आगे होने के संघर्ष से आज़ादी मिली

11 फ़रवरी, 2022

क्षिणलीयंग, जर्मनी

जब पहले-पहल मैं सिंचन टीम की प्रमुख बनी, तो उस काम में लगे भाई-बहन समस्याएँ खड़ी होने पर मुझसे सलाह-मशविरा करते, मेरे बारे में काफी ऊंचा सोचते थे। जब कुछ नये विदेशी विश्वासियों को सिंचन की ज़रूरत पड़ी, तो अगुआओं ने ख़ास तौर से मुझे इसका ख़याल रखने को कहा, और मुझे टीम के दूसरे सदस्यों को जर्मन भाषा सिखाने को भी कहा। इसलिए सब लोग मुझे और अधिक आदर से देखने लगे, सब अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे बात करने को उत्सुक रहते। मुझे लगा कि मैं टीम की एक अनिवार्य सदस्य हूँ, मुझे सराहना पाना और दूसरों से घिरे रहना बहुत अच्छा लगता था।

फिर अगुआओं ने हमारी टीम में बहन फैंग को शामिल किया, कहा कि हमारे साथ वह भी नये आये हुए लोगों का सिंचन करेगी। कुछ समय बाद मैंने देखा कि उसकी काबिलियत अच्छी है, सत्य के बारे में उसकी संगति स्पष्ट है, और जब नये आये हुए लोग कुछ सवाल उठाते या समस्याएँ बताते हैं, तो न सिर्फ़ वह परमेश्वर के संबद्ध वचन ढूँढ़ लेती, बल्कि अपनी संगति में वह अपना अनुभव भी पिरो लेती है। इससे उन्हें उनकी समस्याओं का समाधान जल्द मिल जाता। कुछ समय बाद, मुश्किल आने पर, भाई-बहन सीधे बहन फैंग के पास चले जाते। इससे मेरा उत्साह कम होने लगा। मैंने सोचा, "जब से वह आयी है, सब उसी की तरफ देखते हैं, अपनी समस्याएँ लेकर उसी के पास जाते हैं। क्या उन्हें लगता है कि वह मुझसे ज्यादा काबिल है? लेकिन टीम की अगुआ तो मैं हूँ! मैं उसे अपना स्थान नहीं लेने दे सकती, मुझे उस गौरव को वापस लेना होगा जिस पर मेरा हक है।"

एक बार, एक सभा से ठीक पहले, बहन वैंग ने जर्मन भाषा में एक दस्तावेज तैयार करके समूह में बाँट दिया, कहा कि कुछ भागों के लिए उन्होंने अनुवाद सॉफ़्टवेयर का प्रयोग किया है। वे चाहती थीं कि मैं और बहन फैंग सभा के बाद देखकर बतायें कि क्या उसमें कुछ त्रुटियाँ हैं। उसे पढ़ने के बाद मुझे अनुवाद में बहुत-सी समस्याएँ नज़र आयीं, तो मैंने सोचा, "यह मेरा मौक़ा है। बहन फैंग थोड़ा जर्मन जानती है, लेकिन मेरे जितना नहीं। अब मैं सबको दिखा दूँगी कि मैं उससे ज़्यादा काबिल हूँ।" इसलिए मैंने दस्तावेज बारीकी से देखा, उसमें बदलाव कर उसका फ़ारमैट बदल दिया। मुझे लगा जैसे ही भाई-बहन देखेंगे कि कैसे मैंने उसे बहुत स्पष्ट, सुसंगत बना दिया है, वे मेरी प्रतिभा ज़रूर समझेंगे। पूरी सभा ध्यान से सुनने के बजाय, मैं बस इसी दस्तावेज में लगी रही। सभा के बाद भी, मैंने पूरी शाम उसकी जांच और मिलान करने में खपा दी। उस पर नज़रें गड़ाये रहने के कारण मेरा सिर दुखने लगा और आँखें सूख गयीं, लेकिन जब मैंने सोचा कि भाई-बहन परदे के पीछे के मेरे काम को देखकर, फिर से मेरी सराहना करेंगे, तो मेरी थकान गायब हो गयी। मैंने अगले दिन वह दस्तावेज समूह को भेज दिया, लेकिन सब लोग जब नये आये हुए लोगों के सिंचन के मसलों पर चर्चा कर रहे थे, तो वे सब अस्पष्ट बिंदुओं के बारे में बहन फैंग से ही पूछ रहे थे। एक भी व्यक्ति ने अनुवाद दुरुस्त करने के लिए मेरा ज़िक्र तक नहीं किया। मुझे सच में बहुत हताशा हुई, मैंने सोचा, बहन फैंग के आने के बाद से मैं सिर्फ हाशिये में क्यों रह गयी हूँ। वह मुझसे कतई बेहतर नहीं है। मैं बिना कुछ बोले कंप्यूटर के पास बैठी रही, चर्चा में शामिल होने की मेरी ज़रा-भी इच्छा नहीं थी। मेरे मन में कर्तव्य छोड़ देने का भी ख़याल