75. मैं अब अपनी मंजिल को लेकर विवश नहीं हूँ

ली यिशुन, चीन

जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया तो मैं बहुत उत्साहित थी और दो महीने बाद मैंने सामान्य मामलों का कर्तव्य करना शुरू कर दिया। बाद में मैंने मेजबानी का कर्तव्य संभाला और सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त होने के बावजूद मैंने कभी भी कठिनाइयों या थकान को लेकर शिकायत नहीं की। मेरा मानना था कि बचाये जाने के लिए मुझे और अधिक अच्छे कर्मों की तैयारी करनी होगी, और अधिक कष्ट सहना होगा और अपने कर्तव्यों में कीमत चुकानी होगी। दो साल बाद 2007 में मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया गया, मैंने और अधिक प्रयास किया और खुद को और अधिक खपाया। मैं बाइक नहीं चला पाती थी, इसलिए जहाँ वाहन से जाना सुविधाजनक नहीं था वहाँ होने वाली सभाओं में मैं पैदल ही जाती थी। मुझे थकान महसूस नहीं होती थी मानो मुझमें अनंत ऊर्जा हो और मुझे लगता था कि परमेश्वर मेरे प्रयासों को देख रहा है और भविष्य में परमेश्वर मेरे बलिदानों को एक अच्छी मंजिल के साथ पुरस्कृत करेगा। बाद में कलीसिया मुझे जो भी कर्तव्य देती मैं उसमें सक्रिय रूप से सहयोग करती, हालाँकि मेरी वृद्धावस्था कुछ वास्तविक कठिनाइयाँ पैदा कर रही थी, फिर भी मैं इन चीजों से कभी विवश नहीं होती थी।

2017 में जब मैं 76 वर्ष की हो गई तो अगुआओं ने मुझे कलीसिया में शुद्धिकरण के कार्य में लगा दिया। मैं बहुत खुश थी, मुझे लगा कि इस उम्र में भी मुझे अपने कर्तव्यों का पालन करने का अवसर मिला है जो वास्तव में परमेश्वर का मुझ पर अनुग्रह और उत्कर्ष है! मैंने अपने आप से कहा कि अपने कर्तव्यों को निभाने के इस अवसर को संजोऊँ। उस समय मैं अपने कर्तव्यों के कारण काफी व्यस्त रहती थी और आमतौर पर देर से सोती थी लेकिन मुझे थकान महसूस नहीं होती थी। 2019 में एक दिन मुझे अचानक चक्कर आने लगे और चलते समय साँस लेने में कठिनाई होने लगी। अस्पताल में जाँच के बाद पता चला कि मुझे उच्च रक्तचाप और हृदय रोग है। डॉक्टर ने मुझे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी। मुझे यह सोचकर बेचैनी हुई, “अस्पताल में भर्ती होना सिर्फ एक-दो दिन का मामला नहीं है; अगर मैं अस्पताल में भर्ती हो गई तो अगुआओं को निश्चित रूप से मेरी जिम्मेदारी संभालने के लिए किसी और को ढूँढ़ना पड़ेगा तो क्या मैं यह कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं खो दूँगी? मेरी उम्र और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण मैं अन्य कार्य भी नहीं कर पाऊँगी। अगर मुझे छुट्टी मिल जाती है और मैं केवल छोटे-मोटे समूह सभाओं की मेजबानी ही कर पाती हूँ तो ऐसे तुच्छ कर्तव्य में मैं कौन-सा नेक कर्म कर पाऊँगी? नेक कर्मों के बिना मेरा उद्धार कैसे होगा? नहीं, मैं इलाज की खातिर अस्पताल में भर्ती होने के लिए अपने कर्तव्य का त्याग नहीं सकती। इसके अलावा अगर परमेश्वर मुझे मेरी बीमारी के बावजूद अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए देखता है तो वह अवश्य ही मेरी रक्षा करेगा।” मैंने जल्दी से कहा, “मैं अस्पताल में नहीं रहूँगी; घर जाऊँगी और इलाज के लिए दवा लूँगी।” उसके बाद मैं हमेशा की तरह हर रोज अपने कर्तव्य करती रही।

