20. बीमारी को लेकर अपनी चिंताएँ और फिक्र छोड़ देना
अप्रैल 2024 में मेरा सिरदर्द बढ़ गया, जब मैं सुबह उठती तो मेरे सिर में सूजन और पीड़ा महसूस होनी शुरू हो जाती थी, जिससे मुझे धुंधलापन और थोड़ा चक्कर आने जैसा महसूस होता। रात में मेरी बाहें और हाथ अक्सर सुन्न लगने लगते थे और मेरी गर्दन में भी इतना दर्द होता कि मैं अपना सिर नहीं घुमा पाती। मैंने सोचा, “मुझे पहले भी सिरदर्द होते थे, लेकिन सुबह तक आमतौर पर ठीक हो जाते थे। हाल ही में जब मैं उठती हूँ तो मेरा सिर इतना सूजा हुआ और भारी क्यों महसूस हो रहा है?” मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और डॉक्टर ने कहा कि मेरे मस्तिष्क में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति है और मेरा रक्तचाप भी बढ़ा हुआ है। यह बुजुर्गों के लिए एक आम जानलेवा बीमारी है और अगर इसका इलाज न किया जाए तो यह जानलेवा हो सकती है। डॉक्टर ने मुझे तुरंत पीने के लिए एक दवा दी। मैंने थोड़ी घबराहट के साथ दवा ले ली और सोचने लगी, “क्या यह वाकई इतना गंभीर है? यह कैसे हो सकता है? क्या यह डॉक्टर मुझे डराने की कोशिश कर रहा है? इसके अलावा मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और वह मेरी देखरेख और सुरक्षा कर रहा है!” इसलिए मैंने बस कुछ दवाएँ ही लीं।
कुछ समय बाद मेरे सिरदर्द में कोई सुधार नहीं हुआ। मैंने ऑनलाइन कुछ जानकारी खोजी और पाया कि अगर उच्च रक्तचाप बिगड़ जाता है तो यह ब्रेन हैमरेज का कारण बन सकता है, मस्तिष्क में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति से इस्केमिक स्ट्रोक भी हो सकता है। इस बीमारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। यह देखने के बाद मेरे दिल में बेचैनी की लहर दौड़ गई। उस दौरान मुझे लगातार चक्कर आते रहते थे और दिमाग में धुंधलापन महसूस होता था। मैं हमेशा उनींदी भी रहती थी और मुझमें कभी कोई ऊर्जा नहीं होती थी। यहाँ तक कि मेरी टाइपिंग की गति भी बहुत धीमी हो गई और मेरी प्रतिक्रियाएँ भी धीमी हो गईं। मुझे याद आया कि जब मैं आठ साल की थी तो मेरे पिता को ब्रेन हैमरेज हुआ था। जब वे बीमार पड़े तो पहले उन्हें सिरदर्द हुआ, कुछ दिनों बाद उनमें मनोभ्रंश के लक्षण दिखने लगे और उन्हें हाथ-पैर सुन्न महसूस होने लगे। कुछ और दिन बाद मस्तिष्क आघात के कारण वे एक तरफ से लकवाग्रस्त हो गए। कई महीनों के इलाज के बावजूद उनका निधन हो गया। मेरी चिंताएँ और परेशानियाँ अचानक उभर आईं और मैं सोचने लगी, “क्या मुझे भी अपने पिता की तरह मस्तिष्क आघात पड़ने वाला है? अगर मुझे मस्तिष्क आघात पड़ गया तो क्या यह मेरे लिए अंत नहीं होगा? तब मैं सत्य का अनुसरण कैसे करूँगी और अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? अगर मैं अपने पिता की तरह एक तरफ से लकवाग्रस्त हो गई तो मैं न केवल अपना कर्तव्य नहीं कर पाऊँगी, बल्कि किसी दिन मेरी जान भी जा सकती है। इतने साल तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद क्या मैं उद्धार से वंचित नहीं रह जाऊँगी? मैं लगभग 60 साल की हूँ, मुझे संधिवात गठिया, गर्दन और निचली रीढ़ की हड्डी जैसी पुरानी बीमारियाँ हैं। मैं कई कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ, लेकिन इतना कुछ करने के लिए होने के साथ अगर मैं खुद पर तनाव डालती रही तो क्या मेरी हालत और खराब हो जाएगी?” फिर मुझे कोई याद आया जिसके साथ मैं युवावस्था में काम करती थी जो भविष्य बताता था। उसने मेरा हाथ पढ़ा था और कहा था कि मैं 60 साल की उम्र में एक बीमारी से मर जाऊँगी। मैंने उस समय इसे गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन जैसे ही मैं उस उम्र के करीब पहुँची, क्या यह वाकई सच हो सकता है कि मैं केवल 60 साल तक ही जीवित रहूँ? मुझे लगा कि अगर मैं सच में मर गई तो मैं परमेश्वर के राज्य की सुंदरता की गवाह नहीं बन पाऊँगी। उन दिनों मैं इन विचारों से बहुत बाधित और व्यथित थी और यहाँ तक कि शिकायत भी करती थी, “मैं इतने वर्षों से अपनी बीमारियों के साथ भी अपना कर्तव्य निभा रही हूँ; परमेश्वर ने मेरी बीमारी दूर क्यों नहीं की है?” मैं जितना इसके बारे में सोचती, उतनी ही हताश होती जाती। इसलिए मैंने अपनी नींद का समय बदला और जितना हो सके आराम करने की कोशिश करती थी। मैं व्यायाम भी करती थी और अपने इलाज के पूरक के बतौर घरेलू उपचारों की तलाश करती थी। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे विचार पूरी तरह से मेरे शरीर की देखभाल पर केंद्रित हो गए और मुझे अब अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व का एहसास नहीं होता था। मुझे बस यह चिंता रहती थी कि ज्यादा काम करने से सचमुच मेरी मौत हो जाएगी। चूँकि मैं काम का अनुवर्तन बहुत धीरे-धीरे कर रही थी, सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता धीरे-धीरे कम हो गई, फिर भी मुझे समस्याओं को हल करने की कोई तात्कालिकता महसूस नहीं हुई, नतीजतन कई कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य लगभग रुक गया। मैंने यह भी सोचा, “मैं बूढ़ी हो रही हूँ और मुझे बहुत सारी बीमारियाँ हैं। शायद मुझे अगुआओं को बता देना चाहिए कि मैं अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर जा रही हूँ, ताकि अगर मेरी हालत खराब हो जाए तो मेरी देखभाल के लिए मेरा परिवार हो।” बाद में मेरी निगरानी में काम करने वाले कई सुसमाचार कार्यकर्ताओं की दशाएँ खराब थीं और सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता लगातार घटती जा रही थी। मुझे थोड़ा डर लगा, मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है और फिर मैं तुरंत प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “परमेश्वर, चूँकि मुझे मस्तिष्क में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति और उच्च रक्तचाप का पता चला है, मुझे डर है कि मुझे मस्तिष्क आघात हो सकता है और मैं लकवाग्रस्त हो सकती हूँ और ठीक पिता की तरह ही मेरी मृत्यु हो सकती है। इस वजह से मैंने अपने कर्तव्यों के लिए प्रयास करना या तनाव नहीं लेना चाहा, जिससे सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में गंभीर गिरावट आई। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने और बीमारी के बारे में अपनी चिंताएँ और परेशानियाँ हल करने के लिए सत्य खोजने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।”
बाद में मैंने सचेत रूप से बीमारी पर परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए खोजे। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? अगर हाँ तो क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “हालाँकि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु मानवजाति के लिए शाश्वत हैं और जीवन में इनसे बचा नहीं जा सकता, फिर भी एक विशेष शारीरिक गठन या खास बीमारी वाले कुछ लोग होते हैं, जो अपना कर्तव्य निभाएँ या नहीं, देह की मुश्किलों और बीमारियों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं; वे अपनी बीमारियों के बारे में चिंता करते हैं, उन तमाम मुश्किलों के बारे में चिंता करते हैं जो उनकी बीमारी उन्हें दे सकती है, कहीं उनकी बीमारी गंभीर न हो जाए, गंभीर हो गई तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे, और क्या इससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। खास हालात और कुछ संदर्भों में सवालों के इस सिलसिले से वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते; कुछ लोग तो पहले से जानते हुए कि उन्हें यह गंभीर बीमारी है या ऐसी छिपी हुई बीमारी है जिससे बचने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते, संताप, व्याकुलता