1. जीवन प्रवेश छोटे या बड़े मामलों के बीच अंतर नहीं करता

लू यी, चीन

मैं फरवरी 2024 में कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी। धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांत समझ लिए और मुझे अपने काम में बहुत मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा। मुझे हर दिन काफी नीरस और कुछ हद तक थकाऊ लगता था। मुझे याद आया कि जब मैंने पहली बार पाठ-आधारित काम करना शुरू किया था तो मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन में लगातार चूक होती थी। भले ही उस समय इसे सहना कठिन था, लेकिन मैंने सत्य की खोज के माध्यम से कुछ लाभ पाए। मैंने सोचा, “हाल ही में काम से कुछ नतीजे मिले हैं, विचलन और मसले कम हैं। मुझे शायद ही कभी किसी काट-छाँट का सामना करना पड़ता है और कुछ भी खासकर मार्मिक या दिल दहला देने वाला नहीं हुआ है। मुझे आत्म-चिंतन करने और सबक सीखने के लिए कहाँ जाना चाहिए? जीवन प्रवेश के बिना क्या मेरा कर्तव्य करना सिर्फ प्रयास और मेहनत करना नहीं है? आखिरकार मैं इससे क्या हासिल कर सकती हूँ?” न चाहते हुए भी मुझे दिल में चिंता होने लगी।

एक दिन मैंने अनुभवात्मक गवाही के कई वीडियो देखे। उनमें से ज्यादातर अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गए थे और जिन चीजों का उन्होंने अनुभव किया था, वे बहुत अलग थीं। मुझे अपने दिल में ईर्ष्या हुई, सोचने लगी “अगुआ होना बेहतर है। तुम ज्यादा लोगों से मिलते-जुलते हो, ज्यादा परिस्थितियों का सामना करते हो और हर दिन सीखने के लिए सबक मिलते हैं, इसलिए सत्य और उद्धार पाने की उम्मीद ज्यादा होती है।” फिर मुझे याद आया कि पहले जब मैं कलीसिया में पर्यवेक्षक थी तो मैं ज्यादा लोगों से बातचीत करती थी और लोगों का भेद पहचानने और उनसे सिद्धांतों के अनुसार पेश आने में मैंने कुछ प्रगति की थी। यह अब जैसा नहीं था, अपने पाठ-आधारित कर्तव्य में हर दिन अपने आस-पास के कुछ लोगों के साथ ही बातचीत होती थी और किसी बड़े मसले का सामना नहीं होता था। मुझे लगा कि यहाँ सबक सीखने और सत्य पाने के बहुत कम अवसर हैं। मुझे परमेश्वर में विश्वास करते हुए दस साल से ज्यादा समय हो चुका था। अगर अंत में मैंने सत्य नहीं पाया तो क्या मुझे प्रकट कर निकाल नहीं दिया जाएगा? मैं बेवजह हताश हो गई और मैंने कुछ अनुभव पाने के लिए अपने कर्तव्य या परिवेश बदलने के बारे में भी सोचा, भले ही मुझे सुसमाचार का प्रचार करना या नए विश्वासियों को सींचना पड़े। लेकिन मैं जानती थी कि ऐसे विचार असलियत से दूर हैं। कलीसिया ने मुझे इतने लंबे समय तक पाठ-आधारित कार्य में विकसित किया था और बिना किसी खास परिस्थिति के कर्तव्य ऐसे ही नहीं बदले जाते। उस समय मैं हताश थी और अपने कर्तव्य के प्रति मुझमें प्रेरणा की कमी थी।

एक सभा के दौरान मैंने अपनी सहयोगी बहन को अपनी अवस्था के बारे में बताया। उसने मेरे साथ संगति करते हुए कहा, “जीवन प्रवेश बड़े या छोटे मामलों के बीच अंतर नहीं करता। आत्म-चिंतन करने और सबक सीखने के लिए दिल दहला देने वाली घटनाओं का अनुभव करना या काट-छाँट का सामना करना जरूरी नहीं है। अहम यह है कि अपने विचारों का दैनिक प्रकाशन समझो और अपने सामने आने वाली विभिन्न चीजों से सबक सीखने पर ध्यान दो।” मैंने अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा “जीवन की छोटी-छोटी चीजें भी सीखने के अवसर हैं” नायक की अवस्था बिल्कुल मेरे जैसी ही थी। इसे देखने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरे जीवन में ठहराव इसलिए नहीं था क्योंकि मेरा कर्तव्य