7. परमेश्वर के वचनों से ही हमें दूसरों को देखना चाहिए

शीला और मैं अच्छे दोस्त थे, मैं उसे अच्छे से जानती थी। जब भी हमारी मुलाकात होती, वह अपनी मौजूदा हालत के बारे में बातें करती। वह कहती कि वह हमेशा दूसरों पर संदेह करती है, फिक्र करती है कि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। यह भी कहती कि वह बहुत नीच है, हमेशा सोचती है कि लोगों के कहने का आशय क्या था। किसी के चेहरे पर ज़रा-सा भी भाव देखकर, उनके लहजे या किसी टिप्पणी से भी वह बेचैन हो जाती है। वह ऐसा नहीं बनना चाहती थी, पर इस पर काबू नहीं पा रही थी। अक्सर कहती कि वह बहुत भ्रष्ट और कपटी है, उसमें ज़रा-सी भी मानवता नहीं है, वह इज्जत और रुतबे को कितना महत्व देती है, इससे उसे घृणा है, और बात करते हुए रोने लगती थी। उसे इतना अफसोस करते और खुद से इतनी घृणा करते देखकर मैंने सोचा कि वह सच में बदलना चाहती है। शायद यह भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर था। यह उसकी सबसे गंभीर समस्या थी और इसे बदलना आसान नहीं था; इसमें काफी समय लगता। इसलिए मैंने सोचा कि उसके साथ सहानुभूति रखनी चाहिए। मैं अपने काम में कितनी भी व्यस्त रहती, अगर वह बात करना चाहती, तो मैं अपने काम को किनारे कर उसके दिल की बात सुनती, अक्सर उसका हौसला बढ़ाती, दिलासा देती और उसके साथ संगति करती। मगर मैं समझ नहीं पाई कि भले ही शीला अपनी संगति में तर्कसंगत दिखती और खुद को अच्छे से जानती थी, मगर जब लोग उसकी समस्याएं बताते, तो उसे लगता था कि वे उसका तिरस्कार कर रहे हैं और वह नकारात्मक हो जाती थी। ऐसा बार-बार हुआ और वह कभी नहीं बदली। इतना ही नहीं, उसने इस मसले पर कई लोगों से बात की थी, कई बार खुलकर बताया और कई लोगों ने उसके साथ संगति की। लेकिन कई साल बाद भी उसमें सुधार की एक भी निशानी नज़र नहीं आई।

एक बार की बात है, एक सुपरवाइजर नए सदस्यों के सिंचन से जुड़े हमारे मसलों पर गौर कर रही थी, उसने कहा कि हम नए सदस्यों पर ध्यान नहीं देते और सब्र से काम नहीं लेते, जब वे सभाओं में नहीं आते हैं, तो हम फौरन संगति कर उनकी मदद नहीं करते हैं, यह गैर-जिम्मेदाराना है। सुपरवाइजर यह बात सभी सिंचन कर्मियों से बोल रही थी, किसी एक व्यक्ति पर उँगली नहीं उठा रही थी। मगर शीला ने कहा कि सुपरवाइजर उसे उजागर कर उसकी छवि खराब कर रही थी, वह सभा में बात भी नहीं करना चाहती थी। एक बार, एक भाई अपनी मौजूदा हालत पर संगति करते हुए बोला कि कभी-कभी कम काबिल लोगों के साथ बातचीत करते हुए वह उनके साथ ठीक से पेश नहीं आता। उसने अपने अनुभव पर संगति की और बताया कि कैसे उसने सुधार कर सत्य में प्रवेश किया। मगर शीला को लगा कि वह उसके बारे में ही बात कर रहा है, उसे कम काबिल आंककर नीचा दिखाना चाहता है। उसके बाद वह कई दिनों तक नकारात्मक रही, उस भाई के खिलाफ पूर्वाग्रह रखकर उससे दूर रहने और उसकी अनदेखी करने लगी। एक बार काम की चर्चा के दौरान सुपरवाइजर ने शीला के नए सदस्यों के सिंचन-कार्य में एक समस्या बताई, तो वह अचानक रोने लगी और बाहर भाग गई, और काफी देर तक वापस नहीं आई। वह चुपचाप एक किनारे बैठी आंसुओं से अपना चेहरा भिगोती रही, मानो उसके साथ बहुत अन्याय हुआ हो। उसके चेहरे के हाव-भाव देखकर मेरा मन अशांत हो गया और सभा में व्यवधान पड़ गया। आखिर में, कोई चारा न देखकर सुपरवाइजर ने उसका हौसला बढ़ाया और दिलासा दिया, तब जाकर वह शांत हुई। बाद में, अगुआ ने उसके साथ संगति कर बताया कि वह इज्जत और रुतबे को काफी महत्व देती है, वह काम करने के लिए सभी लोगों की देखरेख और ध्यान चाहती थी। वह इस बात को स्वीकार नहीं पाई : उलटकर कहा कि सुपरवाइजर की आलोचना पक्षपातपूर्ण और अनुचित थी, दरअसल वह मुश्किल प्रकृति की इंसान थी, वह बदलना चाहती थी पर बदल नहीं पा रही थी। उसने यह भी कहा, “मेरे बचने की कोई गुंजाइश नहीं। मेरी प्रकृति ऐसी क्यों है? हर कोई मुझसे बेहतर क्यों है, उनके विचार सुलझे हुए क्यों हैं? परमेश्वर ने मुझे अच्छी प्रकृति क्यों नहीं दी?” उसकी बातें सुनकर मैंने सोचा, “वह कितनी घिनौनी और विवेकहीन है। परमेश्वर को दोष कैसे दे सकती है?” मगर फिर सोचा कि शायद वह इन दिनों बुरी हालत में हो, उसने ये बातें सिर्फ अपनी इज्जत और रुतबे पर खतरा होने के कारण कही हो। मुमकिन है कि हालत सुधर जाने पर वह ऐसी न रहे।