दो साल बाद एक रात मुझे अचानक कमर से लेकर कूल्हों तक तेज दर्द महसूस हुआ। अगले दिन मेरी बेटी मुझे जाँच के लिए अस्पताल ले गई और मुझे ऑस्टियोपोरोसिस के कारण रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर का पता चला। मेरा सिर घूमने लगा और ऐसा लगा जैसे मुझ पर आसमान टूट पड़ा हो। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरा दिल तेजी से धड़क रहा है और मेरे शरीर से ताकत खत्म हो रही है। मैं एक कुर्सी पर बैठ गई, मुझे दिल में भयंकर दर्द महसूस हो रहा था, समझ नहीं आ रहा था कि इस वास्तविकता का सामना कैसे करूँ। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं इतने सालों से परमेश्वर पर विश्वास करती आ रही हूँ, भले ही मुझे अपने कर्तव्यों में बड़ी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा है, फिर भी मैंने कई छोटी-छोटी कठिनाइयाँ सही हैं। इसके अलावा चूँकि मैं अभी अपना कर्तव्य निभा रही हूँ तो अचानक यह बीमारी मुझ पर कैसे हमला कर सकती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर मुझे अपने कर्तव्य निभाने से रोकने के लिए इसका प्रयोग कर रहा हो?” मैं पूरी तरह से हताश महसूस कर रही थी। फिर मैंने सोचा, “अगर मैं भविष्य में इस बीमारी से उबर भी जाऊँ तो भी इस उम्र में मैं कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाऊँगी। अधिक से अधिक मैं सिर्फ सभाओं की मेजबानी कर पाऊँगी। मैं न तो कष्ट सह सकूँगी और न ही खुद को खपा सकूँगी, तो फिर ऐसे कर्तव्य करने से क्या अच्छे कर्म हो सकेंगे? मुझे सचमुच उन छोटे भाई-बहनों से ईर्ष्या होती है जो हर तरह के कर्तव्य निभा सकते हैं। काश मैं समय को कुछ दशक पीछे ले जा पाती! परमेश्वर ने मुझे कुछ दशक बाद जन्म क्यों नहीं दिया?” घर पहुँचकर मैं केवल लेट ही सकती थी, मुझे धीरे-धीरे चलना पड़ता था। मैं कोई काम नहीं कर पाती थी। जब बहनें आतीं तो मेरे लिए दरवाजा खोलना भी एक जद्दोजहद होता था। मुझे यह सोचकर बहुत नकारात्मक महसूस होने लगा, “क्या मैं बेकार हो गई हूँ? मैं इतने वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती आई हूँ, हमेशा अपने कर्तव्यों का पालन करती आई हूँ, बहुत कष्ट उठाती और खुद को खपाती आई हूँ। कभी मुझे लगता था कि मुझे बचाया जा सकता है, लेकिन मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं बेकार हो जाऊँगी और कोई भी कर्तव्य निभाने में असमर्थ हो जाऊँगी।” इन विचारों से मेरा दिल बैठने लगा। मैं नकारात्मकता की दशा में रहने लगी, मेरे दिल को परमेश्वर के सामने शांति नहीं मिल पा रही थी। मेरी आत्मा वाकई अंधकारमय हो गई थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, जब से मैं बीमार पड़ी हूँ और अपना कर्तव्य नहीं कर पा रही हूँ तब से मैं काफी हताश महसूस कर रही हूँ। मुझे हमेशा यह चिंता रहती है कि मुझे बचाया नहीं जा सकता और मुझे नहीं पता कि इस समस्या को सुलझाने के लिए मुझे सत्य के किस पहलू को खोजना चाहिए। मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अपनी समस्याओं को पहचान पाऊँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! ...’ ... ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर और अपनी दशा पर विचार कर मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा बिल्कुल वैसी ही है जैसी परमेश्वर ने उजागर की है और मुझे शर्मिंदगी और बेचैनी महसूस हुई। कई वर्षों तक मैंने परमेश्वर पर विश्वास किया था और सत्य के लिए कोशिश करने के बजाय बाहरी कार्यों पर ध्यान दिया था, मुझे इन सत्यों की स्पष्ट समझ नहीं थी कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए किस प्रकार कार्य करता है। जब मैं बीमार पड़ गई तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव और भ्रामक, पक्षपातपूर्ण विचार और दृष्टिकोण सब उजागर हो गए। जब मैं स्वस्थ थी, मुझ पर कोई बीमारी या विपत्ति नहीं आई थी तो मैं किसी भी युवा की तरह हर दिन अपने कर्तव्य करती थी और मुझे बहुत खुशी होती थी। जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई एक के बाद एक कई बीमारियाँ आने लगीं और मुझे लगातार यह चिंता रहने लगी कि न जाने मैं कब बीमार पड़ जाऊँ और अपना कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाऊँ। मैं अक्सर बेचैन और निराश हो जाती, नकारात्मक भावनाओं में डूब जाती। बाद में जब मैं बीमार पड़ गई और अपने कर्तव्य नहीं कर पा रही थी तो मैं पूरी तरह से टूट गई और यहाँ तक कि परमेश्वर को भी गलत समझ बैठी, यह सोचने लगी कि परमेश्वर मुझे हटा देना चाहता है और अब वह मुझे नहीं बचाएगा, इसलिए मैं इससे उबर नहीं पा रही थी और नकारात्मक दशा में रहने लगी थी। अब मुझे समझ में आ गया कि भले ही मैं बूढ़ी और बीमार हूँ और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए बाहर नहीं जा पाती, लेकिन मेरा मन अभी भी साफ है, मैं अभी भी परमेश्वर के वचन समझ सकती हूँ और अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य खोज सकती हूँ। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में मुझे आस्था प्राप्त हुई। मैंने मन ही मन खुद से कहा कि जब तक मैं जीवित हूँ, मुझे सत्य की खातिर प्रयास करने के लिए इस सीमित अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अपने भीतर के पक्षपातपूर्ण और भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, जब मैं पहले अपने कर्तव्यों में खुद को खपाने योग्य थी तो मुझे लगता था कि मैंने वाकई सत्य का अनुसरण करती हूँ, लेकिन अब जबकि मैं बीमार पड़ गई हूँ तो मेरे मन में गलतफहमियां पैदा हो गई हैं और मैं नकारात्मकता के बोझ से दब गई हूँ। वास्तव में इसका क्या कारण है? मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं सबक सीख सकूँ।”

मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “परमेश्वर में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति केवल परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष और वादों को स्वीकारने के लिए तैयार है, और केवल उसकी दया और करुणा को स्वीकारना चाहता है। कोई भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, उसके परीक्षण और शोधन या उसके द्वारा वंचित किए जाने को स्वीकारने की प्रतीक्षा या तैयारी नहीं करता है; एक भी व्यक्ति परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, उसके द्वारा वंचित किए जाने या उसके शाप को स्वीकारने के लिए तैयारी नहीं करता है। लोगों और परमेश्वर के बीच यह रिश्ता सामान्य है या असामान्य? (असामान्य।) तुम इसे असामान्य क्यों कहते हो? इसमें कहाँ कमी रह जाती है? इसमें कमी यह है कि लोगों के पास सत्य नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, वे लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं और सत्य खोजकर इन चीजों को ठीक नहीं करते हैं—इससे समस्याएँ उत्पन्न होने की संभावना सबसे अधिक होती है। विशेष रूप से, लोग केवल आशीष पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे परमेश्वर