12. परमेश्वर का परिसीमन और मूल्यांकन करने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर और मनुष्य की बराबरी पर बात नहीं की जा सकती। परमेश्वर का सार और कार्य मनुष्य के लिए सर्वाधिक अथाह और समझ से परे है। यदि परमेश्वर मनुष्य के संसार में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य न करे और अपने वचन न कहे, तो मनुष्य कभी भी परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाएगा। और इसलिए वे लोग भी, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर को समर्पित कर दिया है, उसका अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। यदि परमेश्वर कार्य करने के लिए तैयार न हो, तो मनुष्य चाहे कितना भी अच्छा क्यों न करे, वह सब व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि परमेश्वर के विचार मनुष्य के विचारों से सदैव ऊँचे रहेंगे और परमेश्वर की बुद्धि मनुष्य की समझ से परे है। और इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो लोग परमेश्वर और उसके कार्य को “पूरी तरह से समझने” का दावा करते करते हैं, वे मूर्खों की जमात हैं; वे सभी अभिमानी और अज्ञानी हैं। मनुष्य को परमेश्वर के कार्य को परिभाषित नहीं करना चाहिए; बल्कि, मनुष्य परमेश्वर के कार्य को परिभाषित नहीं कर सकता। परमेश्वर की दृष्टि में मनुष्य एक चींटी जितना महत्वहीन है; तो फिर वह परमेश्वर के कार्य की थाह कैसे पा सकता है? जो लोग गंभीरतापूर्वक यह कहना पसंद करते हैं, “परमेश्वर इस तरह से या उस तरह से कार्य नहीं करता,” या “परमेश्वर ऐसा है या वैसा है”—क्या वे अहंकारपूर्वक नहीं बोलते? हम सबको जानना चाहिए कि मनुष्य, जो कि देहधारी है, शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है। मानवजाति की प्रकृति ही है परमेश्वर का विरोध करना। मानवजाति परमेश्वर के समान नहीं हो सकती, परमेश्वर के कार्य के लिए परामर्श देने की उम्मीद तो वह बिलकुल भी नहीं कर सकती। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर मनुष्य का मार्गदर्शन कैसे करता है, तो यह स्वयं परमेश्वर का कार्य है। यह उचित है कि इस या उस विचार की डींग हाँकने के बजाय मनुष्य को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य धूल मात्र है। चूँकि हमारा इरादा परमेश्वर की खोज करने का है, इसलिए हमें परमेश्वर के विचार के लिए उसके कार्य पर अपनी अवधारणाएँ नहीं थोपनी चाहिए, और जानबूझकर परमेश्वर के कार्य का विरोध करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव का भरसक उपयोग तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। क्या ऐसा करना हमें मसीह-विरोधी नहीं बनाएगा? ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास कैसे कर सकते हैं? चूँकि हम विश्वास करते हैं कि परमेश्वर है, और चूँकि हम उसे संतुष्ट करना और उसे देखना चाहते हैं, इसलिए हमें सत्य के मार्ग की खोज करनी चाहिए, और परमेश्वर के अनुकूल रहने का मार्ग तलाशना चाहिए। हमें परमेश्वर के कड़े विरोध में खड़े नहीं होना चाहिए। ऐसे कार्यों से क्या भला हो सकता है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना

क्या बहुत से लोग इसलिए परमेश्वर का विरोध नहीं करते और पवित्र आत्मा के कार्य में इसलिए बाधा नहीं डालते क्योंकि वे परमेश्वर के विभिन्न और विविधतापूर्ण कार्यों को नहीं जानते हैं, और इसके अलावा, क्योंकि वे केवल चुटकीभर ज्ञान और सिद्धांत से संपन्न होते हैं जिससे वे पवित्र आत्मा के कार्य को मापते हैं? यद्यपि इस प्रकार के लोगों का अनुभव केवल सतही होता है, किंतु वे घमंडी और आसक्त प्रकृति के होते हैं और वे पवित्र आत्मा के कार्य को अवमानना से देखते हैं, पवित्र आत्मा के अनुशासन की उपेक्षा करते हैं और इसके अलावा, पवित्र आत्मा के कार्यों की “पुष्टि” करने के लिए अपने पुराने तुच्छ तर्कों का उपयोग करते हैं। वे दिखावा भी करते हैं, और अपनी शिक्षा और पांडित्य को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त होते हैं, और उन्हें यह भी भरोसा रहता है कि वे संसार भर में यात्रा करने में सक्षम हैं। क्या ये ऐसे लोग नहीं हैं जो पवित्र आत्मा द्वारा तिरस्कृत कर दिए गए हैं और क्या ये नए युग के द्वारा त्याग नहीं दिए जाएँगे? क्या ये वही अज्ञानी और अल्पज्ञानी घृणित लोग नहीं हैं जो परमेश्वर के सामने आते हैं और खुलेआम उसका विरोध करते हैं, जो केवल यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे कितने मेधावी हैं? बाइबल के अल्प ज्ञान के साथ, वे संसार के “शैक्षणिक समुदाय” में निरंकुश आचरण करने की कोशिश करते हैं, और केवल एक सतही सिद्धांत के साथ लोगों को सिखाते हुए, वे पवित्र आत्मा के कार्य को पलटने का प्रयत्न करते हैं, और इसे अपने खुद के विचारों की प्रक्रिया के इर्दगिर्द घुमाने का प्रयास करते हैं। अपनी अदूरदर्शिता के कारण वे एक ही झलक में परमेश्वर के 6,000 सालों के कार्यों को देखने की कोशिश करते हैं। इन लोगों के पास समझ नाम की कोई चीज ही नहीं है! वास्तव में, परमेश्वर के बारे में लोगों को जितना अधिक ज्ञान होता है, वे उसके कार्य का आकलन करने में उतने ही धीमे होते हैं। इसके अलावा, वे परमेश्वर के आज के कार्य के बारे में अपने ज्ञान की बहुत कम बात करते हैं, लेकिन वे अपने निर्णय में जल्दबाज़ी नहीं करते हैं। लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, वे उतने ही अधिक घमंडी और अति आत्मविश्वासी होते हैं और उतनी ही अधिक बेहूदगी से परमेश्वर के अस्तित्व की घोषणा करते हैं—फिर भी वे केवल सिद्धांत की बात ही करते हैं और कोई भी वास्तविक प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते। इस प्रकार के लोगों का कोई मूल्य नहीं होता है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य को एक खेल की तरह देखते हैं वे ओछे लोग होते हैं! जो लोग पवित्र आत्मा के नए कार्य का सामना करते समय सचेत नहीं रहते हैं, जो अपना मुँह चलाते रहते हैं, जो मीन-मेख निकालते रहते हैं, जो पवित्र आत्मा के धार्मिक कार्यों को नकारने के अपने मिजाज पर लगाम नहीं लगाते हैं, और जो उसका अपमान और ईशनिंदा भी करते हैं—क्या इस प्रकार के अशिष्ट लोग पवित्र आत्मा के कार्य से अनभिज्ञ नहीं हैं? इसके अलावा, क्या वे अत्यंत अहंकारी, अंतर्निहित रूप से घमंडी और दुर्दमनीय लोग नहीं हैं? कोई ऐसा दिन आ भी जाए जब ऐसे लोग पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार कर लें, तो भी परमेश्वर उन्हें सहन नहीं करेगा। न केवल वे उन्हें तुच्छ समझते हैं जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, बल्कि वे स्वयं भी परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा करते हैं, इस प्रकार के आततायी लोग, न तो इस युग में और न ही आने वाले युग में क्षमा किए जाएँगे, और वे हमेशा के लिए नरक में सड़ेंगे! इस प्रकार के अशिष्ट, आसक्त लोग परमेश्वर में भरोसा करने का दिखावा करते हैं और लोग जितने अधिक इस तरह के होते हैं, उतनी ही अधिक उनकी परमेश्वर के प्रशासकीय आदेशों का उल्लंघन करने की संभावना रहती है। क्या वे सभी अहंकारी लोग, जो स्वाभाविक रूप से उच्छृंखल हैं, और जिन्होंने कभी भी किसी का भी आज्ञापालन नहीं किया है, इसी मार्ग पर नहीं चलते हैं? क्या वे दिन प्रतिदिन परमेश्वर का विरोध नहीं करते हैं, वह परमेश्वर जो हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध इसलिए करते हो, या आज के कार्य को मापने के लिए अपनी ही धारणाओं का इसलिए उपयोग करते हो, क्योंकि तुम लोग परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों को नहीं जानते हो, और क्योंकि तुम पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो। तुम लोगों का परमेश्वर के प्रति विरोध और पवित्र आत्मा के कार्य में अवरोध तुम लोगों की धारणाओं और तुम लोगों के अंतर्निहित अहंकार के कारण है। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर का कार्य गलत है, बल्कि इसलिए है कि तुम लोग स्वाभाविक रूप से अत्यंत विद्रोही हो। परमेश्वर में विश्वास हो जाने के बाद भी, कुछ लोग यकीन से यह भी नहीं कह सकते हैं कि मनुष्य कहाँ से आया, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्यों के सही और गलत होने के बारे में बताते हुए सार्वजनिक भाषण देने का साहस करते हैं। यहाँ तक कि वे उन प्रेरितों को भी व्याख्यान देते हैं जिनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य है, उन पर टिप्पणी करते हैं और बेमतलब बोलते रहते हैं; उनकी मानवता बहुत ही निम्न है, और उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं होती है। क्या वह दिन नहीं आएगा जब इस प्रकार के लोग पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा तिरस्कृत कर दिए जाएँगे, और नरक की आग द्वारा भस्म कर दिए जाएँगे? वे परमेश्वर के कार्यों को नहीं जानते हैं, फिर भी उसके कार्य की आलोचना करते हैं और परमेश्वर को यह निर्देश देने की कोशिश करते हैं कि कार्य किस प्रकार किया जाए। इस प्रकार के अविवेकी लोग परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? मनुष्य खोजने और अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ही परमेश्वर को जान पाता है; न कि अपनी सनक में उसकी आलोचना करने के द्वारा मनुष्य पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से परमेश्वर को जान पाया है। परमेश्वर के बारे में लोगों का ज्ञान जितना अधिक सही होता जाता है, उतना ही कम वे उसका विरोध करते हैं। इसके विपरीत, लोग परमेश्वर के बारे में जितना कम जानते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की संभावना रहती है। तुम लोगों की धारणाएँ, तुम्हारी पुरानी प्रकृति, और तुम्हारी मानवता, चरित्र और नैतिक दृष्टिकोण वह पूँजी है जिससे तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और जितना अधिक तुम्हारी नैतिकता जितनी भ्रष्ट होगी, तुम्हारे गुण जितने तुच्छ और तुम्हारी मानवता जितनी निम्न होगी, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के शत्रु बन जाते हो। जो लोग प्रबल धारणाएँ रखते हैं और आत्मतुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे देहधारी परमेश्वर के प्रति और भी अधिक शत्रुतापूर्ण होते हैं; इस प्रकार के लोग मसीह-विरोधी हैं। यदि तुम्हारी धारणाओं में सुधार न किया जाए, तो वे सदैव परमेश्वर की विरोधी रहेंगी; तुम कभी भी परमेश्वर के अनुकूल नहीं होगे, और सदैव उससे दूर रहोगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है

