प्रश्न 1: आप सब गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु का पुनरागमन हो गया है, कोई और नहीं, स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर बनकर, जिन्होंने अंत के दिनों में न्याय कार्य करते समय सत्य व्यक्त किया है। यह कैसे संभव हो सकता है? प्रभु हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलवाने के लिए वास्तव में आयेंगे, वे अंत के दिनों में न्याय करने के लिए हमें पीछे कैसे छोड़ सकते थे? मुझे लगता है कि प्रभु यीशु में विश्वास करके और पवित्र आत्मा के कार्य को ग्रहण करके, हम पहले ही परमेश्वर के न्याय कार्य का अनुभव करने लगे हैं। प्रभु यीशु के वचन में साक्ष्य है: "क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आयेगा; परंतु यदि मैं जाऊंगा, तो मैं उसे तुम्हारे पास भेजूँगा। और वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" (यूहन्ना 16:7-8)। हमें लगता है कि जब प्रभु यीशु पुनर्जीवित होकर स्वर्गारोहित हुए, तो पिंतेकुस्‍त में पवित्र आत्मा मनुष्यों पर कार्य करने के लिए नीचे आया। इससे पहले ही लोग अपने पापों, धर्मपरायणता और न्याय के लिए, स्वयं को दोष दे चुके थे। जब हम प्रभु के सामने स्वीकार कर पश्चाताप कर लेते हैं, तो हम वास्तव में प्रभु के न्याय का अनुभव कर रहे होते हैं। इसलिए हम विश्वास करते हैं कि हालांकि प्रभु यीशु का कार्य छुटकारे का था, प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के बाद, पिंतेकुस्‍त में उतरे पवित्र आत्मा का कार्य अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य होना चाहिए। यदि यह न्याय कार्य न हुआ होता, तो "वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" कैसे हुआ होता? इसके अलावा, प्रभु में विश्वास करने वाले लोग होने के नाते, पवित्र आत्मा द्वारा अक्सर हमें छुआ, फटकारा और अनुशासित किया जाता है। इसलिए, प्रभु के सामने, हम हमेशा रोते और पश्चाताप करते रहते हैं। प्रभु में अपनी श्रद्धा के कारण हमारे भीतर पैदा हुए बहुत-से अच्छे व्यवहार से ही हम पूरी तरह परिवर्तित हो सके हैं। क्या यह परमेश्वर के न्याय का अनुभव करने के कारण नहीं है? अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय कार्य जिसकी आप सब चर्चा कर रहे हैं, वह प्रभु यीशु के कार्य से अलग कैसे है?

उत्तर: चूंकि आप सब यह मानते हैं कि प्रभु यीशु ने जो कार्य किया वह छुटकारे का था, और जो मार्ग उन्होंने दिखाया, वह था, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है" (मत्ती 4:17)। तो फिर आप सबने यह कैसे निर्धारित कर लिया कि पवित्र आत्मा पिंतेकुस्त में आया था, अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए? आप सबने प्रभु यीशु के इस वचन को आधार बनाया था, जिसमें कहा गया है: "क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आयेगा; परंतु यदि मैं जाऊंगा, तो उसे तुम्हारे पास भेजूंगा। और वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर कर देगा" (यूहन्ना16:7-8)। आप सब यह निश्चित रूप से मानने की हिम्मत कर रहे हैं कि पवित्र आत्मा द्वारा किया गया कार्य अंतिम दिनों का न्याय कार्य था, तो परमेश्वर के वचन के अनुसार क्या कोई आधार है? क्या प्रभु यीशु ने कहा था, "पवित्र आत्मा आ गया है। वह जो करेगा, अंत के दिनों का न्याय कार्य होगा"? प्रभु यीशु ने यह कभी नहीं कहा। प्रभु यीशु ने स्पष्ट रूप से कहा था: "यदि कोई मेरी बात सुन कर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता: क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं, परंतु जगत का उद्धार करने के लिए आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है, उसको दोषी ठहराने वाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैंने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:47-48)। प्रभु यीशु ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन्होंने जो किया वह न्याय का कार्य नहीं था। अंत के दिनों में पुनरागमन पर प्रभु यीशु न्याय का कार्य करने के लिये, केवल सत्य ही व्यक्त करेंगे। निश्चित होने के लिए, कुछ लोगों का अनुग्रह के युग में पवित्र आत्मा के कार्य को परमेश्वर का न्याय कार्य कहना गलत है। जाहिर है, जब हम अपने पापों को स्वीकार कर प्रभु के सामने पश्चाताप करते हैं, तो हमारे पास पवित्र आत्मा की गति तथा कार्य होना चाहिए ताकि हम परमेश्वर का अनुग्रह ग्रहण कर शांति और आनंद का अनुभव कर सकें। परंतु जब कोई प्रभु के सामने पश्चाताप करता है, बिलख-बिलख कर रोने लगता है, तो इसका यही अर्थ है कि पवित्र आत्मा ने उसको हिला कर रख दिया है। इसका प्रभाव यह है कि यह मनुष्य को स्वीकार करने और पश्चाताप करने के बाद परमेश्वर के अनुग्रह के योग्य बना देता है। यह परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय से प्राप्त प्रभाव नहीं है—शुद्धिकरण के बाद पूर्ण बनाए जाने का। पवित्र आत्मा का अनुग्रह के युग का कार्य पवित्र आत्मा के अंतिम दिनों के कार्य से भिन्न है। इसका सीधा संबंध और उद्देश्य, कार्य के प्रत्येक चरण में परमेश्वर जो प्राप्त करना चाहते हैं, उससे है। आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के दो उद्धरण सुनें और समझ लें कि न्याय क्या है।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "'न्याय' शब्द का जिक्र होने पर संभवत: तुम उन वचनों के बारे में सोचोगे, जो यहोवा ने प्रत्येक क्षेत्र के लोगों को निर्देश देते हुए कहे थे और जो वचन यीशु ने फरीसियों को फटकार लगाते हुए कहे थे। अपनी समस्त कठोरता के बावजूद, ये वचन परमेश्वर द्वारा मनुष्य का न्याय नहीं थे; बल्कि वे विभिन्न परिस्थितियों, अर्थात् विभिन्न संदर्भों में परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन हैं। ये वचन अंत के दिनों के मसीह द्वारा मनुष्यों का न्याय करते हुए कहे जाने वाले शब्दों से भिन्न हैं। अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है। ...

न्याय का कार्य परमेश्वर का अपना कार्य है, इसलिए स्वाभाविक रूप से इसे परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। चूँकि न्याय सत्य के माध्यम से मानवजाति को जीतना है, इसलिए परमेश्वर निःसंदेह अभी भी मनुष्यों के बीच इस कार्य को करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होगा। अर्थात्, अंत के दिनों का मसीह दुनिया भर के लोगों को सिखाने के लिए और उन्हें सभी सच्चाइयों का ज्ञान कराने के लिए सत्य का उपयोग करेगा। यह परमेश्वर के न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से व्याख्या की है कि न्याय क्या है और उसके क्या प्रभाव होते हैं। अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य मानवजाति को संपूर्ण रूप से शुद्ध करने और बचाने के लिए है। यह मनुष्य को महज थोड़ी फटकार और लानत लगाने के लिए नहीं है। न ही शब्दों के कुछ अनुच्छेदों की अभिव्यक्ति, लोगों को परमेश्वर से शुद्धिकरण और उद्धार ग्रहण करने के लिए, पापों के चंगुल से छुड़ा सकती है। परमेश्वर को पर्याप्त वचन व्यक्त करने होते हैं, सत्य के तमाम पहलू समझाने के लिए, जिनको समझ कर और अपना कर भ्रष्ट मानवजाति शुद्धिकरण और उद्धार पा सके, और मानवजाति के सामने अपनी प्रबंधन योजना के तमाम रहस्य