73. काट-छाँट से मिली अंतर्दृष्टि

स्टेसी, दक्षिण कोरिया

अगस्त 2022 में मैं कलीसिया में सिंचाई के काम की निगरानी कर रही थी। एक दिन अगुआ ने मुझे बताया कि कुछ भाई-बहनों ने रिपोर्ट की है कि मैंने सभाओं से पहले नवांगतुकों की दशाओं या मुश्किलों पर गौर नहीं किया और सभाओं में संगति वास्तविक मुद्दे नहीं सुलझा सकी। उन्होंने यह भी बताया था कि कुछ नवांगतुक सभाओं में नहीं आ रहे थे और मैंने समय रहते इस बारे में पूछताछ नहीं की या जाँच नहीं की कि क्या चल रहा है। मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन अपने दिल में बहस करती रही, सोचती रही, “मैंने कुछ नवांगतुकों की दशाओं के बारे में पहले ही पूछताछ कर ली थी और नजर भी रखी थी, लेकिन उन्होंने मेरे संदेशों का जवाब नहीं दिया, इसलिए मुझे नहीं पता चला कि उनके साथ क्या चल रहा है। इसके अलावा चाहे कई बार मुझे पता ही नहीं चला हो कि कुछ नवांगतुक सभाओं में नहीं आ रहे हैं, फिर वे बाद में सभाओं में नियमित भाग लेने लगे। तो इसमें बड़ी बात क्या है?” मैं न चाहते हुए भी कुछ हद तक उन भाई-बहनों से असंतुष्ट हो गई जिन्होंने इन मुद्दों की रिपोर्ट की थी। मैंने सोचा, “इन मुद्दों की रिपोर्ट करने से पहले तुम मुझसे बात कर सकते थे और पहले मुझसे स्थिति और संदर्भ के बारे में पूछ सकते थे। अगर मैं उन्हें नहीं स्वीकारती तो तुम अगुआ को रिपोर्ट कर सकते थे। अब जब तुमने बिना कुछ कहे सीधे अगुआ को रिपोर्ट कर दी है तो अगुआ मुझे कैसे देखेगी? क्या वह यह नहीं सोचेगी कि मैंने सुझाव या सत्य नहीं स्वीकारा?” इन विचारों ने मुझे हताश कर दिया। भले ही मैं जानती थी कि भाई-बहनों के सुझाव मेरे कर्तव्यों के लिए मददगार हैं और पहले मुझे उन्हें स्वीकारना चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए, खुद को जानना चाहिए, बहस नहीं करनी चाहिए और खुद को सही ठहराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जब मैंने सोचा कि मेरे आत्म-सम्मान और रुतबे को कैसे नुकसान पहुँचा होगा, मैं स्थिति का सामना करने के लिए अनिच्छुक हो गई।

बाद में मैंने शांत होकर भाई-बहनों द्वारा बताए गए मुद्दों पर विचार किया और मुझे एहसास हुआ कि बदलाव वाकई जरूरी हैं। इसलिए मैंने समूह में संदेश भेजा और सभी से कहा कि वे मेरे किसी भी मसले के बारे में बताएँ जो उन्होंने देखा हो। थोड़ी देर बाद भाई जेडन ने कुछ मुद्दे बताए जो उसने देखे थे और मुझे कुछ सुझाव भी दिए। जब मैंने देखा कि उनकी टिप्पणियाँ अगुआ द्वारा कही गई बातों जैसी ही थीं तो मुझे संदेह हुआ, मैंने सोचा, “उसने ही अगुआ को मेरी रिपोर्ट की होगी। वरना वह एक जैसी बातें क्यों कहता?” मन में यह बात होने पर मेरे लिए उसके द्वारा बताए मुद्दों और सुझावों को सही ढंग से समझना मुश्किल हो गया और मैंने हर बिंदु का एक-एक कर खंडन किया। फिर उसने समूह में एक संदेश भेजा, “तुमने कहा था कि हम सुझाव दे सकते हैं और किसी भी समस्या के बारे में संवाद कर सकते हैं तो अब जब हमने ऐसा किया है, तुम सिर्फ बहाने क्यों बना रही हो और खोजने या स्वीकारने की कोई इच्छा क्यों नहीं दिखा रही हो?” जब उसने इतने सारे भाई-बहनों के सामने मुझे उजागर किया, मैं बहुत अपमानित हो गई। मैं उसके खिलाफ पूर्वाग्रह बनाने लगी, सोचने लगी, “तुम मुझे बिल्कुल अपनी इज्जत बचाने नहीं दे रहे हो! तुमने न केवल मेरी समस्याओं के बारे में अगुआ को निजी तौर पर बताया, बल्कि मुझे सुझाव भी दिए और इन सभी लोगों के सामने मुझे उजागर किया। मैं फिर कभी अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊँगी? इसके बाद मैं भाई-बहनों का सामना कैसे करूँगी? क्या तुम मुझे निजी तौर पर नहीं बता सकते थे कि मुझमें कोई समस्या है? तुम्हें इतने सारे लोगों के सामने मुझे क्यों सुनाना पड़ा? क्या तुम मुझे सबके सामने शर्मिंदा और अपमानित करने के लिए अपनी सीमा से बाहर जा रहे हो? तुम स्पष्ट रूप से मेरे लिए जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हो। अगर मैं तुम्हें नहीं दिखाती कि बॉस कौन है तो तुम्हें लगता है कि तुम मुझे