60. पाखंड का बोझ

सवं, चीन

अगस्त 2020 में, रुतबे के पीछे भागने और अव्यवस्था फैलाने के कारण, मुझे अगुआ के पद से हटा दिया गया। मुझे बहुत बुरा लगा और पछतावा भी हुआ, मैं बस प्रायश्चित करके अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहती थी। कलीसिया ने मुझे एक वीडियो प्रोडक्शन टीम में लगा दिया।

एक दिन मैंने उनसे बर्खास्त होने के बाद के अपने विचारों पर बात की, उनमें से एक बहन यांग ने मुझे बताया कि इससे उसे काफी मदद मिली है। उसके बाद से वह मुझे अलग नज़रिए से देखने लगी। जब मैं सभाओं में बोलती, तो वह ध्यान से सुनती और सिर हिलाती, और आमतौर पर मेरी राय से सहमत होती। वह हर समय मेरा ख्याल रखने लगी। मैं सोचने लगी कि वो मेरा इतना सम्मान करती है, पर मैंने जो कुछ सीखा है, बस उसी बारे में बात की और पश्चाताप किया, मुझे कुछ ठोस करना चाहिए। अगर उन्हें मुझमें कोई बदलाव नहीं दिखा तो क्या वे सोचेंगे कि मैं सिर्फ बातें बनाती हूँ, पर सत्य का अभ्यास नहीं करती? मुझे इस बात की चिंता होने लगी। वीडियो बनाने के लिए मैं कंप्यूटर पर बैठा करती थी, बैठे-बैठे पीठ में दर्द होने लगता था, इच्छा होती कि थोड़ा आराम कर लूँ, लेकिन मुझे डर था कि लोग मुझे आलसी समझेंगे, सोचेंगे कि मैं अच्छे से काम करने की बात तो करती हूँ, लेकिन खुद को बदलने के लिए कुछ नहीं करती। तो थकान के बावजूद मैं ब्रेक नहीं लेती थी, डर लगता कि लोग सोचेंगे मैं अपने काम के प्रति गंभीर नहीं हूँ। नींद आने पर भी मैं जल्दी सोने नहीं जाती थी। काम खत्म हो जाने पर भी 11:30 या 12 बजे रात तक ज़बर्दस्ती जागती रहती थी। कभी-कभी तो पूरी रात जागती थी और सुबह उठना मुश्किल हो जाता था, लेकिन मैं ज़बरदस्ती दूसरों के साथ उठती थी। मुझे गलत छवि पेश करने का डर था। एक बार बहन यांग को कुछ वीडियो पर काम करना था। मैं उसकी मदद करना नहीं चाहती थी क्योंकि वो वीडियो थोड़े मुश्किल और जटिल थे, और मैं उन्हें समझना नहीं चाहती थी। लेकिन मेरे पास अपना कोई प्रोजेक्ट नहीं था, अगर मैंने मदद की पेशकश नहीं की, तो ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अपना काम अच्छे से करने की कोशिश कर रही हूँ बल्कि बहनें सोचेंगी कि मैं सिर्फ बातें बनाती हूँ, सत्य का अनुसरण नहीं करती। तो मैंने जाकर बहन यांग को मदद की पेशकश की।

देखने में लगता जैसे मैं अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हूँ, लेकिन मैं जानती थी कि मैंने यह सब सिर्फ अपनी छवि के लिए किया है। मैं बेचैन हो गई और दूसरों के साथ खुलकर अपनी मंशाओं के बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन डर था कि उन्हें पता लग जाएगा कि इस पूरे समय मेरे मन में कुछ और ही था, और सोचेंगे कि मैंने पश्‍चाताप नहीं किया, न ही सत्य का अभ्यास किया। वो शायद मुझे पाखंडी समझेंगे और बर्खास्तगी से सीखने की बातों को झूठा मान लेंगे। यह ख्याल आते ही, मैंने खुलकर बातें करने से हिचकने लगी, तो मैं सभाओं में उसी भ्रष्टता पर बोलती जिस पर सब बोलते थे और कुछ सकारात्मक अनुभवों पर बात करती, जबकि अपने कुत्सित विचारों को भीतर ही छिपाए रखती। चूँकि मैं केवल सकारात्मक बातें ही साझा करती थी, तो एक सभा में बहन यांग ने मेरे सत्य का अभ्यास करने और बढ़िया संगति करने की प्रशंसा की। फिर मैंने कुछ बहनों को कहते सुना कि मैं सच में सत्य का अनुसरण करती हूँ, अपनी भ्रष्टता पर खुलकर बात करती हूँ, पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। यह सुनकर मुझे प्रसन्नता भी हुई और शर्म भी आई, क्योंकि मैं जानती थी कि उनकी बातें मेरी वास्तविकता से मेल नहीं खातीं। मैं साफ बात बिल्कुल नहीं करती थी, मैंने अपने भीतर की मलिन भ्रष्टता