उजागर करने के लिए। यह अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा अभिव्यक्त वचन से सैकड़ों-हज़ारों गुना अधिक है। अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य, सत्य और न्याय के वचन को अभिव्यक्त करने पर केंद्रित है, ताकि परमेश्वर का प्रतिरोध कर विश्वासघात करने वाली मनुष्य की शैतानी प्रवृत्ति, और शैतान द्वारा मनुष्य के भ्रष्ट होने की सच्चाई का न्याय कर उसे उजागर किया जा सके, और परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक और रुष्ट न होने वाले स्वभाव को संपूर्ण रूप में प्रकट किया जा सके। परमेश्वर के इरादे और मानवजाति की ज़रूरतों के सत्य के सभी पहलू, और किस प्रकार के लोग उद्धार या सजा पायेंगे, आदि-आदि हमारे समक्ष प्रकट किये गए है। परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय कार्य का अनुभव कर के, हम उनकी प्रबंधन योजना का उद्देश्य समझ पाते हैं। हम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर समझ सकते हैं, और पागलपन की हद तक परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले शैतान के राक्षसी रूप को स्पष्ट देख सकते हैं। हम शैतान द्वारा मनुष्य के गहराई तक भ्रष्ट होने का सच देख सकते हैं, और परमेश्वर का प्रतिरोध कर विश्वासघात करने वाली हमारी शैतानी प्रवृत्ति को पहचान सकते हैं। परमेश्वर की धार्मिक प्रवृत्ति, सर्वशक्तिमत्‍ता, बुद्धिमत्‍ता, और उनकी संपत्ति और हस्‍ती को ले कर, हम एक सच्ची समझ प्राप्त करते हैं और परमेश्‍वर के प्रति धर्मभीरू हृदय पाते हैं। हम शर्म से जमीन पर गिर जाते हैं, इस अनुभूति से कि हम परमेश्वर के सामने जीवित रहने योग्य नहीं हैं। हम स्वयं से घृणा कर खुद को त्याग देते हैं, हम धीरे-धीरे पाप के चंगुल से छुटकारा पाते हैं, एक वास्तविक मनुष्य की भाँति रह कर, परमेश्वर से सचमुच भयग्रस्त हो कर, उनके आज्ञाकारी बन जाते हैं। परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय कार्य का अनुभव करने पर ये प्रभाव होते हैं। केवल इस प्रकार का कार्य ही परमेश्वर का अंत के दिनों का न्याय कार्य है।

तो आइये अनुग्रह का युग देखें। प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया और पश्चाताप के मार्ग का उपदेश दिया। मनुष्य को, परमेश्वर के स्वभाव के केवल कृपालु और स्नेही आयाम दिखा कर। हालांकि प्रभु यीशु ने मनुष्य के साथ न्याय करने, फारसियों को निंदित कर उनको कोसने के कुछ शब्द भी कहे, लेकिन यह उनके कार्य का केंद्रबिंदु नहीं था। प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया, जो पापों को क्षमा करने, पश्चाताप का उपदेश देने और अनुग्रह प्रदान करने पर केंद्रित था। वह मनुष्य के पापों के शुद्धिकरण और न्याय पर केंद्रित कार्य नहीं था। यानी प्रभु यीशु का कार्य केवल छुटकारे के कार्य के इर्द-गिर्द ही था और उन्होंने सीमित वचन ही व्यक्त किये, जिनसे मनुष्य को पश्चाताप करने, पाप स्वीकारने, विनम्र और धैर्यवान बनने, बपतिस्‍मा लेने, सूली उठाने, दु:ख सहने, आदि की विधि की शिक्षा मिली। प्रभु में विश्वास करने पर, हमें स्वीकृति और पश्चाताप हेतु, केवल प्रभु के वचन पर निर्भर होना होगा, जिससे हमारे पापों को क्षमा मिलेगी। तब हमें कानून से सजा नहीं होगी, और मृत्युदंड नहीं मिलेगा। हम परमेश्वर से प्रार्थना कर उनका अनुग्रह और आशीष ग्रहण करने योग्य बन जायेंगे। अनुग्रह के युग में परमेश्वर के छुटकारे के कार्य से ये प्रभाव प्राप्त हुए थे, जो अंत के दिनों में न्याय कार्य से हुए प्रभावों से बिलकुल अलग थे। फिर भी, कुछ लोग यह मानते हैं कि, अनुग्रह के युग में पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव करना और उससे प्रबुद्धता, फटकार और अनुशासन पाना, आंसू बहाते हुए प्रार्थना करना, पाप स्वीकार करना और अच्छा व्यवहार करना, दरअसल परमेश्वर से शुद्धिकरण और न्याय पाने का अनुभव है। तो मैं आप सबसे पूछता हूँ, क्या हम अपने पापों की जड़ को जानते हैं? क्या हम परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले अपने स्वयं की शैतानी प्रवृत्ति के सत्व को जानते हैं? क्या हम मनुष्य के गहन भ्रष्टाचार का सच जानते हैं? क्या हम शैतान के बुरे सत्व को स्पष्ट देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर के धार्मिक, प्रतापी और रुष्ट न होने वाले स्वभाव को जानते हैं? क्या हम पापों के चंगुल से सचमुच छूट चुके हैं? क्या हमारी शैतानी प्रवृत्ति का शुद्धिकरण हो चुका है? क्या हम परमेश्वर के प्रति श्रद्धालु और आज्ञाकारी बन गए हैं? यदि हम ये सब नहीं कर सके, तो कैसे कह सकते हैं कि हमने परमेश्वर से शुद्धिकरण और न्याय पाने का अनुभव किया है? इसलिए, अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु का कार्य न्याय कार्य नहीं था। राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य उनके अंत के दिनों का न्याय कार्य है।

"स्वर्गिक राज्य का मेरा स्वप्न" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 9: बाइबल प्रभु की गवाही है, और हमारे पंथ की नींव है। इन दो हज़ार वर्षों में, विश्वास करने वाले सभी लोगों ने अपना पंथ बाइबल पर ही आधारित किया है। इसलिए मेरा विश्वास है कि बाइबल प्रभु की प्रतिनिधि है। प्रभु में विश्वास रखने का अर्थ है बाइबल में विश्वास रखना, और बाइबल में विश्वास रखने का अर्थ है प्रभु में विश्वास रखना। चाहे कुछ भी हो, हम बाइबल से दूर नहीं जा सकते। आख़िर हम बाइबल के बिना पंथ का अभ्यास कैसे करेंगे? क्या उसे प्रभु में विश्वास कहा भी जा सकता है? मुझे बताइए, इस प्रकार से पंथ का अभ्यास करने में क्या गलत है?

अगला: प्रश्न 2: आप सबने गवाही दी है कि प्रभु यीशु अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करने और न्याय कार्य करने लौट आये हैं। मैं यह क्यों नहीं समझ पाया? मैं बस विश्वास करता हूँ कि प्रभु बादलों पर लौटेंगे; मैं केवल यह विश्वास करता हूँ कि जब प्रभु लौटेंगे, तो उसमें विश्वास करने वाले सभी लोग तुरंत बदल दिए जायेंगे और प्रभु से मिलने के लिए हवा में उठा लिए जायेंगे। जैसा कि पौलुस ने कहा, "पर हमारा स्वदेश स्वर्ग पर है; और हम एक उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के वहाँ से आने की बाट जोह रहे हैं: वह अपनी शक्‍ति के उस प्रभाव के अनुसार जिसके द्वारा वह सब वस्तुओं को अपने वश में कर सकता है, हमारी दीन-हीन देह का रूप बदलकर, अपनी महिमा की देह के अनुकूल बना देगा" (फिलिप्पियों 3:20-21)। और आप सब कहते हैं कि प्रभु का लौटना देहधारण के लिए है, मनुष्य के पुत्र के रूप में प्रकट होने के लिए है और सत्य व्यक्त करके अंत के दिनों में न्याय कार्य करने के लिए है। मैं समझता हूँ, यह असंभव है! चूंकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, परमेश्वर के एक अकेले वचन ने स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीज़ों की सृष्टि की, और मरे हुओं को फिर से जीवित कर दिया। परमेश्वर एक वचन से हमें पवित्रता में बदल सकते हैं। सत्य व्यक्त करके मनुष्य के साथ न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए, प्रभु को देहधारण करने की क्या ज़रूरत है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

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