परमेश्वर को लेकर मेरी गलतफहमियाँ आखिर दूर हो गईं

05 फ़रवरी, 2023

2019 में, मैं कलीसिया अगुआ थी। अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करने, नाम और रुतबे के पीछे भागने, अपनी साथी से ईर्ष्या करने, उसका सहयोग न करने, और साथ मिलकर काम न करने के कारण हमारे काम पर बहुत बुरा असर पड़ा। अगुआ ने मेरा निपटान किया, कई बार मेरी मदद करने की कोशिश की, पर मैंने नहीं स्वीकारा। आखिर में, मुझे बर्खास्त कर दिया गया। अपना कर्तव्य खोकर मुझे बहुत दुख हुआ। नाम और रुतबे के पीछे भागने के कारण मुझे पहले भी बर्खास्त किया जा चुका था, और वही समस्या दोबारा उभर आई। मैंने देखा कि मैं शोहरत और रुतबे की बहुत परवाह करती थी, मैंने कलीसिया के कार्य में लगातार बाधा डाली। शायद मैं अगुआ के पद के लायक बिल्कुल भी नहीं थी।

कुछ महीनों बाद कलीसिया अगुआ का चुनाव शुरू हुआ। एक दिन एक बहन ने कहा : "मैं आपको वोट करना चाहती हूँ।" यह सुनकर मैं घबरा गयी। पहले जब मैं अगुआ थी, तो नाम और रुतबे के पीछे भागती थी, मैंने बहुत-से कुकर्म किये, और कलीसिया के कार्य में बाधा डाली। नाम और रुतबा मेरी दुखती रग थी, तो अगर मुझे दोबारा अगुआ बनाया गया और मैं फिर से शोहरत और रुतबे के पीछे भागने लगी, कलीसिया के कार्य में फिर से रुकावट डाली, तो क्या होगा? अगर मेरे कुकर्म बढ़ते ही रहे, तो क्या मुझे दंडित करके निकाल नहीं दिया जाएगा? यह सोचकर, मैंने उन्हें जवाब दिया, "आप मुझे जाने बगैर वोट देना चाहती हैं। आपको वोट को लेकर जिम्मेदार रहना चाहिए। सिद्धांतों के खिलाफ किसी को वोट देने से अगर कोई गलत इंसान अगुआ चुना गया, तो यह कुकर्म होगा।" मुझे लगा कि अगुआ या कार्यकर्ता न होना मेरे लिए बेहतर होगा। मेरे मौजूदा कर्तव्य में मेरी जिम्मेदारियाँ कम थीं, ऐसे में कोई गलती हो भी जाती, तो कलीसिया के कार्य को ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचता था। पर अगुआ होना अलग बात है। एक भी गलती कलीसिया के पूरे कार्य पर असर डाल सकती है, जिससे कलीसिया के सभी भाई-बहनों का नुकसान होगा। यह बहुत बड़ा कुकर्म है। चाहे जो हो जाए, मैं अगुआ नहीं बनना चाहती थी। एक बार एक सभा में, किसी बहन ने कलीसिया के चुनाव पर मेरी राय माँगी। ऐसा लगा जैसे वो मुझे वोट करना चाहती थीं। मैंने फौरन उन्हें समझाया, "मैं सत्य नहीं खोजती, और जीवन में प्रवेश की भी कमी है। अगुआ रहते हुए नाम और रुतबे की चाह रखकर कलीसिया के कार्य में बाधक बन चुकी हूँ।" मैंने पहले प्रकट की गई अपनी भ्रष्टता, कमियों और गलतियों के बारे में भी सब कुछ खुलकर बताया, ताकि उन्हें लगे कि मैं अगुआ पद के लिए सही नहीं हूँ।

इसके बाद मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया। मैं हमेशा यही क्यों जताती रहती थी कि मैं अगुआ बनने लायक नहीं हूँ? मैंने चुनाव को लेकर समर्पण का रवैया क्यों नहीं रखा? अपने भक्ति-कार्य में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "दरअसल, लोगों को यह नहीं मानना चाहिए कि आस्था सिर्फ यह विश्वास है कि परमेश्वर है, और वह सत्य, मार्ग और जीवन है, और कुछ नहीं। आस्था न तो सिर्फ तुमसे यह मनवाने के लिए है कि तुम परमेश्वर को स्वीकार करो और यह विश्वास करो कि परमेश्वर सभी चीजों का शासक है, वह सर्वशक्तिमान है, उसने दुनिया में सभी चीजें बनाई हैं, और वह अद्वितीय और सर्वोच्च है। आस्था वास्तव में सिर्फ विश्वास