27. काट-छाँट को स्वीकार करने से मुझे क्या हासिल हुआ

वायोला, इटली

मैं कलीसिया में मैंने वीडियो-कार्य का निरीक्षण कर रही थी। काम के भारी बोझ के कारण हर दिन मैं चिड़चिड़ी रहती। तरह-तरह की समस्याएँ सुलझाने और दूसरों के काम की खोज-खबर लेने में व्यस्त रहती। मुझे आराम ही न मिलता। थोड़े समय बाद, बहन जेनिफर अक्सर हमारे वीडियो पर सलाह देने और कहने लगी, ये सारी समस्याएँ हमारे कर्तव्य में हमारे प्रयास की कमी के कारण हुईं। उसके ये संदेश देखकर मेरे मन में बड़ा प्रतिरोध जागा। हम गलतियाँ कम करने की भरसक कोशिश करती थीं, और इतना काम पूरा कर पाना कुछ कम नहीं था। क्या वह मामूली मीन-मेख निकाल कर काम को घसीट नहीं रही थी? उसके सुझावों को मैंने कभी दिल से नहीं माना, सोचा, वह बेकार ही राई का पहाड़ बना कर हमारे काम में देर कर रही है। एक दिन, मैंने जेनिफर से बातचीत का वक्त तय किया। उसके मीन-मेख निकालने से हमारे काम के पिछड़ने को लेकर संगति के लिए मैंने कुछ सिद्धांत संकलित किए। मुझे हैरानी हुई, जब संगति के तुरंत बाद उसने सख्ती से कहा, “यह इस मामले के सिद्धांत का बस एक पहलू है। मैं तुम्हें याद दिला दूँ—मत सोचो कि कर्तव्य में अनमने और गैर-जिम्मेदार बर्ताव के लिए सिद्धांत का बहाना ठीक है। ये दो अलग बातें हैं। इनमें मत उलझो।” उसकी बात सुनकर, मैं कुछ नहीं बोली, मगर दिल में हलचल मची थी। मैंने सोचा, “तुम्हारा मतलब है, मैं कर्तव्य में अनमना और गैर-जिम्मेदार हूँ? जाहिर है, तुम मीन-मेख निकालकर काम को धीमा करती हो, फिर मेरी आलोचना करती हो! मामूली समस्याएँ हुईं भी तो क्या बड़ी बात है? इससे वीडियो की क्वालिटी पर बिल्कुल असर नहीं पड़ेगा, और हम जो पूरा कर चुके हैं, वह काफी बढ़िया है। तुम्हें नहीं मालूम हम पर काम का कितना बड़ा बोझ है, तुम बस मामूली मसले उठाकर मेरी यूँ काट-छाँट कर रही हो। तुम बहुत घमंडी हो!” इसके बाद मैंने जेनिफर से बातचीत करने से मना कर दिया। उसकी बताई कोई समस्या होती, तो मैं विरोधी हो जाती, और मसले हल करते समय मेरी भावनाएँ जुड़ जातीं।

इसके बाद, हर छह महीने, जेनिफर काम के मसलों के बारे में हमारे लिए टिप्पणी का सारांश लिखने लगी। एक बार, उसने यह टिप्पणी अगुआ के साथ भी साझा कर दी। यह सुनकर मैं आगबबूला हो गई और सोचने लगी, “हमने कुछ गलतियाँ की थीं, मगर हर महीने काम के इतने भारी बोझ के साथ, क्या यह सामान्य नहीं था कि छोटी-मोटी चीजें ठीक से न हो पाएँ? क्या अगुआ को बताना वाकई जरूरी था? तुम छोटी-छोटी बातों में डूबी रहती हो, तुम्हारे मानक बहुत ऊँचे हैं। क्या तुम हम भाई-बहनों को मशीन मानती हो? क्या हम कभी कोई गलती नहीं कर सकते?” मैंने जितना सोचा, उतनी ही चिढ़ हुई। जब अगुआ मुझसे बात करने आईं, तो मैंने यह कहकर सीधे जेनिफर पर दोष मढ़ दिया कि वह बेहद घमंडी थी। उसे आत्मबोध नहीं था, बस हमारी समस्याएँ दिखाती थी। यह देखकर कि मुझे आत्मबोध नहीं था, अगुआ ने संगति करते हुए कहा कि मुझे जेनिफर के साथ ठीक से पेश आना चाहिए। उन्होंने मुझे आत्मचिंतन कर सबक सीखने को कहा। मगर अगुआ की बातों पर मैंने ध्यान नहीं दिया। मैंने जेनिफर की टिप्पणी में बताए गए मसलों को हल करने से रोक दिया, और आगे से ऐसे मसलों से बचने के उपाय सोचने की कोई कोशिश नहीं की। मुझे हल्का-सा आभास था कि मैं सही स्थिति में नहीं हूँ, इसलिए मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारा था, इस मामले में सबक सीखने और आत्मबोध हासिल करने में अगुआई करने की विनती की थी।

