26. सुसमाचार का प्रचार अच्छे से करने के लिए जिम्मेदारी लेना अहम है
मैं अपने काम को गंभीरता से नहीं लेती थी, मैं बहुत सुस्ती दिखाती थी और अनमने ढंग से काम करती थी। मैं सुसमाचार ग्रहण करने वालों को उपदेश सुनने बुला तो लेती, लेकिन उनसे बात करने या यह पूछने में रुचि नहीं लेती थी कि उन्हें उपदेश कैसा लगा। मुझे लगता बहुत-से लोगों को उपदेश सुनने बुला लेना ही अच्छे से अपना कर्तव्य निभाना है। यह मेरे लिए ज्यादा आसान था। मुझे उनसे बातचीत करना मुश्किल लगता; एक तो इसमें समय लगता, दूसरे उनके सवालों के जवाब देने में भी मेहनत लगती, तो मैं उस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहती थी। मुझे लगता उनसे बातचीत करने के लिए सुसमाचार कर्मी हैं न, उतना काफी है, अगर मुझे उनकी हालत की जानकारी न हो, तो क्या फर्क पड़ता है। एक सभा में अगुआ ने कहा, “जब हम लोगों को उपदेश सुनने के लिए बुलाएँ, तो हमें इसके बाद की उनकी हालत का पता होना चाहिए, जानना चाहिए कि वे सभाओं में आते हैं या नहीं, जो कहा गया उनकी समझ में आया या नहीं और उनकी कोई धारणाएँ तो नहीं हैं। हमें प्यार से उनकी मदद करने की कोशिश करनी चाहिए, यह भी हमारी जिम्मेदारी है।” लेकिन मुझे लगा यह बेकार की परेशानी है, इसलिए मैंने न तो ज्यादा त्याग किया और न ही बहुत कष्ट उठाए। मैंने सबसे आसान रास्ता अपनाया, यह नहीं सोचा कि क्या मैंने परिणाम हासिल किए हैं। एक बार अगुआ ने कहा कि कुछ लोगों ने बहुत सारे श्रोताओं को बुलाया है, लेकिन उनमें से कुछ ही लोगों ने खोज या जांच-पड़ताल की है। मुझे पता था कि उनमें से एक मैं हूँ; मैं सिर्फ सतही स्तर का काम कर रही थी और कोई वास्तविक परिणाम हासिल नहीं कर पाई थी। बाद में, अगुआ मेरे काम की जांच करने आई और पूछा, “इन सुसमाचार ग्रहण करने वालों की क्या हालत है?” शर्म के मारे मुझे समझ नहीं आया क्या कहूँ। बहुतों से मैं संपर्क में ही नहीं थी और कुछ लोग जो उपदेश सुनने नहीं आ रहे थे, मैंने उनकी कोई मदद नहीं की थी। मैंने उन्हें वैसे ही छोड़ दिया था।
अगुआ से बात करने के बाद मैंने चिंतन करना शुरू किया। मैंने देखा कि परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर लोगों से जो भी कार्य करने की अपेक्षा करता है वह सब करने के लिए और परमेश्वर के घर में सभी प्रकार के तमाम कार्य करने के लिए लोगों की जरूरत पड़ती है—ये सारे ही काम लोगों के कर्तव्य माने जाते हैं। लोग चाहे कोई भी कार्य करें, यह वह कर्तव्य है जो उन्हें निभाना चाहिए। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक होता है और इसमें कई क्षेत्र शामिल होते हैं—लेकिन तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, सीधे तौर पर कहें तो यह तुम्हारा दायित्व है और यह तुम्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे अपने दिल से अच्छी तरह निभाने का प्रयास करोगे, तो परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन करेगा और तुम्हें परमेश्वर का सच्चा विश्वासी मानेगा। तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम अपने कर्तव्य से बचने या जी चुराने की कोशिश करोगे, तो फिर यह समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धूर्त हो, तुम निठल्ले और आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो। इसे अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो और तुममें कोई वफादारी या समर्पण नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य का जिम्मा लेने के लिए शारीरिक प्रयास भी नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति वफादार है और उसमें जिम्मेदारी की भावना है, तो अगर परमेश्वर किसी चीज की अपेक्षा करता है, अगर परमेश्वर के घर को किसी चीज की आवश्यकता है, तो वह अपनी पसंद देखे बिना वो सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन का ही एक सिद्धांत नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी ले और उसे अच्छी तरह करे? (हाँ।)” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। “अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह नहीं रहोगे और धोखेबाजी से ढिलाई नहीं बरतोगे, बल्कि अपना दिलोजान उसमें लगा दोगे। अगर व्यक्ति की भीतरी दशा खराब है और उनमें नकारात्मकता पैदा होती है, तो उनका जोश ठंडा पड़ जाता है और वे लापरवाह होना चाहते हैं; वे अपने हृदय में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी दशा ठीक नहीं है, फिर भी वे सत्य को खोजकर उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते। ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं और वे हमेशा धोखेबाजी से ढिलाई बरतने की कोशिश करते हैं। वास्तव में, परमेश्वर इन सबकी पहले ही पड़ताल कर चुका है—तो वह इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं देता? परमेश्वर बस अपने चुने हुए लोगों के जागने और उन लोगों की असलियत पहचान कर उन्हें उजागर करने और उन्हें हटाने का इंतजार कर रहा है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि जो लोग जिम्मेदारी से अपना काम करते हैं, उन्हें काम पूरा करने के लिए किसी की निगरानी की जरूरत नहीं होती; वे मन लगाकर काम करते हैं। लेकिन जो काम को गंभीरता से नहीं लेते, वे बेमन से किसी तरह काम को निपटाते हैं। भले ही लोगों को लगे कि वे बहुत काम करते हैं, पर वह सतही होता है और वे कोई वास्तविक परिणाम हासिल नहीं कर पाते। वे लोगों को धोखा देते हैं। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत उजागर कर दी। जब मैं उपदेश के लिए सुसमाचार ग्रहण करने वालों को बुलाती, तो मुझे खुशी होती, क्योंकि इतने लोगों को बुलाया देखकर सभी को लगता कि मैं बहुत जिम्मेदार इंसान हूँ। लेकिन असल में, जब यह जानना होता कि उसके बाद उनका हाल-चाल कैसा है, तो मैं कोई कीमत चुकाना या अधिक समय देकर मेहनत नहीं करना चाहती थी। यह जिम्मेदारी मैं सुसमाचार कर्मियों पर डाल देना चाहती थी। मुझे आसान रास्ता पसंद था। जो भी रास्ता कम मुश्किल वाला और आरामदायक होता, मैं उसे ही अपनाती। मुश्किलें आने पर मैं आसान रास्ता ढूँढ़ती। जब कोई काम मुश्किल लगता या मेहनत करनी होती, तो मैं हथियार डाल देती। मैं बेहद सुस्त थी! मुझे इस बात की कोई फिक्र नहीं होती कि उपदेश सुनकर सुसमाचार ग्रहण करने वालों के मन में कोई सवाल तो नहीं हैं, वे लोग सभाओं में आते हैं या नहीं, और अगर नहीं आते तो क्या वजह है, वगैरह। मैं अपने काम को लेकर बहुत गैर-जिम्मेदार थी और जरा भी मेहनत नहीं करती थी, फिर भी चाहती थी कि मेरा काम प्रभावी हो। मैं बेहद धूर्त और धोखेबाज थी, भरोसे लायक नहीं थी। मुझे अपना एक और पिछला अनुभव याद आ गया। जब मुझे स्कूल में खराब अंक मिले, तो फिर से पढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन फिर भी पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। मैंने हमेशा मेहनत करने के बजाय आसान काम चुना, मैं शुरू से ही आलसी हूँ। यही मेरी प्रकृति है। जब यह एहसास हुआ, तो मैं अपना काम ध्यान से करने लगी और अपने तौर-तरीके बदल दिए, और सुसमाचार ग्रहण करने वालों के साथ बातचीत करने लगी। मैं सुसमाचार कर्मियों के साथ भी बातचीत करके उनकी मदद लेने लगी। ऐसा करने से मेरा काम थोड़ा और प्रभावी हो गया।
