निपटे जाने के बाद आई जागृति

05 फ़रवरी, 2023

2020 के अंत में, मैंने कलीसिया में नवागतों के सिंचन की जिम्मेदारी ली। पहले तो उनकी संख्या कम थी, इसलिए जब वे अपनी समस्याएँ लेकर मेरे पास आते तो मैं उन्हें सुलझाने में भरसक मदद करती। अगर मैं खुद हल न कर पाती, तो अगुआ से पूछती। डरती कि उनका सिंचन ठीक न हुआ, तो वे मजबूत नहीं हो पाएँगे। बाद में, नए सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती गई, इसलिए अगुआ ने दो अन्य बहनों को मेरे साथ काम पर लगा दिया, हम सभी को कुछ नए विश्वासी सिंचन के लिए दे दिए गए। कई बार कुछ ऐसे नवागत मुझसे समस्याओं पर बात करने आते, जो अन्य बहनों की जिम्मेदारियों के दायरे में थे। मैंने सोचा कि मेरा समय सीमित है, अगर मैं उनकी मदद करूँगी, तो क्या इससे उनके सिंचन में बाधा नहीं आएगी, जिनके लिए मैं जिम्मेदार हूँ? चूँकि इनके लिए वे बहनें जिम्मेदार हैं, तो वे ही इनकी समस्याएँ सुलझाएँ। यह मेरी समस्या नहीं है। इसलिए मैंने उनके साथ संगति नहीं की। अगर की भी, तो लापरवाही और बेमन से की। कुछ दिनों बाद पता चला कि उनमें से कुछ पूरे हफ्ते सभाओं में नहीं आए, क्योंकि उन्हें किसी समूह में नहीं डाला गया था, कुछ इसलिए नहीं आ रहे थे, क्योंकि संगति करके उनकी धारणाएँ दूर नहीं की गई थीं। मैं यह सुनकर थोड़ी परेशान हुई। मुझे लगा, इसका कारण था मेरा गैर जिम्मेदार होना और उनकी परवाह न करना। पर मैंने आत्मचिंतन करने या अपनी समस्या समझने की कोशिश नहीं की। जल्दी ही कुछ नए विश्वासियों ने, जिनके लिए वे दो बहनें जिम्मेदार थीं, जीवन में कुछ कठिनाइयों से निराश होकर सभाओं में आना बंद कर दिया। चूँकि मैं उन्हें थोड़ा बेहतर जानती थी, इसलिए अगुआ ने मुझसे मदद करने को कहा। मैं बिलकुल इच्छुक नहीं थी। अब उनके लिए अन्य बहनें जिम्मेदार थीं, अगर मैं उनकी मदद करूंगी, तो मेरे कार्य के परिणाम प्रभावित होंगे। जितना सोचती, उतना ही लगता कि नुकसान मेरा है, तो मैंने मना करने के बहाने ढूँढ़ लिए। मैंने कहा कि व्यस्तता के चलते मैं किसी अतिरिक्त नवागत का सिंचन नहीं कर सकती।

बाद में, अगुआ ने हमारी कार्य-प्रगति की जाँच की और हमसे पूछा कि कुछ नवागतों को समूहों में क्यों नहीं जोड़ा गया, और वे सभाओं में क्यों नहीं आ रहे। वह कारण जानना चाहती थी। मैंने आत्मविश्वास से कहा, "मैंने इस बारे में अन्य बहनों से बात की है, पर उन्होंने इसे नहीं सँभाला।" फिर अगुआ ने मुझसे पूछा, "क्या यह पूरी तरह से उनकी जिम्मेदारी है, तुमसे कोई लेना-देना नहीं?" मैं अभी भी खुद को सही ठहरा रही थी : मैंने कुछ भी गलत नहीं किया—मैंने अपनी सारी जिम्मेदारियाँ सँभालीं, मैंने नए विश्वासी उन दो बहनों को सौंप दिए थे। यह मेरी जिम्मेदारियों के दायरे में नहीं आता। मेरा उन पर कोई ध्यान न देना पूरी तरह से उचित है। अगुआ ने स्वार्थी होने और केवल अपना काम करने के लिए मेरी आलोचना की। अन्य बहनों के काम में समस्याएँ थीं, पर मैंने देखकर भी अनदेखा किया, इसलिए कई नए विश्वासी सभाओं में नहीं आ पाए। यह गैर-जिम्मेदारी थी। उसने मुझे कुछ समय तक कर्तव्य करने से रोक दिया, ताकि मैं अपनी समस्याओं पर सोचूँ। मैं तो उस समय स्तब्ध ही रह गई। उस समय मैं यह तथ्य स्वीकार ही नहीं पाई। क्या नवागतों के सभाओं में भाग न लेने के लिए मैं ही पूरी तरह से जिम्मेदार थी? उस समय उनके सिंचन के लिए दूसरी बहनें जिम्मेदार थीं। मुझे जिम्मेदार ठहराना गलत है। कोई कर्तव्य न होने से मैं दुखी हो गई और अपने आँसू नहीं रोक पाई। कुछ दिनों तक मैं दुखी रही, मानो मेरे दिल में चाकू घोंप दिया गया हो। मैं प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारती रही, आत्मचिंतन करती रही।

अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "तुम चाहे जो भी सोच रहे हो, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे, तुममें वफादारी नहीं है, और तुम्हारे व्यक्तिगत विचार हमेशा शामिल रहते हैं, हमेशा तुम्हारे विचार और मत होते हैं। परमेश्वर इन चीजों को देखता है, परमेश्वर जानता है—क्या तुमने सोचा कि परमेश्वर नहीं जानता? तुम कितने मूर्ख हो। और यदि तुम तुरंत पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम परमेश्वर का कार्य खो दोगे। तुम उसे क्यों खो दोगे? क्योंकि परमेश्वर लोगों के अंतरतम अस्तित्व का निरीक्षण करता है। वह पूरी स्पष्टता के साथ उनकी सभी साजिशें और चालबाजियाँ देखता है, और वह जानता है कि उनका हृदय उससे अलग है, वे उसके साथ एकचित्त नहीं हैं। वे कौन-सी मुख्य बातें हैं जो उनके हृदय को परमेश्वर से दूर रखती हैं? उनके विचार, उनके हित और अभिमान, और उनकी तुच्छ साजिशें। जब लोगों के दिलों में ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें परमेश्वर से अलग करती हैं, और वे लगातार उन चीजों में मग्न रहते हैं, हमेशा साजिशें करते रहते हैं, तो यह समस्या है। अगर तुम्हारी क्षमता खराब और अनुभव थोड़ा है, लेकिन तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, और हमेशा परमेश्वर के साथ एकचित्त रहते हो, अगर तुम क्षुद्र चालों में पड़े बिना, परमेश्वर द्वारा सौंपे जाने वाले काम में अपना सब-कुछ झोंक सकते हो, तो परमेश्वर इसे देखेगा। अगर तुम्हारे दिल और परमेश्वर के बीच हमेशा दीवार खड़ी रहती है, अगर तुम हमेशा क्षुद्र षड्यंत्र पालते हो, हमेशा अपने हितों और गर्व के लिए जीते हो, अपने दिल में हमेशा इन चीजों की गणना करते रहते हो, उनके काबू में हो, तो परमेश्वर तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, और वह तुम्हें प्रबुद्ध, रोशन या स्वीकार नहीं करेगा, और तुम्हारा हृदय निरंतर अंधकारमय होता जाएगा, अर्थात जब तुम अपना कर्तव्य निभाओगे या कुछ भी करोगे, तो तुम उसे गड़बड़ कर दोगे, और वह लगभग बेकार हो जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम बहुत स्वार्थी और नीच हो, और हमेशा अपने लिए षड्यंत्र रचते रहते हो, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं हो, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम चालाक होने का साहस और परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास करते हो, और न केवल सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने में अस्थिर भी हो—जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खपना नहीं है। जब तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना दिल नहीं लगाते, और उसका और अधिक लाभ प्राप्त करने, अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा बनाने के अवसर के रूप में उपयोग करते हुए केवल दिखावे के कुछ प्रयास करते हो, और अपनी काट-छाँट और निपटान किए जाने पर उसे स्वीकार और आज्ञापालन नहीं करते, तो इस बात की अत्यधिक संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे। परमेश्वर मनुष्य के अंतरतम को देखता है : अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम खतरे में होगे, और संभवतः परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाओगे, उस स्थिति में तुम्हें फिर कभी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण सत्य को व्यवहार में लाना है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असली हालत प्रकट कर दी। अपने कर्तव्य में मैं परमेश्वर से हिसाब किताब करते हुए अपने हितों के लिए षड्यंत्र रचा। जो काम मेरे लिए लाभदायक होता, उसे मैं खुशी से करती, अगर लाभ न होता तो कोई ध्यान न देती। मैंने उन नए विश्वासियों पर पूरा ध्यान दिया, जिनके सिंचन के लिए मैं जिम्मेदार थी, इस