अभ्यास (6)

आज, पतरस के जैसी समझ हासिल करने की बात तो छोड़ो, बहुत से लोग वो समझ भी हासिल नहीं कर पाते जो पौलुस के पास थी। उनके पास पौलुस के जैसा आत्म-बोध भी नहीं है। यद्यपि पौलुस को प्रभु यीशु द्वारा गिराया गया था क्योंकि उसने प्रभु यीशु को सताया था, लेकिन बाद में उसने प्रभु के लिए काम करने और पीड़ा सहने का संकल्प पा लिया। यीशु ने उसे एक बीमारी दी, और बाद में जब पौलुस ने कार्य करना शुरू कर दिया, तो वह उस बीमारी से पीड़ित ही रहा। वह क्यों कहता था कि उसके शरीर में एक काँटा है? वह काँटा, वास्तव में वही बीमारी थी—और पौलुस के लिए यह एक घातक कमज़ोरी थी। कितना भी काम करने या पीड़ा सहने का बड़ा संकल्प करने के बावजूद वह उस काँटे से छुटकारा ना पा सका। लेकिन फिर भी, आजकल तुम लोगों की तुलना में पौलुस की क्षमता कहीं बेहतर थी; और उसमें आत्म-बोध भी था और उसके पास तुम लोगों से अधिक समझ थी। पौलुस को यीशु द्वारा गिरा दिए जाने के बाद उसने यीशु के शिष्यों को उत्पीड़ित करना बंद कर दिया, यीशु के लिए उपदेश देना और पीड़ा सहनी शुरू कर दी। उसे पीड़ा सहने के लिए किस बात ने प्रेरित किया? पौलुस का मानना था कि चूँकि उसने महान प्रकाश को देखा था, इसलिए उसे प्रभु यीशु की गवाही देनी ही चाहिए, यीशु के शिष्यों को अब और पीड़ित नहीं करना चाहिए, परमेश्वर के कार्य का अब और विरोध बिलकुल नहीं करना चाहिए। पौलुस धर्म के उच्च स्तरीय शख्सियतों में से एक था। वह बहुत सुविज्ञ और प्रतिभाशाली था, वह औसत लोगों को तुच्छ समझता था, और उसका व्यक्तित्व अधिकतर लोगों से अधिक शक्तिशाली था। परन्तु “महान प्रकाश” के उसके ऊपर चमकने के बाद, वह प्रभु यीशु के लिए काम करने, परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने के लिए संकल्पित होने, परमेश्वर को खुद को अर्पित करने में समर्थ हो गया, जो यह साबित करता है कि उसके पास समझ थी। जब वह यीशु के शिष्यों को उत्पीड़ित और गिरफ्तार कर रहा था, तब यीशु ने उसके सामने प्रकट हो कर कहा : “पौलुस, तू मुझे क्यों सताता है?” पौलुस तुरन्त गिर पड़ा और बोला : “हे प्रभु, तू कौन है?” आकाश से एक आवाज़ ने कहा : “मैं यीशु हूँ, जिसे तू सताता है।” एकाएक, पौलुस जाग उठा, और तभी उसे पता चला कि यीशु तो मसीह है, कि वह परमेश्वर है। “मुझे अवश्य आज्ञा-पालन करना चाहिए। परमेश्वर ने मुझे यह अनुग्रह दिया है—मैंने उसे इस तरह से सताया, फिर भी उसने मुझे मार नहीं गिराया, और न ही उसने मुझे शाप दिया। मुझे अवश्य उसके लिए कष्ट झेलना चाहिए।” पौलुस ने स्वीकार किया कि उसने प्रभु यीशु मसीह को सताया था और अब उसके शिष्यों को जान से मार रहा था, फिर भी परमेश्वर ने उसे शाप नहीं दिया था, बल्कि उस पर प्रकाश चमकाया था। इसने उसे प्रेरित किया, और उसने कहा : “हालाँकि मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था, किन्तु मैंने उसकी आवाज़ सुनी और उसके महान प्रकाश को देखा था। केवल अब मैं वास्तव में देखता हूँ कि परमेश्वर मुझसे सच में प्रेम करता है, और प्रभु यीशु मसीह ही वास्तव में परमेश्वर है जो मनुष्य पर दया करता है और अनंतकाल के लिए मनुष्य के पापों को क्षमा करता है। मैं वास्तव में देखता हूँ कि मैं पापी हूँ।” यद्यपि, बाद