45. घमंड त्यागने से मुझे बहुत मुक्ति का एहसास हुआ

लियु लू, चीन

जून 2023 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। उस समय मैं थोड़ी हैरानी थी और साथ ही थोड़ी चिंतित भी थी, सोच रही थी “सत्य के बारे में मेरी समझ अभी भी बहुत सतही है और मैं कई क्षेत्रों में कमजोर हूँ। क्या होगा अगर मैं भाई-बहनों के मसले नहीं सुलझा पाई, अपने कर्तव्य में नाकाम रही और बर्खास्त कर दी गई? तब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं फिर कभी अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊँगी?” यह सोचकर मैं पद लेने से इनकार करना चाहती थी। लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि यह कर्तव्य परमेश्वर का उत्कर्ष था और मेरे लिए अभ्यास करने का एक मौका था, इसलिए मैंने इसे स्वीकार कर लिया।

उस समय मैं बहन लिन हुई के साथ सहयोग कर रही थी। लिन हुई ने मुझे कलीसिया की सफाई और सिंचाई कार्य की निगरानी करने में लगा दिया और मैंने मन ही मन सोचा, “लोगों की सफाई करने के लिए सामग्री व्यवस्थित करने पर काम करने वाली बहनों ने पहले भी मेरे साथ सहयोग किया है। वे मेरे काम की देखरेख और मार्गदर्शन करती थीं। वे मुझे अच्छी तरह से जानती हैं और उन्हें मेरा असली आध्यात्मिक कद पता है। अब मुझे उनके काम की निगरानी करनी है और उसका जायजा लेना है। क्या होगा अगर मैं उनकी दशाएँ नहीं सुलझा पाई या उनके काम की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाई? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे सोचेंगी कि मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती? तब मैं अपना चेहरा कहाँ छिपाऊँगी?” इन विचारों ने मुझे बहुत परेशान कर दिया और उनकी दशाएँ देखने या उनके काम के बारे में पूछने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई, इसलिए मैंने अन्य विवरण पूछे बिना केवल उनके काम की प्रगति के बारे में पूछा। लगभग बीस दिन बीत गए और मुझे पता चला कि ली जियांग, जो लोगों की सफाई करने के लिए सामग्री जुटा रही थी, बीमारी की दशा में जी रही थी, कोई जिम्मेदारी समझे बिना कर्तव्य कर रही थी। ज्यादातर काम झोउ यू ने किया था और झोउ यू का स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं था, इसलिए कुछ सामग्रियों को समय पर व्यवस्थित नहीं किया जा सका। मैं ली जियांग से मिलकर उसकी दशा ठीक करने के लिए उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैं सफाई के काम के सिद्धांत उतने नहीं समझती जितना वे समझती हैं और मैंने सोचा कि अगर उन्होंने मुझसे काम से संबंधित कुछ ऐसे सवाल पूछे जिनका जवाब मैं नहीं दे पाई तो क्या वे मुझे नीची नजर से देखेंगीं। इसलिए मैंने संगति के लिए उनसे संपर्क नहीं किया।

