सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है

कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने और कई उपदेशों में भाग लेने के बाद भी इन चीजों से बहुत कम लाभ मिला है। कम से कम वे कुछ ऐसे वचनों और सिद्धांतों को रटकर सुना पाते हैं जो सभी सुनने में सत्य के अनुरूप लगते हैं। और फिर भी जब उनके साथ कोई घटना हो जाती है, तो वे सत्य का अनुसरण नहीं कर पाते; वे सत्य के अनुरूप एक भी कार्य नहीं कर सकते। यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के इतने वर्षों के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए एक भी कार्य या एक भी न्यायोचित कार्य नहीं किया है। इसे कैसे समझाया जा सकता है? हालाँकि वे कुछ वचन और सिद्धांत बोल सकते हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से सत्य नहीं समझते, इसलिए वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते। जब कुछ लोग आत्म-ज्ञान के बारे में संगति करते हैं, तो उनके मुँह से पहली बात यह निकलती है, “मैं एक राक्षस, एक जीवित शैतान हूँ, जो परमेश्वर का विरोध करता है। मैं उसके विरुद्ध विद्रोह करता हूँ और उसके साथ विश्वासघात करता हूँ; मैं एक साँप हूँ, एक दुष्ट व्यक्ति, जिसे शापित होना चाहिए।” क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? वे केवल सामान्य बातें बोलते हैं। वे उदाहरण क्यों नहीं देते? वे गहन-विश्लेषण के लिए उनके द्वारा की गई शर्मनाक चीजों को सबके सामने क्यों नहीं लाते? कुछ अविवेकी लोग उनकी बात सुनकर सोचते हैं, “हाँ, यह सच्चा आत्म-ज्ञान है! खुद को एक दानव के रूप में जानना, यहाँ तक कि खुद को कोसना—ये कितनी ऊँचाई तक पहुँच गए हैं!” बहुत-से लोग, खासकर नए विश्वासी, इस बात से गुमराह हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि वक्ता शुद्ध है और उसके पास आध्यात्मिक समझ है, सत्य से प्रेम करता है, और अगुआई करने योग्य है। लेकिन जब वे उससे थोड़ी देर बातचीत करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं है, यह वैसा इंसान नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, बल्कि असाधारण रूप से झूठा और धोखेबाज है, स्वाँग रचने और ढोंग करने में कुशल है, जिससे उन्हें बड़ी निराशा होती है। किस आधार पर यह माना जा सकता है कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं? तुम केवल इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि वे क्या कहते हैं—मुख्य है यह निर्धारित करना कि वे सत्य का अभ्यास करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं या नहीं। जो लोग वास्तव में सत्य समझते हैं, उन्हें न केवल अपना सच्चा ज्ञान होता है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। वे न केवल अपनी सच्ची समझ के बारे में बोलते हैं, बल्कि वे जो कहते हैं उसे सच में करने में भी सक्षम होते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में पूरी तरह तालमेल होता है। अगर वे जो कहते हैं वह सुसंगत और स्वीकार्य लगता है, लेकिन वे वैसा करते नहीं, उसे जीते नहीं, तो इसमें वे फरीसी बन जाते हैं, वे पाखंडी होते हैं और खुद को सच में जानने वाले लोग बिल्कुल नहीं होते। सत्य के बारे में संगति करते हुए कई लोग बहुत तर्कसंगत लगते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि कब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है। क्या ये वे लोग हैं, जो खुद को जानते हैं? अगर लोग खुद को नहीं जानते, तो क्या वे सत्य को समझने वाले लोग होते हैं? वे सभी, जो स्वयं को नहीं जानते, वे सत्य को न समझने वाले लोग हैं, और जो आत्म-ज्ञान के खोखले शब्द बोलते हैं उनमें झूठी आध्यात्मिकता होती है, वे झूठे होते हैं। कुछ लोग वचन और सिद्धांत बोलते समय बहुत सुसंगत लगते हैं, लेकिन उनकी आत्माओं की स्थिति सुन्न और जड़ होती है, वे चीजों को महसूस नहीं कर पाते हैं, और किसी भी मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। कहा जा सकता है कि वे सुन्न होते हैं, लेकिन कभी-कभी, उन्हें बोलते हुए सुनने पर, लगता है कि उनकी आत्मा काफी प्रखर है। उदाहरण के लिए, किसी घटना के ठीक बाद, वे खुद को तुरंत जानने में सक्षम होते हैं : “अभी-अभी मुझे एक विचार आया। मैंने उसके बारे में सोचा और महसूस किया कि वह कपटी विचार था, कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा था।” यह सुनकर कुछ अविवेकी लोग ईर्ष्यालु हो जाते हैं और कहते हैं : “इस इंसान को तुरंत पता चल जाता है कि कब उसकी भ्रष्टता प्रकट हो रही है, और यह उसके बारे में खुलकर बात करने और संगति करने में भी सक्षम है। वह प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुत तेज है, उसकी आत्मा प्रखर है, वह हमसे बहुत बेहतर है। वह वास्तव में ऐसा इंसान है, जो सत्य का अनुसरण करता है।” क्या यह लोगों को मापने का सटीक तरीका है? (नहीं।) तो यह आँकने का आधार क्या होना चाहिए कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं या नहीं? इसका आधार केवल उनके मुँह से निकलने वाली बातें नहीं होनी चाहिए। तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि उनमें वास्तव में क्या प्रकट होता है। सबसे सरल तरीका यह देखना है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं—यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अभ्यास करने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, क्योंकि जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं, वे पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, और जब लोग पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, तभी वे वास्तव में खुद को जानते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि वह धोखेबाज है, कि वह तुच्छ षड्यंत्रों और साजिशों से भरा हुआ है, और वह यह भी बता सकता है कि दूसरे कब धोखेबाजी दिखाते हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि वह धोखेबाज है यह स्वीकार करने के बाद वास्तव में पश्चात्ताप करता है और अपनी धोखेबाजी छोड़ता है या नहीं। और अगर वह फिर से धोखेबाजी करता है, तो देखो कि क्या वह ऐसा करने पर तिरस्कार और शर्मिंदगी महसूस करता है या नहीं, वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है या नहीं। अगर उसमें शर्मिंदगी का भाव नहीं है, पश्चात्ताप बिलकुल भी नहीं है, तो उसका आत्म-ज्ञान सतही, और लापरवाही से भरा है। वह सिर्फ बेमन से काम कर रहा है; उसका ज्ञान सच्चा नहीं है। वह यह नहीं सोचता कि धोखा देना बुरी या राक्षसी बात है और वह निश्चित रूप से महसूस नहीं करता कि धोखा देना कितना बेशर्मी भरा, घिनौना व्यवहार है। वह सोचता है, “सभी लोग धोखेबाज हैं। जो लोग धोखेबाज नहीं हैं वे मूर्ख हैं। थोड़ी-सी धोखेबाजी तुम्हें बुरा व्यक्ति नहीं बनाती। मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है; मैं दुनिया का सबसे धोखेबाज व्यक्ति नहीं हूँ।” क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में खुद को जान सकता है? वह निश्चित रूप से नहीं जान सकता। इसका कारण यह है कि उसे अपने धोखेबाज स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है, वह धोखे से नफरत नहीं करता और आत्मज्ञान के बारे में उसकी सभी बातें ढोंग हैं और खोखली हैं। खुद के भ्रष्ट स्वभाव को न पहचानना सच्चा आत्मज्ञान नहीं है। धोखेबाज लोग अपने आपको वास्तव में इसलिए नहीं जान पाते, क्योंकि उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। इसलिए चाहे वे कितने भी शब्द और सिद्धांत बोल लें, वे वास्तव में नहीं बदलेंगे।

कैसे पहचाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? एक संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन के आधार पर स्वयं को जान सकता है, क्या वह आत्मचिंतन कर सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकता है; दूसरे संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है। अगर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के कार्य को समर्पित हो सकता है। अगर वह केवल सत्य को पहचानता है, पर उसे कभी स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं करता, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, “मैं सारा सत्य समझता हूँ, लेकिन मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता,” तो यह साबित करता है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य से प्रेम करता है। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और यह भी कहते हैं कि वे पश्चात्ताप करने और खुद को नया रूप देने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसके बाद बिलकुल भी कोई बदलाव नहीं होता। उनकी बातें और हरकतें अभी भी वैसी ही होती हैं, जैसी पहले होती थीं। जब वे खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई चुटकुला सुना रहे हों या कोई नारा लगा रहे हों। वे अपने दिल की गहराइयों में आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को नहीं जान पाते; मुख्य समस्या यह है कि उनमें पश्चात्ताप का रवैया नहीं होता। वास्तव में आत्मचिंतन करने के लिए अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात तो वे बिल्कुल भी नहीं करते। बल्कि वे बेमन से ऐसा करने की प्रक्रिया से गुजरने का दिखावा करके खुद को जानने का नाटक करते हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो वास्तव में खुद को जानते या सत्य स्वीकारते हैं। जब ऐसे लोग खुद को जानने की बात करते हैं, तो वे यंत्रवत ढंग से काम करते हैं; वे स्वाँग, धोखाधड़ी और झूठी आध्यात्मिकता में संलग्न रहते हैं। कुछ लोग धोखेबाज होते हैं, और जब वे दूसरों को आत्म-ज्ञान पर सहभागिता करते हुए देखते हैं, तो वे सोचते हैं, “बाकी सब खुलकर बोलते हैं और अपने-अपने छल का गहन-विश्लेषण करते हैं। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो सभी सोचेंगे कि मैं खुद को नहीं जानता, तब मुझे बेमन से ऐसा करना पड़ेगा!” जिसके बाद वे अपने छल को अत्यधिक गंभीर बताते हैं और नाटकीयता के साथ उसका वर्णन करते हैं, और उनका आत्म-ज्ञान विशेष रूप से गहरा प्रतीत होता है। सुनने वाला हर व्यक्ति महसूस करता है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, और फिर उन्हें ईर्ष्या से देखता है, जिससे उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे गौरवशाली हों, मानो उन्होंने खुद को प्रभामंडल से सजा लिया हो। बेमन से काम करने से प्राप्त इस प्रकार का आत्म-ज्ञान, उनके स्वांग और धोखाधड़ी के साथ मिलकर, दूसरों को गुमराह कर देता है। क्या ऐसा करने से उनके जमीर को सुकून मिल सकता है? क्या यह खुलेआम धोखा नहीं है? अगर लोग खुद को जानने के बारे में केवल खोखली बातें करते हैं, वह ज्ञान चाहे कितना भी ऊँचा या अच्छा क्यों न हो और वे उसके बाद भी किसी भी बदलाव के बिना पहले की ही तरह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते रहेंगे, तो फिर यह असल आत्म-ज्ञान नहीं है। अगर लोग जानबूझकर इस तरह से दिखावा कर धोखा दे सकते हैं, तो यह साबित करता है कि वे सत्य को बिलकुल भी स्वीकार नहीं करते, और बिलकुल गैर-विश्वासियों जैसे हैं। इस तरह से अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करके वे केवल प्रवृत्ति का अनुसरण करते हैं और सबकी पसंद की बातें बोलते हैं। क्या उनका आत्म-ज्ञान और खुद का गहन विश्लेषण धोखे में डालने वाला नहीं है? क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे दिल से नहीं खुलते और खुद का गहन-विश्लेषण नहीं करते, और केवल दिखावे के लिए एक झूठे, कपटपूर्ण तरीके से खुद को जानने के बारे में थोड़ा बोलते हैं। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि दूसरों से अपनी प्रशंसा कराने और उन्हें ईर्ष्या से भरने के मकसद से वे आत्म-ज्ञान पर चर्चा करते समय अपनी समस्याओं को अधिक गंभीर दिखाने के लिए जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और इसमें अपने व्यक्तिगत इरादों और लक्ष्यों का घालमेल कर देते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें ऋणी महसूस नहीं होता है, स्वांग रचने और धोखाधड़ी में संलग्न होने के बाद उनका अंतःकरण निंदनीयनहीं होता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे धोखा देने के बाद वे कुछ भी महसूस नहीं करते, और अपनी गलती स्वीकार करने के लिए वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। क्या ऐसे लोग हठी नहीं होते? अगर उन्हें ऋणी महसूस नहीं होता है, तो क्या उन्हें कभी पछतावा हो सकता है? क्या बिना सच्चे पछतावे के कोई देहसुख के विरुद्ध विद्रोह और सत्य का अभ्यास कर सकता है? क्या सच्चे पछतावे के बिना कोई वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है? बिल्कुल नहीं। अगर उन्हें पछतावा तक नहीं है, तो क्या आत्म-ज्ञान के बारे में बात करना बेतुका नहीं है? क्या यह सिर्फ स्वांग और धोखाधड़ी नहीं है? झूठ बोलने और धोखा देने के बाद कुछ लोगों को अपने किए का एहसास होता है और वे पश्चात्ताप कर पाते हैं। क्योंकि उनमें शर्म की भावना है, वे खुले तौर पर दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता स्वीकारने में शर्मिंदा होते हैं, लेकिन वे प्रार्थना कर परमेश्वर के सामने खुद को खोल लेते हैं। वे पश्चात्ताप करने को तैयार रहते हैं और फिर सचमुच बदल जाते हैं। यह ऐसा व्यक्ति भी होता है जो खुद को जानता है और सच में पश्चात्ताप करता है। कोई भी व्यक्ति जो दूसरों के सामने यह स्वीकार करने का साहस कर सके कि उसने झूठ बोला है और धोखा दिया है और जो परमेश्वर से प्रार्थना भी कर सकता है और अपनी भ्रष्टता के खुलासे स्वीकार कर खुद को उसके सामने खोलकर रख सकता है, वह खुद को जानने और सच में पश्चात्ताप करने में सक्षम है। प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बाद, वे अभ्यास का तरीका ढूँढ़ते हैं और अपने आप में कुछ बदलाव लाते हैं। भले ही सभी का प्रकृति सार एक जैसा होता है और सबका भ्रष्ट स्वभाव है, फिर भी जो लोग सत्य स्वीकार सकते हैं उनके बचाए जाने की आशा है। कुछ लोग, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का आनंद लेते हैं और आत्मचिंतन पर ध्यान देते हैं। जब वे अपनी भ्रष्टता के खुलासे देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और अकसर अपनी झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या हल करने के लिए आत्मसंयम के तरीके अपनाते हैं। फिर भी वे खुद को रोक नहीं पाते और अक्सर झूठ बोलते और धोखा देते हैं। तब जाकर उन्हें एहसास होता है कि शैतानी स्वभाव की समस्या को संयम के जरिए हल नहीं किया जा सकता है। इसलिए वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, उसे अपनी समस्याएँ समझाते हैं, खुद को पापी प्रकृति की बाध्यता और शैतान के प्रभाव से बचाने की प्रार्थना करते हैं, ताकि उन्हें परमेश्वर से उद्धार प्राप्त हो सके। कुछ समय बाद कुछ नतीजे तो मिलते हैं, लेकिन उनकी झूठ बोलने और धोखा देने की समस्या का कोई बुनियादी समाधान नहीं निकलता। तब अंततः उन्हें एहसास होता है कि शैतानी स्वभाव लंबे अरसे से उनके दिलों में जड़ें जमाए है और उनके केंद्र तक पहुँच गया है। मानवीय प्रकृति शैतान की है। केवल परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार करके और पवित्र आत्मा का कार्य को प्राप्त करके ही कोई शैतानी स्वभाव के जकड़ने वाले बंधनों और बाध्यता से मुक्त हो सकता है। जब परमेश्वर के वचन उन्हें प्रबुद्ध करते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं, तभी वे अपनी भ्रष्टता की गहराई देख पाते हैं और यह समझ पाते हैं कि भ्रष्ट मानवजाति वास्तव में शैतान की वंशज है, और यह भी कि यदि परमेश्वर उद्धार कार्य न करता, तो हर किसी को नरक और विनाश भोगना पड़ता। केवल तभी उन्हें एहसास होता है कि न्याय और ताड़ना के माध्यम से लोगों को बचाना परमेश्वर के लिए कितना व्यावहारिक है। ब अनुभव करने के बाद वे दिल से परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने में सक्षम रहते हैं और उनमें सच्चे पश्चात्ताप की भावना जगने लगती है। अब वे वास्तव में जागरूक होकर खुद को जानने लगते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिनके दिलों में जागरूकता की कमी है, वे भी कुछ आध्यात्मिक वचन, कुछ तर्कसंगत वचन बोलना सीख लेते हैं। वे विशेष रूप से तथाकथित “पवित्र लोगों” के रटे-रटाए जुमले बोलने में माहिर होते हैं और वे सुनने में काफी सच्चे भी लगते हैं, वे अपने श्रोताओं को इस हद तक धोखा देते हैं कि उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। परिणामस्वरूप, हर कोई उन्हें पसंद कर सम्मान देता है। क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? ये कैसे लोग होते हैं? क्या ये फरीसी नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे अधिक धोखेबाज होते हैं। सत्य को न समझने वाले लोग जब पहली बार ऐसे किसी व्यक्ति के संपर्क में आते हैं तो उन्हें लगता है कि वह बहुत आध्यात्मिक है, इसलिए वे उसे अगुआ चुन लेते हैं। नतीजा ये होता है कि एक साल के अंदर वह व्यक्ति इन सभी अविवेकी लोगों को अपने पाले में ले जाता है। वे उसके इर्द-गिर्द मँडराते हैं, उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं और तारीफें करते हैं, जब भी कुछ होता है तो उससे मार्गदर्शन माँगते हैं और यहाँ तक कि उसके लहजे की नकल करते हैं। उसका अनुसरण करने वाले लोग वचन और सिद्धांत बघारना सीखते हैं, वे लोगों और परमेश्वर को धोखा देना सीखते हैं, लेकिन इसके परिणामस्वरूप जब परीक्षण सामने आते हैं वे सभी निराश और कमजोर हो जाते हैं। वे मन ही मन में परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करते और उस पर शक करते हैं और बिलकुल भी आस्था नहीं रखते। किसी व्यक्ति की आराधना और अनुसरण करने का यही फल होता है। वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने और कई आध्यात्मिक सिद्धांत बोलने में सक्षम होने के बावजूद, उनके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। वे सभी किसी पाखंडी फरीसी द्वारा गुमराह किए और बहकाए गए हैं। क्या अविवेकी लोगों के लिए धोखा खाना और गलत मार्ग अपनाना आसान नहीं है? अविवेकी लोग भ्रमित रहते हैं और वे सभी काफी आसानी से गुमराह हो जाते हैं!

परख करना सीखने के लिए, सबसे पहले व्यक्ति को अपनी समस्याओं के बारे में सोचना और उन्हें पहचानना सीखना होगा। हर किसी में घमंड और आत्मतुष्टता होती है और थोड़ी-सी भी शक्ति उन्हें मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है। लोग ऐसा होते हुए अकसर देखते हैं और एक पल में जान जाते हैं, लेकिन वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं जिन्हें समझना इतना आसान नहीं है या जिनके प्रति लोग कम संवेदनशील हैं और जिन्हें खुद में या अन्य लोगों में खोजना मुश्किल है? (मैं धोखेबाजी को महसूस नहीं कर पाता हूँ।) धोखेबाजी न महसूस कर पाना और क्या? (स्वार्थ और घिनौनापन।) स्वार्थ और घिनौनापन। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जो कुछ करते हैं और दावा करते हैं कि वे इसे दूसरों के लिए कर रहे हैं और इसे हर किसी की स्वीकृति पाने का एक बहाना बना लेते हैं। लेकिन वास्तव में वे ऐसा खुद को मुसीबत से बचाने के लिए करते हैं, यह ऐसा मकसद है जिससे दूसरे अनजान हैं और जिसके बारे में पता लगाना मुश्किल होता है। अन्य कौन-से भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाना सबसे कठिन है? (पाखंडी होना।) मतलब, बाहरी तौर पर एक अच्छा व्यक्ति दिखना, प्रशंसा पाने के लिए मानवीय कल्पना के अनुकूल काम करना, लेकिन अंदर शैतानी दर्शन और गुप्त उद्देश्यों को छिपाना। यह एक धोखेबाजी का स्वभाव है। क्या इसे पहचानना आसान है? जिन लोगों की क्षमता कम होती है और जो सत्य नहीं समझते, वे चीजों की असलियत नहीं देख सकते; वे इस प्रकार के व्यक्ति को विशेष रूप से नहीं पहचान सकते। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो समस्याओं को हल करते समय स्पष्ट और तार्किक रूप से बात करते हैं, जैसे कि उन्होंने समस्या को समझ लिया हो, लेकिन जब वे बात खत्म कर लेते हैं, तो समस्या सुलझती नहीं है। वे तुम्हें गलत ढंग से विश्वास दिलाते हैं कि समस्या हल हो गई है; क्या यह लोगों को गुमराह करना और धोखा देना नहीं है? जो लोग अपना कर्तव्य निभाते समय वास्तविक कार्रवाई नहीं करते और जो बहुतेरी खोखली और कर्णप्रिय बातें करते हैं, वे सभी पाखंडी हैं। वे बहुत धूर्त और कपटी होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति के साथ लंबे समय तक रहने के बाद, क्या तुम लोग उन्हें समझ सकते हो? वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी वे क्यों नहीं बदलते? मूल कारण क्या है? सटीकता से कहें तो, वे सभी लोग सत्य से विमुख हैं, इसलिए वे इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे शैतान के दर्शन के अनुसार जीना पसंद करते हैं, यह सोचकर कि यह न केवल उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाता है, बल्कि उन्हें तेजस्वी और आकर्षक दिखने में भी मदद करता है और इससे दूसरे लोगों की नजरों में उनका सम्मान बढ़ जाता है। क्या ऐसे लोग कपटी और धोखेबाज नहीं हैं? वे सत्य स्वीकार करने से पहले मरना पसंद करेंगे; क्या ऐसे व्यक्ति को बचाया जा सकता है? कुछ लोग जब काट-छाँट का सामना करते हैं, तो वे मौखिक रूप से तो अपनी गलती मान लेते हैं, लेकिन अपने दिलों में विरोध करते हैं : “भले ही तुम जो कह रहे हो वह सही हो, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। मैं अंत तक तुमसे लड़ूँगा!” वे यह कहकर खुद को अच्छे से छिपाते हैं कि वे स्वीकार करते हैं, परन्तु अपने दिल में वे ऐसा नहीं करते। यह ऐसा स्वभाव भी है जो सत्य से विमुख है। अन्य कौन-से भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाना और उन्हें देख पाना कठिन है? क्या हठधर्मिता का पता लगाना कठिन नहीं है? हठधर्मिता इस प्रकार का स्वभाव है जो बहुत छिपा हुआ होता है। यह आमतौर पर किसी के अपने विचारों पर जिद्दी बनकर अड़े रहने और सत्य को स्वीकार करने में कठिनाई के रूप में प्रकट होता है। दूसरे भले ही सत्य के अनुसार कैसे भी बोलें, हठी व्यक्ति अपने ही तरीके पर अड़ा रहता है। हठी स्वभाव वाले व्यक्ति के सत्य को स्वीकार करने की संभावना सबसे कम होती है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वे आमतौर पर अपने भीतर इस प्रकार का हठी स्वभाव छिपाए रखते हैं। यह पता लगाना कठिन है कि लोग कब अपने भीतर किसी चीज से जिद्दी बनकर चिपके रहते हैं या अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं पर अड़े रहते हैं। और क्या है? सत्य से प्रेम न करने और सत्य से विमुख होने का पता लगाना कठिन है। शातिर स्वभाव को पहचानना कठिन है। घमंड और धोखेबाजी को पहचानना सबसे आसान है, लेकिन अन्य—हठधर्मिता, सत्य से विमुख होना, क्रूरता, दुष्टता—यह सब पहचानना मुश्किल है। दुष्टता को पहचानना सबसे कठिन है, क्योंकि यह मनुष्य की प्रकृति बन गया है और वे इसे गौरवान्वित करने लगते हैं और अधिक दुष्टता भी उन्हें दुष्टता