में, परमेश्वर ने कार्य करने के लिए पौलुस की प्रतिभाओं का उपयोग किया, लेकिन कुछ समय के लिए इसे भूल जाओ। उस समय उसका संकल्प, उसकी सामान्य मानवीय समझ, और उसका आत्म-बोध—तुम लोग इन चीजों को हासिल करने में असमर्थ हो। आज, क्या तुम लोगों को काफी प्रकाश नहीं मिला है? क्या बहुत से लोगों ने नहीं देखा था कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप, कोप, न्याय और ताड़ना वाला है? लोगों पर शाप, परीक्षण और शुद्धिकरण कई बार पड़े हैं—और उन्होंने क्या सीखा है? तुमने अनुशाशित किए जाने और निपटारे से क्या प्राप्त किया है? तुम पर तीखे वचन, प्रहार और न्याय कई बार पड़े हैं, फिर भी तुम उन पर कोई ध्यान नहीं देते हो। तुम्हारे पास पौलुस द्वारा धारण की गई थोड़ी-सी समझ भी नहीं है—क्या तुम बेहद पिछड़े हुए नहीं हो? ऐसा बहुत कुछ था जिसे पौलुस ने स्पष्ट रूप से नहीं देखा था। वह केवल इतना जानता था कि प्रकाश उस पर चमका था, और नहीं जानता था कि उसे प्रहार करके गिराया गया है; वह व्यक्तिगत रूप से मानता था कि उस पर प्रकाश चमकने के बाद, उसे स्वयं को अवश्य परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए, परमेश्वर के लिए कष्ट उठाना चाहिए, प्रभु यीशु मसीह के लिए मार्ग प्रशस्त करने के वास्ते सब कुछ करना चाहिए, और प्रभु द्वारा छुटकारा दिलाने के लिए अधिक पापियों को एकत्र करना चाहिए। यह उसका संकल्प, और उसके काम का एकमात्र उद्देश्य था—किन्तु जब वह कार्य कर रहा था, तब भी रोग ने उसकी मृत्यु तक उसे नहीं छोड़ा था। पौलुस ने बीस से अधिक वर्षों तक कार्य किया। उसने बहुत कष्ट सहे, और काफी उत्पीड़नों और क्लेशों का अनुभव किया था, यद्यपि निश्चित रूप से पतरस के परीक्षण की तुलना में ये बहुत कम थे। यदि तुम लोगों के पास पौलुस की समझ भी नहीं है तो यह कितनी निराशा की बात है? जब मामला ये है तो, परमेश्वर तुम लोगों में और भी बड़ा कार्य कैसे शुरू कर सकता है?

जब पौलुस ने सुसमाचार फैलाया, तो उसने बड़ी यातना झेली। उस समय, उसने जो कार्य किया, उसका विश्वास, उसकी वफादारी, प्रेम, धैर्य और नम्रता, और कई अन्य बाह्य बातें जो उसने जिये, वे आज तुम लोगों की तुलना में अधिक ऊँचे थे। इसे और अधिक कठोरता से कहें तो, तुम लोगों के भीतर कोई सामान्य समझ नहीं है; यहाँ तक कि तुम लोगों के पास कोई अंतःकरण या मानवता भी नहीं है। तुम लोगों में बहुत कमियाँ हैं! इस प्रकार, अधिकांश समय, तुम लोग जो जीते हो, उसमें कोई सामान्य समझ नहीं मिलती है, और किसी आत्म-बोध का कोई नामोनिशान नहीं है। यद्यपि पौलुस शारीरिक बीमारी से ग्रस्त था, फिर भी वह प्रार्थना करता और खोजता रहता था : “यह बीमारी आखिर क्या है? मैंने प्रभु के लिए यह सब कार्य किया है, यह कष्ट मुझे क्यों नहीं छोड़ता है? क्या ऐसा हो सकता है कि प्रभु यीशु मेरी परीक्षा ले रहा है? क्या उसने मुझे मार गिराया है? यदि उसने मुझे मार गिराया होता, तो मैं तभी मर गया होता, और उसके लिए यह सब कार्य करने में असमर्थ होता, और न ही मुझे इतना प्रकाश प्राप्त हो सकता था। उसने मेरे संकल्प को साकार भी किया।” पौलुस हमेशा महसूस करता था कि यह बीमारी परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा थी, कि यह उसके विश्वास और