38. मेरी पसंद
मेरे माता-पिता की मृत्यु मेरे बचपन में ही हो गई थी, मैं और मेरी दो बहनें शुरू से ही हमारी दादी के साथ रहती थीं, हमारी दादी ने ही हमें प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनाया था। हम अक्सर प्रभु से प्रार्थना करती थीं और रविवार को अपनी दादी के साथ कलीसिया जाती थीं। हमारी दादी के गुजर जाने के बाद हमारे चाचा-चाची ने हमें अपने बच्चों की तरह पाला। हमारी चाची अक्सर हमें बताती थी कि पढ़ाई जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज है और यह उज्ज्वल भविष्य की कुंजी है। मैंने इन शब्दों को अपने दिल में बसा लिया था, सोचती थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकती। मैंने वाकई कड़ी मेहनत करती थी और बीमार होने पर भी स्कूल जाने पर जोर देती थी। मेरी क्लास में मेरे ग्रेड हमेशा सबसे अच्छे होते थे, मैं बहुत सारे इनाम और प्रमाण पत्र जीतती थी।
2020 में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के बाद मैंने कलीसिया जाना बंद कर दिया था और मैं घर पर ही बाइबल पढ़ती थी। मैं बाइबल में उन संतों से प्रेरित थी जिन्होंने अपना जीवन परमेश्वर को अर्पित कर दिया था और धीरे-धीरे मेरे भीतर परमेश्वर की सेवा करने की इच्छा पैदा हो गई। मैंने सभा के लिए ऑनलाइन समूहों की तलाश शुरू की और अगस्त 2020 में फेसबुक पर एक मित्र ने मुझे एक ऑनलाइन सभा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। सभा में उन्होंने मुझे अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य के बारे में गवाही दी। जब मैंने पहली बार सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़े तो मैं बहुत प्रभावित और उत्साहित थी, क्योंकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में अधिकार था और उनमें कई रहस्यों का खुलासा किया गया था जिन्हें मैं पहले नहीं समझ पाई थी। नतीजतन मैं ऑनलाइन सभाओं में भाग लेने के लिए वाकई उत्सुक रहती थी और अपने खाली समय में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया और भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियों की बहुत सारी फिल्में देखती थी। मेरा दिल आनंद और पोषण से भर जाता था।
जल्दी ही मैं ऑनलाइन नए सदस्यों के सिंचन का अभ्यास करने लगी। महामारी के कारण मैं सिर्फ ऑनलाइन ही अपनी पढ़ाई कर सकती थी और मेरे पास बहुत खाली समय होता था, इसलिए अपने कर्तव्यों और पढ़ाई के बीच संतुलन रखना बहुत मुश्किल नहीं था। समय के साथ मेरे चाचा-चाची को चिंता होने लगी थी कि मेरे कर्तव्यों का मेरी पढ़ाई पर असर पड़ेगा और इसलिए उन्होंने मुझे ऑनलाइन सभाओं में भाग लेना बंद करने के लिए कहा। मैं थोड़ी चिंतित होकर सोच रही थी, “अगर मुझे ऑनलाइन सभाओं में भाग लेने नहीं दिया जाएगा तो मैं अपने कर्तव्य कैसे करूँगी? हाल ही में अधिक से अधिक नवागंतुक सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने के लिए आ रहे हैं और अगर मैं उनका ठीक से सिंचन नहीं करती हूँ तो उनका जीवन कष्ट में पड़ जाएगा। यह मेरी गलती होगी और मुझे यकीन है कि इससे मेरी अंतरात्मा अपराध बोध में रहेगी।” इस वजह से मैंने अपने कर्तव्य करते रहने का फैसला किया। एक दिन अगुआ ने मुझे एक संदेश भेजकर पूछा कि क्या मैं अपने कर्तव्य पूर्णकालिक रूप से करना चाहती हूँ। जब यह संदेश मिला तो मुझे बहुत खुशी हुई और तुरंत सहमत हो गई क्योंकि मैं आखिरकार अपना सारा समय परमेश्वर के लिए खपा कर सकती थी और जीवन भर परमेश्वर की सेवा करने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती थी। लेकिन मुझे कुछ चिंताएँ भी थीं, जैसे कि मैं सोचती थी, “अगर मैं अपने कर्तव्य पूर्णकालिक रूप से करती हूँ तो मेरी पढ़ाई का क्या होगा? अगर मैं स्कूल छोड़ देती हूँ तो मेरे भविष्य का क्या होगा? मेरे चाचा-चाची को कैसा लगेगा? वे अब भी मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं एक दिन उनकी देखभाल करूँगी और मेरे पालन-पोषण में उनके प्रयासों और उनके प्यार की कीमत चुकाऊँगी।” तभी मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीचइससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज है। ... एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। “मानवजाति के एक सदस्य और मसीह के समर्पित अनुयायियों के रूप में अपने मन और शरीर परमेश्वर के आदेश की पूर्ति करने के लिए समर्पित करना हम सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है, क्योंकि हमारा संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर से आया है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण अस्तित्व में है। यदि हमारे मन और शरीर परमेश्वर के आदेश और मानवजाति के न्यायसंगत कार्य को समर्पित नहीं हैं, तो हमारी आत्माएँ उन लोगों के सामने शर्मिंदा महसूस करेंगी, जो परमेश्वर के आदेश के लिए शहीद हुए थे, और परमेश्वर के सामने तो और भी अधिक शर्मिंदा होंगी, जिसने हमें सब-कुछ प्रदान किया है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचन हमें स्पष्ट बताते हैं कि परमेश्वर का आदेश पूरा करने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए अपना तन-मन अर्पित करना हमारी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर हमारा तन-मन परमेश्वर के आदेश के लिए अर्पित नहीं है और हम अपना जीवन केवल देह के लिए जीते हैं तो हमारा जीवन निरर्थक है। परमेश्वर उम्मीद करता है कि हम अपने कर्तव्य पूरे कर सकें और अपना समय बर्बाद न करें। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मेरा जीवन परमेश्वर से आता है, इसलिए मुझे अपने कर्तव्य करने चाहिए। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह भी एहसास हुआ कि कर्तव्य करना उद्धार और पूर्णता पाने का मार्ग है और अगर मैंने अपने कर्तव्य करने बंद कर दिए तो मेरा जीवन खोखला हो जाएगा और मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की स्वीकृति के बिना व्यर्थ जीती रहूँगी। परमेश्वर के वचनों ने मुझे साहस दिया और मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने और अपना जीवन उसे अर्पित करने की इच्छा विकसित की। भले ही मैं सृजित प्राणी के कर्तव्य करने के लिए अपनी पढ़ाई के साथ-साथ सब कुछ छोड़ने को तैयार थी, लेकिन मुझे इस बात की भी चिंता थी कि अगर मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी तो मेरे भविष्य का क्या होगा। मैं सोच रही थी कि क्या मैं डिप्लोमा के बिना अच्छी नौकरी पा सकूँगी और क्या मैं भविष्य में अपना भरण-पोषण कर पाऊँगी। मुझे यह भी याद आया कि मेरी चाची अक्सर क्या कहा करती थी, “शिक्षा जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज है। ज्ञान सबसे मूल्यवान संपत्ति है, जिसे चुराया नहीं जा सकता और उज्ज्वल भविष्य की कुंजी है।” मैंने सोचती थी कि अगर मैं अपनी पढ़ाई में अच्छा नहीं कर पाई तो मुझे अच्छी नौकरी नहीं मिल पाएगी और मेरा जीवन स्थिर नहीं होगा। इस विचार ने मुझे और भी अधिक चिंतित और बेचैन कर दिया। इस समय तक कॉलेज से मेरे स्नातक होने में सिर्फ दो या तीन महीने ही बचे थे, इसलिए मैं पहले कॉलेज की अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी। इस तरह मैं कलीसिया में अपने कर्तव्य करते हुए पढ़ाई करती थी। मैं एक ही समय में दोनों काम अच्छे से करना चाहती थी, लेकिन यह वाकई बहुत मुश्किल था। कभी-कभी मुझे होमवर्क और नवांगतुकों को सिंचन करना पड़ता था और मेरा दिल शांत नहीं हो पाता था। मुझे याद है कि एक दिन मुझे कुछ होमवर्क दिया गया था और जब मैंने देखा कि कितना होमवर्क है तो मैंने सोचा कि अगर मैं इसे पूरा करने की कोशिश करूँगी तो मेरे कर्तव्यों का क्या होगा। इसके अलावा जब मैं अपनी पढ़ाई की सामग्री पढ़ती थी तो मैं बहुत असहज हो जाती थी क्योंकि पाठ्यक्रम की अधिकांश सामग्री सत्य के अनुरूप नहीं थी और कुछ तो सत्य का खंडन भी करती थी और परमेश्वर का अस्तित्व नकारती थी। इससे मुझे बहुत पीड़ा और आंतरिक उथल-पुथल होती थी। मुझे लगता था जैसे मैं दो अलग-अलग दुनिया में रह रही हूँ : एक रोशनी की दुनिया और दूसरी अंधकार की दुनिया, और मेरा एक पैर रोशनी में और दूसरा अंधकार में है। इस बिंदु पर मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मुझे अपनी पढ़ाई और अपने कर्तव्यों के बीच चुनाव करना होगा।