का विषय नहीं है। परमेश्वर की इच्छा यह है कि तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व और तुम्हारा दिल उसे दिया और समर्पित किया जाना चाहिए—अर्थात् तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर को अपना इस्तेमाल करने देना चाहिए और उसकी सेवा करके खुश होना चाहिए; तुम्हें उसके लिए जो भी तुम कर सको, वह करना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अंदर तक हिला दिया, मुझे एहसास हुआ सच्ची आस्था रखकर, परमेश्वर का अनुसरण करने वाला उसेअपना दिल देकर उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है, खुशी से उसकी सेवा कर सकता है। वह कोई भी कर्तव्य निभाये या परमेश्वर उसके साथ कैसा भी बर्ताव करे, वह इसे बिना शर्त स्वीकार कर समर्पित होगा, कोई निजी पसंद या मांग नहीं रखेगा। यही सही विवेक और समझ है। भले ही मुझमें आस्था थी और मैंने कर्तव्य निभाया, मगर मैंने परमेश्वर के प्रति समर्पण किये बिना हमेशा कर्तव्य में अपनी पसंद और माँगें रखी। मुझे लगता था अगुआओं के पास ज्यादा काम होता है, तो वे जल्दी उजागर किये जा सकते हैं, कोई गलती करने या कलीसिया के कार्य में बाधा डालने पर उनका भविष्य खतरे में आ जाता है, इसलिए मैं अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बनना चाहती थी। मैंने कलीसिया के चुनाव से बचने की हर मुमकिन कोशिश की, जानबूझकर सबके सामने अपनी समस्याओं और कमियों के बारे में बात की ताकि मुझे अगुआ न चुना जाये। फिर एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर से सतर्क रहकर, उसे गलत समझ रही थी, उसकी अवज्ञा कर रही थी। मैंने परमेश्वर के आदेश को लेकर नूह के रवैये के बारे में सोचा। जब परमेश्वर ने उसे जहाज बनाने का आदेश दिया, तो उसने अपने निजी फायदे या नुकसान के बारे में नहीं सोचा, न ही ये सोचा कि परमेश्वर उसे बाढ़ से बचने के लिए जहाज का इस्तेमाल करने देगा भी या नहीं। उसने परमेश्वर के आदेश के अनुसार खुद को जहाज बनाने में झोंक दिया। नूह सच में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील था, पर मैंने सिर्फ अपने भविष्य और भाग्य की खातिर आस्था रखी और कर्तव्य निभाया। मैं हमेशा आशीष पाने के बारे में सोचती थी। मैंने कभी परमेश्वर की इच्छा या कलीसिया के कार्य पर ध्यान नहीं दिया। मैं वही कर्तव्य निभाना चाहती थी जिसमें ज्यादा जिम्मेदारी न उठानी पड़े। जिन कर्तव्यों में त्याग करना या जिम्मेदारी उठानी होती तो मैं कुछ भी करके बच निकलती। परमेश्वर की इच्छा या अपेक्षाओं का ख्याल रखे बिना, मैं सिर्फ उससे आशीष पाना चाहती थी। यह कैसी आस्था थी? मैं परमेश्वर का इस्तेमाल कर उसे धोखा दे रही थी। मेरे मन में कोई समर्पण या निष्ठा नहीं थी। यह एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, कर्तव्य निभाने के पीछे की मेरी मंशा सही नहीं है, मैं सत्य खोजना या आज्ञापालन करना नहीं, बल्कि अच्छी मंजिल पाना चाहती हूँ, मुझे तुम्हारी इच्छा की कोई परवाह नहीं है। परमेश्वर, मैं तुम्हें इस तरह धोखा नहीं देना चाहती। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मुझे कोई भी कर्तव्य सौंपा जाए, मैं उसे स्वीकार कर समर्पण करूँगी।"

