों को लागू करने में ढिलाई बरती जा सकती है। विशेष रूप से, उन्हें करना कैसे है यह हम पर निर्भर करता है। ऊपरवाला सिर्फ बोलता है और कार्य-व्यवस्थाएँ बनाता है; व्यावहारिक कार्रवाई करने वाले तो हम ही हैं। इसलिए, एक बार जब ऊपरवाले ने कार्य हमें सौंप दिया उसके बाद इसे हम जैसे चाहें वैसे कर सकते हैं। यह कैसे भी हो जाए, ठीक है। किसी को भी इसमें दखलअंदाजी का अधिकार नहीं है।’ वे जिन सिद्धांतों पर कार्य करते हैं वे इस प्रकार हैं : वे वही सुनते हैं जिसे वे सही मानते हैं और जिसे वे गलत मानते हैं उसे नजरअंदाज कर देते हैं, वे अपनी मान्यताओं को ही सत्य और सिद्धांत मानकर चलते हैं, वे हर उस चीज का विरोध करते हैं जो उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं है, और वे उन चीजों को लेकर तुम्हारे सख्त विरोधी हैं। जब ऊपरवाले के वचन उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होते हैं, तो वे आगे बढ़कर उन्हें बदल देते हैं, और उन्हें नीचे के लोगों को तभी बताते हैं जब वे वचन उनकी सहमति के अनुरूप होते हैं। अपनी सहमति के बिना, वे उन्हें नीचे के लोगों को उन्हें जानने की अनुमति नहीं देते हैं। हालांकि अन्य क्षेत्रों में ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं को वे जैसी हैं वैसी ही नीचे बता दी जाती हैं, जबकि ये लोग उन कलीसियाओं में जिनका प्रभार उनके पास है, कार्य व्यवस्थाओं के अपने संशोधित संस्करणों को भेजते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर को हमेशा हाशिए पर रखना चाहते हैं; वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि हर कोई उन पर विश्वास करे, उनका अनुसरण करे, और उनकी बात माने। उनके मन में, कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें परमेश्वर उनके बराबर नहीं है—उन्हें स्वयं परमेश्वर होना चाहिए, और दूसरों को उन पर विश्वास करना चाहिए। यही इसकी प्रकृति है। ... वे पूरी तरह से शैतान के नौकर हैं, और जब वे काम करते हैं तो दानव ही शासन करता है। वे परमेश्वर की प्रबंधन योजना को क्षति पहुँचाते हैं और परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालते हैं। वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन मेरे दिल में चुभ गए, और इनसे उजागर हो गया कि कैसे मैंने कार्य व्यवस्थाएँ लागू न कर अपनी मर्जी से काम किया। कार्य व्यवस्थाओं में यह स्पष्ट था कि अगुआओं और कर्मियों को ऐसे व्यक्ति को तुरंत निकाल देना चाहिए जो कुकर्मी, गैर-विश्वासी या मसीह-विरोधी के रूप में उजागर हुआ है। अगुआ होने के नाते, मुझे बेशर्त समर्पण कर निर्देशों का पालन करना चाहिए, फौरन दृढ़ होकर सभी मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और गैर-विश्वासियों को कलीसिया से निकाल देना चाहिए, ताकि मेरे भाई-बहनों को धोखे या रुकावट का सामना न करना पड़े और वे एक शांत माहौल में परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने का आनंद ले सकें। मगर यह जानते हुए भी कि फैंग लिंग गैर-विश्वासी थी, मुझे डर था कि उसे निकालने के दस्तावेज तैयार करके मैं उसे नाराज कर दूँगी और मुझे एहसान फरामोश कहा जाएगा, क्योंकि उसने पहले मेरी मदद की थी, इसलिए मैं कार्य व्यवस्थाओं के अनुरूप नहीं चल पाई और आवेग में आकर इस आधार पर उसका बचाव किया कि वह सुसमाचार फैला सकती है, मैं कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध चली गई। मैंने आत्मचिंतन किया : “मुझे स्पष्ट पता था कि फैंग लिंग को गैर-विश्वासी के रूप में उजागर किया जा चुका है, फिर भी मैंने अपने लगाव के चलते उसे क्यों बचाया और उसे दोष मुक्त करने की कोशिश की?” मुझे एहसास हुआ कि एहसान का बदला चुकाने का यह परंपरागत विचार मुझे नियंत्रित और बाधित कर रहा था। अपनी छवि बनाए रखने के लिए, और एहसान फरामोश नहीं दिखने के लिए, मैंने कलीसिया के हितों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया, यह भी नहीं सोचा कि फैंग लिंग को कलीसिया में रहने देने का क्या परिणाम होगा, और खुलेआम कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन किया। मैंने न सिर्फ फैंग लिंग