32. विश्वासघाती प्रकृति की समस्या को कैसे समझें और समाधान करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
मनुष्य का स्वभाव मेरे सार से काफी भिन्न है, क्योंकि मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति पूरी तरह से शैतान से उत्पन्न होती है और मनुष्य की प्रकृति को शैतान द्वारा संसाधित और भ्रष्ट किया गया है। अर्थात्, मनुष्य इसकी बुराई और कुरूपता के प्रभाव के अधीन जीता है। मनुष्य सत्य के संसार या पवित्र वातावरण में बड़ा नहीं होता है, और प्रकाश में तो बिल्कुल नहीं। इसलिए, जन्म से ही किसी व्यक्ति की प्रकृति के भीतर सत्य सहज रूप से निहित हो, यह संभव नहीं है, और कोई व्यक्ति परमेश्वर का भय मानने और उसके प्रति समर्पण के सार के साथ तो पैदा हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत, लोग एक ऐसी प्रकृति से युक्त होते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है, परमेश्वर से विद्रोह करती है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता। यही प्रकृति वह समस्या है जिसके बारे में मैं बात करना चाहता हूँ—विश्वासघात।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
मनुष्य की प्रकृति उसकी आत्मा से आती है, न कि उसके शरीर से। प्रत्येक व्यक्ति का केवल आत्मा ही जानता है कि कैसे उसने शैतान के प्रलोभनों, यातना और भ्रष्टता का अनुभव किया है। मनुष्य के शरीर के लिए ये बातें ज्ञानातीत हैं। इसलिए, मानवजाति अनचाहे ही उत्तरोत्तर अधिक अंधकारमय, कलुषित और दुष्ट बनती जाती है, जबकि मेरे और मनुष्य के बीच की दूरी अधिक से अधिक बढ़ती जाती है, और मानवजाति का जीवन और अधिक अंधकारमय होता जाता है। मानवजाति की आत्माएँ शैतान की मुट्ठी में हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि मनुष्य का शरीर भी शैतान के कब्जे में है। तो फिर कैसे इस तरह का शरीर और इस तरह की मानवजाति परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? वे उसके साथ सहज ही संगत कैसे हो सकते हैं? मैंने इस कारण से शैतान को हवा में बहिष्कृत किया है क्योंकि उसने मेरे साथ विश्वासघात किया था। तो फिर, मनुष्य अपनी संलग्नता से कैसे मुक्त हो सकते हैं? यही कारण है कि मनुष्य की प्रकृति विश्वासघात की है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
“मनुष्य शैतान के द्वारा इतना भ्रष्ट किया गया है कि अब और वह मनुष्य जैसा प्रतीत ही नहीं होता है।” इस वाक्यांश को अब अधिकांश लोग एक हद तक मान गए हैं। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि मैं जिस “मान्यता” की बात कर रहा हूँ वह वास्तविक ज्ञान के विपरीत केवल सतही अभिस्वीकृति है। चूँकि तुम में से कोई भी स्वयं का सही तरीके से मूल्यांकन या पूरी तरह से विश्लेषण नहीं कर सकता है, इसलिए तुम लोग मेरे वचनों पर हमेशा अनिश्चित रहते हो। लेकिन इस बार, मैं तुम लोगों में मौजूद सबसे गंभीर समस्या की व्याख्या करने के लिए तथ्यों का उपयोग कर रहा हूँ। वह समस्या है “विश्वासघात”। तुम सभी लोग “विश्वासघात” शब्द से परिचित हो क्योंकि अधिकांश लोगों ने दूसरों को धोखा देने वाला कुछ काम किया है, जैसे कि किसी पति का अपनी पत्नी के साथ विश्वासघात करना, किसी पत्नी का अपने पति के साथ विश्वासघात करना, किसी बेटे का अपने पिता के साथ विश्वासघात करना, किसी बेटी का अपनी माँ के साथ विश्वासघात करना, किसी गुलाम का अपने मालिक के साथ विश्वासघात करना, दोस्तों का एक दूसरे के साथ विश्वासघात करना, रिश्तेदारों का एक दूसरे के साथ विश्वासघात करना, विक्रेताओं का क्रेताओं के साथ विश्वासघात करना, इत्यादि। इन सभी उदाहरणों में विश्वासघात का सार निहित है। संक्षेप में, विश्वासघात व्यवहार का एक ऐसा रूप है जिसमें वादा तोड़ा जाता है, नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया जाता है, या मानवीय नैतिकता के विरुद्ध काम किया जाता है, जो मानवता के ह्रास को प्रदर्शित करता है। आम तौर पर, इस दुनिया में जन्म लेने वाले एक इंसान के नाते, तुमने कुछ ऐसा किया होगा जिसमें सत्य का उल्लंघन निहित है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें याद है या नहीं कि तुमने कभी किसी दूसरे को धोखा देने के लिए कुछ किया है, या तुमने पहले कई बार दूसरों को धोखा दिया है। चूँकि तुम अपने माता-पिता या दोस्तों को धोखा देने में सक्षम हो, तो तुम दूसरों के साथ भी विश्वासघात करने में सक्षम हो, और इससे भी बढ़कर तुम मुझे धोखा देने में और उन चीजों को करने में सक्षम हो जो मेरे लिए घृणित हैं। दूसरे शब्दों में, विश्वासघात महज़ एक सतही अनैतिक व्यवहार नहीं है, बल्कि यह कुछ ऐसा है जो सत्य के साथ टकराता है। यह वास्तव में मानव जाति के मेरे प्रति प्रतिरोध और विद्रोह का स्रोत है। यही कारण है कि मैंने निम्नलिखित कथन में इसका सारांश दिया है : विश्वासघात मनुष्य की प्रकृति है, और यह प्रकृति मेरे साथ प्रत्येक व्यक्ति के सामंजस्य की बहुत बड़ी शत्रु है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1)
ऐसा व्यवहार जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पण नहीं कर सकता है, विश्वासघात है। ऐसा व्यवहार जो मेरे प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता है विश्वासघात है। मेरे साथ धोखा करना और मेरे साथ छल करने के लिए झूठ का उपयोग करना, विश्वासघात है। धारणाओं से भरा होना और हर जगह उन्हें फैलाना विश्वासघात है। मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है। दिल में मुझसे दूर होते हुए भी झूठमूठ मुस्कुराना विश्वासघात है। ये सभी विश्वासघात के काम हैं जिन्हें करने में तुम लोग हमेशा सक्षम रहे हो, और ये तुम लोगों के बीच आम बात है। तुम लोगों में से शायद कोई भी इसे समस्या न माने, लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ। मैं अपने साथ किसी व्यक्ति के विश्वासघात को एक तुच्छ बात नहीं मान सकता हूँ, और निश्चय ही, मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकता