35. पिता द्वारा देखरेख और सुरक्षा को कैसे लें

गु नियान, चीन

2019 में 18 वर्षीया म्यू शी को सीसीपी ने सुसमाचार प्रचार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया, उसे ढाई साल की सजा हुई और अप्रैल 2022 में रिहा कर दिया गया। वह रेलवे स्टेशन से बाहर निकली तो उसने अपने पिता को सड़क के किनारे खड़े देखा, वह बाहर निकलने वाले दरवाजे की ओर बेचैनी से देखते हुए हताश नजर आ रहे थे। म्यू शी बहुत उत्साहित महसूस कर रही थी क्योंकि उसने तीन साल से अपने पिता को नहीं देखा था। जेल में रहते हुए म्यू शी को पता चला कि उसके पिता का गठिया और बिगड़ गया है और वह सोच रही थी कि क्या अब तक उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ होगा। यह सोचते हुए म्यू शी ने अपने पिता की ओर तेजी से कदम बढ़ा दिए। जैसे ही वह पास पहुँची उसने देखा कि उसके पिता की कमर थोड़ी झुक गई है और उनके चेहरे पर दुख और उम्र बढ़ने के निशान हैं। म्यू शी के दिल में उदासी छा गई और उसे अपनी नाक में एक चुभन-सी महसूस हुई और अपने आँसू पोंछने के लिए उसने अपना चेहरा घुमा लिया। घर लौटने पर अपने पिता से बातचीत के दौरान उसे पता चला कि पिछले कुछ वर्षों से उसके पिता लगातार उसकी चिंता करते रहे हैं। उस वर्ष जब उन्हें पुलिस विभाग से गिरफ्तारी का नोटिस मिला था तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ था और न ही वह इसे स्वीकार कर पाए थे। उनकी अठारह वर्षीया बेटी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था और उन्हें यह भी नहीं पता था कि पुलिस उसे किस प्रकार प्रताड़ित करेगी। वह दिन भर इतनी चिंता में रहते थे कि न तो ठीक से सो पाते थे और न ही खा पाते थे। इसके अलावा वर्षों तक कठिन परिश्रम करने के कारण उन्हें दीर्घकालिक बीमारियाँ भी हो गई थीं और उनके पैरों में गठिया की समस्या और भी बदतर हो गई थी। वह भारी काम नहीं कर पाते थे और जब दर्द बहुत अधिक हो जाता था तो लंगड़ाते थे, उन्हें डर लगा रहता था कि अगर वह घर के एकाकीपन में मर गए तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। म्यू शी ने देखा कि आमतौर पर उसके मजबूत पिता की आंखें लाल थीं और पिछले कुछ वर्षों में जो कुछ हुआ था उसके बारे में उन्होंने थोड़ा रुंधे हुए गले से बताया। म्यू शी का जैसे कलेजा चिर गया और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। म्यू शी को याद आया कि जब वह ग्यारह साल की थी तो परमेश्वर में विश्वास करने के कारण पुलिस उसकी माँ के पीछे लग गई थी और उन्हें छिपना पड़ा था। उसके पिता ने अकेले ही पिता और माता दोनों की भूमिका निभाते हुए उसकी देखभाल और पालन-पोषण किया था। उसके पिता ट्रक ड्राइवरी के साथ-साथ खेतीबाड़ी का काम भी करते थे और दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद भी उनके पास आराम करने का समय नहीं होता था क्योंकि उसके बाद उन्हें अपनी बच्ची की देखभाल करनी होती थी। बाद में जब वह अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए घर से बाहर निकली तो पुलिस लगातार उसके घर आकर उसके पिता से उसके ठिकानों के बारे में पूछताछ करती थी और इस सबसे उसके पिता अकेले ही निपटते थे, उन्हें रिश्तेदारों और पड़ोसियों की बेरुखी और उपहास को भी सहना पड़ता था, साथ ही उन्हें हमेशा अपनी बच्ची और पत्नी की सुरक्षा की चिंता लगी रहती थी। फिर म्यू शी ने सोचा कि कैसे उसके पिता दिन भर एक ठंडे, खाली घर में अकेले रहते थे, दर्द से पीड़ित अवस्था में उनके साथ बातचीत करने या उनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं था। म्यू शी ने पिता के प्रति खुद को और भी अधिक ऋणी महसूस किया और वह अपराध-बोध से भर गई, सोचने लगी कि बड़ी हो जाने के बावजूद वह अपने पिता के संघर्षपूर्ण जीवन में कोई मदद नहीं कर पाई थी और अपने बारे में पिता को चिंता में डाल दिया था। क्या यह संतानोचित न होना नहीं था? म्यू शी ने मन ही मन खुद से कहा, “अब जबकि मैं वापस आ गई हूँ तो मुझे अपने पिता के पास रहकर उनके कष्ट कम करने में मदद करनी चाहिए।” इसके बाद के दिनों में म्यू शी ने पैसे कमाने के लिए काम करना शुरू कर दिया और अपने पिता की जरूरतों का पूरा ध्यान रखने लगी।