को निकालने के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं बनाए, बल्कि उसे सुसमाचार फैलाने का कार्य भी सौंप दिया। उसकी मानवता इतनी बुरी थी कि सुसमाचार ग्रहण करने आए दोनों लोग जाँच-पड़ताल जारी रखना ही नहीं चाहते थे। यह सब मेरा उसे बचाने का नतीजा था। मैं कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन करके अपने मर्जी से चल रही थी, कलीसिया के स्वच्छ बनाने के कार्य में रुकावट डाल रही थी। मैंने अपने अधिकार का इस्तेमाल ऐसी गैर-विश्वासी को बचाने के लिए किया जो कलीसिया में कुकर्म कर रही थी, एक कुकर्मी को कुकर्म करने और शैतान की सेविका के रूप में काम करने की जगह दी। मैं एक झूठी अगुआ की स्पष्ट परिभाषा थी। जब मुझे एहसास हुआ मैंने इतना बड़ा कुकर्म किया है तो मैं डर गई, मुझे बहुत पछतावा था। मैंने फौरन सबसे फैंग लिंग के बारे में अपनी राय देने को कहा। सभी मूल्यांकनों को पढ़कर, मैंने देखा कि उसने न सिर्फ सुसमाचार के कार्य में नकारात्मक प्रभाव डाला था, बल्कि कलीसिया में कलह के बीज बोकर उसे क्षति पहुँचाई, नकारात्मकता फैलाई, लोगों का गलत फायदा उठाया, और दूसरों की चीजें हथियाने की कोशिश की, जबकि उसके पास खुद किसी चीज की कमी नहीं थी। ये सभी मूल्यांकन पढ़कर मुझे बहुत अपराध बोध हुआ और मैं जान गई कि फैंग लिंग को बचाकर मैंने कुकर्म किया। मैं जानती थी मुझे अपने लगाव के आधार पर काम करना छोड़कर फैंग लिंग को निकालने के सभी दस्तावेज तैयार करने होंगे। बाद में, जब मुझे भाई-बहनों से हस्ताक्षर लेने थे, तो मैं फिर से चिंता करने लगी : मुझे अपने कई रिश्तेदारों के हस्ताक्षर लेने होंगे, और क्योंकि हमने अभी ही लियु हुई को निकाला था और अब फैंग लिंग को निकालने की बारी थी, तो क्या वे एहसान फरामोश कहकर मेरी अनदेखी करेंगे?

मैंने अपनी स्थिति के बारे में जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, और फिर परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनसे मुँह मोड़ लो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए। ... कहने का अर्थ यह है कि यदि मनुष्य अपने हृदय में परमेश्वर को रखने में सक्षम हैं और वे व्यक्तिगत लाभ नहीं खोजते या अपनी संभावनाओं पर विचार नहीं करते (देह-सुख के अर्थ में), बल्कि जीवन प्रवेश का बोझ उठाने के बजाय सत्य का अनुसरण करने की पूरी कोशिश करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होते हैं—अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो जिन लक्ष्यों का तुम अनुसरण करते हो, वे सही होंगे, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। परमेश्वर के साथ अपना संबंध सही करना व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा में प्रवेश करने का पहला कदम कहा जा सकता है। यद्यपि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है और वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और मनुष्य द्वारा उसे बदला नहीं जा सकता, फिर भी तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हो या नहीं अथवा तुम परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जा सकते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है या नहीं। तुम्हारे कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं, जो कमज़ोर या अवज्ञाकारी हों—परंतु जब तक तुम्हारे विचार और तुम्हारे इरादे सही हैं, और जब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सही और सामान्य है, तब तक तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य हो। यदि तुम्हारा परमेश्वर के साथ सही संबंध नहीं है, और तुम देह के लिए या अपने परिवार के लिए कार्य करते हो, तो चाहे तुम जितनी भी मेहनत करो, यह व्यर्थ ही होगा। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, तो बाकी सब चीजें भी ठीक हो जाएँगी। परमेश्वर कुछ और नहीं देखता, केवल यह देखता है कि क्या परमेश्वर में विश्वास करते हुए तुम्हारे विचार सही हैं : तुम किस पर विश्वास करते हो, किसके लिए विश्वास करते हो, और क्यों विश्वास करते हो। यदि तुम इन बातों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और अच्छी तरह से अपने विचारों के साथ अभ्यास करते हो, तो तुम अपने जीवन में उन्नति करोगे, और तुम्हें सही मार्ग पर प्रवेश की गारंटी भी दी जाएगी। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य नहीं है, और परमेश्वर में विश्वास के तुम्हारे विचार विकृत हैं, तो बाकी सब-कुछ बेकार है; तुम कितना भी दृढ़ विश्वास क्यों न करो, तुम कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर एहसास हुआ कि लोगों के साथ सामान्य रिश्ता बनाए रखने के लिए, मुझे पहले परमेश्वर के साथ सामान्य रिश्ता बनाना होगा। मुझे हमेशा परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करके अपने क्रियाकलापों को उसके समक्ष लाना चाहिए। अगर लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार काम करें, अपनी इज्जत, रुतबे और दैहिक फायदों की खातिर दूसरों के साथ रिश्ता बनाए रखें, तो परमेश्वर को यह नहीं पसंद, और वे रिश्ते बनाए रखने की कितनी भी कोशिश करें, कोई फायदा नहीं होगा। जब से फैंग लिंग को गैर-विश्वासी घोषित किया गया, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के आगे बेबस थी, डरती थी कि अगर उसे निकाला गया तो वह मुझे एहसान फरामोश समझेगी, और मेरा परिवार भी मुझे कृतघ्न समझकर अकेला छोड़ देगा और त्याग देगा। तो, उनकी नजरों में अपनी छवि बनाए रखने के लिए, मैं सिद्धांतों के अनुसार काम करने से बचती रही। मुझे एहसास हुआ कि दूसरों की नजरों में मैं कितनी भी अच्छी दिखूँ, वे मुझे कितनी भी महान समझें, सब बेकार है, क्योंकि परमेश्वर इसकी सराहना नहीं करता। मैं रिश्ते बनाए रखने के लिए कलीसिया के हित को नुकसान पहुँचा रही थी; इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची। एक विश्वासी होने के कारण मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य कर हर चीज में उसकी जाँच स्वीकारनी चाहिए। मुझे रिश्ते बनाए रखने के लिए कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन बंद करना होगा, परमेश्वर का प्रतिरोध बंद करना होगा, और रिश्तेदारों का रवैया चाहे जैसा भी हो, भले ही वे मुझे त्याग दें या नजरंदाज करें, मुझे सत्य का अभ्यास करके फैंग लिंग को उजागर करना होगा। फैंग लिंग एक गैर-विश्वासी थी, और अक्सर कलीसियाई जीवन में रुकावट डालती थी। उसकी गलती के कारण ही उसे निकाला जा रहा था, कोई और इसका दोषी नहीं है। मेरे भाई-भाभी और मेरी बहनें विश्वासी थीं, मुझे बस उनके साथ सत्य पर संगति करने और चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालने पर ध्यान देना चाहिए। बाद में, जब मैंने उन्हें फैंग लिंग के बर्ताव का एक विवरण पढ़कर सुनाया, तो उन्होंने मुझे दोषी नहीं ठहराया, और कहा कि उसे निकालना सही है, उसे कलीसिया में रहने देना परमेश्वर के नाम का अपमान होगा। मेरे भाई-भाभी ने फैंग लिंग के कुछ अविश्वासी वाले व्यवहार भी मुझे बताए। मैंने इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद किया, और महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करके कितनी खुशी और शांति मिलती है।

जल्दी ही, मुझे फैंग लिंग को निकाले जाने का नोटिस मिल गया। मगर उसे यह नोटिस सुनाने के बारे में सोचकर मैं फिर से हिचकिचाने लगी। मैंने दस्तावेज खुद तैयार किये थे; फैंग लिंग जरूर मुझसे नफरत करेगी! फिर हम बातचीत कैसे करेंगे? वह पहले से ही निकाले जाने को लेकर काफी परेशान थी; क्या उसे नोटिस पढ़कर सुनाना घाव पर नमक छिड़कने जैसा नहीं होगा? मैंने सोचा कि शायद मैं उसे नोटिस पढ़कर न सुनाऊँ, उसके छोटे-मोटे कुकर्म बताकर, कह दूँगी कि उसे निकाल दिया गया है। इस तरह अगर हम फिर कभी मिले तो हमारे बीच चीजें अजीब नहीं होंगी। जब मैं फैंग लिंग से मिली, तो देखा कि निकाले जाने की चिंता में घुलकर उसका वजन बहुत घट चुका था। वह बहुत दुखी लग रही थी। मुझे बहुत बुरा लगा और आगे नहीं बढ़ना चाहती थी, पर मैंने खुद को नोटिस पढ़ने के लिए मजबूर किया। मुझे उसे पूरा नोटिस पढ़कर सुनाने और इस बात की चिंता थी कि वह उसे स्वीकारेगी भी या नहीं। तो, मैंने उसे उजागर करने और उसकी निंदा करने वाली बातें नहीं पढ़ी। उसके बाद, मैं जब भी उसे देखती, तो हमेशा थोड़ा अजीब महसूस करती, जैसे मैंने उसके साथ गलत किया हो। पता नहीं मुझे क्या हो गया था। मुझे बखूबी पता था कि फैंग लिंग सत्य का अनुसरण न कर तमाम मुसीबतें खड़ी करती थी, वह अपनी गलतियों के कारण निकाली गई थी, तो फिर मैं इस दशा में क्यों चली गई? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा ‘शुक्रिया’ कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, ‘यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।’ अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “प्राचीन समय से लेकर आज तक अनगिनत लोग दयालुता का बदला चुकाने के संबंध में नैतिक आचरण के इस विचार, दृष्टिकोण और कसौटी से प्रभावित हुए हैं। यहाँ तक कि जब उन पर दया दिखाने वाला व्यक्ति दुष्ट या बुरा इंसान हो और उन्हें घृणित कृत्य और बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता हो, तब भी वे अपने जमीर और विवेक के खिलाफ जाकर उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए बिना सोचे-विचारे उसकी बात मानते हैं, जिसके विध्वंसक परिणाम होते हैं। यह कहा जा सकता है कि बहुत से लोग, नैतिक आचरण की इस कसौटी से बाधित, बेबस और बंधे होने के कारण बिना सोचे-विचारे और गलती से दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं, और बुरे लोगों की मदद और सहयोग तक कर सकते हैं। अब जबकि तुम लोगों ने मेरी संगति सुन ली है, तुम्हारे पास इन हालात की साफ तस्वीर मौजूद है और तुम तय कर सकते हो कि यह मूर्खतापूर्ण वफादारी है, और ऐसा व्यवहार कोई सीमा तय किए बिना आचरण करना और बिना किसी समझदारी के बेपरवाही से दयालुता का बदला चुकाना कहलाता है, और इसमें अर्थ और मूल्य का सर्वथा अभाव होता है। चूँकि लोग जनमत के जरिए तिरस्कृत या दूसरों के द्वारा निंदित होने से डरते हैं, इसलिए वे न चाहकर भी दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, जो चीजों से निपटने का एक बेतुका और मूर्खतापूर्ण तरीका है। पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत ने केवल लोगों की सोच को ही बाधित नहीं किया है, बल्कि उनके जीवन पर एक अनावश्यक भार और असुविधा का बोझ डाल दिया है, और उनके परिवारों को अतिरिक्त पीड़ा और बोझ तले दबा दिया है। बहुत से लोगों ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी कीमतें चुकाई हैं—वे दयालुता का बदला चुकाने को एक सामाजिक जिम्मेदारी या अपना कर्तव्य मानते हैं, और बहुत से लोगों ने तो दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, यह ऐसा कर्तव्य है जिससे बचा नहीं जा सकता है। क्या यह दृष्टिकोण और चीजों को करने का तरीका मूर्खतापूर्ण और बेतुका नहीं है? इससे साफ पता चलता है कि लोग कितने अज्ञानी और अबोध हैं। किसी भी स्थिति में, नैतिक आचरण की यह कहावत कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, भले ही लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप भी नहीं है और यह चीजों को करने का गलत दृष्टिकोण और तरीका है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन सारी बातों का खुलासा करते हैं। प्राचीन काल से ही, लोगों की मानवता की सबसे अच्छी माप यह रही है कि उन्होंने दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाया है या नहीं। अगर किसी ने तुम्हारी मदद की या तुम पर दया दिखाई, तो तुम्हें उसकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम एक अच्छे इंसान हो; और नहीं किया, तो तुम्हें त्याग दिया जाएगा, लोग तुम्हें एहसान फरामोश बताकर निकाल देंगे। दूसरे की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के इस विचार से प्रभावित होकर, लोग अनजाने में अपना जीवन बेड़ियों और बंधनों में बाँध लेते हैं। अगर किसी ने तुम्हारी मदद की थी, तो तुम्हें उसका बदला चुकाना चाहिए, तुम्हें यह पहचानने की जरूरत नहीं कि वह कैसा व्यक्ति है या किस मार्ग पर चलता है, और क्या उसका बदला चुकाना सत्य के अनुरूप है भी या नहीं। दयालुता का बदला चुकाने की इस जरूरत के कारण कुछ लोग पूरा जीवन दूसरों के आगे बेबस होकर जीते