यदि तुम परमेश्वर के मापन और परिसीमन के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हो, मानो परमेश्वर कोई मिट्टी की अचल मूर्ति हो, और अगर तुम लोग परमेश्वर को बाइबल के मापदंडों के भीतर सीमांकित करते हो और उसे कार्य के एक सीमित दायरे में समाविष्ट करते हो, तो इससे यह प्रमाणित होता है कि तुम लोगों ने परमेश्वर की निंदा की है। चूँकि पुराने विधान के युग के यहूदियों ने परमेश्वर को एक अचल प्रतिमा के रूप में लिया था, जिसे वे अपने हृदयों में रखते थे, मानो परमेश्वर को मात्र मसीह ही कहा जा सकता था, और मात्र वही, जिसे मसीह कहा जाता था, परमेश्वर हो सकता हो, और चूँकि मानवजाति परमेश्वर की सेवा और आराधना इस तरह से करती थी, मानो वह मिट्टी की एक (निर्जीव) मूर्ति हो, इसलिए उन्होंने उस समय के यीशु को मौत की सजा देते हुए सलीब पर चढ़ा दिया—निर्दोष यीशु को इस तरह मौत की सजा दे दी गई। परमेश्वर ने कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी मनुष्य ने उसे छोड़ने से इनकार कर दिया, और उसे मृत्युदंड देने पर जोर दिया, और इसलिए यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया गया। मनुष्य सदैव विश्वास करता है कि परमेश्वर स्थिर है, और वह उसे एक अकेली पुस्तक बाइबल के आधार पर परिभाषित करता है, मानो मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन की पूर्ण समझ हो, मानो मनुष्य वह सब अपनी हथेली पर रखता हो, जो परमेश्वर करता है। लोग बेहद बेतुके, बेहद अहंकारी और स्वभाव से बड़बोले हैं। परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान कितना भी महान क्यों न हो, मैं फिर भी यही कहता हूँ कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते, कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करता है, और कि तुमने परमेश्वर की निंदा की है, कि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलने में सर्वथा अक्षम हो। क्यों परमेश्वर मनुष्य के कार्यकलापों से कभी संतुष्ट नहीं होता? क्योंकि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, क्योंकि उसकी अनेक धारणाएँ है, क्योंकि उसका परमेश्वर का ज्ञान वास्तविकता से किसी भी तरह मेल नहीं खाता, इसके बजाय वह नीरस ढंग से एक ही विषय को बिना बदलाव के दोहराता रहता है और हर स्थिति के लिए एक ही दृष्टिकोण इस्तेमाल करता है। और इसलिए, आज पृथ्वी पर आने पर, परमेश्वर को एक बार फिर मनुष्य द्वारा सलीब पर चढ़ा दिया गया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुरे लोगों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा

वर्तमान में, ज्यादातर लोग सोचते हैं, “अंतिम दिनों में परमेश्वर ने जो कहा है वह सब ‘वचन देह में प्रकट होता है’ पुस्तक में है, तथा परमेश्वर के और कोई वचन नहीं हैं; परमेश्वर ने बस यही कहा है।” इस तरह सोचना एक बड़ी भूल है! ‘वचन देह में प्रकट होता है’ पुस्तक केवल यह बताती है कि चीन में परमेश्वर की विजय का कार्य पूरा हो चुका है, और समाप्त हो गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर का समस्त प्रबंधन समाप्त हो गया है। जब पूरे ब्रह्मांड का कार्य समाप्त हो जाता है, तो कोई केवल इतना ही कह सकता है कि छह हजार साल की प्रबंधन योजना समाप्त हो गई है; जब प्रबंधन योजना समाप्त होती है, तो क्या इस ब्रह्मांड में तब भी परमेश्वर मौजूद न होगा, लोग मौजूद न होंगे? जब तक जीवन का अस्तित्व है, जब तक मानवजाति मौजूद है, तब तक परमेश्वर का प्रबंधन प्रभावी होगा। जब छह हजार साल की प्रबंधन योजना पूरी हो जाती है, तो जब तक मानवजाति, जीना, जीवन और यह ब्रह्मांड मौजूद होंगे, तब तक परमेश्वर इसका प्रबंधन करता रहेगा, लेकिन उसे अब छह हजार साल की प्रबंधन योजना नहीं कहा जाएगा। फिलहाल हम इसे परमेश्वर के प्रबंधन के रूप में संदर्भित करते हैं। शायद इसे भविष्य में एक अलग नाम दिया जाएगा; वह मानवजाति और परमेश्वर के लिए एक अन्य जीवन होगा; परमेश्वर तब लोगों का नेतृत्व करने के लिए वर्तमान के वचनों का उपयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि ये वचन केवल इस अवधि के लिए उपयुक्त हैं। इसलिए, किसी भी समय परमेश्वर के काम को निरुपित मत करो। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर लोगों को केवल ये वचन प्रदान करता है, और कुछ भी नहीं; कि परमेश्वर केवल इन वचनों को ही कह सकता है—यह भी परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में सीमित करना है। यह वर्तमान में, इस राज्य के युग में, यीशु के युग के वचनों को लागू करने जैसा है—क्या यह उचित होगा? कुछ वचन लागू होंगे, और कुछ को मिटाने की आवश्यकता है, इसलिए तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर के वचनों को कभी मिटाया नहीं जा सकता है। क्या लोग आसानी से चीज़ों को निरुपित करते हैं? कुछ क्षेत्रों में, वे ऐसा करते हैं। शायद एक दिन, परमेश्वर के कदमों का साथ न निभाते हुए, तुम ‘वचन देह में प्रकट होता है’ पढ़ोगे, जैसे लोग आज बाइबल पढ़ते हैं। अभी ‘वचन देह में प्रकट होता है’ पढ़ने का सही समय है; इसे बाद में पढ़ना किसी पुराने, पीले पड़ चुके कैलेंडर को देखने जैसा होगा, क्योंकि उस समय पुराने का स्थान लेने के लिए कुछ नया आ चुका होगा। लोगों की ज़रूरतें परमेश्वर के कार्य के अनुसार उत्पन्न और विकसित होती हैं। उस समय, मानव प्रकृति, और वे सहज प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ जो लोगों के पास होनी चाहिए, कुछ हद तक बदल चुकी होंगी; इस दुनिया के बदलने के बाद, मानवजाति की ज़रूरतें अलग होंगी। कुछ लोग पूछते हैं: “क्या परमेश्वर बाद में बात करेगा?” कुछ इस निष्कर्ष पर आ जाएँगे कि “परमेश्वर बात नहीं करेगा, क्योंकि उसका काम खत्म हो गया है, और जब वचन का युग समाप्त हो जाता है, तो और कुछ नहीं कहा जा सकता है, और अन्य कोई भी वचन झूठे होंगे।” क्या यह भी गलत नहीं है?

युग-युगों के संतों में से, केवल मूसा और पतरस ही थे जो वास्तव में परमेश्वर को जानते थे, और परमेश्वर ने उनकी प्रशंसा की थी; बहरहाल, क्या वे परमेश्वर की थाह ले सके थे? वे जो समझे थे वह भी सीमित है। उन्होंने खुद ने यह कहने की हिम्मत नहीं की थी कि वे परमेश्वर को जानते थे। जो लोग वास्तव में परमेश्वर को जानते हैं, वे उसे निरुपित नहीं करते हैं, क्योंकि वे इसका एहसास करते हैं कि परमेश्वर अथाह और असीम है। जो लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे ही उसको, जो उसके पास है और जो वह है, उसे निरुपित करने के लिए तत्पर होते हैं, वे परमेश्वर के बारे में कल्पना से भरे होते हैं, वे परमेश्वर के हर कार्य के बारे में अवधारणाओं को आसानी से बना लेते हैं। इसलिए, जो लोग मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, वे परमेश्वर के प्रति सबसे अधिक प्रतिरोधी होते हैं, और वे वो लोग हैं जो सबसे अधिक ख़तरे में हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