हूँ। अब, जबकि मैं तुम लोगों के बीच कार्य कर रहा हूँ, तो तुम लोग इस तरह से व्यवहार कर रहे हो—यदि किसी दिन तुम लोगों की निगरानी करने के लिए कोई न हो, तो क्या तुम लोग ऐसे डाकू नहीं बन जाओगे जिन्होंने खुद को अपनी छोटी पहाड़ियों का राजा घोषित कर दिया है? जब ऐसा होगा और तुम विनाश का कारण बनोगे, तब तुम्हारे पीछे उस गंदगी को कौन साफ करेगा? तुम सोचते हो कि विश्वासघात के कुछ कार्य तुम्हारे सतत व्यवहार नहीं, बल्कि मात्र कभी-कभी होने वाली घटनाएँ हैं, और उनकी इतने गंभीर तरीके से चर्चा नहीं होनी चाहिए कि तुम्हारे अहं को ठेस पहुँचे। यदि तुम वास्तव में ऐसा मानते हो, तो तुम में समझ का अभाव है। इस तरीके से सोचना विद्रोह का एक नमूना और विशिष्ट उदाहरण है। मनुष्य की प्रकृति उसका जीवन है; यह एक सिद्धांत है जिस पर वह जीवित रहने के लिए निर्भर करता है और वह इसे बदलने में असमर्थ है। विश्वासघात की प्रकृति का उदाहरण लो। यदि तुम किसी रिश्तेदार या मित्र को धोखा देने के लिए कुछ कर सकते हो, तो यह साबित करता है कि यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी प्रकृति का हिस्सा है जिसके साथ तुम पैदा हुए थे। यह कुछ ऐसा है जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति अन्य लोगों की चीजें चुराना पसंद करता है, तो यह चुराना पसंद करना उसके जीवन का एक हिस्सा है, भले ही कभी-कभी वह चोरी करता है, और अन्य समय वह नहीं करता है। चाहे वह चोरी करता है अथवा नहीं, इससे यह साबित नहीं हो सकता कि उसका चोरी करना केवल एक प्रकार का व्यवहार है। बल्कि, इससे साबित होता है कि उसका चोरी करना उसके जीवन का एक हिस्सा, अर्थात्, उसकी प्रकृति है। कुछ लोग पूछेंगे : चूँकि यह उसकी प्रकृति है, तो ऐसा क्यों है कि वह कभी-कभी अच्छी चीजें देखता है लेकिन उन्हें चोरी नहीं करता है? उत्तर बहुत आसान है। उसके चोरी नहीं करने के कई कारण हैं। हो सकता है कि वह इसलिए चोरी न करता हो क्योंकि चौकस निगाहों के नीचे से निकाल ले जाने के लिए वस्तु बहुत बड़ी हो, या चोरी करने के लिए उपयुक्त समय न हो, या वस्तु बहुत महँगी हो, बहुत कड़े पहरे में हो, या शायद उसकी इस चीज में विशेष रूप से रुचि न हो, या उसे यह न समझ आये कि उसके लिए इसका क्या उपयोग है, इत्यादि। ये सभी कारण संभव हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कोई वस्तु चुराता है या नहीं, इससे यह साबित नहीं होता है कि यह विचार उसके अंदर केवल क्षण भर के लिये रहता है, एक पल के लिए कौंधता है। इसके विपरीत, यह उसकी प्रकृति का एक हिस्सा है जिसमें सुधार लाना कठिन है। ऐसा व्यक्ति केवल एक बार चोरी करके संतुष्ट नहीं होता है; बल्कि जब भी कोई अच्छी वस्तु या उपयुक्त स्थिति उसके सामने आती है, तो दूसरों की चीजों को अपनी बना लेने के ऐसे विचार उसमें जाग जाते हैं। यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि यह विचार केवल समय-समय पर नहीं उठता है, बल्कि इस व्यक्ति की स्वयं की प्रकृति में ही शामिल है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1)
कोई भी अपना सच्चा चेहरा दर्शाने के लिए अपने स्वयं के शब्दों और क्रियाओं का उपयोग कर सकता है। यह सच्चा चेहरा निश्चित रूप से उसकी प्रकृति है। यदि तुम बहुत कुटिल ढंग से बोलने वाले व्यक्ति हो, तो तुम कुटिल प्रकृति के हो। यदि तुम्हारी प्रकृति कपटपूर्ण है, तो तुम कपटी ढंग से काम करते हो, और इससे तुम बहुत आसानी से लोगों को धोखा दे देते हो। यदि तुम्हारी प्रकृति अत्यंत कुटिल है, तो हो सकता है कि तुम्हारे वचन सुनने में सुखद हों, लेकिन तुम्हारे कार्य तुम्हारी कुटिल चालों को छिपा नहीं सकते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति आलसी है, तो तुम जो कुछ भी कहते हो, उस सबका उद्देश्य तुम्हारी लापरवाही और अकर्मण्यता के लिए उत्तरदायित्व से बचना है, और तुम्हारे कार्य बहुत धीमे और लापरवाह होंगे, और सच्चाई को छिपाने में बहुत माहिर होंगे। यदि तुम्हारी प्रकृति सहानुभूतिपूर्ण है, तो तुम्हारे वचन तर्कसंगत होंगे और तुम्हारे कार्य भी सत्य के अत्यधिक अनुरूप होंगे। यदि तुम्हारी प्रकृति निष्ठावान है, तो तुम्हारे वचन निश्चय ही खरे होंगे और जिस तरीके से तुम कार्य करते हो, वह भी व्यावहारिक और यथार्थवादी होगा, जिसमें ऐसा कुछ न होगा जिससे तुम्हारे मालिक को असहजता महसूस हो। यदि तुम्हारी प्रकृति कामुक या धन लोलुप है, तो तुम्हारा हृदय प्रायः इन चीजों से भरा होगा और तुम बेइरादा कुछ विकृत, अनैतिक काम करोगे, जिन्हें भूलना लोगों के लिए कठिन होगा और वे काम उनमें घृणा पैदा करेंगे। जैसा कि मैंने कहा है, यदि तुम्हारी प्रकृति विश्वासघात की है तो तुम मुश्किल से ही स्वयं को इससे छुड़ा सकते हो। इसे भाग्य पर मत छोड़ दो कि अगर तुम लोगों ने किसी के साथ गलत नहीं किया है तो तुम लोगों की विश्वासघात की प्रकृति नहीं है। यदि तुम ऐसा ही सोचते हो तो तुम घृणित हो। मेरे सभी वचन, हर बार जो मैं बोलता हूँ, वे सभी लोगों पर लक्षित होते हैं, न कि केवल एक व्यक्ति या एक प्रकार के व्यक्ति पर। सिर्फ इसलिए कि तुमने मेरे साथ एक मामले में विश्वासघात नहीं किया है, यह साबित नहीं करता कि तुम मेरे साथ किसी अन्य मामले में विश्वासघात नहीं कर सकते हो। कुछ लोग अपने विवाह में असफलताओं के दौरान सत्य की तलाश करने में अपना आत्मविश्वास खो देते हैं। कुछ लोग परिवार के टूटने के दौरान मेरे प्रति निष्ठावान होने के अपने दायित्व को त्याग देते हैं। कुछ लोग खुशी और उत्तेजना के एक पल की तलाश करने के लिए मेरा परित्याग कर देते हैं। कुछ लोग प्रकाश में रहने और पवित्र आत्मा के कार्य का आनंद प्राप्त करने के बजाय एक अंधेरी खोह में पड़े रहना पसंद करेंगे। कुछ लोग धन की अपनी लालसा को संतुष्ट करने के लिए दोस्तों की सलाह पर ध्यान नहीं देते हैं, और अब भी अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं कर सकते हैं और स्वयं में बदलाव नहीं कर सकते हैं। कुछ लोग मेरा संरक्षण प्राप्त करने के लिए केवल अस्थायी रूप