42. ऐसा क्यों कहा जाता है कि केवल वे ही लोग परमेश्वर की सेवा करने के योग्य हैं जिनके स्वभाव में परिवर्तन हुआ है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
परमेश्वर की सेवा करना कोई सरल कार्य नहीं है। जिनका भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, वे परमेश्वर की सेवा कभी नहीं कर सकते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम्हारे स्वभाव का न्याय नहीं हुआ है और उसे ताड़ित नहीं किया गया है, तो तुम्हारा स्वभाव अभी भी शैतान का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर की सेवा अपनी भलाई के लिए करते हो, तुम्हारी सेवा तुम्हारी शैतानी प्रकृति पर आधारित है। तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक जिद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह मनुष्य के सांसारिक आचरण का फलसफा है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को गुमराह करते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय बहिष्कृत कर दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और बेबस करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीजें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की “सेवा” में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए
उन लोगों के कार्य में बहुत कम विचलन होता है, जो काट-छाँट, न्याय और ताड़ना से होकर गुजर चुके होते हैं, और उनके कार्य की अभिव्यक्ति भी कहीं अधिक सटीक होती है। जो लोग कार्य करने की अपनी स्वाभाविकता पर निर्भर करते हैं, वे काफी बड़ी गलतियाँ करते हैं। अपूर्ण लोगों के कार्य में उनकी स्वाभाविकता बहुत अधिक अभिव्यक्त होती है, जो पवित्र आत्मा के कार्य में बड़ा अवरोध उत्पन्न करती है। किसी व्यक्ति की क्षमता कितनी ही अच्छी क्यों न हो, उसे भी परमेश्वर के आदेश का कार्य करने से पहले काट-छाँट और न्याय से गुजरना ही चाहिए। यदि वह ऐसे न्याय से होकर नहीं गुजरा है, तो उसका कार्य, चाहे कितनी भी अच्छी तरह से क्यों न किया गया हो, सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो सकता, वह हमेशा उसकी अपनी स्वाभाविकता और मानवीय भलाई का परिणाम होता है। काट-छाँट और न्याय से होकर गुजर चुके लोगों का कार्य उन लोगों के कार्य से कहीं अधिक सटीक होता है, जिनकी काट-छाँट और न्याय नहीं किया गया है। जो लोग न्याय से होकर नहीं गुजरे हैं, वे मानव-देह और विचारों के सिवाय और कुछ भी व्यक्त नहीं करते, जिनमें बहुत सारी मानव-बुद्धि और जन्मजात प्रतिभा मिली होती है। यह मनुष्य द्वारा परमेश्वर के कार्य की सटीक अभिव्यक्ति नहीं है। जो लोग ऐसे लोगों का अनुसरण करते हैं, वे अपनी जन्मजात क्षमता द्वारा उनके सामने लाए जाते हैं। चूँकि वे मनुष्य की अंतर्दृष्टि और अनुभव को बहुत अधिक व्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर के मूल इरादे से लगभग कटे हुए और उससे बहुत भटके हुए होते हैं, इसलिए इस प्रकार के व्यक्ति का कार्य लोगों को परमेश्वर के सम्मुख नहीं ला पाता, बल्कि वह उन्हें मनुष्य के सामने ले आता है। इसलिए, जो लोग न्याय और ताड़ना से होकर नहीं गुजरे हैं, वे परमेश्वर के आदेश के कार्य को क्रियान्वित करने योग्य नहीं हैं। योग्य कर्मी का कार्य लोगों को सही मार्ग पर लाकर उन्हें सत्य में बेहतर प्रवेश प्रदान कर सकता है। उसका कार्य लोगों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है। इसके अतिरिक्त, जो कार्य वह करता है, वह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है, और वह नियमों से बँधा हुआ नहीं होता, उन्हें मुक्ति और स्वतंत्रता तथा जीवन में क्रमशः आगे बढ़ने और सत्य में अधिक गहन प्रवेश करने की क्षमता प्रदान करता है। अयोग्य कर्मी का कार्य कम पड़ जाता है। उसका कार्य मूर्खतापूर्ण होता है। वह लोगों को केवल नियमों के अधीन ला सकता है; और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ हर