चुनाव में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मैं जानती थी फिर से अगुआ का कर्तव्य निभाने का मौका मिलना परमेश्वर का अनुग्रह था, पर मुझे कुछ बातों की चिंता थी। कलीसिया अगुआ होने के नाते, अगर मैं पहले की तरह नाम और रुतबे के पीछे भागती रही और कलीसिया के कार्य में बाधक बनी, तो क्या मुझे उजागर करके निकाल दिया जाएगा? मैं अभी भी अगुआ बनने को तैयार नहीं थी, पर इस कर्तव्य को ठुकराना परमेश्वर का अनादर होता। तो मैंने न चाहते हुए समर्पण कर दिया।

जल्दी ही, बहुत-से नए सदस्य कलीसिया से जुड़ने लगे, तो हमें सिंचन कार्य के लिए एक समूह अगुआ की जरूरत पड़ी। भाई-बहनों ने कुछ उम्मीदवारों के नाम सुझाये। मेरी साथी दूसरे कार्यों में व्यस्त थी, तो उसने मुझे संभावित उम्मीदवारों के आकलनों की समीक्षा करने को कहा। मैंने सोचा, "अगर मैं पहले समीक्षा करूँगी, तो पहले राय भी मुझे ही देनी होगी। अगर मुझसे कोई गलती हुई और मैंने कोई गलत उम्मीदवार चुन लिया, तो इससे सिंचन कार्य रुक जाएगा न? हालाँकि मैं इस बारे में अपनी साथी से चर्चा करके ही फैसला करूँगी, पर पहले अपनी राय देने के कारण, मुझे ही जवाबदेह ठहराया जाएगा। अगर मेरे अपराध बढ़ते ही गए, तो मेरा परिणाम या मंजिल अच्छी नहीं होगी।" इस ख्याल से डरकर मैं पहले अपनी राय नहीं देना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ मेरी मनोदशा ठीक नहीं थी, परमेश्वर से सतर्क रहकर मैं उसे गलत समझ रही थी, पर मैं इससे मुक्त नहीं हो पाई। फिर मैंने भाई-बहनों को सब बताकर उनसे संगति करने को कहा। एक बहन ने कहा, "अगर आप अपनी समस्या हल करना चाहती हैं, तो आपको सोचना होगा कि यह कौन-सी गलत धारणा का नतीजा है।" इससे मुझे समस्या को समझने का मार्ग मिल गया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, इससे जुड़े परमेश्वर के वचन भी पढ़े।

एक दिन, मैंने ईश-वचनों के ये अंश पढ़े। "कुछ लोग कुछ वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, फिर भी थोड़ा-सा भी सत्य नहीं समझते। चीजों के बारे में उनका दृष्टिकोण अविश्वासियों जैसा ही होता है। जब वे किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी को उजागर कर बाहर निकाले जाते देखते हैं, तो सोचते हैं, 'परमेश्वर पर विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर के सामने रहना—यह सब तलवार की धार पर चलना है! यह चाकू की नोंक पर जीने जैसा है!' और दूसरे कहते हैं, 'परमेश्वर की सेवा करना—"राजा की संगत में रहना बाघ की संगत में रहने के समान है", कहावत जैसा है। एक गलत शब्द बोला नहीं, एक गलत काम किया नहीं कि तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे, और तुम्हें निकाल दिया जाएगा और दंडित किया जाएगा!' क्या ये टिप्पणियाँ सही हैं? 'तलवार की धार पर चलना' और 'चाकू की नोंक पर जीना'—इनका क्या मतलब है? इनका मतलब है बड़ा खतरा, कि हर पल एक बड़ा खतरा है, कि थोड़ी-सी भी लापरवाही से इंसान अपना आधार खो देगा। 'राजा की संगत में रहना बाघ की संगत में रहने के समान है' अविश्वासियों के बीच एक आम कहावत है। इसका मतलब है कि दानवों के राजा के पास रहना बहुत खतरनाक है। अगर कोई इस कहावत को परमेश्वर की सेवा करने पर लागू करता है, तो वह क्या गलती करता है? दानवों के राजा की तुलना परमेश्वर से, सृष्टि के प्रभु से करना—क्या यह परमेश्वर की निंदा नहीं है? यह एक गंभीर समस्या है। परमेश्वर एक धार्मिक और पवित्र परमेश्वर है; परमेश्वर का विरोध करने या उससे शत्रुता रखने के लिए मनुष्य को दंडित किया जाना चाहिए, यह