से मेरे नाम के अधीन रहते हैं, जबकि अन्य लोग केवल दबाव में मेरे प्रति थोड़ा-सा समर्पित होते हैं क्योंकि वे जीवन से चिपके रहते हैं और मृत्यु से डरते हैं। क्या ये और अन्य अनैतिक कार्य जो सत्यनिष्ठा से रहित हैं, ऐसे व्यवहार नहीं हैं जिनसे लोग लंबे समय पहले अपने दिलों की गहराई में मेरे साथ विश्वासघात करते आ रहे हैं? निस्संदेह, मुझे पता है कि लोग मुझसे विश्वासघात करने की पहले से योजना नहीं बनाते; उनका विश्वासघात उनकी प्रकृति का स्वाभाविक रूप से प्रकट होना है। कोई मेरे साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता है, और कोई भी इस बात से खुश नहीं है कि उसने मेरे साथ विश्वासघात करने का कोई काम किया है। इसके विपरीत, वे डर से काँप रहे हैं, है ना? तो क्या तुम लोग इस बारे में सोच रहे हो कि तुम लोग इन विश्वासघातों से कैसे छुटकारा पा सकते हो, और कैसे तुम लोग वर्तमान परिस्थिति को बदल सकते हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1)
विश्वासघात का मूल कारण शैतान है, विश्वासघात शैतान की प्रकृति है, और लोग अपने कार्यों से जो स्वभाव प्रकट करते हैं उसे परमेश्वर विश्वासघात के रूप में देखता है। परमेश्वर इस मामले में इतने विस्तार से चर्चा क्यों करता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इंसान लगातार विश्वासघात करता है, और चाहे कोई भी जगह या समय हो, चाहे कोई कैसा भी व्यवहार करता हो, मानव प्रकृति में गहरी जड़ें जमा चुकी कोई चीज परमेश्वर का विरोध करती है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं परमेश्वर का विरोध या प्रतिकार नहीं करना चाहता!” लेकिन तुम ऐसा करोगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर विश्वासघाती प्रकृति है, जिसका यह अर्थ है कि तुम परमेश्वर की आज्ञा नहीं मान सकते, अंत तक उसका अनुसरण नहीं कर सकते और परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में पूरी तरह नहीं स्वीकार सकते हो। तुम्हें विश्वासघात की समस्या को कैसे समझना चाहिए? तुम चाहे कितने ही लंबे अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो, चाहे उसके कितने ही वचन खा-पी चुके हो, चाहे तुम्हारे पास उसके बारे में कितनी ही समझ हो—जब तक तुम्हारी प्रकृति परमेश्वर से विश्वासघात करती है, और तुमने उसके वचनों को अपने जीवन के रूप में नहीं स्वीकारा है, और तुमने बिल्कुल भी उसके वचनों के सत्य में प्रवेश नहीं किया है, तो तुम्हारा सार परमेश्वर के साथ हमेशा विश्वासघात करता रहेगा। अर्थात, अगर तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला है, तो तुम ऐसे इंसान हो जो परमेश्वर को धोखा देता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं परमेश्वर के वचनों को समझ-बूझ सकता हूँ, वह जो कुछ भी कहता है उसे समझता हूँ। मैं इन्हें स्वीकारने के लिए भी तैयार हूँ, तो फिर मुझे परमेश्वर से विश्वासघात करने वाला कैसे कह सकते हैं?” सिर्फ इस कारण से कि तुम परमेश्वर के वचन स्वीकारने को तैयार हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम इन्हें जीने में भी सक्षम हो, यह सोचना तो छोड़ ही दो कि ये तुम्हें पहले ही पूर्ण बना चुके हैं। मानवजाति की विश्वासघाती प्रकृति का सत्य बहुत गहरा है, और अगर तुम सत्य के इस पहलू को समझना चाहते हो तो फिर तुम्हें एक अवधि के अनुभव की जरूरत पड़ सकती है। परमेश्वर की नजरों में, परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह हर चीज सत्य विरोधी, परमेश्वर के वचनों के प्रतिकूल और उसके विरोध में है। तुम लोग शायद इसे भी स्वीकार न सको और यह कहने लगो : “हम परमेश्वर की सेवा करते हैं, परमेश्वर की आराधना करते हैं, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं। हम इतना सब कुछ कर चुके हैं, वह भी परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार, और उसकी कार्य व्यवस्थाओं के अनुरूप किया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि हम परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करते हैं? तुम हमारे उत्साह को हमेशा ठंडा क्यों कर देते हो? हमने बमुश्किल अपने परिवार और करियर छोड़े, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए दृढ़ निश्चयी रहे, तो तुम हमारे बारे में इस तरह कैसे बोल सकते हो?” इस तरह बोलने का उद्देश्य यह है कि हरेक व्यक्ति इसे अच्छे से समझे : बात यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अगर काफी अच्छा व्यवहार करता है, या कुछ त्याग करता है, या थोड़ा कष्ट सहता है, तो उसकी विश्वासघाती प्रकृति बदल जाएगी। कतई नहीं! कष्ट भोगना जरूरी है, तो अपना कर्तव्य निभाना भी जरूरी है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम कष्ट भोग सकते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब मिट चुका है। इसका कारण यह है कि किसी के भीतरी जीवन स्वभाव में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और हर कोई परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने और उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने से अभी कोसों दूर है। लोगों के परमेश्वर में विश्वास में बहुत ही मिलावट है, उनका बहुत ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है। भले ही बहुत सारे अगुआ या कार्यकर्ता परमेश्वर की सेवा करते हैं, लेकिन वे उसका विरोध भी करते हैं। इसका क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि वे जानबूझकर परमेश्वर के विरुद्ध चलते हैं और उसकी इच्छा के अनुसार अभ्यास नहीं करते हैं। वे जानबूझकर सत्य का उल्लंघन करते हैं, मनमाने ढंग से कार्य करने पर जोर देते हैं, ताकि अपने इरादे और लक्ष्य पूरे कर सकें, परमेश्वर को धोखा देकर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकें, जहाँ जो वे कहें बस वही हो। परमेश्वर की सेवा करने लेकिन उसका विरोध भी करने का यही अर्थ है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