बाद में, सच्चा मार्ग स्वीकारने को तैयार लोगों को मैंने सिंचन कर्मियों के हवाले कर दिया, लेकिन अभी भी बहुत से लोग सभाओं में नहीं आ रहे थे। एक विश्वासी ऐसी थी जो काम की व्यस्तता के कारण सभाओं में नहीं आ पाती थी। हाल ही में उसकी मां का निधन हो गया था। उसका दिल टूट गया था और उसने दुनिया से किनारा कर लिया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि सीधी-सरल बातचीत के अलावा, मैं उससे क्या संगति करूँ। और जब कुछ लोगों को समस्याएँ पेश आतीं, तो उनके साथ संगति कर उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मुझे परमेश्वर के उपयुक्त वचन न मिल पाते। यह मेरे लिए मुश्किल काम था। लोगों को उपदेश सुनने के लिए बुलाना मुझे सबसे आसान काम लगता था। मुझे उनसे बातचीत करना पसंद नहीं था; मुझे लगता कहीं वे ऐसे सवाल न पूछ लें जिनका मैं जवाब न दे पाऊँ, इसलिए मैं उन्हें टाल देती या बातचीत न करती। करीब छह महीने बाद, मेरे बुलाए लोगों में से सिर्फ छह ने परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया, जबकि बाकी भाई-बहन कई लोगों का मत बदल चुके थे। मैं शर्मिंदा थी और पछता रही थी। मैं छह महीने से अपने कर्तव्यों की अवहेलना कर रही थी। अगर मैं समय पर संभल जाती, तो इतनी लापरवाह न होती। यह तथ्य कि दूसरे इतने लोगों को परमेश्वर के सामने ले आए थे, यह दिखाता था कि सुसमाचार फैलाना कठिन नहीं है, इसके लिए बस कुछ परिश्रम करने की आवश्यकता है, और इस कर्तव्य में परिणाम मिलने संभव हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सुसमाचार फैलाने में, लोगों को उनकी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और हर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता के साथ ईमानदारी से पेश आना चाहिए। परमेश्वर यथासंभव मनुष्य को बचाता है, और लोगों को परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति को लापरवाही से अनदेखा नहीं करना चाहिए जो सच्चे मार्ग की खोज और जाँच-पड़ताल कर रहा हो। इसके अलावा, सुसमाचार फैलाते हुए, तुम्हें सिद्धांतों को समझना चाहिए। सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने वाले हर व्यक्ति के लिए, तुम्हें उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि, उसकी काबिलियत अच्छी है या बुरी और उसकी मानवता की गुणवत्ता जैसी चीजें देखनी, जाननी और समझनी चाहिए। अगर तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जो सत्य का प्यासा है, परमेश्वर के वचन समझ सकता है, और सत्य स्वीकार सकता है, तो वह व्यक्ति परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत किया गया है। तुम्हें उसके साथ सत्य के बारे में संगति करने और उसे जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत से प्रयास करना चाहिए। हालाँकि, अगर वह खराब मानवता और घिनौने चरित्र वाला है, उसकी प्यास एक दिखावा है, और वह बहस करता रहता है और अपनी धारणाओं से चिपका रहता है, तो तुम्हें उसे दरकिनार कर उससे कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने वाले कुछ लोगों में समझने की क्षमता और अच्छी काबिलियत होती है, किंतु वे अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे धार्मिक धारणाओं से कड़ाई से चिपके रहते हैं, इसलिए इस समस्या को हल करने के लिए तुम्हें उनके साथ सत्य के बारे में प्रेम और धैर्य से संगति करनी चाहिए। तुम्हें केवल तभी हार माननी चाहिए, जब तुम्हारे हर तरह से संगति करने पर भी वे सत्य न स्वीकारें, तब तुमने वह सब कुछ कर लिया होगा जो तुम्हें करना चाहिए। संक्षेप में, किसी ऐसे इंसान को लेकर आसानी से हार न मानो, जो सत्य को मान और स्वीकार सकता हो। अगर वह सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने के लिए तैयार और सत्य की खोज करने में सक्षम हो, तो उसे परमेश्वर के और ज्यादा वचन पढ़कर सुनाने और उसके साथ और ज्यादा सत्य की संगति करने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने और उसकी धारणाओं और प्रश्नों का समाधान करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए, ताकि तुम उसे जीत कर परमेश्वर के सामने ला सको। यही सुसमाचार फैलाने के सिद्धांतों के अनुरूप है। तो उन्हें कैसे जीता जा सकता है? अगर बातचीत के दौरान तुम सुनिश्चित कर लेते हो कि उस व्यक्ति में अच्छी-खासी काबिलियत और अच्छी मानवता है, तो अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए तुम्हें जो बन पड़े करना चाहिए; तुम्हें एक खास कीमत चुकानी चाहिए, खास तरीकों और साधनों का उपयोग करना चाहिए, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम उस व्यक्ति को जीतने के लिए किन तरीकों और साधनों का उपयोग कर सकते हो। संक्षेप में, उसे जीतने के लिए, तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, प्रेम का उपयोग करना चाहिए और तुम्हारी क्षमता में जो भी संभव है वह सब करना चाहिए। जो भी सत्य तुम समझते हो, उन सभी पर संगति करो और जो भी तुम्हें करना चाहिए वह सब करो। अगर उस व्यक्ति को जीत न भी पाओ, तो भी तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी। तुमने वह सब कर लिया होगा जो तुम कर सकते हो। अगर तुम सत्य की स्पष्ट संगति नहीं करते और व्यक्ति अपनी धारणाओं से चिपका रहता है, और अगर तुम अपना धैर्य खो देते हो और अपने मन से उस व्यक्ति से उम्मीद छोड़ देते हो, तो यह तुम्हारा अपने कर्तव्य में लापरवाह होना होगा और तुम्हारे लिए यह एक अपराध और कलंक होगा। कुछ लोग कहते हैं, ‘क्या यह कलंक लगने का मतलब यह है कि परमेश्वर ने मेरी निंदा की है?’ ऐसे मामले इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या लोग इन चीजों को जानबूझकर और आदतन करते हैं। परमेश्वर कभी-कभार किए गए अपराधों के लिए लोगों को दोषी नहीं ठहराता; उन्हें केवल पश्चात्ताप करना होता है। लेकिन जब वे जानबूझकर गलत काम करते हैं और पश्चात्ताप भी नहीं करते, तो परमेश्वर उन्हें दोषी ठहराता है। जब वे स्पष्ट रूप से सच्चे मार्ग को जानते हुए भी जानबूझकर पाप करते हैं तो परमेश्वर उन्हें क्यों न दोषी ठहराए? अगर इन बातों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार देखा जाए, तो यह गैर-जिम्मेदार और लापरवाह होना है; और इन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी तक पूरी नहीं की है; परमेश्वर उनकी गलतियों का न्याय इसी तरह करता है। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते, तो उनकी निंदा की जाएगी। इसलिए, ऐसी गलतियों को कम करने या उनसे बचने के लिए, लोगों को अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए, सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर रहे लोगों के सभी सवालों का सक्रिय रूप से समाधान करने की कोशिश करनी चाहिए और निश्चित रूप से महत्वपूर्ण प्रश्नों को टालना नहीं चाहिए या उनके समाधान में देरी नहीं करनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों से मैं सोचने लगी और बहुत प्रेरित हुई। सुसमाचार फैलाना मेरी जिम्मेदारी और परमेश्वर का इरादा था, मुझे अपना सब-कुछ दे देना चाहिए था, लेकिन लोगों को परमेश्वर के पास लाने के लिए मैं कोई त्याग करने को तैयार नहीं थी। मैं वाकई आलसी और काम में बहुत अनमनी थी। मैंने परमेश्वर की बात नहीं मानी और सच्चे मार्ग की जाँच करने वालों पर गंभीरता से ध्यान देकर अपना दायित्व नहीं निभाया। मुझे लगा ढेरों लोगों को उपदेश सुनने के लिए बुला लेना ही काफी है, उसके बाद जो भी हो, वो देखना मेरा काम नहीं। मेरी नजर में वो सिंचन कर्मियों की जिम्मेदारी थी, वे सभाओं में आएँ, न आएँ मेरी समस्या या जिम्मेदारी नहीं। जब वे सभाओं में न आते, तो उनकी मदद के लिए मैं परमेश्वर के वचन खोजने की कोशिश न करती। मुझे लगता, उनकी समस्याओं का समाधान मेरे बस का नहीं, तो मैं उन्हें उनके