एक दिन ऊपरी अगुआ से आए एक पत्र में कहा गया कि लोगों की सफाई करने के लिए सामग्री जुटाने में हमारे कलीसिया की प्रगति धीमी रही है और इससे काम में देरी हुई है और उन्होंने मुझसे इस समस्या का जायजा लेने और इसे सुलझाने के लिए कहा। इस पत्र को पढ़कर मुझे वाकई अपराध बोध हुआ, क्योंकि मुझे पता था कि ली जियांग की दशा अच्छी नहीं थी, लेकिन चूँकि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के बारे में बहुत चिंतित थी, इसलिए मैंने तुरंत संगति के लिए बहन से संपर्क नहीं किया था, जिससे काम में देरी के लिए मैं खुद जिम्मेदार बन गई थी। लिन हुई ने भी मुझे एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया था कि हम भाई-बहनों की दशाओं पर ध्यान नहीं दे रहे थे, हम समझ नहीं पा रहे थे कि काम कैसे आगे बढ़ रहा है और यह मुद्दा सीधे तौर पर काम की निगरानी करने या जायजा लेने में हमारी उपेक्षा से संबंधित था। उसने परमेश्वर के वचनों का हवाला देते हुए यह भी बताया कि मेरे कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया गलत था। मैं बहुत परेशान थी और मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मुझे जगाने के लिए मेरी काट-छाँट करने में मेरी बहन का उपयोग कर रहा था। मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति अपना रवैया तुरंत सुधारना था। बाद में मैंने ली जियांग की दशा के बारे में परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश खोजे और उसके साथ संगति की। मैंने अन्य बहनों की दशाओं और उनके कर्तव्यों के बारे में भी जानकारी ली और उनकी मुश्किलों पर संगति की और समाधान दिए। बाद में मुझे पता चला कि ली जियांग की दशा में सुधार नहीं हुआ था और मैंने सोचा, “अगर मैं अपनी बहन की दशा भी नहीं सुधार सकती हूँ तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वे सोचेंगे कि मुझमें सत्य वास्तविकताओं की कमी है और मैं भाई-बहनों की समस्याएँ नहीं सुलझा सकती? मुझे बेहद शर्मिंदगी होगी!” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं थोड़ी नकारात्मक हो गई, लेकिन मैंने अपनी दशा सुधारने के लिए सत्य की तलाश नहीं की।