एक दिन अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिससे अपनी हालत जानने में मुझे मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब लोग सही और गलत के बारे में बहस करने से प्रेम करते हैं, तो वे यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि हर एक बात सही है या गलत है वे तब तक नहीं रुकते जब तक कि मामला साफ नहीं हो जाता है और यह समझ नहीं आ जाता कि कौन सही था और कौन गलत, वे ऐसी बातों से ग्रस्त रहते हैं, उन बातों से ग्रस्त रहते हैं जिनका कोई जवाब नहीं है : इस तरह की हरकत का क्या मतलब है? अंततः क्या सही और गलत के बारे में बहस करना सही है? (नहीं।) गलती कहाँ है? क्या इसमें और सत्य के अभ्यास के बीच कोई संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि कोई संबंध नहीं है? सही और गलत के बारे में तर्क-वितर्क करना सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं है, यह सत्य सिद्धांतों पर चर्चा या संगति करना नहीं है; इसके बजाय, लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि कौन सही था और कौन गलत था, कौन उचित था और कौन नहीं, किसके पास उचित कारण थे और किसके पास नहीं, किसका विवेक अच्छा था, किसका बुरा, किसने अधिक समझदारी की बातें कीं और किसने नहीं कीं, किसने ज्यादा ऊंचे धर्म-सिद्धांत व्यक्त किए; वे इन्हीं चीजों का परीक्षण करते रहते हैं। परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे हमेशा परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करते हैं, वे हमेशा कोई न कोई कारण देते हैं। क्या परमेश्वर तुमसे ऐसी बातों पर चर्चा करता है? क्या परमेश्वर पूछता है कि संदर्भ क्या है? क्या परमेश्वर पूछता है कि तुम्हारे तर्क और कारण क्या हैं? वह नहीं पूछता। परमेश्वर पूछता है कि जब उसने तुम्हारी परीक्षा ली तब तुमने समर्पण का रवैया अपनाया या प्रतिरोध का। परमेश्वर पूछता है कि तुम सत्य को समझते हो या नहीं, तुम विनम्र थे या नहीं। परमेश्वर यही पूछता है, और कुछ नहीं। परमेश्वर तुमसे तुम्हारी समर्पण भाव न होने का कारण नहीं पूछता, वह यह नहीं देखता कि क्या तुम्हारे पास कोई उचित कारण था—वह ऐसी बातों पर बिल्कुल विचार नहीं करता है। परमेश्वर केवल यह देखता है कि तुम समर्पित थे या नहीं। तुम्हारे रहने के माहौल और संदर्भ की परवाह न करते हुए, परमेश्वर केवल इस बात की जाँच करता है कि क्या तुम्हारे दिल में समर्पण है या नहीं, तुम्हारा रवैया समर्पणकारी है या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे साथ सही और गलत पर बहस नहीं करता, परमेश्वर यह परवाह नहीं करता कि तुम्हारे तर्क क्या थे, परमेश्वर केवल इसकी परवाह करता है कि क्या तुम वास्तव में समर्पित थे, परमेश्वर तुमसे बस यही पूछता है। क्या यह सत्य सिद्धांच नहीं है? जिस तरह के लोग सही और गलत के बारे में बहस करना पसंद करते हैं, जिन्हें वाक्-युद्ध पसंद है—क्या उनके दिलों में सत्य सिद्धांत हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उन्होंने कभी सत्य सिद्धांतों पर ध्यान दिया है? क्या उन्होंने कभी उनका पीछा किया है? क्या उन्होंने कभी उन्हें खोजा है? उन्होंने कभी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, उनका अनुसरण नहीं किया या उनकी खोज नहीं की, और वे उनके दिलों में हैं ही नहीं। नतीजतन, वे