27. काट-छाँट और निपटान से मुझे क्या हासिल हुआ

नवंबर 2018 में, मैंने वीडियो कार्य की देखरेख शुरू की। काम के भारी बोझ के कारण हर दिन मैं चिड़चिड़ी रहती। तरह-तरह की समस्याएँ सुलझाने और दूसरों के काम की खोज-खबर लेने में व्यस्त रहती। मुझे आराम ही न मिलता। थोड़े समय बाद, बहन लियू अक्सर हमारे वीडियो पर सलाह देने और कहने लगी, ये सारी समस्याएँ प्रयास की कमी के कारण हुईं। उसके ये संदेश देखकर मेरे मन में बड़ा प्रतिरोध जागा। हम गलतियाँ कम करने की भरसक कोशिश करती थीं, और इतना काम पूरा कर पाना कुछ कम नहीं था। क्या वह मामूली मीन-मेख निकाल कर काम को घसीट नहीं रही थी? उसके सुझावों को मैंने कभी दिल से नहीं माना, सोचा, वह बेकार ही राई का पहाड़ बना कर हमारे काम में देर कर रही है। एक दिन, मैंने बहन लियू से बातचीत का वक्त तय किया। उसके मीन-मेख निकालने से हमारे काम के पिछड़ने को लेकर संगति के लिए मैंने कुछ सिद्धांत संकलित किए। मुझे हैरानी हुई, जब संगति के तुरंत बाद उसने सख्ती से कहा, "यह इस मामले के सिद्धांत का बस एक पहलू है। मैं तुम्हें याद दिला दूँ—मत सोचो कि कर्तव्य में बेपरवाह और गैर-जिम्मेदार बर्ताव के लिए सिद्धांत का बहाना ठीक है। ये दो अलग बातें हैं। इनमें मत उलझो।" उसकी बात सुनकर, मैं कुछ नहीं बोली, मगर दिल में हलचल मची थी। मैंने सोचा, "तुम्हारा मतलब है, मैं कर्तव्य में बेपरवाह और गैर-जिम्मेदार हूँ? जाहिर है, तुम मीन-मेख निकालकर काम को धीमा करती हो, फिर मेरी आलोचना करती हो! मामूली समस्याएँ हुईं भी तो क्या बड़ी बात है? इससे वीडियो की क्वालिटी पर बिल्कुल असर नहीं पड़ेगा, और हम जो पूरा कर चुके हैं, वह काफी बढ़िया है। तुम्हें नहीं मालूम हम पर काम का कितना बड़ा बोझ है, तुम बस मामूली मसले उठाकर मुझ पर यूँ बरस रही हो। तुम बहुत घमंडी हो!" इसके बाद मैंने बहन लियू से बातचीत करने से मना कर दिया। उसकी बताई कोई समस्या होती, तो मैं विरोध करती, और मसले हल करते समय मेरी भावनाएँ जुड़ जातीं।

इसके बाद, हर छह महीने, बहन लियू काम के मसलों के बारे में हमारे लिए टिप्पणी का सारांश लिखने लगी। एक बार, उसने यह टिप्पणी अगुआ के साथ भी साझा कर दी। यह सुनकर मैं आगबबूला हो गई। हमने कुछ गलतियाँ की थीं, मगर हर महीने काम के इतने भारी बोझ के साथ, क्या यह सामान्य नहीं था कि छोटी-मोटी चीजें ठीक से न हो पाएँ? क्या अगुआ को बताना वाकई जरूरी था? तुम छोटी-छोटी बातों में डूबी रहती हो, तुम्हारे मानक बहुत ऊँचे हैं। क्या तुम हम भाई-बहनों को मशीन मानती हो? क्या हम कभी कोई गलती नहीं कर सकते? मैंने जितना सोचा, उतनी ही चिढ़ हुई। जब अगुआ मुझसे बात करने आईं, तो मैंने यह कहकर सीधे बहन लियू पर दोष मढ़ दिया कि वह बेहद घमंडी थी। उसे आत्मबोध नहीं था, बस हमारी समस्याएँ दिखाती थी। यह देखकर कि मुझे आत्मबोध नहीं था, अगुआ ने संगति करते हुए कहा कि मुझे बहन लियू के साथ ठीक से पेश आना चाहिए। उन्होंने मुझे आत्मचिंतन कर सबक सीखने को कहा। मगर अगुआ की बातों पर मैंने ध्यान नहीं दिया। मैंने बहन लियू की टिप्पणी में बताए गए मसलों को हल करने से रोक दिया, और आगे से ऐसे मसलों से बचने के उपाय सोचने की कोई कोशिश नहीं की। तब क्या आप जानती थीं कि आपकी हालत ठीक नहीं थी? मुझे हल्का-सा आभास था, और मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारा था, इस मामले में सबक सीखने और आत्मबोध हासिल करने में अगुआई करने की विनती की थी।