यह जानकर कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लोग परमेश्वर को प्रेम के प्रतीक के रूप में परिभाषित करते हैं : उन्हें लगता है, चाहे लोग कुछ भी करें, कैसे भी पेश आएँ, चाहे परमेश्वर से कैसा ही व्यवहार करें, चाहे वे कितने ही विद्रोही क्यों न हो जाएँ, किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि परमेश्वर में प्रेम है, परमेश्वर का प्रेम असीमित और अथाह है। परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के साथ सहिष्णु हो सकता है; परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अपरिपक्वता के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अज्ञानता के प्रति करुणाशील हो सकता है, और उनके विद्रोहीपन के प्रति करुणाशील हो सकता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? कुछ लोग एक बार या कुछ बार परमेश्वर के धैर्य का अनुभव कर लेने पर, वे इन अनुभवों को परमेश्वर के बारे में अपनी समझ की एक पूँजी मानने लगते हैं, यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर उनके प्रति हमेशा धैर्यवान और दयालु रहेगा, और फिर जीवन भर परमेश्वर के धैर्य को एक ऐसे मानक के रूप में मानते हैं जिससे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करता है। ऐसे भी लोग हैं जो, एक बार परमेश्वर की सहिष्णुता का अनुभव कर लेने पर, हमेशा के लिए परमेश्वर को सहिष्णु के रूप में परिभाषित करते हैं, उनकी नजर में यह सहिष्णुता अनिश्चित है, बिना किसी शर्त के है, यहाँ तक कि पूरी तरह से असैद्धांतिक है। क्या ऐसा विश्वास सही है? जब भी परमेश्वर के सार या परमेश्वर के स्वभाव के मामलों पर चर्चा की जाती है, तो तुम लोग उलझन में दिखाई देते हो। तुम लोगों को इस तरह देखना मुझे बहुत चिंतित करता है। तुम लोगों ने परमेश्वर के सार के बारे में बहुत से सत्य सुने हैं; तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव से संबंधित बहुत-सी चर्चाएँ भी सुनी हैं। लेकिन, तुम लोगों के मन में ये मामले और इन पहलुओं की सच्चाई, सिद्धांत और लिखित वचनों पर आधारित मात्र स्मृतियाँ हैं। तुममें से कोई भी अपने दैनिक जीवन में, यह अनुभव करने या देखने में सक्षम नहीं है कि वास्तव में परमेश्वर का स्वभाव क्या है। इसलिए, तुम सभी लोग अपने-अपने विश्वास में गड़बड़ा गए हो, तुम आँखें मूँदकर इस हद तक विश्वास करते हो कि परमेश्वर के प्रति तुम लोगों की प्रवृत्ति श्रद्धाहीन हो जाती है, बल्कि तुम लोग उसे एक ओर धकेल भी देते हो। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति किस ओर ले जाती है? यह उस ओर ले जाती है जहाँ तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालते रहते हो। थोड़ा सा ज्ञान मिलते ही तुम एकदम संतुष्ट हो जाते हो, जैसे कि तुमने परमेश्वर को उसकी संपूर्णता में पा लिया हो। उसके बाद, तुम लोग निष्कर्ष निकालते हो कि परमेश्वर ऐसा ही है, और तुम उसे स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने नहीं देते। इसके अलावा, परमेश्वर जब कभी भी कुछ नया करता है, तो तुम स्वीकार नहीं करते कि वह परमेश्वर है। एक दिन, जब परमेश्वर कहेगा : “मैं मनुष्य से अब प्रेम नहीं करता; अब मैं मनुष्य पर दया नहीं करूँगा; अब मनुष्य के प्रति मेरे मन में सहिष्णुता या धैर्य नहीं है; मैं मनुष्य के प्रति अत्यंत घृणा एवं चिढ़ से भर गया हूँ”, तो लोगों के दिल में द्वंद्व पैदा हो जाएगा। कुछ लोग तो यहाँ तक कहेंगे, “अब तुम हमारे परमेश्वर नहीं हो, ऐसे परमेश्वर नहीं हो जिसका मैं अनुसरण करना चाहता हूँ। यदि तुम ऐसा कहते हो, तो अब तुम मेरे परमेश्वर होने के योग्य नहीं हो, और मुझे तुम्हारा अनुसरण करते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम मुझे करुणा, प्रेम सहिष्णुता नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगा। यदि तुम अनिश्चित काल तक मेरे प्रति सहिष्णु बने रहते हो, धैर्यवान बने रहते हो, और मुझे देखने देते हो कि तुम प्रेम हो, धैर्य हो, सहिष्णुता हो, तभी मैं तुम्हारा अनुसरण कर सकता हूँ, और तभी मेरे अंदर अंत तक तुम्हारा अनुसरण करने का आत्मविश्वास आ सकता है। चूँकि मेरे पास तुम्हारा धैर्य और करुणा है, तो मेरे विद्रोह और अपराधों को अनिश्चित काल तक क्षमा किया जा सकता है, अनिश्चित काल तक माफ किया जा सकता है, मैं किसी भी समय और कहीं पर भी पाप कर सकता हूँ, किसी भी समय और कहीं पर भी पाप स्वीकार कर माफी पा सकता हूँ, और किसी भी समय और कहीं पर भी मैं तुम्हें क्रोधित कर सकता हूँ। तुम मेरे बारे में कोई राय नहीं रख सकते और निष्कर्ष नहीं निकाल सकते।” यद्यपि तुममें से कोई भी ऐसे मसलों पर आत्मनिष्ठ या सचेतन रूप से न सोचे, फिर भी जब कभी परमेश्वर को तुम अपने पापों को क्षमा करने का कोई यंत्र या एक खूबसूरत मंजिल पाने के लिए उपयोग की जाने वाली कोई वस्तु समझते हो, तो तुमने धीरे से जीवित परमेश्वर को अपने विरोधी, अपने शत्रु के स्थान पर रख लिया है। मैं तो यही देखता हूँ। भले ही तुम ऐसी बातें कहते रहो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ”; “मैं सत्य की खोज करता हूँ”; “मैं अपने स्वभाव को बदलना चाहता हूँ”; “मैं अंधकार के प्रभाव से आज़ाद होना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना चाहता हूँ, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहता हूँ”; इत्यादि। लेकिन, तुम्हारी बातें कितनी ही मधुर हों, चाहे तुम्हें कितने ही सिद्धांतों का ज्ञान हो, चाहे वह सिद्धांत कितना ही प्रभावशाली या गरिमापूर्ण हो, लेकिन सच्चाई यही है कि तुम लोगों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने पहले से ही जान लिया है कि किस प्रकार परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए उन नियमों, मतों और सिद्धांतों का उपयोग करना है जिन पर तुम लोगों ने महारत हासिल कर ली है, और स्वाभाविक है कि ऐसा करके तुमने परमेश्वर को अपने विरुद्ध कर लिया है। भले ही तुमने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली हो, फिर भी तुमने असल में सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे लिए परमेश्वर के करीब होना, उसे जानना-समझना बहुत कठिन है। यह बेहद खेद योग्य है!

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

लोग नियमों को कठोरता से लागू करना, और ऐसे नियमों का परमेश्वर को सीमांकित और परिभाषित करने के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं, वैसे ही जैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए सूत्रों का उपयोग करना पसंद करते हैं। इसलिए, जहाँ तक मानवीय विचारों के दायरे का संबंध है, परमेश्वर न तो सोचता है, न ही उसके पास कोई सारभूत विचार हैं। वास्तव में परमेश्वर के विचार चीज़ों और वातावरण में परिवर्तन के अनुसार निरंतर रूपांतरण की स्थिति में रहते हैं। जब ये विचार रूपांतरित हो रहे होते हैं, तब परमेश्वर के सार के विभिन्न पहलू प्रकट हो रहे होते हैं। रूपांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान, ठीक उसी क्षण, जब परमेश्वर अपना मन बदलता है, तब वह मानवजाति को अपने जीवन का वास्तविक अस्तित्व दिखाता है और यह भी दिखाता है कि उसका धार्मिक स्वभाव गतिशील जीवन-शक्ति से भरा है। उसी समय, परमेश्वर मानवजाति के सामने अपने कोप, अपनी दया, अपनी प्रेममय करुणा और अपनी सहनशीलता के अस्तित्व की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए अपने सच्चे प्रकाशनों का उपयोग करता है। उसका सार चीज़ों के विकसित होने के ढंग के अनुसार किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकता है। उसमें एक सिंह का कोप और एक माता की ममता और सहनशीलता है। उसका धार्मिक स्वभाव किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रश्न किए जाने, उल्लंघन किए जाने, बदले जाने या तोड़े-मरोड़े जाने की अनुमति नहीं देता। समस्त मामलों और सभी चीज़ों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, अर्थात् परमेश्वर का कोप और उसकी दया, किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकती है। वह समस्त सृष्टि के प्रत्येक कोने में इन पहलुओं को मार्मिक अभिव्यक्ति देता है, और हर गुज़रते पल में उन्हें जीवंतता के साथ लागू करता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान द्वारा सीमित नहीं है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान की बाधाओं के अनुसार यांत्रिक रूप से व्यक्त या प्रकाशित नहीं होता, बल्कि, किसी भी समय और स्थान पर बिल्कुल आसानी से व्यक्त और प्रकाशित होता है। जब तुम परमेश्वर को अपना मन बदलते और अपने कोप को थामते और नीनवे के लोगों का नाश करने से पीछे हटते हुए देखते हो, तो क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेमपूर्ण है? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप खोखले वचनों से युक्त है? जब परमेश्वर प्रचंड कोप प्रकट करता है और अपनी दया वापस ले लेता है, तो क्या तुम कह सकते हो कि वह मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम महसूस नहीं करता? यह प्रचंड कोप परमेश्वर द्वारा लोगों के बुरे कार्यों के प्रत्युतर में व्यक्त किया जाता है; उसका कोप दोषपूर्ण नहीं है। परमेश्वर का हृदय लोगों के पश्चात्ताप से द्रवित हो जाता है, और यह पश्चात्ताप ही उसका हृदय-परिवर्तन करवाता है। जब वह द्रवित महसूस करता है, जब उसका हृदय-परिवर्तन होता है, और जब वह मनुष्य के प्रति अपनी दया और सहनशीलता दिखाता है, तो ये सब पूरी तरह से दोषमुक्त होते हैं; ये स्वच्छ, शुद्ध, निष्कलंक और मिलावट-रहित हैं। परमेश्वर की सहनशीलता ठीक वही है : सहनशीलता, जैसे कि उसकी दया सिवाय दया के कुछ नहीं है। उसका स्वभाव मनुष्य के पश्चात्ताप और उसके आचरण में भिन्नता के अनुसार कोप या दया और सहनशीलता प्रकाशित करता है। चाहे वह कुछ भी प्रकाशित या व्यक्त करता हो, वह सब पवित्र और प्रत्यक्ष है; उसका सार किसी सृजित प्राणी से अलग है। जब परमेश्वर अपने कार्यों में निहित सिद्धांतों को व्यक्त करता है, तो वे किसी भी त्रुटि या दोष से मुक्त होते हैं, और ऐसे ही उसके विचार, उसकी योजनाएँ और उसके द्वारा लिया जाने वाला हर निर्णय और उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य है। चूँकि परमेश्वर ने ऐसा निर्णय लिया है और चूँकि उसने इस तरह कार्य किया है, इसलिए इसी तरह से वह अपने उपक्रम भी पूरे करता है। उसके उपक्रमों के परिणाम सही और दोषरहित इसलिए होते हैं, क्योंकि उनका स्रोत दोषरहित और निष्कलंक है। परमेश्वर का कोप दोषरहित है। इसी प्रकार, परमेश्वर की दया और सहनशीलता—जो किसी भी सृजित प्राणी के पास नहीं हैं—पवित्र एवं निर्दोष हैं और विचारपूर्ण विवेचना और अनुभव पर खरी उतर सकती हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