केवल मानव धारणाओं के बीच जी सकते हैं, उनके दिलों में बस सही और गलत, ठीक और बेठीक, बहाने, कारण, सत्याभास और तर्क होते हैं, जिसके तुरंत बाद वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं, फैसले सुनाते हैं और एकदूसरे की निंदा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव यह होता है कि उन्हें सही और गलत पर बहस करना पसंद होता है, और लोगों की आलोचना और निंदा करना पसंद होता है। इस तरह के लोगों के पास सत्य के प्रति कोई प्रेम या स्वीकृति नहीं होती, यह संभव है कि वे परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करें, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में कोई फैसला सुनाएं और परमेश्वर का प्रतिरोध तक करें। अंततः उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ेगी(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैं समझ सकी कि किसी हालात में जो लोग हमेशा सही-गलत की बात करते हैं, वे पहले इसकी पूरी तरह से जाँच-पड़ताल करते हैं : कौन सही है, कौन गलत है, किसका तर्क सही है। अगर वे दूसरों को लपेटकर, घुमा-फिरा कर बोलते हैं, तो वे अपने मामले की पैरवी करने लगते हैं, दूसरों पर नजर गड़ाते हैं, उपेक्षा और विद्रोह करने वाले बन जाते हैं और सत्य खोजे बिना या अपने मसलों पर आत्मचिंतन किए बिना दूसरों पर हमले भी करते हैं। वे परमेश्वर के बनाए हालात के आगे समर्पण नहीं करते। मैंने सोचा, मैं ऐसा बर्ताव कैसे कर रही थी। जब जेनिफर ने हमारे काम में कुछ समस्याएँ बताईं, तो मैं जानती थी ये समस्याएँ मौजूद थीं, लेकिन यह सोचकर कि काम के बोझ और टाली न जा सकने वाली छोटी-छोटी समस्याओं को देखते हुए, काम में इतना कुछ हासिल करना पहले से ही बड़ी उपलब्धि थी, मैंने खुद को सही ठहराने के तर्क और बहाने ढूँढ़े। यह सोचकर कि उसकी अपेक्षाएँ काफी ऊँची थीं, और समस्याएँ मामूली थीं, अगर ये हल न भी हुईं तो कोई बात नहीं, मैंने बहन को समस्याएँ बताने से रोकने के लिए, सिद्धांत का सहारा लेकर उसका खंडन करने की भी कोशिश की। जब जेनिफर ने गैर-जिम्मेदार और अनमना कहकर मेरी आलोचना की, तो न सिर्फ मैंने उसे परमेश्वर से मिली आलोचना नहीं माना, बल्कि उसके खिलाफ भी हो गई, और सोचने लगी कि वह मीन-मेख निकाल रही थी। जब उसने सख्ती से बात की और उसकी बातों ने मेरे गौरव को ठेस पहुँचाई, तो मैंने साजिश रची ताकि अगुआ मेरा साथ दें और उसे बुरा मानें, उसके स्वभाव को घमंडी बताकर, अगुआ के सामने आलोचना भी की। अगुआ ने मेरी मदद की, तो भी मैंने उनकी बात नहीं सुनी। मैंने परमेश्वर के बनाए हालात मंजूर नहीं किए, न ही अपनी समस्याओं पर सोच-विचार किया। इसके बजाय, मैंने तर्क दिए, बहाने बनाए, कौन सही कौन गलत पर बहस की। मैंने जरा भी समर्पण का रवैया दिखाए बिना बस गर्म मिजाज दिखाया। मैं खुद को विश्वासी कैसे कह सकती थी? मैं छद्म-विश्वासी जैसी पेश आ रही थी।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे परमेश्वर के इरादे को ज्यादा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “लोग जो कुछ भी करते हैं उसका वास्ता सत्य खोजने और सत्य को व्यवहार में लाने से होता है; सत्य से जिस चीज का वास्ता होता है उसका संबंध लोगों की मानवता की गुणवत्ता और उनकी कार्यशैली के दृष्टिकोण से होता है। अधिकांशतः, लोग जब कोई काम सिद्धांतहीन तरीके से करते हैं, तो उसकी वजह यह होती है कि उन्हें उसके पीछे के सिद्धांतों