3. क्या कर्तव्यों में ऊँच-नीच का कोई भेद होता है?

नूओ यी को एक पत्र

यू शुन, चीन

प्रिय नूओ यी,

आजकल तुम कैसी हो? अपने पिछले पत्र में तुमने जिक्र किया था कि तुम अब अपना सिंचन का कर्तव्य नहीं कर रही हो, बल्कि अगुआओं द्वारा तुम्हें सामान्य मामले सौंपे गए हैं। तुम्हें लगा कि यह कर्तव्य तुम्हें दूसरों से अलग दिखने या सम्मान पाने का अवसर नहीं देता, जिससे तुम प्रतिरोधी और सहयोग करने के लिए अनिच्छुक हो गईं। मैं यह जानने को उत्सुक हूँ कि क्या हाल-फिलहाल तुम्हारी दशा में सुधार हुआ है। पहले मैं भी ऐसी दशा का अनुभव कर चुकी हूँ। बाद में परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई और मैंने कर्तव्यों को लेकर अपने भ्रामक विचारों को भी सुधारा और अपने कर्तव्य लगन से करने शुरू किए। इस बार मैं इस पत्र में तुम्हारे साथ अपना अनुभव साझा करना चाहती हूँ, उम्मीद है कि इससे तुम्हें कुछ मदद मिल सकती है।

अक्टूबर 2021 में जब पहली बार मैंने एक अगुआ के बतौर शुरुआत की, तो अपना काम खत्म करने के बाद चाहे कितनी भी देर हो जाए, मैं रोज परमेश्वर के वचनों को पढ़ती थी। मैं मन ही मन सोचती थी, “अगर मैं और अधिक सत्य समझती हूँ और अपने सामने आने वाली सारी समस्याएँ हल कर सकती हूँ, तो भाई-बहन यह देखकर मेरे बारे में यकीनन अच्छा सोचेंगे कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं।” छह महीने बाद मेरी खराब काबिलियत, घमंड और रुतबे पर मेरा बहुत ज्यादा ध्यान होने और अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित होने के कारण मैं अपने कर्तव्यों में अच्छे परिणाम प्राप्त करने में विफल रही और मुझे बरखास्त कर दिया गया। अगुआओं ने मेरे कौशल के आधार पर मुझे भाई-बहनों के कंप्यूटर संबंधी मसलों में मदद करने के काम में लगा दिया। उस समय मैं जो दशा प्रकट करती थी, वह तुम्हारी जैसी ही थी। मैं मन ही मन सोचती थी, “यह तो बस एक छोटा सा काम है, जिसके लिए शारीरिक श्रम की जरूरत होती है और चाहे मैं कितना भी कर लूँ, किसी को पता नहीं चलेगा।” परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि दूसरे कर्तव्य सौंपने में परमेश्वर का इरादा था और मुझे इसके समक्ष समर्पण कर स्वीकार करना चाहिए। लेकिन मैं अभी भी यही सोच रही थी, “सामान्य मामलों के लिए काम करने से भविष्य में कोई विकास नहीं होता। चाहे मैं इसे कितना भी अच्छा कर लूँ, मुझे दूसरों से सम्मान नहीं मिलेगा। अगुआ बनना बेहतर है, जहाँ पद ऊँचा और अधिक प्रतिष्ठित होता है।” हालाँकि मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन मुझमें कभी भी ज्यादा उत्साह नहीं होता था। खासकर जब मैंने सुना कि नवागंतुक बहन झोउ तिंग में अच्छी काबिलियत है, उसने तेजी से प्रगति की है और उसे अगुआ चुना गया है, तो मुझे बहुत बुरा लगा, “हालाँकि समस्याएँ हल करने की मेरी क्षमता में कुछ कमी है, लेकिन मुझे एक नवागंतुक से तो बेहतर होना चाहिए। जब नवागंतुक को अगुआ बनाया गया है, तो मुझे अभी भी सामान्य मामले क्यों सौंपे गए हैं? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?”