आने लगा। ठीक उसी पल, एक बहन ने अचानक मुझसे सवाल किया, मुझे उसका जवाब ही नहीं सूझा, क्योंकि मैं चर्चा पर ध्यान ही नहीं दे रही थी। मुझे कुछ न बोलता देख बहन फैंग ने अपनी राय पेश की, और सब लोग उससे सहमत हो गये। मैं शर्मिंदा हो गयी। मैंने जल्दी से दस्तावेज का वह भाग ढूँढ़ने की कोशिश की, फिर समझी कि वे उसके ज़्यादातर भाग पर संगति कर चुके थे, मगर मैंने ध्यान ही नहीं दिया था। उस वक्त मैंने दोषी महसूस किया। मैं सिंचन कार्य की टीम अगुआ थी, इसलिए सीखने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन मुझे करना चाहिए था, लोगों के काम में आयी समस्याओं के समाधान में मुझे मदद करनी चाहिए थी, मगर मैं हमेशा बहन फैंग से अपनी तुलना करती रहती थी, बस इसी की परवाह करती थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मैं लगन से अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। इस तरह के रवैये के साथ मैं अपना कर्तव्य ठीक ढंग से कैसे निभा सकती हूँ?

सभा के बाद, मैंने अपनी हालत पर सोच-विचार किया। जब से बहन फैंग हमारे काम से जुड़ी, सब लोग अपनी समस्याएँ लेकर उसी के पास जाने लगे, और मैं विरोधी हो गई, सोचने लगी कि अगुआई की मेरी भूमिका और गौरव छीन लिये गये हैं। मैंने सबके दिलों में अपनी जगह वापस हासिल करने की इच्छा से, दिखावा करने की पुरज़ोर कोशिश की। जब मुझे अपनी मनचाही चीज़ नहीं मिली, तो मानो मेरी ताकत ही खत्म हो गई, यहाँ तक कि मैंने काम छोड़ देना चाहा। क्या यह परमेश्वर के साथ धोखा नहीं होता? मैं सही हालत में नहीं हूँ, इस बात का एहसास करके मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे खुद को जान सकने का मार्गदर्शन माँगा। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, "जब लोग सत्य को नहीं समझते हैं या उसका अभ्यास नहीं करते हैं, तो वे अक्सर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बीच जीवन जीते हैं। वे विभिन्न प्रकार के शैतानी फंदों में रहते हैं, वे अपना दिमाग अपने भविष्य, दंभ, रुतबे और दूसरे स्वार्थों के लिये दौड़ाते हैं। लेकिन अगर तुम अपने कर्तव्य में, सत्य की खोज और अनुसरण करने में, यही रवैया अपनाते हो, तो तुम सत्य को हासिल कर पाओगे। ... अगर तुम हमेशा सत्य पर कड़ी मेहनत करते हो, अकसर परमेश्वर के सामने आते हो, अकसर सत्य की तलाश करते हो, तो तुम सत्य का फल प्राप्त करोगे, और तुम जिसे जियोगे, वह एक मानवीय सदृशता, सामान्य मानवता और सत्य-वास्तविकता होगी। अगर तुम अपने फायदे की विभिन्न चीजों के लिए अकसर योजना बनाते हो, उन पर चिंतन करते हो, उनके बारे में सोचने में समय बिताते हो, उन पर कड़ी मेहनत करते हो—यहाँ तक कि अपना जीवन तक दे देते हो—पूरी कीमत चुकाते हो, तो तुम लोगों का सम्मान प्राप्त कर सकते हो, और विभिन्न लाभ और विभिन्न प्रकार के दंभ प्राप्त कर सकते हो—लेकिन अधिक महत्वपूर्ण क्या है, ये चीजें या सत्य? (सत्य।) लोग इस संदेश को समझते हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और केवल अपने हितों और हैसियत को महत्व देते हैं। तो क्या वे वास्तव में इसे समझते हैं, या यह झूठी समझ है? वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे ऐसे मामलों को स्पष्ट रूप से नहीं देखते। जब वे इन्हें स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम होंगे, तो उन्होंने थोड़ा आध्यात्मिक कद प्राप्त कर लिया होगा। इसके लिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने, कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है; वे भ्रमित और लापरवाह नहीं हो सकते। जब एक दिन आएगा, जब परमेश्वर कहेगा कि उसने बोलना समाप्त कर दिया है, कि वह मानवजाति से और कुछ नहीं कहना चाहता, और कुछ नहीं करना चाहता, जब मनुष्य के कार्य का परीक्षण करने का समय आएगा, तब अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारा हटाया जाना तय है" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ना मेरे दिल को छूने वाला था। मैंने अपने हालिया बर्ताव के बारे में सोचा, वैसे देखने को तो मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, मगर हर पल मैं सिर्फ अपने हितों और रुतबे की रक्षा कर रही थी। जब मैंने देखा कि बहन फैंग क्षमता और काबिलियत में मुझसे आगे है, और टीम के दूसरे सदस्य उसके बारे में ऊंची राय रखते हैं, तो मुझे संकट का एहसास हुआ, मानो मेरा स्थान खतरे में हो। मैं उससे अपनी तुलना कर, चुपचाप उससे स्पर्धा करने लगी, चाहने लगी कि सब लोग काम में मुझे उससे बेहतर समझें। मैं बस सबकी सराहना वापस पाना चाहती थी। क्या मैं अपना कर्तव्य निभाने की आड़ में अपने रुतबे की रक्षा नहीं कर रही थी? परमेश्वर ने मुझे टीम अगुआ बनने के लिए ऊपर उठाया, ताकि मैं उसकी इच्छा की देखभाल करूं और कलीसिया के कार्य का मान बनाये रखूँ। यह इस आशा से भी था कि मैं इस मौके द्वारा समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग करना सीखूंगी, अपने कर्तव्य में सत्य का अभ्यास करूंगी, ताकि मेरा भ्रष्ट स्वभाव कुछ हद तक बदल सके। लेकिन मैं सत्य का ज़रा-भी अभ्यास नहीं कर रही थी। मैं बस शोहरत और फायदे की लड़ाई में फंस कर रह गयी थी, मैं बस इतना ही सोच रही थी कि बहन फैंग से कैसे आगे निकलूँ, और क्या भाई-बहन फिर से मेरी सराहना करेंगे। मैं अपने कर्तव्य को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर रही थी। जब मैं प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने में असफल रही, तो सब छोड़कर परमेश्वर को धोखा देने की सोचने लगी। यह परमेश्वर का विरोध करना था। इस मुकाम पर, मुझे थोड़ा डर लगा, मुझे एहसास हुआ कि मेरी आत्मा अँधेरे और पीड़ा में है, मैंने पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दिया है, क्योंकि मैं जो कुछ कर रही थी, उससे परमेश्वर को घृणा थी, इसलिए उसने मुझसे अपना मुख छिपा लिया था। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो वह मुझे हटा देगा। जब मुझे इन सबका एहसास हुआ, तो मैंने जल्दी से परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, कहा, "हे परमेश्वर, मैं सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए बोलना और काम करना नहीं चाहती, मगर मैं खुद को रोक नहीं पा रही। मुझे रास्ता दिखाओ ताकि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूं।"

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, इससे मैं समझ पायी कि इन सबको कैसे छोड़ा जा सकता है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो और परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? इस तरह के लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा का ख्याल करता, और अपने हर काम में उसकी जांच स्वीकार करता है, उसी के दिल में परमेश्वर का वास होता है, वह अपनी शोहरत, रुतबे और निजी हितों को छोड़ पाता