मगर बाद में एहसास हुआ कि वह चाहे जिसके साथ हो, सामने वाले के हाव-भाव से बेबस हो जाती थी—अगर उसे लगता कि कोई उसके प्रति उदासीन है या उसे उसका लहजा पसंद न आता, तो वह समझती कि वह व्यक्ति उससे चिढ़ता है। उसके साथ बातचीत में, मैं बेहद सतर्क रहती थी, हमेशा सोचती कि कहीं मैं उसे नाराज न कर दूं, वह निराश होकर काम में देरी न करने लगे। शीला के साथ बातचीत करने में घुटन होती थी, मैं हमेशा उससे बचना चाहती थी। फिर याद आया, मैं भी तो भ्रष्ट हूँ, ऐसे में दूसरों को आलोचना की नजर से नहीं देखना चाहिए। मुझे दूसरों की परवाह कर उनके संघर्ष पर विचार करना चाहिए, सहनशील और दयालु बनना चाहिए। मैंने उसके साथ सामान्य बातचीत करने की कोशिश की, उसे नाराज न करने का भरसक प्रयास किया।

बाद में, चूंकि शीला सत्य हरगिज नहीं स्वीकारती थी, विवेकहीन थी, और कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी, अगुआ ने उसे बर्खास्त कर दिया और अलग रहकर चिंतन करने को कहा। यह खबर सुनकर मैं बहुत हैरान हुई, क्योंकि शीला भले ही इज्जत और रुतबे की बहुत परवाह करती थी, अक्सर दूसरों पर संदेह करती थी, फिर भी वह खुलकर बात और संगति करने को तैयार थी, वह सत्य खोजने वाली लगती थी। फिर उसे अलग क्यों किया गया? बाद में, एक सभा में जब अगुआओं ने शीला के बारे में मूल्यांकन पढ़कर सुनाये और परमेश्वर के वचनों से उसके बर्ताव का विश्लेषण किया, तब जाकर मुझे उसकी थोड़ी पहचान हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “विवेकहीन, लगातार तंग करने वाले लोग जब कार्य करते हैं, तो केवल अपने हितों के बारे में ही सोचते हैं। वे जो चाहते हैं वह करते हैं, और उनकी बात बेतुके पाखंडों से भरी होती है। वे विवेक से परे होते हैं और वे एक शातिर स्वभाव से भरे होते हैं। खुद पर आपदा आमंत्रित करने के डर से कोई उनके साथ जुड़ने की हिम्मत नहीं करता और कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करने को तैयार नहीं होता। लोग उनसे अपने मन की बात कहने में घबराहट महसूस करते हैं और डरते हैं कि अगर उन्होंने एक भी शब्द ऐसा कह दिया, जो उन्हें पसंद या उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे उसे लपक लेंगे और उसके आधार पर घोर आरोप लगा देंगे। क्या ऐसे लोग दुष्ट नहीं हैं? क्या वे जीवित राक्षस नहीं हैं? दुष्ट स्वभाव और खराब विवेक वाले सभी लोग जीवित राक्षस हैं। और जब कोई जीवित राक्षस के साथ बातचीत करता है, तो वह पल भर की लापरवाही से अपने ऊपर आपदा ला सकता है। अगर ऐसे जीवित राक्षस कलीसिया में मौजूद हों, तो क्या यह समस्या का द्योतक नहीं होगा? (होगा।) अपनी भड़ास निकालने और गुस्सा उतारने के बाद ये जीवित राक्षस कुछ देर के लिए एक इंसान की तरह बोल सकते हैं और माफी माँग सकते हैं, लेकिन बाद में वे नहीं बदलते। कौन जानता है कि कब उनका मूड खराब हो जाए और कब वे अपने बेतुके पाखंड झाड़ते हुए दूसरी भड़ास निकाल दें। हर बार उनके आगबबूला होने और भड़ास निकालने का लक्ष्य अलग होता है; ऐसा ही उनके आवेशों का स्रोत और पृष्ठभूमि होती है। कोई भी चीज उन्हें क्रोधित कर सकती है। कोई भी चीज उन्हें असंतुष्ट महसूस करवा सकती है और कोई भी चीज उन्हें अशिष्ट और अनुचित तरीके से प्रतिक्रिया देने के लिए प्रेरित कर सकती है। कितना डरावना और कितना तकलीफदेह है यह! ये दुष्ट लोग ऐसे व्यवहार करते हैं, जैसे वे मानसिक रूप से बीमार हों। वे किसी भी समय अपना आपा खो सकते हैं और कोई नहीं जानता कि वे क्या करने में सक्षम हैं। मुझे ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत है। उनमें से हर एक का सफाया कर देना चाहिए—उन सभी को बाहर कर देना चाहिए। मैं उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता। वे भ्रमित विचारों वाले और पाशविक स्वभाव के हैं, वे बेहूदा पाखंडों और बकवास से भरे हुए हैं, और जब चीजें उन पर पड़ती हैं, तो वे उनके बारे में