590 तुम्हें सभी चीज़ों में परमेश्वर की इच्छा खोजनी होगी
1 जैसे ही लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने में उतावले होते हैं, उन्हें पता नहीं होता कि कैसे अनुभव करना है; जैसे ही वे कामों में व्यस्त होते हैं, उनकी आध्यात्मिक स्थिति कष्टमय हो जाती है और वे सामान्य स्थिति को बनाए रखने की योग्यता गँवा देते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? यदि आपको थोड़ा कार्य करने के लिए कहा जाए, तो आप अनियंत्रित और स्वच्छंद हो जाते हैं, परमेश्वर के निकट आने को तैयार नहीं होते और परमेश्वर से दूर हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि लोग नहीं जानते कि अनुभूति कैसे की जाए। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। यदि तुम अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए कुछ कर रहे हो, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए: मुझे यह किस तरह करना चाहिए? मुझे किस तरह अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करना चाहिए ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न कर रहा हूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर के करीब आना चाहिए।
2 परमेश्वर के करीब आने का मतलब है इस बात में सच्चाई को खोजना, अभ्यास करने के तरीके को खोजना, परमेश्वर की इच्छा को खोजना, और इस बात को खोजना है कि परमेश्वर को संतुष्ट कैसे करना है। इसमें कोई धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रिया-कलाप करना शामिल नहीं है। यह परमेश्वर की इच्छा को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अपना कर्तव्य करते समय या किसी चीज़ पर कार्य करते समय, तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए: मुझे यह कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है? परमेश्वर के करीब जाकर तुम अपने कृत्यों के पीछे के सिद्धान्तों और सत्य की खोज करते हो, साथ ही परमेश्वर की इच्छा को खोजते हो, और जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम भटककर परमेश्वर से दूर नहीं जाते हो। ऐसा व्यक्ति ही सचमुच परमेश्वर में विश्वास करता है। इन दिनों, जब लोगों के सामने चीज़ें आती हैं, तो वे बस जिद पर अड़े रहते हैं और अपने व्यक्तिगत इरादों के अनुसार कार्य कर डालते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर नहीं होता; वे स्वयं ही अपने दिल में होते हैं, और अपने किसी भी काम में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते।
3 सत्य के अनुसार काम न करने का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार काम करना, और अपनी इच्छा के अनुसार काम करने का अर्थ है परमेश्वर को छोड़ देना; अर्थात, उनके दिल में परमेश्वर नहीं हैं। मानवीय अभिप्राय आमतौर पर लोगों को अच्छे और सही लगते हैं, और वे ऐसे दिखते हैं मानो कि वे सत्य का बहुत अधिक उल्लंघन नहीं करते हैं। लोगों को लगता है कि चीज़ों को इस तरह से करना सत्य को अभ्यास में लाना है; उन्हें लगता है कि चीज़ों को उस तरह से करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। दरअसल, वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश नहीं कर रहे हैं, और वे परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार, उसकी इच्छा को संतुष्ट करने के लिए, इसे अच्छी तरह से करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। उनके पास यह सच्ची अवस्था नहीं है, न ही उनकी ऐसी अभिलाषा है। यही वह सबसे बड़ी ग़लती है, जो लोग अपने अभ्यास में करते हैं। तुम परमेश्वर पर विश्वास तो करते हो, परन्तु तुम परमेश्वर को अपने दिल में नहीं रखते हो। यह पाप कैसे नहीं है? क्या तुम अपने आप को धोखा नहीं दे रहे हो? यदि तुम इसी तरीके से विश्वास करते रहो तो तुम किस प्रकार के प्रभावों को पाओगे? इसके अलावा, विश्वास के महत्व को कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन से रूपांतरित