मनुष्य की प्रकृति में सामान्य तत्व परमेश्वर के प्रति विश्वासघात है; हर एक व्यक्ति परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम है। परमेश्वर को धोखा देना किसे कहते हैं? इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं, वही उसे धोखा देते हैं? लोगों को मनुष्य का सार समझना चाहिए और इसकी जड़ तक जाना चाहिए। तुम्हारे नाज-नखरे, कमियाँ, बुरी आदतें या संस्कारों में कमी सभी सतही पहलू हैं। अगर तुम हमेशा इन मामूली चीजों से चिपके रहते हो, बिना सोचे-समझे विनियम लागू करते हो और जो जरूरी है उसे समझने में नाकाम रहते हो, अपनी प्रकृति में निहित चीजों और अपने भ्रष्ट स्वभाव को अनसुलझा रहने देते हो, तो तुम अंततः भटक जाओगे और परमेश्वर का विरोध करने लगोगे। परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं—यह एक गंभीर समस्या है। शायद कुछ देर के लिए तुम्हारे पास थोड़ा-सा परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय हो, तुम उत्साह के साथ खुद को खपाओ और थोड़ी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य निभाओ; या इस दौरान तुम्हारे पास पूरी तरह सामान्य विवेक और अंतरात्मा हो, लेकिन लोग अस्थिर और चंचल होते हैं, वे एक इकलौती घटना की वजह से कहीं भी और कभी भी परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी के पास पूरी तरह से सामान्य विवेक हो सकता है, उसके पास पवित्रात्मा का कार्य, व्यावहारिक अनुभव, बोझ और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति निष्ठा हो सकती है, लेकिन जब उसकी आस्था बहुत मजबूत हो, तभी परमेश्वर का घर एक ऐसे मसीह-विरोधी को निष्कासित कर दे जिसकी वह पूजा करता है, तो उसके मन में धारणाएँ पनपने लगती हैं। वह एकदम से नकारात्मक हो जाता है, अपने कार्य में उत्साह खो देता है, अपना कर्तव्य अनमना होकर निभाता है, प्रार्थना नहीं करना चाहता, और शिकायत करता है, “प्रार्थना क्यों करूँ? अगर किसी इतने अच्छे इंसान को निष्कासित किया जा सकता है, तो किसे बचाया जा सकता है? परमेश्वर को लोगों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए!” उसके शब्दों की प्रकृति क्या है? सिर्फ एक घटना उसकी इच्छा के अनुसार नहीं होती और वह परमेश्वर पर फैसला सुनाने लगता है। क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर से भटक सकते हैं; किसी स्थिति का सामना करने पर उनमें धारणाएँ पनप सकती हैं और वे परमेश्वर की निंदा और आलोचना कर सकते हैं—क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? यह बहुत बड़ी बात है। अब शायद तुम्हें लगे कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति कोई धारणा नहीं है और तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, लेकिन अगर तुम कुछ गलत कर बैठे और अचानक तुम्हारे साथ सख्ती से काट-छाँट की जाए, तो क्या तब भी तुम समर्पण कर सकोगे? क्या तुम समाधान के लिए सत्य की खोज कर पाओगे? अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते या अपने विद्रोहीपन की समस्या सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोज सकते, तो अब भी यह संभावना है कि तुम परमेश्वर को धोखा दे दो। हो सकता है तुमने वास्तव में यह न कहा हो कि “मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करता,” लेकिन उस वक्त तुम्हारा हृदय उसे पहले ही धोखा दे चुका है। तुम्हें स्पष्ट रूप से समझना है कि मनुष्य की प्रकृति वास्तव में क्या है। क्या धोखा देना ही इस प्रकृति का सार है? बहुत कम लोग ही मनुष्य की प्रकृति का सार स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं। निस्संदेह, कुछ लोगों में थोड़ी-सी अंतरात्मा और अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है, तो कुछ में कोई मानवता नहीं होती, लेकिन चाहे किसी में अच्छी मानवता हो या बुरी, या चाहे वह खूब काबिल हो या कम काबिल हो, इनमें एक समान बात यह है कि ये सब परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मनुष्य की प्रकृति मूलतः परमेश्वर को धोखा देने की है। तुम लोग सोचा करते थे, “चूँकि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य प्रकृतिवश परमेश्वर को धोखा देते हैं, इसलिए धीरे-धीरे बदलने के सिवाय मैं इस मामले में और कुछ नहीं कर सकता।” क्या तुम लोग अभी भी इसी तरह सोचते हो? तो तुम्हीं बताओ, क्या कोई भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है? लोग भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। जब परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया, उसने उन्हें स्वतंत्र इच्छा दी। मनुष्य विशेष रूप से नाजुक हैं; उनमें यह जन्मजात इच्छा नहीं होती कि वे परमेश्वर के करीब आकर कहें, “परमेश्वर हमारा सृष्टिकर्ता है, और हम सृजित प्राणी हैं।” मनुष्यों में ऐसी कोई संकल्पना नहीं होती है। उनमें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभाव होता है, न उनमें परमेश्वर की आराधना करने जैसा कोई भाव होता है। परमेश्वर ने मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा दी है, उन्हें सोचने की अनुमति दी है, लेकिन लोग सत्य नहीं स्वीकारते, परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे नहीं जानते कि उसके प्रति समर्पण कैसे करें और उसकी आराधना कैसे करें। मनुष्यों में ये चीजें नहीं होतीं, इसलिए वे भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्यों कहें कि तुम परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हो? जब शैतान तुम्हें ललचाने आता है, तुम शैतान का अनुसरण करते हो और परमेश्वर को धोखा देते हो। तुम्हें परमेश्वर ने बनाया लेकिन तुम उसका अनुसरण नहीं करते, उसके बजाय शैतान का अनुसरण करते हो—क्या यह तुम्हें गद्दार नहीं बनाता? परिभाषा के अनुसार गद्दार वह होता है, जो धोखा देता है। क्या तुम इसका सार पूरी तरह से समझते हो? इसलिए, परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं। लोग परमेश्वर को धोखा सिर्फ तब नहीं देंगे जब