प्रचंड तरीके से बोलते हैं। ... वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्हें कोई समस्या है, इसके बजाय वे जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं। यहाँ तक कि वे अपने व्यवहार के लिए भी दूसरे लोगों को ही दोष देते हैं, और दावा करते हैं कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया है, जैसे कि उनकी सारी बदमिजाजी और मूर्खतापूर्ण ढंग से समस्या खड़ी करने का कारण कोई और हो, और उनके पास उस तरह से पेश आने के अलावा कोई विकल्प न रहा हो। वे ऐसा दिखाते हैं, मानो वे आत्मरक्षा में काम कर रहे थे, मानो यह दूसरे लोगों की गलती हो। जैसे ही वे असंतुष्ट महसूस करते हैं, बकवास करते हुए और अपने बेतुके पाखंड झाड़ते हुए वे गुस्सा निकालना शुरू कर देते हैं। वे ऐसे पेश आते हैं, मानो दोष किसी और का हो, मानो बस वे ही अच्छे और बाकी सभी बुरे हों। और चाहे वे कितनी बदमिजाजी दिखाएँ और चाहे जो भी बेहूदा पाखंड झाड़ें, वे फिर भी यही चाहते हैं कि दूसरे उनके बारे में अच्छा बोलें। जब वे कुछ बुरा कर देते हैं, तो किसी को भी उसका पर्दाफाश कर उन्हें दोष नहीं देने देते। अगर तुम उनके बारे में कुछ बुरा कहते हो, तो वे तुम्हें उसके बारे में लगातार परेशान करेंगे और बात कभी खत्म नहीं होने देंगे। ये लोग कौन हैं? ये विवेकहीन, लगातार तंग करने वाले लोग हैं, और ये सभी दुष्ट हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। जैसे ही कोई कुछ ऐसा कहता जिससे उनके हितों को खतरा हो तो ऐसे लोग अनुचित ढंग से बात कर बखेड़ा खड़ा करते हैं। उनका स्वभाव इस कदर बुरा होता है कि लोग उन्हें नाराज करने और उनका विरोध करने से डरते हैं। वे भाई-बहनों और कलीसियाई जीवन को बुरी तरह बिगाड़ देते हैं। शीला एकदम वैसी ही थी। जब लोग उसकी समस्याएं बताते, तो वह कभी नहीं सोचती कि उनकी बात सही है या नहीं, न ही चिंतन करती, उसका ध्यान उनके लहजे और रवैये पर ही रहता। अगर वे उसकी पसंद के मुताबिक नहीं होते, तो वह नाराज होकर उनके बारे में खराब राय बना लेती, सोचती कि वे उससे चिढ़ते और उसे नीची नजर से देखते हैं, या रोकर अपनी नाराजगी जाहिर करती। इससे दूसरे लोग बेबस हो जाते, वे या तो उससे बचते फिरते या उसकी बात सुननी पड़ती। हमारे सुपरवाइजर ने सिंचन कार्य की समस्याओं पर गौर किया, ताकि हममें सुधार कर बेहतर ढंग से काम करने में मदद कर सके, मगर शीला को लगा सुपरवाइजर उस पर ऊंगली उठाकर उसकी पिछली गलतियां उजागर कर रहा है, तो उसने सुपरवाइजर के बारे में खराब राय बना ली लगातार रोती रही, मानो उसके साथ अन्याय हुआ हो, जिससे पूरी सभा बाधित हो गई और हर कोई परेशान हो गया। जब एक भाई ने अपनी हालत पर संगति करते हुए कहा कि वह लोगों से सही ढंग से पेश नहीं आता, तो उसे लगा वह उसका तिरस्कार कर नीचा दिखाना चाहता है, तो उसे अनदेखा कर दिया, यहाँ तक कि अपनी भड़ास निकालने के लिए बुरी तरह रोने लगी। लोगों में उसका विरोध या उसे नाराज करने की हिम्मत नहीं थी, वे विनम्र होकर ही उससे बात करते, उसे शांत करते और उसकी बात मान लेते। तब जाकर वह अपना काम करती। शीला कई सालों से ऐसा ही बर्ताव कर रही थी। जो भी उसकी इज्जत और रुतबे को नुकसान पहुंचाता या उसके हितों के लिए खतरा बनाता, वह उसके बारे में खराब राय बना लेती। वह तो यहाँ तक कहती कि उसके नकारात्मक होने की वजह उसके प्रति लोगों का रवैया है उसने अनुचित तरीके से सत्य को उलट दिया। क्या वह उन विवेकहीन लोगों में से नहीं थी जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है? इसका एहसास होने पर ही मैंने जाना कि दूसरों के प्रति संदेह रखना और इज्जत की बहुत परवाह करना ही शीला की समस्या नहीं है, वह सत्य भी नहीं स्वीकारती थी, असल में वह खीझ पैदा करने वाली विवेकहीन इंसान थी। मैंने विचार किया, जब मैंने शीला को अक्सर अपनी हालत पर चर्चा करते, अपनी भ्रष्टता पर खुलकर बात करते, सभाओं में खुद का विश्लेषण करते अपनी भ्रष्टता के बारे में चर्चा करते समय रो-रोकर अफसोस जताते देखा, तो लगा उसे खुद की असली समझ होगी और वह सत्य खोजती होगी। मेरे समझ में गलती क्या थी?