संकल्प को कड़ा कर रही थी—पौलुस इसे ऐसे ही देखता था। वास्तव में, उसकी बीमारी प्रभु यीशु द्वारा उसे मार गिराने का परिणाम थी। इससे वह मानसिक दबाव में आ गया था, और उसने अपने अधिकांश विद्रोही स्वभाव पर अंकुश लगा दिया। यदि तुम लोग अपने आप को पौलुस की परिस्थितियों में पाते, तो तुम लोग क्या करते? क्या तुम लोगों का संकल्प और दर्द सहने की क्षमता पौलुस की क्षमता की बराबरी कर सकती है? आज, यदि तुम लोग कुछ कुछ मामूली बीमारी से ग्रस्त हो जाओ या किसी बड़े परीक्षण से गुज़रो, और तुम्हें कष्ट सहने को मजबूर किया जाये तो, न जाने तुम्हारा व्यवहार कैसा हो। यदि तुम लोगों को पक्षी के एक पिंजरे में बंद कर दिया गया होता और निरंतर तुम्हारी आपूर्ति की जाती तो तुम ठीक रहते। अन्यथा तुम लोग, थोड़ी-भी मानवता से रहित, भेड़ियों की तरह हो जाते। तो जब तुम थोड़ी सी बाधा या कठिनाई से पीड़ित होते हो, तो ये तुम लोगों के लिए अच्छा है; यदि तुम्हारे लिए सब आसान होता, तो तुम बर्बाद हो जाते, फिर तुम्हारी रक्षा कैसे होती? आज तुम लोगों को इसलिए सुरक्षा दी जाती है क्योंकि तुम लोगों को ताड़ना और शाप दिया जाता है, तुम लोगों का न्याय किया जाता है। क्योंकि तुम लोगों ने काफी कष्ट उठाया है इसलिए तुम्हें संरक्षण दिया जाता है। नहीं तो, तुम लोग बहुत समय पहले ही दुराचार में गिर गए होते। यह जानबूझ कर तुम लोगों के लिए चीज़ों को मुश्किल बनाना नहीं है—मनुष्य की प्रकृति को बदलना मुश्किल है, और उनके स्वभाव को बदलना भी ऐसा ही है। आज, तुम लोगों के पास वो समझ भी नहीं है जो पौलुस के पास थी, और न ही तुम लोगों के पास उसका आत्म-बोध है। तुम लोगों की आत्माओं को जगाने के लिए तुम लोगों पर हमेशा दबाव डालना पड़ता है, और तुम लोगों को हमेशा ताड़ना देनी पड़ती है और तुम्हारा न्याय करना पड़ता है। ताड़ना और न्याय ही वह चीज़ हैं जो तुम लोगों के जीवन के लिए सर्वोत्तम हैं। और जब आवश्यक हो, तो तुम पर आ पड़ने वाले तथ्यों की ताड़ना भी होनी ही चाहिए; केवल तभी तुम लोग पूरी तरह से समर्पण करोगे। तुम लोगों की प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि ताड़ना और शाप के बिना, तुम लोग अपने सिरों को झुकाने और समर्पण करने के अनिच्छुक होगे। तुम लोगों की आँखों के सामने तथ्यों के बिना, तुम पर कोई प्रभाव नहीं होगा। तुम लोग चरित्र से बहुत नीच और बेकार हो। ताड़ना और न्याय के बिना, तुम लोगों पर विजय प्राप्त करना कठिन होगा, और तुम लोगों की अधार्मिकता और अवज्ञा को जीतना मुश्किल होगा। तुम लोगों का पुराना स्वभाव बहुत गहरी जड़ें जमाए हुए है। यदि तुम लोगों को सिंहासन पर बिठा दिया जाए, तो तुम लोगों को स्वर्ग की ऊँचाई और पृथ्वी की गहराई के बारे में कोई अंदाज़ न हो, तुम लोग किस ओर जा रहे हो इसके बारे में तो बिल्कुल भी अंदाज़ा न हो। यहाँ तक कि तुम लोगों को यह भी नहीं पता कि तुम सब कहाँ से आए हो, तो तुम लोग सृष्टि के प्रभु को कैसे जान सकते हो? आज की समयोचित ताड़ना और शाप के बिना तुम्हारा अंत का दिन पहले ही आ चुका होता। तुम लोगों के भाग्य की तो बात ही क्या—क्या यह खतरे के और भी निकट नहीं होता? इस समयोचित ताड़ना और न्याय के बिना, कौन जाने कि तुम लोग कितने घमंडी हो गए