एक दिन अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिससे अपनी हालत जानने में मुझे मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब लोग सही और गलत के बारे में बात करते हैं, तो वे यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि हर एक बात सही है या गलत, वे तब तक नहीं रुकते जब तक कि मामला साफ नहीं हो जाता है और यह समझ नहीं आ जाता कि कौन सही था और कौन गलत, वे ऐसी बातों से ग्रस्त रहते हैं, उन बातों से ग्रस्त रहते हैं जिनका कोई जवाब नहीं है : इस तरह की हरकत का क्या मतलब है? अंततः क्या सही और गलत के बारे में बात करना सही है? (नहीं।) गलती कहाँ है? क्या इसमें और सत्य के अभ्यास के बीच कोई संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि कोई संबंध नहीं है? सही और गलत के बारे में बात करना सत्य के सिद्धांतों का पालन करना नहीं है, यह सत्य के सिद्धांतों पर चर्चा या संगति करना नहीं है; इसके बजाय, लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि कौन सही था और कौन गलत था, किसने सही समझा और किसने गलत, कौन उचित था और कौन नहीं, किसके पास उचित कारण थे और किसके पास नहीं, किसने अधिक समझदारी की बातें कीं; वे इन्हीं चीजों की जांच करते हैं। जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे हमेशा परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करते हैं, वे हमेशा कोई न कोई कारण देते हैं। क्या परमेश्वर तुमसे ऐसी बातों पर चर्चा करता है? क्या परमेश्वर पूछता है कि संदर्भ क्या था? क्या परमेश्वर तुम्हारे द्वारा बताए गए तर्कों और कारणों के बारे में पूछता है? वह नहीं पूछता। परमेश्वर पूछता है कि जब उसने तुम्हारी परीक्षा ली तब तुमने आज्ञाकारिता का रवैया अपनाया या प्रतिरोध का। परमेश्वर पूछता है कि तुमने सत्य समझा या नहीं, तुम आज्ञाकारी थे या नहीं। परमेश्वर यही पूछता है, और कुछ नहीं। परमेश्वर तुमसे तुम्हारी आज्ञाकारिता के अभाव का कारण नहीं पूछता, वह यह नहीं देखता कि क्या तुम्हारे पास कोई उचित कारण था—वह ऐसी बातों पर बिल्कुल विचार नहीं करता है। परमेश्वर केवल यह देखता है कि तुम आज्ञाकारी थे या नहीं। तुम्हारे रहने के माहौल और संदर्भ की परवाह न करते हुए, परमेश्वर केवल इस बात की जाँच करता है कि क्या तुम्हारे दिल में आज्ञाकारिता थी, क्या तुम्हारा रवैया आज्ञाकारिता का था; परमेश्वर तुम्हारे साथ सही और गलत पर बहस नहीं करता है, परमेश्वर यह परवाह नहीं करता कि तुम्हारे तर्क क्या थे, परमेश्वर केवल इसकी परवाह करता है कि क्या तुम वास्तव में आज्ञाकारी थे, परमेश्वर तुमसे बस यही पूछता है। जिस तरह के लोग सही और गलत के बारे में बात करते रहते हैं, जिन्हें वाक्-युद्ध पसंद है—क्या उनके दिलों में सत्य के सिद्धांत हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उन्होंने कभी सत्य के सिद्धांतों पर ध्यान दिया है? क्या उन्होंने कभी उनके लिए प्रयास किया है? क्या उन्होंने कभी उन्हें खोजा है? उन्होंने कभी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, उनके लिए प्रयास नहीं किया या उनकी खोज नहीं की, और वे उनके दिलों में हैं ही नहीं। नतीजतन, वे केवल क्या सही है और क्या गलत, इसी के बीच जीसकते हैं, उनके दिलों में बस सही और गलत, उचित और अनुचित, बहाने, कारण, औचित्य और तर्क होते हैं, जिसके तुरंत बाद वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं, आरोप लगाते हैं और निंदा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव यह होता है कि उन्हें सही और गलत पर बहस करना पसंद होता है, उन्हें आरोप लगाना और लोगों की निंदा करना पसंद होता है। इस तरह के लोगों के पास सत्य के प्रति कोई प्रेम या स्वीकृति नहीं होती, यह संभव है कि वे परमेश्वर के साथ तर्क करने का प्रयास करें, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में दावा करें और परमेश्वर का विरोध तक करें। अंततः उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ेगी" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के खुलासे से मैं समझ सकी कि किसी हालात में जो लोग हमेशा सही-गलत की बात करते हैं, वे पहले इसकी पूरी तरह से जाँच-पड़ताल करते हैं : कौन सही है, कौन