हैं, और कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो दूसरों के लिए बुरे काम करते हैं, दयालुता का बदला चुकाने के नाम पर उनका इस्तेमाल होता है, वे दुख और पीड़ा का जीवन जीते हैं। बचपन से ही, मेरी माँ ने मुझे दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना सिखाया था, बताया था कि हमें कभी भी दूसरों से मिली मदद को भूलना नहीं चाहिए, जिससे लोगों को निजी तौर पर हमें बुरा-भला कहने का मौका मिल सकता है। मेरे जीवन में भी ज्यादातर लोग आचरण की इस कसौटी से ही दूसरों के व्यवहार का मूल्यांकन करते हैं। मैं भी पीढ़ियों से चली आ रही इन कहावतों के अनुसार जी रही थी, जैसे कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “जो तुम्हें मिला है उसका दस गुणा लौटाओ,” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए।” अगर कोई मेरी मदद करता, तो मैं हमेशा याद रखती और उसकी मदद का बदला चुकाने के मौके ढूँढती थी। अगर मैं किसी की दयालुता का बदला नहीं चुका पाती, तो मुझे बुरा लगता, मैं परेशान हो जाती, और उसका सामना करने में शर्मिंदा होती। मुझे फिक्र थी कि लोग मुझे एहसान फरामोश कहेंगे। क्योंकि फैंग लिंग ने पहले मेरी मदद की थी, भले ही मैंने पहचान लिया कि वह गैर-विश्वासी है, मुझे चिंता थी कि अगर मैंने सिद्धांतों के अनुसार उसे कलीसिया से निकाल दिया तो मेरी कड़ी निंदा होगी, तो मैंने उसका बचाव करने की कोशिश की, ताकि उसकी दयालुता का बदला चुका सकूँ। जब मुझे भाई-बहनों को फैंग लिंग के कुकर्म का विवरण पढ़कर सुनाना था, तो मैं चिंतित थी कि वे मुझे एहसान फरामोश कहेंगे और इसलिए मैं उनका सामना करने से डर रही थी। जब मुझे फैंग लिंग को निकाले जाने का नोटिस पढ़कर सुनाना था, और मैंने देखा कि वह कितनी पीली पड़ गई थी, तो मैं खुद को दोषी महसूस करने लगी और मैंने बस उसके कुकर्मों का विवरण पढ़ना ही चुना। फैंग लिंग के निकाले जाने के बाद, मैंने उसका सामना करने की हिम्मत नहीं की। मैं जानती थी कि वह सत्य का अनुसरण नहीं करती, सही मार्ग पर नहीं चलती और उसे निकाल दिया गया था, पर मुझे हमेशा लगता कि मैंने उसके साथ गलत किया। उसने मेरी जो मदद की थी वह मेरे शरीर पर बेड़ियों जैसा बँध गया था जिससे मेरा दम घुटने लगा था। मैंने देखा कि कैसे इस परंपरागत विचार से बँधे होकर, मैं सही-गलत की पहचान तक नहीं कर पाई, सत्य का अभ्यास करने का तो सवाल ही नहीं था। अपनी इज्जत बनाए रखने के लिए, और दूसरों से एहसान फरामोश नहीं कहलाने के लिए, मैंने अच्छे-बुरे में अंतर किए बिना और बिना सोचे-समझे उसकी दयालुता का बदला चुकाया। मैंने सिद्धांत या आधार-रेखा के अनुसार जरा भी आचरण नहीं किया, और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध किया। मुझे एहसास हुआ कि लोग चाहे कैसे भी मेरे बर्ताव का बचाव करें, मेरी प्रशंसा करें और सराहें, मैं कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचा रही थी, जिससे एक विश्वासी के रूप में मुझ पर अमिट कलंक लग गया था। इसके परिणाम बेहद गंभीर थे! इस अनुभव से मैंने देखा कि परंपरागत संस्कृति वह साधन है जिससे शैतान लोगों को बहकाता और भ्रष्ट करता है। इस गलत विचार से बँधकर, मैं सत्य को स्पष्ट समझने के बाद भी उसका अभ्यास नहीं कर पा रही थी, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध कर रही थी। अब मैं शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जीना चाहती थी।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘दयालुता’ शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार ‘दयालुता’ क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग ‘दयालुता’ के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “आओ अब हम अपना ध्यान मनुष्य की तथाकथित दयालुता के विषय की तरफ मोड़ें। उदाहरण के लिए, एक ऐसे दयालु व्यक्ति को लो जो बाहर बर्फ में भूख के कारण गिर पड़े भिखारी को बचाता है। वह भिखारी को अपने घर ले जाता है, उसे खाना-कपड़ा देता है, और अपने परिवार के बीच रहने और अपने लिए काम करने देता है। भिखारी ने चाहे अपनी मर्जी से उसके लिए काम करने का विकल्प चुना