पर कभी खुलकर बात नहीं की थी। कर्तव्य में उत्साह के पीछे मेरी गलत मंशा थी। मुझे लगा यह ठीक नहीं है। सब मेरे दिखावे के फेर में आ गए थे—मैं क्या करूँ? मुझमें अपराध-बोध था, मैं चाहती थी कि उनसे खुलकर बात करूँ, उन्हें मूर्ख न बनाऊँ, लेकिन फिर डर भी था कि अगर ऐसा किया, तो सब मेरे कुत्सित विचारों को जान जाएँगे। अगर उन्हें पता चल गया कि मेरा पश्चाताप सिर्फ पाखंड और दिखावा है, तो वे पूरी तरह मुझे समझ लेंगे कि मैं एक धूर्त और दुष्ट इंसान हूँ। मेरी छवि खराब हो जाएगी और कोई मेरा सम्मान नहीं करेगा। खुलकर बात करने की मेरी हिम्मत जवाब दे गई।

मैं लगातार इस पर विचार और आत्म-चिंतन करती रही, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन भी पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "क्या तुम लोग जानते हो कि फरीसी वास्तव में कौन हैं? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को 'फरीसी' क्यों कहा जाता है? 'फरीसी' उपाधि की परिभाषा क्या है? (पाखंडी के रूप में।) वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? (नहीं।) चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? क्या वह नजरों से दूर उनके दिल में छिपा होता है? (हाँ।) बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं कर सकते, और सही अर्थों में सत्य नहीं समझ सकते। कुछ लोग केवल सिद्धांत समझने और उसे रटने पर ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में वे सिद्धांत के निरंतर उच्च होते जाते कई शब्द बोल पाते हैं, और बहुत-से लोग उन्हें पूजते और उनका आदर करते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। लोग इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छ्द्मावरण द्वारा छिपाने के लिए करते है। वे जहाँ कहीं भी जाते हैं, जिन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, वे जो कहते हैं, और उनका बाहरी व्यवहार, सब कुछ दूसरों को सही और अच्छा लगता है; वे सभी मानवीय धारणाओं और रुचि के अनुरूप हैं। लोगों को ऐसा इंसान बहुत धर्मपरायण लगता है, लेकिन वास्तव में वह नकली होता है; वह विनम्र प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में वह नकली होता है; वह परमेश्वर से प्रेम करता प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है; वह सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगता है परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है, वह पवित्र प्रतीत होता है परंतु वह नकली होता है, उनकी पवित्रता में कुछ भी असली नहीं होता, सब नकली होता है, एक नाटक, एक ढोंग होता है। और क्या? (वफादारी।) बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे ज़रा से भी वफ़ादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतही तौर पर, वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे कलीसिया से मुनाफा कमाते हुए और गुप्त रूप से चढ़ावे चुराते हुए अपना कारोबार चला रहे हैं। जो कुछ भी वे बाहर प्रकट करते हैं—उनका सारा व्यवहार—नकली है। एक पाखंडी फरीसी होने का यही अर्थ है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। इसने मुझे उन फरीसियों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया जो धर्मनिष्ठ, विनम्र और प्रेममय दिखते थे। वे सड़क पर खड़े होकर प्रार्थना करते, धर्मशास्त्र की व्याख्या करते, लेकिन वास्तव में परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर रहे थे। वे मुखौटा लगाकर खुद को अच्छा दिखाते थे ताकि लोग बेवकूफ बनें और उनकी अच्छी छवि बने और उनकी प्रशंसा हो। क्या मैं उन पाखंडी फरीसियों की तरह ही व्यवहार नहीं कर रही थी? उन