वे पूरी तरह परमेश्वर के राज्य और उसके प्रकाश में रहेंगे, जब शैतान का सब कुछ नष्ट हो जाएगा और जब उन्हें पाप करने के लिए ललचाने या लुभाने वाली कोई चीज नहीं होगी। अगर उन्हें पाप करने के लिए लुभाने वाली कोई भी चीज है तो वे अभी भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम होंगे। इसलिए मनुष्य निकम्मे हैं। कुछ वचन और सिद्धांत बघार लेने भर से तुम्हें लग सकता है कि तुम कुछ सत्य समझते हो और परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते, इसलिए तुम्हें कम से कम मिट्टी के बर्तनों से अधिक मूल्यवान समझा जाना चाहिए, सोने-चाँदी की तरह न सही, काँसा या लोहा तो मानना ही चाहिए, लेकिन तुम खुद को जरूरत से ज्यादा ऊँचा आँकते हो। क्या तुम जानते हो कि मनुष्य वास्तव में क्या हैं? परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं, उनकी कीमत धेले भर नहीं है; जैसा कि परमेश्वर ने कहा : मनुष्य जानवर हैं, निकम्मे दुष्ट हैं। लेकिन अपने हृदय में लोग इस तरह से नहीं सोचते। वे सोचते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं निकम्मा दुष्ट हूँ। मैं इस मामले की थाह क्यों नहीं ले सकता? मैंने इसका अनुभव कैसे नहीं किया है? परमेश्वर में मेरा सच्चा विश्वास है; मुझमें आस्था है, इसलिए मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकता। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सत्य हैं, लेकिन मैं इस वाक्यांश को नहीं समझ सकता, ‘परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं।’ मैं पहले ही परमेश्वर का प्रेम देख चुका हूँ; मैं उसे कभी धोखा नहीं दे सकता।” लोग अपने हृदय में ऐसा ही सोचते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें ऐसे ही हवा में नहीं बोला गया है। तुम लोगों के सामने हर मामला स्पष्ट कर दिया गया है, तुम्हें पूरी तरह से समझा दिया गया है; सिर्फ इसी तरह से तुम लोग अपनी भ्रष्टता पहचान सकोगे और धोखा देने की समस्या का समाधान कर सकोगे। परमेश्वर के राज्य में कोई विश्वासघात नहीं होगा; जब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं और शैतान के नियंत्रण में नहीं होते तो वे वास्तव में स्वतंत्र होते हैं। तब परमेश्वर को धोखा देने के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी; ऐसी चिंता फिजूल और गौण होगी। भविष्य में यह घोषणा की जा सकती है कि तुम लोगों में ऐसी कोई चीज नहीं है जो परमेश्वर को धोखा दे, लेकिन फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है। क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कुछ विशेष परिस्थितियाँ ही विश्वासघात की तरफ ले जाती हैं, और ये विशेष परिस्थितियाँ या दबाव न होने पर तुम परमेश्वर को धोखा नहीं दोगे—बिना दबाव के भी तुम उसे धोखा दे सकते हो। यह मनुष्य के भ्रष्ट सार की समस्या है, मनुष्य की प्रकृति की समस्या है। भले ही तुम अभी कुछ सोच या कर नहीं रहे हो, तुम्हारी प्रकृति की वास्तविकता का अस्तित्व वास्तव में है, और इसे कोई मिटा नहीं सकता। चूँकि तुम्हारे अंदर परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति है; परमेश्वर तुम्हारे हृदय में नहीं है; तुम्हारे अंतरतम में न तो परमेश्वर के लिए कोई जगह है, न सत्य की उपस्थिति है; इस तरह तुम कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हो। फरिश्तों की बात अलग है; उनमें परमेश्वर का स्वभाव या सार तो नहीं होता, लेकिन वे पूरी तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने विशेष रूप से अपनी सेवा के लिए बनाया है, हर जगह अपने आदेश पूरे कराने के लिए बनाया है। वे पूरी तरह से परमेश्वर के हैं। जहाँ तक मनुष्यों की बात है, परमेश्वर ने चाहा कि वे धरती पर रहें, लेकिन अपनी आराधना करने की योग्यता उन्हें नहीं दी। इसलिए मनुष्य परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उसका विरोध कर सकते हैं। इससे साबित होता है कि मनुष्यों को कोई भी इस्तेमाल कर सकता है और चुनौती दे सकता है; उनकी अपनी कोई संप्रभुता नहीं है। मनुष्य ऐसे प्राणी हैं, जिनकी कोई गरिमा नहीं है और वे निकम्मे हैं!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
जब शैतान ने इंसान को भ्रष्ट कर दिया तो उसके बाद इंसान शैतान का मूर्त रूप बन गया, और ऐसी शैतानी चीज जैसा बन गया जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है और पूरी तरह उससे विश्वासघात करने में सक्षम है। परमेश्वर लोगों से अपना स्वभाव बदलने की अपेक्षा क्यों करता है? क्योंकि परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाना और हासिल करना चाहता है, अंततः मनुष्यों को ऐसा बनाना चाहता है जिनमें परमेश्वर को जानने की बहुत सारी अतिरिक्त वास्तविकताएँ हों, और सत्य के सभी पहलुओं की वास्तविकताएँ हों। इस प्रकार के लोग पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं। अतीत में, लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता था, और वे जब भी कुछ करते थे तो उसमें गलती करते थे या प्रतिरोध दिखाते थे, लेकिन अब लोग कुछ सत्य समझते हैं और कई ऐसी चीजें कर सकते हैं जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग परमेश्वर से विश्वासघात नहीं करते हैं। लोग अब भी ऐसा कर सकते हैं। उनकी प्रकृति से प्रकट होने वाला एक हिस्सा बदला जा सकता है, और जो बदला जा सकता है वह वही हिस्सा है जिसमें लोग सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं। लेकिन सिर्फ इस कारण कि अब तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी प्रकृति बदल चुकी है। यह वैसा ही है जैसे पहले लोग हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते थे और उससे माँगें करते थे, और अब कई मामलों में वे ऐसा नहीं करते—लेकिन कुछ मामलों में अब भी उनमें धारणाएँ और माँगें हो सकती हैं, और वे अब भी परमेश्वर से विश्वासघात करने में सक्षम हैं। तुम कह सकते हो, “परमेश्वर चाहे जो करे, मैं उसके प्रति समर्पण कर सकता