एक बार मैंने लोगों को विकसित करने के काम की कुछ समस्याओं पर चर्चा करते हुए एक बहन को पत्र लिखा। मेरे पत्र लिखने के बाद लिन हुई ने उसमें बहुत सारी चीजें जोड़ीं और बदलाव किए और मैंने सोचा, “मुझे अभी भी अपने कर्तव्यों के लिए दूसरों को परेशान करना पड़ता है। अगर दूसरों को यह पता चलेगा तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं अगुआ के रूप में कुछ भी करने में असमर्थ हूँ? मैं सोचती थी कि मैं कुछ कार्य करने और अपने भाई-बहनों की स्वीकृति पाने में सक्षम हूँ, लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि अगुआ बनने के बाद मैं ऐसे पूरी तरह से बेनकाब कर दी जाऊँगी। अगर मैंने यह कर्तव्य नहीं लिया होता तो मुझे इस तरह शर्मिंदा नहीं होना पड़ता!” इन विचारों ने मुझे अपने कर्तव्यों में नकारात्मक और निरुत्साहित कर दिया और मैं अब उस काम का जायजा नहीं लेना चाहती थी जिसके लिए मैं जिम्मेदार थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी, इसलिए मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा उजागर कर दी। मैं हमेशा भीड़ से अलग दिखना चाहती थी और मुझे इस बात की चिंता लगी रहती थी कि कहीं मुझे नीची नजरों से न देखा जाए और दूसरों की नजरों में मेरा रुतबा न गिर जाए। मैं अपने जीवन से ज्यादा अहमियत आत्म-सम्मान और रुतबे को देती थी। मैंने अगुआ के रूप में अपने समय के बारे में सोचा। उस समय मुझे एहसास हुआ था कि यह मेरे लिए प्रशिक्षित होने का परमेश्वर द्वारा दिया गया एक मौका था और मुझे अपने काम को दृढ़ता से करने, संगति करने और भाई-बहनों की दशाएँ और मुश्किलें सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था। जिन समस्याओं का मैं समाधान नहीं कर सकती थी, उन पर मैं अपनी साथी बहनों से चर्चा कर सकती थी और ऊपरी अगुआओं से मार्गदर्शन ले सकती थी। लेकिन मैं अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने के बारे में नहीं सोच रही थी। सबसे बड़ी बात, मैं अपने आत्म-सम्मान और रुतबे के बारे में चिंतित थी। चूँकि जो बहनें सामग्री जुटा रही थीं, उन्होंने पहले भी मेरे साथ सहयोग किया था और उन्होंने इस कर्तव्य के सिद्धांतों को मुझसे बेहतर समझा था, मुझे डर था कि अगर मैं उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाई तो वे मुझे नीची नजरों से देखेंगी, इसलिए मैंने उनके काम का जायजा लेने की हिम्मत नहीं की। बाद में मुझे पता चला कि ली जियांग की दशा खराब थी और इससे काम में देरी हुई थी, लेकिन मैं मामले की अनदेखी करती रही, डरती रही कि अगर मैं यह समस्या नहीं सुलझा पाई तो मुझे अपमानित होना पड़ेगा। लिन हुई ने मेरे लिखे पत्र को पढ़कर कमियों वाले भागों में कुछ चीजें जोड़ी थीं और बदलाव किए थे। यह दरअसल काम के लिए फायदेमंद था, लेकिन मुझे लगा कि एक सही पत्र भी न लिख पाने का मतलब है कि वह मेरी असलियत पहचान चुकी है, जिससे मैं अपने मूल कर्तव्यों पर वापस जाना चाहती थी। मैं आत्म-सम्मान और रुतबे की चिंताओं से कसकर बंधी हुई थी, केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोच रही थी और यहाँ तक कि उस काम को भी नजरअंदाज कर रही थी जिसे मुझे करना चाहिए था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्‍य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा। परंतु, धीरे-धीरे तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विशाल बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे सच में घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि शैतान प्रसिद्धि और लाभ का इस्तेमाल करके लोगों के विचारों को नियंत्रित करता है, उन्हें गलत रास्ते पर ले जाता है, उन्हें प्रसिद्धि और लाभ की बेड़ियों में जकड़े रहने, परमेश्वर से दूर रहने और उसके साथ विश्वासघात करने के लिए मजबूर करता है। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैंने जीवन में प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने को अपना लक्ष्य बना लिया था। बचपन से ही मैं हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती थी, चाहे मैं किसी भी समूह में क्यों न रही, मैं मानती थी कि प्रतिष्ठा और रुतबा होने से मुझे लोगों का सम्मान मिलेगा। मुझे लगता था कि इस तरह से जीना ही सार्थक जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। परमेश्वर को पाने के बाद भी मैं इन चीजों के पीछे भागती रही, शैतानी जहरों के साथ जीती रही जैसे कि “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है” और “एक मुर्गे की कलगी होना अमरपछी की पूंछ होने से बेहतर है।” कलीसिया अगुआ के रूप में चुने जाने के बाद मुझे चिंता थी कि अगर मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं किया तो मैं अपना आत्म-सम्मान और रुतबा खो दूँगी, इसलिए मैं कर्तव्य से इनकार करना चाहती थी। जब मैं लोगों की सफाई करने के लिए सामग्री जुटाने वाली बहनों के साथ सभा में गई, चूँकि उन्होंने पहले मेरे काम की निगरानी की थी, तो मुझे डर था कि अगर मैं उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाई तो मेरी इज्जत खराब हो जाएगी, इसलिए मैंने उनके काम की देखरेख और उसका जायजा लेने से परहेज किया, जिससे सफाई के काम में देरी हुई। जब साथी बहन ने मेरे लिखे पत्र में संशोधन किया और बहुत सारी चीजें जोड़ दीं तो इससे सिद्धांत सीखने और समझने के बजाय मैंने खुद को बेनकाब और पूरी तरह से अपमानित महसूस किया और मैं इस कर्तव्य से भागना चाहती थी। तथ्यों के खुलासे के माध्यम से मैंने देखा कि मैं शैतान के जहर से कसकर बंधी हुई थी और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य ठीक से करने में असमर्थ थी, जिससे काम को नुकसान पहुँचा और इसका मतलब था कि मैं परमेश्वर के सामने अपराध कर रही थी। शैतान के जहर के अनुसार जीकर मैं केवल परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करूँगी, परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चलूँगी। इस पर विचार करते हुए मुझे डर लगा, पछतावा और अपराध बोध हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इस तरह से आगे नहीं बढ़ना चाहती। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। अभ्यास का मार्ग खोजने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “मुझे बताओ, तुम साधारण और सामान्य इंसान कैसे बन सकते हो? कैसे तुम, जैसा कि परमेश्वर कहता है, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर सकते हो—कैसे तुम अतिमानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? कौन जवाब देगा? (सबसे पहले, हमें यह स्वीकारना होगा कि हम साधारण लोग हैं, बहुत ही आम लोग। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं समझते, नहीं जानते, जिनकी असलियत नहीं जान पाते। हमें स्वीकारना चाहिए कि हम भ्रष्ट और दोषपूर्ण हैं। इसके बाद, हमें सच्चा दिल रखना होगा और खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना होगा।) पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। पहले मैं सोचती थी कि चूँकि मैं एक अगुआ हूँ, मुझे सब कुछ जानना और समझना चाहिए और दूसरों से बेहतर होना चाहिए। अपने कर्तव्य में अगुआ का पद पाने के कारण मैं प्रतिष्ठा और रुतबे से बंध गई थी, मुक्ति की भावना महसूस करने में असमर्थ थी और मैं अपने कर्तव्य में जरूरत से ज्यादा सतर्क हो गई थी। भले ही मुझमें साफ तौर पर बहुत सी कमियाँ थीं, फिर भी मैं दिखावा करती थी और खुद को छिपाती थी, क्योंकि मुझे डर था कि अगर मैं समस्याएँ नहीं सुलझा पाई तो भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे। सच तो यह था कि भाई-बहन पहले से ही मेरी कमियों के बारे में जानते थे, इसलिए मुझे खुद को छिपाने की कोई जरूरत नहीं थी। भले ही मुझमें सफाई कार्य में सिद्धांतों की समझ की कमी थी, फिर भी मैं बहनों के साथ सहयोग कर सकती थी और प्रासंगिक सत्य सिद्धांतों को सीख सकती थी और उनसे खुद को सुसज्जित कर सकती थी, जो मेरी कमियों की भरपाई भी करते। मैं आत्म-सम्मान और रुतबे के लिए नहीं जी सकती थी। आगे बढ़ते हुए, मुझे “अगुआ” के पद को एक तरफ रखना था और अपनी कमियों और खामियों का सही तरीके से सामना करना था। जब मुझे कुछ समझ में नहीं आता तो मुझे अपना आत्म-सम्मान और रुतबा एक तरफ रख देना चाहिए, खुले तौर पर भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए और अपनी कमियों को दूर करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए दूसरों की खूबियों से सीखना चाहिए।