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग महाविद्यालय में अच्छे मुख्य विषय चुनते हैं और अंत में स्नातक की पढ़ाई पूरी करके एक संतोषजनक नौकरी पाते हैं, और अपने जीवन की यात्रा में पहली विजयी छलांग लगाते हैं। कुछ लोग कई प्रकार के कौशल सीखकर उनमें महारत हासिल कर लेते हैं, लेकिन फिर भी कोई अनुकूल नौकरी और पद नहीं ढूँढ़ पाते, करियर की तो बात ही छोड़ दो; अपनी जीवन यात्रा के आरम्भ में ही वे अपने आपको हर एक मोड़ पर कुंठित, परेशानियों से घिरा, अपने भविष्य को निराशाजनक और अपने जीवन को अनिश्चित पाते हैं। कुछ लोग बहुत लगन से अध्ययन करने में जुट जाते हैं, फिर भी उच्च शिक्षा पाने के अपने सभी अवसरों से बाल-बाल चूक जाते हैं; उन्हें लगता है कि उनके भाग्य में सफलता पाना लिखा ही नहीं है, उन्हें अपनी जीवन यात्रा में सबसे पहली आकांक्षा ही शून्य में विलीन होती लगती है। ये न जानते हुए कि आगे का मार्ग निर्बाध है या पथरीला, उन्हें पहली बार महसूस होता है कि मनुष्य की नियति कितने उतार-चढ़ावों से भरी हुई है, इसलिए वे जीवन को आशा और भय से देखते हैं। कुछ लोग, बहुत अधिक शिक्षित न होने के बावजूद, पुस्तकें लिखते हैं और बहुत प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं; कुछ, यद्यपि पूरी तरह से अशिक्षित होते हैं, फिर भी व्यवसाय में पैसा कमाकर सुखी जीवन गुज़ारते हैं...। कोई व्यक्ति कौन-सा व्यवसाय चुनता है, कोई व्यक्ति कैसे जीविका अर्जित करता है : क्या लोगों का इस पर कोई नियन्त्रण है कि वे अच्छा चुनाव करते हैं या बुरा चुनाव? क्या वो उनकी इच्छाओं एवं निर्णयों के अनुरूप होता है? अधिकांश लोगों की ये इच्छाएं होती हैं—कम काम करना और अधिक कमाना, बहुत अधिक परिश्रम न करना, अच्छे कपड़े पहनना, हर जगह नाम और प्रसिद्धि हासिल करना, दूसरों से आगे निकलना, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना। लोग सब कुछ बेहतरीन होने की इच्छा रखते हैं, किन्तु जब वे अपनी जीवन-यात्रा में पहला कदम रखते हैं, तो उन्हें धीरे-धीरे समझ में आने लगता है कि मनुष्य का भाग्य कितना अपूर्ण है, और पहली बार उन्हें समझ में आता है कि भले ही इंसान अपने भविष्य के लिए स्पष्ट योजना बना ले, भले ही वो महत्वाकांक्षी कल्पनाएँ पाल ले, लेकिन किसी में अपने सपनों को साकार करने की योग्यता या सामर्थ्य नहीं होता, कोई अपने भविष्य को नियन्त्रित नहीं कर सकता। सपनों और हकीकत में हमेशा कुछ दूरी रहेगी; चीज़ें वैसी कभी नहीं होतीं जैसी इंसान चाहता है, और इन सच्चाइयों का सामना करके लोग कभी संतुष्टि या तृप्ति प्राप्त नहीं कर पाते। कुछ लोग तो अपनी जीविका और भविष्य के लिए, अपने भाग्य को बदलने के लिए, किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं, हर संभव प्रयास करते हैं और बड़े से बड़ा त्याग कर देते हैं। किन्तु अंततः, भले ही वे कठिन परिश्रम से अपने सपनों और इच्छाओं को साकार कर पाएं, फिर भी वे अपने भाग्य को कभी बदल नहीं सकते, भले ही वे कितने ही दृढ़ निश्चय के साथ कोशिश क्यों न करें, वे कभी भी उससे ज्यादा नहीं पा सकते जो नियति ने उनके लिए तय किया है। योग्यता, बौद्धिक स्तर, और संकल्प-शक्ति में भिन्नताओं के बावजूद, भाग्य के सामने सभी लोग एक समान हैं, जो महान और तुच्छ, ऊँचे और नीचे, तथा उत्कृष्ट और निकृष्ट के बीच कोई भेद नहीं करता। कोई किस व्यवसाय को अपनाता है, कोई आजीविका