हूँ, और बिना शिकायत या माँग किए कई मामलों में समर्पण कर सकता हूँ,” लेकिन कुछ मामलों में तुम अभी भी परमेश्वर से विश्वासघात कर सकते हो। यद्यपि तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते, लेकिन जब तुम उसकी इच्छा नहीं समझते हो तो अब भी इसके विरुद्ध जा सकते हो। तो, जो हिस्सा बदल सकता है, उसका अर्थ क्या है? इसका यही अर्थ है कि जब तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो तो तुम समर्पण कर सकते हो, और जब तुम सत्य समझते हो तो तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो। अगर तुम कुछ मामलों में सत्य या परमेश्वर की इच्छा नहीं समझते तो अब भी तुममें भ्रष्टता प्रकट करने की संभावना है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन कुछ चीजों से विवश होने के कारण इसे अभ्यास में नहीं लाते तो फिर यह विश्वासघात है, और यह कुछ ऐसा है जो तुम्हारी प्रकृति में है। बेशक, तुम्हारा स्वभाव कितना बदल सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है। तुम जितने अधिक सत्य हासिल करते जाओगे, यानी परमेश्वर को लेकर तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होता जाएगा, तुम उसका प्रतिरोध और उससे विश्वासघात उतना ही कम करते जाओगे। अपना स्वभाव बदलने की कोशिश मुख्य रूप से सत्य के अनुसरण से पूरी होती है, और अपने प्रकृति सार की समझ सत्य को समझने से हासिल होती है। जब कोई सचमुच सत्य हासिल कर लेगा तो उसकी सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं
परमेश्वर लोगों की धोखेबाज प्रकृति को उजागर इसलिए करता है कि वे इस मसले की और अपनी सच्ची समझ पा सकें। इस पहलू से लोग खुद को बदलना शुरू कर अभ्यास का मार्ग खोजने का प्रयास कर सकते हैं, यह समझ सकते हैं कि वे किन चीजों में परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उनके कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उन्हें परमेश्वर को धोखा देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। एक बार तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम बहुत से पहलुओं में परमेश्वर के प्रति विद्रोह नहीं करते और अधिकतर पहलुओं में उसे धोखा नहीं देते, तो जब तुम अपने जीवन की यात्रा के अंत पर पहुँचोगे, जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो चुका होगा, तुम्हें इस बारे में और चिंता करने की जरूरत नहीं होगी कि क्या तुम भविष्य में परमेश्वर को धोखा दे सकते हो या नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? शैतान के हाथों भ्रष्ट होने से पहले लोग उसके बहकावे में आकर परमेश्वर को धोखा दे देते थे। जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तो क्या लोग परमेश्वर को धोखा देना बंद नहीं कर देंगे? वह समय अभी नहीं आया है। लोगों के अंदर अभी भी शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हैं। एक बार तुमने एक निश्चित चरण तक जीवन का अनुभव कर लिया, जहाँ तुमने परमेश्वर को धोखा देने और उसका विरोध करने के बारे में गलत विचार, धारणाएँ और कल्पनाएँ छोड़ दीं; तुमने सत्य समझ लिया, तुम्हारे हृदय में बहुत सारी सकारात्मक चीजें आ गईं; तुम खुद को और अपने क्रियाकलापों को वश में रख सकते हो; और तुम अब अधिकतर स्थितियों में परमेश्वर को धोखा नहीं देते, तो जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तब तुम पूरी तरह बदल जाओगे। परमेश्वर के कार्य का वर्तमान चरण मनुष्य के विश्वासघात और विद्रोह का समाधान करने के लिए है। भविष्य की मानवजाति परमेश्वर को धोखा नहीं देगी क्योंकि शैतान को निपटाया जा चुका होगा। शैतान द्वारा मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने के मामले नहीं आएँगे; तब यह मामला मानवजाति से संबंधित नहीं रहेगा। अभी, लोगों को मनुष्य की धोखा देने वाली प्रकृति को समझने के लिए कहा जा रहा है, जो अत्यंत महत्व का मुद्दा है। यहीं से तुम लोगों को शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति का संबंध किससे है? धोखा देने के खुलासे कैसे होते हैं? लोगों को कैसे चिंतन करना और समझना चाहिए? उन्हें कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? यह सब स्पष्ट रूप से देखना और समझना चाहिए। जब तक किसी के अंदर धोखा देने की प्रकृति मौजूद रहती है, वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है। ऐसे लोग भले ही खुलेआम परमेश्वर को न नकारें या उससे विद्रोह न करें, तो भी वे बहुत-सी ऐसी चीजें कर सकते हैं जिन्हें लोग धोखा नहीं मानते, लेकिन मूलतः वे धोखा ही हैं। इसका मतलब है कि लोगों के पास कोई स्वायत्तता नहीं है; शैतान ने उन पर पहले ही कब्जा कर लिया है। अगर तुम भ्रष्ट हुए बिना परमेश्वर को धोखा दे सकते हो, तो अब जबकि तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से ओतप्रोत हो तो कितना ज्यादा धोखा दे सकते हो? क्या तुम अब परमेश्वर को कहीं भी और कभी भी धोखा देने में और ज्यादा सक्षम नहीं हो? वर्तमान कार्य उन भ्रष्ट स्वभावों से पीछा छुड़ाने और उन चीजों को कम करने का है, जिनके कारण तुम परमेश्वर को धोखा देते हो, ताकि तुम्हें परमेश्वर द्वारा अपनी उपस्थिति में पूर्ण बनाने और स्वीकार किए जाने के और अवसर मिलें। जैसे-जैसे तुम्हें विभिन्न मामलों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव होगा, तुम कुछ सत्य प्राप्त करने और कुछ हद तक पूर्ण होने में सक्षम हो जाओगे। अगर शैतान और राक्षस अभी भी तुम्हें ललचाने आते हैं, या दुष्ट आत्माएँ तुम्हें गुमराह और परेशान करने आती हैं, तो तुम विवेक का कुछ इस्तेमाल कर लोगे और इस प्रकार परमेश्वर को धोखा देने वाले तरीकों से कम पेश आओगे। यह चीज लोगों के अंदर समय के साथ विकसित होती है। जब शुरू में मनुष्यों को बनाया गया था तो वे परमेश्वर के प्रति समर्पण या उसकी आराधना करना नहीं जानते थे, न वे यह जानते थे कि उसे धोखा देना क्या होता है। जब शैतान उन्हें लुभाने आया, तो उन्होंने उसका अनुसरण करके परमेश्वर