व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न नहीं होतीं; वह लोगों की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुसार कार्य नहीं करता। इस प्रकार के कार्य में बहुत अधिक नियम और सिद्धांत होते हैं, और वह लोगों को वास्तविकता में नहीं ला सकता, न ही वह उन्हें जीवन में विकास के सामान्य अभ्यास में ला सकता है। वह लोगों को केवल कुछ बेकार नियमों का पालन करने में ही सक्षम बना सकता है। ऐसा मार्गदर्शन लोगों को केवल भटका सकता है। वह तुम्हें अपने जैसा बनाने में तुम्हारी अगुआई करता है; वह तुम्हें अपने स्वरूप में ला सकता है। इस बात को समझने के लिए कि अगुआ योग्य हैं या नहीं, अनुयायियों को अगुवाओं के उस मार्ग को जिस पर वे लोगों को ले जा रहे हैं और उनके कार्य के परिणामों को देखना चाहिए, और यह भी देखना चाहिए कि अनुयायी सत्य के अनुसार सिद्धांत पाते हैं या नहीं और अपने रूपांतरण के लिए उपयुक्त अभ्यास के तरीके प्राप्त करते हैं या नहीं। तुम्हें विभिन्न प्रकार के लोगों के विभिन्न कार्यों के बीच भेद करना चाहिए; तुम्हें मूर्ख अनुयायी नहीं होना चाहिए। यह लोगों के प्रवेश के मामले पर प्रभाव डालता है। यदि तुम यह भेद करने में असमर्थ हो कि किस व्यक्ति की अगुआई में एक मार्ग है और किसकी अगुआई में नहीं है, तो तुम आसानी से गुमराह हो जाओगे। इस सबका तुम्हारे अपने जीवन के साथ सीधा संबंध है। अपूर्ण लोगों के कार्य में बहुत अधिक स्वाभाविकता होती है; उसमें बहुत अधिक मानवीय इच्छा मिली हुई होती है। उनका अस्तित्व स्वाभाविकता है—जिसके साथ वे पैदा हुए हैं। यह काट-छाँट जाने के बाद का जीवन या रूपांतरित किए जाने के बाद की वास्तविकता नहीं है। ऐसा व्यक्ति उन्हें सहारा कैसे दे सकता हैं, जो जीवन की खोज कर रहे हैं? मनुष्य का जीवन मूलतः उसकी जन्मजात बुद्धि या प्रतिभा है। इस प्रकार की बुद्धि या प्रतिभा मनुष्य से परमेश्वर की सटीक अपेक्षाओं से काफी दूर होती है। यदि किसी मनुष्य को पूर्ण नहीं किया गया है और उसके भ्रष्ट स्वभाव की काट-छाँट नहीं की गई है तो उसकी अभिव्यक्ति और सत्य के बीच एक बहुत बड़ा अंतर होगा; उसकी अभिव्यक्ति में उसकी कल्पना और एकतरफा अनुभव जैसी अस्पष्ट चीजों का मिश्रण होगा। इतना ही नहीं, वह कैसे भी कार्य क्यों न करे, लोग यही महसूस करते हैं कि उसमें ऐसा कोई समग्र लक्ष्य और ऐसा कोई सत्य नहीं है, जो सभी लोगों के प्रवेश के लिए उपयुक्त हो। लोगों से जो अपेक्षाएँ की जाती हैं, उनमें से अधिकांश उनकी योग्यता से परे होती हैं, मानो वे मचान पर बैठने के लिए मजबूर की जा रही बतख़ें हों। यह मनुष्य की इच्छा का कार्य है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव, उसके विचार और उसकी धारणाएँ उसके शरीर के सभी अंगों में व्याप्त हैं। मनुष्य सत्य का अभ्यास करने की प्रवृत्ति के साथ पैदा नहीं होता, न ही उसमें सीधे तौर पर सत्य को समझने की प्रवृत्ति होती है। उसमें मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव जोड़ दो—जब इस प्रकार का स्वाभाविक व्यक्ति कार्य करता है, तो क्या इससे गड़बड़ियाँ नहीं होतीं? परंतु जो मनुष्य पूर्ण किया जा चुका है, उसके पास सत्य का अनुभव होता है जिसे लोगों को समझना चाहिए, और उसके पास अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान होता है, जिससे उसके कार्य की अस्पष्ट और अवास्तविक चीजें धीरे-धीरे कम हो जाती हैं, मानवीय मिलावटें पहले से कम हो जाती हैं, और उसका काम और सेवा परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों के अधिक करीब पहुँच जाता है। इस प्रकार, उसका काम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर गया है और वह वास्तविक भी बन गया है। मनुष्य के मन के विचार विशेष रूप से पवित्र आत्मा के कार्य को अवरुद्ध कर देते हैं। मनुष्य के पास समृद्ध कल्पना और उचित तर्क होते हैं, और उसके पास मामलों से निपटने का लंबा अनुभव होता है। यदि मनुष्य के ये पहलू काट-छाँट और सुधार से होकर नहीं गुजरते, तो वे सभी कार्य की बाधाएँ हैं। इसलिए मनुष्य का कार्य सटीकता के सर्वोच्च स्तर तक नहीं पहुँच सकता, विशेषकर अपूर्ण लोगों का कार्य।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