पछाड़ सकते हो।” यहाँ तक कि मेरे दिल में द्वेषपूर्ण विचार भी आया, “मैं सिंचाई कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ। अगर तुम मुझे इज्जत बचाने का मौका दिए बिना ऐसे ही चलते रहे मैं कोई बहाना बनाकर तुम्हें नवांगतुकों की सिंचाई करने से रोक दूँगी, क्योंकि अगर मैं ऐसा नहीं करती हूँ तो तुम मेरी छवि सबके सामने खराब कर दोगे।” जब यह विचार मेरे मन में आया तो मेरी धड़कन थम गई और मैंने सोचा, “मैं ऐसी द्वेषपूर्ण बात कैसे सोच सकती हूँ? क्या यह दूसरों पर हमला करना और बदला लेना नहीं होगा?” मुझे थोड़ा डर लगा, इसलिए मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे दिल पर नजर रखो ताकि यह शांत रहे और मैं अपने क्रियाकलापों में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार न चलूँ। इस स्थिति से बाहर निकलने में मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने समूह में कई भाई-बहनों को जेडन के सुझावों से सहमत होकर संदेश भेजते देखा। मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मेरे सामने यह स्थिति आने के पीछे परमेश्वर का इरादा है। मुझे पहले स्वीकारना और समर्पण करना था, सत्य खोजना था, आत्म-चिंतन करना था और सबक सीखना था।

एक दिन अपने भक्ति-सत्र के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “चाहे जिस किसी परिस्थिति के कारण किसी व्यक्ति की काट-छाँट की जाए, इसके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? पहले तो तुम्हें काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी काट-छाँट कौन कर रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। क्या मसीह-विरोधियों का रवैया ऐसा होता है? नहीं; शुरू से अंत तक, उनका रवैया प्रतिरोध और नफरत का होता है। क्या ऐसे रवैये के साथ, वे परमेश्वर के सामने शांत हो सकते हैं और नम्रता से काट-छाँट स्वीकार कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। तो फिर वे क्या करेंगे? सबसे पहले तो वे लोगों से सहानुभूति और माफी पाने की आशा में जोरदार बहस करेंगे और बहाने बनाएँगे, अपनी गलतियों और उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभावों का बचाव करेंगे, उसके पक्ष में बहस करेंगे ताकि उन्हें कोई जिम्मेदारी न लेनी पड़े या उन वचनों को स्वीकार न करना पड़े जो उनकी काट-छाँट करते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनका क्या रवैया होता है? ‘मैंने पाप नहीं किया है। मैंने कुछ गलत नहीं किया है। अगर मुझसे कोई भूल हुई है, तो उसका कारण था; अगर मैंने कोई गलती की है, तो मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, तो मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। थोड़ी-बहुत गलतियाँ कौन नहीं करता?’ वे इन कथनों और वाक्यांशों को पकड़ लेते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं खोजते, न तो वे अपनी गलतियों को स्वीकारते हैं और न ही अपने प्रकट किए हुए भ्रष्ट स्वभावों को स्वीकारते हैं—और बुराई करने में उनका जो इरादा और मकसद होता है, उसे तो निश्चित रूप से नहीं स्वीकारते। उनकी गलतियाँ चाहे कितनी ही स्पष्ट क्यों न हों या चाहे उन्होंने कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न किया हो, वे इन चीजों को पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं। उन्हें न तो जरा-सा भी दुख होता है और न ही ग्लानि होती है, और उनकी अंतरात्मा उन्हें बिल्कुल भी नहीं धिक्कारती है। बल्कि, वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराते हैं और यह सोचकर शब्दों की जंग छेड़ देते हैं, ‘सभी के पास खुद को सही ठहराने वाला दृष्टिकोण होता है। सबके अपने कारण होते हैं; मुख्य यह है कि कौन ज्यादा अच्छी बातें करता है। यदि मैं अधिकतर लोगों तक अपना औचित्य और स्पष्टीकरण पहुँचा सकूँ, तो जीत मेरी होगी और तुम जिन सत्यों की बात करते हो, वे सत्य नहीं हैं और तुम्हारे तथ्य भी मान्य नहीं हैं। तुम मेरी निंदा करना चाहते हो? बिल्कुल नहीं कर सकते!’ जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह पूरे मन और आत्मा की गहराई और दृढ़ता से प्रतिरोध करता है, उससे नफरत करता है और उसे नकार देता है। उसका रवैया कुछ ऐसा होता है, ‘तुम जो चाहे कहना चाहो, चाहे तुम कितने भी सही हो, मैं इस बात को न तो मानूँगा और न ही स्वीकार करूँगा। मेरी कोई गलती नहीं है।’ तथ्य किसी भी प्रकार से उनके भ्रष्ट स्वभाव को बाहर ले आएँ, वे उसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि अपना बचाव और प्रतिरोध करते रहते हैं। दूसरे लोग कुछ भी कहें, वे उसे स्वीकारते या मानते नहीं, बल्कि सोचते हैं, ‘देखते हैं कौन किसको बातों में हरा सकता है; देखते हैं कौन बेहतर वक्ता है।’ एक प्रकार का यह रवैया जिस तरह से मसीह-विरोधी अपनी काट-छाँट को लेते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। “एक मसीह-विरोधी का दृष्टिकोण और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, साथ ही उनके खयाल, दृष्टिकोण, विचार, और इस स्थिति से उत्पन्न होने वाली अन्य बातें, सभी एक सामान्य व्यक्ति से भिन्न होती हैं। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो सबसे पहले वे उसका विरोध करते हैं और उसे दिल की गहराई से नकार देते हैं। वे उससे लड़ते हैं। और ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख और उससे घृणा करने वाला होता है और वे सत्य जरा-भी नहीं स्वीकारते(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि जब सत्य का अनुसरण करने वाले किसी व्यक्ति की काट-छाँट की जाती है, चाहे उसकी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति का रवैया या लहजा कैसा भी हो या यह काट-छाँट किसी भी स्थिति या संदर्भ में की गई हो, वह पहले इसे स्वीकार सकता है, इस पर चिंतन कर सकता है कि उसने कहाँ सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और उसने कौन सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज कर सकता है। लेकिन मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं और सार में उससे घृणा करते हैं और जब उनकी काट-छाँट की जाती है और दूसरों द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता है, वे इन चीजों का विरोध करना और उन्हें अस्वीकार करना चाहते हैं। भले ही उनकी समस्याएँ पहले से ही स्पष्ट हों और उनके कारण काम में नुकसान हुआ हो, फिर भी वे स्वीकार नहीं करते कि वे दोषी हैं और अपना बचाव करने और खुद को दोषमुक्त बताने के लिए हर प्रकार के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं। जब मेरी काट-छाँट की गई थी, उस समय के अपने रवैये और व्यवहार पर चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो स्वभाव प्रकट किया था, वह वाकई मसीह-विरोधी के समान ही था। जब भाई-बहनों ने मुझे सुझाव दिए, मैंने उन्हें तुरंत स्वीकार नहीं किया, अपनी समस्याओं और भटकावों पर चिंतन और समीक्षा नहीं की और इसके बजाय मैं प्रतिरोधी और नाखुश हो गई, बहस करने और खुद को सही ठहराने के लिए हर तरह के कारण और बहाने ढूँढ़े। इसमें मैं बस सत्य स्वीकार नहीं कर रही थी बल्कि इससे विमुख हो रही थी। दरअसल सावधानी से विचार और चिंतन करने के बाद मैंने देखा कि मेरे भाई-बहनों द्वारा उठाए गए सभी मुद्दे तथ्यात्मक थे और चाहे कोई भी कारण हो, अगर नवांगतुकों का अच्छी तरह से सिंचन नहीं किया गया तो इसका मतलब होता कि मैं अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार हूँ। इतना ही नहीं, जब भाई-बहनों ने बताया कि मैंने इस बारे में पूछताछ नहीं की या गौर नहीं किया कि नवांगतुक समयबद्ध तरीके से सभाओं में क्यों नहीं आए तो भी मैंने बहाने बनाए, सोचा कि नवांगतुक कभी-कभार सभाओं में नहीं आते हैं और बाद में फिर से नियमित रूप से हिस्सा लेते हैं और इसलिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। असल में एक सिंचनकर्ता के रूप में मुझे नहीं पता था कि नवांगतुक सभाओं में नहीं आ रहे थे और मैंने उनसे संपर्क नहीं किया या समय रहते मामले की जाँच नहीं की। यह अपने आप में अनदेखी थी और यह दर्शाता था कि मैं