देखते-देखते छह महीने निकल गए, लेकिन पुलिस अभी भी म्यू शी के ठिकानों पर नजर रख रही थी, उसे कलीसियाई जीवन जीने और अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोक रही थी जिससे वह खालीपन और परेशानी महसूस करने लगी। एक दिन कलीसिया अगुआ ने म्यू शी से पूछा कि क्या वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहीं और जाने को तैयार है। म्यू शी बहुत उत्साहित महसूस कर रही थी क्योंकि वह अंततः अपने भाई-बहनों के साथ सभा कर सकेगी, परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकेगी और अपना कर्तव्य निभा सकेगी। म्यू शी ने यह खबर अपने पिता को बताई। लेकिन उसे हैरानी हुई जब उसके पिता अचानक उत्तेजित हो गए और उन्होंने कहा, “क्या मैं बार-बार तुम दोनों को दरवाजे से बाहर जाते हुए ही देखता रहूँगा?” अपने पिता को इतना भावुक देखकर म्यू शी को बहुत दुख हुआ और उसने खुद को अपने पिता के प्रति बहुत ऋणी महसूस किया। उसने सोचा, “अगर मैं सचमुच घर छोड़ दूँ तो कौन जानता है कि मैं कब वापस आऊँगी, क्या मेरे पिता यह नहीं सोचेंगे कि मेरी परवरिश में उन्होंने कड़ी मेहनत की, फिर भी मैं जरा भी संतानोचित नहीं हूँ?” फिर म्यू शी ने अपने पिता के स्वास्थ्य के बारे में सोचा और वह उन्हें और अधिक दुख नहीं पहुँचाना चाहती थी। लेकिन वह यह भी जानती थी कि परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल के बिना वह जेल में दो साल से अधिक जीवित नहीं रह पाती और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य न निभाना अनुचित होगा! म्यू शी बहुत दुविधा में थी और अंततः उसने अपना कर्तव्य निभाने का अवसर छोड़ दिया। जैसे ही म्यू शी ने यह विकल्प चुना उसे सचमुच ग्लानि हुई इसलिए उसने परमेश्वर के इरादों को जानने के लिए जल्दी से उसके वचनों को खाया और पिया।

खोज करते समय मू शी ने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “तुम्हें अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या किसी बड़ी विपत्ति में फँसने का बहुत ज्यादा विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से बहुत-सी ऊर्जा इसमें नहीं लगानी चाहिए—ऐसा करने का कोई लाभ नहीं होगा। लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : ‘मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?’ क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) ... तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकार क्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। म्यू शी ने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और गहरी सोच में डूब गई। जब भी वह अपने पिता के बारे में सोचती थी जो इतने सालों तक घर पर अकेले रहे थे और जब बीमार पड़े तो उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था तो उसका मन अपराध-बोध और ऋणी होने की भावना से भर गया। वह बस अपने पिता की देखभाल करना चाहती थी और उन्हें कुछ आराम देना चाहती थी, लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़कर आखिरकार उसे समझ आ गया कि हर व्यक्ति को जीवन में कष्ट सहना पड़ता है और उस पर कौन-कौन-सी बीमारियाँ और विपत्तियाँ आएँगी, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है और कोई भी इसे बदल नहीं सकता। म्यू शी को याद आया कि जब जेल में उसे पता चला कि उसके पिता की गठिया की बीमारी बहुत बिगड़ गई है तो वह उन्हें लेकर बहुत चिंतित हो गई थी। वह डर गई थी और सोच रही थी कि अगर उनकी हालत और खराब हो गई और किसी ने उनकी देखभाल नहीं की तो वह कैसे जीवित रहेंगे। लेकिन वह तो जेल में फँसी हुई थी और उनकी देखभाल नहीं कर सकती थी, उस समय वह केवल इतना कर सकती थी कि परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करे और अपने पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप दे। जेल से रिहा होने के बाद उसे पता चला कि हालाँकि उसके पिता की हालत बहुत गंभीर थी और उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, फिर भी उनकी गठिया की बीमारी में धीरे-धीरे सुधार आया। उसे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के शरीर की स्थिति और उसका सुरक्षित रहना परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता पर निर्भर करता है और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना और अपने पिता को उसके हाथों में सौंप देना ही उचित है। यह जानकर म्यू शी को अपने दिल में बहुत अधिक शांति महसूस हुई और अब वह उतनी चिंतित या व्याकुल नहीं थी।

