363 लोग नहीं जानते कि वे कितने अधम हैं
1
इंसान को मन में लगता, ईश्वर ही सदा शाप देता।
इसलिए इंसान उस पर ध्यान नहीं देता; उसके प्रति उदासीन बना रहता।
इसलिए ईश्वर कहे, दिल में भ्रांतियों के कारण
अनैतिक और अविवेकी है इंसान; उसमें इंसानी भावनाएँ भी नहीं।
इंसान ईश-भावनाओं की परवाह न करे
पर ईश्वर से निपटने को तथाकथित "धार्मिकता" का प्रयोग करे।
बरसों से ऐसा ही है इंसान; स्वभाव से बदला नहीं इंसान।
वह ख़ुद को न संजोए, तभी तो नीच और निकम्मा कहलाए।
खुद से प्यार नही, अपनी हानि करे, क्या यह उसका निकम्मापन नहीं?
2
ख़ुशी से दूषित होने के लिए जो ख़ुद को सौंपे और खेल खेले,
उस दुष्ट औरत-सा है इंसान, वह फिर भी अपनी नीचता न देखे।
दूसरों के साथ काम करने, उनसे बात करने,
उनके अधीन रहने में ख़ुश होता इंसान।
क्या ये मलिनता नहीं इंसान की?
क्योंकि इंसां ख़ुद को न जाने,
अपना आकर्षण, बदसूरत चेहरा दिखाने की चाहत ही
उसका गंभीर दोष है जिससे ईश्वर नफ़रत करता है।
जब इंसानों का आपसी रिश्ता सही न हो,
तो ईश्वर से सही रिश्ता कैसे रख सके इंसान?
3
इंसान से बहुत बात की है ईश्वर ने, ताकि वो रह सके इंसान के दिल में,
आज़ाद हो सके इंसान अपनी मूर्तियों से, जो बस गयी हैं दिल में इंसान के।
तभी इंसानों पर ईश्वर कर सके उपयोग अपने सामर्थ्य का,
और लक्ष्य पूरा कर सके धरती पर ईश्वर के अस्तित्व का।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 14 से रूपांतरित