बाद में, भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करके मुझे उसके तथाकथित “आत्मज्ञान” की थोड़ी समझ आई। “जब कुछ लोग आत्मज्ञान के बारे में संगति करते हैं, तो उनके मुँह से पहली बात यह निकलती है, ‘मैं एक राक्षस, एक जीवित शैतान हूँ, जो परमेश्वर का विरोध करता है। मैं उसकी अवज्ञा करता हूँ और उसके साथ विश्वासघात करता हूँ; मैं एक साँप हूँ, एक दुष्ट व्यक्ति, जिसे शापित होना चाहिए।’ क्या यही सच्चा आत्मज्ञान है? वे केवल सामान्य बातें बोलते हैं। वे उदाहरण क्यों नहीं देते? वे विश्लेषण के लिए उनके द्वारा की गई शर्मनाक चीजों को सबके सामने क्यों नहीं ला सकते? कुछ अविवेकी लोग उनकी बात सुनकर सोचते हैं, ‘हाँ, यह सच्चा आत्मज्ञान है! खुद को राक्षस, शैतान के रूप में जानना, यहाँ तक कि खुद को कोसना—ये कितनी ऊँचाई तक पहुँच गए हैं!’ बहुत-से लोग, खासकर नए विश्वासी, इस बात से बहकावे में आ जाते हैं। वे सोचते हैं कि वक्ता शुद्ध है और आध्यात्मिक मामलों को समझता है, सत्य से प्रेम करता है, और अगुआई करने योग्य है। लेकिन जब वे उससे थोड़ी देर बातचीत करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं है, यह वैसा इंसान नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, बल्कि असाधारण रूप से झूठा और कपटी है, स्वाँग रचने और छद्म रूप धारण करने में कुशल है, जिससे उन्हें बड़ी निराशा होती है। किस आधार पर यह माना जा सकता है कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं? तुम केवल इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि वे क्या कहते हैं—मुख्य है यह निर्धारित करना कि वे सत्य का अभ्यास करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं या नहीं। जो लोग वास्तव में सत्य समझते हैं, उन्हें न केवल अपना सच्चा ज्ञान होता है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। वे न केवल अपनी सच्ची समझ के बारे में बोलते हैं, बल्कि वे जो कहते हैं उसे सच में करने में भी सक्षम होते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में पूरी तरह तालमेल होता है। अगर वे जो कहते हैं वह सुसंगत और स्वीकार्य लगता है, लेकिन वे वैसा करते नहीं, उसे जीते नहीं, तो इसमें वे फरीसी बन जाते हैं, वे पाखंडी होते हैं और खुद को सच में जानने वाले लोग बिल्कुल नहीं होते। सत्य के बारे में संगति करते हुए कई लोग बहुत तर्कसंगत लगते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि कब उनका भ्रष्ट स्वभाव उफन पड़ता है। क्या ये वे लोग हैं, जो खुद को जानते हैं? अगर लोग खुद को नहीं जानते, तो क्या वे सत्य को समझने वाले लोग होते हैं? वे सभी, जो स्वयं को नहीं जानते, वे सत्य को न समझने वाले लोग हैं, और जो आत्म-ज्ञान के खोखले शब्द बोलते हैं उनमें झूठी आध्यात्मिकता होती है, वे झूठे होते हैं। कुछ लोग सिद्धांत के शब्द बोलते समय बहुत सुसंगत लगते हैं, लेकिन उनकी आत्माओं की स्थिति सुन्न और जड़ होती है, वे चीजों को महसूस नहीं कर पाते हैं, और किसी भी मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। कहा जा सकता है कि वे सुन्न होते हैं, लेकिन कभी-कभी, उन्हें बोलते हुए सुनने पर, लगता है कि उनकी आत्मा काफी प्रखर है। उदाहरण के लिए, किसी घटना के ठीक बाद, वे खुद को तुरंत जानने में सक्षम होते हैं : ‘अभी-अभी मुझे एक विचार आया। मैंने उसके बारे में सोचा और महसूस किया कि वह कुटिल विचार था, कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा था।’ यह सुनकर कुछ अविवेकी लोग ईर्ष्यालु हो जाते हैं और कहते हैं : ‘इस इंसान को तुरंत पता चल जाता है कि कब उसकी भ्रष्टता बाहर आ रही है, और यह उसके बारे में खुलकर बात करने और संगति करने में भी सक्षम है। वह प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुत तेज है, उसकी आत्मा प्रखर है, वह हमसे बहुत बेहतर है। वह वास्तव में ऐसा इंसान है, जो सत्य का अनुसरण करता है।’ क्या यह लोगों को मापने का सटीक तरीका है? (नहीं।) तो यह आँकने का आधार क्या होना चाहिए कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं या नहीं? इसका आधार केवल उनके मुँह से निकलने वाली बातें नहीं होनी चाहिए। तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि उनमें वास्तव में क्या प्रकट होता है, जिसका सबसे सरल तरीका यह देखना है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं—यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अभ्यास करने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, क्योंकि जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं, वे पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, और जब लोग पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, तभी वे वास्तव में खुद को जानते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि जो सच में खुद को जानते हैं वे सत्य स्वीकार सकते हैं, भ्रष्टता उजागर होने पर शर्मिंदा होते हैं, और फिर सच्चा पश्चात्ताप करके बदलते हैं। जो इसके उलट होते हैं, वे सभी सही बातें कहते हैं, खुद को राक्षस या शैतान कहते हैं, मानो उन्हें खुद की गहरी समझ है, पर काट-छाँट होने पर, वे सत्य हरगिज नहीं स्वीकारते और चिंतन नहीं करते, बार-बार खुद का बचाव करते हुए अच्छे लगने वाले तर्क देते हैं। ऐसे लोगों में चाहे कितना भी आत्मज्ञान दिखता हो, यह सब फरेब है। मैंने विचार किया कि कैसे शीला हमेशा अपनी हालत के बारे में लोगों से बात करते हुए कहती थी उसे अपनी छवि की बहुत परवाह है और वह लोगों के रवैये से बेबस है। उसने यह भी कहा कि वह कपटी है, दूसरों पर संदेह करती है। ऊपर से तो लगता था मानो वह बहुत खुलकर सीधी बात करती है, अपनी भ्रष्टता पहचानकर आत्मचिंतन कर सकती है, कभी-कभी तो बोलते-बोलते रो पड़ती थी। ऐसा लगता मानो उसे सच में अफसोस और खुद से घृणा है। इससे मुझे लगा कि वह सत्य खोजती होगी। मगर वह ये बरसों से बोलती आई है, फिर भी कभी बदली हुई नजर नहीं आई। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से ही मैंने जाना कि शीला का तथाकथित आत्मज्ञान बस एक दिखावा था; वह असल में न सत्य स्वीकारती थी, न ही अपनी भ्रष्टता पर चिंतन करती थी। वह अक्सर अपने बारे में बहुत-सी गहरी लगने वाली, पर खोखली बातें करती, कहती कि उसमें बुरी मानवता है, वह धूर्त, दुर्भावना से भरी एक मसीह-विरोधी है और उसे नरक में भेज देना चाहिए। ऐसा लगता था उसके पास गहरा आत्मज्ञान है, पर जब लोग उसकी समस्याएं बताते या काट-छांट और निपटारा करते, तो वह हरगिज नहीं स्वीकारती, प्रतिरोध कर गुस्सा होती, अनुचित बातें कहती। वह रो-रोकर सही-गलत पर कुतर्क करने लगती, दूसरों को इस कदर परेशान कर देती कि वे न सभा कर पाते और न सामान्य ढंग से काम कर पाते। उसने कलीसिया के जीवन और काम को बुरी तरह बाधित किया। पहले, मैं सत्य नहीं समझती थी, चीजों को पहचान नहीं पाती थी, इसलिए उसके ऊपरी व्यवहार से धोखा खा जाती थी, सोचती थी कि वह सत्य खोजने वाली इंसान है। मैं कितनी भ्रमित और मूर्ख थी। बाद में यह एहसास हुआ कि शीला दूसरों को अपनी हालत के बारे में इसलिए नहीं बताती थी कि वह अपनी समस्याएँ हल करने और अपनी दशा सुधारने के लिए सत्य खोजना चाहती थी, बल्कि उसे अपनी भड़ास निकालने के लिए किसी की जरूरत थी, जो उसे दिलासा दे और उसकी पीड़ा कम करने में मदद करे। वह चाहे कितने ही लोगों से खुलकर बात करती, वह बस एक बाधा ही थी। अगर उसे बर्खास्त कर उसकी हालत का विश्लेषण न किया जाता, तो मैं उसे पहचान न पाती। उसे बहन मानकर सहनशीलता और सब्र से पेश आती, शायद अनजाने में उससे धोखा भी खा जाती। तब जाकर एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों को देखना कितना अहम है!