म्यू शी अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कहीं और जाना चाहती थी, लेकिन जब भी वह अपने पिता को काम के लंबे दिन के बाद थके हुए देखती और याद करती कि उन्हें उच्च रक्तचाप भी है और पूरे दिन चक्कर आते रहते हैं तो म्यू शी को फिर से दुविधा होने लगती, वह सोचने लगती, “मेरे पिता ने मेरी देखभाल करने के लिए बहुत कष्ट सहे हैं, क्या मुझे कुछ समय और घर पर रहकर उनकी देखभाल करनी चाहिए?” लेकिन ऐसा करने का मतलब होगा कि वह अपना कर्तव्य नहीं निभा पाएगी और उसे इस बात का अपराध-बोध हो रहा था। म्यू शी अक्सर अपनी प्रार्थनाओं में इस मामले को परमेश्वर के सामने लाती, परमेश्वर से प्रार्थना करती कि वह उसे सत्य का अभ्यास करने का दृढ़ संकल्प दे। बाद में मू शी ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे उसे अपने आगे के विकल्पों में अनुसरण करने के लिए अभ्यास का एक सही मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उनकी परेशानी दूर करो; अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक आहार खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, और यह सत्य का अभ्यास करने से कम बात है।’ इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। ... सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप तो यह उससे भी कम है। इसलिए, अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। म्यू शी ने परमेश्वर के वचनों से समझा कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सकारात्मक बात है और यह एक बच्चे की जिम्मेदारी है, लेकिन ऐसा केवल एक सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को करना चाहिए और इसका मतलब यह नहीं है कि वह सत्य का अभ्यास करता है। केवल सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही कोई सत्य का अभ्यास कर सकता है। अगर उसके कर्तव्य में और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करने में कोई टकराव नहीं होता तो उसे अच्छी तरह से अपने पिता की देखभाल करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, उनके साथ अधिक बातचीत कर उनकी चिंताओं को कम करने में मदद करनी चाहिए क्योंकि संतान के तौर पर यह उसकी जिम्मेदारी है। लेकिन जब उसे अपना कर्तव्य निभाने की आवश्यकता हुई और वह अपने पिता की देखभाल करने के लिए उनके पास नहीं रह सकी तो उसे अपने पिता को परमेश्वर के भरोसे छोड़ना पड़ा। एक सृजित प्राणी के रूप में उसकी जिम्मेदारी और दायित्व अपना कर्तव्य निभाना और अपना मिशन पूरा करना था। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है और यही उसे करना था। फिर म्यू शी को जेल में बिताए गए ढाई साल याद आ गए। वहाँ अपनी पीड़ा और लाचारी के दौरान उसकी मुलाकात एक बहन से हुई और उन्हें एक दूसरे की सहायता और समर्थन करने और मिलकर परमेश्वर के वचनों पर संगति करने का अवसर मिला। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के कारण ही वह धीरे-धीरे इस स्थिति से बाहर निकल पाई। म्यू शी को लगा कि परमेश्वर ने उसकी बहुत देखभाल की है, उसकी रक्षा की है और उसके साथ बहुत अनुग्रहपूर्वक व्यवहार किया है और अगर वह अपनी दैहिक भावनाओं को अपने कर्तव्य से ऊपर रखती है तो यह सचमुच विद्रोही होना होगा। यह एहसास होने पर म्यू शी ने प्रार्थना की और अपनी सारी चिंताएँ और परेशानियाँ परमेश्वर को सौंप दीं। उसने घर के जरूरी काम निपटाए और फिर अपने पिता के लिए कुछ पोषक आहार, दवाइयाँ और अन्य जरूरी सामान खरीदा। इसके बाद म्यू शी ने अपने पिता से बात की और अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहीं और चली गई।