डर से कि अच्छे से सिंचन नहीं हुआ, तो वे चले जाएँगे, पर उन पर ध्यान नहीं दिया, जिनके लिए मैं जिम्मेदार नहीं थी। लगा जब उन्हें दूसरी बहनों को सौंप दिया गया है, तो सिंचन में आई समस्याओं का मुझसे कोई लेना-देना नहीं, इसलिए मुझे जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं, इसका मेरे हितों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जब वे नए विश्वासी समस्याओं के बारे में बात करने मेरे पास आए, तो यह देखकर कि वे मेरे दायरे में नहीं आते, मैंने उनके साथ संगति नहीं करनी चाही। उनकी थोड़ी मदद की भी, तो बस बेमन से की। अगुआ ने उन्हें सामान्य रूप से सभाओं में शामिल न होते देख मुझसे मदद करने के लिए कहा, पर मैंने बहाने बना दिए। मैंने नवागतों का अच्छे से सिंचन करने पर नहीं सोचा, ताकि वे जल्दी से सच्चे मार्ग पर जड़ें जमा सकें। मैं सिर्फ अपने हितों के बारे में सोच रही थी, परमेश्वर की इच्छा के बारे में नहीं। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! मैंने बहुत स्पष्टता से अपने कामों, अपनी जिम्मेदारियों की सीमाएँ खींच दी थी। मुझे लगता था कि अपनी जिम्मेदारियों से परे किसी चीज की उपेक्षा करना पूरी तरह उचित है, उनकी समस्या का मुझसे लेना-देना नहीं है। मैं मालिक के लिए काम करने वाले किसी अविश्वासी की तरह थी, मानो मुझे काम के पैसे मिलते हों। मैं अपने हितों की सोचती थी, कुछ और नहीं करना चाहती थी। जरा भी अतिरिक्त प्रयास करने को तैयार नहीं थी। यह कर्तव्य निभाना कैसे था? मैं तो सिर्फ एक सेवाकर्ता थी। मेरा रवैया परमेश्वर के लिए घृणास्पद था। कुछ नवागतों को कोई सभा-समूह नहीं मिला और वे चिंतित हो गए, उन बच्चों की तरह, जो रास्ता भटक गए हों। वे मेरे पास आए, मुझे समूह खोजने में उनकी मदद और उनकी समस्याओं पर उनके साथ संगति करनी चाहिए थी। इसके बजाय, मैं स्वार्थ में पड़कर अपने कार्यों में व्यस्त रही और उनकी उपेक्षा की, इसलिए वे नवागत सभाओं में नहीं आए। इस विचार ने मुझे खेद और आत्म-ग्लानि से भर दिया, मुझे लगा, मुझमें कोई मानवता नहीं है। मेरी काट-छाँट, निपटान और मेरा कर्तव्य रोकना परमेश्वर की धार्मिकता थी।

बाद में मैंने गवाही का एक वीडियो देखा, जिसमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों के एक अंश से मुझे खुद को समझने में मदद मिली। "मसीह-विरोधियों में न तो कोई अंतःकरण होता है, न समझ और न ही कोई मानवता होती है। वे न केवल बेशर्म होते हैं, बल्कि उनकी एक और पहचान भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके 'स्वार्थीपन और नीचता' का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन कर देंगे, समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विभाजनकारी या विघटनकारी तो नहीं हो रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, घिनौना और निकम्मा होता है; हम उन्हें 'स्वार्थी और नीच' के रूप में परिभाषित करते हैं। ... मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके अपने हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वे केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचते हैं, जिससे उन्हें फायदा होता है। उनके लिए कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस कुछ ऐसा होता है, जिसे वे अपने खाली समय में करते हैं। वे उसे बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेते। वे केवल उथले प्रयास करते हैं, केवल वही करते हैं जो वे करना पसंद करते हैं, और केवल अपनी स्थिति और सत्ता बनाए रखने का काम करते हैं। उनकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। अन्य लोगों को अपने काम में क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं, उन्होंने किन मुद्दों