नीरस है, बल्कि इसलिए था क्योंकि चीजों के प्रति मेरे नजरिए में समस्या है। अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो उसमें जीवन-प्रवेश शामिल होता है। तुम्हारा कर्तव्य काफी नियमित हो या अनियमित, नीरस हो या जीवंत, तुम्हें हमेशा जीवन-प्रवेश हासिल करना ही चाहिए। कुछ लोगों द्वारा किये गये कर्तव्य एकरसता वाले होते हैं; वे हर दिन वही चीज करते रहते हैं। मगर, इनको करते समय, ये लोग अपनी जो दशाएं प्रकट करते हैं वे सब एक-समान नहीं होतीं। कभी-कभार अच्छी मनःस्थिति में होने पर लोग थोड़े ज़्यादा चौकस होते हैं और बेहतर काम करते हैं। बाकी समय, किसी अनजान प्रभाव के चलते, उनका शैतानी स्वभाव उनमें शैतानी जगाता है जिससे उनमें अनुचित विचार उपजते हैं, वे बुरी हालत और मनःस्थिति में आ जाते हैं; परिणाम यह होता है कि वे अपने कर्तव्यों को सतही ढंग से करते हैं। लोगों की आंतरिक दशाएं निरंतर बदलती रहती हैं; ये किसी भी स्थान पर किसी भी वक्त बदल सकती हैं। तुम्हारी दशा चाहे जैसे बदले, अपनी मनःस्थिति के अनुसार कर्म करना हमेशा ग़लत होता है। मान लो कि जब तुम अच्छी मनःस्थिति में होते हो, तो थोड़ा बेहतर करते हो, और बुरी मनःस्थिति में होते हो तो थोड़ा बदतर करते हो—क्या यह काम करने का कोई सैद्धांतिक ढंग है? क्या यह तरीका तुम्हें अपने कर्तव्य को एक स्वीकार्य मापदंड तक निभाने देगा? मनःस्थिति चाहे जैसी हो, लोगों को परमेश्वर के सामने प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना आना चाहिए, सिर्फ इसी तरीके से वे अपनी मनःस्थिति द्वारा बाधित होने, और उसके द्वारा इधर-उधर भटकाए जाने से बच सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य क्यों न हो, जब तक कोई सत्य का अनुसरण करता है, तब तक जीवन में प्रगति हो सकती है। आत्म-चिंतन करते हुए मैंने सोचा था कि सीमित बातचीत और कम अनुभवों वाला पाठ-आधारित कार्य करने से जीवन प्रवेश धीमा होगा। इसलिए मैं प्रतिरोध की भावना में जीती थी, यह कर्तव्य करने के लिए अनिच्छुक थी। अब मुझे समझ आया कि यह नजरिया कितना विकृत था। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो तुम चाहे जो भी कर्तव्य करो, तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा और आखिरकार तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। एक मसीह-विरोधी शाओमीओ जिसे मैं जानती थी, मैंने उसके बारे में सोचा, उसने पहले हमेशा एक अगुआ के रूप में काम किया था। लेकिन उसने सही रास्ता नहीं अपनाया या सत्य का अनुसरण नहीं किया, वह हमेशा प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे भागती रही। आखिरकार उसने कलीसिया के काम में बाधा डाली और गड़बड़ी की, पश्चात्ताप करने से पूरी तरह से इनकार कर दिया और उसे बेनकाब करके निकाल दिया गया। इसके विपरीत कुछ भाई-बहन ऐसे कर्तव्य करते थे, जो महत्वहीन लगते थे और दूसरों के साथ उनकी बहुत कम बातचीत होती थी, फिर भी जब कुछ होता था, वे सत्य खोजने और आत्म-चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करते थे और उन्होंने कुछ अनुभवजन्य समझ हासिल की थी। मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारे पास जीवन प्रवेश है या नहीं और तुम सत्य पाते हो या नहीं, यह तुम्हारे द्वारा किए गए कर्तव्य पर निर्भर नहीं करता, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करते हो या नहीं। भले ही मेरा पाठ-आधारित कार्य सतह पर कुछ हद तक नीरस लगता था और इसमें कई लोगों के साथ बातचीत नहीं होती थी, मुझे अभी भी उन चीजों से सबक सीखना बाकी था, जिनका मैं