बाद में म्यू शी ने अपने भाई-बहनों से अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनीं कि अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और इसने उसे चिंतन करने के लिए प्रेरित किया। उसने विचार किया कि कैसे उसके पिता ने बचपन से ही उसके पालन-पोषण में माँ और पिता दोनों की भूमिकाएँ निभाईं और कैसे उन्होंने उसके लिए बड़े-बड़े त्याग किए। उसे लगा कि उस पर उनकी कृतज्ञता का एक बड़ा ऋण है और जब भी वह अपने पिता की देखभाल करने के लिए उनके पास न रह पाती तो उसे लगता कि उसने एक संतान के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है और वह खुद को अपने पिता का ऋणी मानती और आत्म-ग्लानि होती। अब वह अपने पिता से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभा रही थी जिससे अक्सर उसकी दशा प्रभावित होती थी और विवश भी महसूस करती थी और वह जानना चाहती थी कि इस मुद्दे को कैसे सुलझाया जाए। अपनी खोज और चिंतन में उसे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहज ज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहज ज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहज ज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहज ज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था। ... कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे अपनी भावनाओं से संचालित नहीं होते और वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते : ‘मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे फटकारेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!’ पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। लोगों के प्रभावित हो जाने, क्षय होने और इन चीजों से सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजनेवाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के भ्रामक विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों का सत्य बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये भ्रामक विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता के साथ तुम्हें अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। म्यू शी ने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और प्रबुद्ध महसूस किया। उसे पता चलता है कि सभी प्रकार के प्राणी अपने बच्चों की सावधानीपूर्वक देखभाल और जिम्मेदारी से उनका पालन-पोषण करने में सक्षम होते हैं। यह परमेश्वर द्वारा सभी जीवित प्राणियों के लिए निर्धारित सिद्धांत और व्यवस्था है और यह परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई एक सहज प्रवृत्ति है। जैसे खूंखार बाघ और शेर, जब उनके शावक अभी अपरिपक्व होते हैं और अपने दम पर जीवित रहने में असमर्थ होते हैं तो वे अपने बच्चों का सावधानीपूर्वक पालन-पोषण और सुरक्षा करते हैं, उनके लिए भोजन खोजते हैं और उनके विकास के लिए एक सुरक्षित और आरामदायक वातावरण प्रदान करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करते हैं। अगर वे जीवित रहने के इस सिद्धांत का पालन न करें और जन्म देने के बाद अपने बच्चों की देखभाल और पालन-पोषण न करें तो फिर उनकी अगली पीढ़ी जीवित नहीं रह सकेगी और सम्पूर्ण प्राणी जगत में नये जीवन की निरन्तरता समाप्त हो जायेगी। मनुष्य भी इसी प्रकार हैं। इससे पहले कि उनके बच्चे अपने दम पर जीवित रह सकें, माता-पिता पूरे दिल से उनका पालन-पोषण और देखभाल करते हैं, ऐसा करने के लिए बहुत कष्ट भी सहते हैं, लेकिन ऐसा करके वे केवल माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा कर रहे हैं, वे महज सभी जीवित प्राणियों के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित अस्तित्व के सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं और यह दयालुता नहीं है। म्यू शी ने यह भी सोचा कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं स्कूल और परिवार उनके मन में यह दृष्टिकोण भर देते हैं कि “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।” इसका अर्थ यह है कि चूँकि पशु बड़े होने पर अपने माता-पिता का ऋण चुकाते हैं तो यकीनन मनुष्य को तो और भी अधिक संतानोचित होना चाहिए और अपने माता-पिता के पालन-पोषण संबंधी अनुग्रह का ऋण चुकाना चाहिए। अगर कोई ऐसा नहीं कर पाता तो उसमें मानवता की कमी है और मानवीय भावनाओं का अभाव है। बचपन से ही इस तरह की शिक्षा पाने के कारण म्यू शी ने हमेशा अपने पिता की जिम्मेदारियों और दायित्वों को अपने ऊपर की गई दयालुता के रूप में लिया और वह अपने पिता के साथ ऐसा व्यवहार करती थी मानो वह उसके ऋणदाता हों। जब भी वह अपने पिता के पालन-पोषण संबंधी अनुग्रह का ऋण न चुका पाने के बारे में सोचती तो उसके मन में ग्लानि होती और खुद को कसूरवार मानती, उसे लगता कि उसमें जमीर नहीं