स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है। दानव शैतान में लेशमात्र भी सत्य नहीं है; वह गंदा और दुष्ट है, निर्दोष की हत्या करता है और अच्छे को निगल जाता है। उसकी तुलना परमेश्वर से कैसे की जा सकती है? लोग तथ्यों को विकृत कर परमेश्वर को बदनाम क्यों करते हैं? यह उसकी घोर निंदा है! जब कुछ लोगों की, जो अक्सर नकारात्मक होते हैं और ईमानदारी से अपने कर्तव्य नहीं निभाते, काट-छाँट कर उनसे निपटा जाता है, तो वे चिंता करते हैं कि उन्हें निकाल दिया जाएगा, और वे अक्सर अपने मन में सोचते हैं, 'परमेश्वर पर विश्वास करना वाकई तलवार की धार पर चलना है! जैसे ही तुम कुछ गलत करते हो, तुमसे निपटा जाता है; जैसे ही तुम पर नकली अगुआ या मसीह-विरोधी का ठप्पा लगता है, तुम्हें बदल दिया जाता है और निकाल दिया जाता है। परमेश्वर के घर में, परमेश्वर का क्रोधित होना असामान्य नहीं है, और जब लोगों ने बुरे काम किए होते हैं, तो उन्हें एक झटके में निकाल दिया जाता है। परमेश्वर का घर उन्हें पछताने का भी मौका नहीं देता।' क्या हकीकत में वाकई ऐसा है? क्या परमेश्वर का घर लोगों को पश्‍चात्ताप करने का मौका नहीं देता? (यह गलत है।) उन दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों को केवल इसलिए बाहर निकाला जाता है, क्योंकि वे अपनी विविध बुराइयों के लिए काट-छाँट और निपटान से गुजर चुके होते हैं, फिर भी बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद वे अपने तौर-तरीके नहीं बदलते। उन लोगों के इस तरह सोचने में क्या समस्या है? वे बस अपने को सही ठहरा रहे होते हैं। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, न ही वे ठीक से सेवा प्रदान करते हैं, और चूँकि वे हटाए और निकाले जाने से डरते हैं, इसलिए वे कटुतापूर्वक शिकायत करते हैं और धारणाएँ फैलाते हैं। स्पष्ट रूप से, वे खराब मानवता के होते हैं, और अक्सर अपने काम में लापरवाह और अनमने, नकारात्मक और सुस्त होते हैं। वे उजागर कर निकाले जाने से डरते हैं, इसलिए सारा दोष कलीसिया और परमेश्वर पर डाल देते हैं। यहाँ कौन-सा अवगुण काम कर रहा है? वह अवगुण है परमेश्वर की आलोचना करने, उससे नाराज होने, उसका विरोध करने का। ये टिप्पणियाँ सबसे स्पष्ट भ्रांतियाँ और सबसे बेतुके दावे हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। "निष्कासित किए जाने के बाद, कुछ अगुआ और कर्मी यह कहकर धारणाएँ फैलाते हैं, 'अगुआ मत बनना, और रुतबा हासिल मत करना। रुतबा मिलते ही लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उन्हें उजागर कर देता है! उजागर होने के बाद, वे लोग साधारण विश्वासी की पात्रता भी नहीं रखते, और उन्हें फिर किसी भी तरह का आशीर्वाद नहीं मिलता।' वे लोग किस तरह की बातें करते हैं? ज़्यादा से ज़्यादा, यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी दर्शाती है; यह ईश-निंदा है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत को उजागर कर दिया। मैं इसी बेतुकी धारणा के साथ जीवन जी रही थी। मैं परमेश्वर को एक अधिपति समझ रही थी, मानो अगुआ होना तलवार की धार पर चलने जैसा हो। अगर किसी से छोटी सी गलती या भूल हो जाये, तो परमेश्वर उसे दंडित कर सकता है, उजागर करके निकाल सकता है। मैं इसी सोच के साथ जी रही थी, बर्खास्त किये जाने के बाद से ही परमेश्वर को गलत समझ रही थी। मुझे लगा अगुआ होने के नाते, तुम जितनी तरक्की करोगे उतनी जोर