चीज़ों पर विचार कर, जब मैंने अपनी बर्खास्तगी से सबक सीखने पर बात की, सच्चे पश्‍चाताप की ज़रूरत के बारे में चर्चा की तो बहनें मुझे आदर से देखने लगीं। मुझे डर था कि अगर अपने कर्तव्य में मैंने उत्साह नहीं दिखाया, तो कहीं उनके सामने बनी-बनाईछवि खराब न हो जाए, इसलिए मैंने अपना असली रूप छिपा लिया और झूठा वेश धारण कर लिया। थकान होने पर न तो मैं आराम करती, न ही रात को सोती, आधी-अधूरी नींद लेकर ही बिस्तर से उठ जाती। मैं उस वीडियो पर बहन यांग की मदद नहीं करना चाहती थी, बस चाहती थी कि वह मेरे बारे में ऊंचा सोचे, इसलिए मैंने दिखावा किया कि मैं काम करके खुश हूँ। मुझे पता था कि मैं गलत मंशा से काम कर रही हूँ जिससे परमेश्वर को घृणा है, मुझे दूसरों के साथ खुला व्यवहार करना चाहिए। लेकिन अपनी छवि बचाने के लिए, मैंने अपनी सारी गलत मंशाएँ छिपा लीं, किसी को खबर नहीं होने दी। फिर बहनें मेरी थोड़ी प्रशंसा करने लगीं और मेरा ज्यादा ख्याल रखने लगीं। मैं कपट कर रही थी। मैं समझ गई कि मैं धूर्त बनकर पाखंडी फरीसियों के मार्ग पर चल रही थी। मैं हर समय नाटक कर रही थी। इससे मैं थक गई और खुद को दोषी मानने लगी, परमेश्वर भी इसे नहीं स्वीकारता। इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए, मैंने एक सभा में बहनों के सामने अपनी गलत मंशाओं और पाखंड के बारे में खुलकर बताने का साहस जुटाया। उसके बाद राहत की साँस ली। मुझे यह भी लगा कि मेरे लिए अपनी मंशाओं को सही करना वाकई मुश्किल है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं शुद्ध और सच्चे हृदय से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकूँ।

फिर मैंने किसी के अनुभव के बारे में एक वीडियो देखा जिसमें परमेश्वर के ये वचन थे। परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर उन लोगों को सिद्ध नहीं बनाता है जो धोखेबाज हैं। यदि तुम लोगों का हृदय ईमानदार नहीं है, यदि तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम भी कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। यह मेरे लिए सच में मार्मिक और मुश्किल था। मैं एक चालाक इंसान थी, मेरा दिल अंधकार, बुराई और कपट से भरा हुआ था। मैं सत्य या अपने कर्तव्य-निर्वहन के बारे में नहीं सोच रही थी, मेरे मन में बस प्रशंसा पाने और दूसरों पर अच्छा प्रभाव डालने की ललक थी। सोने को लेकर भी मैं हिसाब-किताब और चिंता करती रहती। परमेश्वर को ईमानदार और स्पष्टवादी लोग पसंद हैं, और केवल ईमानदार लोग ही उसकी स्वीकृति और उद्धार पा सकते हैं। लेकिन मेरी मंशा और शुरुआती बिंदु हमेशा कपट और दुष्टता होते थे। मैं चाहे कितनी भी बन-सँवर कर लोगों का प्यार हासिल कर लूँ, लेकिन मुझे परमेश्वर की स्वीकृति कभी नहीं मिलेगी, परमेश्वर मुझे उन पाखंडी फरीसियों की तरह धिक्कारेगा और घृणा करेगा। मैं खुद से बहुत निराश थी। बरसों की आस्था में, मैंने ईमानदारी जैसे बुनियादी सत्य की वास्तविकता में भी प्रवेश नहीं किया था, मैं पहले की तरह ही धूर्त थी। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी थी और एक इंसान के तौर पर पूरी तरह नाकाम थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "सभी मामलों में, तुम्हें परमेश्वर के साथ खुला हुआ और खुले दिल का होना चाहिए—यह एकमात्र शर्त और अवस्था है जिसका परमेश्वर के सामने ध्यान रखना जरूरी है। जब तुम लोग खुले हुए नहीं भी होते, तो भी परमेश्वर के सामने तुम खुले हुए होते हो। परमेश्वर जानता है कि तुम लोग खुले हुए हो या नहीं। अगर तुम्हें यह दिखाई नहीं देता तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? तो तुम बुद्धिमान कैसे हो सकते हो? तुम जानते हो कि परमेश्वर