नहीं लगेगी। अतः दुष्ट स्वभाव की पहचान करना हठधर्मी स्वभाव की पहचान करने से भी अधिक कठिन है। कुछ लोग कहते हैं : “इसे पहचानना आसान कैसे नहीं है? सभी लोगों की दुष्ट इच्छाएँ होती हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है?” यह सतही है। असली दुष्टता क्या है? प्रकट होने पर कौन-सी अवस्थाएँ दुष्ट होती हैं? जब लोग अपने दिल की गहराइयों में छिपे दुष्ट और शर्मनाक इरादे छिपाने के लिए प्रभावशाली लगने वाले कथनों का उपयोग करते हैं और फिर दूसरों को यह विश्वास दिलाते हैं कि ये कथन बहुत अच्छे, ईमानदार और वैध हैं, और अंततः अपने गुप्त मकसद हासिल कर लेते हैं, तो क्या यह एक दुष्ट स्वभाव है? इसे दुष्ट क्यों कहा जाता है और कपट करना क्यों नहीं कहा जाता? स्वभाव और सार के अनुसार कपट उतना बुरा नहीं होता। दुष्ट होना कपटी होने से ज्यादा गंभीर है, यह एक ऐसा व्यवहार है जो कपट से ज्यादा घातक और खराब है, और औसत व्यक्ति के लिए इसे समझना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया? दिखावटी शब्द, जो सुनने में सही लगते हैं और तुम्हारी भलाई के लिए कहे गए प्रतीत होते हैं। तुम नहीं जानते कि इन शब्दों में कुछ गलत है या इनके पीछे कोई द्वेषपूर्ण मंशा है, और साथ ही, तुम शैतान द्वारा दिए गए इन सुझावों को छोड़ने में असमर्थ रहते हो। यह प्रलोभन है। जब तुम प्रलोभन में पड़ते हो और इस तरह के शब्द सुनते हो, तो तुम प्रलोभन में आए बिना नहीं रह पाते और तुम्हारे जाल में फँसने की संभावना है, जिससे शैतान का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। इसे ही दुष्टता कहा जाता है। साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया था। क्या यह एक प्रकार का स्वभाव है? (हाँ।) इस प्रकार का स्वभाव कहाँ से आता है? यह साँप से, शैतान से आता है। इस प्रकार का दुष्ट स्वभाव मनुष्य की प्रकृति के भीतर मौजूद है। क्या यह दुष्टता मनुष्यों की दुष्ट अभिलाषाओं से भिन्न नहीं है? दुष्ट अभिलाषाएँ कैसे उत्पन्न होती हैं? इसका संबंध देह से है। सच्ची दुष्टता एक प्रकार का स्वभाव है, गहराई तक छिपा हुआ, जिसकी पहचान सत्य के अनुभव या इसकी समझ से रहित लोग बिलकुल नहीं कर सकते। इसलिए मनुष्य के स्वभावों में इसे पहचानना सबसे कठिन है। किस प्रकार के व्यक्ति का दुष्ट स्वभाव सबसे प्रबल होता है? जो लोग दूसरों का शोषण करना पसंद करते हैं। वे हेरफेर करने में इतने अच्छे होते हैं कि जिन लोगों के साथ वे हेरफेर करते हैं उन्हें भी पता नहीं चलता कि आगे क्या हुआ। इस प्रकार के व्यक्ति का स्वभाव दुष्ट होता है। दुष्ट लोग, धोखेबाजी के आधार पर, अपने धोखे को, अपने पापों को छिपाने और अपने गुप्त उद्देश्यों, लक्ष्यों और स्वार्थी इच्छाओं को छिपाने के लिए अन्य तरीकों का उपयोग करते हैं। यह दुष्टता है। इसके अलावा, वे तुम्हें आकर्षित करने, लुभाने और बहकाने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करेंगे, ताकि तुम उनकी इच्छाओं का पालन करो और उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने की उनकी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करो। यह सब दुष्टता है। यह असली शैतानी स्वभाव है। क्या तुम लोगों ने इनमें से कोई व्यवहार दिखाया है? तुम लोगों ने दुष्ट स्वभाव के किन पहलुओं को अधिक दिखाया है : प्रलोभन, लालच, या एक झूठ को छिपाने के लिए कई झूठ का उपयोग करना? (मुझे लगता है थोड़े-बहुत सभी पहलू दिखाए हैं।) तुम्हें लगता है उन सभी का थोड़ा प्रदर्शन किया है। इसका मतलब भावनात्मक स्तर पर तुम लोगों को लगता है कि तुमने ऐसे व्यवहार दिखाए भी हैं और नहीं भी दिखाए हैं। तुम लोगों के पास कोई सबूत नहीं है। तो, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में किसी चीज से सामना होने पर अगर तुम लोग दुष्ट स्वभाव दिखाते हो तो क्या तुम लोगों को इसका एहसास होता है? दरअसल, ये बातें हर किसी के स्वभाव में मौजूद होती हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा कुछ है जो तुम नहीं समझते, लेकिन तुम दूसरों को यह नहीं जताना चाहते कि तुम उसे नहीं समझते, इसलिए तुम उन्हें गुमराह करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हो ताकि उन्हें लगे कि तुम इसे समझते हो। यह धोखाधड़ी है। ऐसी धोखाधड़ी दुष्टता की अभिव्यक्ति है। प्रलोभन और लालच देना भी है, जो सभी दुष्टता की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या तुम लोग अकसर दूसरों को प्रलोभित करते हो? अगर तुम लोग सही तरीके से किसी को समझने की कोशिश कर रहे हो, उनके साथ संगति करना चाहते हो और यह तुम लोगों के कार्य लिए आवश्यक है और यह उचित संवाद है, तो इसे प्रलोभन नहीं माना जाएगा। परंतु यदि तुम लोगों का कोई व्यक्तिगत इरादा और उद्देश्य है और तुम वास्तव में इस व्यक्ति के स्वभाव, प्रयासों और ज्ञान को समझना नहीं चाहते हो, बल्कि उसके गहरे विचार और सच्ची भावनाएँ जानना चाहते हो, तो इसे दुष्टता, व प्रलोभन और लालच देना कहा जाता है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारा स्वभाव दुष्ट है; क्या यह ऐसी चीज नहीं जो छुपी हुई है? क्या इस प्रकार के स्वभाव को बदलना आसान है? यदि तुम अपने स्वभाव के प्रत्येक पहलू की अभिव्यक्तियों को, उनके कारण पैदा होने वाली अवस्थाओं को पहचान सकते हो और इनका खुद से मिलान कर सकते हो, यह महसूस कर सकते हो कि इस प्रकार का स्वभाव कितना भयानक और खतरनाक है, तो तुम्हें इस संबंध में बदलने की ज़िम्मेदारी का एहसास होगा और तुम परमेश्वर के वचनों के लिए तरसने लगोगे और सत्य को स्वीकार कर पाओगे। तभी तुम बदल सकते हो और उद्धार प्राप्त कर सकते हो। लेकिन अगर खुद से इसका मिलान करने के बाद भी तुममें सत्य के लिए कोई प्यास नहीं जगती है, तुममें ऋणी या दोषी होने का भाव नहीं है—बिलकुल भी पश्चाताप नहीं है—और सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है, तो तुम्हारे लिए बदलाव मुश्किल होगा। और समझने से मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि तुम केवल सिद्धांत ही समझोगे। सत्य का पहलू चाहे जो भी हो, अगर तुम्हारी समझ सिद्धांत के स्तर पर ही रुक जाती है और तुम्हारे अभ्यास और प्रवेश से जुड़ी नहीं है, तो तुमने जो सिद्धांत समझा है वह किसी काम का नहीं रहेगा। यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, तो तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचानोगे और परमेश्वर के सामने पश्चाताप नहीं करोगे और पाप कबूल नहीं करोगे और तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करोगे और खुद से नफरत नहीं करोगे, इसलिए तुम्हारे बचाए जाने की संभावना शून्य है। यदि तुम समझते हो कि तुम्हारी समस्याएँ कितनी गंभीर हैं, लेकिन तुम परवाह नहीं करते हो और खुद से नफरत नहीं करते हो, अब भी अंदर से बहुत सुन्न और निष्क्रिय महसूस करते हो, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार नहीं करते हो और उससे प्रार्थना नहीं करते हो या अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए उस पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम बड़े खतरे में हो और तुम्हें उद्धार प्राप्त नहीं होगा।

बचाए जाने की शर्तें क्या हैं? सबसे पहले, व्यक्ति को सत्य समझना चाहिए और स्वेच्छा से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारना चाहिए। फिर, उन्हें सहयोग करने के लिए तैयार होना चाहिए और खुद के विरुद्ध विद्रोह करने में सक्षम होना चाहिए और अपनी स्वार्थी इच्छाओं को छोड़ने के लिए तैयार होना चाहिए। स्वार्थी इच्छाओं में क्या चीजें शामिल हैं? इज्जत, रुतबा, घमंड, अपने हितों के विभिन्न पहलू, साथ ही स्वयं की योजनाएँ, इच्छाएँ, संभावनाएँ, गंतव्य स्थान—चाहे तत्काल का हो या भविष्य का—सभी शामिल हैं। यदि तुम इन भ्रष्ट स्वभावों को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हो, एक-एक करके उनमें सफल हो सकते हो, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ सकते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करना आसान होता जाएगा और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण की स्थिति तक पहुँच जाओगे। तुम्हारा आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ेगा। सत्य समझ लेने और इन स्वार्थी इच्छाओं की असलियत जानने और धीरे-धीरे उन्हें छोड़ने में सक्षम होने के बाद, तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा। तुम लोग अब बदलाव के कौन-से स्तर पर पहुँच गए हो? मेरे अवलोकनों के आधार पर, स्वभाव में बदलाव की इन सत्य वास्तविकताओं के संबंध में, तुम लोगों ने मूल रूप से अभी तक इनमें प्रवेश नहीं किया है। तो, फिलहाल तुम लोगों की स्थिति क्या है और तुम किस अवस्था में जी रहे हो? तुम लोगों में से काफी लोग कर्तव्य पालन के स्तर पर अटके हुए हैं और इस स्तर पर ही देर से खड़े हैं : “मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए या नहीं? मैं अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभा सकता हूँ? क्या इस प्रकार कर्तव्य निभाना अनमना होना है?” कभी-कभी, जब तुम्हारा कर्तव्य विशेष रूप से अनमना होता है, तो तुम अपने दिल में फटकार महसूस करोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम परमेश्वर के ऋणी हो, कि तुमने उसे निराश किया है, यहाँ तक कि रोते हो और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्यों को ठीक से करने की इच्छा व्यक्त करते हो। लेकिन दो दिन बाद, तुम फिर से निराश हो जाते हो, अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करना चाहते। तुम इस स्तर के पार कभी नहीं जा सकते। क्या यह आध्यात्मिक कद का होना है? (नहीं।) जब तुम लोगों को इस पर और संगति की आवश्यकता नहीं रह जाती कि कर्तव्यों को ईमानदारी से कैसे निभाना है, अपने कर्तव्यों को अपने दिल और दिमाग से निभाने और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की क्या आवश्यकता है और तुम लोग अपने कर्तव्यों को अपना लक्ष्य मान पाते हो, बिना किसी माँग के, बिना किसी शिकायत के और बिना अपने चुनाव किए इन्हें अच्छी तरह से निभा पाते हो, तो तुम लोगों ने एक निश्चित आध्यात्मिक कद पा लिया है। अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए, इस पर हमें हमेशा संगति करनी पड़ती है। हमें इस पर निरंतर संगति क्यों करनी पड़ती है? क्योंकि लोग नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करें और वे सिद्धांतों को नहीं समझते; उन्होंने कर्तव्यों के पालन के बारे में विभिन्न सत्यों को ठीक से नहीं समझा है, न ही उन्होंने सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश किया है। कुछ लोग केवल कुछ सिद्धांत समझते हैं, लेकिन उनका अभ्यास करने या उनमें प्रवेश करने के लिए तैयार नहीं होते हैं, पीड़ा और थकान सहने के लिए तैयार नहीं होते हैं, हमेशा दैहिक सुखों के लिए लालची होते हैं, अब भी उनके पास अपने खुद के कई विकल्प होते हैं, वे जाने देने और खुद को पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में समर्पित करने में असमर्थ होते हैं। उनकी अभी भी अपनी योजनाएँ और माँगें हैं; उनकी व्यक्तिगत इच्छाएँ, विचार और संभावनाएँ अभी भी उन पर हावी हो सकती हैं और उन्हें नियंत्रित कर सकती हैं : “यदि मैं यह कर्तव्य निभाऊँ, तो क्या मेरा भविष्य बेहतर होगा? क्या मैं इससे कुछ कौशल सीख सकता हूँ? क्या मैं भविष्य में परमेश्वर के घर में कुछ हासिल कर पाऊँगा?” हर समय इन चीजों के बारे में सोचते हैं, जब कर्तव्यों का पालन करना थोड़ा कठिन होता है, थका देने वाला या आनंद से रहित होता है, तो उन्हें अच्छा नहीं लगता, वे समय के साथ बेचैनी महसूस करने लगते हैं, निराश हो जाते हैं और उन्हें अभी भी सत्य पर संगति और वैचारिक कार्य की आवश्यकता होती है—यह आध्यात्मिक कद का अभाव है। क्या इसमें स्वभाव में बदलाव शामिल है? अभी उसमें समय लगेगा। अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जरूरी सत्य सिद्धांतों को समझने के बाद, यह बाधा पार कर लेने पर, तुम लोग अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा कर पाओगे। फिर आगे बढ़ने पर स्वभाव में बदलाव होगा।

