47. झूठ बोलने के पीछे क्या छिपा है?
नवंबर 2023 में, मैं कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य करते हुए कौशल प्रशिक्षण का निरीक्षण करती थी, लेकिन कभी-कभी जब काम में व्यस्त हो जाती थी तो मैं इसे टाल देती थी, नतीजतन जिन कौशलों का अध्ययन किया जाना चाहिए था, उनका अध्ययन नहीं हो पाता था। सुपरवाइजर ने इस विचलन को देखा और मुझसे आग्रह किया, “तुम्हें कौशल सीखने के सत्र आयोजित करते रहना चाहिए, वर्तमान में हमारे पास इसी की सबसे अधिक कमी है,” और उसने कौशल अध्ययन के महत्व के बारे में संगति भी की। फिर सुपरवाइजर ने मुझसे पूछा, “क्या तुमने अगुआओं द्वारा बताए गए प्रत्येक विचलन और मसले को संकलित किया है?” मैं चौंक गई और सोचने लगी, “मैंने शुरुआत में उनमें से कुछ को व्यवस्थित किया था, लेकिन फिर मैंने बंद कर दिया। लेकिन अगर मैं सच बताऊँगी तो सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह कहेगा कि ‘तुम कौशल प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार हो, लेकिन तुम खुद ही नहीं सीखना चाहती हो!’ आमतौर पर जब सुपरवाइजर मुझे बताता है कि क्या करना है तो मैं बस सहमति जताती हूँ और दृढ़ता से काम करने लगती हूँ, सभी को आभास होता है कि मैं अपने काम में विश्वसनीय और दृढ़ हूँ। लेकिन अगर मैं कहूँ कि मैं इन सामग्रियों को व्यवस्थित करना भूल गई हूँ तो क्या इससे सुपरवाइजर को यह नहीं लगेगा कि मैं अपने कर्तव्यों के प्रति गैर-जिम्मेदार हूँ?” इसलिए मैंने झूठ बोला और कहा, “मैंने किया है।” मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ और सुपरवाइजर से नजर मिलाने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। मुझे अचानक परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। सार यह है कि परमेश्वर विश्वासयोग्य है और इसलिए उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त उसके कार्य दोषरहित और निर्विवाद हैं, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके प्रति पूरी तरह से ईमानदार हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। मुझे एहसास हुआ कि ईमानदार लोग अपनी कथनी और करनी में सच के साथ झूठ का घालमेल नहीं करते। वे स्पष्टवादी और निष्ठावान होते हैं और अपने विचारों को परमेश्वर और दूसरों के सामने आसानी से और खुले तौर पर व्यक्त कर सकते हैं। फिर मैंने अपने आचरण के बारे में सोचा। जब सुपरवाइजर ने मुझसे पूछा था कि क्या मैंने हमारी तकनीकों में विचलन और मसलों को व्यवस्थित किया है, भले ही मैंने अभी-अभी इन चीजों को व्यवस्थित करना शुरू ही किया था और बाकी चीजों को बिल्कुल भी व्यवस्थित नहीं किया था, मुझे डर था कि सच बोलने से मेरी छवि खराब हो जाएगी, इसलिए मैंने सुपरवाइजर से कहा कि मैंने वही व्यवस्थित किया है जो मुझे करना चाहिए था। मैं बेईमानी कर रही थी और झूठ बोल रही थी। परमेश्वर साफ कहता है कि उसे ईमानदार लोग पसंद हैं और धोखेबाज लोगों से घिन है। मैंने मन ही मन सोचा, “क्या मुझे सुपरवाइजर के सामने स्पष्ट और ईमानदार होना चाहिए? लेकिन मैं कैसे शुरू करूँ? अगर मैं सीधे बोल दूँगी तो सुपरवाइजर मुझे कैसे देखेगा? क्या वह कहेगा कि मैं इस तरह के तुच्छ मामलों के बारे में भी झूठ बोल रही हूँ? नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। मैं बोल नहीं सकती। अगर मैं बोलूँगी तो खुद को अपमानित करूँगी।” बाद में सुपरवाइजर ने मुझसे अचानक कहा, “क्या तुमने समस्याओं और विचलनों को व्यवस्थित नहीं किया है? तो चलो आज दोपहर को एक टीम अध्ययन सत्र आयोजित करते हैं।” यह कहने के बाद वह चला गया। सच के सामने आने और शर्मिंदगी से बचने के लिए मुझे अपने लंच ब्रेक के दौरान इन चीजों को गुप्त रूप से व्यवस्थित करना पड़ा, लेकिन यह बात मुझे ठीक नहीं लगी। मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों के बारे में सोचा : “अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे समझ कर भी वह उसका अभ्यास नहीं कर सकता क्योंकि दिल से वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, और उसे सत्य पसंद नहीं है। ऐसा व्यक्ति