कुछ लोग जब यह देखते हैं कि परमेश्वर के वचन वाकई सत्य हैं तो वे उस पर विश्वास करने लगते हैं। लेकिन, जब वे परमेश्वर के घर पहुँचकर देखते हैं कि परमेश्वर एक मामूली इंसान हैं, तो वे अपने दिलों में धारणाएँ पाल लेते हैं। उनकी कथनी-करनी असंयमित हो जाती है, वे मनमानी करने लगते हैं, गैर-जिम्मेदारी से बात करते हैं और उन्हें जैसा ठीक लगता है उस तरह आलोचना और बदनामी करते हैं। ऐसे दुष्ट लोग इसी तरह उजागर होते हैं। ये मानवता विहीन प्राणी अक्सर बुरे काम कर कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, और उनका कभी भला नहीं होता! वे खुलेआम परमेश्वर का विरोध करते हैं, उसे बदनाम करते हैं, उसकी आलोचना और अपमान करते हैं, वे खुलेआम उनकी निंदा कर उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। ऐसे लोगों को सख्त सजा मिलने वाली है। कुछ लोग झूठे अगुआ की श्रेणी में आते हैं, और हटा दिए जाने के बाद वे परमेश्वर से लगातार नाराज रहते हैं। वे अपनी धारणाएँ फैलाना और भड़ास निकालना जारी रखने के लिए सभाओं का फायदा उठाते हैं; वे कोई भी कठोर बात कह सकते हैं या ऐसी बात भी कह सकते हैं जो उनकी घृणा को व्यक्त करती हो। क्या ऐसे लोग दुष्ट नहीं हैं? परमेश्वर के घर से निकाल दिए जाने के बाद उन्हें पश्चात्ताप होने लगता है और वे दावा करते हैं कि मूर्खता के क्षण में उन्होंने कुछ गलत कह दिया। कुछ लोग उन्हें पहचानने से चूक जाते हैं और कहते हैं, “वे बहुत दुःखी हैं और उन्हें दिल से पश्चात्ताप है। वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उसे नहीं जानते, तो चलो हम उन्हें माफ कर दें।” क्या माफी इतनी आसानी से दी जा सकती है? लोगों की भी अपनी गरिमा होती है, और यहाँ तो परमेश्वर की बात हो रही है! जब ये लोग परमेश्वर की निंदा कर उसे बदनाम कर चुके होते हैं, उसके बाद कुछ लोगों को लगता है कि इन्हें पश्चात्ताप हो रहा है और वे इन्हें यह कहकर माफ कर देते हैं कि इन्होंने मूर्खता के क्षण में ऐसी हरकत की—लेकिन क्या वो मूर्खता का क्षण था? उनकी कथनी के पीछे हमेशा कोई न कोई इरादा छिपा होता है और वे परमेश्वर की आलोचना करने की जुर्रत तक कर डालते हैं। परमेश्वर का घर उन्हें पद से हटा देता है, वे अपनी हैसियत से मिलने वाले लाभ खो देते हैं, और बहिष्कृत कर दिए जाने के भय से वे बाद में कई शिकायतें करते हैं और बुरी तरह रोते हुए पश्चात्ताप करते हैं। क्या इससे कुछ फायदा होता है? एक बार मुँह से निकले शब्द जमीन पर बिखरे पानी के समान होते हैं जिसे वापस नहीं बटोरा जा सकता। क्या परमेश्वर यह बर्दाश्त करेगा कि लोग जब चाहें तब उनका विरोध करते रहें, उसकी आलोचना और निंदा करते रहें? क्या वह इसे यूँ ही अनदेखा करेगा? अगर ऐसा हुआ, तो परमेश्वर की कोई गरिमा ही नहीं रहेगी। कुछ लोग विरोध करने के बाद कहते हैं, “हे, परमेश्वर, तुम्हारे अनमोल खून ने मुझे बचाया है। तुम चाहते हो कि हम तमाम लोगों को सत्तर गुना सात बार माफ करें—तो फिर तुम्हें मुझको भी माफ कर देना चाहिए!” कितनी बेशर्मी है! कुछ लोग परमेश्वर के बारे में अफवाहें फैलाते हैं और उसे बदनाम करने के बाद डरने लगते हैं। दंड पाने के डर से वे जल्दी से घुटनों के बल बैठ जाते हैं और प्रार्थना करने लगते हैं : “परमेश्वर! मुझे छोड़ना मत, मुझे दंड मत देना। मैं कबूल करता हूँ, पछता रहा हूँ, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, मैंने गलत किया।” तुम्हीं बताओ, क्या ऐसे लोगों को माफ किया जा सकता है? नहीं! क्यों नहीं? उन्होंने जो किया उससे पवित्र आत्मा का अपमान होता है, और पवित्र आत्मा की निंदा के पाप को कभी माफ नहीं किया जाएगा, न तो इस जीवन में और न अगले जीवन में! परमेश्वर अपने वचनों पर कायम रहता है। उसमें गरिमा है, क्रोध है और उसका धार्मिक स्वभाव है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर मनुष्य जैसा है, अगर कोई उससे जरा-सा अच्छा व्यवहार करे, तो वह उनके पिछले अपराधों को अनदेखा कर देगा? ऐसा कुछ नहीं है! अगर तुमने परमेश्वर का विरोध किया, तो क्या तुम्हारे लिए चीजें अच्छी होने लगेंगी? यह बात तब समझ में आती है जब तुम मूर्खता के क्षण में कुछ गलत कर देते हो या कभी-कभार थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देते हो। लेकिन अगर तुम सीधे-सीधे परमेश्वर का विरोध करोगे, उससे विद्रोह करोगे और उसके खिलाफ खड़े हो जाओगे, अगर तुम उसे बदनाम करोगे, उसकी निंदा करोगे और उसके बारे में अफवाहें फैलाओगे, तो तुम्हारी पूरी तरह बर्बादी तय है। ऐसे लोगों को अब और प्रार्थना करने की और जरूरत नहीं है; उन्हें बस सजा मिलने का इंतजार करना चाहिए। वे माफी के लायक नहीं हैं! जब वो समय आए तो बेशर्मी से यह मत कहना, “परमेश्वर, कृपया मुझे माफ कर दो!” अफसोस है कि चाहे तुम कैसे भी विनती क्यों न कर लो, उससे कुछ नहीं होने वाला। थोड़ा-सा भी सत्य समझ लेने के बाद अगर लोग जानबूझकर अपराध करते हैं, तो उन्हें माफ नहीं किया जा सकता। इससे पहले यह कहा जा चुका है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति के अपराध याद नहीं रखता। वो बात उन छोटे अपराधों के बारे में थी जिनमें परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश शामिल नहीं हैं और जो परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित नहीं करते हैं। इनमें परमेश्वर की निंदा और उसे बदनाम करना शामिल नहीं है। लेकिन अगर तुमने एक बार भी परमेश्वर की निंदा, आलोचना या बदनामी की, तो यह एक पक्का दाग बन जाएगा जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता। लोग जब चाहें तब परमेश्वर की निंदा और उसका अपमान करना चाहते हैं और फिर आशीष पाने के लिए उसका फायदा भी उठाना चाहते हैं। दुनिया में इससे निकृष्ट बात कोई और है ही नहीं! लोग हमेशा यही सोचते हैं कि परमेश्वर दयालु और मेहरबान है, परोपकारी है, उसका दिल विशाल और असीम है, वह लोगों के अपराध याद नहीं रखता और लोगों के पिछले अपराध और कार्य भुलाकर उन्हें माफ कर देता है। छोटे-मोटे मामलों में पुरानी बातें भूलकर माफी दी जा सकती है। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी माफ नहीं करेगा जो खुलेआम उसका विरोध और निंदा करते हों।