हो या दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए ऐसा किया हो, क्या उसे बचाना दयालुता का कृत्य था? (नहीं।) यहाँ तक कि छोटे जानवर भी मदद करने और एक दूसरे को बचाने में सक्षम हैं। ऐसे कर्म करने के लिए मनुष्य को बस थोड़ी-सी कोशिश करनी पड़ती है और मानवता वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे काम करने में कामयाब रहता है। कहा जा सकता है कि ऐसे कर्म सामाजिक जिम्मेदारी और दायित्व हैं जो मानवता संपन्न किसी भी व्यक्ति को पूरे करने चाहिए। क्या मनुष्य का इसे दयालुता कहना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात नहीं है? क्या यह सही चरित्र-चित्रण है? उदाहरण के लिए, अकाल के दौरान जब बहुत से लोग भूखे होते हैं, अगर कोई अमीर व्यक्ति गरीब परिवारों की मदद करने के लिए चावल की बोरियाँ बाँटता है ताकि वे इस मुश्किल दौर का सामना कर सकें, तो क्या यह सिर्फ बुनियादी नैतिक सहायता और सहयोग का एक उदाहरण नहीं है जो लोगों के बीच दिखना चाहिए? उसने लोगों को बस थोड़ा-सा चावल दिया—ऐसा नहीं है कि अपना सारा भोजन दूसरों को देकर वह खुद भूखा रह गया। क्या इसे वाकई दयालुता माना जाएगा? (नहीं।) वे सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व जो मनुष्य पूरा करने में सक्षम है, ऐसे कर्म जो मनुष्य अंतःप्रेरणा से करने में सक्षम होगा और जो उसे करने चाहिए, और सेवा के सामान्य कृत्य जो दूसरों के लिए मददगार और लाभकारी हैं—इन चीजों को किसी भी तरह से दयालुता नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सभी ऐसे मामले हैं जहाँ मनुष्य बस मदद का हाथ बढ़ा रहा है। किसी जरूरतमंद व्यक्ति की सही समय और स्थान पर मदद करना एक बहुत ही सामान्य घटना है। यह मानवजाति के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी भी है। यह बस एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने लोगों को सृजित करते समय ऐसी अंतःप्रेरणाएँ दी थीं। मैं यहाँ किन अंतःप्रेरणाओं की बात कर रहा हूँ? मैं मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक की बात कर रहा हूँ(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे “दयालुता का बदला चुकाने” में “दयालुता” की नई समझ मिली, जिससे मैं हमेशा बँधी रहती थी। जब कोई मुश्किल हालात में हो, तो उसे उबारने के लिए मदद का हाथ बढ़ाना और संभव जितना हो सके उसका साथ देना एक सामाजिक जिम्मेदारी है जो सभी को निभानी चाहिए, और यह वास्तव में दयालुता नहीं है। जैसे, जब फैंग लिंग ने मेरे लकवाग्रस्त पति की देखरेख में मदद की, मुश्किल हालात में हमारी फसलों का ख्याल रखा, यह बस सामान्य मानवीय रिश्ता और आपसी जन सहयोग था। फिर वह मेरे पति की बहन भी है; तो जाहिर है कि अगर उसका भाई मुश्किल हालात में होगा तो वह मदद करने की अपनी पूरी कोशिश करेगी। इसे दया दिखाना नहीं कह सकते। जब मेरे पति गुजर गए और मैं निराशा में डूब गई, तब फैंग लिंग ने मेरे साथ संगति की और मेरा साथ दिया, लेकिन साथी बहनें एक-दूसरे के लिए यही तो करती हैं, इसे दया नहीं कह सकते। अगर फैंग लिंग का परिवार संकट में होता तो मैं भी उसकी मदद करती। अगर वह नकारात्मक और कमजोर पड़ती, तो मैं उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती और उसकी मदद करती। सामान्य मानवता वाले लोगों को ऐसा ही करना चाहिए। फिर भी, मैंने फैंग लिंग के हर व्यवहार को दया दिखाना समझा, हमेशा यही सोचती रही कि उसका बदला कैसे चुकाऊँगी, मानो बिना उसकी मदद के मैं कुछ भी न कर पाती। वास्तव में, आज मैं जहाँ हूँ यह परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और मदद का नतीजा है। मेरे पति के गुजरने के बाद, सत्य की समझ न होने के कारण मुझे आगे कुछ नहीं सूझ रहा था, तब मेरी सबसे नाजुक और निराशा की घड़ी में मेरी मदद के लिए परमेश्वर ने ही तमाम चीजों, लोगों और स्थानों का आयोजन किया। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन से ही मैं अपनी मुश्किलों से निकल पाई, और आज की स्थिति तक पहुँच पाई। अब मेरे पास कोई कमी नहीं है और मैं दूसरों की तरह सामान्य जीवन जीती हूँ, परमेश्वर के वचन खाती-पीती हूँ, और अपना कर्तव्य निभाती हूँ; यह सब परमेश्वर के प्रेम का नतीजा है। अगर मेरे पास वाकई जमीर होता तो मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाना चाहिए था। इसके बजाय, मैं दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के इस गलत विचार के साथ जीती रही, हमेशा दूसरों के साथ अपने रिश्तों और लगाव को अहमियत देती रही, अगर किसी ने मुझ पर छोटा-सा भी एहसान किया तो मैं उसे कभी नहीं भूलती थी, जबकि सब कुछ देने वाले परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करती थी और दयालुता का बदला चुकाने के लिए सिद्धांत तोड़कर कलीसिया के हितों को चोट पहुँचाने से नहीं हिचकती थी। वास्तव में एहसान फरामोश और मानवता की कमी होना तो यही था। इसका एहसास होने पर, मेरा दिल काफी हल्का हो गया, मैं कितनी बुरी थी जो सत्य नहीं समझ सकी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “अतीत में किसी ने तुम्हारी मदद की थी, कुछ खास तरीकों से तुम पर दया दिखाई थी और तुम्हारे जीवन या किसी बड़ी घटना पर उसने काफी प्रभाव डाला था, मगर उसकी मानवता और जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह तुम्हारे मार्ग और जो तुम खोजते हो उसके अनुरूप नहीं है। तुम दोनों की भाषा अलग है, तुम इस व्यक्ति को पसंद नहीं करते और, शायद कुछ हद तक तुम कह सकते हो कि तुम दोनों की रुचियाँ और जिस चीज की तुम्हें तलाश है वे बिल्कुल अलग हैं। जीवन में तुम्हारे मार्ग, संसार को देखने के तुम्हारे दृष्टिकोण और जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये, सभी अलग-अलग हैं—तुम दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अलग हो। तो, अतीत में उसने तुम्हारी जो मदद की थी उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए और तुम्हें उस मदद की कीमत कैसे चुकानी चाहिए? क्या वास्तव में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है? (बिल्कुल।) तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? इस स्थिति से भी निपटना काफी आसान है। यह देखते हुए कि तुम दोनों अलग-अलग राह पर चल रहे हो, तो अपने साधनों के अनुसार तुम उसे जो भी आर्थिक प्रतिपूर्ति कर सकते हो वह करने के बाद, तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारी मान्यताएँ बहुत भिन्न हैं, तुम दोनों एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते, यहाँ तक कि दोस्त भी नहीं रह सकते और न ही मेलजोल कर सकते हो। अब जब तुम दोनों मेलजोल नहीं कर सकते, तो तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उससे दूरी बनाए रखो। मुमकिन है कि अतीत में उसने तुम पर दया दिखाई हो, लेकिन वह समाज में धोखाधड़ी और चालबाजी करता है, सभी प्रकार के घृणित कर्म करता है और तुम्हें यह व्यक्ति पसंद नहीं है, इसलिए तुम्हारा उससे दूरी बनाए रखना बिल्कुल सही है। कुछ लोग कह सकते हैं, ‘क्या इस तरह से व्यवहार करना अंतरात्मा का अभाव नहीं दर्शाता?’ यह अंतरात्मा का अभाव नहीं है—अगर उसे वाकई जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो तुम अभी भी उसकी मदद कर सकते हो, पर तुम उसके आगे बेबस नहीं हो सकते और न ही बुरे और अविवेकपूर्ण कर्मों में उसका साथ दे सकते हो। सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने तुम्हारी मदद की थी या तुम पर कोई बड़ा एहसान किया था, तो तुम्हें उसकी गुलामी करने की भी कोई जरूरत नहीं है—यह तुम्हारा दायित्व नहीं है और न ही वह ऐसे व्यवहार के लायक है। तुम उन लोगों के साथ मेलजोल करने, समय बिताने और यहाँ तक कि उनके साथ दोस्ती करने के भी हकदार हो जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनके साथ तुम्हारी बनती है, और जो सही लोग हैं। तुम इस व्यक्ति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा कर सकते हो, यह तुम्हारा अधिकार है। बेशक, तुम उन लोगों से दोस्ती करने और उनसे मेलजोल करने से इनकार भी कर सकते हो जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, और तुम्हें उनके प्रति किसी भी दायित्व या जिम्मेदारी को पूरा करने की कोई जरूरत नहीं है—यह भी