की पहचान कर उन्हें रिपोर्ट किया है, उनके शब्द कितने ईमानदार हैं, मसीह-विरोधी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल ही नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। वे कलीसिया के मामलों से पूरी तरह से उदासीन होते हैं, फिर चाहे वे मामले कितने भी गंभीर क्यों न हों। अगर समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनसे निपटता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। कलीसिया के काम के प्रति, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण बातों के प्रति वे उदासीन और बेखबर बने रहते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या तुम्हें टालने के लिए कोई बात कह देते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता का प्रकटीकरण है, है न?" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक))। वचनों का यह अंश सीधे मेरे दिल में उतर गया। मैं मसीह-विरोधी की तरह थी, मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी, अपने हर काम में केवल अपने हितों के बारे में सोचती थी। जब किसी नवागत का सभाओं में न आना मेरे नतीजों पर असर डालता, तो चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े, मेहनत करनी पड़े, मुझे उनका सिंचन और समर्थन करने में खुशी होती, मैं कभी न थकती। पर जब दूसरी बहनों की जिम्मेदारी वाले नए विश्वासियों को कोई सभा-समूह नहीं मिला, तो मैं जरा-सी कोशिश से ही उसे हल कर सकती थी, पर मैंने किया नहीं। मैंने पाया, मुझे शैतान ने गहराई तक भ्रष्ट किया था और "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "हर आदमी अपने काम से काम रखे," और "फ़ायदा न हो तो उंगली भी मत उठाओ" वे शैतानी जहर थे, जिनसे मैं जी रही थी। मैं स्वार्थी, नीच और बहुत मतलबी थी। नए विश्वासियों ने अभी-अभी अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था वे प्रलोभनों का सामना कर रहे थे। उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं था, उनके लिए कोई सभाएँ नहीं थीं। उन्हें शैतान कभी भी ले जा सकता था। इसलिए नवागतों का अच्छे से सिंचन परमेश्वर के घर का महत्वपूर्ण काम है। किसी के लिए भी परमेश्वर के सामने आना आसान नहीं। हम नहीं जानते कि एक व्यक्ति को बचाने के लिए परमेश्वर कितना खपता है। जमीर और मानवता से युक्त व्यक्ति को ही नए लोगों को सभाओं में शामिल न होते देख चिंता होती है। वे सोचते हैं कि एक दिल और दिमाग से दूसरों के साथ उनका समर्थन कैसे किया जाए, ताकि वे सत्य समझकर जितनी जल्दी हो, सच्चे मार्ग पर जड़ें जमा सकें। पर मैंने अपने हित सबसे ऊपर रखे, उनके सभाओं में शामिल न होने की परवाह नहीं की। उनकी मदद के लिए थोड़ा भी समय देने को तैयार न हुई। मैं परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान कैसे दे रही थी? आलोचना होने पर भी मैंने खुद को नहीं जाना, ढिठाई से अपनी जिम्मेदारियों से किनारा किया। तब मुझे लगा, मुझमें जमीर नहीं है, मैं बहुत रूखी और हृदयहीन हूँ। मुझे लगता था कि मैं चतुर हूँ, जो सिर्फ अपनी जिम्मेदारी का प्रबंधन करके परिणाम सुनिश्चित कर रही हूँ, मुझे बरखास्त नहीं किया जाएगा। मैं बहुत बेतुकी थी। परमेश्वर व्यक्ति के कार्यों में उसके इरादे देखता है, कि वे सच में परमेश्वर के लिए खप रहे हैं या नहीं, कलीसिया का कार्य बनाए रखकर परमेश्वर की इच्छा की सोच रहे हैं या नहीं, सिर्फ अपने सतही परिणाम तो नहीं देख रहे। कर्तव्य में हमेशा अपने हित बनाए रखते हुए, भले ही तुम कष्ट उठाओ और कीमत चुकाओ, अगर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला, तो अंत में तुम्हें परमेश्वर द्वारा प्रकट कर निकाल दिया जाएगा। मैंने परमेश्वर की इच्छा या परमेश्वर का स्वभाव नहीं समझा। खुद को बचाने के लिए मैंने चालें चलीं, सिर्फ अपने काम की परवाह की, जिससे नए विश्वासी बाधित हुए और उन्हें चोट पहुँची। मेरी तुच्छ गणनाएँ और घटिया इरादे परमेश्वर की जाँच से बच नहीं सके। अंततः मैं खुद को बचा नहीं पाई, मुझे उजागर कर बरखास्त कर दिया गया। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव मुझ पर आया—मैंने जो बोया, वही काटा। मैं पछतावे से भर गई, और स्वार्थी होने पर खुद से नफरत करने लगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "सर्शक्तिमान परमेश्वर, अपने कार्यों में मैं सिर्फ अपने निजी हितों के बारे में सोचती हूँ, जिससे नए विश्वासी सभाओं में शामिल नहीं हो पाए। मुझमें बिलकुल मानवता नहीं है, मैं सजा की हकदार हूँ। बरखास्तगी तुम्हारी धार्मिकता और उससे भी बढ़कर तुम्हारा प्रेम था। मैं पश्चात्ताप कर नए विश्वासियों को सहारा देकर सहायता करना चाहती हूँ ताकि वे जल्दी से जल्दी कलीसियाई जीवन जी सकें।"

फिर, मैंने सभाओं में शामिल न हो रहे नवागतों की मदद के लिए उन दोनों बहनों के साथ काम किया। हमें पता चला कि कुछ नए विश्वासियों के जीवन में कठिनाइयाँ आ रही थीं, हमने परमेश्वर के वचनों पर संगति करके उनकी मदद की। उनकी हालत काफी सुधर गई और वे कलीसियाई जीवन में भाग लेने लगे। संगति द्वारा सहायता और सहारा पाकर कुछ अन्य नवागत भी फिर से सभाओं में भाग लेने लगे। मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने साथ काम करने वाली बहनों से यह भी कहा कि जब कोई नया विश्वासी सभाओं में शामिल न हो या उससे संपर्क न हो पाए, तो वे मुझे तुरंत बता दें, ताकि मैं उनका सिंचन और सहायता कर सकूँ। इसका अभ्यास करने से मुझे और शांति मिली। कुछ दिनों बाद अगुआ ने कहा कि मैं नए विश्वासियों के सिंचन का कार्यभार फिर से सँभाल सकती हूँ। खबर सुनकर मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मैं भाई-बहनों के प्रति इतनी गैर-जिम्मेदार, इतनी स्वार्थी थी, पर कलीसिया ने मुझे कर्तव्य निभाने का एक और मौका दिया। मैंने परमेश्वर को उसकी दया के लिए हृदय से धन्यवाद दिया!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "जब तुम्हें किसी समस्या का पता चलता है, तो पहले देखो कि क्या तुम उसे खुद हल कर सकते हो। अगर कर सकते हो, तो उसकी जिम्मेदारी लो और अंत तक निभाओ। उसे खत्म करो; अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह निभाओ, ताकि परमेश्वर के सामने उसका हिसाब दे सको। यही है अपना कर्तव्य निभाना, व्यावहारिकता के साथ कार्य और आचरण करना। अगर तुम समस्या हल नहीं कर सकते, तो उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को करो और देखो कि इस कार्य के लिए कौन सही होगा। तुम्हें पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। ऐसा करके तुम अपना कर्तव्य निभाओगे और सही स्थिति में रहोगे। अगर, किसी समस्या का पता चलने पर तुम उसे हल नहीं कर पाते और किसी अगुआ को उसकी रिपोर्ट करते हो, तो तुम अपनी पहली जिम्मेदारी निभा देते हो। अगर तुम्हें लगता है कि मामला वह कर्तव्य है, जिसे तुम्हें निभाना चाहिए और तुम उसे निभा सकते हो, तो तुम्हें भाई-बहनों की मदद लेनी चाहिए। सिद्धांतों पर संगति करने और उसका समाधान निर्धारित करने से शुरुआत करो, फिर काम पूरा करने के लिए उनके साथ तालमेल बिठाकर सहयोग करो। यह तुम्हारी दूसरी जिम्मेदारी है। अगर तुम ये दोनों जिम्मेदारियाँ निभा पाते हो, तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में संतोषजनक हो, और तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओगे। मनुष्य का कर्तव्य इन दो चीजों से ज्यादा कुछ नहीं है। अगर तुम वह सब कर सकते हो जो तुम देखते हो और उसे सँभाल सकते हो, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो, तो तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगे" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर के घर में भले ही सबका कर्तव्य अलग है और हमारी जिम्मेदारियाँ बँटी हुई हैं, काम अलग हैं, पर परिवार एक है। हो सकता है, कोई चीज तुम्हारी जिम्मेदारी न हो, लेकिन अगर तुम्हें कोई समस्या दिखे, तो वह करो,जो करना चाहिए। सोचो कि भाई-बहनों के साथ काम कैसे किया जाए, कि कलीसिया का काम प्रभावित न हो। अगर तुम खुद कोई समस्या हल न कर पाओ, तो अन्य भाई-बहनों के साथ सहयोग करो या अगुआ को बताओ, ताकि कलीसिया का काम बनाए रखकर अपना कर्तव्य निभा सको। कोई समस्या देखकर भी अगर तुम निष्क्रिय रहते हो, ध्यान नहीं देते, तो तुम केवल एक कर्मचारी हो, एक सेवाकर्ता हो, परमेश्वर के परिवार का सदस्य नहीं। यह एहसास होने पर मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप अपना कर्तव्य दृढ़ता से करने के लिए तैयार हो गई।

मुझे याद है, एक बार एक नई विश्वासी पहले सभाओं में ठीक से आती थी, फिर पता नहीं क्यों उसने आना बंद कर दिया। हम उससे संपर्क भी नहीं कर पाए। फिर एक शाम, अचानक उसने मुझे संदेश भेजकर मेरा हालचाल पूछा। मेंने सोचा, इससे संपर्क करना बहुत कठिन है, मुझे मौके का फायदा उठाकर बात करनी चाहिए, देखूँ, यह किसी समस्या में तो नहीं पड़ गई। पर फिर मैंने सोचा, मैं एक सभा के लिए सामग्री तैयार कर रही हूँ, समय भी कम है। अगर इसकी मदद करने में समय लगाया, तो मेरा अपना काम रुक सकता है। मैंने किसी और से उसकी बात करवाने की सोची, वैसे भी, मैं उसके लिए जिम्मेदार नहीं थी। फिर मैं शांति से अपना काम कर सकती थी। इस विचार पर, मुझे एहसास हुआ इससे कतराना स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार होना है। इस बहन ने मुझ तक पहुँचने का प्रयास किया, इस मौके पर मुझे उसकी सहायता कर सहारा देना चाहिए। इसलिए मैंने उसे वीडियो-कॉल की। बातचीत से मुझे पता चला, उसका पति उसके सभाओं में शामिल होने का विरोध कर रहा था। विवशता में उसकी हालत खराब हो गई थी, इसलिए उसने सभाओं में आना बंद कर दिया था। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन भेजे जो उसकी स्थिति के बारे में थे और परमेश्वर की इच्छा पर संगति की। स्थिति से उबरने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहने को प्रोत्साहित किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई, और उसने इससे पार पाने का विश्वास जताया। और कहा कि उसे परमेश्वर के उन्हीं वचनों की जरूरत थी अंत में उसने सभाओं में फिर से शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। जब उसने ऐसा कहा, तो मुझे खुशी तो हुई, पर खेद भी हुआ। खेद इसलिए कि मैंने अभी-अभी अपने हितों पर विचार किया था। मैंने अपनी जिम्मेदारी से कतराकर उसकी उपेक्षा कर ही दी थी। खुशी इसलिए कि मैंने उसके साथ परमेश्वर के वचन साझा करके वह किया, जो मुझे करना चाहिए था। ये परमेश्वर के वचन ही थे, जिन्होंने उस बहन को आत्मविश्वास दिया, उसे अपने पति की बाध्यता से मुक्त होने के लिए अभ्यास का मार्ग दिया। आखिर मैं सत्य को अमल में लाई—मुझे आंतरिक शांति का अनुभव हुआ। इसके बाद इसी तरह की स्थितियाँ आने पर मेरा रवैया बहुत बेहतर रहा। मैंने अपने लाभ-हानि की गणना करना बंद कर दिया, जब तक संभव हुआ, मैं भरसक प्रयास करती रही। निपटा जाना हमारे लिए जीवन में प्रवेश का एक अच्छा मौका है। निपटे जाने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने की बदौलत ही मैंने अपने बारे में कुछ सीखा और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने लगी। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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