को धोखा दिया, वे गद्दार बन गए, क्योंकि वे अच्छाई और बुराई में फर्क नहीं कर पाते थे, और उनमें परमेश्वर की आराधना करने की योग्यता नहीं थी—उससे भी कम उन्हें यह समझ थी कि मानवजाति का सृष्टिकर्ता परमेश्वर है और उसकी आराधना कैसे करनी चाहिए। अब परमेश्वर अपना ज्ञान कराने वाले सत्य—उसका सार, स्वभाव, सर्वशक्तिमत्ता, व्यावहारिकता, आदि—लोगों के अंदर ढालकर उन्हें बचाता है ताकि ये उनका जीवन बन सकें, और उन्हें स्वायत्तता देकर सत्य के अनुसार जीने के लायक बनाता है। जितनी गहराई से तुम परमेश्वर के वचनों और उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हो, उतनी ही गहराई से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझोगे, और यह तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, उससे प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का संकल्प देगा। जितना ज्यादा तुम परमेश्वर को जानोगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा त्याग सकोगे, और तुम्हारे अंदर ऐसी बहुत कम चीजें बचेंगी जो परमेश्वर को धोखा देती हैं और ऐसी चीजें ज्यादा होंगी जो उसके अनुरूप हैं, इस तरह से तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर विजय प्राप्त कर लोगे। सत्य के साथ लोग स्वायत्तता प्राप्त करेंगे और अब उन्हें शैतान न तो गुमराह कर पाएगा, न विवश कर पाएगा, और वे सच्चा मानव जीवन जिएँगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई सभी आत्माएँ, शैतान की सत्ता के नियंत्रण में हैं। केवल वे लोग जो मसीह में विश्वास करते हैं, शैतान के शिविर से बचा कर, अलग कर दिए गए हैं, और आज के राज्य में लाए गए हैं। अब ये लोग शैतान के प्रभाव में नहीं रहे हैं। फिर भी, मनुष्य की प्रकृति अभी भी मनुष्य के शरीर में जड़ जमाए हुए है। कहने का अर्थ है कि भले ही तुम लोगों की आत्माएँ बचा ली गई हैं, तुम लोगों की प्रकृति अभी भी पहले जैसी ही है और इस बात की अभी भी सौ प्रतिशत संभावना है कि तुम लोग मेरे साथ विश्वासघात करोगे। यही कारण है कि मेरा कार्य इतने लंबे समय तक चलता है, क्योंकि तुम्हारी प्रकृति दुःसाध्य है। अब तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए इतने अधिक कष्ट उठा रहे हो जितने तुम उठा सकते हो, फिर भी तुम लोगों में से प्रत्येक मुझे धोखा देने और शैतान की सत्ता, उसके शिविर में लौटने, और अपने पुराने जीवन में वापस जाने में सक्षम है—यह एक अखंडनीय तथ्य है। उस समय, तुम लोगों के पास लेशमात्र भी मानवता या मनुष्य से समानता दिखाने के लिए नहीं होगी, जैसी तुम अब दिखा रहे हो। गंभीर मामलों में, तुम लोगों को नष्ट कर दिया जाएगा और इससे भी बढ़कर तुम लोगों को, फिर कभी भी देहधारण नहीं करने के लिए, बल्कि गंभीर रूप से दंडित करने के लिए अनंतकाल के लिए अभिशप्त कर दिया जाएगा। यह तुम लोगों के सामने रख दी गई समस्या है। मैं तुम लोगों को इस तरह से याद दिला रहा हूँ ताकि एक तो, मेरा कार्य व्यर्थ नहीं जाएगा, और दूसरे, ताकि तुम सभी लोग प्रकाश के दिनों में रह सको। वास्तव में, मेरा कार्य व्यर्थ होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या नहीं है। महत्वपूर्ण है तुम लोगों का एक खुशहाल जीवन और एक अद्भुत भविष्य पाने में सक्षम होना। मेरा कार्य लोगों की आत्माओं को बचाने का कार्य है। यदि तुम्हारी आत्मा शैतान के हाथों में पड़ जाती है, तो तुम्हारा शरीर शांति में नहीं रहेगा। यदि मैं तुम्हारे शरीर की रक्षा कर रहा हूँ, तो तुम्हारी आत्मा भी निश्चित रूप से मेरी देखभाल के अधीन होगी। यदि मैं तुमसे सच में घृणा करूँ, तो तुम्हारा शरीर और आत्मा तुरंत शैतान के हाथों में पड़ जाएँगे। क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि तब तुम्हारी स्थिति किस तरह की होगी? यदि किसी दिन मेरे वचनों का तुम पर कोई असर न हुआ, तो मैं तुम सभी लोगों को तब तक के लिए घोर यातना देने के लिए शैतान को सौंप दूँगा जब तक कि मेरा गुस्सा पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता, अथवा मैं कभी न सुधर सकने योग्य तुम मानवों को व्यक्तिगत रूप से दंडित करूँगा, क्योंकि मेरे साथ विश्वासघात करने वाले तुम लोगों के हृदय कभी नहीं बदलेंगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
अब तुम सभी लोगों को अपने अंदर यथाशीघ्र झांककर देखना चाहिए कि तुम लोगों के अंदर मेरे प्रति कितना विश्वासघात बाक़ी है। मैं उत्सुकता से तुम्हारी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मेरे साथ अपने व्यवहार में लापरवाह मत होना। मैं कभी भी लोगों के साथ खेल नहीं खेलता हूँ। यदि मैं कहता हूँ कि मैं कुछ करूँगा तो मैं निश्चित रूप से ऐसा करूँगा। मुझे आशा है कि तुम सभी ऐसे लोग हो सकते हो जो मेरे वचनों को गंभीरता से लेते हो और यह नहीं सोचते हो कि वे मात्र वैज्ञानिक कपोल कथाएँ हैं। मैं तुम लोगों से एक ठोस कार्रवाई चाहता हूँ, न कि तुम लोगों की कल्पनाएँ। इसके बाद, तुम लोगों को मेरे प्रश्नों के उत्तर देने होंगे, जो इस प्रकार हैं :
1. यदि तुम सचमुच में सेवा करने वाले हो, तो क्या तुम अनमनेपन या नकारात्मक तत्वों के बिना निष्ठापूर्वक मुझे सेवा प्रदान कर सकते हो?
2. यदि तुम्हें पता चले कि मैंने कभी भी तुम्हारी सराहना नहीं की है, तो क्या तब भी तुम जीवन भर टिके रह कर मुझे सेवा प्रदान कर पाओगे?
3. यदि तुमने मेरी ख़ातिर बहुत सारे प्रयास किए हैं लेकिन मैं तब भी तुम्हारे प्रति बहुत रूखा रहूँ, तो क्या तुम गुमनामी में भी मेरे लिए कार्य करना जारी रख पाओगे?
4. यदि, तुम्हारे द्वारा मेरे लिए खर्च करने के बाद भी मैंने तुम्हारी तुच्छ माँगों को पूरा नहीं किया, तो क्या तुम मेरे प्रति निरुत्साहित और निराश हो जाओगे या यहाँ तक कि क्रोधित होकर गालियाँ भी बकने लगोगे?
5. यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी, दरिद्रता, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाने की पीड़ा को भुगतते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?