लापरवाह थी। फिर भी मैंने भाई-बहनों द्वारा उठाए गए मुद्दों और सुझावों को विभिन्न बहाने बनाकर नकार दिया और उनका खंडन किया और चाहे यह सतह पर बड़ी समस्या की तरह नहीं दिखा हो, इसका संबंध अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे रवैये से था और इसने सत्य और परमेश्वर के प्रति मेरे रवैये को भी बेनकाब किया। जब मैंने इस पर चिंतन किया, तभी मुझे एहसास हुआ कि इस मुद्दे की प्रकृति कितनी गंभीर थी। अगर यह स्थिति मेरे सामने नहीं आई होती तो मैं बिल्कुल भी आत्म-चिंतन नहीं करती, न ही मैं सत्य के प्रति विमुख होने के अपने शैतानी स्वभाव को पहचान पाती और अगर मैं इसी तरह चलती रहती तो परमेश्वर द्वारा ठुकराकर हटा दी जाती।

चिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट का मसला आता है तो वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। और इसे स्वीकार न कर पाने के अपने कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत कम हो गई है, उनकी प्रतिष्ठा, रुतबा और उनकी गरिमा छिन गई है, और अब वे सबके सामने अपने सिर उठाकर नहीं चल सकेंगे। इन बातों का उनके दिलों पर असर पड़ता है, इसलिए उन्हें अपनी काट-छाँट स्वीकारना मुश्किल लगता है, और उन्हें लगता है कि जो भी उनकी काट-छाँट करता है वह उनसे द्वेष रखता है और उनका शत्रु है। काट-छाँट होने पर मसीह-विरोधियों की यही मानसिकता रहती है। यह बिल्कुल पक्की बात है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। “मसीह-विरोधियों को प्रतिष्ठा और रुतबा बहुत अधिक पसंद आता है। प्रतिष्ठा और रुतबा उनके जीवन का आधार है; उन्हें लगता है कि प्रतिष्ठा और रुतबे के बिना जीवन बेकार है, और प्रतिष्ठा और रुतबे के बिना उनमें कुछ भी करने की ऊर्जा नहीं होती है। मसीह-विरोधियों के लिए, प्रतिष्ठा और रुतबा दोनों उनके व्यक्तिगत हितों से नजदीकी से जुड़े हैं; वे उनकी दुखती रग हैं। इसीलिए, मसीह-विरोधी जो भी करते हैं वह उनके रुतबे और प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है। अगर यह इन चीजों के लिए न होता, तो शायद वे कोई काम नहीं करते। मसीह-विरोधियों के पास चाहे कोई रुतबा हो या न हो, जिस लक्ष्य के लिए वे लड़ रहे हैं, जिस दिशा में वे आगे बढ़ रहे हैं, वह इन्हीं दो चीजों की ओर है—प्रतिष्ठा और रुतबा। ... जब वे कीमत चुकाते हैं, तो गौर करो कि वे यह कीमत क्यों चुकाते हैं। जब वे किसी मुद्दे पर उत्साहपूर्वक वाद-विवाद करते हैं, तो गौर करो कि वे उस पर बहस क्यों करते हैं। जब वे किसी व्यक्ति के बारे में विचार-विमर्श करते या उसकी निंदा करते हैं, तो गौर करो कि उनका इरादा और लक्ष्य क्या है। जब वे किसी बात को लेकर दुखी या गुस्सा होते हैं, तो गौर करो कि वे किस तरह का स्वभाव प्रकट करते हैं। लोग दूसरे लोगों के दिलों के अंदर नहीं झाँक सकते, मगर परमेश्वर ऐसा कर सकता है। जब परमेश्वर लोगों के दिलों में झाँकता है, तो वह लोगों की कथनी और करनी के सार को मापने के लिए किस चीज का उपयोग करता है? वह इसे मापने के लिए सत्य का उपयोग करता है। मनुष्य की नजर में, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करना उचित है। तो फिर परमेश्वर की नजर में इसे मसीह-विरोधियों का प्रकाशन और अभिव्यक्ति, और मसीह-विरोधियों का सार क्यों माना जाता है? यह मसीह-विरोधियों द्वारा किए जाने वाले हर काम के पीछे के आवेग और अभिप्रेरणा पर आधारित है। परमेश्वर उनके द्वारा किए जाने वाले कामों के पीछे के आवेग और अभिप्रेरणा की जाँच करता है, और अंत में, यह निर्धारित करता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए है, न कि अपने कर्तव्य को करने की खातिर; यह सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की खातिर तो बिल्कुल भी नहीं है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मसीह-विरोधी काट-छाँट को क्यों नहीं स्वीकार पाते। सत्य से घृणा करने और उसके प्रति विमुख होने के उनके सार के अलावा इसका एक और मुख्य कारण है, वे अपने दिल में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं, मसीह-विरोधियों को लगता है कि जो कोई भी उनकी समस्याएँ बताता है या उनकी काट-छाँट करता है, वह उनके लिए जीवन को मुश्किल बनाने, उनकी इज्जत खराब करने और उनके आत्म-सम्मान और रुतबे को नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहा है। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने के लिए मसीह-विरोधी लगातार प्रतिरोधी और विरोधी होते हैं और जो लोग उनकी काट-छाँट करते हैं, उनके साथ दुश्मनों की तरह पेश आते हैं। चिंतन करने पर मैंने देखा कि मेरा भी यही दृष्टिकोण था। शुरू में जब मुझे पता चला कि भाई-बहनों ने मेरी समस्याओं के बारे में अगुआ को रिपोर्ट की है, मुझे लगा कि वे जानबूझकर मेरी समस्याओं को अगुआ के सामने उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे मेरा मान-सम्मान कम हो रहा है और यह मुझे अजीब स्थिति में डाल रहा है, मैंने सोचा कि उन्होंने मुझमें जो मसले देखे थे, उनके बारे में पहले मुझे बताना चाहिए था या उन्हें निजी तौर पर मेरे सामने उठाना चाहिए था और अगर मैं इसे स्वीकार नहीं करती तो ही उनके लिए इन मुद्दों की रिपोर्ट अगुआ को करना उचित होता। दरअसल अगर मैं वाकई सुझावों और सत्य को स्वीकारने वाली इंसान होती तो मुझे किसी संदर्भ की या मुद्दे उठाने के उनके तरीकों की कोई परवाह नहीं होती, इसके बजाय मुझे इस बात की परवाह होती कि कौन से मुद्दे उठाए गए और मुझे कैसे बदलना और सुधार करना चाहिए। मेरे मन में ऐसे विचार इसलिए आए क्योंकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करना चाहती थी और अगुआ की नजर में अच्छी छवि बनाए रखना चाहती थी। जब जेडन ने मुझे सुझाव दिए और भाई-बहनों के सामने मुझे उजागर किया तो मैं स्वीकारने में और भी असमर्थ हो गई। मैंने सोचा कि वह मुझे सबके सामने शर्मिंदा और अपमानित करने की कोशिश कर रहा है और इससे लोगों की नजरों में मेरे बारे में बनी अच्छी छवि को गंभीर नुकसान पहुँचेगा। प्रतिष्ठा और रुतबे की इच्छा से प्रेरित होकर मैंने अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए उसके सुझावों का परोक्ष रूप से विरोध किया और मेरे मन में द्वेषपूर्ण विचार भी आए, मैं अपनी शक्ति और ओहदे का इस्तेमाल करके उसे दबाना चाहती थी और उसे सिंचाई कार्य में भाग लेने से रोकना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर अत्यधिक चिंतित हूँ, मेरी कथनी और करनी का आधार अपने आत्म-सम्मान और रुतबे की रक्षा करना है और यहाँ तक कि मैं लोगों को दबाना भी चाहती हूँ। मैंने देखा कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना वाकई सही रास्ता नहीं है और यह मुझे सिर्फ परमेश्वर का प्रतिरोध करने की ओर ले जाता।

बाद में मैंने अपने द्वेषपूर्ण विचारों के माध्यम से प्रकट हुए स्वभाव पर चिंतन किया और मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे गहराई से प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हमला और प्रतिशोध एक प्रकार का क्रियाकलाप और प्रकटन है जो एक दुर्भावनापूर्ण शैतानी प्रकृति से आता है। यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव भी है। लोग इस प्रकार सोचते हैं : ‘अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरे साथ इज्जत से पेश नहीं आओगे तो भाल तुम्हारे साथ मैं इज्जत से क्यों पेश आऊँगा?’ यह कैसी सोच है? क्या यह प्रतिशोध लेने की सोच नहीं है? किसी साधारण व्यक्ति के विचार में क्या यह उचित नजरिया नहीं है? क्या इस बात में दम नहीं है? ‘मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा’ और ‘अपनी ही दवा का स्वाद चखो’—अविश्वासी अक्सर आपस में ऐसी बातें कहते हैं, ये सभी तर्क दमदार और पूरी तरह इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं। फिर भी, जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन वचनों को कैसे देखना चाहिए? क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? इन्हें किस तरह पहचानना चाहिए? ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? (शैतान से।) ये शैतान से उत्पन्न होती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये शैतान के किस स्वभाव से आती हैं? ये शैतान की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति से आती हैं; इनमें विष होता है, और इनमें शैतान का असली चेहरा अपनी पूर्ण दुर्भावना तथा कुरूपता के साथ होता है। इनमें इस तरह का प्रकृति सार होता है। इस प्रकार की प्रकृति सार वाले नजरियों, विचारों, प्रकटावों, कथनी-करनियों का चरित्र क्या होता है? बेशक, यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है—यह शैतान का स्वभाव है। क्या ये शैतानी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हैं? क्या ये सत्य के अनुरूप हैं? क्या इनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? (नहीं।) क्या ये ऐसे कार्य हैं, जो परमेश्वर के अनुयायियों को करने चाहिए, और क्या उनके ऐसे विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए? क्या ये विचार और कार्यकलाप सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं।)” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि हमला करने और बदला लेने के मेरे विचार शैतानी जहर से प्रेरित थे, जैसे कि “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा” और “अपनी ही दवा का स्वाद चखो।” मैंने सोचा कि जेडेन द्वारा भाई-बहनों के सामने मेरी समस्याओं को उजागर करना मुझे मान-सम्मान बचाने की अनुमति नहीं दे रहा है और वह मेरे प्रति निर्दयी है, जिसका अर्थ है कि मैं उसके साथ गलत कर सकती हूँ। मुझे यह भी लगा कि अगर मैंने उसे नहीं दिखाया कि बॉस कौन है तो वह सोचेगा कि वह मुझे पछाड़ सकता है, इसलिए मैंने सोचा कि भविष्य में मैं उसे सिंचाई कार्य में हिस्सा नहीं लेने दूँगी। फिर हम देखेंगे कि वह मेरी काट-छाँट कैसे करता है। इस बिंदु पर इन विचारों और इरादों पर विचार करते हुए मैंने देखा कि मैं वाकई द्वेषपूर्ण और भयावह थी। जेडेन द्वारा अगुआ को मेरी समस्याओं की रिपोर्ट करना दिखाता है कि उसमें काम के प्रति जिम्मेदारी की भावना है और वह कलीसिया के काम की रक्षा कर रहा है। साथ ही जब मैंने समूह में सभी से सुझाव माँगते हुए एक संदेश भेजा, जेडन ने सक्रियता से अपने विचार और राय रखी, जिससे पता चला कि उसे जिम्मेदारी का एहसास है, लेकिन मुझे लगा कि वह जानबूझकर मेरे लिए जीवन कठिन बना रहा है और मैंने भी बहस करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश की। उसके द्वारा मेरे मुद्दों को उजागर करना तथ्यात्मक और पूरी तरह से उचित था और इन बातों को सीधे सामने लाना मेरे कर्तव्यों में मेरे लिए मददगार था और मुझे शर्मिंदा करने का उसका कोई इरादा नहीं था। इसके अलावा भाई-बहनों के बीच आपसी सुझाव और काट-छाँट दयालुता या निर्दयता के मामले नहीं हैं और अपनी समझ में इस बारे में मेरे विचार छद्म-विश्वासियों जैसे ही थे। अतीत में मैं सोचती थी कि मुझमें अच्छी मानवता है और मैं किसी मसीह-विरोधी की तरह दूसरों को दबाने या सताने जैसा कुछ नहीं करूँगी, लेकिन तथ्यों के प्रकाशन के माध्यम से मैंने देखा कि मेरी प्रकृति वाकई द्वेषपूर्ण है। मैंने पहले ऐसा कुछ नहीं किया था क्योंकि सही स्थिति नहीं आई थी, लेकिन कुछ संदर्भों में मैं इन द्वेषपूर्ण विचारों को स्वाभाविक रूप से प्रकट करने में सक्षम थी। यह मेरी प्रकृति का प्रकाशन है। इस समय मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि काट-छाँट होना वाकई बहुत बढ़िया है, वरना मैं अपने भीतर के भ्रामक विचारों और शैतानी स्वभावों को कभी नहीं पहचान पाती, न ही मेरे पास सुधार करने या बदलने का कोई तरीका होता। मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी हुई और मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं देखती हूँ कि न केवल मैं सत्य के प्रति विमुख हूँ, बल्कि मेरी प्रकृति भी द्वेषपूर्ण है। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैं उन भाई-बहनों पर हमला करना और उनसे बदला लेना चाहती थी जिन्होंने मुझे सुझाव दिए थे। मैं देखती हूँ कि मुझमें मानवता की कमी है और मैं विश्वासी कहलाने के लायक नहीं हूँ। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना और बदलना चाहती हूँ। अभ्यास और प्रवेश का मार्ग खोजने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अपने भाई-बहनों के सुझाव स्वीकारना सीख सकूँ।”