अब चाहे कर्तव्य निभाने की बात हो या परमेश्वर की सेवा करने की, हर चीज में बार-बार आत्म-चिंतन की जरूरत पड़ती है। कोई चाहे कैसे भी गलत विचार या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करे, इन्हें दूर करने के लिए उसे सत्य की खोज करनी चाहिए। सिर्फ इसी तरह वह मानक के अनुरूप अपना कर्तव्य पूरा कर सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकता है। व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचानने आने चाहिए, वरना वह इन्हें दूर नहीं कर सकता। कुछ लोग यह नहीं भाँप पाते कि भ्रष्ट स्वभाव के दायरे में क्या आता है और क्या नहीं आता। उदाहरण के लिए, लोगों की खान-पान और पहनावे संबंधी पसंद, उनकी रहन-सहन की आदतें, पुरखों की विरासत और परंपरागत विचार—इनमें से कुछ चीजों के पीछे की वजह परंपरागत संस्कृति और रीति-रिवाजों का असर होता है, कुछ चीजों की वजह परवरिश और पारिवारिक विरासत होती है, और कुछ की वजह ज्ञान और अंतर्दृष्टि की कमी होती है। ये प्रमुख समस्याएँ नहीं हैं और इनका किसी की मानवता की अच्छाई-बुराई से कोई वास्ता नहीं होता, और कुछ का समाधान सीखने और अंतर्दृष्टि पाने से हो सकता है। लेकिन परमेश्वर के प्रति धारणाओं या गलत दृष्टिकोण या किसी भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान सत्य खोजकर ही करना चाहिए, और इन्हें मानवीय शिक्षा के जरिये नहीं सुधारा जा सकता है। कुछ भी हो, तुम्हारी धारणाएँ और विचार चाहे जहाँ से उत्पन्न होते हों, अगर ये सत्य के साथ मेल नहीं खाते, तो तुम्हें इन्हें छोड़ देना चाहिए और सत्य खोजकर इनका समाधान करना चाहिए। सत्य का अनुसरण व्यक्ति की सभी समस्याओं का निराकरण कर सकता है। कई मसले सत्य से संबंधित नहीं लगते मगर इन्हें भी सत्य समझकर परोक्ष रूप से हल किया जा सकता है। सत्य का इस्तेमाल करके भ्रष्ट स्वभाव से जुड़ी समस्याएँ ही नहीं, बल्कि भ्रष्ट स्वभाव से संबंध न रखने वाली समस्याएँ भी हल की जा सकती हैं, जैसे, कुछ मानवीय व्यवहार, तौर-तरीके, धारणाएँ और आदतें—सत्य का इस्तेमाल करके ही इनका पूरी तरह समाधान हो सकता है। सत्य न सिर्फ लोगों के भ्रष्ट स्वभाव दूर कर सकता है, बल्कि यह जीवन लक्ष्य, जीवन की बुनियाद और जीने का सिद्धांत भी बन सकता है, और यह किसी व्यक्ति की सारी कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान कर सकता है। यह तय समझो। अब सबसे महत्वपूर्ण क्या है? वो है यह समझना कि कई समस्याएँ पैदा होने का सीधा संबंध सत्य न समझने से है। कई लोग यह नहीं जानते कि कोई भी मुसीबत आने पर उन्हें किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए और इसकी वजह यह है कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है। लोग कई चीजों के सार और मूल की असलियत नहीं जानते, और इसकी वजह भी यही है कि वे सत्य नहीं समझते हैं। लेकिन सत्य समझे बिना भी वे इतने जोरदार ढंग से कैसे बात कर लेते हैं? (ये बस वचन और सिद्धांत होते हैं।) तो फिर सिद्धांत बघारने की यह समस्या दूर की जानी चाहिए। कोरे वचन बोलना, सिद्धांत सुनाना और नारे लगाना कम करो; व्यावहारिक रूप से ज्यादा बात करो, सत्य का अभ्यास ज्यादा करो, आत्म-ज्ञान और गहन आत्म-विश्लेषण की बातें ज्यादा बताओ, दूसरों को शिक्षाप्रद और लाभप्रद लगने वाले वचन ज्यादा सुनने दो। जो ऐसा करता है, उसी के पास सत्य वास्तविकता होती है। सिद्धांत मत बघारो और कोरे शब्द मत सुनाओ, पाखंडपूर्ण और धोखा देने वाले वचन मत बोलो, और ऐसे शब्द मत बोलो जिनसे कोई शिक्षा न मिलती हो। तुम ऐसी बोली से कैसे बच सकते हो? तुम्हें पहले इन चीजों को पहचानकर इनकी कुरूपता, मूढ़ता और निरर्थकता को समझना होगा; फिर तुम देह-सुख के खिलाफ विद्रोह कर सकोगे। यही नहीं, तुममें विवेक भी होना चाहिए। किसी व्यक्ति में जितना ज्यादा विवेक होगा, वह उतना ही सटीक और नपा-तुला बोलेगा, उसकी मानवता उतनी ही अधिक परिपक्व होगी, उसके शब्द उतने ही अधिक व्यावहारिक होंगे, और वह उतनी ही कम बकवास करेगा। और वह दिल से उन कोरे शब्दों, अतिशयोक्तियों और झूठी बातों से नफरत करेगा। कुछ लोग बहुत ज्यादा घमंडी होते हैं और हमेशा अपना असली रूप छिपाने के लिए भली बातें करना चाहते हैं, दूसरों के दिलों पर छाप छोड़कर मान-सम्मान पाना चाहते हैं, दूसरों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि हम बहुत अच्छे से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, भले लोग हैं और प्रशंसा पाने के खास हकदार हैं। उनमें हमेशा छद्मवेश धारण करने की इच्छा होती है; वे भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होते हैं। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, जो परमेश्वर का विरोध करने की लोगों की बुराई की जड़ है, इसे दूर करना सबसे कठिन समस्या है। जब तक पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता और परमेश्वर स्वयं किसी को पूर्ण नहीं बनाता, तब तक उसका भ्रष्ट स्वभाव न तो शुद्ध हो सकता है, न ही बदल सकता है। अन्यथा, किसी व्यक्ति के पास इसके समाधान कोई उपाय नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार चिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना चाहिए, परमेश्वर के खुलासे और न्याय के वचनों के प्रत्येक वाक्य की कसौटी पर खुद को कसना चाहिए, और थोड़ा-थोड़ा करके अपने समस्त भ्रष्ट स्वभावों और दशाओं को खोज निकालना चाहिए। अपनी कथनी-करनी के इरादे और उद्देश्य खोजकर शुरुआत करो, अपने बोले गए हर शब्द का विश्लेषण कर इसे पहचानो, और अपने मन और विचारों के भीतर की किसी भी चीज की अनदेखी मत करो। इस तरीके से धीरे-धीरे गहन-विश्लेषण और पहचान करके तुम जान लोगे कि तुममें थोड़ा-सा नहीं बल्कि प्रचुर मात्रा में भ्रष्ट स्वभाव है, और शैतान के जहर सीमित मात्रा में नहीं बल्कि बेहिसाब हैं। इस तरीके से तुम धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों और प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से समझ जाओगे, और यह एहसास भी कर लोगे कि शैतान तुम्हें कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है। इस समय तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर का व्यक्त किया हुआ सत्य कितना अनमोल है। यह भ्रष्ट मनुष्य जाति के स्वभाव और प्रकृति की समस्याओं को हल कर सकता है। मनुष्य जाति को बचाने के उद्देश्य से भ्रष्ट मनुष्यों के लिए बनाई गई परमेश्वर की यह दवाई बहुत ही असरदार है, अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है। इस तरह, परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए तुम स्वेच्छा से सत्य का अनुसरण करते हो, सत्य के हर पहलू को अधिक से अधिक संजोकर रखते हो और दिन दूने उत्साह के साथ इसका अनुसरण करते हो। जब किसी के हृदय में ऐसी भावना होती है, तो इसका मतलब है कि वह पहले ही कुछ सत्य की समझ हासिल कर चुका है, और पहले ही सच्चे मार्ग पर अपने कदम जमा चुका है। अगर वह इसे और गहराई से महसूस कर सके और वाकई दिल से परमेश्वर से प्रेम कर सके तो फिर उसका जीवन स्वभाव बदलने लगेगा।

व्यवहार में कुछ बदलाव करना आसान है, लेकिन अपना जीवन स्वभाव बदलना आसान नहीं होता है। भ्रष्ट स्वभाव बदलने की शुरुआत खुद को जानने से होनी चाहिए। इसके लिए मनोयोग, धीरे-धीरे अपने इरादों और दशाओं का परीक्षण करने पर ध्यान केंद्रित करने, और अपनी कथनी पीछे के इरादों और आदतन तरीकों की लगातार जाँच-पड़ताल करने की जरूरत पड़ती है। और फिर एक दिन अचानक यह बोध होगा : “मैं अपनी असलियत छिपाने के लिए हमेशा अच्छी बातें करके दूसरों के दिलों में छाप छोड़ना चाहता हूँ। यह दुष्ट स्वभाव है। यह सामान्य मानवता का प्रकटीकरण नहीं है और सत्य से मेल नहीं खाता है। बोलने का यह दुष्ट तरीका और ये इरादे गलत हैं, और इन्हें बदलना और त्यागना जरूरी है।” यह बोध होने के बाद तुम्हें अपने दुष्ट स्वभाव की भयावह गंभीरता और भी स्पष्टता से महसूस होगी। तुम्हें लगता था कि आदमी-औरत के बीच थोड़ी-बहुत काम-वासना होना ही दुष्टता है, और यह सोचते थे कि इस लिहाज से तुममें थोड़ी-बहुत दुष्टता तो है, मगर तुम दुष्ट स्वभाव वाले इंसान नहीं हो। यह बताता है कि तुममें दुष्ट स्वभाव की समझ का अभाव था; ऐसा लगता है कि तुम “दुष्ट” शब्द का सतही अर्थ जानते थे, लेकिन दुष्ट स्वभाव को जानते-पहचानते नहीं थे; और दरअसल, तुम अभी भी नहीं समझते कि “दुष्ट” शब्द का अर्थ क्या है। जब तुम्हें यह एहसास होता है कि तुमने इस प्रकार का स्वभाव प्रकट किया है, तुम आत्म-चिंतन करना शुरू कर इसे पहचान लेते हो, इसकी गहरी जड़ें खोज निकालते हो, और खुद देख लेते हो कि वास्तव में तुम्हारा ऐसा स्वभाव है। तो फिर तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें अपने बोलने के ऐसे तरीकों के पीछे छिपे इरादों की निरंतर जाँच करनी चाहिए। इस तरह की निरंतर खोज से तुम और भी प्रामाणिक और सटीक ढंग से यह जान लोगे कि वास्तव में तुममें इस प्रकार का स्वभाव और सार है। जिस दिन तुम सचमुच मान लोगे कि तुममें वास्तव में दुष्ट स्वभाव है, उसी दिन से तुममें इसके प्रति नफरत और घृणा पैदा होने लगेगी। तुम खुद को नेक, सदाचारी, न्यायी, नैतिक रूप से ईमानदार और निष्कपट इंसान मानने से आगे बढ़कर यह पहचानने लगोगे कि तुममें अहंकार, हठ, कुटिलता, दुष्टता और सत्य से विमुख होने जैसा प्रकृति सार है। तब तुम अपना सटीक मूल्यांकन कर चुके होगे और जान लोगे कि तुम वास्तव में क्या हो। केवल मौखिक तौर पर यह मानने या सरसरी तौर पर यह पहचानने से कि तुममें ये अभिव्यक्तियाँ और मनोदशाएँ हैं, सच्ची घृणा पैदा नहीं होगी। जब कोई यह पहचान ले कि इन भ्रष्ट स्वभावों का सार शैतान का घिनौना तरीका है, तभी वह वास्तव में खुद से नफरत कर सकता है। खुद से घृणा करने की हद तक जानने के लिए वास्तव में किस प्रकार की मानवता की जरूरत होती है? व्यक्ति को सकारात्मक चीजों से प्रेम करना चाहिए, सत्य से प्रेम करना चाहिए, निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करना चाहिए, उसमें अंतरात्मा और बोध होना चाहिए, उसे दयालु होना चाहिए और सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए—इस तरह के सभी लोग वास्तव में खुद को जान सकते हैं और खुद से नफरत कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जिन्हें सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है वे खुद को कभी नहीं जान पाएँगे। भले ही वे आत्म-ज्ञान के बारे में कुछ शब्द बोल लें, मगर वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते और उनमें कोई भी सच्चा बदलाव नहीं होगा। खुद को जानना सबसे कठिन काम है। उदाहरण के लिए, कोई कम काबिल इंसान सोच सकता है, “मेरी काबिलियत कम है। मैं स्वाभाविक रूप से डरपोक हूँ और कहीं भी फँसने से घबराता हूँ। मैं तो दुनिया का सबसे निष्कपट, भीरु इंसान भी हो सकता हूँ। इसलिए मैं परमेश्वर का उद्धार पाने का सबसे सुयोग्य पात्र हूँ।” क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? ये उस व्यक्ति के शब्द हैं जो सत्य नहीं समझता। क्या कम