भले ही कलीसिया में अधिकतर लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपने दिलों में परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं। इससे पता चलता है कि अधिकतर लोगों को परमेश्वर के स्वभाव का सच्चा ज्ञान नहीं है, इसलिए उनके लिए परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना मुश्किल है। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास के दौरान उसका आदर नहीं करते या भय नहीं मानते और जब परमेश्वर का कार्य उनके हितों को छेड़ने लगे तो जो मन में आए बोलने लगते हैं तो क्या उनकी बात खत्म हो जाने पर वो मामला भी वहीं खत्म हो जाएगा? उसके बाद उनको अपनी कही बातों की कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी, और यह कोई साधारण मामला नहीं है। कुछ लोग जब परमेश्वर की निंदा करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, तो क्या उनका दिल जानता है कि वो क्या कह रहे हैं? ऐसी बातें कहने वाले सभी लोगों का दिल जानता है कि वो क्या कह रहे हैं। जिन लोगों पर बुरी आत्माओं का साया है और जो असामान्य समझ के हैं, उन्हें छोड़कर बाकी सभी सामान्य लोगों का दिल जानता है कि वो क्या कह रहे हैं। अगर वे कहते हैं कि उन्हें नहीं पता, तो वे झूठ बोल रहे हैं। बोलते समय वे सोचते हैं : “मुझे पता है कि तुम परमेश्वर हो। मैं कह रहा हूँ कि तुम सही नहीं कर रहे हो, तो तुम मेरा क्या बिगाड़ लोगे? मेरी बात खत्म होने पर तुम क्या करोगे?” वे ऐसा जानबूझकर करते हैं, उनका उद्देश्य दूसरों को तंग करना, उन्हें अपने पाले में खींचना, उनसे भी ऐसी ही बातें कहलाना और ऐसी ही चीजें करवाना है। वे जानते हैं कि वे जो कह रहे हैं वो परमेश्वर को खुली चुनौती है, यह बात परमेश्वर के खिलाफ जाती है, यह परमेश्वर की ईशनिंदा है। इस बारे में विचार कर लेने के बाद उन्हें लगता है कि उन्होंने जो किया वो गलत था : “मैं क्या कह रहा था? वो आवेग के क्षण में कहा और इसका मुझे वाकई अफसोस है!” उनके अफसोस से साबित हो जाता है कि वे यह जानते थे कि वे उस समय वास्तव में क्या कर रहे थे; ऐसा नहीं है कि उन्हें पता ही नहीं था। अगर तुम्हें लगता है कि वे क्षणिक रूप से बुद्धि खो बैठे और भ्रमित हो गए थे, कि उन्हें अच्छी तरह समझ नहीं आया था, तो यह पूरी तरह सही नहीं है। हो सकता है कि लोग पूरी तरह समझ न पाए हों, लेकिन अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुममें न्यूनतम सहजबुद्धि तो होनी ही चाहिए। परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तुम्हें परमेश्वर का भय मानना चाहिए और उसका आदर करना चाहिए। तुम जैसे चाहो वैसे परमेश्वर की निंदा या आलोचना या बदनामी नहीं कर सकते। क्या तुम्हें “आलोचना करने”, “निंदा करने” और “बदनाम करने” का मतलब मालूम है? कुछ कहते समय क्या तुम्हें पता नहीं होता कि तुम परमेश्वर की आलोचना कर रहे हो या नहीं? कुछ लोग हमेशा कहते रहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर की मेजबानी की है, वे अक्सर परमेश्वर को देखते हैं और उन्होंने परमेश्वर के आमने-सामने की संगति सुनी है। वो हर मिलने वाले व्यक्ति से इन चीजों के बारे में, बाहरी चीजों के बारे में, बड़े विस्तार से सारी बातें करते हैं; उनके पास सच्चा ज्ञान बिल्कुल नहीं है। हो सकता है कि ऐसी बातें करते समय उनका कोई बुरा आशय ना होता हो। हो सकता है कि वे भाई-बहनों के लिए अच्छा सोचते हों और सबको बढ़ावा देना चाहते हों। लेकिन वे बातें करने के लिए इन चीजों को ही क्यों चुनते हैं? अगर वे अपनी ओर से बढ़-चढ़कर इस बात को उठाते हैं, तो इसका मतलब है कि उनका कोई आशय तो जरूर होता है : मुख्य रूप से, दिखावा करना और लोगों की नजरों में बड़ा बनना। अगर वे लोगों को आत्मविश्वासी बनाना चाहते हैं और परमेश्वर में उनके विश्वास को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो वे लोगों को उसके और अधिक वचन पढ़कर सुना सकते हैं, जो सत्य हैं। तो फिर वो ऐसी बाहरी चीजों के बारे में बात करने पर क्यों जोर देते हैं? उनके ऐसी चीजें कहने की असली वजह यह है कि उनमें परमेश्वर के लिए कोई भय नहीं है। वे परमेश्वर से नहीं डरते। वे परमेश्वर के आगे बुरा बर्ताव करते हुए अपनी बकवास कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर की गरिमा होती है! अगर लोगों को इसका एहसास होता, तो क्या वे फिर भी ऐसी हरकतें करते? लोगों के अंदर परमेश्वर के लिए भय नहीं है। वे अपने मकसद से मनमाने ढंग से बताते हैं कि परमेश्वर कैसा और किस जैसा है ताकि अपने व्यक्तिगत लक्ष्य साध सकें और दूसरों की नजरों में ऊँचा उठ सकें। यह बस परमेश्वर की आलोचना और ईशनिंदा करना है। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए बिल्कुल भी आदर नहीं होता है। ये सभी लोग परमेश्वर का विरोध और ईशनिंदा करते हैं। ये सभी बुरी आत्माएँ और राक्षस हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