आमतौर पर सामना करती थी। उदाहरण के लिए जब कार्यभार बढ़ गया और चुने जाने के लिए मूल्यांकन करने को धर्मोपदेश लेख अधिक हो गए तो मैं लापरवाह और अनमनी हो गई, विवरणों की जाँच करने में नाकाम रही। इससे गलतियाँ हुईं, नतीजतन काम दोबारा करना पड़ा और प्रगति में देरी हुई। चयन के लिए धर्मोपदेश लेखों का मूल्यांकन करते समय मैं घमंडी स्वभाव भी प्रकट करती थी, सोचती थी कि मुझे अपना कर्तव्य करते हुए लंबा समय हो गया है और मैंने कुछ कार्य अनुभव पाया है, इसलिए मैंने सिद्धांतों की खोज नहीं की और मनमर्जी पर निर्भर रही। नतीजतन मैंने कुछ योग्य धर्मोपदेश लेखों को छोड़ दिया था। इसके अलावा जब काम से कुछ नतीजे मिलते थे तो मैं आत्मतुष्ट अवस्था में जीती थी, अपनी ख्याति में डूबी रहती थी, बिना ज्यादा प्रयास किए काम करती थी। जीवन में कभी-कभी मेरी सहयोगी बहन अनजाने में कुछ ऐसा कह देती थी जिससे मेरे अहं को ठेस लगती और मैं बहुत संवेदनशील हो गई थी। मुझे यह भी शक होता था कि वह मुझे नीची नजरों से देखती है और मैं अपने आत्म-सम्मान और रुतबे में उलझी रहती थी। मुझे एहसास हुआ कि दैनिक जीवन और काम में कई छोटे-बड़े मामलों से मेरा सामना होता है। जब तक मैं उन पर लगन से ध्यान देती, खोजती और विचार करती हूँ, तब तक मैं हर चीज से सबक सीख सकती हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मेरे जीवन प्रवेश की कमी की वजह मेरे द्वारा किया जाने वाला कर्तव्य नहीं था, बल्कि इसकी वजह सत्य का अनुसरण करने में मेरी नाकामी और सिर्फ काम पूरा करने पर ध्यान देना था। हर दिन व्यस्त रहने के बावजूद मैंने कोई सबक नहीं सीखा था।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यदि तुम वास्तव में सत्य और उद्धार का अनुसरण करने के इच्छुक हो, तो पहला कदम अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपने विभिन्न भ्रामक विचारों, धारणाओं और कार्यों से अलग होने से शुरुआत करना है। उन वातावरणों को स्वीकार करो जो परमेश्वर ने तुम्‍हारे लिए दैनिक जीवन में व्यवस्थित किए हैं, उसकी जाँच, परीक्षण, ताड़ना और न्याय को अपनाओ, जब खुद पर संकट आता है तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार धीरे-धीरे अभ्यास करने का प्रयास करो और परमेश्वर के वचनों को उन सिद्धांतों और मानदंडों में बदल दो जिनसे तुम अपने दैनिक जीवन तथा अपने जीवन में आचरण और कार्य करते हो। यही वह चीज है जो सत्य का अनुसरण करने वाले में प्रकट होनी चाहिए, और यही वह चीज है जो उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में प्रकट होनी चाहिए। यह आसान लगता है, ये चरण सरल हैं और इनकी कोई लंबी व्याख्या नहीं है, लेकिन इसे अभ्यास में लाना इतना आसान नहीं है। ऐसा इसलिए है कि लोगों के भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें हैं : उनकी क्षुद्रता, छोटे-छोटे षड्यंत्र, स्वार्थ और नीचता, उनके भ्रष्ट स्वभाव और सभी प्रकार की चालें। इस सबसे बढ़कर, कुछ लोगों के पास ज्ञान होता है, उन्होंने सांसारिक आचरण के लिए कुछ फलसफे और समाज में जोड़-तोड़ की तरकीबें सीखी होती हैं, और उनमें उनकी मानवता के संदर्भ में कुछ कमियाँ और खामियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग पेटू और आलसी, कुछ वाचाल तो कुछ गंभीर रूप से कुटिल प्रकृति वाले होते हैं, वहीं कुछ लोग घमंडी या अपने कार्यों में उतावले और आवेगी होते हैं साथ ही उनमें अन्‍य अनेक दोष होते हैं। ऐसी कई कमियाँ और समस्याएँ हैं जिन्हें लोगों को उनकी मानवता के संबंध में दूर करने की आवश्यकता है। हालाँकि, यदि तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहते हो, और सत्य तथा जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्‍हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए, उसके वचनों का अभ्‍यास करने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ होना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को कायम रखने से शुरुआत करनी चाहिए। ये केवल कुछ सरल वाक्य हैं, फिर भी लोग नहीं जानते कि इनका अभ्यास या अनुभव कैसे किया जाए। तुम्‍हारी क्षमता या शिक्षा जो भी हो, और तुम्‍हारी उम्र कितनी भी हो या विश्वास करते कितने भी वर्ष बीते हों, चाहे जो हो, यदि तुम सही लक्ष्यों और दिशा के साथ सत्य का अभ्यास करने के सही रास्ते पर हो, और यदि तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सब सत्य का अभ्यास करने के लिए है, तो अंततः तुम जो हासिल करोगे वह निस्संदेह सत्य वास्तविकता होगी और परमेश्वर के वचन तुम्‍हारा जीवन बन जाएँगे। पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करो, फिर धीरे-धीरे इस मार्ग के अनुसार अभ्यास करो और अंततः तुम्‍हें कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त होगा। क्या तुम्‍हें इस पर विश्वास है? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (20))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने समझा कि उद्धार पाने के लिए कुंजी इस बात में निहित है कि क्या कोई सत्य का अनुसरण करता है और क्या उसके जीवन स्वभाव में कोई बदलाव आता है। यही मूल बात है। उदाहरण के लिए मैं जीवन प्रवेश न होने की शिकायत करती रही और उद्धार न पा सकने की चिंता करती रही। मैं अपने कर्तव्य में निष्क्रिय और नकारात्मक रही और यहाँ तक कि मैंने कर्तव्य में बदलाव करवाने के बारे में भी सोचा। मैंने जिस मामले का सामना किया था, वह मेरे लिए सत्य खोजने और आत्म-चिंतन करने का अच्छा अवसर था। लेकिन खोजने और प्रवेश करने के बजाय मैंने लगातार बहुत ऊँचे लक्ष्य बनाए रखे, महत्वपूर्ण मामलों का अनुभव करना चाहा। यह सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्ति नहीं थी! अगर मैं इसी तरह से चलती रही तो मैं सत्य और उद्धार कैसे हासिल कर सकूंगी? मैं केवल महत्वपूर्ण मामलों का अनुभव करना चाहती थी और छोटे, दैनिक मामलों को नजरअंदाज कर देती थी। कभी-कभी जब मैं गलत अवस्थाएँ या अनुचित विचार या सोच प्रकट करती थी, मैं सोचती थी कि जब तक इससे मेरा कर्तव्य प्रभावित नहीं होता, तब तक ये कोई बड़े मसले नहीं हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका समाधान हुआ है या नहीं। इससे कई ऐसे सबक जो मुझे सीखने चाहिए थे, व्यर्थ ही खो गए, जो मेरे जीवन प्रवेश में एक विचलन भी था। दरअसल जब तक तुम सत्य की खोज में उद्देश्यपूर्ण और मेहनती हो, तुम किसी भी स्थिति से सबक सीख सकते हो। उदाहरण के लिए, कभी-कभी परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के बाद तुम अपनी अवस्था और मसलों के बारे में कुछ समझ हासिल करते हो और अभ्यास के लिए मार्ग पाते हो, जिससे कुछ लाभ होता है। कभी-कभी भले ही तुमने व्यक्तिगत रूप से कुछ अनुभव न किया हो, अगर तुम्हारे आस-पास के भाई-बहनों ने अनुभव किया है तो उनकी संगति को ध्यान से सुनकर तुम भी लाभ और सबक पा सकते हो। इसके अलावा अपने कर्तव्य करने में अपने विचारों और सोच की जाँच करने पर ध्यान देने, आत्म-चिंतन कर पाने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से भी जीवन में प्रगति हो सकती है। इसका एहसास होने पर मुझे लगा कि मैं बहुत सुन्न हो गई थी और सत्य