उद्धार से परे है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, लेकिन मैं झूठ बोलती रही और धोखेबाज बनी रही और मैं बहुत व्यथित हो गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति बनने और सुपरवाइजर के सामने खुलकर बोलने और खुद को स्पष्टता से दिखाने को तैयार हूँ।” इसलिए मैंने सुपरवाइजर से सच बोला, और मुझे हैरानी हुई कि सुपरवाइजर ने मुझे फटकार नहीं लगाई। बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया और मुझे एहसास हुआ कि मैं अक्सर अपनी रोज की बातचीत में सच के साथ झूठ मिला देती हूँ। कई बार जब सुपरवाइजर मेरे काम के बारे में पूछताछ करता था, मैंने स्थिति की जाँच नहीं की होती थी या अभी इसे देखा तक नहीं होता था, लेकिन मुझे चिंता रहती थी कि अगर मैंने सच बताया तो सुपरवाइजर मुझे नीची नजरों से देखेगा, इसलिए मैं झूठ बोलती और कहती कि मैं इसे देख रही हूँ या मैंने इसे पहले ही कर लिया है। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मुझे एहसास हुआ कि मैं कितने सारे झूठ बोल रही थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे गहराई से प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “अपने रोजमर्रा के जीवन में लोग अक्सर बेकार बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं, और ऐसी बातें कहते हैं जो अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और रक्षात्मक होती हैं। इनमें से ज्यादातर बातें अभिमान और शान के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कही जाती हैं। ऐसे झूठ बोलने से उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। अगर तुम इन भ्रष्ट तत्वों का समाधान कर लो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाएगा, और तुम धीरे-धीरे ज्यादा शुद्ध और अधिक ईमानदार हो जाओगे। वास्तव में सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं। व्यक्तिगत लाभ और गौरव के लिए, या अभिमान और रुतबे के लिए, वे दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जो वे नहीं होते। हालाँकि दूसरे लोग अंततः उनके झूठ उजागर और प्रकट कर देते हैं, और वे अपनी इज्जत और साथ ही अपनी गरिमा और चरित्र भी खो बैठते हैं। यह सब अत्यधिक मात्रा में झूठ बोलने के कारण होता है। तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, ‘मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। क्या यह सही मार्ग है? नहीं, यह सही मार्ग नहीं है। जो लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, वे अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं; वे शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं। वे प्रकाश में नहीं रहते, न ही वे परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर उजागर करता है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो वह व्यथित हो जाता है और उसका हृदय बेचैनी और अपराध बोध से जकड़ जाता है, लेकिन चूँकि वह अपनी प्रतिष्ठा और हितों को अलग नहीं रख सकता तो वह अक्सर शैतान के जाल में फँस जाता है, झूठ बोलता है और धोखा देता है। मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर बहुत अधिक उत्साहित थी। जब सुपरवाइजर ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने तकनीकी विचलनों का सारांश तैयार कर लिया है और उन्हें व्यवस्थित कर लिया है, भले ही मैंने स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं किया था, मुझे डर था कि ऐसा कहने से सुपरवाइजर की मेरे बारे में अच्छी धारणा प्रभावित होगी, इसलिए मैंने झूठ बोला और कहा कि मैंने ऐसा कर लिया है। मुझे एहसास हुआ कि मैं झूठ बोल रही थी और धोखा दे रही थी और मुझे पता था कि मुझे ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना होगा, परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को खोलना और सामने लाना होगा। लेकिन मैं अभी भी अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को अलग नहीं रख सकी और इस डर से कि सच के खुलासे से सुपरवाइजर मुझे और भी अधिक नीची नजरों से देखेगा, मैंने अपनी अंतरात्मा में अपराध बोध की भावना को अनदेखा किया और तथ्यों को छिपाती रही। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर बेशर्मी से झूठ बोला, मैं सत्य से अच्छी तरह वाकिफ थी लेकिन मैंने उसका अभ्यास नहीं किया। परमेश्वर वाकई में मेरे व्यवहार से घृणा और नफरत करता था!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह मिलावटी होता है और उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल रहते हैं, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी घृणित और अकथनीय चालें और षड्यंत्र। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और कार्य अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे बेईमान होते हैं और उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे भाषा का उपयोग करके बदल देते हैं, जिससे वे जो कुछ कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर सच बाहर आ जाता है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं। ऐसे व्यक्ति अक्सर झूठ बोलते हैं और झूठ बोलने के बाद उन्हें झूठ कायम रखने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने पड़ते हैं। वे अपने इरादे छिपाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, और अपने झूठ की मदद के लिए तमाम तरह के हीले-हवाले और बहाने गढ़ते हैं, ताकि लोगों के लिए यह बताना बहुत मुश्किल हो जाए कि क्या सच है और क्या नहीं, और लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे कब सच्चे होते हैं, और इसका तो बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि वे कब झूठ बोल रहे होते हैं। जब वे झूठ बोलते हैं, तो शरमाते या हिचकते नहीं, मानो सच बोल रहे हों। क्या इसका मतलब यह नहीं कि आदतन झूठ बोलते हैं?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी लगातार अपने इरादों और उद्देश्यों के साथ बोलते हैं और इसके भीतर सभी अकथनीय साजिशें छिपी होती हैं। छोटे-बड़े मामलों में अपने लक्ष्य पाने के लिए वे अपनी बातों को पहले से ही अपने मन में तैयार कर लेते हैं और वही कहते हैं जिससे उन्हें लाभ हो। इससे पता चलता है कि अपने सार में मसीह विरोधी आदतन झूठे होते हैं। मैं अक्सर अपने जीवन और काम दोनों में झूठ बोलती थी। जब मेरे सुपरवाइजर ने मेरे काम के बारे में पूछा, भले ही मैंने स्पष्ट रूप से इसे नहीं किया था, मुझे डर था कि सच बोलने से मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा प्रभावित होगा, इसलिए मैंने झूठ बोला और कहा कि मैंने इसे कर लिया है। कभी-कभी जब मुझे पता नहीं होता था कि काम कैसे चल रहा है, जब सुपरवाइजर इसका जायजा लेता था तो मुझे पहले की स्थिति की जो जानकारी थी, उसे ऐसे बताती मानो वह वर्तमान स्थिति हो। यहाँ तक कि जब मेरे साथ काम करने वाले भाई या सुपरवाइजर छोटे मामलों के बारे में पूछते थे तो भी मैं झूठ बोलती थी। मैं अपने धोखेबाज स्वभाव के अनुसार जी रही थी, कुछ भी कहने से पहले अपने दिमाग में बार-बार बातें घुमाती थी और झूठ बोलने के बाद मैं झूठ उजागर होने के डर में जीती थी, इसलिए मैं जल्दी से उनकी क्षतिपूर्ति करने और उन्हें छिपाने के तरीके सोचती थी। प्रत्येक झूठ के बाद अपने सभी विभिन्न शर्मनाक व्यवहारों पर विचार करते हुए मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक धोखेबाज इंसान थी जो रोशनी में नहीं जी सकती थी। परमेश्वर हमसे चाहता है कि हम ईमानदार लोग बनें और तथ्यों के अनुसार बोलें और कार्य करें। हमारी बातें तथ्यों के अनुरूप होनी चाहिए और हमें वही व्यक्त करना चाहिए जो हमारे दिल में है। लेकिन हमेशा झूठ बोलने और धोखा देने से क्या मैं परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रही थी? मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने कहा था : “तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है” (यूहन्ना 8:44)। मैं जो प्रकाशित कर रही थी वह राक्षसी स्वभाव था। परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है। मेरे ये झूठ लोगों को केवल अस्थायी रूप से धोखा दे सकते हैं और देर-सबेर वे उजागर हो जाएँगे। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती तो जब तक मेरी ईमानदारी और गरिमा नष्ट होती, मैं एक पूर्ण और नितांत झूठी बन चुकी होती। तब मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने कहा था : “मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे” (मत्ती 18:3)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी कहता है : “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है और केवल वे ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं जो अपने हृदय में ईमानदार हैं। अगर परमेश्वर के कार्य के अंत तक भी मैं झूठ बोलने वाली इंसान बनी रहती हूँ तो मैं निश्चित रूप से राक्षसों और शैतानों के साथ नष्ट हो जाऊँगी। परमेश्वर अभी भी मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दे रहा था और मुझे ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करना था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मेरे कार्य में उत्पन्न विचलनों और मसलों से सही तरीके से कैसे पेश आया जाए। परमेश्वर कहता है : “यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और अन्य सभी को उसके बारे में बात करने दे सको, उस पर टिप्पणी और विचार करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर बात कर सको और उसका गहन-विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, क्योंकि तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति खुला है। तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने और हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि जब मेरा काम ठीक से नहीं होता या जब मैं गलतियाँ करती हूँ तो मुझे अपनी समस्याओं से सही तरीके से पेश आना चाहिए और मुझे सबके सामने खुलकर बोलना और खुद को स्पष्टता से रखना चाहिए और उनका मार्गदर्शन और मदद स्वीकारनी चाहिए। एक बुद्धिमान व्यक्ति यही करता है। चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि जब मैं अपना काम ठीक से नहीं करती और दूसरे लोग इसके बारे में पूछते, तो मुझे हमेशा चिंता होती कि अगर मैं सच बोलूँगी तो वे मुझे नीची नजरों से देखेंगे। लेकिन असलियत में ऐसा नहीं था। उदाहरण के लिए इस महीने को ही लें, मैंने कौशल सीखने में सभी की अगुआई नहीं की, लेकिन जब सुपरवाइजर को पता चला तो उसने मुझ पर दोष नहीं डाला या मुझे नीची नजरों से नहीं देखा। इसके बजाय उसने कौशल सीखने के महत्व के बारे में मेरे साथ संगति की और धैर्यपूर्वक मेरी मदद की। लेकिन मुझे चिंता थी कि अपनी कमियों को प्रकाशित करने से दूसरे लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे। जब तथ्य मेरे सामने थे तो मैंने देखा कि मैं बहुत ज्यादा सोच रही थी और वाकई धोखेबाज थी। अपने कर्तव्यों में हर किसी में कमियाँ और खामियाँ होती हैं, लेकिन अगर मैं अपनी कमियाँ छिपाती रही, झूठ बोलती रही और धोखा देती रही, दूसरों को अपनी कमियाँ देखने से रोकती रही तो समय के साथ मेरे भाई-बहन मेरे झूठ और धोखे को समझ जाएँगे और वे मुझे उजागर और अस्वीकार कर देंगे। इसके अलावा यह संभावना थी कि कुछ लोग मेरे मसलों के बारे में जानते थे, इसलिए दरअसल मैं बस खुद को धोखा दे रही थी और अनजान बन रही थी। मुझे अपनी कमियों का सही तरीके से सामना करना था और अपने काम में आने वाली समस्याओं का शांति से सामना करना था। अगर ऐसी कोई समस्या क्षणिक चूक थी तो मुझे जल्दी से जल्दी उसे सुधार लेना चाहिए और अगर यह मेरे कर्तव्यों में लापरवाह होने की बात थी तो मुझे खुलना चाहिए, खुद को सबके सामने रखना चाहिए और आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए। एक बुद्धिमान व्यक्ति यही करता है।