हर व्यक्ति ने अपने जीवन में परमेश्वर में आस्था के दौरान किसी न किसी स्तर पर परमेश्वर का प्रतिरोध किया है, उसे धोखा दिया है। कुछ गलत कामों को अपराध के रूप में दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन कुछ अक्षम्य होते हैं; क्योंकि बहुत से कर्म ऐसे होते हैं जिनसे प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन होता है, जो परमेश्वर के स्वभाव के प्रति अपराध होते हैं। भाग्य को लेकर चिंतित बहुत से लोग पूछ सकते हैं कि ये कर्म कौनसे हैं। तुम लोगों को यह पता होना चाहिए कि तुम प्रकृति से ही अहंकारी और अकड़बाज हो, और सत्य के प्रति समर्पित होने के इच्छुक नहीं हो। इसलिए जब तुम लोग आत्म-चिंतन कर लोगे, तो मैं थोड़ा-थोड़ा करके तुम लोगों को बताँऊगा। मैं तुम लोगों से प्रशासनिक आज्ञाओं के विषय की बेहतर समझ हासिल करने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने का प्रयास करने का आग्रह करता हूँ। अन्यथा, तुम लोग अपनी जबान बंद नहीं रख पाओगे और बड़ी-बड़ी बातें करोगे, तुम अनजाने में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके अंधकार में जा गिरोगे और पवित्र आत्मा एवं प्रकाश की उपस्थिति को गँवा दोगे। चूँकि तुम्हारे काम के कोई सिद्धांत नहीं हैं, तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह करते हो, जो नहीं बोलना चाहिए वह बोलते हो, इसलिए तुम्हें यथोचित दंड मिलेगा। तुम्हें पता होना चाहिए कि, हालाँकि कथन और कर्म में तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, लेकिन परमेश्वर इन दोनों बातों में अत्यंत सिद्धांतवादी है। तुम्हें दंड मिलने का कारण यह है कि तुमने परमेश्वर का अपमान किया है, किसी इंसान का नहीं। यदि जीवन में बार-बार तुम परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध अपराध करते हो, तो तुम नरक की संतान ही बनोगे। इंसान को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि तुमने कुछ ही कर्म तो ऐसे किए हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर की निगाह में, तुम पहले ही एक ऐसे इंसान हो जिसके लिए अब पाप करने की कोई और छूट नहीं बची है? क्योंकि तुमने एक से अधिक बार परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन किया है और फिर तुममें पश्चाताप के कोई लक्षण भी नहीं दिखते, इसलिए तुम्हारे पास नरक में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, जहाँ परमेश्वर इंसान को दंड देता है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय, कुछ थोड़े-से लोगों ने कुछ ऐसे कर्म कर दिए जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ, लेकिन काट-छाँट और मार्गदर्शन के बाद, उन्होंने धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता का अहसास किया, उसके बाद वास्तविकता के सही मार्ग में प्रवेश किया, और आज तक यथार्थवादी हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अंत तक बने रहेंगे। मुझे ईमानदार इंसान की तलाश है; यदि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम परमेश्वर के विश्वासपात्र हो सकते हो। यदि अपने कामों से तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते, तुम परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हो और तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तो तुम्हारी आस्था मानक के अनुरूप है। जो भी व्यक्ति परमेश्वर का भय नहीं मानता, और उसका हृदय डर से नहीं काँपता, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन करेगा। बहुत-से लोग अपनी तीव्र भावना के बल पर परमेश्वर की सेवा तो करते हैं, लेकिन उन्हें परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं की कोई समझ नहीं होती, उसके वचनों में छिपे अर्थों का तो उन्हें कोई भान तक नहीं होता। इसलिए, नेक इरादों के बावजूद वे प्रायः ऐसे काम कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर के प्रबंधन में विघ्न पहुँचता है। गंभीर मामलों में, उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है, आगे से परमेश्वर का अनुसरण करने के किसी भी अवसर से वंचित कर दिया जाता है, नरक में फेंक दिया जाता है और परमेश्वर के घर के साथ उनके सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

मेरे द्वारा कहे गए हर वाक्य में परमेश्वर का स्वभाव निहित है। तुम लोग मेरे वचनों पर ध्यान से विचार करोगे तो अच्छा होगा, और निश्चित ही तुम्हें उनसे बहुत लाभ होगा। परमेश्वर के सार को समझना बहुत कठिन है, किंतु मुझे विश्वास है कि तुम सभी को परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कम से कम कुछ तो पता है। तो फिर, मैं आशा करता हूँ कि तुम लोगों के पास मुझे दिखाने के लिए तुम्हारे द्वारा की गई ऐसी ज्यादा चीजें होंगी, जो परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित नहीं करतीं। तभी मैं आश्वस्त हो पाऊँगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर को हर समय अपने दिल में रखो। जब तुम कार्य करो, तो उसके वचनों के अनुसार करो। सभी चीजों में उसके इरादों की खोज करो, और ऐसा काम करने से बचो, जिससे परमेश्वर का अनादर और अपमान हो। अपने हृदय के भावी शून्य को भरने के लिए तुम्हें परमेश्वर को अपने मन के पिछले हिस्से में तो बिल्कुल भी नहीं रखना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाओगे। फिर, मान लो कि तुम अपने पूरे जीवन में परमेश्वर के विरुद्ध कभी ईशनिंदा की टिप्पणी या शिकायत नहीं करते, और फिर, मान लो कि तुम अपने संपूर्ण जीवन में, जो कुछ उसने तुम्हें सौंपा है, उसे उचित रूप से करने में समर्थ हो, और साथ ही उसके सभी वचनों के प्रति समर्पित रहते हो, तो तुम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने से बच जाओगे। उदाहरण के लिए, अगर तुमने कभी ऐसा कहा है, “मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता कि वह परमेश्वर है?”, “मुझे लगता है कि ये शब्द पवित्र आत्मा के कुछ प्रबोधन से अधिक कुछ नहीं हैं”, “मेरे विचार से परमेश्वर जो कुछ करता है, जरूरी नहीं कि वह सब सही हो”, “परमेश्वर की मानवता मेरी मानवता से बढ़कर नहीं है”, “परमेश्वर के वचन विश्वास करने योग्य हैं ही नहीं,” या इस तरह की अन्य आलोचनात्मक टिप्पणियाँ, तो मैं तुम्हें अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ। वरना तुम्हें क्षमा पाने का कभी अवसर नहीं मिलेगा, क्योंकि तुमने किसी मनुष्य को नहीं, बल्कि स्वयं परमेश्वर को ठेस पहुँचाई है। तुम मान सकते हो कि तुम एक मनुष्य की आलोचना कर रहे हो, किंतु परमेश्वर का आत्मा इसे इस तरह नहीं देखता है। तुम्हारा उसके देह का अनादर करना उसका अनादर करने के बराबर है। ऐसा होने पर, क्या तुमने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचाई है? तुम्हें याद रखना चाहिए कि जो कुछ भी परमेश्वर के आत्मा द्वारा किया जाता है, वह उसके देह में किए गए कार्य की सुरक्षा के लिए किया जाता है और इसलिए किया जाता है, ताकि उस कार्य को भली-भाँति किया जा सके। अगर तुम इसे नजरअंदाज करते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम वो शख्स हो, जो परमेश्वर पर विश्वास करने में कभी सफल नहीं हो पाएगा। चूँकि तुमने परमेश्वर का क्रोध भड़का दिया है, इसलिए वह तुम्हें सबक सिखाने के लिए उचित दंड देगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है

यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के प्रति तुम्हारे भय मानने वाले रवैये, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान और उसके प्रति समर्पण करने की तुम्हारी तत्परता के कारण परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा यह कृत्य परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करके मेरे मन में परमेश्वर के प्रति भय है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा। लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन परमेश्वर सबकुछ स्पष्ट रूप में देख लेता है, और वह तुम्हारे दिखावे का सटीक और उपयुक्त मूल्यांकन प्रदान करेगा। जब तुम अंतिम परीक्षण का अनुभव कर लोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे समस्त व्यवहार को लेकर उससे तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेगा। यह परिणाम निस्सन्देह हर एक को आश्वस्त करेगा। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि तुम लोगों का हर कर्म, हर कार्यकलाप, हर विचार तुम्हारे भाग्य को निर्धारित करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर है, और जैसे लोग भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न तरीकों से बर्ताव करते हैं, वैसे ही इन बर्तावों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि वह न तो कोई कठपुतली है, और न ही वह शून्य है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानना मनुष्य के लिए एक नेक खोज है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानकर लोगों को सीखना चाहिए कि कैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जान सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके उसके हृदय को समझ सकते हैं। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के हृदय को समझने लगोगे, तो तुम्हें नहीं लगेगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना कोई कठिन कार्य है। जब तुम परमेश्वर को समझ जाओगे, तो उसके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालोगे। जब तुम परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालना बन्द कर दोगे, तो उसे अपमानित करने की संभावना नहीं रहेगी और अनजाने में ही परमेश्वर तुम्हारी अगुआई करेगा कि तुम उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करो; इससे तुम्हारा हृदय परमेश्वर के प्रति भय से भर जाएगा। तुम उन धर्म-सिद्धांतों, शब्दों एवं सिद्धांतों का उपयोग करके परमेश्वर को परिभाषित करना बंद कर दोगे जिनमें तुम महारत हासिल कर चुके हो। बल्कि, सभी चीजों में सदा परमेश्वर के इरादों को खोजकर, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बन जाओगे।

इंसान परमेश्वर के कार्य को न तो देख सकता है, न ही छू सकता है, परन्तु जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह हर एक व्यक्ति के कार्यकलापों को, परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति को, न केवल समझ सकता है, बल्कि देख भी सकता है। इसे हर किसी को पहचानना और इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। हो सकता है कि तुम स्वयं से पूछते हो, “क्या परमेश्वर जानता है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर जानता है कि मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ? हो सकता है वह जानता हो, हो सकता है न भी जानता हो”। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो, परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसमें विश्वास करते हो, मगर उसके कार्य और अस्तित्व पर सन्देह भी करते हो, तो देर-सवेर ऐसा दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को क्रोधित करोगे, क्योंकि तुम पहले ही एक खतरनाक खड़ी चट्टान के कगार पर खड़े डगमगा रहे हो। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परंतु उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकता प्राप्त नहीं की है, और वे परमेश्वर के इरादों को तो और भी नहीं समझते। केवल अत्यंत छिछले मतों के मुताबिक चलते हुए, उनके जीवन और आध्यात्मिक कद में कोई प्रगति नहीं होती। क्योंकि ऐसे लोगों ने कभी भी परमेश्वर के वचन को जीवन नहीं माना, और न ही कभी परमेश्वर के अस्तित्व का सामना और उसे स्वीकार किया है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को देखकर आनंद से भर जाता है? क्या वे उसे आराम पहुँचाते हैं? यह है लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का तरीका जो उनका भाग्य तय करता है। जहाँ तक सवाल यह है कि लोग परमेश्वर की खोज कैसे करते हैं, कैसे परमेश्वर के समीप आते हैं, तो यहाँ लोगों की प्रवृत्ति प्राथमिक महत्व की हो जाती है। अपने सिर के पीछे तैरती खाली हवा समझ कर परमेश्वर की उपेक्षा मत करो; जिस परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास है उसे हमेशा एक जीवित परमेश्वर, एक वास्तविक परमेश्वर मानो। वह तीसरे स्वर्ग में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा है। बल्कि, वह लगातार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में देख रहा है, यह देख रहा है कि तुम क्या करते हो, वह हर छोटे वचन और हर छोटे कर्म को देख रहा है, वो यह देख रहा है कि तुम किस प्रकार व्यवहार करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है। तुम स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करने के लिए तैयार हो या नहीं, तुम्हारा संपूर्ण व्यवहार एवं तुम्हारे अंदर की सोच एवं विचार परमेश्वर के सामने खुले हैं, और परमेश्वर उन्हें देख रहा है। तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे कर्मों, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति के अनुसार ही तुम्हारे बारे में उसकी राय, और तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति लगातार बदल रही है। मैं कुछ लोगों को कुछ सलाह देना चाहूँगा : अपने आपको परमेश्वर के हाथों में छोटे शिशु के समान मत रखो, जैसे कि उसे तुमसे लाड़-प्यार करना चाहिए, जैसे कि वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकता, और जैसे कि तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थायी हो जो कभी नहीं बदल सकती, और मैं तुम्हें सपने देखना छोड़ने की सलाह देता हूँ! परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए जरूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नजरिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नजर से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा। इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ कि तुम आसपास की हर एक चीज के प्रति अपने नजरिए में सावधान एवं विवेकशील रहो, और सीखो कि किस प्रकार हर चीज में “परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले परमेश्वर के मार्ग पर चलने के सिद्धांत” का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के रवैये के मामलों में एक दृढ़ समझ विकसित करनी चाहिए; तुम्हें ईमानदारी से प्रबुद्ध लोगों को खोजना चाहिए जो इस पर तुम्हारे साथ संवाद करें। अपने विश्वास में परमेश्वर को एक कठपुतली मत समझो—उसे मनमाने ढंग से मत परखो, उसके बारे में मनमाने निष्कर्षों पर मत पहुँचो, परमेश्वर के साथ सम्मान-योग्य व्यवहार करो। एक तरफ जहाँ परमेश्वर तुम्हारा उद्धार कर रहा है, तुम्हारा परिणाम निर्धारित कर रहा है, वहीं वह तुम्हें करुणा, सहिष्णुता, या न्याय और ताड़ना भी प्रदान कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में, तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थिर नहीं होती। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति पर, और परमेश्वर की तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है। परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान या समझ के किसी अस्थायी पहलू के जरिए परमेश्वर को सदा के लिए परिभाषित मत करो। किसी मृत परमेश्वर में विश्वास मत करो; जीवित परमेश्वर में विश्वास करो। यह बात याद रखो! यद्यपि मैंने यहाँ पर कुछ सत्यों पर चर्चा की है, ऐसे सत्य जिन्हें तुम लोगों को सुनना चाहिए, फिर भी तुम्हारी वर्तमान दशा और आध्यात्मिक कद के मद्देनजर, मैं तुम्हारे उत्साह को खत्म करने के लिए कोई बड़ी माँग नहीं करूँगा। ऐसा करने से तुम लोगों का हृदय अत्यधिक उदासी से भर सकता है, और तुम्हें परमेश्वर के प्रति बहुत अधिक निराशा हो सकती है। इसके बजाय मुझे आशा है कि तुम लोग एक परमेश्वर-प्रेमी हृदय का उपयोग कर सकते हो, और मार्ग पर चलते समय परमेश्वर के प्रति सम्मानजनक प्रवृत्ति का उपयोग कर सकते हो। परमेश्वर में विश्वास करने को लेकर इस मामले में भ्रमित मत होओ; इसे एक बड़ा मसला समझो। इसे अपने हृदय में रखो, इसे वास्तविकता से जोड़ो और वास्तविक जीवन से जोड़ो; इसका केवल दिखावटी आदर मत करो। क्योंकि यह जीवन और मृत्यु का मामला है, जो तुम्हारी नियति को निर्धारित करेगा। इसके साथ कोई मजाक मत करो या इसे बच्चों का खेल मत समझो!

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

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