की समझ नहीं होती। लेकिन बहुत बार, न केवल लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती बल्कि वे उन्हें समझना भी नहीं चाहते हैं। भले ही उन्हें सिद्धांतों की थोड़ी-बहुत जानकारी हो, फिर भी वे बेहतर नहीं करना चाहते हैं। उनके मन में यह मानक और यह अपेक्षा होती ही नहीं। इसलिए उनके लिए अच्छे से काम करना बहुत कठिन होता है, उनके लिए यह भी बड़ा मुश्किल होता है कि चीजों को इस तरह से सत्य के अनुरूप किया जाए जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपना कर्तव्य स्वीकार्य रूप से निभा पाते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनमें किस चीज के लिए ललक है, वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे सकारात्मक चीजें से प्रेम करते हैं या नहीं। अगर लोग सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता, जो बहुत परेशानी वाली बात है—भले ही वे कर्तव्य निभाते हैं, वे महज मजदूरी करते हैं। चाहे तुम्हें सत्य की समझ हो या न हो, चाहे तुम सिद्धांतों को समझ पाओ या न समझ पाओ, यदि तुम विवेक के साथ अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम कम से कम, औसत परिणाम प्राप्त कर लोगे। इससे कम स्वीकार्य नहीं है। फिर यदि तुम सत्य खोजकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम पूर्ण रूप से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर लोगे और उसके इरादों के अनुसार हो जाओगे। परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? (यही कि लोग पूरे तन-मन से अपने कर्तव्य अच्छे से निभाएँ।) ‘पूरे तन-मन से’ को कैसे समझा जाना चाहिए? अगर लोग पूरे मन से समर्पित होकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो इसका अर्थ है कि वे दिलोजान लगाकर काम कर रहे हैं। यदि वे अपनी शक्ति की एक-एक बूँद का उपयोग करते हैं, तो वे पूरे तन से जुटे हुए हैं। क्या पूरे तन-मन से काम करना आसान है? जमीर और विवेक के बिना इसे हासिल करना आसान नहीं है। अगर किसी व्यक्ति में हृदय न हो, अगर उसमें बुद्धि और विचारशक्ति की कमी हो, और समस्या आने पर वह सत्य की खोज करना न जानता हो, ऐसा करने के लिए उसके पास कोई मार्ग या साधन न हो, तो क्या वह पूरा मन समर्पित कर सकता है? बिल्कुल नहीं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर मैंने उसका इरादा समझा। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग अपने कर्तव्य में पूर्णता पाएँ, वह देखता है उन्होंने भरसक कोशिश की है या नहीं, क्या उनका रवैया अपने कर्तव्य में सुधार लाने की कोशिश का है। परमेश्वर लोगों के दिलों को परखता है। मैंने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसा। मुझे हमेशा लगता मुझ पर काम का बड़ा बोझ था, बहुत-सी बातें सोचनी, सँभालनी थीं, और काम में छोटी-मोटी समस्याएँ होना आम बात थी। कभी-कभी यह जानकर भी कि इन समस्याओं से बचा जा सकता था, मैं चीजें सुधारने की कोशिश नहीं करना चाहती थी, जिससे समस्याएँ खिंच कर अनसुलझी रह जाती थीं। मगर वास्तव में, परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं रखता कि मैं अपने कर्तव्य में कभी गलती न करूँ। वह बस मेरे अनमने और गैर-जिम्मेदार रवैए से घृणा करता है। जेनिफर समस्या बताकर उस ओर मेरा ध्यान खींच रही थी, समय रहते उसे ठीक कर अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने में मदद कर रही थी। जब मुझे इसका एहसास हो गया, तो मेरी हालत थोड़ी सुधर गई। इसके बाद, मैंने दूसरों के साथ संगति कर उन्हें सारांश बताया और बदलने का तरीका सोचा। अगली बार जब किसी ने मुझे समस्या बताई, तो मैं उस बारे में इतनी प्रतिरोधी नहीं रही और अनमने ढंग से काम नहीं किया, बल्कि मैं सबके साथ मिलकर उसे ठीक कर देती।