गलत है, किसका तर्क सही है। अगर वे दूसरों को लपेटकर, घुमा-फिरा कर बोलते हैं, तो वे अपने मामले की पैरवी करने लगते हैं, दूसरों पर नजर गड़ाते हैं, उपेक्षा और विद्रोह करने वाले बन जाते हैं और सत्य खोजे बिना या अपने मसलों पर आत्मचिंतन किए बिना दूसरों पर हमले भी करते हैं। वे परमेश्वर के बनाए हालात के आगे समर्पण नहीं करते। मैंने सोचा, मैं ऐसा बर्ताव कैसे कर रही थी। जब बहन लियू ने हमारे काम में कुछ समस्याएँ बताईं, तो मैं जानती थी ये समस्याएँ मौजूद थीं, लेकिन यह सोचकर कि काम के बोझ और टाली न जा सकने वाली छोटी-छोटी समस्याओं को देखते हुए, हमारे काम का ढंग और स्तर ठीक ही था, मैंने खुद को सही ठहराने के तर्क और बहाने ढूँढ़े। यह सोचकर कि उसकी अपेक्षाएँ काफी ऊँची थीं, और समस्याएँ मामूली थीं, अगर ये हल न भी हुईं तो कोई बात नहीं, मैंने बहन को समस्याएँ बताने से रोकने के लिए, सिद्धांत का सहारा लेकर उसका खंडन करने की भी कोशिश की। जब बहन लियू ने गैर-जिम्मेदार और बेपरवाह कहकर मेरी आलोचना की, तो न सिर्फ मैंने उसे परमेश्वर से मिली आलोचना नहीं माना, बल्कि उसके खिलाफ भी हो गई, और सोचने लगी कि वह मीन-मेख निकाल रही थी। जब उसने सख्ती से बात की और उसकी बातों ने मेरे गौरव को ठेस पहुँचाई, तो मैंने साजिश रची ताकि अगुआ मेरा साथ दें और उसे बुरा मानें, उसके स्वभाव को घमंडी बताकर, अगुआ के सामने आलोचना भी की। अगुआ ने मेरी मदद की, तो भी मैंने उनकी बात नहीं सुनी। मैंने परमेश्वर के बनाए हालात मंजूर नहीं किए, न ही अपनी समस्याओं पर सोच-विचार किया। इसके बजाय, मैंने तर्क दिए, बहाने बनाए, कौन सही कौन गलत पर बहस की। मैंने जरा भी आज्ञाकारिता का रवैया दिखाए बिना बस गर्म मिजाज दिखाया। मैं खुद को विश्वासी कैसे कह सकती थी? मैं गैर-विश्वासी जैसी पेश आ रही थी।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे परमेश्वर की इच्छा को ज्यादा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "हर काम में सत्य खोजना और उसे व्यवहार में लाना शामिल होता है। अगर कोई चीज सत्य से संबंधित है, तो यह लोगों की मानवता और उनके दृष्टिकोण से भी शामिल संबंधित होगी। अधिकांशतः, लोग जब कोई काम सिद्धांतहीन तरीके से करते हैं, तो उसकी वजह यह होती है कि उन्हें उसके पीछे के सिद्धांतों की समझ नहीं होती। लेकिन बहुत बार, न केवल लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती बल्कि वे उन्हें समझना भी नहीं चाहते। हालाँकि उन्हें उनकी थोड़ी-बहुत जानकारी हो सकती है, फिर भी वे अपना काम ठीक से नहीं करना चाहते; उनके मन में यह मानक और यह अपेक्षा होती ही नहीं। इसलिए उनके लिए अच्छे से काम करना बहुत कठिन होता है, उनके लिए काम को सत्य के अनुरूप करना और इससे परमेश्वर को संतुष्ट करना बहुत मुश्किल होता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपना कर्तव्य स्वीकार्य रूप से निभा पाते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे क्या खोजते हैं और वे सकारात्मक चीजें से प्रेम करते हैं या नहीं। अगर लोगों को सकारात्मक चीजें पसंद नहीं हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता—जो कि बहुत परेशानी वाली बात है; उनका कर्तव्य निभाना भी मात्र सेवा करना होता है। चाहे तुम्हें सत्य की समझ हो या न हो, चाहे तुम सिद्धांतों को समझ पाओ या न समझ पाओ, यदि तुम अंतरात्मा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम कम से कम, औसत परिणाम प्राप्त कर पाओगे। इतना काफी है। फिर यदि तुम सत्य खोजकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा और उसकी इच्छा को संतुष्ट कर पाओगे। परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? (हम पूरे मन और शक्ति से अपने कर्तव्य निभाएँ।) 