के लिए क्या करता है, और कोई जीवन में कितनी धन-सम्पत्ति संचित करता है, यह उसके माता-पिता, उसकी प्रतिभा, उसके प्रयासों या उसकी महत्वाकांक्षाओं से तय नहीं होता, बल्कि सृजनकर्ता द्वारा पूर्व निर्धारित होता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मेरा भाग्य और भविष्य मेरे अपने हाथों में नहीं हैं, न ही वे मेरे प्रयासों पर निर्भर हैं। ये चीजें पूरी तरह से सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित की जाती हैं। मेरी चाची हमेशा कहती थी कि ज्ञान उज्ज्वल भविष्य और अतुलनीय धन की कुंजी है और ये शब्द मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे, जिससे मुझे भरोसा हो गया था कि यही सच है। मैं अक्सर खुद से कहती थी कि चाहे कुछ भी हो जाए मुझे अपनी पढ़ाई नहीं रोकनी चाहिए क्योंकि यह सफल भविष्य की कुंजी है और अगर मैंने पढ़ाई बंद कर दी तो मेरा भाग्य नहीं बदलेगा। मैं गरीब की तरह जीना या मरना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने कड़ी मेहनत से पढ़ाई की। लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि मेरे दिल में जो शब्द डाले गए थे, वे शैतान द्वारा लोगों को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द थे, जिससे लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को नकारते हैं, हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि अच्छा भाग्य हमारी अपनी मेहनत पर निर्भर होता है और व्यक्ति का भाग्य उसके अपने हाथों में होता है, जिससे हम इस सत्य को नकारते हैं कि मनुष्य का भाग्य सृष्टिकर्ता के हाथों में है। मैंने सोचा कि क्यों कई लोग जिनके पास उच्च शैक्षणिक योग्यता होती है या जो अच्छे विषयों का अध्ययन करते हैं, उनका करियर और धन उनकी अपेक्षाओं से बहुत कम रह जाता है। कुछ लोग स्नातक होने के बाद नैनी बन जाते हैं, कुछ किसान बन जाते हैं, कुछ लोग सेल्सपर्सन बन जाते हैं और कुछ को नौकरी तक नहीं मिलती। दूसरी ओर बहुत से लोग जो बिल्कुल अनपढ़ थे या पढ़ाई में कम से कम मेहनत करते थे, वे अब अमीर या मशहूर हैं। इन बातों पर विचार करते हुए मुझे समझ आया कि हमारी नियति हमारे हाथों में नहीं है, बल्कि परमेश्वर के हाथों में है। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा है : “इसलिये मैं तुम से कहता हूँ कि अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएँगे और क्या पीएँगे; और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे। क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं? आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती 6:25–26)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर हमारी सभी जरूरतों का स्रोत है, वह हमारी सभी जरूरतें पूरी करता है और मुझे किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। जहाँ तक मेरे भविष्य की बात है, क्या मेरे पास खाने के लिए भोजन होगा, रहने के लिए घर होगा, या मुझे अच्छी नौकरी मिलेगी, मुझे इनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मुझे बस परमेश्वर की तलाश करनी है और सब कुछ उसे सौंप देना है और परमेश्वर सब कुछ आयोजित और व्यवस्थित करेगा। उसी पल मैं सहज हो गई और मैंने अपनी पढ़ाई छोड़कर अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया। लेकिन मुझे चिंता थी कि शायद मेरा परिवार इस बात से सहमत नहीं होगा और मुझे लगा कि मुझ पर उनका कुछ कर्ज है। मुझे पालने के लिए उन्होंने बहुत कुछ सहा है। मेरा चाचा अक्सर ओवरटाइम काम करता था और हमें पालने के लिए ज्यादा पैसे कमाने के लिए उसने पार्ट-टाइम नौकरी कर ली थी। कभी-कभी वह यह सुनिश्चित करने के लिए भूखे पेट रह जाता था कि हमारे पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन हो। इन विचारों से मैं वाकई व्यथित हो गई थी लेकिन अगर मैं उनका कर्ज चुकाने के लिए अपने कर्तव्य छोड़ देती तो मेरी अंतरात्मा अशांत हो जाती।
