13. यह आवाज़ कहाँ से आती है?

लेखिका: शियीन, चीन

मेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। मेरे बहुत से सगे-संबंधी प्रचारक हैं। मैं बचपन से ही अपने माता-पिता के साथ प्रभु में आस्था रखती आयी हूँ। बड़ी होने पर मैंने प्रभु से यह प्रार्थना की : अगर मुझे विश्वासी पति मिला, तो हम दोनों ही अपने आपको प्रभु की सेवा में अर्पित कर देंगे। शादी के बाद, मेरा पति सचमुच प्रभु में आस्था रखने लगा। इतना ही नहीं, वह पूर्णकालिक प्रचारक बन गया। मैंने घर-गृहस्थी की मुश्किल ज़िम्मेदारियों को संभाल लिया, ताकि मेरा पति अपना मन प्रभु के काम में लगा सके और प्रभु से उसने जो वादा किया है, उसे निभा सके। हालाँकि मेरा काम थोड़ा मुश्किल और थका देने वाला था, लेकिन तमाम मुश्किलों के बावजूद मेरे दिल में आनंद और सुकून था, क्योंकि मुझे प्रभु का सहारा था।

1997 का वर्ष ऐसे ही बीत गया। एक मुकाम पर जाकर मुझे लगा कि मेरे पति के प्रवचनों में अब वो रोशनी नहीं रही, जो कभी पहले हुआ करती थी। जब कभी मैं उसे घर का कोई काम करने के लिए कहती, तो वो प्रचार के काम में व्यस्त होने का बहाना करता। अगर वो घर का कोई काम करता भी, तो उस काम में उसका मन नहीं होता था और वो छोटी-छोटी चीज़ों पर मुझसे नाराज़ हो जाता था। बाहर से तो मैं संयम बरतती और उससे बहस नहीं करती थी, लेकिन दिल ही दिल में मैं अपने पति के बर्ताव से असंतुष्ट रहती थी। घर-गृहस्थी की भारी ज़िम्मेदारी और मेरी आत्मा पर छाए अंधेरे ने मुझे व्यथित कर दिया। मैं बस इतना ही कर सकती थी कि बीच रात में जब सभी सो रहे होते थे, तो मैं प्रभु के सामने जाकर प्रार्थना करती, और उससे याचना करती कि वह मुझे और अधिक आस्था और शक्ति दे। साथ ही, मैं कामना करती कि प्रभु शीघ्र वापस आए और मुझे इस तकलीफदेह ज़िंदगी से बचाए।

अप्रैल 2000 में एक दिन जब मैं कुछ कपड़े उठाकर रख रही थी, तो मैं अपने पति के बैग से टकरा गयी और मैंने देखा कि वह एकदम भरा हुआ है। मैंने उत्सुकतावश उसे खोलकर देखा तो उसमें एक बाइबल, एक भक्ति-गीतों की पुस्तक और एक कवर चढ़ी हुई एकदम नयी पुस्तक रखी थी। मैंने सोचा : "यह पुस्तक मैंने पहले कैसे नहीं देखी? यह ज़रूर कोई प्रचार-संबंधी संदर्भ-पुस्तक या किसी आध्यात्मिक हस्ती के अनुभवों से संबंधित पुस्तक होगी। मुझे पढ़नी चाहिए, शायद इससे मुझे कुछ पोषण मिले।" मैंने उत्सुकतावश पुस्तक खोली और उसमें एक शीर्षक देखा, जो इस प्रकार था : "जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शुद्धिकरण से अवश्य गुज़रना चाहिए।" मैंने सोचा, "क्या नया शीर्षक है! शीर्षक देखकर लगता है कि शुद्धिकरण का अनुभव कोई बुरी बात नहीं है! मैं फिलहाल ऐसे शुद्धिकरण से गुज़र रही हूँ, जिससे मैं पार नहीं पा सकती, तो इसके शुद्धिकरण के अनुभव को जानने के लिए मुझे इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ना चाहिए। तभी मैं उसके भीतर से अभ्यास का मार्ग पा सकूँगी।" यह सोचकर मैं पुस्तक पढ़ने लगी : "पहले ऐसा होता था कि लोग परमेश्वर के सामने अपने सारे संकल्प करते और कहते : 'अगर कोई अन्य परमेश्वर से प्रेम नहीं भी करता है, तो भी मुझे अवश्य परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए।' परन्तु अब, शुद्धिकरण तुम पर पड़ता है। यह तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, इसलिए तुम परमेश्वर में विश्वास को खो देते हो। क्या यह सच्चा प्रेम है? तुमने अय्यूब के कर्मों के बारे में कई बार पढ़ा है—क्या