हाल पर छोड़ देती। लेकिन असल में, अगर वे सुसमाचार के प्रचार के सिद्धांतों के लिए उपयुक्त हैं, तो मुझे सचमुच उन पर ध्यान देना चाहिए और फिर मैं ही तो उन्हें आमंत्रित करती थी। सामान्य हालात में, मुझे बाद में भी उनसे संवाद करते रहना चाहिए था, लेकिन मैं ऐसा नहीं करती थी, उन्हें सिंचन कर्मियों के हवाले कर बात वहीं खत्म कर देती थी। मुझमें न तो जिम्मेदारी का बोध था, न ही परमेश्वर के इरादों का कोई ख्याल था। अपनी समस्या पहचानकर, मैंने अपना रवैया बदलने की ठानी, लेकिन मैं अकेले यह नहीं कर सकती थी। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना कर सहायता की याचना करनी थी। बाद में, जब मैं सुसमाचार ग्रहण करने वालों से मिलती, तो परमेश्वर से मदद की प्रार्थना करती ताकि उन्हें उसके सामने ला सकूँ, अपने अंदर कड़ी मेहनत और असली त्याग करने की इच्छा पैदा कर सकूँ और पहले की तरह काम में ढिलाई न बरतूँ। मैंने अपनी अगुआ से भी पूछा लोगों को परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के लिए कैसे प्रेरित करूँ। उसने मुझे कुछ तरीके बताए, मैंने यह देखने के लिए विचार करना शुरू किया कि मैं अब तक क्या नहीं कर रही थी। मुझे लगा कि मैं अपने काम में सत्य नहीं खोज रही थी और भाई-बहनों से कुछ नहीं सीख रही थी। जब कुछ लोग सभाओं में न आते, मैं कारण जानना जरूरी न समझती और उन पर कोई सोच-विचार न करती, बस उनसे उम्मीद छोड़ देती। अपने काम के प्रति मेरा रवैया बहुत ढीला था।
ये एहसास होने पर मैंने परमेश्वर के इस कथन पर विचार किया : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं शर्मिंदा हो गई। परमेश्वर की एक सृजित प्राणी होने के नाते, मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यही मेरा मिशन है और मेरे अस्तित्व का मूल्य भी। अगर मैं यही काम न करूँ, तो इसका अर्थ है कि मैं अपने लक्ष्य से भटक गई हूँ और परमेश्वर के सामने जीने योग्य नहीं हूँ। अंततः परमेश्वर मुझसे घृणा कर मुझे हटा देगा। राज्य का सुसमाचार फैलाना परमेश्वर की तात्कालिक आकांक्षा है, और परमेश्वर चाहता है कि हम सुसमाचार फैलाने और उसके लिए गवाही देने में अपना सर्वस्व लगा दें। हम ये चीजें करने में अनमने नहीं हो सकते। मुझे याद आया जब परमेश्वर ने नूह को जहाज बनाने का आदेश दिया था। हालाँकि यह बेहद मुश्किल काम था, लेकिन नूह ने हार नहीं मानी। उसने परमेश्वर से यह नहीं पूछा कि जहाज कब तक बन जाएगा या बाढ़ कब आएगी। उसने बस परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार जहाज बनाया। इसे समझने के बाद मुझे लगा, काम के प्रति मुझे भी अपना रवैया बदलना चाहिए, नूह की मिसाल सामने रखकर अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाना चाहिए। एक बार एक सभा के दौरान, लोग सुसमाचार के प्रचार का अपना अनुभव बता रहे थे कि कैसे उन्होंने परमेश्वर के वचनों से सुसमाचार ग्रहण करने वालों के मसले हल किए। उनकी बात सुनकर मैं बहुत प्रेरित हुई। मैं अब आलसी नहीं रहना चाहती थी। मैं अब जिम्मेदार बनना चाहती थी और अपने कर्तव्य में अपनी सारी ऊर्जा लगा देना चाहती थी।
इसके बाद, मैं नजर रखने लगी कि कौन लोग सभाओं में नहीं आते हैं, मैं तुरंत उनसे संपर्क कर उनके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करती। जब मैं मन लगाकर सबसे मिलने-जुलने लगी, तो ज्यादातर लोग नियमित रूप से सभाओं में आने लगे। एक बार एक बहन कई दिनों तक सभा में नहीं आई, तो मैंने उसे संदेश भेजा, लेकिन उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया, तो मुझे चिंता हुई। मैंने सिंचन कर्मी, भाई डर्ली को फोन किया, तो पता चला कि उसे काम में मुश्किलें आ रही थीं, और डर्ली ने उसके साथ परमेश्वर के कुछ वचन साझा किए थे। यह सुनकर मुझे इतना काफी नहीं लगा, मैंने भाई डर्ली से उससे फोन पर ही संगति करने के लिए कहा। मुझे आश्चर्य हुआ, संगति के बाद वह उसी दिन सभा में आने को तैयार हो गई, और पहले न आ पाने के लिए माफी मांगने लगी। जल्दी ही वह कलीसिया में शामिल हो गई। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया! मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर, तुममें सच में अंतरात्मा और विवेक हो, तो कार्यों को करते समय तुम उनमें थोड़ा ज्यादा मन लगाओगे और थोड़ी अधिक उदारता, जिम्मेदारी और सोच-विचार का उपयोग करोगे, और तुम ज्यादा प्रयास कर पाने में सक्षम होगे। जब तुम अधिक प्रयास कर पाते हो, तब तुम्हारे कर्तव्यों के निर्वहन के परिणामों में अवश्य सुधार होगा। तुम्हारे परिणाम बेहतर होंगे, और यह परमेश्वर के साथ-साथ लोगों को भी संतुष्ट करेगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। “तुझे सकारात्मक की तरफ़ से प्रवेश प्राप्त करना चाहिए। यदि तू हाथ पर हाथ धरे प्रतीक्षा करता है, तो तू अब भी नकारात्मक हो रहा है। तुझे आगे बढ़कर मेरे साथ सहयोग करना चाहिए; मेहनती बन, और आलसी कभी न बन। सदैव मेरी संगति में रह और मेरे साथ कहीं अधिक गहरी अंतरंगता प्राप्त कर। यदि तेरी समझ में नहीं आता है, तो त्वरित परिणामों के लिए अधीर मत बन। ऐसा नहीं है कि मैं तुझे नहीं बताऊँगा; बात यह है कि मैं देखना चाहता हूँ कि जब तू मेरी उपस्थिति में होता है क्या केवल तभी तू मुझ पर भरोसा करता है; और मुझ पर अपनी निर्भरता में तू आत्मविश्वास से पूर्ण है या नहीं। तुझे सदैव मेरे निकट रहना चाहिए और सभी विषय मेरे हाथों में रख देने चाहिए। खाली हाथ वापस मत जा। जब तू कुछ समयावधि के लिए बिना जाने-बूझे मेरे निकट रह लिया होगा, उसके पश्चात मेरे इरादे तुझ पर प्रकट होंगे। यदि तू उन्हें समझ लेता है, तो तू वास्तव में मेरे आमने-सामने होगा, और तूने वास्तव में मेरा चेहरे पा लिया होगा। तेरे भीतर अधिक स्पष्टता और दृढ़ता होगी, और तेरे पास भरोसा करने के लिए कुछ होगा। तब तेरे पास सामर्थ्य के साथ-साथ आत्मविश्वास भी होगा, तेरे पास आगे का मार्ग भी होगा। हर चीज़ तेरे लिए आसान हो जाएगी” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 9)। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम अपने कर्तव्य निभाने में सक्रिय हों। हम निष्क्रिय नहीं हो सकते। समस्याओं या कठिनाइयों का सामना करने पर हमें परमेश्वर से और भी ज्यादा प्रार्थना कर सत्य की खोज करनी चाहिए, और परमेश्वर सत्य सिद्धांत समझने में हमारी सहायता और मार्गदर्शन करेगा। पहले मैं अपने काम में निष्क्रिय थी, मुझमें जोश की कमी थी। मैं सुसमाचार ग्रहण करने वालों को लापरवाही से छोड़ देती थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मुझे समझ आया कि जो हमारे दिल में है वह बहुत महत्वपूर्ण है। अगर हम लोगों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करें और ईमानदारी से संगति करें, तो हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलेगा। इस बात को समझकर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरी मदद करने की विनती की ताकि मैं अच्छे से अपना कर्तव्य निभाऊँ और जागरूक रहकर उसके वचनों पर अमल कर सकूँ।
उसके बाद, मैं संभावित सुसमाचार ग्रहण करने वालों के साथ सक्रियता से बात करने लगी और मैंने उनकी हालत की जानकारी लेना और उनके साथ परमेश्वर के वचनों पर धैर्यपूर्वक संगति करना जारी रखा, जब तक कि उन्होंने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार नहीं लिया। जब मैंने ऐसा किया, मुझे महसूस हुआ कि इसमें परमेश्वर निरंतर मेरा मार्गदर्शन कर रहा है, समझा रहा है कि मुझे अपना काम अच्छे से कैसे करना है, इससे मेरा मन बहुत आश्वस्त हुआ। परमेश्वर का धन्यवाद!