एक दिन अगुआ एक सभा के लिए आए और मैं दूसरे कमरे में कंप्यूटर की समस्याओं में मदद कर रही थी। मैंने अगुआओं को लोगों को विकसित किए जाने पर संगति करते हुए सुना, वे कह रहे थे कि कुछ लोगों का भले ही केवल कुछ वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है पर उनके पास अच्छी काबिलियत है और वे सत्य का अधिक अनुसरण करते हैं, इसलिए वे विकसित किए जाने योग्य हैं। दूसरी ओर कुछ लोगों को परमेश्वर पर विश्वास रखते हुए कई साल हो चुके हैं, फिर भी उन्होंने बहुत कम प्रगति दिखाई है और उनमें काबिलियत भी कम है, इसलिए वे विकसित करने लायक नहीं हैं। यह सुनकर मुझे अपने दिल में बहुत दर्द हुआ और मैंने सोचा, “क्या मैं ऐसी व्यक्ति नहीं हूँ जो विकसित किए जाने लायक नहीं है? ऐसा लगता है कि मैं केवल कुछ सामान्य मामलों का काम ही कर सकती हूँ और मुझे अलग दिखने का कोई मौका नहीं मिलेगा।” थोड़ी देर बाद एक अगुआ ने दरवाजा बंद कर दिया और मैं यह सोचकर और भी अधिक व्यथित हो गई, “पहले जब मैं अगुआ थी तो उच्च-स्तरीय अगुआ भी हमारे साथ संगति करने के लिए सभाएँ करते थे और मैं उनमें से एक थी जिन्हें विकसित किया जा रहा था। लेकिन अब मैं यहाँ केवल कंप्यूटर समस्याओं से निपटने के लिए हूँ, महज एक कार्यकर्ता जो शारीरिक श्रम और काम-काज करता है।” मैंने यह भी सोचा कि सभा में भाग लेने वाले सभी कलीसिया अगुआ मुझे जानते हैं और मुझे लगा कि अगर वे जान गए कि मैं अब यह कर्तव्य कर रही हूँ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा, उतना ही अधिक मैं व्यथित हो गई। जब कंप्यूटर समस्याएँ ठीक करने के बाद उन्हें उपकरण का उपयोग करने का तरीका समझाने का समय आया, तो मैं वहाँ बिल्कुल भी नहीं जाना चाहती थी। मुझे लगा कि मैं सिर्फ एक छोटी-मोटी कर्मचारी हूँ, उनके बराबर की नहीं हूँ। मैं बहुत देर तक कमरे में इधर-उधर घूमती रही और फिर अनिच्छा से उनसे बात करने चली गई। लौटने के बाद मुझे बेचैनी का गहरा एहसास हुआ, मैंने सोचा कि चाहे मैं कितना भी अच्छा कर लूँ, किसी को भी पता नहीं चलेगा या कोई मेरा सम्मान नहीं करेगा। इतना समय लगाने और प्रयास करने का क्या मतलब है? क्यों न मैं उतना ही करूँ जितना मेरे बस में है। उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाना बंद कर दिया। जब भी भाई-बहन मुझसे सवाल पूछते, तो मैं उन पर ध्यान दिए बिना ही जवाब दे देती थी, न ही मैं अपने काम में समस्याओं या विचलनों का सारांश देती थी। मैं कौशल सीखने पर भी ध्यान नहीं देती थी और अध्ययन में समय और प्रयास नहीं लगाना चाहती थी, बस हाथ में लिए काम पूरे करके संतुष्ट हो जाती थी। उस दौरान मुझमें अपने कर्तव्य को लेकर बोझ उठाने की भावना नहीं थी, इसलिए मुझे शाम को जल्दी नींद आने लगती थी। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी समस्याएँ पहचानने में मार्गदर्शन माँगा।

मैंने खोज के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, ‘हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।’ क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाता हो, वह परमेश्वर का दिया मिशन और जिम्मेदारी है। उच्च या निम्न कर्तव्य जैसी कोई चीज नहीं होती। यदि कोई व्यक्ति कर्तव्यों को ऊँचे या नीचे के रूप में वर्गीकृत करता है और केवल उन्हीं को करने की इच्छा रखता है जो उसे विशिष्ट बनाते हैं जबकि दूसरे कर्तव्यों से बचता है, तो यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है और परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण की कमी को दिखाता है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैंने व्यक्तिगत पसंद के आधार पर अपने कर्तव्यों को देखा, हमेशा ज्यादा प्रमुख कर्तव्यों को करने की इच्छा रखी। मैं अपने अगुआ होने के दिनों के बारे में सोचती हूँ तो उच्च-स्तरीय अगुआओं से उच्च सम्मान पाने और