तुम उनके बारे में भूल गए हो? सच्चा प्रेम केवल विश्वास के भीतर ही आकार ले सकता है। ... जब तुम कष्टों का सामना करते हो तो तुम्हें देह पर विचार नहीं करने और परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत नहीं करने में समर्थ अवश्य होना चाहिए। जब परमेश्वर अपने आप को तुमसे छिपाता है, तो तुम्हें उसका अनुसरण करने के लिए, अपने पिछले प्यार को लड़खड़ाने या मिटने न देते हुए उसे बनाए रखने के लिए, तुम्हें विश्वास रखने में समर्थ अवश्य होना चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या करता है, तुम्हें उसके मंसूबे के प्रति समर्पण अवश्य करना चाहिए, और उसके विरूद्ध शिकायत करने की अपेक्षा अपनी स्वयं की देह को धिक्कारने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब तुम्हारा परीक्षणों से सामना होता है तो तुम्हें अपनी किसी प्यारी चीज़ से अलग होने की अनिच्छा, या बुरी तरह रोने के बावजूद तुम्हें अवश्य परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए। केवल इसी को सच्चा प्यार और विश्वास कहा जा सकता है। तुम्हारी वास्तविक कद-काठी चाहे जो भी हो, तुममें सबसे पहले कठिनाई को भुगतने की इच्छा और सच्चा विश्वास, दोनों ही अवश्य होना चाहिए और तुममें देह-सुख को त्याग देने की इच्छा अवश्य होनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के उद्देश्य से व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना करने और अपने व्यक्तिगत हितों का नुकसान उठाने के लिए तैयार होना चाहिए। तुम्हें अपने हृदय में अपने बारे में पछतावा महसूस करने में भी अवश्य समर्थ होना चाहिए : अतीत में तुम परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाते थे, और अब तुम स्वयं पर पछतावा कर सकते हो। इनमें से किसी भी एक का अभाव तुममें बिलकुल नहीं होना चाहिए—परमेश्वर इन चीज़ों के द्वारा तुम्हें पूर्ण बनाएगा। यदि तुम इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरते हो, तो तुम्हें पूर्ण नहीं बनाया जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। इन वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। मैं पढ़ते-पढ़ते रोने लगी। क्या मैं इसी स्थिति से नहीं गुज़र रही थी? पहले मैंने संकल्प किया था कि मैं और मेरा पति दोनों प्रभु के प्रति समर्पित हो जाएँगे। मेरा पति घर से बाहर रहकर प्रभु का जो कार्य कर रहा था, उस काम में सहयोग करने के वास्ते मैं घर-गृहस्थी की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठाकर भी पूरी तरह से खुश थी, भले ही मेरा काम बहुत ही मुश्किल या थका देने वाला था। लेकिन इस मुकाम पर, घर की कठिनाइयों और मेरे प्रति पति की लापरवाही के कारण, मेरे अंदर यह भावना घर कर गयी कि मेरे साथ अन्याय हुआ है; मैं शुद्धिकरण में जी रही थी और मेरे अंदर पहले जो आस्था व प्रेम था, वह अब कम होता जा रहा था। मैंने परमेश्वर के सामने जो संकल्प किया था, उसे निभाने में मैं असफल हो गयी थी। मैं अक्सर एकांत में आँसू बहाती थी। मैंने विचार किया कि किस तरह अय्यूब ऐसे भयंकर और कठिन परीक्षणों के दरमियान भी परमेश्वर की गवाही दे पाया और उसने परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं गँवायी। उसने यह भी कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। मैं भी इस बात को भी कैसे भूल सकती थी? मैंने प्रभु की उपस्थिति में जो कुछ किया था, तब मुझे उसका बेहद अफसोस हुआ। अय्यूब ने परमेश्वर को असंतुष्ट