बाद में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मेरी समस्या हल कर दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिल्कुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर सभी की जरूरतें पूरी करता है और भले ही ऐसा लगता हो कि हमारा परिवार ही हमारी देखभाल करता है, पर्दे के पीछे यह वाकई परमेश्वर है जो चीजें व्यवस्थित करता है और जीवन भर हमारी देखभाल करता है। मुझे अचानक याद आया कि जब मैं और मेरी बहनें बच्ची थीं तब हमारे माता-पिता की देखभाल के बिना भी हम अच्छी तरह से रहती थीं। चाहे हम कहीं भी रहती हों, हम जिन लोगों से मिलती थीं वे हमेशा दयालु होते थे और हमारे साथ अपने बच्चों की तरह व्यवहार करते थे। मुझे यह भी याद आया कि जब मैं सात साल की थी मैं और मेरी बहन एक बार सड़क पार कर रही थी, एक कार अचानक हमारे पास आई और लगभग हमें टक्कर मार दी थी। मैं और मेरी बहन इतनी स्तब्ध थीं कि हिल भी नहीं पा रही थीं। लेकिन कार अचानक रुक गई थी और हमें चोट नहीं लगी थी। एक और बार सड़क पार करते समय मैं एक तिपहिया गाड़ी से लगभग टकरा ही गई थी और वह भी अचानक रुक गई थी और मुझे जरा भी चोट नहीं लगी थी। इन घटनाओं के बारे में सोचकर मैं बेकाबू होकर रोने लगी। परमेश्वर हमेशा मेरे साथ था और मेरी रक्षा कर रहा था, लेकिन मुझे इसका एहसास नहीं था। मुझे लगता था कि मेरे पास जो कुछ भी है वह मेरे चाचा-चाची के बलिदान और कड़ी मेहनत का परिणाम है। उनके प्रति यह कृतज्ञता मेरे मन से कभी नहीं गई थी और मुझे आशा थी कि मैं उनका ऋण चुका पाऊँगी। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि मेरे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के प्रेम और देखभाल के कारण है और परमेश्वर ही मेरे प्रेम और कृतज्ञता का सबसे अधिक हकदार है। एक सृजित प्राणी के रूप में, मुझ पर सृजित प्राणी के कर्तव्य करने का दायित्व और जिम्मेदारी है। इसके बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे अपने परिवार को अपने फैसले के बारे में बताने का साहस देने के लिए कहा।
एक शाम मैंने अपनी चाची को एक संदेश भेजा और मैंने यह लिखा : “चाची, जब मैं छोटी थी, दादी ने मेरे और मेरी बहनों के साथ प्रभु यीशु का सुसमाचार साझा किया था, उन्होंने हमें सिखाया था कि परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करें और हमें समझाया था कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। मैंने देखा कि परमेश्वर कितना अद्भुत और अच्छा है, उसने मानवता के लिए सब कुछ बलिदान कर दिया और चाहे हमने कितने भी पाप किए हों, वह हमें क्षमा करता है। चूँकि परमेश्वर हमारे लिए सब कुछ करता है तो हम लोग परमेश्वर के प्रबंधन के बीच अपने कर्तव्य क्यों नहीं कर सकते? इस वजह से मैंने परमेश्वर की सेवा करने का फैसला किया है। प्रभु फिर से देहधारी हुआ है और वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, वह लोगों को पाप से मुक्त करने के लिए न्याय और स्वच्छता का कार्य कर रहा है। मैं अपना सारा समय अपने कर्तव्य और परमेश्वर से किए गए अपने वादे पूरे करने में लगाना चाहती हूँ। मुझे उम्मीद है कि तुम मेरा फैसला स्वीकारोगी।” यह संदेश भेजने के बाद ऐसा लगा जैसे मेरे गले से काँटा निकल गया हो और मुझे बहुत अच्छा लगा।