अपनी भक्ति के दौरान मैंने अपनी समस्याओं के बारे में पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे और अभ्यास का मार्ग पाया। परमेश्वर कहता है : “तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है। सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से विमुख और घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से विमुख नहीं है—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया, जो दूसरों के सुझावों को गंभीरता से लेना है, और चाहे वे कहीं से भी आएँ, चाहे मैं उन्हें उस समय समझ पाऊँ या नहीं या वे मेरी इच्छा के अनुरूप हों या नहीं, मुझे उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, उन्हें नजरअंदाज करना या नीचा दिखाना तो दूर की बात है। मुझे सबसे पहले इन सुझावों को स्वीकारना चाहिए और सभी के साथ संगति करनी चाहिए और जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है उसे स्वीकारना चाहिए और उसका अभ्यास करना चाहिए और जो ऐसा नहीं है उसे नहीं अपनाना चाहिए। इस प्रक्रिया के दौरान सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य के प्रति विमुख, अड़ियल और अहंकारी होने के भ्रष्ट स्वभाव से नहीं जीना है, बल्कि दूसरों के सुझावों को खोजपूर्ण रवैये से लेना है। बाद में मैंने भाई-बहनों द्वारा उठाई गईं कुछ समस्याओं और सुझावों पर अपने सहयोगियों के साथ चर्चा की ताकि उन्हें एक-एक करके हल किया जा सके। इस तरह से अभ्यास करने के बाद सिंचाई के काम के नतीजे पहले से कहीं बेहतर हो गए और मैंने पाया कि जेडन के प्रति मेरा पूर्वाग्रह दूर हो गया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।

बाद में मैंने खुद से पूछा, “जो भाई-बहन मेरी समस्याएँ बताते हैं, उनके प्रति मेरा रवैया कैसा होना चाहिए?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें उन लोगों के करीब जाना चाहिए जो तुमसे सच्ची बात कह सकें; इस तरह के लोगों का साथ होना तुम्हारे लिए बहुत फायदेमंद है। खास तौर पर ऐसे लोगों का तुम्हारे आसपास होना तुम्हें भटकने से बचा सकता है जो तुममें किसी समस्या का पता चलने पर तुम्हें डाँटने-फटकारने और तुम्हें उजागर करने का साहस रखते हों। उन्हें तुम्हारे रुतबे से कोई फर्क नहीं पड़ता है, और जिस पल उन्हें पता चलता है कि तुमने सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ किया है, तो आवश्यक होने पर वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हें उजागर भी करेंगे। केवल ऐसे लोग ही सीधे-सच्चे और न्यायप्रिय लोग होते हैं और चाहे वे तुम्हें कैसे भी उजागर करें और कैसे भी तुम्हें डाँटें-फटकारें, यह सब तुम्हारी मदद करने, तुम्हारी निगरानी करने और तुम्हें आगे बढ़ाने के लिए होता है। तुम्हें ऐसे लोगों के करीब जाना चाहिए; ऐसे लोगों को अपने साथ रखने से, ऐसे लोगों की मदद से, तुम अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित हो जाते हो—परमेश्वर की सुरक्षा पाने का भी यही अर्थ है। सत्य समझने वाले और सिद्धातों का पालन करने वाले लोगों का तुम्हारे साथ होना और रोजाना तुम्हारी निगरानी करना, तुम्हारे लिए अपना कर्तव्‍य निभाने और अच्छे से काम करने के लिए बहुत फायदेमंद है। तुम्हें उन धूर्त, धोखेबाज लोगों को अपना सहायक बिल्कुल नहीं बनाना चाहिए जो तुम्हारी चापलूसी करते हैं और तुम्हारी झूठी तारीफ करते हैं; इस तरह के लोगों का तुम्हारे साथ चिपके रहना अपने ऊपर बदबूदार मक्खियों को बैठने देने के समान है, इससे तुम बहुत सारे जीवाणुओं और विषाणुओं के संपर्क में आ जाओगे! ऐसे लोग तुम्हें परेशान कर सकते हैं और तुम्हारे काम को प्रभावित कर सकते हैं, वे तुम्हें प्रलोभन में फंसाकर भटका सकते हैं और वे तुम्हारे लिए आपदा और विपत्ति ला