करने के बजाय खुद दुख उठाना और अपने हितों को तिलांजलि देना बेहतर समझा। प्रभु में अपनी इतने बरसों की आस्था के बावजूद मैंने उसमें अपनी आस्था गँवा दी थी। शुद्धिकरण सहने के दौरान मैंने प्रभु से शिकायत की। मैंने उसके प्रति ज़रा भी प्रेम व्यक्त नहीं किया! ज्यूँ ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, मैंने मन ही मन संकल्प किया कि मैं अब पहले की तरह नहीं रह सकती; मुझे अपने पति के प्रभु के लिए किए जाने वाले कार्य में सहयोग करना चाहिए और थोड़ी-बहुत मुश्किलें सह लेनी चाहिए।

इन बातों पर विचार करने के बाद मेरी मनोदशा में सशक्त बदलाव आया, जिससे वह बेहतर हो गई। मुझे लगा कि इन वचनों में बहुत अच्छे ढंग से बात कही गयी है। ये वचन मेरी परिस्थितियों की जड़ तक जाते हैं। इन्होंने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखा दिया। इससे पहले कि मैं समझ पाती, मेरे भीतर शक्ति और आस्था का संचार हो गया। मैंने विचार किया, "ये वचन किसने कहे होंगे? उसमें इतनी उत्कृष्ट समझ कैसे हो सकती है? मैंने विख्यात आध्यात्मिक हस्तियों की लिखी पुस्तकें पढ़ी हैं, और हालाँकि वे कुछ हद तक शिक्षाप्रद होती हैं, लेकिन वे इस पुस्तक जितनी स्पष्टता से और प्रकाश डालने वाले ढंग से नहीं लिखी गई हैं, न ही उनमें सत्य है। ये वचन वास्तव में किसकी ओर से आए हैं?" मैं इस पुस्तक के वचनों की ओर आकर्षित होती चली गयी और मेरी इच्छा हुई कि पढ़ती ही रहूँ; मैंने इन वचनों को जितना पढ़ा, इन्हें उतना ही अधिक अद्भुत पाया। हर पंक्ति सीधे मेरे दिल को छूती थी। इनसे मुझे एक बात समझ में आयी कि हमारी तकलीफें कितनी भी भयंकर क्यों न हों, हमें अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए और कष्ट सहते हुए भी प्रसन्नता से परमेश्वर के प्रति समर्पित रहना चाहिए। अगर परीक्षण के दौरान कोई कमज़ोर भी पड़ जाए, तो उसे प्रभु में आस्था बनाए रखनी चाहिए और अडिग रहकर परमेश्वर पर निर्भर रहना चाहिए। मैं जितना पढ़ती, मेरा दिल उतना ही अधिक प्रकाशित होता और उतना ही ज़्यादा मुझे लगता कि मैंने अभ्यास का मार्ग पा लिया है। तभी मेरा पति आ गया। मैंने तुरंत उससे पूछा, "आपको यह पुस्तक कहाँ से मिली?" उसने मुस्कराकर कहा, "मैंने किसी से उधार ली है और जल्दी ही लौटानी है।" मैंने और कुछ नहीं कहा।

एक दिन खाना बनाते वक्त मेरे पति ने जो भजन लगा रखा था, उसके कुछ शब्द मेरे कानों में पड़े। "कौन है जो उसे चाहता नहीं है? कौन परमेश्वर को देखने का अभिलाषी नहीं है? ... परमेश्वर ने एक बार मनुष्य के साथ सुख और दुख साझा किए थे, और आज वह मानवजाति के साथ फिर से जुड़ गया है, और वह उसके साथ बीते समय के किस्से साझा करता है। उसके यहूदिया से बाहर चले जाने के बाद, लोगों को उसका कुछ भी पता नहीं लग पाया। वे एक बार फिर परमेश्वर से मिलना चाहते हैं, यह न जानते हुए कि वे आज फिर से उसे मिल चुके हैं, और उसके साथ फिर से एक हो गए हैं। यह बात बीते कल के ख्यालों को कैसे नहीं जगाएगी? दो हजार साल पहले इस दिन, यहूदियों के वंशज शमोन बरयोना ने उद्धारकर्ता यीशु को देखा, उसके साथ एक ही मेज पर भोजन किया, और कई वर्षों तक उसका अनुसरण करने के बाद उसके लिए एक गहरा लगाव महसूस किया: उसने तहेदिल से उससे प्रेम किया, उसने प्रभु यीशु से गहराई से प्यार किया। परमेश्वर ने एक बार मनुष्य के साथ सुख और दुख साझा किए थे, और आज वह मानवजाति के साथ फिर से जुड़ गया है, और वह उसके साथ बीते समय के किस्से साझा करता है" ("मेमने