के साथ बस सौदा करना चाहते हैं, उससे चीजों की मांग करते हैं, पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। यह बहुत ही खतरनाक है। जैसे ही उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत है तो उनमें तुरंत परमेश्वर को लेकर धारणाएँ, शिकायतें और गलतफहमियां विकसित हो जाती हैं और वे उसे धोखा देने की हद तक भी जा सकते हैं। क्या इसके परिणाम गंभीर होते हैं? ज्यादातर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हुए किस मार्ग पर चलते हैं? भले ही तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने होंगे और महसूस किया होगा कि तुम बहुत-से सत्यों को समझ गए हो, पर सच तो यह है कि तुम लोग अभी भी केवल भरपेट रोटियाँ खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चल रहे हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर ने मेरी वास्तविक दशा उजागर कर दी। बरसों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के पीछे मेरा खपना और कष्ट सहना, सब आशीष प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित थे। मैं अपने त्याग और खपने को राज्य में प्रवेश के लिए मोल-तोल के साधन मानती थी। मेरा मानना था कि मैं जितना अधिक कष्ट सहूँगी, जितनी अधिक कीमत चुकाऊँगी और जितने अधिक अच्छे कर्म तैयार करूँगी, मैं उतनी ही अधिक बचाए जाने के योग्य बन पाऊँगी। इसलिए मैंने अपने कर्तव्यों में कष्ट सहने और खपने पर ध्यान दिया, लेकिन जब मैं बीमार पड़ गई और अपने कर्तव्य निर्वहन में असमर्थ हो गई तो अचानक मेरी हालत खराब गई। इसने मुझे वाकई बेनकाब कर दिया कि मैं सही मायने में क्या हूँ। जब कुछ प्राप्त करने को था तो मैंने पाया कि मैं सब-कुछ दर-किनार करने, कष्ट सहने, कीमत चुकाने और खुद को खपाने में सक्षम हूँ, लेकिन जब मैंने देखा कि आशीष पाने की मेरी आशा खत्म हो गई है तो मैं हार मान बैठी और पल भर में ही मेरी सारी गलतफहमियाँ और शिकायतें सामने आ गईं। मैंने देखा कि मैं अपना कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने के लिए कर रही थी, मैं अपने प्रयासों, कष्टों और खपने को परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के साधन के रूप में ले रही थी। मैं सचमुच घृणित थी! मैंने जो किया उससे न केवल परमेश्वर को मुझसे अत्यंत चिढ़ और घृणा हुई बल्कि इससे मुझे भी खुद से नफरत होने लगी। मेरे जैसा व्यक्ति परमेश्वर के उद्धार का हकदार नहीं था! परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे पता चला कि मैं अपनी आस्था में गलत रास्ते पर थी और अगर मैंने पश्चात्ताप न किया तो मेरी असफलता निश्चित थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “परमेश्वर में विश्वास करना अनुग्रह या परमेश्वर की सहनशीलता और दया प्राप्त करने के बारे में नहीं है। फिर वह किस बारे में है? वह बचाए जाने के बारे में है। तो, उद्धार का चिह्न क्या है? परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या हैं? बचाए जाने के लिए किस चीज की आवश्यकता है? व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव के समाधान की। यही इस मामले का मूल बिंदुहै। इसलिए, अंततः, पूर्ण विचार करने के बाद, चाहे तुमने कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो, या तुम कितने भी सच्चे विश्वासी होने का दावा करो—अगर, अंत में, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल भी