से गिरोगे, और इसी वजह से मुझे उजागर किया गया था। इसी गलत धारणा के कारण यह जानते हुए भी कि कलीसिया के कार्य को जिम्मेदारी उठाने वालों की सख्त जरूरत थी, मैं चुनाव से मुँह फेरती रही, मुझे अगुआ चुने जाने का डर था, क्योंकि मुझसे कोई गलती हो जाती, तो मेरा अंत अच्छा नहीं होता। जब मुझे अगुआ चुना गया, तब परमेश्वर के अनुग्रह की आभारी होने के बजाय, मुझे लगा मैं खाई के मुहाने पर खड़ी थी, तो मुझे बहुत ज्यादा सावधानी बरतनी होगी, मैं फिसल गई, तो शायद आस्था का अभ्यास करने का मौका खो बैठूंगी, बचाये जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। मैं हमेशा परमेश्वर से सतर्क रहती, कर्तव्य में कायरता दिखाती थी। जब सिंचन कार्य का समूह अगुआ चुनने का समय आया, तो मैंने इस डर से अपनी राय देने की हिम्मत नहीं की कि कहीं कुछ गलत कह दिया तो ठीकरा मेरे सिर फूटेगा। मैंने देखा कि मैं परमेश्वर को कितना गलत समझती थी। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, उसका स्वभाव पवित्र और धार्मिक है, वह लोगों से सिद्धांतों से पेश आता है। वह अगर किसी की निंदा करके उसे निकालता है, तो यह परमेश्वर और सत्य के प्रति उस इंसान के रवैये पर आधारित होता है। मैंने नीनवे के लोगों के बारे में सोचा। परमेश्वर को उनके कुकर्मों से नफरत थी, तो उसने उनका नाश करने का फैसला किया। मगर जब योना ने उन्हें परमेश्वर की कही बातें बतायी, तो उन्होंने राख मली, अपनी गलती मानी और पश्चात्ताप किया। उन्होंने अपने कुकर्मों का त्यागकर दुष्टता का मार्ग छोड़ दिया। उनका सच्चा पश्चात्ताप देखकर, परमेश्वर ने उनके प्रति अपना रवैया बदल लिया और उनका नाश नहीं किया। सदोम के निवासी भी इसी तरह दुष्टता से भरे थे, पर वे जिद्दी थे और पश्चात्ताप नहीं करना चाहते थे। उन्होंने परमेश्वर के भेजे दो दूतों को नुकसान पहुँचाना चाहा। वे परमेश्वर से नफरत और उसका घोर विरोध करते थे, तो उन्हें उसका शाप और दंड मिला। इन दो शहरों के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये से दिखता है कि कुकर्म और अपराध करने वाले लोग भी अगर सच्चा पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें एक मौका देता है। वहीं सत्य से नफरत, परमेश्वर का विरोध, और पश्चात्ताप न करने वालों को वो निंदित और दंडित करेगा। फिर मैंने मन-ही-मन सोचा, मैं अपने शैतानी स्वभाव के कारण कर्तव्य में लापरवाही कर रही थी, नाम और रुतबा चाहती थी, जिससे कलीसिया के कार्य में बाधा आई। परमेश्वर को मेरे बर्ताव से नफरत थी, इसलिए मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया, और बर्खास्त कर दी गई। मगर, परमेश्वर ने मुझे निकाला नहीं। चिंतन करने के बाद जब मैंने खुद को पहचाना, परमेश्वर से पश्चात्ताप किया, तो उसने मुझे अगुआ बनने का एक और मौका दिया ताकि मैं ठीक से अभ्यास कर पाऊँ, ज्यादा सत्य जान सकूँ, और तेजी से प्रगति करूँ। क्या यह मेरे लिए परमेश्वर की दया और प्रेम नहीं था? मगर मैं परमेश्वर के सच्चे इरादे नहीं समझ सकी। मैं हमेशा परमेश्वर पर संदेह करती रही, उससे सतर्क रहकर धूर्त और बुरी बन गई। मैंने सोचा अगुआ बनने से मुझे उजागर करके निकाल दिया जाएगा। मैं सच में परमेश्वर को नहीं समझती थी। परमेश्वर के प्रति मेरा रवैया देखें तो इसे आस्था कैसे कह सकते हैं? मैंने परमेश्वर को कलंकित किया, उसका तिरस्कार किया, उसके स्वभाव को नाराज किया!