बाद में मैंने अपने भीतर एक और भ्रामक दृष्टिकोण पहचाना। मुझे लगा कि चूँकि मैं अगुआ हूँ तो मुझे निश्चित रूप से भाई-बहनों की समस्याएँ हल करने में सक्षम होना चाहिए। इस दृष्टिकोण के जवाब में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी पदोन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में पदोन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ... तो किसी को पदोन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि इस व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में पदोन्नत किया गया है, ताकि वह अभ्यास कर सके, और वह विशेष रूप से सिंचित और प्रशिक्षित हो सके, जिससे वह इस योग्य हो जाए कि सत्य सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न कार्य करने और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझ सके, साथ ही यह भी कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें सँभालने और उनके साथ निपटने का तरीका सीख सके। इन बिंदुओं के आधार पर परखें, तो क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए प्रतिभाशाली लोग, पदोन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या पदोन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना कार्य और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में पर्याप्त सक्षम हैं? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग काट-छाँट और न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बरखास्तगी का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, यही है प्रशिक्षण और विकसित किया जाना(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में अगुआई के कर्तव्य के लिए किसी व्यक्ति को विकसित करने का मतलब यह नहीं है कि उसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, वह संगति कर सकता है और किसी भी समस्या का समाधान कर सकता है या दूसरों से बेहतर है, बल्कि इसका मतलब है कि उसे अभ्यास करने के अधिक अवसर दिए जा रहे हैं। किसी के कर्तव्य में कमियाँ होना सामान्य बात है और लोगों को उन चीजों के लिए परमेश्वर पर अधिक भरोसा करना होगा जो उन्हें समझ में नहीं आती हैं, अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करना होगा, परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और आवश्यकताओं के अनुसार काम करना होगा और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियों में सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करना होगा। इस तरह लोग तेजी से आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं। भले ही मैं अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी, इसका मतलब यह नहीं था कि मैं सब कुछ समझ गई थी, लेकिन अभ्यास के माध्यम से मैं धीरे-धीरे विभिन्न सत्य सिद्धांत समझ सकती थी। इसमें परमेश्वर का प्रेम निहित था! मैंने परमेश्वर को गलत समझा था, सोचती थी कि वह मुझे इस स्थिति के माध्यम से बेनकाब कर रहा है और मैंने वास्तव में परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयास को निराश किया था। मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकती थी, मुझे अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को अलग रखना था, ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना था और जब मुझे कुछ समझ में नहीं आता था तो मुझे अपने भाई-बहनों के साथ संगति करनी थी।