भाई-बहनों का आदर पाने के लिए मैं बहुत प्रयास झोंकती थी और अपने कर्तव्य बड़े उत्साह से निभाती थी। लेकिन जब सामान्य मामलों के काम करने की बात आई, तो मुझे लगा कि मैं केवल शारीरिक श्रम कर रही हूँ और मेरी भूमिका महत्वहीन है। मैंने इस प्रकार के कर्तव्य को निचले दर्जे का माना, मुझे लगा कि इसमें अलग दिखने का कोई मौका नहीं है, जिससे मुझे अपने कर्तव्य को करने में कोई प्रेरणा नहीं मिली। खास तौर पर जब मैंने अगुआ को यह कहते सुना कि कुछ लंबे समय से विश्वास करने वाले लोग जिनकी काबिलियत खराब है और जिनकी प्रगति धीमी है, उन्हें विकसित किए जाने का कोई मतलब नहीं है, तो मुझे लगा कि मैं नवागंतुकों से भी कम योग्य हूँ और केवल सामान्य मामलों के कुछ काम ही सँभाल सकती हूँ। इससे मुझे विशेष रूप से हताशा महसूस हुई और मैंने अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा खो दी। मुझे जो करना था, उसमें अपना दिल नहीं लगाया, जिससे मेरे कर्तव्यों में कुछ नुकसान हुआ। फिर मैंने सोचा कि कैसे कर्तव्य परमेश्वर द्वारा दी गई एक जिम्मेदारी है और चाहे वह उच्च-स्तरीय हो या निम्न-स्तरीय, मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार करके समर्पित होना चाहिए और उन जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए जो मुझे उठानी हैं। लेकिन क्योंकि मुझे लगा कि मैंने अपना सम्मान खो दिया है और रुतबे को लेकर मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई है, मैं प्रतिरोधी महसूस करने लगी, तर्क करने लगी, नकारात्मक हो गई और अपने काम में ढीली पड़ गई। मैंने अपने कर्तव्यों में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोचने और उन्हें हल करने का प्रयास नहीं किया, न ही मैंने जरूरी कौशलों का अध्ययन किया या उन्हें सीखा। परिणामस्वरूप, मैं कुछ मुद्दों को स्वतंत्र रूप से हल नहीं कर पाई, जिससे मेरे साथ काम करने वाले भाई-बहनों के लिए कार्यभार बढ़ गया। मेरा ध्यान प्रतिष्ठा और रुतबे पर बहुत अधिक था। मैं सिर्फ अपने झूठे अभिमान, आत्मसम्मान और निजी हितों के बारे में ही सोचती थी, फिर भले ही कलीसिया के काम में देरी ही क्यों न हो जाए। मैंने देखा कि मुझमें सौंपे गए कर्तव्यों के प्रति कोई आज्ञाकारिता नहीं थी और मेरे पास कोई भी अंतरात्मा या विवेक नहीं था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उपदेश सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिल्कुल नहीं है। समस्या उनमें ही है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से उजागर होता है कि जो लोग मसीह-विरोधी हैं, वे प्रतिष्ठा और रुतबे को ही अपना जीवन मानते हैं। चाहे वे कोई भी कर्तव्य करें या किसी के भी बीच हों, उनके विचार हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में होते हैं। यदि उन्हें दूसरों से सम्मान और प्रशंसा प्राप्त न हो तो उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ है। मैंने आत्म-चिंतन किया कि क्या अनुसरण को लेकर मेरे विचार मसीह-विरोधियों के समान नहीं थे? बचपन से ही मैं इस तरह के शैतानी जहरों से प्रभावित थी—“जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” और “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।” मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था, चाहे मैं कुछ भी करूँ, मैं दूसरों का सम्मान पाना चाहती थी। जब मैं स्कूल में थी, तो उन लोगों से ईर्ष्या करती थी जो आधिकारिक पदों पर थे और जिनकी प्रतिष्ठा थी, यह मानती थी कि वे जहाँ भी जाते हैं, लोग उनका सम्मान करते हैं। मैं सोचती थी कि ऐसा व्यक्ति बनकर मेरे जीवन का मूल्य होगा, इसलिए मैंने मेहनत से पढ़ाई की, मुझे उम्मीद थी कि मेरे प्रयासों से भविष्य में मुझे अच्छी नौकरी मिलेगी और दूसरों से सम्मान मिलेगा। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तो अनुसरण को लेकर मेरे विचार वही रहे। जब मैं अगुआ थी, चाहे मेरा कर्तव्य कितना भी व्यस्त क्यों न रहा हो, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, जिसका उद्देश्य भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने के लिए खुद को और अधिक सत्य से सुसज्जित करना होता था, ताकि उनका सम्मान प्राप्त कर सकूँ। सभाओं के दौरान मैं लगातार विचार करती थी कि कैसे संगति करूँ ताकि भाई-बहन मुझे नीची नजर से न देखें। चूँकि मेरा इरादा गलत था और मेरी दशा अच्छी नहीं थी तो इससे सभाओं की प्रभावशीलता प्रभावित होती थी। सामान्य मामलों का काम करते समय मैं अभी भी पुराने रास्ते पर चल रही थी। चूँकि मुझे नीची नजर से देखे जाने का डर रहता था, अगुआओं के लिए कंप्यूटर की समस्याएँ हल करने के बाद मुझे उनसे एक शब्द बोलने जैसी सरल बात की भी हिम्मत नहीं होती थी और मैं अंदर से बहुत दबा हुआ महसूस करती थी। उसके बाद मैं अपने कर्तव्यों में बहुत निष्क्रिय हो गई, जिसने काम को भी प्रभावित किया। मैंने देखा कि मैं जो भी कर्तव्य कर रही थी, उसमें मेरे विचार और इरादे मेरी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए होते थे। क्या यह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलना नहीं था? स्पष्ट रूप से मैं कुछ भी नहीं थी; मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी, मेरी काबिलियत खराब थी और मेरा भ्रष्ट स्वभाव काफी गंभीर था। सिर झुकाकर अपना कर्तव्य करने के बजाय मैं लगातार अपने आत्मसम्मान और रुतबे के बारे में चिंतित रहती थी। जब मुझे वो चीजें नहीं मिलीं तो मैं नकारात्मक और व्यथित हो गई और अपने कर्तव्यों में प्रेरणा खो बैठी। प्रतिष्ठा और रुतबे ने वास्तव में मुझे बहुत मजबूती से बाँध रखा था, वे मेरे रोजमर्रा के जीवन पर हावी हो गए थे। मैं जो कुछ भी करती थी, उसमें दूसरों से सम्मान और स्वीकृति की इच्छा रखती थी। इस तरह से जीना वास्तव में बेहद दर्दनाक था! परमेश्वर ने मुझे अपना कर्तव्य करने का अवसर दिया था ताकि मैं सत्य का अनुसरण कर पाऊँ और अपने कर्तव्य के माध्यम से अपने स्वभाव में बदलाव ला सकूँ। लेकिन मैं ईमानदारी से अपना कर्तव्य करने में विफल रही और सत्य का अनुसरण करने का प्रयास नहीं किया, हमेशा दूसरों का सम्मान पाने के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा खोजती रही। जब मैंने अपना सम्मान या रुतबा खो दिया, तो मैंने इसका गुस्सा अपने कर्तव्य पर निकाला और इसे करने में गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार किया। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध था! अब मुझे स्पष्ट रूप से पता चल गया था कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे अंधाधुंध दौड़ना वास्तव में बेहद खतरनाक था। जब भी मेरी प्रसिद्धि, लाभ या रुतबा दाँव पर होते, मैं प्रतिरोधी हो जाती और शिकायत करती, अपने कर्तव्य में निष्क्रिय और नकारात्मक हो जाती, जिससे काम में नुकसान होता था। अगर मैं इसी तरह हठपूर्वक चलती रहती, तो अंततः मुझे परमेश्वर द्वारा केवल ठुकराकर हटाया ही जाता। नूओ यी, क्या तुम जानती हो? इन चीजों का एहसास होने पर मैं डर गई और सोचने लगी, “मैं गलत रास्ते पर चलते नहीं रह सकती। परमेश्वर ने मुझे कर्तव्य निभाने का जो अवसर दिया है उसे मुझे पूरी तरह सँजोने की जरूरत है।”