हर चीज पर नजर रखता है और सब कुछ जानता है, इसलिए यह न सोचो कि शायद उसे नहीं पता है; क्योंकि यह निश्चित है कि परमेश्वर लोगों के दिमागों में चुपके-से देखता रहता है, इसलिए थोड़ा और खुला दिल रखना, थोड़ा और निर्मल होना, और थोड़ा और ईमानदार होना लोगों के लिए बुद्धिमानी की बात होगी—ऐसा करने में ही होशियारी है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो)')। पढ़कर मुझे अपनी मूर्खता का एहसास हुआ। परमेश्वर हमारे दिलो-दिमाग में झाँकता है, इसलिए वह हमारी मंशाएँ, हम कैसे इंसान हैं, इन बातों को दूसरों से बेहतर जानता है। मैं अपनी भ्रष्टता उन बहनों से कितनी भी छुपाऊँ, लेकिन परमेश्वर जानता है। एक विश्वासी के तौर पर जब मैं परमेश्वर की जाँच को स्वीकारना नहीं चाहती, तो क्या इससे मैं गैर-विश्वासी नहीं बन जाती? मुझे बहुत बुरा लगा। प्रशंसा पाने के लिए, सत्य का अनुसरण और पश्चाताप करने वाले इंसान का दिखावा करने से मेरा दम घुट रहा था। थकावट या नींद आने पर हमें आराम करना चाहिए। यह इंसानों के लिए बहुत स्वाभाविक है। इसके अलावा, आराम करने से स्फूर्ति आती है फिर काम भी बेहतर होता है, ऐसे व्यक्ति की कोई आलसी या स्वार्थी कहकर निंदा नहीं करता। लेकिन मैं सबसे बुनियादी मानवीयज़रूरत को नकारने की कोशिश कर रही थी, केवल यही सोच रही थी कि लोगों का सम्मान कैसे प्राप्त करूँ। यह थका देता है। परमेश्वर कहता है कि बुद्धिमान लोगों को स्पष्ट और ईमानदार होना सीखना चाहिए, परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर ईमानदार बनना चाहिए। जीने का यही एकमात्र उन्मुक्त तरीका है। अब मेरी ढोंग करने की इच्छा नहीं रह गई थी। थक जाने पर मैं ब्रेक लेने लगी, नींद आने पर मैं सो भी जाती थी। मैंने सभाओं में अपनी वास्तविक स्थिति उजागर कर दी, और सक्रियता से काम में अपने दायित्वों को पूरा करती। मुश्किल हालात में, मैंने अपने आपसे कहा कि यह मेरा कर्तव्य है, किसी को दिखाना नहीं है। जब भी मेरे मन में दिखावे की इच्छा पैदा होती, तो मैं परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करती : "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इससे मुझे आगे बढ़कर परमेश्वर की जाँच स्वीकारने के लिए तैयार होने में मदद मिलती।

कुछ समय बाद, मैंने देखा कि बहन चेन बहन यांग को कुछ सिखाते समय थोड़ी चिड़चिड़ी होकर धीरज खो देती है। इससे बहन यांग विरोधी हो गई, वो सीखना नहीं चाहती थी, उसमें बहन चेन के प्रति एक पूर्वाग्रह पैदा हो गया। मुझे लगा उसे मैं प्रशिक्षण दे सकती हूँ, ताकि सब देखें कि मैं एक प्रेममयी, धैर्यवान इंसान हूँ और मुझे और ज़्यादा चाहने लगें। अंत में मैंने ऐसा ही किया। शुरू में तो मैंने उससे बड़े सब्र के साथ और प्यार से बात की, लेकिन जब मैंने देखा कि वह धीमे सीखती है और बहुत गलतियाँ करती है, तो मैं चिढ़ने लगी। मुझे लगा वह तेज नहीं है तो मैं उसे नीची नज़र से देखने लगी, फिर भी अपने गुस्से पर काबू रखकर उसे सिखाती रही। लेकिन अंदर ही अंदर मेरा गुस्सा भड़क रहा था, मगर मैंने सभाओं में अपनी असली भावनाओं को प्रकट नहीं किया, क्योंकि मुझे चिंता थी कि अगर मैंने कुछ कहा तो बहनें सोचेंगी कि मैं भी बहन चेन की तरह ही अनुचित हूँ, मुझमें प्यार और धैर्य की कमी है, और इससे मेरी छवि खराब होगी। इसके अलावा, सामान्य बातचीत में, जब मैं दूसरों को भ्रष्टता प्रकट करते या नकारात्मक होते देखती, तो मुझे उनसे थोड़ी घृणा होती भले ही मैं ध्यान रखने वाली और समझदार होने का नाटक करती। मैंने इस डर से वह सब साझा करने की नहीं सोची, कि उन्हें लगेगा मुझमें करुणा नहीं है और मेरे साथ निभाना मुश्किल है।