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे शीला की मंशाओं और लोगों को छलने की उसकी तरकीबों की थोड़ी समझ हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कैसे पहचाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? एक संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन के आधार पर स्वयं को जान सकता है, क्या वह आत्मचिंतन कर सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकता है; दूसरे संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है। अगर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के कार्य का पालन कर सकता है। अगर वह केवल सत्य को पहचानता है, पर उसे कभी स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं करता, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं सारा सत्य समझता हूँ, लेकिन मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता,’ तो यह साबित करता है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य से प्रेम करता है। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और यह भी कहते हैं कि वे पश्चात्ताप करने और खुद को नया रूप देने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसके बाद बिलकुल भी कोई बदलाव नहीं होता। उनकी बातें और हरकतें अभी भी वैसी ही होती हैं, जैसी पहले होती थीं। जब वे खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई चुटकुला सुना रहे हों या कोई नारा लगा रहे हों। वे अपने दिल की गहराइयों में आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को नहीं जान पाते, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनमें पश्चात्ताप का रवैया नहीं होता। वास्तव में आत्मचिंतन करने के लिए सरल तरीके से अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात तो वे बिल्कुल भी नहीं करते। बल्कि वे बेमन से ऐसा करने की प्रक्रिया से गुजरने का दिखावा करके खुद को जानने का नाटक करते हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो वास्तव में खुद को जानते या सत्य स्वीकारते हैं। जब ऐसे लोग खुद को जानने की बात करते हैं, तो वे यंत्रवत ढंग से काम करते हैं; वे स्वाँग, धोखाधड़ी और झूठी आध्यात्मिकता में संलग्न रहते हैं। कुछ लोग धोखेबाज होते हैं, और जब वे दूसरों को आत्मज्ञान पर सहभागिता करते हुए देखते हैं, तो वे सोचते हैं, ‘बाकी सब खुलकर बोलते हैं और अपने-अपने छल का विश्लेषण करते हैं। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो सभी सोचेंगे कि मैं खुद को नहीं जानता, तब मुझे बेमन से ऐसा करना पड़ेगा।’ जिसके बाद वे अपने छल को अत्यधिक गंभीर बताते हैं और नाटकीयता के साथ उसका वर्णन करते हैं, और उनका आत्मज्ञान विशेष रूप से गहरा प्रतीत होता है। सुनने वाला हर व्यक्ति महसूस करता है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, और फिर उन्हें ईर्ष्या से देखता है, जिससे उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे गौरवशाली हों, मानो उन्होंने खुद को प्रभामंडल से सजा लिया हो। बेमन से काम करने से प्राप्त इस प्रकार का आत्मज्ञान, उनके स्वांग और धोखाधड़ी के साथ मिलकर, दूसरों को पूरी तरह से गुमराह कर देता है। क्या ऐसा करने से उनके जमीर को सुकून मिल सकता है? क्या यह खुलेआम धोखा नहीं है? अगर लोग खुद को जानने के बारे में केवल खोखले शब्द बोलते हैं, तो वह ज्ञान चाहे कितना भी ऊँचा या अच्छा क्यों न लगे, वे बिल्कुल भी बदले बिना अभी भी पहले की ही तरह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते रहेंगे। यह असल आत्मज्ञान नहीं है। अगर लोग जानबूझकर इस तरह से दिखावा कर धोखा दे सकते हैं, तो यह साबित करता है कि वे सत्य को बिलकुल भी स्वीकार नहीं करते, और बिलकुल अविश्वासियों जैसे हैं। इस तरह से अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करके वे केवल प्रवृत्ति का अनुसरण करते हैं और सबकी पसंद की बातें बोलते हैं। क्या उनका आत्मज्ञान और आत्म-विश्लेषण धोखे में डालने वाला नहीं है? क्या यही सच्चा आत्मज्ञान है? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे दिल से नहीं खुलते और आत्म-विश्लेषण नहीं करते, और केवल दिखावे के लिए एक झूठे, कपटपूर्ण तरीके से खुद को जानने के बारे में थोड़ा बोलते हैं। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि दूसरों से अपनी प्रशंसा और उन्हें अपने से ईर्ष्या करवाने के लिए, आत्मज्ञान पर चर्चा करते समय वे अपनी समस्याओं को अधिक गंभीर दिखाने के लिए जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं, जिसका अर्थ है कि उनके दूसरों के सामने खुलने में व्यक्तिगत इरादों और लक्ष्यों की मिलावट होती है। जब वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें अपराध-बोध नहीं होता, स्वांग रचने और धोखाधड़ी में संलग्न होने के बाद उनका अंत:करण बेचैन नहीं होता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे धोखा देने के बाद वे कुछ भी महसूस नहीं करते, और अपनी गलती स्वीकार करने के लिए वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। क्या ऐसे लोग हठी नहीं होते? अगर उन्हें अपराध-बोध नहीं होता, तो क्या उन्हें कभी पछतावा हो सकता है? क्या बिना सच्चे पछतावे के कोई अहं त्यागकर सत्य का अभ्यास कर सकता है? क्या सच्चे पछतावे के बिना कोई वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है? बिल्कुल नहीं। अगर उन्हें पछतावा तक नहीं है, तो क्या आत्मज्ञान के बारे में बात करना बेतुका नहीं है? क्या यह सिर्फ स्वांग और धोखाधड़ी नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। उसे दूसरों के साथ अपनी दशा के बारे में बात करना पसंद था, वह सभाओं में आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करती। वह खुद के बारे में बुरी से बुरी बातें कहती थी। ऊपरी तौर पर लगता था कि उसे खुद की गहरी समझ है, खुद पर बेहद पछतावा और नफरत है, मगर यह सब दूसरों के लिए उसका दिखावा भर था, ताकि उन्हें दिखाए कि वह सत्य स्वीकारती और खुद को समझती है। यह तथाकथित आत्मज्ञान दूसरों को छलने और आँखों में धूल झोंकने का तरीका था, ताकि वे सोचें कि वह अपने बारे में सब खुलकर बताने की हिम्मत रखती है, और वे उसे पहचान ही न पाएं, बल्कि उसका बहुत आदर करें। जब भी शीला भ्रष्टता उजागर करती, वह खुद के बारे में बताने के लिए मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के प्रकाशनों की मदद लेती, कहती कि वह इज्जत और रुतबे के पीछे भागती थी, एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चल रही थी, रुतबे की चाह उसके जीवन पर हावी थी और उसने पश्चात्ताप नहीं किया तो यह चाहत उसे मार डालेगी। मगर किसी स्थिति से उसकी इज्जत और रुतबे को खतरा होता, तो वह पुराने ढर्रे पर चलने लगती, इसलिए बरसों तक अपनी हालत पर संगति करने के बावजूद वह बिल्कुल नहीं बदली थी। अगुआओं ने उसकी समस्याएं बताकर कई बार संगति की, पर उसने ध्यान ही नहीं दिया, और कोई बदलाव नहीं किया। वह अक्सर प्रतिरोधी हो जाती, लगातार बहस करके दिखावटी तर्क देती। जब देखती कि कैसे लोग अपने अहंकार को किनारे कर सत्य खोजते हैं, तो उनकी खूबियों से सीखने के बजाय सोचती कि वे अच्छी प्रकृति के साथ पैदा हुए हैं, वह सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती और हमेशा दूसरों पर संदेह करती थी, क्योंकि परमेश्वर ने उसे अच्छी प्रकृति नहीं दी। वह अपने शैतानी स्वभाव से घृणा करने के बजाय परमेश्वर को दोष देती, उसका तिरस्कार करती और कहती कि वह धार्मिक नहीं है। इससे पता चलता था कि शीला में एक राक्षस का सार था, वह बेहद नासमझ और विवेकहीन थी। परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन न होता, तो मैं उसे सत्य खोजने वाली ही मानती रहती।

बाद में एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा। “जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं बस वे ही परमेश्वर के घर के हैं; वे ही सच्चे भाई-बहन हैं। क्या तुम सोचते हो कि अक्सर सभाओं में जाने वाले सभी लोग भाई-बहन होते हैं? जरूरी नहीं कि ऐसा हो। कौन-से लोग भाई-बहन नहीं होते? (वे जो सत्य से चिढ़ते हैं, जो सत्य स्वीकार नहीं करते।) जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते और उससे चिढ़ते हैं, वे सभी बुरे लोग हैं। उन सबमें जमीर या विवेक नहीं होता। उनमें से कोई ऐसा नहीं है, जिसे परमेश्वर बचाता है। वे लोग इंसानियत से रहित हैं, वे अपने काम में लापरवाही बरतते हैं और अपने आचरण में अनियंत्रित होते हैं। वे शैतानी फलसफों से जीते हैं, कुटिल तिकड़में लगाते हैं और लोगों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें फुसलाते हैं और उन्हें धोखा देते हैं। वे जरा-सा भी सत्य नहीं स्वीकारते और केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर में घुस आए हैं। हम उन्हें गैर-विश्वासी क्यों कहते हैं? क्‍योंकि वे सत्‍य से उकताए हुए हैं और उसे स्‍वीकारते नहीं। जैसे ही सत्य के बारे में संगति की जाती है, उनकी रुचि खत्म हो जाती है, वे उससे चिढ़ते हैं, वे इसे सुनना बर्दाश्त नहीं कर