का अनुसरण करना और नए गीत गाना" में "दो हज़ार सालों की अभिलाषा")। भजन के बोलों ने मेरे अंतर्मन को वाणी दे दी और प्रभु की वापसी की मेरी तड़प को ताज़ा कर दिया। मैं सुन-सुनकर रोती रही, मैंने सोचा : "जब से मैं विश्वासी बनी हूँ, तब से आज तक मैं हर दिन प्रभु यीशु के बारे में सोचती रही हूँ और यह उम्मीद करती रही हूँ कि शायद वह जल्दी आ जाए, ताकि हम पुराने दिनों की याद ताज़ा कर लें।" भजन के बोल बहुत ही सच्चे और भावुक कर देने वाले थे, विशेषकर वे प्रभु के प्रति लोगों की तड़प को व्यक्त करने वाले थे। उसके बाद तो खाना बनाना छोडकर मैं भजन को पूरे ध्यान से सुनने लगी। उसके बाद "परमेश्वर के लिए समर्पित हृदय" नामक दूसरा भजन शुरू हुआ : "मैं अपने जीवन में सिवाय इसके कुछ नहीं माँगता कि परमेश्वर के प्रति प्रेम के लिए मेरे विचार और मेरे हृदय की अभिलाषा परमेश्वर द्वारा स्वीकार कर ली जाए" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। मैंने सोचा, "यह भजन किसने लिखा है? उसका संकल्प इतना दृढ़ कैसे हो सकता है?" खासतौर से यह पंक्ति मुझे सचमुच प्रेरक लगी : "मैं अपने जीवन में सिवाय इसके कुछ नहीं माँगता कि परमेश्वर के प्रति प्रेम के लिए मेरे विचार और मेरे हृदय की अभिलाषा परमेश्वर द्वारा स्वीकार कर ली जाए।" परमेश्वर के लिए इस प्रकार का प्रेम बहुत ही निर्मल है! पहले जब मैं आस्था रखती थी, तो प्रभु को प्रेम करना मुझे नहीं आता था, मैं तो बस उसके अनुग्रह का आनंद लेना चाहती थी, शांति और सुख खोजती थी। इस भजन ने उस दिन सचमुच मेरा विश्वव्यापी दृष्टिकोण खोल दिया और मैंने जाना कि परमेश्वर के विश्वासियों को परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, उन्हें अपने लिए किसी चीज़ की कामना नहीं करनी चाहिए, केवल इसी प्रकार का प्रेम निर्मल हो सकता है। यह भजन बहुत ही सुंदर ढंग से लिखा गया था। तब मैंने मन ही मन संकल्प किया कि मैं भी इस लक्ष्य को पाने का प्रयास करना चाहती हूँ, कोई और प्रभु से प्रेम करे या न करे, लेकिन मैं उससे प्रेम करूँगी।

उस पुस्तक के वचनों को पढ़कर और उन भजनों को सुनकर, मैंने उनमें कही गयी बातों का पालन करना शुरू कर दिया। मेरे पति के फिर से काम पर जाने और घर-गृहस्थी के काम में मेरी मदद न करने पर, अब मुझे पहले की तरह दुख नहीं होता था। अगर किसी भा‌ई-बहन से बातचीत में कोई भूल हो जाती थी, तो मैं उसे सह लेती थी क्योंकि मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना था। मैं भजनों में कही गयी बातों के अनुसार पूरे मन से परमेश्वर को प्रेम करने का प्रयास करती थी।

देखते-देखते फसल की बुवाई का वक्त आ गया। एक शाम, साफ-सफाई करते समय, मेरे पति ने कहा, "मुझे कल शहर से बाहर एक कलीसिया में जाना है।" मैंने तुरंत पूछा, "कुछ दिनों में आ जाओगे न?" उसने कहा, "पता नहीं, जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करूँगा। घर के काम की ज़्यादा चिंता मत करना।" तुरंत मेरा चेहरा लटक गया और मैं सोचने लगी, "तुम कह रहे हो कि चिंता मत करना, लेकिन चिंता कैसे न करूँ? तुम्हें पता नहीं तुम कब वापस आओगे, जबकि दूसरों के खेतों में बीज कब के बोए जा चुके हैं। हमारे खेत में तो अभी जुताई भी नहीं हुई, अगर बीज देर से बोए गए, तो हमारी फसल अच्छी नहीं होगी। तब हम लोग क्या करेंगे? काश तुम बीजों की बुवाई के बाद भाई-बहनों की मदद के लिए जाने का कार्यक्रम बनाते!" उस शाम मैं बिस्तर पर पड़ी थी, मुझे बिल्कुल नींद नहीं आ रही थी। मेरे