है, और हर चीज़ में परमेश्वर के हितों का ख़याल रखता है, पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभाता है। ऐसा ही इंसान परमेश्वर को आनंद देता है। सच में इस बारे में सोचूँ, तो सत्य के बारे में बहन फैंग की संगति बहुत स्पष्ट थी और वह समस्याएँ सुलझा सकती थी, उसके सुझावों से हमारे काम को मेरे मुकाबले ज़्यादा लाभ हुआ। यह कलीसिया के कार्य और हमारे भाई-बहनों के जीवन के लिए सचमुच फायदेमंद था। अगर दूसरे लोग बहन फैंग की मदद मुझसे ज़्यादा लेते हैं, तो यह हमारे काम के लिए अच्छा है, ताकि सब लोग साथ मिलकर सीखें और बढ़ें। यह अच्छी बात थी। लेकिन इस पर विचार करने के बजाय, मैंने सिर्फ अपने हितों और अपने स्थान की ही परवाह की। दूसरे लोगों को बहन फैंग का आदर करते देख, मुझे लगा कि उसने मेरा स्थान चुरा लिया है, इसलिए मैं चुपचाप उससे होड़ करने लगी। क्या मैं परमेश्वर के घर के हितों में बाधा पहुंचाकर उसका नुकसान नहीं कर रही थी? यह सब स्पष्ट हो जाने पर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने वाकई खुद से नफ़रत करने लगी, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहा। इसके बाद, मैंने शोहरत और रुतबे को छोड़ देने की दिल से कोशिश की, जब हम संगति और अध्ययन करते होते, तो मैंने उससे बेहतर लगने के लिए दिखावा करने के बारे में सोचना बंद कर दिया। इसके बजाय, मैंने परमेश्वर के सामने शांत होने और प्रभावशाली ढंग से संगति करने के बारे में सोचने पर ध्यान दिया। जब मैं भाई-बहनों को अपनी समस्याएँ लेकर बहन फैंग के पास जाते देखती तो अब मैं इसे उचित ढंग से संभाल पाती। मैंने महसूस किया कि अगर समस्या सुलझ जाए, तो वे किसी से भी पूछें, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जब अपने कर्तव्य में मुझे कोई दिक्कत पेश आती, तो मैं भी उससे पूछने चली जाती, और उसकी बात सुनती। ऐसा करके मुझे पहले से ज़्यादा सुकून मिला, मेरे कर्तव्य में मुझे पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिला, जिससे कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद मिली। नतीजतन टीम के काम में सुधार हुआ। मार्गदर्शन के लिए मैंने परमेश्वर का आभार माना।

इस अनुभव के बाद, मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्ञान हासिल कर लिया है, कुछ हद तक बदल गयी हूँ, लेकिन बाद में कुछ ऐसा घटा जिससे मैं और ज़्यादा गहराई से विचार करके खुद को समझ पायी। एक दोपहर एक अगुआ ने मुझे एक संदेश भेजा, कहा कि वे चाहती हैं कि एक काम जल्द पूरा करने के लिए बहन फैंग मेरे साथ काम करे। यह जानकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। इस काम के लिए हमेशा से मैं ही ज़िम्मेदार थी, तो अचानक बहन फैंग को इस काम में शामिल करने से मुझे लगा मानो अगुआ उसे मुझसे बेहतर मानती हैं, जैसे बहन फैंग कार्यक्षमता सुधारने में मेरी मदद करेगी। फिर अगर वह काम अच्छा हुआ, तो बहन फैंग के प्रयास पर ध्यान ज़रूर जाएगा। मैं जानती थी कि वह कुशल और स्मार्ट है, उसकी काबिलियत और कार्यक्षमता दोनों मुझसे बेहतर हैं, साथ ही दूसरे सभी उसे पसंद करते हैं। ऐसा लगा मानो एक संकट आने वाला है। अगर अगुआ ने देखा कि बहन फैंग ने मुझसे बेहतर काम किया है, तो क्या वे मेरी जगह उसे टीम अगुआ बना देंगी? यह विचार आते ही बेचैनी से मेरा सीना कसने लगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं रुतबे के लिए बहन फैंग के साथ फिर