6. यदि मैने जो किया है उसमें से कुछ भी उससे मेल नहीं खाता है जिसकी तुमने अपने हृदय में कल्पना की है, तो तुम अपने भविष्य के मार्ग पर कैसे चलोगे?
7. यदि तुम्हें वह कुछ भी प्राप्त नहीं होता है जो तुमने प्राप्त करने की आशा की थी, तो क्या तुम मेरे अनुयायी बने रह सकते हो?
8. यदि तुम्हें मेरे कार्य का उद्देश्य और महत्व कभी भी समझ में न आया हो तो क्या तुम ऐसे समर्पित व्यक्ति हो सकते हो जो मनमाने निर्णय न लेता हो और निष्कर्ष न निकालता हो?
9. मानवजाति के साथ रहते समय, मैंने जो वचन कहे हैं और मैंने जो कार्य किए हैं उन सभी को क्या तुम संजोए रख सकते हो?
10. यदि तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते हो, तो भी क्या तुम मेरे निष्ठावान अनुयायी बने रहने में सक्षम हो, और आजीवन मेरे लिए कष्ट भुगतने को तैयार हो?
11. क्या तुम मेरे वास्ते भविष्य में अपने जीने के मार्ग पर विचार न करने, योजना न बनाने या तैयारी न करने में सक्षम हो?
ये प्रश्न तुम लोगों से मेरी अंतिम अपेक्षाओं को दर्शाते हैं, और मुझे आशा है कि तुम सभी लोग मुझे उत्तर दे सकते हो। यदि तुम इन प्रश्नों में पूछी गई एक या दो चीजों को पूरा कर चुके हो, तो तुम्हें अपना प्रयास जारी रखने की आवश्यकता है। यदि तुम इन अपेक्षाओं में से किसी एक को भी पूरा नहीं कर सकते हो, तो तुम निश्चित रूप से उस प्रकार के व्यक्ति हो जिसे नरक में डाला जाएगा। ऐसे लोगों से मुझे अब कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे निश्चित रूप से ऐसे लोग नहीं हैं जो मेरे अनुकूल हो सकते हों। मैं किसी ऐसे व्यक्ति को अपने घर में कैसे रख सकता हूँ जो किसी भी परिस्थिति में मेरे साथ विश्वासघात कर सकता है? जहाँ तक ऐसे लोगों की बात है जो अधिकांश परिस्थितियों में मेरे साथ विश्वासघात कर सकते हैं, मैं अन्य व्यवस्थाएँ करने से पहले उनके प्रदर्शन का अवलोकन करूँगा। फिर भी, वे सब लोग जो, चाहे किसी भी परिस्थिति में, मेरे साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं, मैं उन्हें कभी भी नहीं भूलूँगा; मैं उन्हें अपने मन में याद रखूँगा और उनके बुरे कार्यों का बदला चुकाने के अवसर की प्रतीक्षा करूँगा। मैंने जो अपेक्षाएँ की हैं वे सभी ऐसी समस्याऐं हैं, जिनका तुम्हें स्वयं में निरीक्षण करना चाहिए। मुझे आशा है कि तुम सभी लोग उन पर गंभीरता से विचार कर सकते हो और मेरे साथ लापरवाही से व्यवहार नहीं करोगे। निकट भविष्य में, मैं अपनी अपेक्षाओं के जवाब में तुम्हारे द्वारा दिए गए उत्तरों की जाँच करूँगा। उस समय तक, मैं तुम लोगों से कुछ और अपेक्षा नहीं करूँगा तथा तुम लोगों को कड़ी फटकार नहीं लगाऊँगा। इसकी बजाय, मैं अपने अधिकार का प्रयोग करूँगा। जिन्हें रखा जाना चाहिए उन्हें रखा जाएगा, जिन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा, जिन्हें शैतान को दिया जाना चाहिए, उन्हें शैतान को दिया जाएगा, जिन्हें भारी दंड मिलना चाहिए, उन्हें भारी दंड दिया जाएगा, और जिनका नाश हो जाना चाहिए, उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा। इस तरह, मेरे दिनों में मुझे परेशान करने वाला कोई भी नहीं होगा। क्या तुम मेरे वचनों पर विश्वास करते हो? क्या तुम प्रतिकार में विश्वास करते हो? क्या तुम विश्वास करते हो कि मैं उन सभी बुरे लोगों को दंड दूँगा जो मुझे धोखा देते हैं और मेरे साथ विश्वासघात करते हैं? तुम उस दिन के जल्दी आने की आशा करते हो या उसके देर से आने की? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सज़ा से बहुत भयभीत है, या कोई ऐसे व्यक्ति हो जो मेरा प्रतिरोध करेगा, भले ही उसे दंड भुगतना पड़े? जब वह दिन आएगा, तो क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि तुम हँसी-खुशी के बीच रह रहे होगे, या रो रहे होगे और अपने दांत भींच रहे होगे? तुम क्या आशा करते हो कि तुम्हारा किस तरह का अंत होगा? क्या तुमने कभी गंभीरता से विचार किया है कि तुम मुझ पर शत प्रतिशत विश्वास करते हो या मुझ पर शत प्रतिशत संदेह करते हो? क्या तुमने कभी ध्यान से विचार किया है कि तुम्हारे कार्य और व्यवहार तुम्हारे लिए किस प्रकार के परिणाम और अंत लाएँगे? क्या तुम सचमुच में आशा करते हो कि मेरे सभी वचन एक-एक करके पूरे होंगे, या तुम बहुत डरे हुए हो कि मेरे वचन एक-एक करके पूरे होंगे? यदि तुम आशा करते हो कि अपने वचनों को पूरा करने के लिए मैं शीघ्र ही प्रस्थान करूँ, तो तुम्हें अपने स्वयं के शब्दों और कार्यों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? यदि तुम मेरे प्रस्थान की आशा नहीं करते हो और यह आशा नहीं करते हो कि मेरे सभी वचन तुरंत पूरे हो जाएँ, तो तुम मुझ पर विश्वास ही क्यों करते हो? क्या तुम सचमुच जानते हो कि तुम मेरा अनुसरण क्यों कर रहे हो? यदि यह केवल तुम्हारे क्षितिज का विस्तार करने के लिए है, तो तुम्हें इतनी मुश्किलें उठाने की आवश्यकता नहीं है। यदि यह आशीष पाने और भविष्य की आपदा से बचने के लिए है, तो तुम अपने स्वयं के आचरण के बारे में चिंतित क्यों नहीं हो? तुम अपने आपसे क्यों नहीं पूछते हो कि क्या तुम मेरी अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हो? तुम अपने आपसे क्यों नहीं पूछते हो कि तुम मेरी भविष्य की आशीषों को प्राप्त करने के योग्य हो या नहीं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)