होते, और कौन जाने तुम लोग कितने पथभ्रष्ट हो जाते। इस ताड़ना और न्याय ने तुम लोगों को आज के दिन तक पहुँचाया है, और इन्होंने तुम लोगों के अस्तित्व को संरक्षित रखा है। जिन तरीकों से तुम लोगों के “पिता” ने तुम्हें “शिक्षित” किया था, यदि उन्हीं तरीकों से तुम लोगों को अब भी “शिक्षित” किया जाता, तो कौन जाने तुम लोग किस क्षेत्र में प्रवेश करते! तुम लोगों के पास स्वयं को नियंत्रित करने और आत्म-चिंतन करने की बिलकुल कोई योग्यता नहीं है। तुम जैसे लोग, अगर कोई हस्तक्षेप या गड़बड़ी किए बगैर मात्र अनुसरण करें, आज्ञापालन करें, तो मेरे उद्देश्य पूरे हो जाएंगे। क्या तुम लोगों के लिए बेहतर नहीं होगा कि तुम आज की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करो? तुम लोगों के पास और क्या विकल्प हैं? जब पौलुस ने प्रभु यीशु को काम करते और बोलते हुए देखा था, उसने तब भी विश्वास नहीं किया था। बाद में, प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने और उसके पुनर्जीवित होने के पश्चात्, उसने इस तथ्य को जाना, फिर भी वह उत्पीड़ित करता रहा और विरोध करता रहा। जानबूझकर पाप करने का यही अर्थ है, इसलिए ही उसे गिरा दिया गया। शुरुआत में, वह जानता था कि यहूदियों के बीच एक राजा है जिसे यीशु कहा जाता है, उसने यह सुना था। बाद में, जब उसने मंदिर में धर्मोपदेश दिए और देश भर में उपदेश दिए, तो वह यीशु के विरुद्ध गया और उसने घमण्ड में किसी भी व्यक्ति का अनुसरण करने से इनकार कर दिया। उस समय के कार्य में ये चीजें एक ज़बर्दस्त बाधा बन गईं। जब यीशु काम कर रहा था, तो पौलुस ने प्रत्यक्ष रूप से लोगों को उत्पीड़ित और गिरफ्तार नहीं किया, परन्तु यीशु के कार्य का खंडन करने के लिए उपदेश और शब्दों का उपयोग किया। बाद में, जब प्रभु यीशु मसीह को सलीब पर चढ़ा दिया गया, तो उसने जगह-जगह पर भाग-दौड़ करके शिष्यों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया, और उन्हें उत्पीड़ित करने के लिए जो कुछ कर सकता था वह करने लगा। केवल जब उसके ऊपर प्रकाश चमका उसके बाद ही वह जागा और उसने बहुत पछतावा अनुभव किया। उसके गिर जाने के बाद, उसकी बीमारी ने उसे कभी नहीं छोड़ा। कभी-कभी उसे लगता था कि उसकी यातना बदतर हो गई है, और वह बिस्तर से निकल पाने में असमर्थ है। वह सोचता था : “यह क्या हो रहा है? क्या मुझे सचमुच गिरा दिया गया है?” बीमारी ने उसे कभी नहीं छोड़ा, और यह इस बीमारी की वजह से ही था कि उसने बहुत कार्य किया। यह कहा जा सकता है कि यीशु ने पौलुस के दंभ और उच्छृंखलता के कारण उसे यह बीमारी दी थी; यह उसके लिए एक दण्ड था, किन्तु परमेश्वर के कार्य के वास्ते पौलुस की प्रतिभा का उपयोग करने के लिए भी था, ताकि उसके काम का विस्तार किया जा सके। वस्तुतः, परमेश्वर का इरादा पौलुस को बचाना नहीं, बल्कि उसका उपयोग करना था। फिर भी पौलुस का स्वभाव बहुत अभिमानी और दुराग्रही था, और इसलिए उसमें एक “काँटा” रखा गया था। आखिरकार, जब तक पौलुस ने अपना कार्य समाप्त किया, तब तक वह बीमारी उसके लिए बहुत दर्दनाक नहीं रह गयी थी, और जब उसका काम खत्म हो रहा था तब वह इन वचनों को कहने में सक्षम था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्‍वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है”—जो