पाने के कई अवसर गँवा चुकी थी, यहाँ तक कि अपने जीवन प्रवेश में कमी के लिए मैंने अपने कर्तव्य की एकरसता को गलत तरीके से जिम्मेदार ठहराया था। मैं किसी भोज में भूख से पीड़ित व्यक्ति की तरह थी—मैं वाकई मूर्ख थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरी अवस्था के लिए बहुत मददगार था और मुझे यह भी पता चला कि अभ्यास और प्रवेश कैसे करना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, वे सब बहुत बड़ी बात हैं—क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? (हम इसे समझ सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान लोग अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद और अपनी कम काबिलियत के कारण अक्सर परमेश्वर के इरादों पर खरे नहीं उतर पाते, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाते और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते जिसका कोई मूल्य हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए एक खास परिवेश की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि तुम जिन लोगों, घटनाओं और वस्तुओं का सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात जब परमेश्वर तुममें कोई नतीजे नहीं देखता तो वह कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महान मानकर सम्मान नहीं दिया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों को गंभीरता से लिया है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है, और उन्हें परमेश्वर की ओर से परीक्षण और परीक्षाओं के रूप में माना है। इसके बजाय तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या ऐसा करके लोग घोर विद्रोह नहीं करते? (बिल्कुल करते हैं।)” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों ने जीवन प्रवेश के लिए अभ्यास का मार्ग बताया। परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना बड़े या छोटे मामलों के बीच अंतर नहीं करता। चाहे सामने आने वाले मामले बड़े हों या छोटे, उनमें विभिन्न सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं और प्रवेश करने के लिए सत्य खोजने की जरूरत होती है। मैंने पतरस के बारे में सोचा, जो आत्म-चिंतन पर ध्यान केन्द्रित करके और सभी मामलों में परमेश्वर के इरादे खोजने के द्वारा सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चला था। उसने परमेश्वर के वचनों के अनुसार सख्ती से अभ्यास और प्रवेश किया और अंत में उसने सत्य पाया और परमेश्वर द्वारा उसे पूर्ण बनाया गया। इसके विपरीत मैं अपने उचित कार्य की उपेक्षा कर रही थी और बहुत ऊँचा लक्ष्य बना रही थी, हमेशा कुछ महत्वपूर्ण मामलों से सबक सीखना चाहती थी जबकि उन बातों को नजरअंदाज कर रही थी, जिन्हें मैं महत्वहीन मानती थी। नतीजतन मैंने सत्य पाने के कई अवसर खो दिए थे। अपने बारे में सोचूँ तो मैंने ज्यादातर समय छोटे मामलों पर ध्यान ही नहीं दिया था। तो फिर मैं बड़े मामलों से क्या सबक सीख सकती थी? आगे बढ़ते हुए मुझे पतरस के मार्ग पर चलना सीखना था। चाहे मेरे सामने आने वाले मामले बड़े हों या छोटे, मुझे अपने कार्यों के पीछे की सोच और विचारों की जाँच करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि मेरे कौन से गलत इरादे थे, साथ ही मैंने जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए थे, उन पर भी ध्यान देना चाहिए। मुझे इन मामलों को संबोधित करने के लिए सत्य खोजने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत थी। साथ ही भले ही मेरे काम से कुछ नतीजे