नवंबर महीने में एक बार, मुझे एक अगुआ का पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि मुझे अगले दिन कहीं और ड्यूटी पर जाना है। सारी बहनें इस बात से दुखी हो गईं। बहन ली ने कहा कि मेरी संगति उसके लिए बहुत शिक्षाप्रद और सहायक थी, मैं लोगों के साथ निष्पक्ष थी, कभी नाक-भौं नहीं सिकोड़ती थी, सत्य समझने और उसका अनुसरण करने वालों का हर जगह स्वागत होता है। इतनी तारीफ सुनकर मैं थोड़ी असहज हो गई। मैंने उससे कहा कि किसी की इतनी प्रशंसा या उसे इतना मत चढ़ाओ, यह उसके लिए अच्छा नहीं है। उसके बाद मैंने बहन यांग से बात की। वो सीधे तौर पर तो मेरी तारीफ नहीं कर रही थी, लेकिन उसकी बातों से लगा कि उसकी राय भी बहन ली जैसी ही थी। मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर बोझ है, चिंता हुई कि मैंने उन्हें गुमराह किया है और मुझमें समस्या भी है। लेकिन इसे दूसरे तरीके से देखा तो लगा कि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, पर मैं आत्मचिंतन करना चाहती हूँ, और हो सकता है कि मैं उस मामले में उनसे बेहतर हूँ, इसलिए वे मेरे बारे में ऊँची राय रखते हैं। यह सोचकर, वो बात मैंने अपने मन से निकाल दी और उस बारे में फिर कभी नहीं सोचा।

मैंने एक गवाही वीडियो देखा, एक पाखंडी का पश्चाताप, जिसमें एक बहन अपनी संगति में केवल सकारात्मक बातें कहती थी, और सभी लोग उसका सम्मान करते थे। उसे बर्खास्त कर दिया गया लेकिन फिर भी सभी भाई-बहनों ने उसे वापस लाने के लिए सर्वसम्मति से उसे वोट दिया, उन्हें लगा कि उसका होना अनिवार्य है। कुछ लोगों में उसके प्रति इतनी ज़्यादा श्रद्धा थी कि वे उसे परमेश्वर मानते थे। इसने मुझे सचमुच जगा दिया : यह एक गंभीर समस्या थी। मैंने सोचा कि हाल ही में किस तरह लोग मेरी सराहना और सम्मान कर रहे थे शायद मैं भी उस बहन की तरह हूँ, सिर्फ सकारात्मक प्रवेश की बातें करती हूँ, शायद मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। तब मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "दूसरों के सामने मसीह-विरोधी अत्यधिक सहिष्णुता, धैर्य, नम्रता और दयालुता में सक्षम होने का दिखावा करते हैं। सभी को वे उदार और बड़े दिल वाले दिखते हैं। उन्हें कोई समस्या और कुछ अधिकार दे दो, और वे हर लिहाज से उसे उदारता के साथ सँभालते प्रतीत होते हैं, बाल की खाल नहीं निकालते, यह दिखाते हैं कि वे कितने महान हैं। क्या इन मसीह-विरोधियों में वास्तव में ऐसे सार होते हैं? उनकी दयालुता, सहनशीलता और दूसरों पर ध्यान देने का क्या उद्देश्य होता है? अगर उन्हें दूसरों को जीतने के लिए उनकी खुशामद न करनी होती, तो क्या वे ऐसे काम करते? क्या यही है उनका असली चेहरा? क्या उनके सार, स्वभाव और मानवता वास्तव में वैसे ही विनम्र, धैर्यवान, सहिष्णु और वास्तविक प्रेमपूर्ण सहायता करने में सक्षम होते हैं, जितने वे लगते हैं? बिलकुल नहीं। अधिक लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए, अधिक लोगों को जीतने के लिए, उनके दिल में जगह बनाने के लिए, कोई समस्या आने और मदद की आवश्यकता होने पर सबसे पहले किसी मसीह-विरोधी के बारे में सोचने के लिए—ये लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मसीह-विरोधी जानबूझकर लोक-लुभावन कार्य करते हैं, सारे शब्द सही कहते हैं और सारी चीजें सही करते हैं। इससे पहले कि शब्द उनके मुँह से निकलें, कौन जानता है कि उन्होंने कितनी बार उन्हें अपने दिलो-दिमाग में जाँचा और उनमें रद्दो-बदल की। वे बड़ी गणना और सोच-विचार के साथ शब्दों, लहजे, और बात कैसे कहनी है इस पर, यहाँ तक कि उन्हें बोलते समय अपने चेहरे के हाव-भाव और लहजे पर भी गौर करते हैं और इस बात को ध्यान में रखते हैं कि वे ये शब्द किससे कह रहे