अगली सुबह मेरी चाची ने मुझसे कहा, “शारा, क्या तुम्हें यकीन है कि तुम्हारा यही फैसला है? तुम्हारे भविष्य का क्या होगा? तुम्हारे चाचा ने तुम्हारे लिए क्या-क्या नहीं किया और तुम इतनी आसानी से अपनी पढ़ाई छोड़ रही हो?” मेरी चाची ने आहत करने वाली बहुत सारी बातें भी कहीं और उसकी बातों से मुझे गहरी चोट पहुँची। फिर मेरी चाची ने मुझसे पूछा, “क्या तुम अभी भी पढ़ाई कर रही हो?” मैंने जवाब दिया, “नहीं, अब नहीं।” यह सुनकर मेरी चाची को बहुत गुस्सा आ गया और वह चिल्लाकर बोली, “क्या? तुम पढ़ाई नहीं कर रही हो? तुम क्या सोच रही हो? मैंने और तुम्हारे चाचा ने तुम्हें स्कूल भेजने के लिए इतनी मेहनत की है और तुम हमारे साथ ऐसे पेश आ रही हो? मैंने हमेशा सोचा था कि तुम अपनी बहनों में सबसे दयालु और होशियार हो, लेकिन ऐसा लगता है कि मैं गलत थी। तुमने हमें वाकई निराश किया है!” मैं अपनी आँखों से बहते आँसुओं को रोक नहीं सकी, क्योंकि मुझे पता था कि उन्होंने मेरी खातिर बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, लेकिन मुझे लगा कि मैंने अपने कर्तव्यों को चुनकर सही किया था। लेकिन चाहे मैंने कितनी भी बार समझाने की कोशिश की, मेरी चाची मुझे समझ ही नहीं पाईं। बाद में रसोई में जाकर मैंने एक बहन को संदेश भेजा और उसे बताया कि मैं किन हालात से गुजर रही थी। बहन ने मेरा हौसला बढ़ाया और मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “तुम में मेरी हिम्मत होनी चाहिए, जब उन रिश्तेदारों का सामना करने की बात आए जो विश्वास नहीं करते, तो तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। लेकिन तुम्हें मेरी खातिर किसी भी अन्धकार की शक्ति से हार नहीं माननी चाहिए। पूर्ण मार्ग पर चलने के लिए मेरी बुद्धि पर भरोसा रखो; शैतान के किसी भी षडयंत्र को काबिज़ न होने दो। अपने हृदय को मेरे सम्मुख रखने हेतु पूरा प्रयास करो, मैं तुम्हें आराम दूँगा, तुम्हें शान्ति और आनंद प्रदान करूँगा। दूसरों के सामने एक विशेष तरह का होने का प्रयास मत करो; क्या मुझे संतुष्ट करना अधिक मूल्य और महत्व नहीं रखता? मुझे संतुष्ट करने से क्या तुम और भी अनंत और जीवनपर्यंत शान्ति या आनंद से नहीं भर जाओगे?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे हृदय को छू लिया और मुझे ताकत दी, मुझे लगा कि परमेश्वर मेरा हौसला बढ़ा रहा है, मुझे याद दिला रहा है और प्रेरित कर रहा है। मैं जानती थी कि शैतान मुझे लुभाने और मुझ पर हमला करने के लिए मेरे परिवार का इस्तेमाल कर रहा था, मुझे कमजोर बना रहा था और चाहता था कि मैं पीछे हट जाऊँ, लेकिन मैं शैतान के आगे झुक नहीं सकती थी। चाहे मेरे परिवार ने मेरे साथ कैसा भी बर्ताव किया हो, मुझे शैतान को शर्मिंदा करने के लिए अपनी गवाही में अडिग रहना था! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, शैतान मुझ पर हमला कर रहा है और मैं कमजोर और शक्तिहीन हूँ। मुझे शक्ति दो, मेरे हृदय पर नजर रखो और मुझे शैतान की साजिशों से दूर रखो।” मेरी प्रार्थना के बाद मुझे साहस मिला और मैं आने वाली स्थिति का सामना करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने के लिए तैयार हो गई। थोड़ी देर बाद मेरा चाचा वापस आ गया। अपने चाचा को देखकर मैं फिर से घबरा गई। मेरे चाचा ने कहा, “तुम कलीसिया में जाकर परमेश्वर की सेवा करना चाहती हो। क्या तुम वाकई यही चाहती हो?” मैंने सिर हिलाया। उसने फिर पूछा, “क्या तुम अपने फैसला के बारे में निश्चित हो?” मैंने कहा : “हाँ।” मुझे लगा था कि मेरे चाचा को गुस्सा आएगा, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि उसने कहा, “ठीक है, अगर यह तुम्हारा फैसला है तो मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। शारा, मैंने तुम्हारी माँ से वादा किया था कि मैं तुम्हारा और तुम्हारी बहनों का ख्याल रखूँगा और सुनिश्चित करूँगा कि तुम्हें शिक्षा मिले और अब जब मैंने तुम्हें यह दे दिया है तो मैं तुम्हारे फैसले में और हस्तक्षेप नहीं करूँगा। जब तक तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा न हो, तब तक आगे बढ़ो और जो चाहो करो।” उस समय मैं न चाहते हुए भी रोने लगी; मैंने वाकई अपने चाचा से इतना शांत रहने की उम्मीद नहीं की थी। मैंने देखा कि मेरे आस-पास के सभी लोग परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन थे, यह परमेश्वर का कार्य था और मैंने अपने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद दिया!