से होड़ लगा रही हूँ, लेकिन जब मैंने सोचा कि वो मेरी जगह ले लेगी, तो मैं वाकई बहुत परेशान हो गयी, अपना पद खोने से डरने लगी। मैंने सोचा, "मुझे तुरंत अगुआ को यह सबूत देना होगा कि मैं उस काम में सक्षम हूँ।" इसलिए, मैंने काम को दो हिस्सों में बाँट दिया, ताकि दोनों आधा-आधा संभाल सकें। इस तरह से अगुआ देख पायेंगी कि किसने क्या किया है, यह स्पष्ट हो जाएगा कि किसने ज़्यादा हासिल किया है। इस तरह, जिस होड़ की भावना को मैं दूर नहीं कर पायी थी, उसने फिर से सिर उठा लिया।

काम बाँटते समय मैंने बहन फैंग को विस्तार से नहीं बताया, मैं अपना ज्ञान उसके साथ बांटना नहीं चाहती थी। मुझे डर था कि वह तेज़ी से समझ जाएगी। मैंने सिर्फ उसे काम बांटने के बारे में एक औपचारिक संदेश भेज दिया, फिर हम अलग-अलग काम करने लगे। अगले कुछ दिन तक मैंने बिना रुके उस परियोजना पर काम किया, यह सोचकर कि अगर मैंने यह काम जल्दी और ठीक से किया, तो अगुआ सोचेंगी कि मैं बहन फैंग से ज़्यादा योग्य और सक्षम हूँ। फिर मुझे उनकी स्वीकृति मिल जाएगी और मेरा पद सुरक्षित रहेगा। इस दौरान, जब भाई-बहनों को अपने काम में मदद की ज़रूरत होती, तो मैं समय निकालने की भरसक कोशिश करती, मुझे लगता कि मैं जितने ज़्यादा काम करूंगी, उतना ही अपना महत्त्व साबित कर बता पाऊँगी कि मैं सब-कुछ कर सकती हूँ। मुझे लगा फिर मेरी जगह निश्चित हो जाएगी। पिछड़ने के डर से, मैंने बहन फैंग की प्रगति पर भी नज़र रखी, मुझे कभी भी अपने कर्तव्य में शांति नहीं मिली, बल्कि मुझे और ज़्यादा बेचैनी हुई। मुझे सामने आ रही समस्याओं की गहरी समझ नहीं थी, इसलिए मेरी प्रगति बहुत धीमी थी। मैं बस शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रही थी। अगर अगुआ ने मामला नहीं समझा होता, तो मैंने खुद पर सोच-विचार नहीं किया होता। एक हफ्ते बाद, कोई प्रगति न देखकर अगुआ ने मुझसे काम की स्थिति के बारे में पूछा और जानना चाहा कि हमारा सहयोग कैसा चल रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि मेरा कोई भी काम ठीक से नहीं हुआ है, और मुझसे पूछा कि मैं किस चीज़ पर काम कर रही हूँ। मैंने कुछ बहाने बनाये, कहा कि मैंने अपने समय का प्रबंध ढंग से नहीं किया और काम मुश्किल है। दरअसल, मैं जानती थी कि मेरे शोहरत और फायदे के पीछे भागने के कारण ही, मैं बहन फैंग के साथ ढंग से काम नहीं कर रही थी, मेरा मन सही जगह पर नहीं था। इसीलिए मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन खो दिया था। मुझे बहाने बनाते देखकर अपना काम सही क्रम में न करने के लिए अगुआ ने मेरा निपटान किया, मुझसे मेरी हालत के बारे में पूछा। हाल में मैंने जो प्रकट किया था, मैंने उन्हें बता दिया।

उन्होंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर मुझे सुनाया, शोहरत और लाभ की लड़ाई की प्रकृति और जड़ के बारे में संगति कर उनका विश्लेषण किया। इससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, "जब भी मसीह-विरोधी किस्म के लोग किसी समूह में होते हैं, तो जो सबसे पहला काम वे करते हैं, वह है लोगों का विश्वास और प्रशंसा हासिल करना, और अधिक लोगों से अपनी सराहना करवाना, अपना आदर करवाना और अपनी आराधना करवाना, ताकि वे पूरी शक्ति अपने हाथ में लेने और समूह में अपनी बात मनवाने का अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकें। ... वे रुतबा प्राप्त करने और समूह में प्रमुख