तुम्हारा अधिकार है। अगर तुम इस व्यक्ति को त्यागने का फैसला करते हो और उसके साथ मेलजोल करने या उसके प्रति किसी भी जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से इनकार करते हो, तब भी यह गलत नहीं होगा। तुम्हें अपने आचरण के तरीके पर कुछ सीमाएँ निर्धारित करनी होंगी और अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग तरीकों से पेश आना होगा। तुम्हें बुरे लोगों से नहीं जुड़ना चाहिए या उनके बुरे उदाहरण पर नहीं चलना चाहिए, यही बुद्धिमानी है। कृतज्ञता, भावना और जनमत जैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित मत हो—यह एक रुख अपनाना और सिद्धांत पर चलना है, और तुम्हें यही करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों में लोगों से निपटने के सिद्धांत स्पष्ट बताए गए हैं। अगर किसी ने पहले हमारी काफी मदद की है, तो हमें उसकी मानवता की गुणवत्ता और उसके चुने मार्ग के अनुसार उससे पेश आना चाहिए। अगर वह अच्छा इंसान है और सही मार्ग पर चलता है, तो हम उससे सामान्य बातचीत कर सकते हैं, और जरूरत पड़ने पर जितना हो सके उसकी मदद कर सकते हैं। अगर हमारी मदद करने वाला व्यक्ति सही मार्ग पर नहीं चलता और अपराध करता है, तो हमें उससे मेलजोल में सावधानी बरतनी चाहिए, उसकी कथनी और करनी की प्रकृति को पहचानना चाहिए। जरूरत पड़ी तो उसे त्यागना पड़ सकता है या उससे दूरी बनानी पड़ सकती है और हमसे जितना बन पाए उसकी थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं। अगर वह परमेश्वर में विश्वास करता है पर सत्य का अनुसरण नहीं करता, अपने कर्तव्यों में लापरवाही करके परेशानी खड़ी करता है, और परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालता है, तो हमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार उसके साथ काट-छाँट करनी चाहिए। अगर वह अभी भी पश्चात्ताप नहीं करता, तो हमें सिद्धांतों पर कायम रहकर, जिन्हें चेतावनी की जरूरत है उन्हें चेतावनी देनी चाहिए और जिन्हें निकालना है उन्हें सिद्धांतों के अनुसार निकाल देना चाहिए। हमें बुराई से जुड़कर और सिद्धांतों का उल्लंघन करके शैतानी नियमों के अनुसार काम नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा कि कैसे मैं लोगों से सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार नहीं कर रही थी, मैंने लगातार अज्ञानतापूर्वक कार्य किया परंपरागत विचारों से जकड़ी रही, और अनजाने में शैतान की सेविका बन गई, जिससे कलीसियाई जीवन में बाधा आई। अगर हम अपनी आस्था में सत्य के अनुसार नहीं जिएंगे, तो कभी भी परमेश्वर का विरोध करके उसके स्वभाव का अपमान कर सकते हैं! फैंग लिंग अभी भी समय-समय पर मेरी कुछ न कुछ मदद करती है, पर परमेश्वर के वचनों से, मैंने सीख लिया है कि इस मदद को कैसे देखना है। मैं इस मदद को उसका सद्व्यवहार या दया भाव नहीं मानती, बल्कि परमेश्वर के प्रेम का प्रतीक मानती हूँ। परमेश्वर ने उसे मेरी मदद के लिए प्रेरित किया, इसलिए मुझे परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाकर उसका बदला चुकाना चाहिए।

पहले, मैं यही सोचती थी कि मुझे दयालुता का बदला चुकाकर आभार जताना चाहिए, क्योंकि अच्छे लोग ऐसा ही करते हैं। लेकिन, अपने अनुभव से, मैंने देखा कि शैतान दयालुता का बदला चुकाने के इस परंपरागत विचार का इस्तेमाल लोगों को बाँधने, उनकी सोच को सीमित रखने, सही-गलत में भेद न करने देने, सिद्धांतों के बिना काम करवाने, और उन्हें अनजाने में अपना साधन बनाने के लिए करता है। मैंने यह भी सीखा कि लोग शैतानी चीजों को चाहे जितना अच्छा मानें, ये चीजें सत्य नहीं हैं। सिर्फ परमेश्वर के वचन सत्य हैं। परमेश्वर के वचनों से हम सही-गलत में भेद करके सामान्य मानवता वाला जीवन जी पाते हैं। जब हम सत्य के अनुसार जीते हैं और परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों से पेश आते हैं, तभी हम परमेश्वर की इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं और चरित्रवान और गरिमापूर्ण जीवन जी सकते हैं। परमेश्वर के उद्धार के लिए उसका आभार!

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