और चिंता की दशा में ही जीते हैं, और वे इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं, चोट खाते हैं और नियंत्रित होते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने जिसे उजागर किया, वह हूबहू मेरी ही दशा थी। मैंने देखा कि मुझे बहुत-सी बीमारियाँ थीं, डॉक्टर ने यह भी कहा कि मुझे जानलेवा बीमारी है और मैंने पाया कि दवा से कोई मदद नहीं मिल रही थी। नतीजतन मैं लगातार चिंता और परेशानी की दशा में जी रही थी, मैंने अपने सारे विचार अपने शरीर की देखभाल पर केंद्रित कर दिए थे। मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति अब दायित्व का एहसास नहीं रहा और मैं प्रयास करने या त्याग करने को तैयार नहीं थी। मुझे डर था कि मैं जितना अधिक प्रयास करूँगी, मस्तिष्क में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति और उच्च रक्तचाप की मेरी हालत उतनी ही खराब हो जाएगी, अगर मुझे इस्केमिक स्ट्रोक हो गया तो मैं अपने कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। उस दौरान मुझे हर दिन अपनी बांहों और हाथों में सुन्नपन महसूस होता था, मुझे चिंता थी कि अगर ये लक्षण और बिगड़ गए तो मैं अपने पिता की तरह एक तरफ से लकवाग्रस्त हो जाऊँगी और अंत में मर भी जाऊँगी। भले ही मैं न मरूँ और कोमा जैसी हालत में पहुँच जाऊँ तो भी मैं अपने कर्तव्य कैसे निभा पाऊँगी, बचाए पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए अच्छे कर्म कैसे तैयार कर पाऊँगी? मुझे यह भी याद आया कि जब मैं छोटी थी तो किसी ने मेरा भविष्य बताया था और कहा था कि मैं 60 साल की उम्र में बीमारी से मर जाऊँगी, अब जब मैं 60 के करीब पहुँच रही थी तो मुझे और भी चिंता थी कि क्या मैं सच में मर जाऊँगी। मैं चिंता और परेशानी की दशा में जी रही थी और मेरा ध्यान अपने कर्तव्यों पर केंद्रित नहीं था। जब मेरे काम में समस्याएँ पैदा हुईं तो मुझे उन्हें हल करने की कोई तात्कालिकता महसूस नहीं हुई, जिससे सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में भारी गिरावट आई। मैं अपनी चिंताओं और परेशानियों को दूर करने के लिए सत्य खोजने को शीघ्र ही परमेश्वर के सामने आई।
मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब तुम बीमार पड़ते हो, तो यह तुम्हारी सभी नावाजिब माँगों और परमेश्वर के प्रति अवास्तविक कल्पनाओं और धारणाओं का खुलासा करने के लिए होता है, यह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी होता है। अगर तुम इन चीजों की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की सच्ची गवाही और असली प्रमाण है। परमेश्वर यही चाहता है, एक सृजित प्राणी के पास यह होना चाहिए और उसे इसे जीना चाहिए। क्या ये सारी चीजें सकारात्मक नहीं हैं? (जरूर हैं।) लोगों को इन सभी चीजों का अनुसरण करना चाहिए। इसके अलावा, अगर परमेश्वर तुम्हें बीमार पड़ने देता है, तो क्या वह कभी भी कहीं भी तुमसे तुम्हारा रोग ले नहीं सकता? (जरूर ले सकता है।) परमेश्वर कभी भी कहीं भी तुम्हारा रोग तुमसे ले सकता है, तो क्या वह ऐसा नहीं कर सकता कि तुम्हारा रोग तुममें बना रहे और तुम्हें कभी न छोड़े? (जरूर कर सकता है।) अगर परमेश्वर ऐसा कुछ करता है कि यह रोग तुम्हें कभी न छोड़े, तो क्या तब भी तुम अपना कर्तव्य निभा पाओगे? क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था रख पाओगे? क्या यह परीक्षा नहीं है? (हाँ है।) अगर तुम बीमार पड़कर कई महीने बाद ठीक हो जाओ, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की परीक्षा नहीं होती, और तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती। कुछ महीने तक रोग सहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हारा रोग दो-तीन साल चले, और तुम्हारी आस्था और परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित बने रहने की तुम्हारी कामना बदलने के बजाय और सच्ची हो जाए, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम जीवन में विकसित हो चुके हो? क्या तुम्हें इसका फल नहीं मिलेगा? (हाँ।) तो सत्य का सच्चा अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति बीमार होने पर अपने रोग से आए विविध लाभों से गुजर कर उनका खुद अनुभव करता है। वह व्याकुल होकर अपने रोग से बच निकलने की कोशिश नहीं करता, न ही चिंता करता है कि रोग के लंबा खिंचने पर नतीजा क्या होगा, उसके कारण कौन-सी समस्याएँ पैदा होंगी, कहीं रोग बदतर तो नहीं हो जाएगा, या कहीं वह मर तो नहीं जाएगा—वह ऐसी चीजों के बारे में चिंता नहीं करता। ऐसी चीजों की चिंता न करने के साथ-साथ ऐसे लोग सकारात्मक रूप से प्रवेश कर पाते हैं, परमेश्वर में सच्ची आस्था रखकर उसके प्रति समर्पित और वफादार रह पाते हैं। इस तरह अभ्यास करके, वे गवाही हासिल कर पाते हैं, यह उन्हें उनके जीवन-प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन में बड़ा लाभ प्रदान करता है, और यह उनकी उद्धार-प्राप्ति की ठोस बुनियाद बना देता है। यह कितना अद्भुत है!” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। “परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैं परमेश्वर का इरादा समझ गई। परमेश्वर मुझे बीमारी से गुजार रहा था, चाहे इस हालत से ठीक होने में लंबा समय लगे या कम और भले ही परमेश्वर मुझे ठीक करे या न करे, परमेश्वर यह देखना चाहता था कि मेरी बीमारी में मेरे अंदर सच्चा समर्पण है या नहीं। परमेश्वर यह जाँचना चाहता था कि मेरी अपने कर्तव्यों में वफादारी है या नहीं, इससे भी महत्वपूर्ण बात, वह मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करना और बदलना चाहता था। लेकिन जब मैंने डॉक्टर को यह कहते सुना कि मुझे एक जानलेवा बीमारी है, मैं तुरंत चिंता और परेशानी की दशा में पड़ गई। मुझे डर था कि मेरी बीमारी और बिगड़ सकती है या आंशिक पक्षाघात तक हो सकता है, मुझे डर था कि अगर मेरी हालत खराब हो गई और मैं मर गई तो मुझे बचाया नहीं जाएगा और मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी। मुझमें न केवल परमेश्वर के प्रति आस्था और समर्पण की कमी थी, बल्कि मैंने परमेश्वर से परीक्षण और तर्क-वितर्क करने के लिए अपने घर छोड़कर कर्तव्य निभाने को सौदेबाजी के रूप में इस्तेमाल किया। मैंने परमेश्वर से अपनी बीमारी दूर न करने की शिकायत की और यहाँ तक कि मैंने हाथ में मौजूद कलीसिया का काम छोड़कर घर पर अपना कर्तव्य निभाने के बारे में भी सोचा। मुझमें परमेश्वर के प्रति किस तरह का समर्पण या वफादारी थी? जब मुझे पहले थोड़े समय के लिए हल्का सिरदर्द होता था, तब भी मैं अपने कर्तव्यों में लगे रहने में सक्षम थी और मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के प्रति काफी वफादार हूँ, लेकिन जब मैंने इस साल अपनी हालत की जाँच कराई और पाया कि अगर इसका इलाज न किया गया तो यह घातक हो सकती है, तो मैं अपने कर्तव्यों में त्याग नहीं करना चाहती थी और मैं अपने कर्तव्यों में सुस्त और लापरवाह हो गई, जिससे कई कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य में गंभीर रूप से देरी हो गई। मैंने देखा कि मैं कितनी स्वार्थी और घिनौनी हो गई थी और मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण की कितनी कमी थी। इस बीमारी ने मुझे पूरी तरह से बेनकाब कर दिया और अगर यह मुझ पर न आई होती तो मैंने बेशर्मी से अपने सिर पर परमेश्वर के प्रति वफादारी और समर्पण का ताज रख लिया होता। परमेश्वर मुझे शुद्ध करने और बचाने के लिए मेरी बीमारी का उपयोग कर रहा था। यह बीमारी परमेश्वर द्वारा मेरे लिए रखी गई एक शानदार दावत थी! परमेश्वर का इरादा समझकर मेरे दिल को बहुत सहजता महसूस हुई। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, चाहे मेरी बीमारी सुधरे या बिगड़े, मैं अपनी चिंताओं और परेशानियों को एक तरफ रखकर तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की इच्छुक हूँ और जल्दी से अपने कर्तव्यों में अपना दिल लगाने को तैयार हूँ। तुम मुझे आत्म-चिंतन करने और सबक सीखना जारी रखने के लिए मेरी अगुआई करो।”