अंदर खलबली मची हुई थी, मैं सोच रही थी : "पिछली बार मेरा पति दो हफ्ते के लिए गया था, लेकिन उस समय खेत पर कोई काम नहीं था। मगर यह वक्त खेती के लिए बहुत ही निर्णायक और महत्वपूर्ण है, अगर वो फिर से दो हफ्ते के लिए चला गया, तो मैं क्या करूँगी? मेरा ख्याल है मुझे उससे कहना चाहिए कि वो उस काम को किसी सहकर्मी से करा ले और खेती के काम को निपटा दे।" लेकिन मैंने इस बात पर और विचार किया : "नहीं, शायद ऐसा कहना ठीक नहीं। भाई-बहन उसके सहयोग का इंतज़ार कर रहे होंगे। अगर वो नहीं गया, तो क्या यह प्रभु का अनादर करना नहीं होगा?" इस शुद्धिकरण के मध्य मैंने प्रभु की उपस्थिति में आकर प्रार्थना की : "हे प्रभु! ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहती कि मेरा पति जा कर भाई-बहनों की मदद न करे, मेरी चिंता केवल इतनी है कि हमें खेत की बुवाई करनी है। मुझ पर सचमुच इस शुद्धिकरण का असर पड़ रहा है और मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूँ। प्रभु! अपने दिल की सुरक्षा और इन चीज़ों से होने वाली परेशानी से बचने के लिए, मुझे तेरी मदद चाहिए।" प्रार्थना के बाद, मेरे मन में साफ तौर पर ये वचन आए : "तुम्हारी वास्तविक कद-काठी चाहे जो भी हो, तुममें सबसे पहले कठिनाई को भुगतने की इच्छा और सच्चा विश्वास, दोनों ही अवश्य होना चाहिए और तुममें देह-सुख को त्याग देने की इच्छा अवश्य होनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के उद्देश्य से व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना करने और अपने व्यक्तिगत हितों का नुकसान उठाने के लिए तैयार होना चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। ये वचन तुरंत ही मेरे दिल में समा गए और उसे रोशन कर दिया। मैंने सोचा, "यह बात सही है, अगर कोई प्रभु को संतुष्ट करना चाहता है, तो उसे कष्ट सहने का संकल्प करना होगा, उसे खुशी-खुशी शारीरिक कष्ट सहन करने चाहिए। अगर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की बात हो तो अपने हितों के साथ समझौता कर लेना चाहिए!" इन वचनों से मेरी आस्था मज़बूत हुई और मैंने सोचा : "अगर खेत की बुवाई में थोड़ी देरी होती है तो हो! हम लोग कितनी फसल पाएँगे, यह परमेश्वर पर निर्भर है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मेरा पति प्रभु के लिए काम कर रहा है।" जब यह बात मन में आयी, तो मैंने सुकून महसूस किया और मेरा दिल हल्का हो गया, और मुझे पता भी नहीं चला कि मुझे कब नींद आ गयी। अगली सुबह मैंने अपने पति से कहा : "आप जा कर प्रभु का काम कीजिये, किसी बात की फिक्र मत कीजिये। आप जब वापस आना चाहें, आएँ। मैं प्रभु की व्यवस्था के प्रति समर्पित हो जाऊँगी।" यह सोचकर कि मैं जो कुछ कर रही हूँ, उससे प्रभु संतुष्ट हो रहा है, मुझे खुशी हुई और दिल में एक मज़बूती आयी।

कुछ दिनों के बाद मेरा पति लौट आया। मुझे वो बिल्कुल बदला हुआ नज़र आया। उसने घर के काम में मेरी मदद की और यहाँ तक कहा : "तुम कितनी मेहनत करती हो! पिछले कुछ साल तुम्हारे लिए बहुत मुश्किलों भरे रहे हैं। घर और बाहर का सारा काम तुम अकेले ही संभालती थी। इस बात को मैं जानता हूँ। घर के कामकाज में तुम्हारी कोई मदद किए बिना ही मैं काम पर चला जाता था। अब जब भी मेरे पास समय होगा, मैं तुम्हारी ज़्यादा मदद किया करूँगा।" उसकी यह बात सुनकर मैं भावुक हो गयी, क्योंकि इस तरह की बात मेरे पति ने मुझसे कभी नहीं कही थी। मैंने मन ही मन सोचा : "जब से उसने वह पुस्तक पढ़ी