जिनके स्वभाव बदल गए हैं वे परमेश्वर का भय मानते हैं और परमेश्वर के खिलाफ उनका विद्रोहीपन धीरे-धीरे कम होने लगता है। इसके अलावा, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में, उन्हें अब यह आवश्यकता नहीं होती कि दूसरे उनकी चिंता करें, और न ही पवित्र आत्मा को हमेशा उन पर अनुशासनात्मक कार्य करने की आवश्यकता होती है। वे मूलतः परमेश्वर को समर्पित हो सकते हैं, और चीजों पर उनके विचार सत्य के अनुरूप होते हैं। यह सब परमेश्वर के साथ संगत होने के बराबर है। मान लो कि कोई तुम्हें एक काम सौंपता है। तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं है कि कोई तुम्हारा प्रबंधन करे, तुम्हारी निगरानी करे। तुम केवल परमेश्वर के वचन और प्रार्थना द्वारा यह काम पूरा कर सकते हो। इस काम के दौरान, तुम लापरवाह या अहंकारी या दंभी नहीं होते, न ही तुम मनमाने ढंग से काम करते हो; तुम किसी को बेबस नहीं करते, और तुम दया भाव के साथ दूसरों की मदद कर पाते हो। तुम सभी को प्रावधान और लाभ पाने में मदद कर सकते हो, और तुम लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के सही रास्ते में प्रवेश करने के लिए दिशा दिखा सकते हो। इसके अलावा, इस काम के दौरान तुम अपने रुतबे या हितों के लिए प्रयास नहीं करते हो, जो तुमने अर्जित नहीं किया है उसे अपने लिए नहीं रखते हो, अपने लिए आवाज नहीं उठाते, और कोई चाहे तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम उसके साथ अच्छे से पेश आते हो। तब तुम अपेक्षाकृत अच्छे आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति होगे। यह आसान बात नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी काम को हाथ में ले और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके वचनों की वास्तविकता में लेकर आए। सत्य वास्तविकता के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो काम में बड़ी खूबियों पर भरोसा करते हैं, जो गिरकर विफल हो जाते हैं। जिनके पास सत्य नहीं होता है वे लोग बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं होते हैं, और अगर उन्होंने अपने स्वभाव नहीं बदले हैं, तो उन पर और भी भरोसा नहीं कर सकते।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य सिद्धांत के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन इसी तरह से दिखता है। जो लोग स्वभाव में परिवर्तन से गुज़रे हैं, उन लोगों की मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य समझ लिया है, और कार्य करते समय तो वे सापेक्ष सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता नहीं दिखाते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और दंभ नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। उन्हें कौन-सा स्थान लेना चाहिए और ऐसी कौन-सी चीजें करनी चाहिए जो उचित हो, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, क्या कहना और क्या नहीं कहना चाहिए, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना चाहिए, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इस प्रकार जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं और सही मायनों में ऐसे लोग ही इंसानियत को जीते हैं। क्योंकि उन्हें सत्य की समझ होती है, वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, मामले या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य सिद्धांत को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव सापेक्षिक रूप से स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि बाहरी तौर पर ऐसा क्या करना चाहिए ताकि दूसरे उनके बारे में अच्छा सोचें; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस बारे में उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कोई महत्वपूर्ण काम किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत-सी सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके कार्यकलाप के सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनके स्वभाव में बिलकुल कोई परिवर्तन नहीं हुआ होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