मैंने फिर से आत्म-चिंतन किया। मैंने खुद से पूछा कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद जब मेरी बीमारी में कोई सुधार नहीं हुआ, तो मैं परमेश्वर में आस्था क्यों खो रही हूँ और अपने कर्तव्यों में कोई प्रेरणा क्यों नहीं पा रही हूँ। अपने चिंतन में मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “तुम लोगों की निष्ठा सिर्फ वचन में है, तुम लोगों का ज्ञान सिर्फ सोच और धारणाओं का है, तुम लोगों की कड़ी मेहनत सिर्फ स्वर्ग की आशीष पाने के लिए है और इसलिए तुम लोगों का विश्वास किस प्रकार का होना चाहिए? आज भी, तुम लोग सत्य के प्रत्येक वचन को अनसुना कर देते हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को फिर से बना चुका होगा)। मेरे घृणित इरादों पर परमेश्वर के वचन वास्तव में सटीक निशाने पर लगे थे। ऐसा लगता था कि मैं कई साल से अपने कर्तव्य निभा रही थी, त्याग कर रही थी और खुद को खपा रही थी, लेकिन अंदर ही अंदर मेरा इरादा आशीषें पाने का था। मैंने सोचा कि चूँकि मैं इन सभी वर्षों में बीमार रहते हुए भी अपने कर्तव्यों में लगी रही थी तो भले ही मेरा कोई योगदान न हो, कम से कम मैंने कड़ी मेहनत तो की ही थी, मैंने इन चीजों का स्वर्ग के राज्य के आशीषों के लिए परमेश्वर से मोलभाव करने हेतु पूँजी के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी। जब मैंने देखा कि मेरी हालत पक्षाघात या फिर मृत्यु तक पहुँच सकती है और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की मेरी आशाएँ टूटने वाली हैं तो परमेश्वर से विश्वासघात करने की मेरी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो गई। मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व की भावना कम होने लगी और मेरा मन अपनी बीमारी के लिए घरेलू उपचार खोजने पर केंद्रित हो गया। मैं सुसमाचार कार्य की घटती प्रभावशीलता को हल करने की जहमत नहीं उठाना चाहती थी, बस इस बात से डरती थी कि अगर मैंने बहुत ज्यादा मेहनत की और मर गई तो मुझे स्वर्ग के राज्य की आशीषें नहीं मिलेंगी। यहाँ तक कि मैंने अपनी पिछली योजना पर भी विचार किया और हाथ में मौजूद काम छोड़कर घर जाने के बारे में सोचा। मैंने देखा कि मुझमें सचमुच कोई वफादारी नहीं थी और मैं अपने कर्तव्य सिर्फ आशीषें पाने के लिए कर रही थी। अगर इस बीमारी के चलते मैं बेनकाब न हुई होती तो मुझे अपनी आस्था में आशीषें खोजने के अपने घिनौने इरादों या अनुचित माँगों का पता न चलता, जो मैं परमेश्वर से कर रही थी। मेरे जैसे भ्रष्ट स्वभावों से भरे व्यक्ति का अभी भी राज्य में प्रवेश करने की इच्छा रखना और परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेना वाकई शर्मनाक था! मैंने ऋणी और दोषी महसूस किया। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और अपने कर्तव्य निभाना पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। मैंने परमेश्वर से सत्य के इतने प्रावधान का आनंद लिया था, इसलिए मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए बिना शर्त अपने कर्तव्य निभाने चाहिए।