है, तब से उसमें एक बड़ा बदलाव आया है। अब न केवल उसके प्रवचन प्रकाश से भरे होते हैं, बल्कि मेरे प्रति उसका रवैया भी बदला है। वह इतने बरसों से बाइबल पढ़ता रहा है, लेकिन उसमें कोई बदलाव नहीं आया, लेकिन अब वह इतने थोड़े-से समय में ही बदल गया। इसका अर्थ है कि उस पुस्तक में लोगों को बदलने का सामर्थ्य है!" उसी वक्त मुझे यह एहसास हुआ कि उस पुस्तक में जो कुछ लिखा है, उससे मुझे भी बहुत लाभ हुआ है। उसे पढ़ने से मेरी आस्था और शक्ति और गहरी हो गयी है, और जब मैंने पुस्तक की बातों के अनुसार आचरण किया, तो मेरे अंदर अपने पति के प्रति जो असंतोष था, वह मिट गया। उसे पढ़ने के बाद मेरे पति का रवैया भी मेरे प्रति बदल गया; उसे समझ में आ गया कि उसे मेरे प्रति कैसे विचारशील होना है और कैसे मेरी परवाह करनी है। इन सारे बदलावों ने मेरे अंदर इस भावना को और गहरा कर दिया कि यह पुस्तक सचमुच शक्तिशाली और अधिकारपूर्ण है। लेकिन मुझे आश्चर्य इस बात का था कि इस पुस्तक में ये वचन किसने लिखे हैं? मुझे इसका जवाब नहीं मिला था।

दो महीने बाद एक दिन मेरे पति ने कहा कि वो मुझे किसी सभा में ले जाना चाहता है। मुझे लग रहा था कि यह ज़रूर कोई विशेष सभा होगी, वरना वो मुझे लेकर नहीं जाता। मुझे उत्सुकता हुई और मैं उस पुस्तक को फिर से देखने का इंतज़ार करने लगी। अगले दिन मैं और मेरा पति दो बहनों के साथ प्रसन्न मन से किसी बहन के घर जा रहे थे। सभा में और भी भाई-बहन भाग ले रहे थे, उनमें करीब तीस साल की एक बहन भी थी जिसने सहभागिता में धर्मशास्त्र को जोड़कर हमारे साथ परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के बहुत से सत्य साझा किए। उसकी सहभागिता सुनकर मेरा दिल सचमुच रोशन हो गया और मुझे बाइबल के ऐसे बहुत-से पदों की स्पष्ट समझ हासिल हुई, जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पायी थी। न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के वापस आने की समझ भी मुझे प्राप्त हुई। मैंने मन में सोचा, "उसकी सहभागिता इतनी अच्छी कैसे है, वो बाइबल को इतने साफ तौर पर कैसे समझा सकती है? वो इतना सब-कुछ कैसे समझती है?" तभी उस बहन ने हमसे मुस्कुराते हुए ऊँची आवाज़ में कहा, "भाइयो-बहनो, मैं आप लोगों को एक ऐसी ज़बर्दस्त खुशखबरी दूँगी, जो आपको रोमाँचित कर देगी। प्रभु यीशु, जिसके लिए हम लोग लंबे समय से तरस रहे थे, देहधारण करके हमारे बीच आ चुका है। वह अपना नया कार्य करने, वचन बोलने और परमेश्वर के तीन चरणों के कार्य, अपने छह हज़ार सालों की प्रबंधन योजना, परमेश्वर के देहधारणों, और बाइबल के सत्यों व रहस्यों पर से परदा हटाने आया है। आज की सहभागिता में मैंने जो कुछ भी साझा किया है, वह सब परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों में से आया है।" वहाँ मौजूद सभी भाई-बहनों ने और मैंने यह बड़ी खुशखबरी सुनी और अंतत: इस बात का एहसास किया : यह बात सामने आ गयी कि इस बहन में इतनी समझ इसलिए है, क्योंकि इन सारी बातों को लौटकर आए प्रभु ने इंसान के साथ साझा किया है। अब हम लोग भी प्रभु की वाणी सुन रहे थे। हम सब लोग खुशी से एक-दूसरे के गले लगे, सबकी आँखों में उत्तेजना के आँसू थे। सारा वातावरण उल्लास से थरथरा उठा। मैं इतनी खुश थी कि उछलने का मन कर रहा था, मैंने सोचा : "मैंने हमेशा प्रभु यीशु की जल्द वापसी की कामना की थी और अब वह सचमुच लौट आया है! मैं बहुत अधिक धन्य हूँ, जो मुझे इसी जीवन में प्रभु यीशु का स्वागत करने का अवसर मिल गया!"