'पूरे मन और शक्ति से', इसका अर्थ क्या है? यदि लोग पूरे मन से समर्पित होकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो इसका अर्थ है कि वे पूरे मन से काम कर रहे हैं। यदि वे अपनी शक्ति की एक-एक बूँद का उपयोग करते हैं, तो वे अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं। क्या पूरे मन और शक्ति से काम करना आसान है? अंतरात्मा और समझदारी के बिना इसे हासिल करना आसान नहीं है। अगर लोगों में हृदय न हो, अगर उनमें बुद्धि की कमी हो, वे विचार करने में असमर्थ हों और समस्या आने पर, सत्य की खोज न करते हों, उनके पास कोई मार्ग या साधन न हो, तो क्या वे पूरे दिल से काम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर मैंने उसकी इच्छा समझी। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग अपने कर्तव्य में पूर्णता पाएँ, वह देखता है उन्होंने भरसक कोशिश की है या नहीं, क्या उनका रवैया अपने कर्तव्य में सुधार लाने की कोशिश का है। परमेश्वर लोगों के दिलों को परखता है। मैंने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसा। मुझे हमेशा लगता मुझ पर काम का बड़ा बोझ था, बहुत-सी बातें सोचनी, सँभालनी थीं, और काम में छोटी-मोटी समस्याएँ होना आम बात थी। कभी-कभी यह जानकर भी कि इन समस्याओं से बचा जा सकता था, मैं चीजें सुधारने की कोशिश नहीं करना चाहती थी, जिससे समस्याएँ खिंच कर अनसुलझी रह जाती थीं। मगर वास्तव में, परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं रखता कि मैं अपने कर्तव्य में कभी गलती न करूँ। वह बस मेरे बेपरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैए से घृणा करता है। बहन लियू समस्या बताकर उस ओर मेरा ध्यान खींच रही थी, समय रहते उसे ठीक कर अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने में मदद कर रही थी। जब मुझे इसका एहसास हो गया, तो मेरी हालत थोड़ी सुधर गई। इसके बाद, मैंने दूसरों के साथ संगति कर उन्हें सारांश बताया और बदलने का तरीका सोचा। अगली बार जब किसी ने मुझे समस्या बताई, तो मैं उस बारे में इतनी प्रतिरोधी और बेपरवाह नहीं रही, बल्कि मैं सबके साथ मिलकर उसे ठीक कर देती।

मैंने आत्मचिंतन भी किया। मैं बहन लियू के सुझावों का इतना विरोध क्यों करती थी? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, और थोड़ा आत्मबोध पाया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "व्यवहार और काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाया हो, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिलकुल नहीं। उन्होंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाई है, कलीसिया के कार्य को ऐसी क्षति पहुँचाई है—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और उन्होंने एक के बाद एक, मसीह-विरोधियों के कुकर्म देखे हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते, वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से परेशान हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक परेशान रहते हैं, और चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करता है कि मसीह-विरोधियों ने कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लिया है या सत्य स्वीकार नहीं किया है। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए नहीं आए हैं—वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अव्यवस्थित और बाधित करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ नाम और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे 'मरने तक नकारते रहो' के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं, और लोग चाहे जो उजागर या विश्लेषण करें, वे उन्हें नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर यह मसीह-विरोधियों की सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने वाली प्रकृति और सार को उजागर करता है। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और जिम्मेदारी से इनकार करने का होता है। उनमें अंत:करण और विवेक की पूर्णत: कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने के उनके सार और प्रकृति को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें अंत:करण, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनके हस्तक्षेप और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और समझ का होना माना जाएगा—लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? मसीह-विरोधियों का सार शैतान का सार होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों पर खुद को जाँचने के बाद, मैंने आत्मचिंतन किया। जाहिर था, मैं कर्तव्य में बेपरवाह थी, बहुत-सी चूक और समस्याएँ थीं, मगर मैंने जरा भी दोषी या पछतावा महसूस नहीं किया। काट-छाँट और निपटान का सामना होने और याद दिलाए जाने पर, मैं इसे स्वीकारती नहीं थी। हमेशा खुद को सही बताने और इसे झटक देने के तर्क ढूँढ़ लेती थी। मैं अपनी गलतियाँ मानने को तैयार नहीं थी। लगता, गलतियाँ मानने से मैं बुरी लगूँगी, मेरी शोहरत, रुतबे और छवि को हानि होगी, और लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे। मैं बिल्कुल बेसमझ थी। मैं सत्य से ऊबने का स्वभाव दिखा रही थी। दूसरों ने मुझे अपने कर्तव्य की खामियाँ देखने में मदद के सुझाव दिए, ताकि मैं समय रहते समस्याएँ दूर कर सकूँ और बेहतर ढंग से कर्तव्य निभा सकूँ। लेकिन मैंने इसे कभी परमेश्वर से ग्रहण नहीं किया, न ही आत्मचिंतन किया। इसलिए अपने कर्तव्य में बेपरवाह होने का मसला कभी ठीक नहीं हो सका, और मैंने सुपरवाइजर की अपनी भूमिका कभी पूरी नहीं की, इससे दूसरे भी अपने कर्तव्य में बेपरवाह रहे, गलतियाँ करते रहे। इस मुकाम पर, आखिर मैंने देखा कि सत्य से ऊब जाने का यह शैतानी स्वभाव ठीक न होने से, मेरे लिए सत्य और दूसरों के सुझाव स्वीकारना मुश्किल हो गया था। अगर मैंने प्रायश्चित न किया, इस भ्रष्ट स्वभाव को ठीक न किया, तो मेरे कर्तव्य में समस्याएँ और कमजोरियाँ बढ़ जाएँगी, आखिरकार मैं दुष्टता करूँगी, परमेश्वर का विरोध करूँगी, और वह मुझसे घृणा कर मुझे त्याग देगा। इसके एहसास से मैं बेचैन होने लगी, मैंने प्रायश्चित के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, अब से अपने कर्तव्य में सत्य पर अमल करने और भ्रष्टता में न जीने को तैयार हो गई।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसमें मुझे सत्य से ऊब जाने का स्वभाव ठीक करने का मार्ग मिल गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब तुम कोई सत्य नहीं समझते, तब यदि कोई तुम्हें सुझाव देता और बताता है कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, तो सबसे पहले तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, और सभी से साथ मिलकर संगति करने के लिए आग्रह करना चाहिए, यह देखना चाहिए कि क्या यह सही मार्ग है, क्या यह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार है। यदि तुम आश्वस्त हो जाते हो कि यह सत्य के अनुसार है, तो इसी प्रकार अभ्यास करो; यदि तुम यह तय करते हो कि यह सही नहीं है, तो वैसे अभ्यास न करो। यह इतना आसान है। तुम्हें कई लोगों से सत्य की तलाश करनी चाहिए, सभी की बातें ध्यान से सुननी चाहिए और इसे गंभीरता से लेना चाहिए; बातों को अनसुना मत करो या लोगों का अपमान न करो। यह तुम्हारे कर्तव्य के अंतर्गत आता है, इसलिए तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और स्थिति है। जब तुम्हारी स्थिति सही होगी, तो तुम सत्य के प्रति ऊबने या शत्रुता रखने का स्वभाव दिखाना बंद कर दोगे; इस तरह से अभ्यास करना तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का स्थान ले लेता है, और यह सत्य का अभ्यास करना है। और इस तरह से सत्य का अभ्यास करने का क्या प्रभाव होता है? (पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिलता है।