उसने इसलिए कहा क्योंकि वह परमेश्वर के कार्य को नहीं जानता था। तुम लोगों के बीच पौलुस जैसे कई हैं, लेकिन अगर तुम सब मार्ग के अंत तक अनुसरण करने का संकल्प रखो, तो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा। यहाँ, हम, पौलुस कितने तरीकों से विद्रोही और प्रतिरोधी था, इस बारे में बात नहीं करेंगे, आओ हम उसके उसी अंश की बात करें जो सकारात्मक और प्रशंसनीय था : उसका एक अंतःकरण था, और एक बार “प्रकाश” प्राप्त करने के बाद, वह स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने और परमेश्वर के लिए कष्ट सहने में सक्षम था। यह उसका मजबूत पक्ष था। लेकिन, यदि ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि, क्योंकि उसके पास एक मजबूत पक्ष था, इसलिए वह धन्य था, यदि वे मानते हैं कि उसे आवश्यक रूप से ताड़ना नहीं दी गई थी, तो ये उन लोगों के शब्द हैं जिनमें समझ नहीं है।

परमेश्वर के वचनों को पढ़ते और प्रार्थना करते समय, कई लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर को समर्पित होने को तैयार हैं, लेकिन फिर अकेले में वे स्वच्छंद हो जाते हैं, और इसके बारे में नहीं सोचते। परत दर परत खोलते हुए, परमेश्वर वचन बार-बार बोले जाते हैं, और केवल जब लोगों की सबसे निचली परत उजागर हो जाती है, तभी उन्हें “शांति मिलती है” और वे कम अभिमानी, कम उच्छृंखल, कम दंभी हो जाते हैं। आज तुम लोगों की जो स्थितियाँ हैं उनके साथ, तुम लोगों पर अवश्य बेरहमी से प्रहार किया जाना चाहिए और तुम लोगों को उजागर किया जाना चाहिए, और तुम लोगों का विस्तार-दर-विस्तार न्याय किया जाना चाहिए, ताकि तुम लोगों को साँस लेने का मौका भी ना मिले। तुम लोगों के लिए यह बेहतर है कि ताड़ना और न्याय तुम्हें कभी नहीं छोड़ें, और दंड और अभिशाप तुमसे दूर ना हों, ताकि तुम लोग देख सको कि परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का हाथ कभी भी तुम लोगों से दूर नहीं जाता है। बिलकुल व्यवस्था के युग की तरह, जब हारून ने देखा कि यहोवा ने उसे कभी नहीं छोड़ा था (उसने जो देखा था वह यहोवा का निरंतर मार्गदर्शन और संरक्षण था; परमेश्वर के जिस मार्गदर्शन को आज तुम लोग देखते हो वह ताड़ना, अभिशाप और न्याय है), आज, यहोवा की प्रशासनिक आज्ञाओं का हाथ तुम लोगों को नहीं छोड़ता है। लेकिन एक चीज है जिसके बारे में तुम लोग चैन से हो सकते हो : चाहे तुम लोग कितना ही विरोध, विद्रोह, और आलोचना क्यों न करो, तुम लोगों की देह को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन अगर ऐसे लोग हैं जो अपने विरोध में बहुत दूर चले जाते हैं और कार्य को बाधित करते हैं, यह स्वीकार्य नहीं है; इसकी एक सीमा है। कलीसिया के जीवन को बाधित या अस्त-व्यस्त मत करो, और पवित्र आत्मा के कार्य को बाधित मत करो। बाकी तुम जो चाहो कर सकते हो। अगर तुम कहते हो कि तुम जीवन का अनुसरण नहीं करना चाहते और दुनिया में लौटना चाहते हो, तो जल्दी करो और जाओ! तुम लोग जो भी चाहो कर सकते हो, जब तक कि यह परमेश्वर के कार्य में बाधा नहीं डालता। फिर भी एक और बात है जो तुम्हें अवश्य मालूम होनी चाहिए : अंत में, इस तरह के सभी दुराग्रही