सकते, उन्हें यह उबाऊ लगता है और वे बैठे नहीं रह पाते। ये स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासी और अविश्वासी हैं। और चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें इन्हें भाई-बहन नहीं समझना चाहिए। ... अगर उनकी सत्य में रुचि नहीं है, तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? तो वे किसके अनुसार जीते हैं? निस्संदेह, वे शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं, वे हमेशा धूर्त और शातिर होते हैं, उनमें सामान्य मानवता का जीवन नहीं होता। वे कभी परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि हर चीज से इंसानी चालों, रणनीतियों और जीने के फलसफों द्वारा निपटते हैं—जो एक थकाऊ और दर्दनाक अस्तित्व बनाता है। ... जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। जो सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकार सकते, उन्हें भाई-बहन नहीं कहा जा सकता। भाई-बहन केवल वे ही हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं। अब, वे कौन हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते? वे सभी अविश्वासी हैं। जो लोग बिल्कुल भी सत्य नहीं स्वीकारते, वे सत्य से तंग आ चुके हैं और उसे त्याग चुके हैं। अधिक सटीक रूप से, वे सभी अविश्वासी हैं, जिन्होंने कलीसिया में घुसपैठ कर ली है। अगर वे हर तरह की बुराई करने में सक्षम हैं और कलीसिया के काम को अव्यवस्थित और बाधित कर सकते हैं, तो वे शैतान के गुर्गे हैं। उन्हें हटाकर बाहर कर देना चाहिए। उन्हें भाई-बहन नहीं माना जा सकता। उनके प्रति प्रेम प्रदर्शित करने वाले सभी लोग बेहद मूर्ख और अज्ञानी हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि सच्चे भाई-बहन वे हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं। वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, उनके पास सत्य के अभ्यास की गवाही होती है। मुमकिन है कि वे किसी गहरे आत्मज्ञान की बातें न करें, पर वे सत्य से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के जितने वचन समझते हैं, उनका अभ्यास करते हैं। भले ही वे अपराध करें, भ्रष्टता दिखाएं और कभी-कभार नकारात्मक हो जाएं, मगर चूंकि वे सत्य खोजते हैं, तो काट-छांट, निपटारे या नाकामी का सामना करने पर, वे इसे परमेश्वर से ग्रहण कर सत्य खोज सकते हैं, आत्मचिंतन कर सकते हैं। अपनी समस्याएं पहचान लेने पर, वे धीरे-धीरे उन्हें ठीक कर सुधार सकते हैं। ऐसे लोग ही सच्चे भाई-बहन हैं। जो सत्य नहीं स्वीकारते, यहाँ तक कि उससे घृणा करते हैं, उन्हें भाई-बहन नहीं कहा जा सकता। अगर उनमें बुरी मानवता हो और वे ऐसे कुकर्म करें जिनसे कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती हो, तो वे कुकर्मी और मसीह-विरोधी हैं, वे भाई या बहन कहलाने लायक तो बिल्कुल नहीं हैं। भले ही वे कलीसिया में बने रहें, पर वे परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने वाले नकली विश्वासी हैं। वे चाहे जितने समय तक विश्वास रखें, आखिर में परमेश्वर उन्हें उजागर करके निकाल ही देगा। ऊपर से तो नहीं लगता था कि शीला ने कोई बड़ा कुकर्म किया हो, पर उसने जो कुछ किया उससे लोगों की सोच बाधित हुई और उनके कामों में रुकावट आई, वह हमेशा से ऐसा करती रही थी। लोगों ने उसके साथ कितनी भी संगति और मदद की, पर वह ज़रा-सी भी नहीं बदली, यहाँ तक कि बहस और कुतर्क करके अनुचित व्यवहार किया। इससे पता चलता है कि शीला सत्य नहीं स्वीकारती थी, और वह सत्य से ऊब गई थी। वह हमारी बहनों में से नहीं बल्कि शैतान जैसी थी। पहले, मैं सत्य का यह पहलू नहीं समझती थी और विवेकहीन थी। मैं सोचती थी, अगर कोई परमेश्वर में विश्वास रखकर उसके नाम को पहचानता है, तो उसे भाई या बहन माना जाना चाहिए। मैं आँखें मूंदकर सहानुभूति दिखाती और उन्हें बर्दाश्त करती, बेवकूफों की तरह दया दिखाती और बिना समझे उनकी मदद करती। नतीजतन, मेरे बहुत-से प्रयास बेकार गये। मैं कितनी मूर्ख और नासमझ थी।

अब जबकि शीला को अलग कर दिया गया है, तो मैंने देखा परमेश्वर कितना धार्मिक है। जो सत्य नहीं खोजते और अनुचित व्यवहार करते हैं, वे कलीसिया में पाँव नहीं जमा सकते, आखिर में परमेश्वर उन्हें उजागर कर ही देगा। मुझे परमेश्वर के नेक इरादों की भी समझ हुई : परमेश्वर ने ऐसे हालात बनाये ताकि मैं सबक सीख सकूँ। मुझे उनका फायदा उठाना चाहिए। आगे से, मैं सत्य पर अधिक समय और ऊर्जा लगाऊँगी, और परमेश्वर के वचनों से ही चीजों को परखकर काम करूंगी।

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