मुझे ये ईश-वचन याद आये : "यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। इन वचनों पर विचार करके, मुझे एहसास हुआ कि मेरी प्रकृति कितनी धूर्त और बुरी थी। मैंने सिर्फ आशीष पाने के लिए आस्था रखी और परमेश्वर का अनुसरण किया। मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई सच्ची आस्था या प्रेम नहीं था—मैं बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। धूर्तता के कारण परमेश्वर से सतर्क रहकर उस पर संदेह करती थी, सोचती कि कोई गलती हुई, तो उजागर करके निकाल दी जाऊंगी। परमेश्वर ऐसी आस्था कतई स्वीकार नहीं करता। इससे परमेश्वर को घृणा और नफरत है। यह सोचकर, मैं बहुत दोषी और बेचैन महसूस करने लगी, मैं बस पश्चात्ताप करना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "एक बार जब शैतानी प्रकृति वाले लोगों को रुतबा मिल जाता है, तो वे खतरे में पड़ जाते हैं। तो क्या किया जाना चाहिए? क्या उनके पास कोई मार्ग नहीं है जिस पर वे चल सकें? एक बार उस खतरनाक स्थिति में पड़ जाने के बाद क्या उनके लिए वापसी का कोई मार्ग नहीं रहता? मुझे बताओ, जैसे ही भ्रष्ट लोगों को रुतबा हासिल होता है—चाहे वे कोई भी हों—तो क्या वे मसीह विरोधी बन जाते हैं? क्या यह परम सत्य है? (अगर वे सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे मसीह विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य की खोज करते हैं, तो वे मसीह विरोधी नहीं बनेंगे।) यह पूरी तरह से सही है : यदि लोग सत्य का अनुसरण न करें, तो वे यकीनन मसीह-विरोधी बन जाएँगे। तो क्या जो लोग मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं, क्या वे ऐसा रुतबे के कारण करते हैं? नहीं, वे ऐसा मुख्यत: सत्य से प्रेम न होने के कारण करते हैं, क्योंकि वे लोग सही नहीं होते। लोगों के पास रुतबा हो या न हो, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं। उन्होंने चाहे जितने भी उपदेश सुने हों, ऐसे लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे सही मार्ग पर नहीं चलते, इसलिए अनिवार्यत: गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। यह उसी तरह है जैसे कि लोग खाना खाते हैं: कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते जो उनके शरीर को पोषण दे सके और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सके, बल्कि वे ऐसी चीज़ों का सेवन करते हैं जो उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं, अंत में, वे खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। क्या लोग इस विकल्प को खुद ही नहीं चुनते हैं?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि अगुआ या कार्यकर्ता बनने पर किसी को उजागर करके निकाला नहीं जाता, और रुतबा होने से निंदा या दंड मिलने की संभावना बढ़ती नहीं है। किसी को उसकी आस्था में बचाया जाएगा या निकाला जाएगा यह सिर्फ सत्य की खोज और उसके चुने गए मार्ग पर निर्भर करता है। अगर कोई सच में सत्य से प्रेम करता है, तो वह सत्य की खोज पर ध्यान देगा, अगुआ या कार्यकर्ता बनकर सिद्धांत पर चलेगा। अपराध करने पर, अगर वह आत्मचिंतन करके काट-छाँट और निपटान को स्वीकारता है, तो न सिर्फ उसे निकाला नहीं जाएगा, बल्कि वह धीरे-धीरे सत्य जानकर अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ सकता है और अंत में बचाया जा सकता है। मैंने कुछ अगुआओं के साथ अपनी बातचीत याद की। हालाँकि उन्होंने भ्रष्टता दिखाई थी और अपराध किये थे, लेकिन नाकाम होने, काट-छाँट और निपटान होने पर, वे आत्मचिंतन करके परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाये। उनकी न तो निंदा हुई, न ही उन्हें निकाला गया, पर उन अनुभवों से धीरे-धीरे वे सत्य समझकर जीवन में प्रगति कर पाये। इससे मुझे स्पष्ट हो गया कि किसी का उजागर होना, निकाला जाना, निंदित होना या बचाया नहीं जाना अगुआ होने का