पापियों को हटा दिया जाएगा। आज, हो सकता है कि तुम तिरस्कृत न किये जाओ, लेकिन अंत में, अंशमात्र लोग ही गवाही देने में सक्षम होंगे—और बाकी सभी खतरे में होंगे। अगर तुम इस धारा में रहना नहीं चाहते हो, तो ठीक है। आज लोगों के साथ सहनशीलता से व्यवहार किया जाता है; मैं तुम पर तब तक पाबंदी नहीं लगाता हूँ, जब तक तुम कल की ताड़ना के बारे में भयभीत नहीं हो। लेकिन यदि तुम इस धारा में हो, तो तुम्हें गवाही अवश्य देनी होगी, और तुम्हें ताड़ित अवश्य किया जाना चाहिए। यदि तुम इसे अस्वीकार करना चाहते हो, और संसार में लौट जाना चाहते हो, तो ठीक है—तुम्हें कोई रोक नहीं रहा है! किन्तु तुम वह कार्य करते हो जो विनाशकारी है और जो पवित्र आत्मा के कार्य को बाधित करता है, तो तुम्हें इसके लिए हरगिज़ माफ़ नहीं किया जा सकता है! जहाँ तक कौन से लोगों को ताड़ना दी जाती है और किनके परिवारों को शापित किया जाता है, इसके बारे में तुम्हारी आँखें जो देखती हैं और तुम्हरे कान सुनते हैं—इस सबके लिए दायरे और सीमाएँ हैं। पवित्र आत्मा चीजों को अकारण ही नहीं करता है। तुम लोगों ने जो पाप किये हैं, उसके आधार पर, यदि तुम लोगों की अधार्मिकता के अनुसार तुम लोगों से व्यवहार किया जाता और तुम लोगों को गंभीरता से लिया जाता, तो तुम लोगों में से कौन जीवित बचने में समर्थ होता? तुम सभी बड़ी विपदा सहते, और तुम में से किसी का भी हश्र अच्छा नहीं होता। फिर भी, कई लोगों के साथ सहिष्णुता से व्यवहार किया जाता है। भले ही तुम लोग आलोचना, विद्रोह और विरोध करते हो, किन्तु जब तक तुम लोग व्यवधान नहीं डालते हो, तब तक मैं मुस्कुराहट के साथ तुम्हारा सामने आऊँगा। यदि तुम लोग वास्तव में जीवन का अनुसरण कर रहे हो, तो तुम लोगों को अवश्य थोड़ी ताड़ना भुगतनी चाहिए, और तुम लोगों को शल्य-चिकित्सा की मेज पर जाने के लिए उस सबसे बिछुड़ने की पीड़ा को अवश्य सहना चाहिए जो तुम लोगों को पसंद है; तुम्हें अवश्य पीड़ा सहनी चाहिए, जैसे कि पतरस ने परीक्षणों और दुःख को स्वीकार किया था। आज तुम लोग न्याय के आसन के सामने हो। भविष्य में, तुम सब को “सिर काटने के यंत्र (गिलोटिन)” पर जाना पड़ेगा, जो कि तब होगा जब तुम लोग स्वयं का “बलिदान” करोगे।

अंत के दिनों में कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान, शायद तुम यह मानते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को जड़ से नहीं मिटाएगा, और यह कहा जा सकता है कि भले ही तुम उसका विरोध करते हो और उसकी आलोचना करते हो फिर भी हो सकता है तुम कोई बीमारी न भुगतो—किन्तु जब परमेश्वर के कठोर वचन तुम पर पड़ेंगे, जब तुम्हारे विद्रोहीपन, प्रतिरोध और तुम्हारे कुरूप चेहरे को उजागर कर दिया जाएगा, तो तुम कहीं छुप नहीं पाओगे। तुम खुद को घबराया हुआ और भ्रमित पाओगे। आज, तुम लोगों के पास थोड़ा अंतःकरण होना ही चाहिए। दुष्टों की भूमिका ना निभाओ, जो परमेश्वर के विरुद्ध विरोध और विद्रोह करते हैं। तुम्हें अपने पुराने पूर्वजों की ओर अपनी पीठ कर देनी चाहिए; तुम्हारे पास ऐसी कद-काठी होनी चाहिए, और यही वह मानवता है जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। तुम हमेशा अपनी भविष्य की संभावनाओं को या आज के सुखों को एक ओर