धर्म के दायरे में बहुत से लोग सारा जीवन अत्यंत कष्ट भोगते हैं : अपने शरीर को वश में रखते हैं और चुनौतियों का सामना करते हैं, यहाँ तक कि अंतिम सांस तक पीड़ा भी सहते हैं! कुछ लोग अपनी मृत्यु की सुबह भी उपवास रखते हैं। वे जीवन-भर स्वयं को अच्छे भोजन और अच्छे कपड़ों से दूर रखते हैं और केवल पीड़ा सहने पर ही ज़ोर देते हैं। वे अपने शरीर को वश में करके दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर देते हैं। पीड़ा सहन करने का जोश सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी अवधारणाओं, उनके मानसिक रवैये और निश्चय ही उनके पुराने स्वभाव की लेशमात्र भी काट-छाँट नहीं की गई है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं होती। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि होती है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प, उनके उत्साह और उनकी मानवता के अच्छे चरित्र से आता है। हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न ही उसकी इच्छा जानते हैं। वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं और पीड़ा सहते हैं। विवेक पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं होती कि वे यह कैसे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर की इच्छा पूरी करे। उन्हें इसका ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं होता कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं, वह परमेश्वर की अपनी अंतर्निहित छवि नहीं है, बल्कि उनकी कल्पनाओं का एक परमेश्वर जिसके बारे में उन्होंने बस सुना है या लेखों में बस उनकी कहानियाँ सुनी हैं। फिर वे अपनी उर्वर कल्पनाओं और धर्मनिष्ठता का उपयोग परमेश्वर की खातिर पीड़ा सहने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य का दायित्व स्वयं ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अनिश्चित होती है, ऐसी कि उनमें से कोई भी परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने के पूरी तरह योग्य नहीं होता। चाहे वे स्वेच्छा से जितनी भी पीड़ा भुगतते हों, सेवा पर उनका मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है, क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय, उसकी ताड़ना, उसके शुद्धिकरण और उसकी पूर्णता से नहीं गुज़रे हैं, न ही किसी ने सत्य द्वारा उनका मार्गदर्शन किया है। भले ही वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते हों, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं होता। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से ही उसके बारे में जानते हैं। इसलिए उनकी सेवा आँख बंद करके बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे स्वीकृति कौन देगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव-निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को केवल अपनी स्वाभाविकता और ख़ुद की पसंद पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि पतरस, जिसने यीशु को देखा था, वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा कैसे करनी है; अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही वह इसे समझ पाया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह की काट-छाँट का ज़रा-भी अनुभव नहीं किया और जिनका किसी ने मार्गदर्शन नहीं किया? क्या आजकल तुम लोगों में से अधिकांश की सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह ही नहीं है? जिन लोगों का न्याय नहीं हुआ है, जिनकी काट-छाँट नहीं हुई है, जो नहीं बदले हैं—क्या वे अधूरे ढंग से नहीं जीते गए हैं? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और तुम्हें वास्तव में थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम कभी भी अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं कर पाओगे! परमेश्वर के कार्य की एक नई समझ और दर्शन के बिना, तुम पर विजय नहीं पाई गई है। फिर परमेश्वर का अनुसरण करने का तुम्हारा तरीका उन्हीं लोगों की तरह होगा जो पीड़ा सहते हैं और उपवास रखते हैं : उसका कोई मूल्य नहीं होगा! वे जो करते हैं उसमें कोई गवाही नहीं होती, इसीलिए मैं कहता हूँ कि उनकी सेवा व्यर्थ होती है! जीवनभर वे लोग कष्ट भोगते हैं और बंदीगृह में समय बिताते हैं; वे हर पल सहनशील, दयालु होते हैं और हमेशा चुनौतियों का सामना करते हैं। उन्हें दुनिया बदनाम करती है, नकार देती है और वे हर तरह की कठिनाई का अनुभव करते हैं। हालाँकि वे अंत तक आज्ञापालन करते हैं, लेकिन फिर भी, उन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती और वे विजय प्राप्ति की कोई भी गवाही पेश नहीं कर पाते। वे कम कष्ट नहीं भोगते, लेकिन अपने भीतर वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। उनकी पुरानी सोच, पुरानी अवधारणाओं, धार्मिक प्रथाओं, मानव-निर्मित ज्ञान और मानवीय विचारों में से किसी की भी काट-छाँट नहीं हुई होती है। उनमें कोई नई समझ नहीं होती। परमेश्वर के बारे में उनकी थोड़ी-सी भी समझ सही या सटीक नहीं होती। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को गलत समझ लिया होता है। क्या इससे परमेश्वर की सेवा होती है? तुमने परमेश्वर के बारे में अतीत में जो कुछ भी समझा हो, यदि तुम उसे आज भी बनाए रखो और चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, तुम परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान को अपनी अवधारणाओं और विचारों पर आधारित रखना जारी रखो, अर्थात्, तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई नया, सच्चा ज्ञान न हो और तुम परमेश्वर की वास्तविक छवि और स्वभाव को जानने में विफल रहे हो, यदि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ अभी भी सामंती, अंधविश्वासी सोच पर आधारित है और अब भी मानवीय कल्पनाओं और अवधारणाओं से पैदा हुई है, तो तुम पर विजय प्राप्त नहीं की गई है। मैं अब जो सारे वचन कहता हूँ, उनका उद्देश्य यह है कि तुम जान सको, और यह ज्ञान तुम्हें एक सटीक और नई समझ की ओर ले जाए; इनका उद्देश्य तुम लोगों के भीतर बसी पुरानी अवधारणाओं और ज्ञान को काटना-छाँटना भी है। अगर तुम सच में मेरे वचनों को खाते-पीते हो, तो तुम्हारे ज्ञान में काफी बदलाव आएगा। यदि तुम एक समर्पित हृदय के साथ परमेश्वर के वचनों को खाओगे-पिओगे, तो तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदल जाएगा। यदि तुम बार-बार ताड़ना को स्वीकार कर पाओ, तो तुम्हारी पुरानी मानसिकता धीरे-धीरे बदल जाएगी। यदि तुम्हारी पुरानी मानसिकता पूरी तरह से नई बन जाए, तो तुम्हारा अभ्यास भी तदनुसार बदलेगा। इस तरह तुम्हारी सेवा अधिक से अधिक लक्ष्य पर होगी और अधिक से अधिक परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर पाएगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (3)