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे अपनी स्थिति तय करने के तरीके के बारे में कुछ समझ हासिल करने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारी काबिलियत बहुत कमजोर है, तुममें सही और गलत का भेद करने की क्षमता नहीं है और तुममें सत्य की गहन समझ की क्षमता नहीं है, तो तुम चाहे कुछ भी करो, अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से आसक्त मत रहो, और यह मत सोचो कि ऐसे प्रयास कैसे करें कि कलीसिया में कोई अधिकारी बनें—कलीसिया का अगुआ बनें—अगुआ बनना उतना आसान नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार इंसान नहीं हो, और तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तो फिर अगुआ बनते ही तुम या तो एक मसीह-विरोधी बन जाओगे या झूठा अगुआ। ... अगर तुम में कलीसिया के कार्य के प्रति दायित्व की भावना है, और वे उसमें शामिल होना चाहते हैं, तो यह अच्छा है; लेकिन तुम्हें इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या तुम सत्य को समझते हो, क्या तुम समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की संगति करने में सक्षम हैं, क्या तुम वास्तव में परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं, और क्या वे कलीसिया का कार्य, कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार ठीक से करने में सक्षम हैं। अगर तुम ये मानदंड पूरे करते हो, तो तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए आगे आ सकते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों को कम-से-कम खुद को जानना चाहिए। पहले देखो कि क्या तुम विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानने में सक्षम हो, क्या तुम सत्य समझ सकते हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य कर सकते हो। अगर तुम ये अपेक्षाएँ पूरी करते हो, तो तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हो। अगर तुम अपना मूल्यांकन न कर पाओ, तो तुम अपने आस-पास के उन लोगों से पूछ सकते हो, जो तुमसे परिचित हैं या तुम्हारे निकट हैं। अगर वे सब कहें कि अगुआ बनने के लिए तुम्हारी क्षमता अपर्याप्त है, और कि तुम्हारा अपने मौजूदा काम को बढ़िया तरीके से करना ही बहुत अच्छा है तो तुम्हें जल्दी से खुद को जान लेना चाहिए। क्योंकि तुम्हारी काबिलियत कम है, तो अपना सारा समय अगुआ बनने की चाह में न गँवाओ—बस वही करो जो कर सकते हो, धरातल पर रहते हुए अपना कर्तव्य ठीक से करो, ताकि तुम्हें मानसिक शांति मिल सके। यह भी अच्छा है। और अगर तुम अगुआ बनने में सक्षम हो, अगर तुम वास्तव में ऐसी काबिलियत और प्रतिभा रखते हो, अगर तुममें वास्तव में कार्य-क्षमता और दायित्व की भावना है, तो तुम ठीक उस तरह की प्रतिभा वाले लोग हो, जिसकी परमेश्वर के घर में कमी है, और तुम्हें निश्चित रूप से पदोन्नत और विकसित किया जाएगा; किंतु ये सब चीजें परमेश्वर द्वारा निर्धारित समय पर होती हैं। यह इच्छा—पदोन्नत होने की इच्छा—महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन तुममें अगुआ बनने की क्षमता होनी चाहिए और तुम्हें उसके मानदंड पूरे करने चाहिए। अगर तुम खराब क्षमता के हो, फिर भी अपना सारा समय अगुआ बनना चाहने या किसी महत्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने, या समग्र कार्य की जिम्मेदारी लेने, या कुछ ऐसा करने में लगाते हो जो तुम्हें सबसे अलग दिखाता हो, तो मैं तुमसे कहता हूँ : यह महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षा आपदाओं को आमंत्रित कर सकती है, इसलिए तुम्हें इससे सावधान रहना चाहिए। सभी लोगों में प्रगति करने की इच्छा होती है और वे सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास करने के इच्छुक होते हैं, जो कोई समस्या नहीं है। कुछ लोगों में काबिलियत होती है, वे अगुआ होने के मानदंड पूरे करते हैं और सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास करने में सक्षम होते हैं, और यह अच्छी बात है। दूसरों में काबिलियत नहीं होती, इसलिए उन्हें अपने कर्तव्य पर टिके रहते हुए अपने सामने के कर्तव्य को अच्छी तरह से और सिद्धांत के अनुसार, और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के मुताबिक करना चाहिए। उनके लिए यही बेहतर, सुरक्षित, अधिक यथार्थपरक है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। नूओ यी, क्या तुमने भी परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर कुछ चीजें हासिल नहीं कर ली हैं? इस अंश से मैंने समझा कि अगर किसी के पास काबिलियत और कार्य क्षमता है और वह अगुआ होने के मानदंड पूरे करता है, तो परमेश्वर का घर निश्चित रूप से उसे बढ़ावा देगा और उसे विकसित करेगा। लेकिन अगर किसी की काबिलियत खराब है और वह अगुआ होने के मानदंड पूरे नहीं करता, तो भले ही वह अगुआ बन जाए, वह असली कार्य करने में असमर्थ रहेगा और अनिवार्य रूप से कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाएगा। मैंने हमेशा सोचा था कि अगुआ होने से मुझे दूसरों से सम्मान मिलेगा, लेकिन मैंने कभी इस पर आत्म-चिंतन नहीं किया कि क्या मैं वास्तव में अगुआ होने के मानदंड पूरे करती हूँ। एक अगुआ के बतौर अपने पिछले समय को देखती हूँ तो मैं भाई-बहनों के कर्तव्यों में पैदा होने वाली समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखने या हल करने में सक्षम नहीं थी। जब कई कार्य होते थे, तो मैं उन सबको एक साथ सँभाल नहीं पाती थी और मैं वह कार्य भी ठीक से नहीं कर पाती थी जिसके लिए मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। इसके अलावा मैं अपने रुतबे को लेकर बेहद चिंतित थी, मैंने अपने कर्तव्य करने में सत्य सिद्धांतों को खोजने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और लगातार इस बारे में सोचती थी कि किस तरह से संगति की जाए जिससे भाई-बहनों का सम्मान प्राप्त हो। मेरा दिल सचमुच कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं हो सका और ऐसा करने से कोई नतीजा नहीं निकला। ऊपरी अगुआओं ने मेरे कर्तव्य में फेरबदल सिद्धांतों के अनुसार किया था, जो कलीसिया के कार्य को लाभ पहुँचाता और मेरे लिए सुरक्षा का काम करता। अब मैं जो कर्तव्य कर रही हूँ, उसमें कुछ तकनीकी कौशल जानना शामिल है और मैं इन कौशलों में निपुणता प्राप्त करने और इस कर्तव्य में योगदान देने में सक्षम हूँ। यह कर्तव्य मेरे लिए उपयुक्त है। जैसे कि परमेश्वर कहता है : “कुछ लोगों में काबिलियत होती है, वे अगुआ होने के मानदंड पूरे करते हैं और सत्य की ओर बढ़ने के प्रयास करने में सक्षम होते हैं, और यह अच्छी बात है। दूसरों में काबिलियत नहीं होती, इसलिए उन्हें अपने कर्तव्य पर टिके रहते हुए अपने सामने के कर्तव्य को अच्छी तरह से और सिद्धांत के अनुसार, और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के मुताबिक करना चाहिए। उनके लिए यही बेहतर, सुरक्षित, अधिक यथार्थपरक है।” वास्तव में, जो लोग अगुआ होने के मानदंड पूरे करते हैं, उनके लिए परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किया जाना एक अच्छी बात है क्योंकि इससे उन्हें अधिक प्रशिक्षण प्राप्त करने, सत्य सिद्धांतों के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश करने और भाई-बहनों की मदद के लिए अपना व्यावहारिक अनुभव इस्तेमाल करने का अवसर मिलता है, जो कलीसिया के कार्य के लिए एक अच्छी बात है। जो लोग अगुआ होने के मानदंड पूरे नहीं करते, उन्हें अपने वे कर्तव्य दृढ़ता से करने चाहिए जिनमें वे सक्षम हैं और वे कुछ सत्य वास्तविकताओं में भी प्रवेश कर सकते हैं, अंततः उद्धार का अवसर प्राप्त कर सकते हैं। इसे पहचान कर मैंने परमेश्वर के इरादे को थोड़ा और समझा। परमेश्वर ने मुझे अपने बारे में सटीक समझ हासिल करने में मदद करने के लिए ऐसे परिवेशों की व्यवस्था की। मुझे अपनी सही स्थिति का पता लगाने और अपना कर्तव्य व्यावहारिक तरीके से करने की आवश्यकता है। यही सबसे महत्वपूर्ण बात है और मुझमें यही विवेक होना चाहिए।