रखने में असमर्थ रहते हो। परमेश्वर कहता है : जब तक तुम लोग मेरा अनुसरण करने और सत्य खोजने के लिए वह सब कुछ करते हो जो तुम लोग कर सकते हो, तो मैं निश्चित रूप से तुम लोगों को पूर्ण बना दूँगा। एक बार जब तुम लोगों को पूर्ण बना दिया जाएगा, तुम्हारे पास एक सुंदर मंज़िल होगी—मेरे साथ आशीषों का आनंद पाने के लिए तुम लोगों को मेरे राज्य में लाया जाएगा। तुम सबसे एक खूबसूरत मंज़िल का वादा किया गया है, फिर भी तुम लोगों से अपेक्षाएँ कभी कम नहीं हुई हैं। यहाँ एक शर्त भी है : चाहे तुम लोगों को जीता जाये या पूर्ण बनाया जाए या ऐसा न किया जाए, आज तुम लोगों को अवश्य कुछ ताड़ना, कुछ कष्ट के अधीन किया जाना चाहिए, तुम लोगों पर अवश्य प्रहार और तुम्हें अनुशासित किया जाना चाहिए; तुम लोगों को अवश्य मेरे वचनों को सुनना, मेरे मार्ग का अनुसरण करना और परमेश्वर की इच्छा पर चलना चाहिए—यही वह है जो तुम इंसानों को करना चाहिए। तुम चाहे जैसे भी अनुसरण करो, तुम्हें अवश्य स्पष्ट रूप से इस तरह से सुनना चाहिए। यदि तुम्हारे पास सच्चे अंतदर्शन हैं, तो तुम अनुसरण करना जारी रख सकते हो। यदि तुम्हें लगता है कि कोई संभावनाएँ या आशाएँ नहीं हैं, तो तुम जा सकते हो। ये वचन तुम्हें स्पष्ट रूप से कहे गए हैं, लेकिन यदि तुम सच में जाना चाहते हो, तो यह केवल इस बात को दर्शाता है कि तुम में जरा-सा भी अंतःकरण नहीं है; तुम्हारा कृत्य इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम एक राक्षस हो। यद्यपि तुम कहते हो कि तुम सब कुछ परमेश्वर के आयोजन पर छोड़ते हो, किन्तु तुम्हारे देह और तुम जिस तरह जीवन-यापन करते हो, उसके आधार पर, तुम अभी भी शैतान के अधिकार-क्षेत्र के अधीन रहते हो। यद्यपि शैतान भी परमेश्वर के हाथों में है, किन्तु तुम स्वयं अभी भी शैतान से संबंधित हो, और अभी भी परमेश्वर के द्वारा तुम्हें बचाया जाना बाकी है, क्योंकि तुम अभी भी शैतान के प्रभाव के अधीन रहते हो। बचाए जाने के लिए तुम्हें कैसे अनुसरण करना चाहिए? चुनना तुम्हें है—तुम्हें वह मार्ग चुनना चाहिए जिस पर तुम्हें जाना चाहिए। अंततः, यदि तुम कह सकते हो : “मेरे पास और कुछ बेहतर नहीं है, मैं अपने अंतःकरण से परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देता हूँ, और मुझ में अवश्य थोड़ी-सी मानवता होनी चाहिए। मैं इससे अधिक बड़ा कुछ प्राप्त नहीं कर सकता हूँ, और न ही मेरी क्षमता बहुत अधिक है; परमेश्वर के कार्यों के दर्शन और अर्थ मेरी समझ में नहीं आते हैं। मैं केवल परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देता हूँ, जो कुछ भी परमेश्वर कहता है, मैं उसे करता हूँ, और मैं वह सब करता हूँ जो मैं कर सकता हूँ। मैं परमेश्वर की एक रचना के रूप में अपना कर्तव्य करता हूँ”, तब मुझे संतुष्टि महसूस होगी। यही वह उच्चतम गवाही है जिसके लिए तुम सक्षम हो। यह लोगों के एक हिस्से से अपेक्षित उच्चतम मानक है : परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य को करना। बस उतना करो जितना करने में तुम समर्थ हो; तुमसे अपेक्षाएँ बहुत अधिक नहीं हैं। जब तक तुम वह सब करते हो जो तुम कर सकते हो, तब यह तुम्हारी गवाही है।

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