समाधान नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। या यह कहा जा सकता है कि चूँकि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह है कि तुमने उद्धार के मार्ग पर बिल्कुल भी कदम नहीं रखा है; इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है और मनुष्य को बचाने के लिए वह जो भी कार्य करता है, उसने तुममें कुछ भी हासिल नहीं किया है, उसके द्वारा तुम कोई गवाही देने में सक्षम नहीं हुए, और वह तुम्हारे भीतर कोई परिणाम नहीं लाया है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि उद्धार इस बात से नहीं मापा जाता कि कोई कितने रास्तों पर चला है या उसने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। कोई कितने भी रास्तों पर चला हो या उसने कितने भी कष्ट सहे हों, अगर उसका स्वभाव नहीं बदला है तो उसे बचाया नहीं जा सकता और आखिरकार उसे हटा दिया जाएगा। इंसान सत्य का अनुसरण करके और अपने स्वभाव को बदलकर ही परमेश्वर की स्वीकृति पा सकता है। पहले मुझे लगता था कि मैं जितना अधिक कर्तव्य निभाऊँगी और जितना अधिक कष्ट सहूँगी, मेरे उद्धार की संभावना उतनी ही अधिक होगी। इसलिए मैं केवल बाहरी कार्य करने, खुद को खपाने और कष्ट सहने पर ही ध्यान देती थी, यह सोचती थी कि अगर मैंने ये चीजें कीं तो मुझे उद्धार प्राप्त हो जाएगा, यहाँ तक सोचती थी कि मेरा लक्ष्य सही है। मुझे एहसास हुआ कि मेरे विचार वाकई विकृत हैं। जब मैं बीमार पड़ी तो मैंने अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य नहीं खोजा बल्कि परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमियाँ और शिकायतें पाल लीं और नकारात्मकता की दशा में जीने लगी। सत्य न खोजने की मेरी कमी के कारण चाहे मैं कितने भी रास्तों पर चली या मैंने कितने भी कष्ट सहे, अगर मेरे जीवन का स्वभाव नहीं बदला तो मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी। परमेश्वर लोगों को अपने कर्तव्य करने का जो अवसर देता है उसका उद्देश्य उन्हें अपने कर्तव्यों के दौरान जीवन प्रवेश पर ध्यान देने में सक्षम बनाना है ताकि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनें और अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए निरंतर आत्मचिंतन करते रहें और सत्य खोजते रहें। केवल इन कार्यों को करने से ही लोग परमेश्वर से उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना जिसका शीर्षक था “परमेश्वर की इच्छा है कि मानवजाति सत्य का अनुसरण करे और जीवित रहे” :

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3  इसलिए जहाँ तक हर व्यक्ति का संबंध है, तो चाहे तुम्हारी जो भी काबिलियत या उम्र हो या तुम जितने भी समय से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हो, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की ओर प्रयास करने चाहिए। तुम्हें किसी भी वस्तुगत बहाने पर जोर नहीं देना चाहिए; तुम्हें बिना शर्त सत्य का अनुसरण करना चाहिए। लापरवाही मत करो। मान लो कि तुम सत्य खोजने को अपने जीवन का प्रधान मामला बना लेते हो और इसके लिए जूझते और प्रयास करते हो, और शायद अनुसरण से तुम जो सत्य पाते हो और जिस सत्य तक पहुँचते हो वे तुम्हारी इच्छा के अनुरूप न हों, लेकिन परमेश्वर कहता है कि वह सत्य के अनुसरण में तुम्हारे रवैये और तुम्हारी ईमानदारी के आधार पर तुम्हें एक उचित मंजिल देगा—तो यह कितनी अद्भुत बात रहेगी!