होने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं, वे ऐसे किसी भी व्यक्ति या कारक को नहीं छोड़ते जो उनके रुतबे के लिए खतरा हो। बेशक, मसीह-विरोधी इसे प्राप्त करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं। जो कोई भी मुखर होता है, जो तार्किक रूप से सही, क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित तरीके से बोलता है, वह उनकी ईर्ष्या का पात्र बन जाता है, नकल का लक्ष्य बन जाता है, और इतना ही नहीं, उनकी प्रतिस्पर्धा का लक्ष्य भी बन जाता है। जो सत्य का अनुसरण करते हैं और दृढ़ विश्वास रखते हैं, जो अकसर भाई-बहनों की मदद और समर्थन करते हैं, उन्हें नकारात्मकता और कमजोरी से बाहर निकालते हैं, वे भी उनकी प्रतिस्पर्धा के निशाने पर आ जाते हैं। जो कोई भी किसी कार्य-विशेष में निपुण होता है, और जिसे भाई-बहन थोड़े सम्मान से देखते हैं, वह भी उनकी प्रतिस्पर्धा का लक्ष्य बन जाता है। जिनका कार्य फलदायी होता है और जिनकी प्रशंसा ऊपर वाला भी करता है, वे तो और भी अधिक उनकी प्रतिस्पर्धा के लक्ष्य बनते हैं। और किसी भी समूह में उनका तकियाकलाम क्या होता है? ऐसे लोग जरूरी नहीं कि सर्वोच्च पद प्राप्त करना चाहते हों; बात सिर्फ यह है कि उनका एक खास स्वभाव, एक खास मानसिकता होती है, जो उन्हें ये काम करने के लिए उकसाती है। वह मानसिकता क्या है? वह यह है, 'मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए!' 'प्रतिस्पर्धा' : यही उनका स्वभाव होता है। उनका स्वभाव ऐसा है कि उसे कोई रोक नहीं सकता। उसे कोई नियंत्रित नहीं कर सकता, यहाँ तक कि वे स्वयं भी नियंत्रित नहीं कर सकते; बस उन्हें प्रतिस्पर्धा करनी है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। इन हालात के बारे में यह अंश जो प्रकट करता है उस पर मैंने गौर किया। यह मेरी हालिया हालत का सटीक वर्णन करता है। अपने कर्तव्य में हमेशा मेरी चाह थी कि दूसरे मेरा आदर करें और मेरा एक ख़ास रुतबा हो। जब मुझे लगा कि बहन फैंग मेरा स्थान ले सकती है, तो मैं उससे दुश्मन जैसी पेश आयी, चुपचाप उसके खिलाफ हो गयी ताकि मेरा पद बना रहे। हममें से कौन बेहतर है, यह देखने के लिए मैंने काम बाँटना चाहा, भाई-बहनों की समस्याओं में मदद करके, यह दिखाना चाहा कि मैं उससे ज़्यादा समर्पित हूँ, कि मैं सत्य और कामकाज को बेहतर समझती हूँ, इस उम्मीद से कि सब मुझे एक सशक्त, और काबिल टीम सदस्य के रूप में देखेंगे, ताकि मेरा पद मज़बूत हो जाए। मैं दिखावे के प्रति आसक्त थी, हर मोड़ पर उससे खुद की तुलना की। क्या यह परमेश्वर द्वारा प्रकाशित मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं था? जब मैंने इस बारे में सोचा, तो समझ सकी कि अगुआ इसलिए चाहती थीं कि हम दोनों साथ काम करें, ताकि हम अधिक सक्षम हो सकें और परियोजना जल्दी ख़त्म कर लें। लेकिन तुच्छ चालों के फेर में, मैं अपना काम करके अपनी जगह पक्की करना चाहती थी, कलीसिया का कार्य तो मेरे मन में आया ही नहीं। मैं परमेश्वर के आदेश में अपना मन नहीं लगा रही थी, इसके बजाय मैं खुद को अच्छा दिखाने के सिवाय किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रही थी। मैं बहन फैंग के खिलाफ चालें चलकर काम कर रही थी ताकि मेरा स्थान सुरक्षित रहे, इससे हमारा काम पिछड़ गया। यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे था? ज़ाहिर तौर पर मैं शैतान की सेवा कर रही थी, कलीसिया के कार्य को बिगाड़ रही थी!

मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश भी पढ़े। "अगर तुम रुतबे और प्रतिष्ठा की इच्छा से ग्रस्त हो, अगर तुम वास्तव में उन्हें सँजोकर रखते हो, तुम्हें उनसे गहरा लगाव है, तुम उन्हें छोड़ना सहन नहीं कर सकते, अगर तुम्हें हमेशा यह लगता है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के बिना जीने में कोई खुशी या आशा नहीं है, कि तुम्हें अपना पूरा जीवन रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए ही जीना चाहिए, कि तुम्हें इन्हीं दो चीजों से संचालित होना चाहिए, कि भले ही तुम अंततः अपने लक्ष्य प्राप्त न कर पाओ, लेकिन तुम उन्हें पूरी तरह से त्याग नहीं सकते, और उम्मीद की आखिरी किरण तक भी तुम्हें उन्हें दृढ़ता से थामे रहना चाहिए—अगर तुम्हारे विचार ऐसे हैं, तो फिर तुम जो भी अभ्यास करते हो, उसके संदर्भ में तुम खुद से बहुत अधिक अपेक्षा नहीं कर सकते, और तुम्हारा अपने अभ्यास के प्रति उदासीन हो जाना संभावित है। ... रुतबे के पीछे इस तरह भागने से परमेश्वर के एक स्वीकार्य प्राणी बनने की तुम्हारी योग्यता पर भी असर पड़ता है, और बेशक एक स्वीकार्य मानक के अनुसार काम करने की तुम्हारी क्षमता भी प्रभावित होती है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? लोगों के रुतबे के पीछे भागने से अधिक घृणास्पद परमेश्वर के लिए कुछ नहीं है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना भ्रष्ट स्वभाव है; यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, और परमेश्वर की दृष्टि में यह मौजूद नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर ने इसे मनुष्य को देना नियत नहीं किया था। अगर तुम हमेशा रुतबे के लिए ही प्रतिस्पर्धा और संघर्ष करते रहते हो, अगर तुम इसे लगातार सँजोते हो, अगर तुम हमेशा इस पर अपना कब्जा करना चाहते हो, तो क्या यह परमेश्वर के विरोध की प्रकृति रखना नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है, और परमेश्वर इसकी प्रशंसा नहीं करता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने के संघर्ष में नाकाम रहोगे, और अगर तुम संघर्ष करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : मृत्यु! यही अंधी गली है—तुम इस बात को समझ रहे हो न?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर मैं भयभीत हो गयी। मैं अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी, बल्कि खुद की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रही थी। मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर थी। मैंने सोचा, आखिर मेरा ध्यान इन चीज़ों के पीछे भागने में क्यों लगा हुआ है? ऐसा शैतान की भ्रष्टता के कारण था। बचपन से ही, मैंने ऐसी बातें सुनी थीं जैसे, "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," और "कोई भी वीर सिपाही जनरल बनने का सपना देखता है।" शैतान के इस ज़हर से भरे होने के कारण मुझे लगता था कि अगर मैं औसत दर्जे से खुश हूँ, तो मैं बेकार हूँ। चाहती थी कि मैं हर जगह सबसे ऊपर ही रहूँ, वरना मेरा कोई मूल्य नहीं होगा। एक व्यक्ति के रूप में यह मेरी बुनियाद बन चुका था। एक विश्वासी बनने के बाद भी मैं इन शैतानी फलसफों पर जीने से खुद को रोक नहीं पा रही थी। अपने से बेहतर इंसान का मुझे विरोध करना ही होता था, खुद को साबित करने की हर चाल सोचनी थी। मैं लोगों के दिलों में जगह चाहती थी ताकि सब मेरे इर्द-गिर्द जमा हों और मुझे आदर से देखें। मुझे लगता कि इसका अर्थ मेरा