बाद में परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे मृत्यु की और अधिक स्पष्ट समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला और इसका फैसला किया जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है। मृत्यु के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का सामना करते समय लोगों को संतप्त नहीं होना चाहिए, फिक्र नहीं करनी चाहिए और डरना नहीं चाहिए, फिर क्या करना चाहिए? लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए, है ना? (हाँ।) सही? क्या प्रतीक्षा का अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना है? मृत्यु सामने होने पर मृत्यु की प्रतीक्षा करना? क्या यह सही है? (नहीं, लोगों को सकारात्मक होकर इसका सामना करना चाहिए, समर्पण करना चाहिए।) यह सही है, इसका अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है। मृत्यु से बुरी तरह भयभीत मत हो, अपनी पूरी ऊर्जा मृत्यु के बारे में सोचने में मत लगाओ। सारा दिन यह मत सोचते रहो, ‘क्या मैं मर जाऊँगा? मेरी मृत्यु कब होगी? मरने के बाद क्या करूँगा?’ बस, इस बारे में मत सोचो। कुछ लोग कहते हैं, ‘इस बारे में क्यों न सोचूँ? जब मरने ही वाला हूँ, तो क्यों न सोचूँ?’ चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। “तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और कहते हो कि तुम उसमें विश्वास रखते हो, मगर साथ-ही-साथ तुम अंधविश्वासों द्वारा नियंत्रित और बाधित हो रहे हो। तुम उन विचारों का अनुसरण करने में भी सक्षम हो जो अंधविश्वासों द्वारा लोगों के भीतर बैठाए जाते हैं, और इससे भी ज्यादा गंभीर, तुममें से कुछ लोग अंधविश्वासों से जुड़े इन विचारों और तथ्यों से डरते भी हो। यह परमेश्वर के विरुद्ध सबसे बड़ी ईशनिंदा है। न सिर्फ तुम परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ हो, बल्कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता का प्रतिरोध करने में शैतान का अनुसरण भी कर रहे हो—यह परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों के न्याय ने मुझे भयभीत कर दिया। मैंने सोचा कि हाल ही में मेरी हालत कैसे बिगड़ गई थी और डॉक्टर ने कहा था कि मुझे एक जानलेवा बीमारी है और मुझे याद आया कि एक हस्तरेखाविद् ने एक बार कहा था—कि मैं 60 साल की उम्र में बीमारी से मर जाऊँगी, मैंने तुरंत खुद को चिंता और परेशानी की दशा में जीते हुए पाया। मुझे डर था कि मैं सच में मर सकती हूँ और इसलिए मैंने इस बीमारी से जल्दी छुटकारा पाने की उम्मीद में हर तरह के इलाज की कोशिश की। अब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं सच में अंधी और अज्ञानी थी! मेरा जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में हैं और मैं कब और कैसे मरूँगी, यह सब परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। चाहे मैं बीमार पड़ूँ या न पड़ूँ, जब मेरा पूर्वनियत समय आएगा तो भले ही बीमार न होऊँ, मैं मर जाऊँगी। लेकिन अगर मैं पूर्वनियत समय तक नहीं पहुँची हूँ, भले ही मुझे कोई गंभीर बीमारी हो जाए, मैं नहीं मरूँगी। लेकिन मैंने परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता को नहीं समझा और मैं एक हस्तरेखाविद् की कही बातों से प्रभावित और बाधित थी, डरती थी कि उसने जो कहा वह वास्तव में सच हो जाएगा। मेरे दिल में परमेश्वर का स्थान कहाँ था? क्या मैं इसमें परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता से इनकार नहीं कर रही थी? यह परमेश्वर की ईशनिंदा थी! मैं सचमुच भ्रमित थी और यहाँ तक कि खुद को थप्पड़ मारना चाहती थी। मैंने अपने पिता के बारे में सोचा, जिन्होंने इलाज पर बहुत पैसा खर्च किया था लेकिन अपनी बीमारी का उपचार नहीं कर पाए। उनका 40 साल की उम्र में निधन हो गया। वह उनकी नियति थी। जब उनका पूर्व-नियत समय आया तो कोई उन्हें जीवित नहीं रख सका। इसके विपरीत मैंने यह भी देखा है कि एक बहन के दादा को 10 साल से अधिक समय तक कैंसर था। डॉक्टरों ने कहा कि वे ज्यादा समय तक नहीं जिएँगे, लेकिन बीमारी का पता चलने के बाद भी वह कई साल तक बिना इलाज के जीवित रहे। 