सभा समाप्त होने लगी, तो उस बहन ने हम सभी को न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है नामक पुस्तक दी। परमेश्वर के वचनों की पुस्तक को अपने दोनों हाथों से पकड़ते हुए, मुझे अचानक उस पुस्तक की याद आ गयी जो मैंने पहले पढ़ी थी। क्या यह वही पुस्तक है? घर आकर मैं अपने पति से यह पूछे बिना न रह सकी, "जो पुस्तक मैंने उस दिन देखी थी, क्या वो वही है जो आज हमें बहन ने दी है?" उसने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ।" मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं सपने से जाग रही हूँ। आखिर वह परमेश्वर की वाणी थी—यानी लौटकर आए प्रभु यीशु की वाणी, परमेश्वर की वाणी! तभी वे वचन इतने भावुक कर देने वाले थे, जिन्होंने मुझे आस्था और शक्ति दी, मुझमें बदलाव किया और मुझे मेरे कष्टों से बाहर निकाला। मैंने अपने पति को उलाहना दिया, "आपने मुझसे यह बात क्यों छिपायी कि आपने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार कर लिया है?" उसने कहा, "उस वक्त मैं तुम्हें बताना चाहता था, लेकिन तुम्हारे परिवार में ज़्यादातर लोग धार्मिक समुदाय में प्रचारक हैं, वे लोग परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य का विरोध और निंदा करते हैं। वे लोग सत्य मार्ग की जाँच-पड़ताल की राह में लगातार रोड़े अटकाते रहे हैं। मुझे डर था कि अगर मैं इस बात को अच्छी तरह से नहीं समझा पाया और अगर तुम्हारे सगे-संबंधियों को इस बारे में पता चल गया, तो वे लोग तुम्हारे काम में अड़ंगा डालने और अड़चन पैदा करने के लिए निकल-निकलकर बाहर आने लगेंगे; इससे न केवल तुम्हारे उद्धार के अवसर खत्म हो जाएँगे, बल्कि मैं भी दुष्ट और पापी कहलाऊँगा! इसलिए मैंने फैसला किया कि जब मैं जाँच-पड़ताल करके एकदम स्पष्ट हो जाऊँगा, तभी तुम्हें बताँऊगा।" पति का स्पष्टीकरण सुनकर उसके प्रति मेरी सारी गलतफहमी दूर हो गयी। मैंने स्वयं को परमेश्वर के प्रति और भी अधिक कृतज्ञ महसूस किया। मैंने परमेश्वर के वचनों की इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ने का संकल्प किया।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मेरी शुष्क आत्मा को पोषण और आहार प्रदान किया। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं लौटकर आए प्रभु के वचनों को अपने कानों से सुन पाऊँगी, परमेश्वर के सामने उन्नत हो पाऊँगी या परमेश्वर से रूबरू मिल पाऊँगी। मैं विशेष रूप से परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए उसकी आभारी थी। करीब दस दिनों के बाद मैं और मेरा पति उन बहनों के साथ काम करने लगे, जो हमारी कलीसिया के प्रभु में सच्ची आस्था रखने वाले अन्य भाई-बहनों को सर्वशक्तिमान परमेश्वर की उपस्थिति में लाने के लिए सुसमाचार का प्रचार करती थीं।

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