सकते हैं। तुम्हें उनसे दूर रहना चाहिए, जितना ज्यादा दूर रहोगे उतना बेहतर होगा, और यदि तुम यह जान सको कि उनमें छद्म-विश्वासियों का सार है और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल सको तो और भी बेहतर होगा। ... यदि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें ऐसे लोगों के करीब आने की पहल करनी चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो ईमानदार हैं, ऐसे लोगों के करीब आना चाहिए जो तुम्हारे मसले बता सकते हैं, जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर सच बोल सकते हैं और तुम्हें डांट-फटकार सकते हैं, और विशेष रूप से ऐसे लोगों के जो तुम्हारी समस्याओं का पता चलने पर तुम्हारी काट-छाँट कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे लिए सबसे अधिक फायदेमंद हैं और तुम्हें उन्हें संजोना चाहिए। यदि तुम ऐसे अच्छे लोगों को छोड़ देते हो और उनसे छुटकारा पा लेते हो तो तुम परमेश्वर की सुरक्षा गँवा दोगे और आपदा धीरे-धीरे तुम्हारे पास आ जाएगी। अच्छे लोगों और सत्य को समझने वाले लोगों के करीब आने से तुम्हें शांति और आनंद मिलेगा, और तुम आपदा को दूर रख सकोगे; बुरे लोगों, बेशर्म लोगों और तुम्हारी चापलूसी करने वाले लोगों के करीब आने से तुम खतरे में पड़ जाओगे। न केवल तुम आसानी से ठगे और छले जाओगे, बल्कि तुम पर कभी भी आपदा आ सकती है। तुम्हें पता होना चाहिए कि किस तरह के लोग तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हो सकते हैं—ये वे लोग हैं जो तुम्हारे कुछ गलत करने पर, या जब तुम अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो और दूसरों को गुमराह करते हो तो, तुम्हें चेतावनी दे सकते हैं, इससे तुम्हें सर्वाधिक फायदा हो सकता है। ऐसे लोगों के करीब जाना ही सही मार्ग है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए मुझे उन लोगों से सक्रिय संपर्क करने की जरूरत है जो सत्य बोलने का साहस करते हैं और जिनमें न्याय की भावना है, चूँकि वे रुतबे, शक्ति या पारस्परिक भावनाओं की परवाह नहीं करते हैं। वे जो कुछ भी देखते हैं, वही कहते हैं और जब जरूरी हो तो लोगों को उजागर या काट-छाँट करते हैं। मेरे आस-पास ऐसे लोगों का होना न केवल उन्हें मेरे कर्तव्यों का पर्यवेक्षण करने और मुझे याद दिलाने देता है बल्कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव को भी नियंत्रित करता है। मेरा स्वभाव अहंकारी था और मैं हमेशा मनमाने तरीके से काम करती थी। मुझे हमेशा लगता था कि मैं सही हूँ और सिद्धांतों की तलाश पर ध्यान केंद्रित नहीं करती थी। मेरे आस-पास ऐसे भाई-बहनों के होने से जब मैं सिद्धांतों के खिलाफ काम करती हूँ तो वे मुझे सुधारने और उजागर करने में सक्षम होते हैं, मुझे आत्म-चिंतन करने और सत्य की तलाश करने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे मुझे गलतियाँ करने और गलत रास्ते पर चलने से बचने में भी मदद मिलती है और अपनी प्रकृति को और अधिक स्पष्ट देखने में मदद मिलती है। इससे मुझे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने में मदद मिलती है। ठीक जेडन की तरह जो कलीसिया के काम की रक्षा करने में सक्षम था और सीधे तौर पर किसी भी समस्या के बारे में बात करता था और उसे बताता था। हालाँकि उसने जो बातें कहीं, वे मुझे कभी-कभी शर्मिंदा करती थीं, वे मेरे कर्तव्यों में मेरे लिए मददगार थीं। मुझे ऐसे लोगों के साथ ज्यादा बातचीत करनी थी और उन्हें पर्यवेक्षण करने और मुझे ज्यादा याद दिलाने देना था। अब जब मैं इसके बारे में फिर से सोचती हूँ तो मुझे एहसास होता है कि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित यह स्थिति वाकई बहुत बढ़िया थी। अपने भाई-बहनों से सुझाव और काट-छाँट स्वीकार करके मैं न केवल अपने कर्तव्यों में कुछ भटकावों को ठीक करने में कामयाब रही, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में भी कुछ समझ हासिल की। मैं सच्चे मन से परमेश्वर की आभारी हूँ!

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