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सत्य के सामने हर कोई एक समान है। जो लोग पदोन्नत और विकसित किए जाते हैं, वे दूसरों से बहुत बेहतर नहीं होते। हर किसी ने लगभग एक ही समय तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है। जिन लोगों को पदोन्नत या विकसित नहीं किया गया है, उन्हें भी अपने कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कोई भी दूसरों को सत्य का अनुसरण करने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। कुछ लोग सत्य की अपनी खोज में अधिक उत्सुक होते हैं और उनमें थोड़ी काबिलियत होती है, इसलिए उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जाता है। यह परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों के कारण होता है। तो फिर लोगों को पदोन्नत करने और उनका उपयोग करने के लिए परमेश्वर के घर में ऐसे सिद्धांत क्यों होते हैं? चूँकि लोगों की काबिलियत और चरित्र में अंतर होता है, और प्रत्येक व्यक्ति एक अलग मार्ग चुनता है, इसलिए परमेश्वर में लोगों की आस्था के परिणाम अलग होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे बचाए जाते हैं और वे राज्य की प्रजा बन जाते हैं, जबकि जो लोग सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, जो अपना कर्तव्य करने में वफादार नहीं होते, वे हटा दिए जाते हैं। परमेश्वर का घर इस आधार पर लोगों का विकास और उपयोग करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे अपना कर्तव्य करने में वफादार हैं या नहीं। क्या परमेश्वर के घर में विभिन्न लोगों के पदानुक्रम में कोई अंतर होता है? फिलहाल, विभिन्न लोगों के स्थान, मूल्य, रुतबे या अवस्थिति में कोई पदानुक्रम नहीं है। कम-से-कम उस अवधि के दौरान जब परमेश्वर लोगों को बचाने और मार्गदर्शन देने के लिए कार्य करता है, विभिन्न लोगों की श्रेणियों, स्थानों, या रुतबे के बीच कोई अंतर नहीं होता। अंतर केवल कार्य के विभाजन और कर्तव्य की भूमिकाओं में होता है। निस्संदेह, इस दौरान, कुछ लोगों को, अपवाद के तौर पर, कुछ विशेष कार्य करने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, जबकि कुछ लोगों को अपनी काबिलियत या पारिवारिक परिवेश में समस्याओं जैसे विभिन्न कारणों से ऐसे अवसर नहीं मिलते। लेकिन क्या परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता, जिन्हें ऐसे मौके नहीं मिले हैं? ऐसा नहीं है। क्या उनका मूल्य और स्थान दूसरों से कम है? नहीं। सत्य के सामने सभी समान हैं, सभी के पास सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने का अवसर होता है, और परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष और उचित व्यवहार करता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि सत्य के सामने हर कोई बराबर है। परमेश्वर के घर में लोगों का मूल्यांकन उनकी काबिलियत, चरित्र और सत्य के अनुसरण के आधार पर किया जाता है ताकि यह तय किया जा सके कि उन्हें विकसित किया जा सकता है या नहीं। जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जाता है और जिन्हें नहीं किया जाता, उनके बीच पदानुक्रम का कोई भेद नहीं होता; अंतर केवल हरेक के कार्य के विभाजन में होता है। लेकिन मुझे लगता था कि एक अगुआ होना किसी अधिकारी की तरह ऊँचा रुतबा होना है, जबकि सामान्य मामलों का कार्य करना एक मामूली कर्मचारी की तरह नीचे रुतबे वाला होता है। मैं परमेश्वर के घर में कर्तव्यों को सांसारिक दृष्टिकोण से माप रही थी, जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर के वचनों ने मेरे भ्रामक विचारों को सही कर दिया। परमेश्वर के घर में कोई चाहे जो भी कर्तव्य करे, परमेश्वर लोगों को जो सत्य प्रदान करता है वह एक जैसा ही होता है और परमेश्वर लोगों को सत्य प्राप्त करने के जो अवसर देता है वो भी एक जैसे ही होते हैं। परमेश्वर यह नहीं देखता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य करता है; वह यह देखता है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। भले ही किसी व्यक्ति की काबिलियत खराब