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी, मामला बहुत सरल होता है, और अपनी बुद्धि का उपयोग करके इसे पूरा किया जा सकता है; एक बार जब तुम लोगों द्वारा तुम्हें दिए गए सुझाव समझ जाते हो, तो तुम बातों को ठीक से समझकर सिद्धांत के अनुसार आगे बढ़ते हो। इंसानों को यह बात तुच्छ लग सकती है, लेकिन परमेश्वर की नजर में यह बहुत बड़ी बात है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? जब तुम इस तरह से अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्यार करता है, ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से ऊब गया है, और तुम्हारा हृदय देखने के साथ ही साथ, परमेश्वर तुम्हारा स्वभाव भी देखता है। यह बहुत बड़ी बात है। और जब तुम परमेश्वर के समक्ष कोई कर्तव्य निभाते और काम करते हो, तो तुम जो जीते और प्रकट करते हो वह है सत्य की वास्तविकता जो लोगों में पाई जानी चाहिए; परमेश्वर के सामने, तुम्हारे सभी कार्यों में तुम्हारा रवैया, विचार और स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है, परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। जब भाई-बहन मुझे सुझाव दें या मेरी समस्याएँ बताएँ, तो पहले मेरा रवैया स्वीकृति और आज्ञाकारिता का होना चाहिए। यह करना न आए, तो मुझे उससे घृणा या उसका विरोध नहीं करना चाहिए, बल्कि पहले इसे मान लेना चाहिए, फिर सत्य समझने वाले किसी इंसान से संगति मांगनी चाहिए, फिर सिद्धांतों की पकड़ मिल जाने पर इस पर अमल करना चाहिए। यही है परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना। मैंने सोचा, जब दूसरे मेरे काम की समस्याएँ और कमियाँ देखें और मुझे बताएँ, मुझे सुझाव दें और मेरा निपटान करें, तो परमेश्वर के घर के कार्य के लिए वे ही पूरी जिम्मेदारी उठा रहे हैं, मुझे निशाना नहीं बना रहे हैं, या मेरे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहे हैं। मुझे इसे परमेश्वर से ग्रहण कर, आज्ञाकारी और स्वीकार करने वाला बनना चाहिए, अपनी समस्याओं पर सोच-विचार कर, समय रहते बदलकर उन्हें ठीक करना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा करके अपने काम में सुधार करने, और भ्रष्ट स्वभाव को कलीसिया के कार्य में बाधा न बनने देने का यही एकमात्र तरीका है।

एक दिन, बहन लियू ने संदेश भेजकर हमारे वीडियो की कुछ समस्याएँ बताईं। संदेश देखकर पल भर को मन में विरोध जागा। दूसरों के साथ इन मसलों पर चर्चा कर मैं समाधान कर चुकी थी। वह फिर से इन्हें क्यों उठा रही थी? मैं अपने बचाव में कुछ कहना चाहती थी, मगर जब मैंने रुककर थोड़ा सोचा, तो लगा, उसने कहा है, तो काम में अभी भी चूक या कमियाँ जरूर होंगी। फिर मैंने आगे बढ़कर बहन लियू से इस बारे में पूछा। गहराई से समझकर, आखिर मुझे एहसास हुआ कि मैंने भाई-बहनों के साथ इन मसलों पर सिर्फ चर्चा की थी, लेकिन बाद में समय पर उनके काम की खोज-खबर नहीं ली थी। मुझे यह भी एहसास हुआ कि काम के प्रति मैं सक्रिय और जिम्मेदार नहीं थी, बल्कि निष्क्रिय रहकर प्रतीक्षा करती थी कि दूसरे समस्याएं बताएँ और तब मैं उन्हें हल करूं। मैंने आगे बढ़कर दूसरों से पूछा कि वीडियो में अब भी कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं, और फिर संगति कर उन्हें समय पर ठीक कर लिया। कुछ समय बाद स्पष्ट हो गया कि समस्याएँ बहुत कम हो गई थीं, तो मुझे अपने कर्तव्य में सुकून और राहत मिली। मुझे यह भी महसूस हुआ कि सिर्फ दूसरों के सुझाव लेकर, सत्य खोजकर और समस्याएँ सुलझा कर ही अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकती हूँ।

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