परमेश्वर की नजरों में, परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह हर चीज सत्य विरोधी, परमेश्वर के वचनों के प्रतिकूल और उसके विरोध में है। तुम लोग शायद इसे भी स्वीकार न सको और यह कहने लगो : “हम परमेश्वर की सेवा करते हैं, परमेश्वर की आराधना करते हैं, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं। हम इतना सब कुछ कर चुके हैं, वह भी परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार, और उसकी कार्य व्यवस्थाओं के अनुरूप किया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि हम परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करते हैं? तुम हमारे उत्साह को हमेशा ठंडा क्यों कर देते हो? हमने बमुश्किल अपने परिवार और करियर छोड़े, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए दृढ़ निश्चयी रहे, तो तुम हमारे बारे में इस तरह कैसे बोल सकते हो?” इस तरह बोलने का उद्देश्य यह है कि हरेक व्यक्ति इसे अच्छे से समझे : बात यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अगर काफी अच्छा व्यवहार करता है, या कुछ त्याग करता है, या थोड़ा कष्ट सहता है, तो उसकी विश्वासघाती प्रकृति बदल जाएगी। कतई नहीं! कष्ट भोगना जरूरी है, तो अपना कर्तव्य निभाना भी जरूरी है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम कष्ट भोग सकते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब मिट चुका है। इसका कारण यह है कि किसी के भीतरी जीवन स्वभाव में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और हर कोई परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने और उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने से अभी कोसों दूर है। लोगों के परमेश्वर में विश्वास में बहुत ही मिलावट है, उनका बहुत ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है। भले ही बहुत सारे अगुआ या कार्यकर्ता परमेश्वर की सेवा करते हैं, लेकिन वे उसका विरोध भी करते हैं। इसका क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि वे जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध चलते हैं और उसकी इच्छा के अनुसार अभ्यास नहीं करते हैं। वे जानबूझकर सत्य का उल्लंघन करते हैं, मनमाने ढंग से कार्य करने पर जोर देते हैं, ताकि अपने इरादे और लक्ष्य पूरे कर सकें, परमेश्वर को धोखा देकर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकें, जहाँ जो वे कहें बस वही हो। परमेश्वर की सेवा करने लेकिन उसका विरोध भी करने का यही अर्थ है। क्या तुम अब समझे?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
जब तुम वास्तव में सत्य को समझ जाते हो और उसे अपने भीतर से प्यार करना शुरू कर देते हो, तो तुम उन चीजों को करना आसान पाओगे, जो सत्य के अनुरूप हैं। तुम सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य का अभ्यास करोगे—बल्कि सहजता से और आनंद से, और तुम महसूस करोगे कि कोई नकारात्मक चीज़ करने के लिए भारी प्रयास की आवश्यकता होगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सत्य ने तुम्हारे दिल में एक प्रमुख भूमिका ले ली है। अगर तुम वाकई मानव-जीवन का सत्य समझते हो, तो तुम्हारे पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा कि तुम्हें किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए—किस तरह एक निष्कपट और सीधा-सादा व्यक्ति बनना चाहिए, एक ईमानदार व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर की गवाही देता हो और उसकी सेवा करता हो। और एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तो तुम फिर कभी परमेश्वर की अवहेलना करने वाले बुरे कार्य करने में सक्षम नहीं होगे, और न ही तुम कभी एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह-विरोधी की भूमिका निभाओगे। भले ही शैतान तुम्हें गुमराह करे या कोई दुष्ट तुम्हें उकसाए, तुम वो नहीं करोगे; कोई तुम्हारे साथ कितनी भी ज़बरदस्ती करे, तुम फिर भी वैसा नहीं करोगे। यदि लोग सत्य को प्राप्त कर लेते हैं और सत्य उनका जीवन बन जाता है, तो वे बुराई से घृणा करने लगेंगे और नकारात्मक चीजों से आंतरिक विरक्ति महसूस करेंगे। उनके लिए बुराई करना मुश्किल होगा, क्योंकि उनके जीवन स्वभाव बदल गए हैं और उन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बना दिया गया है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
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