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मुझे समझ आया कि झूठ बोलने और धोखेबाज होने के मुद्दे को कैसे हल किया जाए। परमेश्वर कहता है : “लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही उनकी जान-बूझकर योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे होते हैं जो लोग जान-बूझकर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और जब तक तुम अपने बताए प्रत्येक झूठ को सुलझाते जाओगे, और ऐसा करते रहोगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : जब एक झूठ बाहर आ जाए तो आत्मचिंतन करो और फिर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और उतने ही सत्य का अभ्यास करने और उसे जीने को लालायित होगे। इस तरह तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, जिसमें झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करने वाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार व्यक्ति बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। ... बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो तुम्हारे अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहेंगे और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, और तुम लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : ‘हे परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बचा लो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।’ जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : ‘इसे अभ्यास में लाना अच्छा है। आज मैंने सत्य का अभ्यास किया है। आखिरकार अब मैं ईमानदार व्यक्ति बन गया हूँ।’ जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, वह तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें इस बात की सराहना करने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इसी तरह अभ्यास में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। जब मैं बोलती हूँ और अपने आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए धोखेबाज बनना चाहती हूँ तो मुझे तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। मुझे सचेत रूप से अपने आप से विद्रोह करना चाहिए और परमेश्वर से उसकी फटकार और अनुशासन माँगना चाहिए। जब ऐसा समय आए जहाँ मुझे लगे कि मैंने झूठ बोला है या तथ्यों में मिलावट की है तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, अपने आत्म-सम्मान को एक तरफ रखकर ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करना चाहिए और अपने भाई-बहनों के सामने खुलकर बोलना और स्पष्टता से खुद को रखना चाहिए ताकि हम मेरे इरादों का गहन-विश्लेषण कर सकें। बाद में मैंने सचेत होकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना शुरू कर दिया। एक बार सुपरवाइजर ने मुझे एक कार्य लागू करने के लिए कहा और बार-बार मुझे याद दिलाया। बाद में सुपरवाइजर ने मुझसे कार्यान्वयन के बारे में पूछा और मुझे एहसास हुआ कि मैं इस कार्य को लागू करना भूल गई थी। मैंने सोचा, “अगर मैं सच बोलूँगी तो सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह मुझे अविश्वसनीय और बेइमान नहीं कहेगा? या शायद मुझे बस इतना कहना चाहिए कि मैंने इसे लागू कर दिया है?” जैसे ही मैंने झूठ बोलने के लिए अपना मुँह खोला, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से धोखेबाज बनने वाली थी, इसलिए मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, सुपरवाइजर मेरे काम के बारे में पूछ रहा है और मैं फिर से झूठ बोलना चाहती हूँ। परमेश्वर, मैं अब अपने धोखेबाज स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती और अपने भाई-बहनों से झूठ नहीं बोलना चाहती। मैं ईमानदार इंसान बनने का प्रयास करने के लिए तैयार हूँ और मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि तुम मुझे सत्य का अभ्यास करने और मेरे गलत इरादे के खिलाफ विद्रोह करने का संकल्प दो।” प्रार्थना करने के बाद मैं शांत हो गई और सुपरवाइजर से कहा कि मैं कार्य को लागू करना भूल गई थी। इसके बाद सुपरवाइजर ने मुझे इस मसले पर संगति और मार्गदर्शन दिया और मुझे एहसास हुआ कि यह मेरे काम में विचलन था और मैं इसे ठीक करने के लिए तैयार थी।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे अपने झूठ और धोखे के पीछे के धोखेबाज स्वभाव की कुछ समझ मिली और मुझे अपने झूठ को दूर करने और ईमानदार व्यक्ति बनने के कुछ रास्ते मिले। परमेश्वर का धन्यवाद!