बाद में मैंने आत्मचिंतन किया। मैं जेनिफर के सुझावों का इतना विरोध क्यों कर रही थी? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, और थोड़ा आत्मबोध पाया। परमेश्वर कहता है : “काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिल्कुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से विमुख हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक विमुख रहते हैं। चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी अड़ियल बनकर उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह पर्याप्त रूप से साबित करता है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे ‘मरने तक नकारते रहो’ के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे उन्हें कैसे भी उजागर करें या उनका कैसे भी गहन-विश्लेषण करें, वे इसे नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने रुतबे, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और गैर-जिम्मेदारी का रवैया होता है। उनमें अंतःकरण और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई ग्लानि महसूस नहीं होती और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और विवेक का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? सारतः, मसीह-विरोधी लोग दानव हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी सत्य नहीं स्वीकारते। वे सत्य से विमुख होते हैं, उनकी प्रकृति सत्य से घृणा की होती है। काट-छाँट करने और उजागर होने पर, वे बहाने बनाने में जुट जाते हैं, काम को गंभीर नुकसान पहुँचाने के बावजूद उन्हें कोई पछतावा नहीं होता। वे अपनी गलतियाँ भी नहीं मान सकते, खास तौर से कट्टर होते हैं। परमेश्वर के वचनों पर खुद को जाँचने के बाद, मैंने आत्मचिंतन किया। जाहिर था, मैं कर्तव्य में अनमनी थी, बहुत-सी चूक और समस्याएँ थीं, मगर मैंने जरा भी दोषी या पछतावा महसूस नहीं किया। काट-छाँट का सामना होने और याद दिलाए जाने पर, मैं इसे स्वीकारती नहीं थी। हमेशा खुद को सही बताने और इसे झटक देने के तर्क ढूँढ़ लेती थी। मैं अपनी गलतियाँ मानने को तैयार नहीं थी। लगता, गलतियाँ मानने से मैं बुरी लगूँगी, मेरी शोहरत, रुतबे और छवि को हानि होगी, और लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे। मैं बिल्कुल बेसमझ थी। मैं सत्य से विमुख होने का स्वभाव दिखा रही थी। दूसरों ने मुझे अपने कर्तव्य की खामियाँ देखने में मदद के सुझाव दिए, ताकि मैं समय रहते समस्याएँ दूर कर सकूँ और बेहतर ढंग से कर्तव्य निभा सकूँ। लेकिन मैंने इसे कभी परमेश्वर से ग्रहण नहीं किया, न ही आत्मचिंतन किया। इसलिए अपने कर्तव्य में अनमना होने का मसला कभी ठीक नहीं हो सका, और मैंने सुपरवाइजर की अपनी भूमिका कभी पूरी नहीं की, इससे दूसरे भी अपने कर्तव्य में अनमने रहे, और अक्सर गलतियाँ भी करते रहे। इस मुकाम पर, आखिर मैंने देखा कि सत्य से विमुख होने का यह शैतानी स्वभाव ठीक न होने से, मेरे लिए सत्य और दूसरों के सुझाव स्वीकारना मुश्किल हो गया था। अगर मैंने प्रायश्चित न किया, इस भ्रष्ट स्वभाव को ठीक न किया, तो मेरे कर्तव्य में समस्याएँ और भूल-चूक बढ़ जाएँगी, आखिरकार मैं दुष्टता करूँगी, परमेश्वर का विरोध करूँगी, और वह मुझसे घृणा कर मुझे हटा देगा। इसके एहसास से मैं बेचैन होने लगी, मैंने प्रायश्चित के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, अब से अपने कर्तव्य में सत्य पर अमल करने और भ्रष्टता में न जीने को तैयार हो गई।