हैं, उनकी उम्र कितनी है, वे उनसे कनिष्ठ हैं या वरिष्ठ, वे उनके बारे में क्या सोचते हैं, वे उनके प्रति कोई व्यक्तिगत नाराजगी तो नहीं रखते, क्या उनके व्यक्तित्व अच्छी तरह मेल खाते हैं, कलीसिया में और भाई-बहनों के बीच वे किस तरह की हैसियत रखते हैं, वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं—विभिन्न लोगों के प्रति व्यवहार करने के तरीके की युक्तियाँ बनाने से पहले वे यह सब ध्यान से देखते-विचारते हैं। वे युक्तियाँ कैसी भी हों, आम तौर पर मसीह-विरोधी का एक ही उद्देश्य होता है, चाहे उद्दिष्ट व्यक्ति कोई भी या कैसा भी हो : उस व्यक्ति को अपने बारे में अच्छी राय रखने के लिए बाध्य करना, उसे अपने को नीची निगाह से देखने से रोकना, उसे इस बात के लिए तैयार करना कि वह उन्हें अपने बराबर समझे, उनका सम्मान करे, लोगों को इस बात के लिए बाध्य करना कि जब वे बोलें तो वे उन्हें ध्यान से सुनें, उन्हें बोलने का समय और मौका दें, काम करते समय वे अधिक लोगों की सहमति प्राप्त करें, गलतियाँ होने पर अधिक लोगों द्वारा बरी किए जाएँ, अधिक से अधिक लोग उनके साथ खड़े रहें, उनके लिए बोलें, और उनकी असलियत उजागर किए जाने, परमेश्वर के घर द्वारा त्यागे जाने और कलीसिया से बाहर निकाले जाने पर परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे बहस करने का प्रयास करें। यह दर्शाता है कि जो हैसियत और प्रभाव उन्होंने जानबूझकर बनाया है, वह कलीसिया में गहराई से जड़ें जमाए है; स्पष्ट रूप से, उन्हें अपदस्थ किए जाने पर इतने लोगों द्वारा उन्हें सहायता, एकजुटता और बचाव की पेशकश करने का मतलब है कि उनके प्रयास व्यर्थ नहीं गए" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। मसीह-विरोधी के बारे में वचन कहते हैं कि वे लोगों की प्रशंसा पाने के लिए महान होने का नाटक करते हैं, इस तरह उन्हें गुमराह करते हैं। मैं एक मसीह-विरोधी की तरह ही बर्ताव कर रही थी। प्रशंसा चाहती थी, इसलिए बहन यांग को प्रशिक्षण देने के दौरान, तंग आने पर भी मैं धैर्यवान होने का नाटक करती रही। जब मैंने बहनों में भ्रष्टता देखी, तो उन्हें नीची नज़र से देखने लगी, मैं फिर भी नाटक करती रही, मैंने किसी से खुलकर बात नहीं की। मुझे लगा इससे मेरी छवि खराब हो जाएगी। इससे वे सभी धोखा खा गईं और मेरी तारीफ करती रहीं। मैं सच में बहुत चालाक थी।

मैं सोचने लगी कि मैंने नाटक करना बंद क्यों नहीं कर पाती। यह कौन-सा स्वभाव है? मैंने परमेश्वर के कुछ वचन भी पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "धोखा अक्सर बाहर से नजर आ जाता है। जब किसी को बहुत शातिर और चालाकी से बात करने वाला कहा जाता है, तो यह धोखा होता है। और दुष्टता का प्रमुख लक्षण क्या होता है? दुष्टता वह होती है, जब लोग ऐसी बातें करते हैं जो कानों को अच्छी लगती हैं, जब सब कुछ सही और आलोचना से परे लगता है, और किसी भी तरह से देखने पर भला लगता है, पर उनके काम खास तौर से दुष्टतापूर्ण और बहुत ज्यादा लुके-छिपे होते हैं, और आसानी से नजर में नहीं आते। वे अक्सर कुछ सही शब्दों और सुनने में मीठे लगने वाले जुमलों का प्रयोग करते हैं, और ऐसे सिद्धांतों, तर्कों और तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप होते हैं, ताकि उनकी आँखों पर पट्टी बांधी जा सके; वे एक तरफ जाने का दिखावा करते हैं पर दरअसल दूसरी तरफ जाते हैं, ताकि अपने गुप्त उद्देश्य हासिल कर सकें। यही दुष्टता है। लोग आम तौर से इसे धोखा मानते हैं। उन्हें दुष्टता की कम जानकारी होती है, और वे उसे पहचानते भी कम हैं; दरअसल दुष्टता को पहचानना धोखे को पहचानने से ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि यह ज्यादा लुकी-छिपी