बाद में ऊपरी अगुआ ने हमें भाई-बहनों के साथ नए लोगों के सिंचन के अच्छे तरीके साझा करने के लिए कहा और मैंने सोचा कि इन तरीकों को स्पष्ट रूप से कैसे लिखा जाए। जब मैंने लिखना समाप्त कर लिया तो मैं लिन हुई को दिखाना चाहती थी कि मैंने जो लिखा था वह उपयुक्त है या नहीं, लेकिन जब मैंने अपनी खराब अभिव्यक्ति कौशल के बारे में सोचा, तो मैं चिंतित थी, सोच रही थी, “अगर यह अच्छा नहीं होगा तो लिन हुई मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह मुझे नीची नजरों से देखेगी?” इसलिए मैंने उसे दिखाने में संकोच किया कि मैंने क्या लिखा था। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने जो लिखा था वह अस्पष्ट था, तो इससे मेरे भाई-बहनों को बहुत लाभ नहीं होगा और अगर मैं लिन हुई की मदद से इसे सुधारूँ तो परिणाम बेहतर होगा। इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर से मुझे मार्गदर्शन करने के लिए कहा ताकि मैं आत्म-सम्मान और रुतबे से बेबस न रहूँ। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “ढोंग या दिखावा मत करो। पहली बात, जो कुछ तुम अपने दिल में सोच रहे हो, उसे खुलकर बताओ, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। मुझे अपने आत्म-सम्मान को किनारे रखकर अपनी कमियों को खुले तौर पर स्वीकारना था। सच तो यह था कि लिन हुई मुझे ठीक-ठीक जानती थी कि मैं क्या हूँ और उसकी सशक्त अभिव्यक्ति क्षमताएँ मेरी कमियों को पूरी तरह से पूरा कर सकती थीं, भटकावों को रोकने में मदद कर सकती थीं और हमारे काम को लाभ पहुँचा सकती थीं। इसलिए मैंने लिन हुई को अपना लिखा हुआ पत्र दिखाया और उसने कुछ कमियाँ बताईं। मुझे उसकी कही गई बातें काफी मददगार लगीं और मैंने इसके लिए सच्चे मन से परमेश्वर को धन्यवाद दिया।

अब मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना वास्तव में लोगों को नुकसान पहुँचाता है, क्योंकि यह न केवल मुझे मुक्त महसूस करने से रोकता है बल्कि काम को भी नुकसान पहुँचाता है। केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करके और आत्म-सम्मान और रुतबे की चाह छोड़कर ही मैं मुक्त और सहज महसूस कर सकती हूँ। साथ ही मुझे यह भी लगता है कि अपनी भ्रष्टता और कमियों को स्वीकारना शर्मनाक नहीं है और भाई-बहनों के सामने अपनी वास्तविक स्थिति के बारे में खुलकर बात करने से हमें उनकी मदद मिल सकती है। मुझे लगता है कि मैंने वास्तव में इस मामले में बहुत बड़ा लाभ पाया है।

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40. एक अलग प्रकार का उद्धार

हुआंग ली, चीनमैं करिश्माई ईसाई धर्म की एक साधारण विश्वासी हुआ करती थी। जब से मैंने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया, तब से मैंने हर एक सेवा...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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