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसमें मुझे सत्य से विमुख होने का स्वभाव ठीक करने का मार्ग मिल गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से विमुख और घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से विमुख नहीं है—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। जब भाई-बहन मुझे सुझाव दें या मेरी काट-छाँट करें, तो पहले मेरा रवैया स्वीकृति और आज्ञाकारिता का होना चाहिए। यह करना न आए, तो मुझे उसे नापसंद या उसका विरोध नहीं करना चाहिए, बल्कि पहले इसे मान लेना चाहिए, फिर सत्य समझने वाले किसी इंसान से संगति मांगनी चाहिए, फिर सिद्धांतों की पकड़ मिल जाने पर इस पर अमल करना चाहिए। यही है परमेश्वर के इरादे के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना। मैंने सोचा, जब दूसरे मेरे काम की समस्याएँ और कमियाँ देखें और मुझे बताएँ, मुझे सुझाव दें और मेरी काट-छाँट करें, तो कलीसिया के कार्य के लिए वे ही पूरी जिम्मेदारी उठा रहे हैं, मुझे निशाना नहीं बना रहे हैं, या मेरे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहे हैं। मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार कर, आज्ञाकारी बनना चाहिए, अपनी समस्याओं पर सोच-विचार करना चाहिए, और समय रहते बदलकर उन्हें ठीक करना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा करके अपने काम में सुधार करने, और भ्रष्ट स्वभाव को कलीसिया के कार्य में बाधा न बनने देने का यही एकमात्र तरीका है।

एक दिन, जेनिफर ने संदेश भेजकर हमारे वीडियो की कुछ समस्याएँ बताईं। संदेश देखकर पल भर को मन में विरोध जागा। दूसरों के साथ इन मसलों पर चर्चा कर मैं समाधान कर चुकी थी। वह फिर से इन्हें क्यों उठा रही थी? मैं अपने बचाव में कुछ कहना चाहती थी, मगर जब मैंने रुककर थोड़ा सोचा, तो लगा, उसने कहा है, तो काम में अभी भी चूक या कमियाँ जरूर होंगी। फिर मैंने आगे बढ़कर जेनिफर से इस बारे में पूछा। गहराई से समझकर, आखिर मुझे एहसास हुआ कि मैंने भाई-बहनों के साथ इन मसलों पर सिर्फ चर्चा की थी, लेकिन बाद में समय पर उनके काम की खोज-खबर नहीं ली थी, इसलिए ये समस्याएँ पूरी तरह से हल नहीं हुईं। मुझे यह भी एहसास हुआ कि काम के प्रति मैं सक्रिय और जिम्मेदार नहीं थी, बल्कि निष्क्रिय रहकर प्रतीक्षा करती थी कि दूसरे समस्याएं बताएँ और तब मैं उन्हें हल करूं। मैंने आगे बढ़कर दूसरों से पूछा कि वीडियो में अब भी कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं, और फिर संगति कर उन्हें समय पर ठीक कर लिया। कुछ समय बाद स्पष्ट हो गया कि समस्याएँ बहुत ही कम हो गई थीं, तो मुझे अपने कर्तव्य में सुकून और राहत मिली। मुझे यह भी महसूस हुआ कि सिर्फ दूसरों के सुझाव लेकर, सत्य खोजकर और समस्याएँ सुलझा कर ही अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकती हूँ। परमेश्वर को धन्यवाद!

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