हो, जब तक उसका दिल सही है और वह परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है और जितनी समझ हो उसके मुताबिक अभ्यास कर सकता है, तब तक परमेश्वर उसे प्रबुद्ध करेगा और उसकी अगुआई करेगा। मैंने बहन हाई लुन के बारे में सोचा, जो मेरे कर्तव्य में मेरी साथी थी। उसकी काबिलियत बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन उसे अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी का एहसास था। उसने जल्दी से आवश्यक कौशल सीख लिए और समस्याएँ हल करने के लिए किसी भी कार्य को स्वीकार कर तुरंत समर्पण कर दिया, चाहे वह कहीं भी हो। हाई लुन ने अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाया, इसलिए उसे पवित्र आत्मा से प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और उसका कर्तव्य प्रभावशाली रहा। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है; वह कोई पक्षपात नहीं करता। जब तक कोई ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करता है, वह कोई भी कर्तव्य करते हुए इसे प्राप्त कर सकता है। यह महसूस करने पर मुझे बहुत स्पष्टता महसूस हुई। मैं समझ गई कि अपने कर्तव्य को निभाते हुए मुझे खुद के रुतबे के बारे में सोचने के बजाय सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

नूओ यी, मैं अब सामान्य मामलों वाले कामों के प्रति समर्पित हो पाती हूँ और मैंने कुछ सबक सीखे हैं। पहले मैं नकारात्मक और आलसी थी और अपने कर्तव्य करने में जिम्मेदारी नहीं लेती थी, काम में समस्याएँ हल करने के लिए चिंतन करने का प्रयास नहीं करती थी। अब काफी बेहतर है। मैं अपने कर्तव्यों में विचलन की पहचान करने पर ध्यान केंद्रित करती हूँ और इन मुद्दों को हल करने के लिए सक्रिय रूप से काम करती हूँ। पहले मैं तकनीकी कौशल सीखने में सक्रिय नहीं थी, अधिक जटिल कौशलों का अध्ययन करने में समय और प्रयास नहीं लगाती थी। अब मैं अपने कर्तव्यों के लिए जरूरी तकनीकी कौशल सीखने को तैयार हूँ। हालाँकि मुझे अभी भी कुछ कठिनाइयाँ आती हैं, लेकिन मैं अब पहले की तरह भ्रष्ट स्वभाव के साथ उनसे नहीं निपटती। प्रार्थना और परमेश्वर पर भरोसा करने के माध्यम से मैंने कई तकनीकी कौशल सीखे हैं। पहले मैं भाई-बहनों को कंप्यूटर की समस्याओं में मदद करने को सिर्फ एक काम मानती थी। अब मैं सचेत रूप से अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करती हूँ। जब मैं अपने कर्तव्यों में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करती हूँ, तो मैं अपनी समस्याएँ दूर करने और अपनी गलत दशा को ठीक करने के लिए परमेश्वर के वचन खोज सकती हूँ। जब मैं नवागंतुकों को अगुआ बनते देखती हूँ, तो मैं अब परेशान नहीं होती। मैं इसका सामना शांति से और सही ढंग से कर पाती हूँ। मैंने महसूस किया है कि अपना कर्तव्य करने में ईमानदार दिल रखना कितना अहम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति कौन-सा कर्तव्य निभाता है, शुद्ध और समर्पित हृदय रखने और अपना सर्वश्रेष्ठ करने से परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है और व्यक्ति अपने कर्तव्यों से बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है। नूओ यी, इसे देखकर क्या तुमने अपने लिए अभ्यास के कुछ मार्ग प्राप्त किए हैं?

ठीक है, अभी के लिए मुझे बस इतना ही कहना है। उम्मीद है कि इस बार मेरा अनुभव तुम्हारे लिए मददगार होगा और जल्द ही नकारात्मक स्थिति पर काबू पाने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, जिससे तुम अपने कर्तव्यों को एक ईमानदार दिल से निभा सकोगी और परमेश्वर ने हम पर जो श्रमसाध्य प्रयास किए हैं उन्हें विफल नहीं होने दोगी। तुम्हें जो भी अंतर्दृष्टि मिले या लाभ हो तो बेझिझक लिखना और साझा करना।

सादर,

यू शुन

19 सितंबर, 2023

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