69 विजय कार्य का सार
1
इन्सान की सबसे बड़ी समस्या है यही,
कि वो अपने भविष्य को छोड़ कुछ और सोचता नहीं,
अपनी सम्भावनाओं से सबसे अधिक प्रेम करता है,
इन्हीं के लिए परमेश्वर का अनुसरण भी करता है,
न कि इसलिए कि वह परमेश्वर से प्रेम करता है।
इसलिए स्वार्थ, लालच, और चीज़ें सभी
जो डालतीं हैं उसकी आराधना में बाधा, उन्हें हटाना होगा।
फिर ही मानव पर विजय का प्रभाव प्राप्त होगा।
इन्सान की नियति और सम्भावना को दूर करके,
उसके विद्रोही स्वभाव का न्याय करके, उसे ताड़ना दे के,
विजय कार्य अपना प्रभाव ऐसे हासिल करता है,
न की इन्सान से सौदेबाज़ी करने, उसे अनुग्रह और आशीष देने से,
बल्कि उसकी वफादारी प्रकट करने के लिए
उसकी "आज़ादी" और सम्भावनाओं को ले लेने से।
विजय का कार्य यही है। विजय का कार्य यही है।
2
आरम्भ की विजयों में, ज़रूरी है
इन्सान की बेहिसाब अकांक्षाओं को,
उसकी जानलेवा कमज़ोरी को दूर करना,
और इसके द्वारा, परमेश्वर के लिए इन्सान के प्रेम को प्रकट करना,
जीवन, परमेश्वर और अस्तित्व के अर्थ के बारे में उसकी सोच बदलना।
इस तरह से परमेश्वर के लिए इन्सान का प्रेम होता है शुद्ध,
उसके दिल पर होती है सच्ची विजय।
इन्सान की नियति और सम्भावना को दूर करके,
उसके विद्रोही स्वभाव का न्याय करके, उसे ताड़ना दे के,
विजय कार्य अपना प्रभाव ऐसे हासिल करता है,
न की इन्सान से सौदेबाज़ी करने, उसे अनुग्रह और आशीष देने से,
बल्कि उसकी वफादारी प्रकट करने के लिए
उसकी आज़ादी और सम्भावनाओं को ले लेने से।
विजय का कार्य यही है। विजय का कार्य यही है।
3
लेकिन अपने प्राणियों के प्रति परमेश्वर के रवैये में,
सिर्फ जीतने की खातिर विजय हासिल नहीं करता परमेश्वर।
बल्कि इन्सान को पाने, अपनी महिमा की खातिर,
मनुष्य की वास्तविक अनुरूपता पहले जैसी
करने की खातिर विजय पाता है परमेश्वर।
इन्सान की नियति और सम्भावना को दूर करके
उसके विद्रोही स्वभाव का न्याय करके, उसे ताड़ना दे के,
विजय कार्य अपना प्रभाव ऐसे हासिल करता है,
न की इन्सान से सौदेबाज़ी करने, उसे अनुग्रह और आशीष देने से,
बल्कि उसकी वफादारी प्रकट करने के लिए
उसकी आज़ादी और सम्भावनाओं को ले लेने से।
विजय का कार्य यही है। विजय का कार्य यही है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना से रूपांतरित