होती है, और इसमें शामिल तरीके और तकनीकें ज्यादा परिष्कृत होती हैं। जब किसी का स्वभाव कपटपूर्ण होता है, तो आम तौर से दो-तीन दिन में ही दूसरे यह भाँप लेते हैं कि वह धोखेबाज है, या उसकी हरकतें और उसके शब्द कपटपूर्ण स्वभाव को प्रकट करते हैं। पर जब किसी के बारे में यह कहा जाता है कि वह दुष्ट है, तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका एक-दो दिन में पता चल सके। क्योंकि अगर कुछ अवधि के भीतर कोई विशिष्ट या प्रमुख घटना नहीं होती, और तुम केवल उनकी बातें सुनते हो, तो तुम्हारे लिए उनकी असलियत बता पाना मुश्किल होगा। वे सही शब्द बोलते हैं, सही चीजें करते हैं, और एक के बाद एक सिद्धांतों की बौछार कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति के साथ दो-तीन दिन बिताने के बाद तुम उन्हें भला इंसान मानने लगते हो, ऐसा इंसान जो चीजों का त्याग कर सकता है और खुद को खपा सकता है, जो आध्यात्मिक मामले समझता है, जिसके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम है, जो अपनी अंतरात्मा और चेतना के अनुसार व्यवहार करता है। और फिर तुम लोग उन पर भरोसा करके उन्हें कुछ काम सौंपने लगते हो, और जल्दी ही तुम्हें यह अहसास होने लगता है कि वे ईमानदार नहीं हैं, कि वे धोखेबाज लोगों से भी ज्यादा मक्कार हैं—कि वे दुष्ट लोग हैं। वे अक्सर बिलकुल सही शब्द चुनते हैं, ऐसे शब्द जो सत्य से मेल खाते हैं, जो लोगों की भावनाओं और मानवता के अनुरूप होते हैं, ऐसे शब्द जो बड़े मीठे लगते हैं। इन छलावे भरे शब्दों से वे लोगों से बात करते हैं, जिसके पीछे एक तरफ अपने-आपको स्थापित करने और दूसरी तरफ लोगों को ठगने की मंशा होती है, जिससे उन्हें लोगों के बीच रुतबा और प्रतिष्ठा मिल सके, और इस सबसे ऐसे लोग आसानी से उनके झांसे में आ जाते हैं जो अज्ञानी होते हैं, जिन्हें सत्य की ज्यादा समझ नहीं होती, जिन्हें आध्यात्मिक बातों की समझ नहीं होती, और परमेश्वर में जिनकी आस्था का कोई ठोस आधार नहीं होता। दुष्ट स्वभाव वाले लोग यही करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। इससे मैंने समझा कि इन सबके पीछे, एक दुष्ट स्वभाव मुझे नियंत्रित कर रहा था, जिसे देखना धूर्त स्वभाव से अधिक कठिन है। मैं अपनी गलत मंशाओं के लिए लोगों को गुमराह करना और उनका दिल जीतना चाहती थी, इसलिए मैंने ऐसे काम किए जो अच्छे और सत्य के अनुरूप प्रतीत होते थे, और लोग मेरी बातों में आ गए। मैं ऐसी ही थी। मुझे पता था कि लोग सत्य का अनुसरण करने वालों और प्रेममय लोगों को पसंद करते हैं, परमेश्वर के घर में उनका मान होता है, तो मैंने वैसा इंसान होने का नाटक किया। मैं कष्ट उठाने, कीमत चुकाने, कर्तव्य निभाने और प्रेममय होने के लिए तैयार दिखती, और सत्य के अनुरूप काम करने का नाटक करती, लेकिन मेरा उद्देश्य सत्य का अभ्यास करना नहीं था। यह सिर्फ प्रशंसा पाने के लिए था। मैं दूसरों के सामने अच्छी दिखना और उनका दिल जीतना चाहती थी। मैं सच में दुष्ट और नीच थी। अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय न होता, तो मुझे लगता कि दिखावा करना सिर्फ चतुराई है, मैं इसे किसी प्रकार के दुष्ट स्वभाव के रूप में नहीं देखती। यह मार्ग परमेश्वर के विरुद्ध है। हाँ, बिल्कुल है। मुझे शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया था लेकिन मैं लोगों की प्रशंसा पाना और उनका दिल जीतना चाहती थी। कितनी बेशर्मी है! परमेश्वर ने हमें बनाया है, तो हमें उसकी आराधना करनी ही चाहिए। हमारे दिल में सिर्फ परमेश्वर होना चाहिए। लेकिन मैं चाहती थी कि लोगों के दिल में मैं रहूँ, मैं परमेश्वर के स्थान के लिए लड़ रही थी। मैं महादूत की तरह बर्ताव कर रही थी। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता, अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो मुझे पता था कि परमेश्वर जरूर फरीसियों की तरह ही मुझे भी शाप देगा। इससे मैं डर गई। मैं जान गई कि ऐसे ही काम करते रहना बहुत खतरनाक है। मैंने देह-सुख त्यागने और एक सरल, ईमानदार व्यक्ति बनने का संकल्प लिया।