मिले थे, लेकिन मैं मौजूदा स्थिति से संतुष्ट नहीं हो सकती थी। मुझे और अधिक चिंतन करने और कार्य में विचलनों और अंतरालों, और नजरअंदाज हुई समस्याओं का सार निकालने और कार्य को बेहतर ढंग से करने का प्रयास करने की जरूरत थी। इसका एहसास होने पर मैंने पाठ-आधारित कार्य का अब और प्रतिरोध नहीं किया। अपना कर्तव्य निभाते हुए मैंने अपने प्रवेश पर भी ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया, चीजों को नजर से फिसलने नहीं दिया और “लापरवाह व्यक्ति” बनने से बची। इस तरह से अभ्यास करने के बाद मुझे कुछ लाभ मिले।

कुछ ही दिनों बाद पर्यवेक्षक ने हमें चयन की खातिर मूल्यांकन करने के लिए कई धर्मोपदेश लेख सौंपे। हमने जल्दी से मूल्यांकन और चयन पूरा कर लिया, लेकिन भाई-बहनों ने हमारे आकलन के नतीजों के बारे में अलग-अलग सुझाव दिए। बाद में मुझे एहसास हुआ कि हमारे आकलन वाकई गलत थे। इसलिए मैंने सोचा कि आगे बढ़ते हुए इसे सुधारना ही काफी होगा, लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि यह तरीका अपर्याप्त होगा। अपने कर्तव्य में किसी भी तरह के विचलन को गंभीरता से लेने की जरूरत है। मुझे इस बात पर विचार करने की जरूरत थी कि विचलन क्यों और कहाँ हुआ और क्या इसकी वजह भ्रष्ट स्वभाव या विशेषज्ञता की कमी थी। अगर मैं अपनी समस्याओं पर ध्यान दिए बिना केवल संक्षेप में इस मुद्दे पर विचार करूँ तो मैं क्या सबक सीख सकती हूँ? फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो कहाँ से शुरुआत करोगे? अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से शुरुआत करो और सीखो कि सबक कैसे सीखें और सत्य कैसे खोजें। अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों में सत्य और परमेश्वर के इरादे खोजकर ही तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। फिर मैंने सोचा : अगर हम मूल्यांकन के दौरान ज्यादा ध्यान देते तो भाई-बहनों द्वारा उठाए गए मुद्दों से बचा जा सकता था, लेकिन ऐसे विचलन हुए क्यों थे? इस पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि धर्मोपदेश लेखों के मूल्यांकन के दौरान मेरी मानसिकता दोषपूर्ण थी। मुझे लगा कि इन भाई-बहनों द्वारा पहले लिखे गए धर्मोपदेश लेखों की गुणवत्ता में कमी थी, इसलिए मैंने अपने अहंकारी स्वभाव के कारण उनका तिरस्कार किया। मैंने उनके धर्मोपदेश लेखों की सावधानी से समीक्षा नहीं की, जिसके कारण विचलन हुए। मैंने देखा कि अगर मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं सुलझाए तो मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर सकती।

इसका अनुभव करने के बाद मुझे वाकई एहसास हुआ कि जीवन प्रवेश के लिए सबसे पहले एक ऐसा दिल होना चाहिए जो धार्मिकता के लिए भूखा-प्यासा हो और हर दिन आने वाले छोटे-बड़े दोनों मामलों से शुरुआत करनी चाहिए। प्रत्येक परिस्थिति में किसी को यह देखना चाहिए कि उसने कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं, अपने भीतर के विचारों और धारणाओं पर सक्रियता से खोज और चिंतन करना चाहिए और फिर अभ्यास करने और प्रवेश करने के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा करके संचय करने और हर चीज में सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित करने से किसी का जीवन अनुभव समृद्ध होगा और वह उद्धार के लक्ष्य के करीब होगा। परमेश्वर का धन्यवाद!

अगला: 3. क्या कर्तव्यों में ऊँच-नीच का कोई भेद होता है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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