है। हालाँकि वह जानती थी कि उसका कर्तव्य एक जिम्मेदारी है जिसे उसे एक सृजित प्राणी के रूप में पूरा करना चाहिए, फिर भी वह भ्रामक दृष्टिकोणों से बंधी और विवश महसूस करती और अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने के अवसर को त्यागने को तैयार रहती। इस तरह वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रही थी और उसे धोखा दे रही थी! म्यू शी ने देखा कि मामलों पर कोई सही दृष्टिकोण न होना, सकारात्मक और नकारात्मक के बीच अंतर करने में पूरी तरह से असमर्थ होना कितना दयनीय होता है। म्यू शी को एहसास हुआ कि उसका जीवन परमेश्वर द्वारा दिया गया है और परमेश्वर की पूर्वनियति और संप्रभुता के बिना वह इस दुनिया में भी नहीं होती, सुरक्षित रूप से बड़ा होना तो दूर की बात है। वह अपने पिता द्वारा दिल से की गई देखभाल के साथ अपने परिवार में पैदा हुई, यह भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था का हिस्सा था। उसे किसी व्यक्ति के प्रति ऋणी महसूस करने के बजाय परमेश्वर के अनुग्रह के लिए आभारी होना चाहिए था। यह एहसास होने पर म्यू शी ने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इतने वर्षों से भ्रामक परम्परागत विचारों से बँधी हुई हूँ और मैंने हमेशा अपने पिता की जिम्मेदारियों को दयालुता के रूप में लिया है। मैं उनकी देखभाल नहीं कर पाई इस वजह से मैं खुद को विवश और दोषी मानती रही हूँ और अपने कर्तव्य की अनदेखी करती रही हूँ। परमेश्वर, मैं अब तुम्हारे खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहती। मैं तुम्हारे आगे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”

मू शी ने फिर परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ... तो कुल मिला कर लोगों के जमीर में अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की जागरूकता है। इस जागरूकता से आने वाला रवैया चाहे जैसा हो, चाहे यह चिंता करने का हो या उनके साथ मौजूद रहने को चुनने का हो, किसी भी स्थिति में, लोगों को अपराध भावना नहीं पालनी चाहिए और उनकी अंतरात्मा को दोषी महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि वे वस्तुपरक हालात से प्रभावित होने के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सके। ये और इन जैसे दूसरे मसले लोगों के परमेश्वर में विश्वास के जीवन में मुसीबतें नहीं बननी चाहिए; उन्हें त्याग देना चाहिए। जब माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियाँ पूरी करने के विषय उभरते हैं, तो लोगों को ये सही समझ रखनी चाहिए और उन्हें अब बेबस महसूस नहीं करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों से म्यू शी को समझ आया कि अपने पिता की देखभाल करने के लिए घर पर न रह पाना संतानोचित न होना नहीं है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि वह अपने पिता की देखभाल करने और उनके साथ रहने की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहती थी बल्कि इसलिए कि सीसीपी के उत्पीड़न और गिरफ्तारी ने उसे अपने परिवार से दूर रहने पर मजबूर कर दिया था। इसके अलावा उसे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना था, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करना था। म्यू शी ने युगों-युगों के संतों के बारे में सोचा जिन्होंने प्रभु यीशु के सुसमाचार की गवाही देने, उसका प्रचार करने के लिए यात्रा करने और कार्य करने के लिए अपने माता-पिता और परिवारों का त्याग कर दिया था और आखिरकार वे प्रभु यीशु के सुसमाचार को दुनिया के कोने-कोने में प्रचारित कर पाए थे जिससे अनेक लोग प्रभु का उद्धार प्राप्त कर सके। उनका त्याग और खपना नेकी के कार्य थे और सबसे न्यायपूर्ण भी। अब राज्य के सुसमाचार को फैलाने का महत्वपूर्ण समय है और ऐसे बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरस रहे हैं, जो अंधकार में रहते हैं और जिन्होंने परमेश्वर की वाणी नहीं सुनी है म्यू शी जानती थी कि उसे सुसमाचार फैलाने के कार्य में योगदान देना चाहिए। यह एहसास होने पर म्यू शी को बहुत अधिक मुक्ति और सहजता महसूस हुई, अब वह खुद को अपने पिता की ऋणी महसूस नहीं कर रही थी और अपने कर्तव्य के प्रति और भी अधिक समर्पित हो गई थी।

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