70 से अधिक उम्र में भी वे नियमित रूप से बाजार जाते थे। हालाँकि मुझे कई बीमारियाँ हैं, चाहे मेरी हालत बिगड़ जाए, चाहे वे मस्तिष्क आघात या यहाँ तक कि पक्षाघात और मृत्यु में बदल जाएँ, ये ऐसी चीजें हैं जिनकी मैं भविष्यवाणी या उन पर नियंत्रण नहीं कर सकती। लेकिन मैंने खुद को चिंता और फिक्र में फँसा हुआ महसूस किया और मुझे अपने कर्तव्य निभाने का बिल्कुल दिल नहीं था। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं थी? चाहे मैं जीऊँ या मरूँ, मुझे परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, मुझे उन चीजों के बारे में चिंता या परेशान नहीं होना चाहिए, जिनकी मैं भविष्यवाणी या जिन पर नियंत्रण नहीं कर सकती। यह देखते हुए कि मेरा दिमाग अभी भी सामान्य रूप से काम करता है और मुझमें अभी भी अपने कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, मुझे जल्दी से अपनी दशा बदलनी थी, अपनी मानसिकता को समायोजित करना था, अपने कर्तव्यों में अपना दिल लगाना था, सुसमाचार कार्य में मुद्दे हल करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करना था, भाई-बहनों की नकारात्मक दशाएँ हल करनी थीं, उन्हें सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए प्रेरित करना था और परमेश्वर के प्रकटन के लिए प्यासे अधिक लोगों को उसका उद्धार प्राप्त करने के लिए उसके घर लाना था। इस तरह भले ही मैं मर जाती हूँ, तो मुझे कोई पछतावे नहीं होंगे।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। ... एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी योग्यता और क्षमता के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं करेंगे; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कलीसिया में, कुछ लोग अपनी सारी कोशिश सुसमाचार फैलाने में लगा देते हैं, अपने पूरे जीवन की ऊर्जा समर्पित करते हैं, बड़ी कीमत चुकाते और कई लोगों को जीतते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है, उसका मूल्य है और यह राहत देने वाला है। बीमारी या मृत्यु का सामना करते समय, जब वे अपने पूरे जीवन का सारांश निकालते हैं और उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जो उन्होंने कभी की थीं, जिस रास्ते पर वे चले, तो उन्हें अपने दिलों में तसल्ली मिलती है। उन्हें किसी आत्मनिंदा या पछतावे का अनुभव नहीं होता। ... मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है और इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने की समझ रखने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम अपनी सारी ऊर्जा लगाने, सभी कीमतें चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करोगे। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम, आजादी और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीना। इसका अर्थ है कि अपने दिल में तुम कुछ प्राप्त कर चुके होगे और सुकून महसूस करोगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में मैंने समझा कि एक व्यक्ति कैसे सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकता है और मेरे दिल को बहुत प्रोत्साहन मिला। मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई एक इंसान हूँ, लेकिन आज मुझे परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया गया है और मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकती हूँ, सुसमाचार का प्रचार करने और सृष्टिकर्ता की गवाही देने के लिए जीवित रह सकती हूँ और पीड़ा और अंधकार में जी रहे लोगों को परमेश्वर के पास ले जाकर उसका उद्धार प्राप्त करा सकती हूँ। यह कितनी मूल्यवान और सार्थक बात है! हम धूल से भी कम हैं, फिर भी परमेश्वर हम पर अनुग्रह करता है। हम परमेश्वर के इतने वचनों के प्रावधान का आनंद लेते हैं, इतने सारे सत्यों और रहस्यों