लेकिन मुझे हैरानी हुई कि एक दिन मेरे चाचा ने अचानक अपना मन बदल लिया और भाई-बहनों से मिलने की माँग की, यह कहते हुए कि मैं उसके जाने से पहले नहीं जा सकती, मुझे उसे रात 8 बजे अपना फोन देना था और मैं सभा में शामिल नहीं हो सकती थी और अगर मैं अपना फोन देने से इनकार करती हूँ तो वह मुझे घर से निकाल देगा। उसकी यह बात सुनकर मैं वाकई डर गई। चूँकि मेरा चाचा काफी सख्त था, इसलिए मैंने उसकी मांगों की अवहेलना करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन कुछ नवागंतुक भी थे जिनका रात 8 बजे सिंचन करना जरूरी था और अगर मेरा चाचा मेरा फोन ले लेता तो मैं उनका सिंचन कैसे करती? यह सोचकर मैं शांत नहीं हो सकी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, अभी मैं कुछ नहीं कर सकती, मैं अपनी वर्तमान स्थिति तुम्हारे हवाले करती हूँ। मेरी मदद करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने सोचा कि कैसे सब कुछ परमेश्वर के हाथों में हैं और कैसे मुझे परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, उसके साथ खड़ी होना चाहिए और शैतान की साजिशों को सफल नहीं होने देना चाहिए। इस विचार के साथ मुझे प्रबोधन की अनुभूति हुई और मैंने नवागंतुकों का सिंचन करने का फैसला किया। रात के 8 बजे गए और मेरे चाचा ने मेरा फोन नहीं लिया और मैं हमेशा की तरह ऑनलाइन सभा में शामिल हुई। मेरे लिए हैरानी की बात थी मेरे चाचा ने कुछ भी नहीं कहा या मेरी ऑनलाइन सभा में बाधा नहीं डाली और तब तक चुप रहा जब तक मैंने नवागंतुकों के साथ सभा खत्म नहीं कर ली। उस पल मैं खुद को रोने से नहीं रोक सकी। मैंने देखा कि चाहे मेरा चाचा कितना भी सख्त क्यों न हों, वह भी परमेश्वर के हाथों में था और परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के अधीन था। मुझे लगा था कि मेरे चाचा से मेरा उत्पीड़न खत्म हो गया है, लेकिन वह मेरे रास्ते में खड़ा रहा। कभी-कभी मैं न चाहते हुए भी सोचती थी, “मेरे चाचा ने अचानक अपना मन क्यों बदल दिया और मेरा विरोध क्यों करने लगा?” यह मुझे तब समझ आया जब मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब परमेश्वर कार्य करता है, किसी की देखभाल करता है, उस पर नजर रखता है, और जब वह उस व्यक्ति पर अनुग्रह करता और उसे स्वीकृति देता है, तब शैतान करीब से उसका पीछा करता है, उस व्यक्ति को गुमराह करने और नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता है। अगर परमेश्वर इस व्यक्ति को पाना चाहता है, तो शैतान परमेश्वर को रोकने के लिए अपने सामर्थ्य में सब-कुछ करता है, वह परमेश्वर के कार्य को प्रलोभित करने, उसमें विघ्न डालने और उसे खराब करने के लिए विभिन्न दुष्ट हथकंडों का इस्तेमाल करता है, ताकि वह अपना छिपा हुआ उद्देश्य हासिल कर सके। क्या है वह उद्देश्य? वह नहीं चाहता कि परमेश्वर किसी भी मनुष्य को प्राप्त कर सके; परमेश्वर जिन्हें पाना चाहता है, वह उन पर कब्जा कर लेना चाहता है, वह उन पर नियंत्रण करना, उनको अपने अधिकार में लेना चाहता है, ताकि वे उसकी आराधना करें, ताकि वे बुरे कार्य करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने में उसका साथ दें। क्या यह शैतान का भयानक उद्देश्य नहीं है?” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। “परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब का परीक्षण हुआ : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ होड़ लगा रहा था और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे और मनुष्यों का विघ्न डालना था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है। ... जब परमेश्वर और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में संघर्ष करते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए और किस प्रकार उसकी गवाही में अडिग रहना चाहिए? तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि परमेश्वर लोगों को बचाना चाहता है और शैतान नहीं चाहता कि लोग स्वतंत्र रूप से परमेश्वर का अनुसरण करें और नहीं चाहता कि परमेश्वर किसी को हासिल करे। इसलिए जब लोग परमेश्वर के निकट आना चाहते हैं और उसकी आराधना करना चाहते हैं तो शैतान लोगों को बाधित करने और उन्हें परमेश्वर के सामने आने से रोकने का हर संभव प्रयास करता है। मैंने देखा कि शैतान कितना बुरा और बेशर्म है! ऊपरी तौर पर मैं जिस चीज का सामना कर रही थी, वह मेरे परिवार से रुकावट और प्रतिबंध था, लेकिन इसके पीछे शैतान की गड़बड़ी छिपी हुई थी। शैतान मेरे आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करके मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने से रोक रहा था। यह शैतान का द्वेषपूर्ण लक्ष्य था और मैं शैतान से और भी अधिक नफरत करने लगी। परमेश्वर कहता है : “तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो।” चाहे शैतान मुझे कितनी भी बाधा और रुकावट डाले, मैं अपनी गवाही में अडिग रहूँगी और शैतान को शर्मिंदा करूँगी! मैंने यह भी सोचा कि अय्यूब ने क्या-क्या सहा था। पर्दे के पीछे शैतान ने परमेश्वर के साथ शर्त लगाई थी और अय्यूब पर कई शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक कष्ट आए थे। अय्यूब ने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किए बिना या खुद को उससे दूर किए बिना कई मुश्किलों को सहन किया था और यहाँ तक कि जब उसकी पत्नी ने उसे बाधित किया था और परमेश्वर में अपनी आस्था छोड़ने के लिए उस पर हमला किया था, तब भी वह दृढ़ रहा था। अंत में जब शैतान ने देखा कि भारी यातना सहने के बावजूद अय्यूब ने परमेश्वर को नकारा नहीं या धोखा नहीं दिया तो वह शर्मिंदा होकर पीछे हट गया। इस बात को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर का अनुसरण करने का मेरा संकल्प और भी दृढ़ हो गया। बाद में मेरा चाचा लगभग हर दिन रिश्तेदारों को घर लाता था और मुझे अपना मन बदलने के लिए मनाने की कोशिश करता था। मेरे चाचा ने कहा, “अब तुम्हारे लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है, तुम्हारा कर्तव्य या तुम्हारा परिवार? चुन लो!” उसने भी कई ऐसी बातें कहीं जो परमेश्वर का विरोध करती थीं और उसे नकारती थीं और मैंने परमेश्वर का विरोध करने और उससे घृणा करने का उसका असली चेहरा साफ देख लिया। चाहे उसने मुझे मनाने या रुकावट डालने की कितनी भी कोशिश की हो, लेकिन कोई भी बात मेरा फैसला नहीं बदल सकी। मैंने अपना कर्तव्य करना जारी रखा और घर छोड़ने के लिए अपना सामान समेट लिया। अब जब मैं भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य कर रही हूँ तो मुझे सहजता और शांति का एहसास होता है। आखिरकार मैं स्वतंत्र रूप से परमेश्वर का अनुसरण और अपना कर्तव्य कर सकती हूँ!