योग्य होना है। इस प्रकार के नज़रिये और अनुसरण से, मैं एक सृजित प्राणी के स्थान से अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी, बल्कि इसके बजाय मैं रुतबे के लिए परमेश्वर से होड़ करते हुए कर्तव्य निभाने का दिखावा कर रही थी। मैं परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर रही थी, उसका विरोध कर रही थी! मैं जानती थी कि अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो देर-सवेर परमेश्वर मुझे हटा देगा। इस विचार ने मुझे सचमुच भयभीत कर दिया। मैं समझ गयी कि मैं बहुत ही खतरनाक मार्ग पर हूँ। मैंने उसी पल परमेश्वर से प्रार्थना की और प्रायश्चित किया। चाहे मैं टीम अगुआ के रूप में सेवा कर सकूं या नहीं, चाहे बहन फैंग मेरा स्थान ले ले, मैं समर्पण के लिए तैयार थी। मैं सोचा करती थी कि यह बस थोड़ी-सी भ्रष्टता दिखाना है, इसलिए मैंने इसे ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से, मुझे एहसास हुआ कि यह कितना खतरनाक है, तब मुझमें इस भ्रष्टता को दूर करने की सच्ची इच्छा जागी। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ना शुरू किया जो ऐसी चीजें चाहने वालों को उजागर करते हैं। एक ख़ास अंश था जिसने मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा, जिससे मैं एक मार्ग ढूंढ़ पायी। "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने सच में मेरे दिल में उजाला भर दिया, उसकी इच्छा समझने में मेरी मदद की। एक सृजित प्राणी को कोई महान इंसान, या विशिष्ट बनने के पीछे नहीं भागना चाहिए। हमें परमेश्वर के एक सृजित प्राणी के स्थान पर रहना चाहिए, उसके द्वारा सौंपा गया काम निरंतर करते रहना चाहिए। यही सही और एकमात्र ऐसा अनुसरण है, जिसकी परमेश्वर स्वीकृति देता है।

इसके बाद जब मेरे मन में शोहरत और लाभ के लिए लड़ने की इच्छा फिर से जागती, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने और अपने हित त्यागने का प्रयास करती, बहन फैंग के पास जाकर अपने कर्तव्य के मसलों पर चर्चा करती। जब मैं उसके साथ सच में खुल गयी, तो मैंने पाया कि काम करने के बारे में उसके पास बहुत-से अच्छे विचार हैं, मिल-जुलकर सोच-विचार करने से बहुत कम समय में ही काम का खाका तैयार हो गया। बहन फैंग ने मेरे साथ उसके अनुभव का सारांश भी साझा किया, ताकि मैं अपनी कार्यक्षमता सुधार सकूं। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई, साथ ही उसने मेरा दिल भी छुआ। अपने साथ ऐसा साथी होना मेरे लिए एक बड़ा सहारा था, पहले इतनी अंधी होने, सिर्फ शोहरत और फायदे के लिए लड़ने, और सत्य हासिल करने के इतने मौके गँवा देने के लिए मैंने खुद को कोसा। इसके बाद मैंने यह फिक्र छोड़ दी कि मेरी जगह बहन फैंग टीम अगुआ बन जाएगी। मैं अपने काम में पहले से कहीं ज़्यादा बेफिक्र और अधिक सक्षम हो गयी। जब हम एक टीम की तरह काम करने लगे तो मुझे पता ही नहीं चला कि कब हमारी परियोजना पूरी हो गई। इस सबसे गुज़रने के बाद, मुझे सच में लगा कि परमेश्वर मेरे साथ है, उसने मुझे शुद्ध करने और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए अनेक परिवेश बनाए। उसने अपने वचनों से मेरा न्याय कर, मुझे उजागर और प्रबुद्ध किया, मेरा मार्गदर्शन किया, मुझे थोड़ा आत्मज्ञान हासिल करने दिया। मैं परमेश्वर के प्रति आभार की भावना से भर गयी, मैंने उसे संतुष्ट करने और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने की ठान ली।

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