को समझते हैं, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते हैं और परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं और महाविनाश से बच सकते हैं। यह कितना बड़ा आशीष है! अगर हम इस अकल्पनीय दुर्लभ अवसर से चूक गए तो यह बहुत बड़ा पछतावा होगा। अगर मैं सिर्फ अपने शरीर की देखभाल करती हूँ और अपने कर्तव्य में कोई प्रयास या त्याग नहीं करना चाहती तो भले ही मैं अपने शरीर को स्वस्थ कर लूँ, अगर मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया है और एक सृजित प्राणी का कार्य खो दिया है तो क्या मैं एक चलते-फिरते मुर्दे की तरह नहीं जी रही होऊँगी? आत्मा की पीड़ा कुछ ऐसी है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। उसके बाद मैंने जल्दी से सुसमाचार कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के इरादों की संगति दी, जब मैंने उनके सुसमाचार कार्य में समस्याएँ और विचलन पाए तो मैंने तुरंत समाधानों की संगति दी और सुसमाचार कार्य धीरे-धीरे सुधरने लगा। दो महीने बाद इन कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य के नतीजे दोगुने हो गए। उसके बाद मैंने दवा लेना बंद कर दिया, मेरा रक्तचाप सामान्य हो गया और मेरे सिर में अब भारीपन या दर्द महसूस नहीं होता था। जब काम में व्यस्तता नहीं होती तो मैं थोड़ा और आराम कर लेती, कभी-कभी जब काम में व्यस्तता होती और मुझे देर तक जागना पड़ता तो अगली सुबह जब मैं उठती तो मेरा सिर पहले की तरह सूजा हुआ और दर्दनाक महसूस नहीं होता था। मेरे हाथ और बांहों में भी रात में सुन्नपन महसूस होना बंद हो गया, मैं सचमुच परमेश्वर की आभारी थी।
बाद में मुझे उच्च अगुआओं से एक पत्र मिला, जिसमें मुझे एक दर्जन से अधिक कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य का अनुवर्तन करने की जिम्मेदारी लेने को कहा गया था। जब मैंने पत्र पढ़ा तो मैंने सोचा, “इतनी सारी कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य का जायजा लेने के लिए अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी, अधिक प्रयास और अधिक मानसिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। अगर मैं अपने दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल करूँगी तो क्या मेरी बीमारी फिर से उभर आएगी?” यह सोचने से मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा में कुछ गड़बड़ है। क्या मैं अभी-अभी अपनी बीमारी की चिंताओं और परेशानियों से बाहर नहीं आई थी? मैं फिर से चिंता क्यों कर रही थी? इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, समर्पण करने को तैयार हो गई। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम बोल और चल-फिर सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है और तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में अपने पैरों को मजबूती से जमीन पर जमाए हुए सभ्य होना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी, जब तक मैं जीवित हूँ, बोलने और चलने में सक्षम हूँ, मुझे आज्ञाकारी और जमीन से जुड़े रहना चाहिए और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करना चाहिए। इसके बारे में सोचकर कि इस समय तक मेरी बीमारियाँ मूल रूप से ठीक हो गई थीं और हालाँकि काम का बोझ थोड़ा भारी था, मैं अपनी दिनचर्या को उचित रूप से व्यवस्थित कर सकती थी, भले ही भविष्य में मेरी बीमारियाँ फिर से उभर आएँ, मैं परमेश्वर को उसकी इच्छानुसार मुझे आयोजित और व्यवस्थित करने दूँगी। इसलिए मैंने अगुआओं को जवाब भेजा, कहा कि मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं का पालन करने की इच्छुक हूँ और कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए सभी के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने को तैयार हूँ।