काबिलियत होने का अपने आप यह मतलब है कि उस व्यक्ति में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तो क्या डरपोक लोगों का स्वभाव भ्रष्ट नहीं होता? क्या उन्हें भी शैतान ने भ्रष्ट नहीं कर दिया है? वास्तव में ऐसे लोगों का स्वभाव भी न सिर्फ उतना ही दुष्ट और अहंकारी होता है, बल्कि यह काफी गहराई में छिपा होता है, और आम इंसान की तुलना में कहीं गहरा पैठा होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह बहुत गहराई में छिपा हुआ है? (क्योंकि उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे अच्छे हैं।) बिल्कुल सही। वे हमेशा इस भ्रम के कारण भरमाए और गुमराह हुए रहते हैं, इससे उनके लिए सत्य स्वीकारना असंभव हो जाता है। उन्हें लगता है, वे पहले से ही काफी अच्छे हैं और उन्हें परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण की जरूरत नहीं है। उन्हें लगता है, परमेश्वर ने लोगों का न्याय करने और उनकी भ्रष्टता उजागर करने के बारे में जो भी वचन कहे हैं, उनके निशाने पर उनके जैसे लोग नहीं, बल्कि दूसरे लोग हैं, अर्थात, अहंकारी स्वभाव वाले सक्षम लोग, बुरे और गुमराह करने वाले लोग—झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी। उन्हें लगता है, वे खुद पहले से ही काफी अच्छे हैं; उनका दामन साफ है, और वे खुद दूध के धुले हुए और बेदाग हैं। जब वे खुद को इस तरह परिभाषित करते हैं तो क्या उनके लिए वास्तव में खुद को जानना संभव है? (नहीं।) वे खुद को नहीं जान सकते, और यकीनन उन्हें सत्य की समझ नहीं है। उन्हें संभवतः ऐसे सत्यों की समझ नहीं है कि परमेश्वर क्यों लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना देता है, वह लोगों को कैसे बचाता है, या भ्रष्ट स्वभाव कैसे शुद्ध किया जाता है। जो व्यक्ति खुद को थोड़ा-सा भी नहीं जानता वह निश्चित रूप से किसी सत्य को नहीं समझता है। उनके ये गलत विचार यह दिखाने के लिए काफी हैं कि वे हास्यास्पद और बेतुके लोग हैं। उनकी समझ बेतुकी है और वे परमेश्वर पर अपने मत थोपते हैं; यह भी दुष्टता का स्वभाव है। दुष्टता एक प्रकार का ऐसा स्वभाव है जो केवल स्त्री-पुरुष के आपसी आचरण के मामले में ही प्रकट नहीं होता; थोड़ी-सी दुष्ट काम-वासना पर स्वभावगत दुष्टता का ठप्पा नहीं लगाना चाहिए। लेकिन अगर किसी की दुष्ट काम-वासनाएँ बहुत प्रबल हैं, और वह अक्सर व्यभिचार या निरंतर समलैंगिकता में लिप्त रहता है, तो वह दुष्ट है। कुछ लोग इन दोनों के बीच फर्क नहीं कर पाते, वे दुष्ट वासनाओं को हमेशा दुष्टता ठहरा देते हैं, और दुष्टता को दुष्ट वासनाओं के संदर्भ में समझाते हैं; उनमें समझ-बूझ की कमी है। दुष्ट स्वभाव को पहचानना सबसे कठिन है। जो बहुत धोखेबाज और कपटी होता है उसके सभी क्रियाकलाप दुष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग झूठ बोलने के बाद मन ही मन सोचते हैं, “अगर मैं अपनी समझ-बूझ सबके सामने न रखूँ तो दूसरे लोग मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे? मुझे थोड़ी-सी खुलकर संगति करनी चाहिए; एक बार मैंने अपनी समझ साझा कर ली, तो इस बारे में बताने को कुछ और नहीं रहता। मैं दूसरों को अपने असली इरादों की हवा नहीं लगने दे सकता और यह जानने नहीं दे सकता कि मैं कपटी हूँ।” यह कैसा स्वभाव है? खुद को धोखेबाज ढंग से प्रकट करना—इसे दुष्टता कहते हैं। और झूठ बोलने के बाद वे यह देखते फिरते हैं : “क्या किसी को मेरे झूठ बोलने का पता चला? क्या कोई मेरा असली रंग देख सकता है?” वे दूसरों को टटोलने और जाँचने लगते हैं; यह भी दुष्टता है। दुष्ट स्वभाव का पता लगाना आसान नहीं है। जो भी व्यक्ति ऐसे खास कपटी और धोखेबाज तरीके से काम करे कि दूसरों के लिए उनकी असलियत जानना मुश्किल हो जाए तो वह दुष्ट है। जो कोई अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए छल-प्रपंच रचता है, वह दुष्ट है। जो कोई भलाई करने की आड़ में बुरे काम करके लोगों को धोखा देता है, दूसरों से अपनी सेवा करवाता है, वह सबसे दुष्ट है। बड़ा लाल अजगर सबसे दुष्ट है; शैतान सबसे दुष्ट है; राक्षस राजा सबसे दुष्ट हैं; सारे दानव दुष्ट हैं।

स्वभावगत बदलाव लाने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले खुद अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम होना चाहिए। खुद को वास्तव में जानने का मतलब है अपनी भ्रष्टता के सार की असलियत समझना और इसका पूरी तरह से गहन-विश्लेषण करना, साथ ही उन तमाम दशाओं को पहचानना जो भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभाव को साफ तौर पर समझ लेता है, तभी वह अपनी दैहिक इच्छाओं से और शैतान से नफरत कर पाएगा, जिससे ही फिर स्वभावगत बदलाव आता है। अगर वह इन दशाओं को नहीं पहचान सकता, इनसे कड़ियाँ जोड़कर अपना मिलान नहीं कर पाता तो क्या उसका स्वभाव बदल सकता है? यह नहीं बदल सकता। स्वभावगत बदलाव के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली विभिन्न दशाओं को पहचानने की जरूरत पड़ती है; उसे एक ऐसे मुकाम पर पहुँचना होता है जहाँ वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से बेबस न हो और सत्य को अभ्यास में लाता हो—तब जाकर उसका स्वभाव बदलना शुरू होगा। अगर वह अपनी भ्रष्ट दशाओं के उद्गम को नहीं पहचानता, और जिन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को वह समझता है उन्हीं के अनुसार खुद को रोकता है, तो भले ही वह कुछ सद्व्यवहार अपना ले और बाहरी तौर पर थोड़ा-सा बदल जाए, लेकिन इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जाएगा। चूँकि इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जा सकता, तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए दौरान अधिकतर लोगों की क्या भूमिका होती है? यह एक श्रमिक की भूमिका होती है; वे सिर्फ परिश्रम करते हैं और खुद को काम में व्यस्त रखते हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य भी निभा रहे हैं, लेकिन अधिकांश समय वे सिर्फ काम निपटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते बल्कि सिर्फ मेहनत करते हैं। कभी-कभी जब उनकी मनःस्थिति अच्छी होती है, तो वे अतिरिक्त मेहनत करते हैं और जब मनःस्थिति खराब होती है, तो थोड़ा-सा सुस्त पड़ जाते हैं। लेकिन बाद में आत्म-परीक्षण करने पर उन्हें ग्लानि होती है, इसलिए वे दुबारा और ज्यादा प्रयास करते हैं और सोचते हैं कि यही पश्चात्ताप है। दरअसल, यह सच्चा बदलाव नहीं है, न ही यह सच्चा पश्चात्ताप है। सच्चा पश्चात्ताप खुद को जानने से शुरू होता है; यह व्यवहार में बदलाव से शुरू होता है। एक बार किसी का व्यवहार बदल गया, उसने अपने देह-सुख के खिलाफ विद्रोह कर दिया, सत्य को अमल में ले आया, और व्यवहार के मामले में सिद्धांतों के अनुरूप दिखने लगा, तो इसे ही सच्चा पश्चात्ताप कहते हैं। फिर धीरे-धीरे वह उस मुकाम पर पहुँच जाता है जहाँ वह सिद्धांतों के अनुसार बोलने और कार्य करने में सक्षम है, और पूरी तरह सत्य के अनुरूप है। यही वह समय है जब जीवन स्वभाव में बदलाव शुरू होता है। तुम लोग अभी अपने अनुभव के किस चरण में पहुँच चुके हो? (सतही तौर पर मुझमें कुछ सद्व्यवहार आ चुका है।) यह अभी भी मेहनत करने के चरण से संबंधित है। कुछ लोग थोड़ा-सी मेहनत करते हैं और फिर सोचते हैं कि उन्होंने एक योगदान दिया है और वे परमेश्वर की आशीष पाने के हकदार हैं। अंतर्मन में वे हमेशा यही विचार करते हैं : “परमेश्वर इस बारे में क्या सोचता है? मैंने इतनी मेहनत की और इतना अधिक कष्ट सहा, क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ?” हमेशा चीजों की तह तक जाने में लगे रहना—यह कैसा स्वभाव है? यह धोखेबाजी, दुष्टता और अहंकार है। यही नहीं, परमेश्वर पर विश्वास करते हुए रत्ती-भर भी सत्य स्वीकारे बिना थोड़ी-सी मेहनत करके आशीष पाने की उम्मीद रखना—क्या यह दुराग्रही स्वभाव नहीं है? रुतबे के लाभ कभी न छोड़ना—क्या यह भी दुराग्रह नहीं है? ऐसे लोग हमेशा यह चिंता करते हैं : “क्या परमेश्वर याद रखेगा कि यह कर्तव्य निभाते हुए मैंने कष्ट सहे थे? क्या वह मुझे कुछ आशीष देगा?” अपने मन में वे हमेशा यही गुणा-भाग करते रहते हैं। बाहर से लगता है कि वे सौदा पटाने में लगे हैं, लेकिन यहाँ वास्तव में कई किस्म के स्वभाव कार्य कर रहे हैं। परमेश्वर से हमेशा सौदा पटाने की चाहत, परमेश्वर पर विश्वास के जरिये हमेशा आशीष पाने की चाहत, हमेशा फायदा उठाने और नुकसान न झेलने की चाहत, हमेशा कुटिल और बेईमान तरीकों में लिप्त रहना—इसे दुष्ट स्वभाव हावी होना कहते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य निभाते हुए जब भी थोड़ी-सी मेहनत करता है, तो हर बार यह जानना चाहता है : “मैं जितनी भी मेहनत कर रहा हूँ क्या उसके बदले मुझे आशीष मिलेगी? परमेश्वर में विश्वास करते हुए इतनी पीड़ा झेलने के बाद क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूँगा? क्या अपना कर्तव्य निभाने के लिए सर्वस्व त्यागने के बदले परमेश्वर मुझे सराहेगा? परमेश्वर मुझे स्वीकृति देगा या नहीं?” ऐसे लोग दिन भर इन सवालों पर सोच-विचार में डूबे रहते हैं। अगर वे किसी दिन इनके जवाब नहीं तलाश पाते तो दिन भर परेशान रहते हैं, अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहते या कीमत अदा नहीं करना चाहते, और सत्य का अनुसरण करने के लिए तो और भी तैयार नहीं होते। हमेशा इन्हीं मसलों से बेबस और बाध्य होने के कारण उनमें तनिक भी सच्ची आस्था नहीं होती है। वे परमेश्वर के वादों को वास्तविक नहीं मानते। वे नहीं मानते कि सत्य के अनुसरण से यकीनन परमेश्वर की आशीष मिलेगी। वे दिल ही दिल में सत्य से विमुख हो जाते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करना भी चाहें, तो उनमें उत्साह नहीं होता, इसलिए वे पवित्र आत्मा के प्रबोधन और उसकी रोशनी से वंचित रहते हैं, और वे सत्य नहीं समझ सकते। ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते हुए बार-बार मुसीबतों का सामना करता है, और वह अक्सर नकारात्मक और कमजोर पड़ जाता है। कठिनाई होने पर वह शिकायतें करता है और जब उस पर आपदा आती है या उसे गिरफ्तार किया जाता है, तो वह यह तय कर लेता है कि परमेश्वर उसे बचा नहीं रहा है और उसे चाहता नहीं है, और वह खुद को निराशा के गर्त में धकेल देता है। यह कैसा स्वभाव है? क्या यह दुष्टता नहीं है? आक्रोश महसूस करते ही यह व्यक्ति क्या करेगा? वह निश्चित रूप से नकारात्मक और सुस्त हो जाएगा; वह निराशा में हाथ-पैर पटकने लगेगा। और वह बार-बार अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी होने के आरोप मढ़ेगा। हो सकता है कि वह सीधे परमेश्वर के बारे में ही शिकायत करने लगे और उसके बारे में आलोचना करने लगे। ऐसी चीजें किस कारण उत्पन्न होती हैं? वह दुष्ट स्वभाव के अधीन है। सांसारिक विचारों और शैतानी तर्क के आधार पर वह मानता है कि हर निवेश के बदले कुछ न कुछ मुनाफा मिलना चाहिए। ऐसा प्रतिफल मिले बिना वह आइंदा निवेश नहीं करेगा। ऐसे लोगों में बदले की मानसिकता होती है और वे अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़ना चाहते हैं, अपने कर्तव्य ठुकरा देते हैं और क्षतिपूर्ति की माँग करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? किस लिहाज से यह पौलुस के समान है? (पौलुस मानता था कि जैसे ही वह उत्तम प्रतिस्पर्धा में जुटकर अपनी दौड़ पूरी कर लेगा, तो उसे अपने लिए धार्मिकता का ताज सुरक्षित रखा मिलेगा।) वे ठीक इसी तरह पौलुस से मेल खाते हैं। क्या तुम लोग खुद भी पौलुस जैसी ऐसी कोई अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हो? क्या तुम लोग इस तरह खुद की तुलना करने में जुटे रहते हो? अगर परमेश्वर के वचनों से तुम्हारा नाता नहीं है, तो तुम लोग खुद को नहीं समझ पाओगे। अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार पहचानकर ही तुम वास्तव में खुद को जान सकते हो। अगर तुम सिर्फ सतही सही-गलत पहचानते हो, या सिर्फ यह स्वीकारते हो कि तुम दानव और शैतान हो, तो यह बहुत ही साधारण और हलकी बात है। यह नकली गहराई है, छद्मवेश है, धोखाधड़ी है। खुद को इस तरीके से जानने की बात करना नकली आध्यात्मिकता है, यह भ्रामक है।

क्या तुम लोगों ने कभी देखा है कि एक धोखेबाज इंसान आत्म-ज्ञान पाने का प्रयास कैसे करता है? वह राई का पहाड़ बनाने का प्रयास करता है, कहता है कि वह कैसा दानव और शैतान है, और खुद को लानतें भी देता है; फिर भी वह नहीं बताता कि उसने कौन-से नीच और बुरे कर्म किए हैं, न ही वह अपने मन की मलिनता और भ्रष्टता का गहन-विश्लेषण ही करता है। वह बस इतना कहता है कि वह दानव और शैतान है, कि उसने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध किया है, अपनी निंदा करने के लिए वह कई खोखले शब्दों और लंबे-चौड़े बयानों का सहारा लेता है, जिससे दूसरों को लगे, “अब तो यह वास्तव में खुद को जानता है; इसमें कितनी गहरी समझ है।” वह दूसरों को जताना चाहता है कि वह कितना आध्यात्मिक है, जिससे उसे सत्य के अनुगामी के रूप में देखकर बाकी सभी लोग उससे जलने लगें। लेकिन कई साल तक खुद को इस तरह जानने के बाद भी उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया, और किसी को ऐसी कोई स्थिति नजर नहीं आती जिसमें वह वास्तव में सत्य पर अमल करता हो या सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता हो। उसके जीवन स्वभाव में कोई भी बदलाव नहीं होता, इस प्रकार समस्या उजागर हो जाती है : यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है। यह छल-फरेब है और यह इंसान पाखंडी है। कोई आत्म-ज्ञान के बारे में चाहे जैसी बातें करे, इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि उसके शब्द कितने अच्छे हैं या उसका ज्ञान कितना गहरा है। गौर करने का सूत्र क्या है? यह देखो कि लोग कितना सत्य अमल में ला सकते हैं, यह देखो कि क्या वे कलीसिया के कार्य को कायम रखने के लिए सत्य सिद्धांतों का पालन कर सकते हैं या नहीं। ये दो संकेतक यह बताने के लिए काफी हैं कि क्या किसी व्यक्ति में सच्चा बदलाव हुआ है। लोगों का मूल्यांकन और उनकी पहचान करने का यही सिद्धांत है। उनके मुँह से निकली अच्छी बातों को मत सुनो; यह गौर करो कि वास्तव में वे क्या करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो आत्म-ज्ञान के बारे में चर्चा करते हुए ऊपरी तौर पर इसे गंभीरता से लेते दिखाई देते हैं। वे दूसरों के साथ अपने किसी भी गलत विचार या भ्रामक ख्याल के बारे में बात करते हैं, खुद को हूबहू खोलकर रख देते हैं, लेकिन अपनी बात कह चुकने के बाद भी वे सच्चे मन से पश्चात्ताप नहीं करते। जब उनके साथ कुछ होता है, तब भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, न वे सिद्धांतों का पालन करते हैं, न कलीसिया के कार्य को कायम रखते हैं, न ही कोई बदलाव दिखाते हैं। इस प्रकार के आत्म-ज्ञान, खुद को खोलने और संगति करने का कोई अर्थ नहीं होता। शायद ऐसे व्यक्ति को लगता है कि खुद को इस तरह से जानने का मतलब है कि वह वास्तव में पश्चात्ताप कर चुका है और सत्य का अभ्यास कर रहा है, लेकिन बरसों की ऐसी समझ के बाद भी अंत में कोई बदलाव नहीं आता। क्या खुद को जानने का यह तरीका सिर्फ आधे-अधूरे मन से प्रक्रिया का पालन करना नहीं है? इसका कोई असली प्रभाव नहीं पड़ता; क्या वह सिर्फ खुद से खिलवाड़ नहीं कर रहा है? मैं एक बार कहीं गया तो वहाँ पहुँचकर देखा कि कोई आदमी मशीन से घास काट रहा था। मशीन की तेज आवाज से ऊधम मचा हुआ था। मैं दो-तीन बार वहाँ गया और हर बार मुझे ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा, लिहाजा मैंने उस आदमी से पूछ लिया, “क्या तुम लोगों का घास काटने का कोई तय समय नहीं है?” तो जवाब मिला, “आह, मैं घास तभी काटता हूँ जब मुझे परमेश्वर आता दिखाई देता है। यह मेरे लिए भी अप्रिय है।” जिन लोगों में विवेक नहीं है, उन्हें यह सुनकर लग सकता है कि यह आदमी ईमानदार है और जो कुछ भी उसके मन में है, वही कह रहा है। उन्हें यह लग सकता है कि यह अपनी गलतियाँ स्वीकार कर आत्म-ज्ञान पा रहा है, और इस प्रकार वे गुमराह हो जाते हैं। लेकिन क्या सत्य समझने वाला व्यक्ति इसे इस रूप में देखता है? इस बारे में सटीक परिप्रेक्ष्य क्या है? जो इस स्थिति की असलियत जान सकते हैं उन्हें लगेगा, “तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी नहीं ले रहे हो; क्या तुम यह सिर्फ दिखावे के लिए नहीं कर रहे हो?” लेकिन घास काटने वाले को डर है कि दूसरे लोग इस तरह सोचेंगे, इसलिए वह पहले ही सोचकर और इस ढंग से बात बनाकर उनकी बोलती बंद कर देता है। यह काफी कुशल लफ्फाजी है, है ना? (बिल्कुल।) दरअसल, उसने बहुत पहले से ही जान लिया था कि इस स्थिति से कैसे निपटना है, कि पहले ही तुम्हें गुमराह कर यह सोचने को विवश कर देगा कि वह काफी खरा है, कि वह खुलकर बोल सकता है और अपनी गलतियाँ स्वीकार सकता है। उसके मन में यही बात होती है : “मैं सत्य समझता हूँ; यह बताने के लिए मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है। मैं इसे पहले ही स्वीकार लूँगा। देखते हैं कि तुम मेरी चतुर लफ्फाजी का क्या जवाब देते हो। मैं तो बस यही करूँगा; तुम मेरा क्या बिगाड़ लोगे?” यहाँ कौन-से स्वभाव कार्य कर रहे हैं? पहली बात, वह सब कुछ समझता है। जब वह कोई गलती करता है तो पश्चात्ताप करना जानता है। वह दूसरों को यही आभास कराता है, झूठ-फरेब के सहारे भ्रम पैदा करता है और अपना सम्मान करने के लिए दूसरों को मजबूर करता है। वह असाधारण रूप से चालाक है, यह जानता है कि उसकी बातें दूसरों को किस हद तक गुमराह करेंगी और उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। वह यह सब पहले ही भाँप चुका है। यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्ट स्वभाव है। यही नहीं, वह ये बातें कह सकता है, इससे साबित होता है कि उसे अपनी गलती का एहसास अभी-अभी नहीं हुआ है, बल्कि वह लंबे अरसे से जानता है कि इस तरह कार्य करना अनमनापन है, कि उसे ऐसा इस समय नहीं करना चाहिए, कि उसे ऐसा मुखौटा नहीं पहनना चाहिए, और उसे अपने घमंड के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। तो फिर भी वह ऐसा क्यों करता है? क्या यह हठधर्मिता नहीं है? इसमें दिखावा, हठधर्मिता और दुष्टता भी है। क्या तुम लोग इन्हें पहचान सकते हो? कुछ लोग केवल दूसरों को पहचान सकते हैं, खुद को नहीं। ऐसा क्यों है? अगर कोई वास्तव में खुद को पहचान सकता है, तो उसी तरह दूसरों को भी पहचान सकता है। अगर वह केवल दूसरों को पहचान सकता है लेकिन खुद को नहीं, तो इसका मतलब है कि उसके स्वभाव और चरित्र में कोई समस्या है। जो दूसरों को सत्य की कसौटी पर कसे, मगर खुद को नहीं—ऐसा व्यक्ति यकीनन सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य स्वीकारना तो दूर की बात है।

जब कोई व्यक्ति यह पता लगाने में सक्षम हो जाए कि उसकी भ्रष्टता कितनी गंभीर समस्या है तो यह अच्छी बात है या बुरी? यह अच्छी बात है। तुम अपनी भ्रष्टता को जितना अधिक खोज लोगे और जितने सटीक रूप से समझ लोगे, और तुम अपने सार को जितना अधिक पहचान लोगे, तुम उतने ही अधिक बचाए जा सकते हो और तुम उद्धार पाने के उतने ही करीब रहोगे। तुम अपनी समस्याओं को खोजने में जितना अधिक असमर्थ रहोगे, हमेशा खुद को अच्छा-भला मानते रहोगे, तो फिर तुम उद्धार के मार्ग से उतने ही दूर हो—तुम अभी भी काफी खतरे में हो। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलो जो हमेशा यह शेखी बघारता रहे कि वह अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभाता है, और सत्य पर संगति करने और सत्य का अभ्यास करने की अपनी क्षमता पर डींग हाँकता रहता है, तो इससे सिद्ध होता है कि उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। वह बचकाना है, उसका जीवन अपरिपक्व है। किस प्रकार के व्यक्ति के उद्धार पाने की अधिक उम्मीद होती है और वह बचा लिए जाने के मार्ग पर कदम रख सकता है? ऐसा व्यक्ति वही है जो वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानता है। वह जितनी गहराई से इसे समझता है, बचाए जाने के उतने ही अधिक करीब होता है। यह समझना कि किसी व्यक्ति के अपने सारे भ्रष्ट स्वभाव शैतानी प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, यह देखना कि उसके पास अंतरात्मा या विवेक नहीं है, कि वह किसी भी सत्य को अमल में नहीं ला सकता, कि वह सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीता है और उसमें कोई भी मानवता नहीं है, कि वह एक जीता-जागता दानव और शैतान है—यह वास्तव में अपनी भ्रष्टता के सार को पहचानना है। इसे इस ढंग से समझने के कारण यह समस्या काफी गंभीर लगती है, लेकिन क्या यह अच्छी बात है या बुरी? (अच्छी बात है।) भले ही यह अच्छी बात है, लेकिन कुछ लोग अपना शैतानी और दानवी पहलू देखकर नकारात्मक होकर सोचने लगते हैं, “अब मेरा कुछ नहीं हो सकता। परमेश्वर मुझे नहीं चाहता। अब मुझे नरक में भेजा जाना तय है। कोई सूरत ही नहीं है कि परमेश्वर मुझे बचा ले।” क्या ऐसा ही कुछ होता है? तुम्हीं बताओ, क्या ऐसे लोग हैं जो खुद को जितना ज्यादा समझते जाते हैं उतने ही ज्यादा नकारात्मक होते जाते हैं? वे सोचते हैं, “मैं तो पूरा ही बर्बाद हो गया। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना मुझ पर आन पड़ी है। यह दंड है, प्रतिकार है। परमेश्वर मुझे नहीं चाहता। मेरे बचा लिए जाने की कोई उम्मीद नहीं है।” क्या लोगों में ऐसी गलत धारणाएँ होती हैं? (बिल्कुल।) हकीकत में, जो व्यक्ति अपनी निराशा को जितना ज्यादा पहचानता है, उसके लिए उतनी ही अधिक आशा होती है। नकारात्मक मत बनो, हार मत मानो। खुद को जानना अच्छी बात है, यह उद्धार पाने का अनिवार्य मार्ग है। अगर कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के प्रति अपने विरोध के सार से पूरी तरह अनजान है, और वह खुद को बदलने की भी नहीं सोचता है, तो यह समस्या है। ऐसे लोग जड़ होते हैं, वे मृत हैं। क्या किसी मृत व्यक्ति को दुबारा जीवित करना आसान है? एक बार जब वह मर चुका है, तो उसे जीवित करना आसान नहीं है।

किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर अभी भी पश्चात्ताप करने के मौके देता है? किस प्रकार के व्यक्ति के लिए अभी भी बचाए जाने की उम्मीद होती है? इन लोगों को कैसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करनी चाहिए? सबसे पहले उनमें अंतःकरण का बोध होना चाहिए। उन पर चाहे जो भी बीते, वे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकें, दिल से यह समझें कि यह तो परमेश्वर उन्हें बचाने का कार्य कर रहा है। वे कहेंगे, “मैं परमेश्वर के इरादे नहीं समझता, न मैं यह समझता हूँ कि ऐसी चीज मेरे साथ क्यों घटती है, लेकिन मुझे भरोसा है कि परमेश्वर मुझे बचाने के लिए यह सब कर रहा है। मैं उससे विद्रोह नहीं कर सकता, न उसके दिल को आहत कर सकता हूँ। मुझे समर्पित होना चाहिए और खुद के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए।” उनमें ऐसा अंतःकरण होता है। यही नहीं, अपने विवेक से वे सोचते हैं, “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। मैं सृजित प्राणी हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। परमेश्वर मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करने के लिए मेरा न्याय करता है और मुझे ताड़ना देता है। सृष्टिकर्ता अपने सृजित प्राणियों से जिस प्रकार भी सलूक करता है वह पूरी तरह विवेकपूर्ण और उचित है।” क्या लोगों में यही विवेक नहीं होना चाहिए? लोगों को परमेश्वर से यह कहकर माँग नहीं करनी चाहिए, “मैं एक इंसान हूँ। मेरा अपना व्यक्तित्व और आत्मसम्मान है। मैं तुम्हें अपने साथ इस तरह पेश नहीं आने दूँगा।” क्या यह विवेकपूर्ण है? यह शैतानी स्वभाव है, इसमें सामान्य मनुष्य के विवेक का अभाव है, परमेश्वर इस तरह के लोगों को नहीं बचाएगा; वह उन्हें सृजित प्राणी के रूप में नहीं स्वीकारता। मान लो तुमने यह कहा, “मुझे परमेश्वर ने बनाया; वह मुझसे जैसे भी पेश आना चाहता है ठीक है। वह मुझे गधा या घोड़ा या कुछ और मानकर भी सलूक कर सकता है। मेरी अपनी कोई पसंद या अपेक्षा नहीं है।” अगर तुमने ऐसा कहा तो क्या अपना कर्तव्य पालन कुछ-कुछ कठिन और थकाऊ होने पर भी इसे चुनने के सवाल पर अपनी पसंद-नापसंद दिखाना चाहोगे? (नहीं।) बिल्कुल सही। तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुम समर्पण कैसे करोगे? पहले पहल समर्पण कठिन और असहनीय होता है। तुम हमेशा इससे भागना और इसे नकारना चाहते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजकर स्पष्ट रूप से समस्या का सार समझना चाहिए और फिर अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। सत्य के अभ्यास में तुम्हें बस तन-मन लगाकर थोड़ा-थोड़ा करके समर्पण करते जाना चाहिए। इसे विवेकशील होना कहते हैं। तुम्हारे पास पहले इस तरह का विवेक होना चाहिए। यदि किसी के पास अंतःकरण और विवेक है, तो उसे और किस चीज की जरूरत होगी? उसमें शर्म की भावना होनी चाहिए। किन स्थितियों के लिए किसी में शर्म की भावना होना जरूरी है? जब वह कुछ गलत करे, जब वह विद्रोह, कुटिलता और कपट उजागर करे, जब वह झूठ बोले और धोखाधड़ी करे—ऐसे वक्त में उसमें जागरूकता और शर्म की भावना होना जरूरी है। उसे जानना होगा कि चीजों को इस तरीके से करना सत्य से मेल नहीं खाता, यह गरिमापूर्ण नहीं है, उसे खुद पर ग्लानि होनी चाहिए। जिसमें शर्म की कोई भावना नहीं होती, वह निर्लज्ज और नंगा आदमी है और इंसान कहलाने लायक नहीं है। जो सत्य नहीं स्वीकारता, उसके लिए सब कुछ खत्म हो चुका है। उसके साथ सत्य के बारे में चाहे जिस प्रकार संगति कर लें, वह इसे आत्मसात नहीं करता; और चाहे कुछ भी कह लें, फिर भी उसमें जागरूकता नहीं आती। इसे ही शर्म की भावना का अभाव कहते हैं। क्या निर्लज्ज लोगों को ग्लानि हो सकती है? शर्म की भावना के बिना किसी की कोई गरिमा नहीं होती, और ऐसे व्यक्ति को कोई ग्लानि नहीं होती। जिन लोगों में ग्लानि नहीं होती, क्या वे खुद को पूरी तरह बदल सकते हैं? (नहीं।) जो लोग खुद को पूरी तरह बदल नहीं सकते, वे अपनी बुराई नहीं छोड़ेंगे। “अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें” (योना 3:8)। ऐसा कर पाने के लिए व्यक्ति के पास क्या होना चाहिए? उसमें शर्म की भावना और अंतःकरण का बोध होना चाहिए। जब वह गलती करेगा तो खुद को फटकारेगा और ग्लानि महसूस करेगा, और अपने गलत तरीके छोड़ेगा। ऐसा इंसान खुद को पूरा बदल सकता है। व्यक्ति में कम से कम इतनी मानवता तो होनी ही चाहिए। अंतःकरण, विवेक और शर्म की भावना के अलावा और किस चीज की जरूरत होती है? (सकारात्मक चीजों से प्रेम की।) बिल्कुल सही। सकारात्मक चीजों से प्रेम यानी सत्य से प्रेम करना। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वही दयालु होते हैं। क्या बुरे लोग सकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं? बुरे लोग कुटिल, दुष्ट और विषाक्त चीजों से प्यार करते हैं; वे उन सबसे प्रेम करते हैं जो नकारात्मक चीजों से जुड़ा हुआ है। जब तुम उनके साथ सकारात्मक चीजों के बारे में बात करते हो, या इस बारे में बात करते हो कि किस प्रकार जिस किसी चीज से लोगों को लाभ होता है और वह चीज परमेश्वर से आती है, तो वे न इससे खुश होते हैं, न ही इसके बारे में सुनना चाहते हैं—उनके पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होती है। कोई उनके साथ सत्य पर चाहे कितनी अच्छी तरह संगति कर ले या उनसे कितने ही व्यावहारिक ढंग से बात कर ले, इसमें उनकी बिल्कुल भी रुचि नहीं होती, और वे शायद वैर-भाव और शत्रुता भी व्यक्त कर सकते हैं। लेकिन किसी के मुँह से दैहिक सुखों के बारे में सुनते ही उनकी आँखों में चमक आने लगती है, और वे उत्साह से भर उठते हैं। यह दुष्ट और कुटिल स्वभाव है, और वे नेक दिल वाले नहीं होते हैं। इसलिए वे शायद सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे सकारात्मक चीजों को कैसा मानते हैं? वे उनसे नफरत करते हैं और हिकारत से देखते हैं, वे इन चीजों की हँसी उड़ाते हैं। जब ईमानदार व्यक्ति बनने की बात होती है तो वे सोचते हैं, “ईमानदार होने से तुम घाटे में रहते हो। मैं तो ऐसा करने से रहा! अगर तुम ईमानदार हो तो मूर्ख कहलाओगे। खुद को देखो, तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए कितने कष्ट झेल रहे हो और कड़ी मेहनत कर रहे हो, न तुम्हें अपने भविष्य की चिंता है और न ही अपनी सेहत की। अगर तुम थक कर ढेर हो गए तो कौन तुम्हारी परवाह करेगा? मैं खुद को थकाकर चूर नहीं कर सकता।” कोई और कह सकता है, “चलो अपने बच निकलने के लिए रास्ता छोड़ दें। हम मूर्खों की तरह अपनी कमर नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी वैकल्पिक योजना बनानी होगी और फिर थोड़ा-सी ही मेहनत और करनी होगी।” यह सुनकर बुरे लोग खुश हो जाएँगे; यह बात उन्हें रास आ जाती है। लेकिन जब परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण दिखाने और पूरी निष्ठा से खुद को अपने कर्तव्य के लिए खपाने की बात आती है, तो उन्हें चिढ़ और नफरत होती है, और वे इसे स्वीकारते नहीं हैं। क्या ऐसा इंसान दुष्ट नहीं होता? ऐसे सभी लोगों का दुष्ट स्वभाव होता है। जब तक तुम उनके साथ सत्य पर संगति और अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, वे चिढ़ते रहते हैं और सुनना नहीं चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनके स्वाभिमान को चोट पहुँचती है, उनकी गरिमा को ठेस पहुँचती है, और उन्हें इसका कोई लाभ नहीं है। मन ही मन वे कहेंगे : “सत्य के बारे में, अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में लगातार बात करते रहना। हमेशा ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में बात करते रहना—क्या ईमानदारी से पेट भर पाता है? क्या ईमानदारी से बोलने से तुम्हें पैसा मिल सकता है? बेईमानी से मुझे फायदा होगा!” यह कैसा तर्क है? यह किसी लुटेरे का तर्क है। क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? क्या यह व्यक्ति दयालु है? (नहीं।) इस प्रकार का व्यक्ति सत्य हासिल नहीं कर सकता। वह जो कुछ भी करता है, खुद को खपाता है, त्यागता है, उन सबके पीछे उसका एक मकसद होता है, पहले से तोल-मोलकर तय किया गया मकसद। वह केवल यह सोचता है कि कुछ देकर अगर बदले में कुछ ज्यादा मिले तो यह अच्छा सौदा है। यह कौन सा स्वभाव है? यह दुष्ट और कुटिल स्वभाव है।

परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग सत्य नहीं खोजते। वे हमेशा अपनी योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाना चाहते हैं। लिहाजा कई साल ऐसा करके भी वे कुछ खास हासिल नहीं कर पाते—वे कोई सत्य नहीं समझ पाते और कोई भी अनुभवजन्य गवाही साझा नहीं कर पाते। इस समय वे पछताते हैं और सोचते हैं कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उस पर विश्वास करना सबसे अच्छा रहेगा। उस समय अपनी इच्छा के अनुसार योजनाएँ बनाकर उन्हें लगा कि वे काफी चतुर हैं, लेकिन सत्य हासिल न करने के कारण अंत में वे ही घाटे में रहे। इन नाकामियों के जरिये ही लोग सत्य को समझकर जाग पाते हैं। जब उन्हें अपने जीवन में कुछ नुकसान झेलना पड़ता है, तब जाकर वे सही मार्ग पर आते हैं और फिर आसान रास्ते अपनाने लगते हैं। अगर वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उस पर विश्वास करते, तो वे इतने घुमावदार रास्तों से बच जाते। कुछ लोग कई चीजों का अनुभव करने और कुछ नाकामियों और झटकों का सामना करने के बाद कुछ सत्य समझने लगते हैं। वे इन मामलों की असलियत समझते हैं और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंपकर स्वेच्छा से उसके आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं। इस मुकाम पर वे सही मार्ग पर होते हैं। लेकिन दुष्ट और कुटिल स्वभाव वाले लोग खुद को परमेश्वर को नहीं सौंपते। वे सदा अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहते हैं और हमेशा सवाल करते हैं, “क्या भाग्य को वास्तव में परमेश्वर नियंत्रित करता है? क्या परमेश्वर वाकई सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है?” कुछ लोग परमेश्वर के घर में वही उपदेश और संगतियाँ सुनते हैं और जितना ज्यादा सुनते हैं उतने अधिक उत्साही होते जाते हैं। उनकी दशा सुधर जाती है और वे जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही उनमें बदलाव आता जाता है। लेकिन कुछ दूसरे लोग सिर्फ यह सोचते हैं कि यह अधिक से अधिक जटिल और दुर्लभ है। इन लोगों में आध्यात्मिक समझ का अभाव होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उपदेश और संगतियाँ सुनकर उनसे विमुख हो जाते हैं और वे पूरी तरह बेरुखी अपना लेते हैं। इससे लोगों की प्रकृति में अंतर प्रकट हो जाता है, भेड़ें और बकरियाँ अलग-अलग हो जाती हैं, सत्य से प्रेम करने और न करने वाले अलग-अलग हो जाते हैं। एक समूह परमेश्वर के वचन स्वीकारता है, सत्य स्वीकारता है और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारता है। दूसरा समूह सत्य नहीं स्वीकारता, फिर चाहे वह जिस किसी तरह से भी उपदेश सुनता हो। उसे लगता है कि ये सब जुमले हैं, और अगर वह इन्हें समझ भी ले तो इनका अभ्यास करने को तैयार नहीं होता, क्योंकि वह अपनी पुरानी योजनाएँ, स्वार्थी इच्छाएँ और अपने हित नहीं छोड़ पाता है। इसलिए वह बरसों विश्वास करने के बाद भी बदलता नहीं है। क्या कलीसिया के भीतर के इन दो समूहों के बीच के मतभेद बिल्कुल स्पष्ट नहीं होते हैं? जो सच्चे मन से परमेश्वर को चाहते हैं उन पर दूसरों के कहने का कोई असर नहीं पड़ता, फिर चाहे वे कुछ भी कहें; वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाने में लगे रहते हैं, परमेश्वर को वचनों को सही मानते हैं और यह भी मानते हैं कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना सर्वोच्च सिद्धांत है। जो दुष्ट हैं और सत्य से प्रेम नहीं करते, उनके मन में हमेशा चंचल विचार घूमते रहते हैं। अगर आज उन्हें आशीष पाने की धुँधली-सी उम्मीद भी दिख जाए, तो वे अपना सब कुछ झोंक देंगे और सबको दिखाने के लिए अच्छे कर्म करेंगे, ताकि उनके दिल जीत सकें। लेकिन कुछ समय बाद जब परमेश्वर उन्हें आशीष नहीं देता, तो वे पछताने और शिकायत करने लगते हैं, और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “परमेश्वर सब चीजों पर संप्रभुता रखता है; वह पक्षपात नहीं करता—मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि ये वचन सही हैं।” वे अपने फौरी हितों के परे नहीं देख सकते; अगर उन्हें कोई फायदा न हो रहा हो तो वे अपनी उँगली भी नहीं हिलाएंगे। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे चाहे जिससे भी बात करें, उसके साथ सौदा पटाने में लगे रहते हैं, वे तो परमेश्वर के साथ भी सौदा पटाने का दुस्साहस करते हैं। उन्हें लगता है : “मुझे कुछ फायदा दिखना चाहिए और वो भी अभी के अभी। मुझे तुरंत फायदा होना चाहिए!” ऐसा दुराग्रह—क्या यह कहना गलत होगा कि उनमें दुष्ट स्वभाव होता है? (बिल्कुल नहीं।) तो फिर उनकी दुष्टता कैसे साबित हो सकती है? जब उनका सामना किसी छोटे-से परीक्षण या आपदा से होगा, तो वे इसे स्वीकार नहीं पाएँगे और अपना कर्तव्य नहीं निभाएँगे। उन्हें लगेगा कि उन्हें कोई घाटा हुआ है : “मैंने इतना अधिक निवेश किया, फिर भी परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। क्या कोई परमेश्वर है भी? यह सही मार्ग है भी या नहीं?” उनका दिल संदेह से डोलता रहता है। उन्हें फायदा दिखना चाहिए और इससे साबित होता है कि वे जानबूझकर और ईमानदारी से त्याग नहीं करते; इस तरह उनका खुलासा हो जाता है। जब अय्यूब परीक्षणों से गुजर रहा था तो उसकी पत्नी ने क्या कहा? (“क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा” (अय्यूब 2:9)।) वह छद्म-विश्वासी थी, और जब आपदा बरपी तो वह परमेश्वर से मुकरकर उसे छोड़ रही थी। जब परमेश्वर ने आशीष दी तो उसने कहा, “हे यहोवा परमेश्वर, तू महान रक्षक है! तूने मुझे इतनी सारी संपत्ति देकर धन्य कर दिया। मैं तेरा अनुसरण करूँगी। तू मेरा परमेश्वर है!” और जब परमेश्वर ने उससे सारी संपत्ति छीन ली तो उसने कहा, “तू मेरा परमेश्वर नहीं है।” उसने तो अय्यूब से भी कहा, “विश्वास मत कर। परमेश्वर नहीं है! अगर होता तो वह लुटेरों को हमारी संपत्ति छीनकर कैसे ले जाने देता? उसने हमारी हिफाजत क्यों नहीं की?” यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्ट स्वभाव है। जैसे ही उनके हितों से समझौता होता है, उनके अपने लक्ष्य और इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं, तो वे तुरंत आपा खो बैठते हैं, विद्रोह कर देते हैं और यहूदा बनकर परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं और उसे त्याग देते हैं। क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? हो सकता है ऐसे साफ तौर पर बुरे लोग और छद्म-विश्वासी अभी भी कुछ हद तक कलीसिया के अंदर हों। लेकिन कुछ लोगों की सिर्फ दशा ऐसी होती है; यानी उनका स्वभाव तो ऐसा होता है लेकिन जरूरी नहीं कि वे इसी किस्म के लोग हों। लेकिन अगर तुम्हारा ऐसा स्वभाव है तो क्या इसे बदलने की जरूरत है? (बिल्कुल।) अगर तुम्हारा ऐसा स्वभाव है तो इसका मतलब है कि तुम्हारी प्रकृति भी दुष्ट है। ऐसे दुष्ट स्वभाव के रहते तुम किसी भी पल परमेश्वर का विरोध कर उसे धोखा देने और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर सकते हो। जिस दिन भी तुम ये भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलते, उस दिन तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं रहते हो। जब तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं होते, तुम उसके समक्ष नहीं आ सकते, उसके कार्य का अनुभव नहीं कर सकते और तुम्हारे पास उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं होता।

अय्यूब सच्ची आस्था वाला इंसान था। जब परमेश्वर ने आशीष दिया, तो उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। जब परमेश्वर ने उसे अनुशासित और वंचित किया, उसने तब भी परमेश्वर को धन्यवाद दिया। अपने अनुभव के अंत में, जब वह बूढ़ा हो गया और परमेश्वर ने उसका सब कुछ छीन लिया, तो अय्यूब ने क्या प्रतिक्रिया दी? शिकायत करना तो दूर रहा, उसने परमेश्वर की प्रशंसा की और उसकी गवाही दी। क्या इसमें कोई कुटिल स्वभाव है? दुष्ट स्वभाव है? (नहीं।) क्या इतनी सारी संपत्ति खोने के बाद भी अय्यूब ने विद्रोह किया? क्या उसने कोई शिकायत की? (नहीं।) उसने शिकायत नहीं की, बल्कि परमेश्वर की प्रशंसा की। यह कैसा स्वभाव है? इसमें कई ऐसी चीजें शामिल हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए : अंतःकरण, विवेक और सकारात्मक चीजों के लिए प्रेम। सबसे पहले तो अय्यूब में अंतःकरण था। उसका दिल जानता था कि उसके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर का दिया हुआ है, और इसके लिए उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। इसके अलावा उसमें विवेक था। उसके कौन-से कथन से साबित होता है कि उसमें विवेक था? (उसने कहा : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)।) यह कथन परमेश्वर के परीक्षणों को लेकर अय्यूब के सच्चे अनुभव और समझ की गवाही है; यह उसके असली आध्यात्मिक कद और मानवता को बयान करता है। अय्यूब के पास और क्या था? (सत्य के प्रति प्रेम।) इसे कैसे मापा जाता है? सत्य के प्रति उसके प्रेम को हम उसे परमेश्वर द्वारा वंचित करने के प्रसंग में कैसे समझ सकते हैं? (मुसीबत आने पर वह सत्य की खोज कर सका था।) सत्य की खोज करना सत्य से प्रेम करने की अभिव्यक्ति है। जब उसके इर्द-गिर्द ये चीजें घट रही थीं, तो अय्यूब को चाहे जितनी परेशानी या पीड़ा हुई हो, उसने शिकायत नहीं की—क्या यह सत्य से प्रेम करने की अभिव्यक्ति नहीं है? और सत्य से प्रेम करने की एक और महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति क्या है? (समर्पण करने की क्षमता।) हम कैसे जानते हैं कि यह सत्य से प्रेम करने की एक व्यावहारिक, सटीक अभिव्यक्ति है? लोग अक्सर कहते हैं, “परमेश्वर लोगों के लिए जो कुछ भी करता है उनके फायदे के लिए करता है और इसमें उसकी सदिच्छा होती है।” क्या यही सत्य है? (बिल्कुल।) किंतु क्या तुम इसे स्वीकार सकते हो? तुम इसे तब तो स्वीकार कर सकते हो जब परमेश्वर तुम्हें आशीष देता है, किंतु जब वह इसे छीन लेता है तो क्या इसे स्वीकार पाते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते, पर अय्यूब ऐसा कर सका था। उसने इस कथन को सत्य माना—क्या अय्यूब सत्य से प्रेम नहीं करता था? जब परमेश्वर ने अय्यूब का सब कुछ छीन लिया, उसे भारी नुकसान पहुँचाया, और जब उसे इस एक कथन के कारण इतनी गंभीर बीमारी झेलनी पड़ी—“परमेश्वर जो कुछ भी करता है सही करता है और इसमें उस की सदिच्छा होती है”—और चूँकि अय्यूब का दिल जानता था कि यह सत्य है, तो उसे चाहे जितनी भी पीड़ा झेलनी पड़ी हो, फिर भी वह इस बात पर जोर दे पाया कि यह कथन सही है। इसीलिए हम कहते हैं कि अय्यूब सत्य से प्रेम करता था। यही नहीं, परमेश्वर ने अय्यूब की परीक्षा लेने के लिए चाहे जो तरीके अपनाए, उसने इन्हें स्वीकार किया। चाहे उसकी चीजें छीन लेने की बात हो या फिर लुटेरों के हाथों लुटवाना हो या फिर उसके शरीर पर फोड़े उगा दिए हों, ये सारी चीजें मानवीय धारणाओं के खिलाफ जाती हैं—लेकिन अय्यूब ने इन्हें कैसे लिया? क्या उसने परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत की? उसने परमेश्वर को दोष देने वाला एक भी शब्द नहीं कहा। इसे ही सत्य से प्रेम करना, न्यायप्रियता से प्रेम करना और धार्मिकता से प्रेम करना कहते हैं। उसने मन ही मन कहा, “परमेश्वर हम लोगों के प्रति कितना न्यायप्रिय और धार्मिक है! परमेश्वर जो भी करता है सही करता है!” इस प्रकार वह यह कहकर परमेश्वर की स्तुति कर सका : “चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, मैं शिकायत नहीं करूँगा। परमेश्वर की नजर में सृजित प्राणी सिर्फ कीड़े-मकोड़े हैं। परमेश्वर उनके साथ जो भी व्यवहार करे वह सही और उचित है।” वह मानता था कि परमेश्वर ने जो कुछ किया वह सही और सकारात्मक था। अपनी भयंकर पीड़ा और परेशानी के बावजूद उसने कोई शिकायत नहीं की। यह सत्य से सच्चा प्रेम है और सबको इसकी सराहना करनी चाहिए; और यह सब व्यावहारिक रूप से प्रदर्शित किया गया था। चाहे उसे कितना ही नुकसान हुआ हो या उसकी परिस्थितियाँ कितनी ही कठिन क्यों न रही हों, अय्यूब ने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की; उसने समर्पण किया। यह सत्य से प्रेम करने की एक अभिव्यक्ति है। उसने अपनी परेशानियों से पार पा लिया; उसने न तो परमेश्वर के बारे में शिकायत की, न ही परमेश्वर से कोई माँग की। यह सत्य से प्रेम करना है, यह सच्चा समर्पण है। केवल सच्चे समर्पण वाले लोग ही सत्य से प्रेम करते हैं। कुछ लोग साधारण परिस्थितियों में सिद्धांत बघारने और नारे लगाने में माहिर होते हैं, लेकिन जब उन पर कोई गंभीर विपदा आती है, तो वे हमेशा परमेश्वर से माँग करने लगते हैं और लगातार प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरी बीमारी दूर कर दे! मेरी संपत्ति लौटा दे!” क्या यह समर्पण है? वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग नहीं हैं। वे झूठ बोलना और दूसरों को गुमराह करना पसंद करते हैं, और वे मन ही मन धन-दौलत और लाभ से प्यार करते हैं। अय्यूब ने सांसारिक लाभों और अपनी सारी संपत्ति को महत्व नहीं दिया, उसे इन सभी चीजों की खरी समझ थी, इसलिए वह समर्पण कर सका। वह अपने दिल में इन चीजों की असलियत जानता था। उसने कहा, “इस जीवन में कोई चाहे कितना ही कमा ले, यह सब परमेश्वर की देन है। अगर परमेश्वर तुम्हें कमाने न दे, तो तुम धेला भर भी नहीं कमा सकते। अगर वह कमाने दे तो वह जितना भी देगा, तुम्हें मिलेगा।” उसने सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ लिया था, यह सत्य उसके दिल में जड़ जमा चुका था। “परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है”—यह अय्यूब के लिए प्रश्नवाचक नहीं, बल्कि विस्मयादिबोधक वाक्य था। यह वाक्य उसके दिल में रच-बस कर उसकी जिंदगी बन गया। अय्यूब की मानवता में और क्या निहित था? वह अपने ही जन्मदिन को क्यों कोसता था? उसे मर जाना गवारा था लेकिन यह मंजूर नहीं था कि परमेश्वर उसकी पीड़ा देखकर उसके लिए संताप करे। यह कौन-सा गुण और कौन-सा सार है? (दयालुता का।) अय्यूब की दयालुता की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वह परमेश्वर के प्रति विचारशील था और उसे समझता था, वह परमेश्वर से प्रेम कर सकता था और उसे संतुष्ट कर सकता था। अगर किसी में ये गुण हैं, तो वह चरित्रवान होगा। चरित्र का निर्माण कैसे होता है? सिर्फ वही व्यक्ति चरित्रवान है जो सत्य समझता है, जो परमेश्वर के परीक्षणों और शैतान के प्रलोभनों के दौरान अपनी गवाही में दृढ़ रह सकता है, जो मनुष्य की भाँति जी सकता है, मनुष्य होने के मानक तक पहुँच सकता है, और जिसके पास एक निश्चित मात्रा में सत्य होता है। मानवता सार की बात करें तो अय्यूब के पास दयालु हृदय होने के कारण ही वह अपने जन्मदिन को कोस सकता था और उसे मर जाना गवारा था लेकिन यह मंजूर नहीं था कि उसकी पीड़ा देखकर परमेश्वर को संताप या चिंता हो। अय्यूब की मानवता ऐसी थी। कोई व्यक्ति केवल तभी परमेश्वर से प्रेम करेगा और उसकी चिंता करेगा जब उसके पास दयालु मानवता और सार हो। अगर उसके पास दोनों चीजें नहीं हैं, तो वह जड़ और निष्ठुर होगा। इसकी तुलना जरा पौलुस से करो जो अय्यूब से बिल्कुल उलटा था। पौलुस हमेशा अपने ही हित साधने की ताक में रहता था, और परमेश्वर के साथ भी सौदा पटाना चाहता था। वह एक ताज पाना चाहता था, वह मसीह बनकर मसीह की जगह लेना चाहता था। और जब वह अपना ताज हासिल नहीं कर सका, तो उसने परमेश्वर से बहस करने और उस पर मुकदमा चलाने की कोशिश की। विवेक की कितनी कमी है! इससे पता चलता है कि पौलुस में शर्म नाम की चीज नहीं थी। शैतान के भ्रष्ट स्वभाव वाले लोगों को खुद को बदलना ही चाहिए। अगर कोई सत्य समझता है, सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा। वह अब परमेश्वर का विरोध नहीं करेगा और उसके अनुकूल बन जाएगा। ऐसा ही व्यक्ति सत्य और जीवन प्राप्त करता है। ऐसे ही सृजित प्राणी की कामना परमेश्वर करता है।

13 जुलाई 2018

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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