फिर मैं खुद को त्यागने का प्रयास किया, और सभाओं में खुलकर बोलने लगी। एक बार, मैंने एक वीडियो के काम में सुस्ती दिखाई, उसमें बहुत सारी समस्याएँ थीं। उसे दोबारा करने में बहुत वक्त ज़ाया हो गया। जब एक बहन ने कहा कि मैं गैर-ज़िम्मेदार और भरोसे के लायक नहीं हूँ, तो मैंने विरोध किया, मन ही मन मैंने उससे बहस की। फिर एक अगुआ ने मुझसे मेरी स्थिति के बारे में पूछा, मैंने सोचा, अगर मैं सब-कुछ साझा करूँ, तो शायद भाई-बहन सोचेंगे कि मैं सत्य स्वीकार नहीं पाती, मैं बस अपना बचाव ही करती रहती हूँ। फिर सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? तब मैंने साफ देखा कि मैं फिर से नाटक कर रही हूँ, मैंने प्रार्थना की तो परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। परमेश्वर कहते हैं, "हर बार जब तुम कुछ करना समाप्त करते हो, तो उसके जो अंश तुम सोचते हो कि तुमने ठीक किए हैं, उन्हें जाँच के लिए रखना होगा—और, इससे भी बढ़कर, जो अंश तुम सोचते हो कि तुमने गलत किए हैं, उन्हें भी जाँच के लिए रखना होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि भाई और बहनें मिलकर संगति करने, खोजने और एक-दूसरे की सहायता करने में अधिक समय लगाएँ। जितना अधिक हम संगति करते हैं, उतना ही अधिक प्रकाश हमारे हृदय में प्रवेश करता है; तब परमेश्वर हमारी सभी समस्याओं के संबंध में हमें प्रबुद्ध करेगा। अगर हम में से कोई नहीं बोलता, और हम सब बस अच्छे दिखने के लिए खुद पर आवरण चढ़ाकर दूसरों के मन पर एक अच्छी छाप छोड़ने की उम्मीद करते हैं और चाहते हैं कि वे हमारे बारे में ऊँचा सोचें और हमारा उपहास न करें, तो हमारे पास विकास करने का कोई साधन नहीं होगा। अगर तुम हमेशा अच्छा दिखने के लिए खुद पर आवरण चढ़ा लेते हो, तो तुम विकास नहीं करोगे, और तुम हमेशा अधंकार में ही जियोगे। तुम रूपांतरित होने में भी असमर्थ रहोगे। अगर तुम बदलना चाहते हो, तो तुम्हें मूल्य चुकाना होगा, अपने आपको उजागर करना होगा, और अपना हृदय दूसरों के लिए खोलना होगा, और ऐसा करके तुम अपने को भी लाभान्वित करोगे और दूसरे लोगों को भी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। इससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। मुझे परमेश्वर की जाँच स्वीकारनी थी, लोग चाहे कुछ भी सोचें, मुझे खुलकर बात करनी थी और सत्य का अभ्यास करना था। उस समय मैंने अपनी स्थिति के बारे में खुलकर बात करने और अपनी भ्रष्टता उजागर करने की हिम्मत जुटाई। ऐसा करने के बाद मुझे सुकून मिला, लोगों के साथ संगति करने से मुझे अपनी समस्या समझने में मदद मिली।

उस दौरान जो कुछ खुलासा हुआ उससे मुझे अपने धूर्त और दुष्ट स्वभाव का पता चला। मैं हमेशा नाटक करती थी ताकि लोग मेरा आदर करें। अगर परमेश्वर ने उस ढंग से चीज़ों की व्यवस्था न की होती, तो मुझे कभी पता न चलता कि मैं परमेश्वर-विरोधी रास्ते पर हूँ, कि मैं उसके खिलाफ़ जा रही हूँ, और मैं अंत में नष्ट कर दी जाऊँगी। मैंने यह भी जाना कि काम करते समय हमारे इरादे कितने महत्वपूर्ण होते हैं, मैंने परमेश्वर की जाँच को स्वीकारना और अपने इरादों को सुधारना सीखा, खुलकर बात करना और ईमानदार होना सीखा। परमेश्वर की स्वीकृति पाने और उसे आनंदित करने का यही तरीका है।

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