4  अभी इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या होगा और क्या बदा है, या क्या तुम विपत्ति से बचने और प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनके बारे में आग्रह करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करो और सत्य का अनुसरण शुरू करो, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाओ, परमेश्वर के इरादे पूरे करो और परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा को निराश मत करो। परमेश्वर को थोड़ी दिलासा दो; उसे देखने दो कि तुमसे आशा है और स्वयं में उसकी इच्छाएँ साकार होने दो। मुझे बताओ, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करेगा? भले ही अंतिम परिणाम व्यक्ति की कामना के अनुरूप न हों, तो भी उसे एक सृजित प्राणी के रूप में बिना किसी निजी योजना के हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। यह मानसिकता सही है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सत्य का अनुसरण मानव जीवन की बहुत बड़ी बात है। कोई भी दूसरी चीज सत्य के अनुसरण जितनी महत्वपूर्ण नहीं है, और सत्य प्राप्त करने से बढ़कर मूल्यवान कोई चीज नहीं है। क्या आज तक परमेश्वर का अनुसरण करना आसान रहा है? जल्दी करो, और सत्य के अनुसरण को महत्व दो! अंत के दिनों के कार्य का यह चरण परमेश्वर की छह हजार वर्ष की प्रबंधन योजना में लोगों पर किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य का चरण है। सत्य का अनुसरण वह सबसे बड़ी उम्मीद है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से रखता है। उसे उम्मीद है कि लोग सही मार्ग पर चलेंगे, जो सत्य के अनुसरण का मार्ग है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मुझे परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों का एहसास हुआ और यह सचमुच मेरे दिल को छू गया। मैं पश्चात्ताप और अपराध-बोध के आँसू बहाने लगी। जब मैं परमेश्वर में बरसों अपनी आस्था के समय को याद करती हूँ तो देखती हूँ कि मैंने परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने पर ध्यान नहीं दिया था बल्कि केवल बाहरी कार्य पर ध्यान दिया था और मेरे जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था। परमेश्वर ने अनुग्रहपूर्वक मुझे अपने कर्तव्य पूरे करने का अवसर दिया ताकि मैं अपने कर्तव्यों के दौरान सत्य और जीवन प्रवेश का अनुसरण करूँ, लेकिन मैं भटक गई और अपने कर्तव्यों का उपयोग करके परमेश्वर से सौदेबाजी करने लगी। मुझमें जमीर या विवेक किस तरह था? मैं अपने परिणाम और गंतव्य पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। चाहे परमेश्वर मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे या मेरा परिणाम अच्छा हो या नहीं, मुझे ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हुए परमेश्वर के हृदय को सुकून देने के लिए पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य निभाना था। बाद में जब मेरा स्वास्थ्य थोड़ा बेहतर हुआ तो मैंने मेजबानी के कर्तव्य निभाने शुरू कर दिए।

इसके बाद सीसीपी द्वारा किए गए भयंकर उत्पीड़न और गिरफ्तारियों के कारण अब मैं मेजबानी का कर्तव्य नहीं कर सकती थी। मैं खोई-खोई सी महसूस करने लगी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि भले ही मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँ, मैं अब भी घर पर स्वतंत्र रूप से परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का अभ्यास कर सकती हूँ और उन पर मनन करने में अधिक समय दे सकती हूँ और मैं अनुभवजन्य गवाही लेख भी लिख सकती हूँ, सत्य खोज सकती हूँ और आत्मचिंतन कर सकती हूँ। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे सबक थे जिन्हें मैं घर पर ही सीख सकती थी। पहले अंतिम निर्णय हमेशा मैं लेना चाहती थी, अपनी रुतबे के अनुसार बोलना चाहती थी और जब कुछ घटित हो जाता तो उस पर बहस करना चाहती थी जिसमें मेरा अहंकारी स्वभाव शामिल होता था जिसका मुझे समाधान करने की जरूरत थी। इसलिए मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और आत्मचिंतन किया और जब मेरे साथ कुछ घटा तो मैंने सचेत रहकर समर्पण किया और सबक सीखा, खुद को दर-किनार कर दूसरों के मार्गदर्शन को स्वीकार करना सीखना। अब मैं बूढ़ी हो चुकी हूँ और कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकती। लेकिन परमेश्वर कहता है : “क्या आज तक परमेश्वर का अनुसरण करना आसान रहा है? जल्दी करो, और सत्य के अनुसरण को महत्व दो! अंत के दिनों के कार्य का यह चरण परमेश्वर की छह हजार वर्ष की प्रबंधन योजना में लोगों पर किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य का चरण है। सत्य का अनुसरण वह सबसे बड़ी उम्मीद है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से रखता है। उसे उम्मीद है कि लोग सही मार्ग पर चलेंगे, जो सत्य के अनुसरण का मार्ग है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के वचन मुझे प्रेरित करते हैं और मैं सत्य खोजने की कोशिश करने को तैयार हूँ। क्योंकि जब तक मैं जीवित हूँ सत्य का अनुसरण करती रहूँगी और पूरी लगन से परमेश्वर का अनुसरण करूँगी!

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