नतीजा नहीं है। क्या मैं दृढ़ता से खड़ी रह सकूँगी, क्या मुझे उद्धार मिलेगा, यह सिर्फ इस पर निर्भर करता है कि मैं कर्तव्य में सत्य खोजने, भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने पर ध्यान देती हूँ या नहीं। मैंने अपने अतीत को याद किया जब मैं शोहरत और रुतबे के पीछे भागती थी। मैंने अपनी साथी से ईर्ष्या की, उसे अलग कर दिया। उसके साथ मिलकर काम नहीं किया। मैंने कलीसिया के कार्य में बाधा डाली, पश्चात्ताप नहीं किया और बर्खास्त कर दी गई। मेरी नाकामी का कारण अगुआ होना नहीं, बल्कि सत्य की खोज न करना, बिना सोचे-समझे नाम और रुतबे के पीछे भागना, और गलत मार्ग चुनना था। तब मैं जान गई कि भ्रष्टता सामने आने पर बस नकारात्मक और सतर्क होने से समस्या हल नहीं होगी। सबसे महत्वपूर्ण है सत्य का अनुसरण करना, समस्या का हल करने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान देना। मेरे मन में नाम और रुतबे की चाह भरी हुई थी, तो अगुआ बनने पर यही चाहत सामने आएगी, पर मैं सत्य स्वीकार पाई, दैहिक इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर पाई, तो मेरा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे बदल सकता था। अगर मैंने सत्य नहीं खोजा, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीती रही, तो मैं चाहे कोई भी कर्तव्य निभाऊँ, मुझसे कोई-न-कोई गलती हो ही जाएगी, जिससे परमेश्वर नाराज होकर मुझे उजागर करके निकाल देता। मैंने इस बार अगुआ बनने के बारे में सोचा। मेरे सामने समस्याएं और परेशानियाँ आईं, मैंने बहुत भ्रष्टता दिखाई, मेरे साथ थोड़ी काट-छाँट और निपटान भी हुआ, पर मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ सीख सकी। सत्य के सिद्धांत खोजकर मैं अनजाने में ही बहुत-सी उलझाने वाली समस्याओं और संघर्षों को समझ गई, इनसे मेरी कमियों की भरपाई हो गई। ऐसे व्यावहारिक फायदे मुझे अगुआ बनने के बाद ही मिले, यह मेरे लिए परमेश्वर का अनुग्रह था। मैं परमेश्वर से विद्रोह करके अपने कर्तव्य से जी चुराना नहीं चाहती थी। मैंने कसम खाई कि मैं इस कर्तव्य का मान रखूँगी, खुद को इसमें झोंक दूँगी, परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाऊँगी।

फिर मुझे ईश-वचनों का एक अंश याद आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "छोटा-मोटा अपराध कर देने वाले कुछ लोग सोचते हैं : 'क्या परमेश्वर ने मुझे उजागर कर दिया है और मुझे निकाल दिया है? क्या वह मुझे मार डालेगा?' इस बार परमेश्वर लोगों को मारने नहीं, बल्कि यथासम्भव उन्हें आया है। गलतियां किससे नहीं होतीं? अगर सभी को मार दिया जाए, तो फिर यह 'उद्धार' कैसे होगा? कुछ अपराध जान-बूझकर किये जाते हैं, जबकि कुछ अनजाने में हो जाते हैं। अनजाने में हुये अपराधों को पहचानकर, तुम बदल सकते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हारे बदलने से पहले ही तुम्हें समाप्त कर देगा? क्या उस तरह से परमेश्वर लोगों को बचा सकता है? वह इस तरह काम नहीं करता! चाहे तुम्हारा विद्रोही स्वभाव हो या तुमने अनिच्छा से कार्य किया हो, यह याद रखो : तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुरंत खुद को बदलो और अपनी पूरी ताकत से सत्य के लिए प्रयास करो—और, चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, खुद को निराशा में न पड़ने दो। परमेश्वर उद्धार का कार्य कर रहा है और वह जिन्हें बचाना चाहता है, उन्हें यूँ ही नहीं मार देगा। यह निश्चित है। भले ही वास्तव में परमेश्वर का ऐसा कोई विश्वासी हो जिसे उसने अंत में मार गिराया हो, फिर भी जो कुछ परमेश्वर करता है, उसके धार्मिक होने की गारंटी होगी। समय आने पर वह तुम्हें बताएगा कि उसने उस व्यक्ति को क्यों मारा, जिससे तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे। इस समय तुम्हें सत्य के लिए प्रयास करना चाहिए, जीवन प्रवेश पर ध्यान देना चाहिए और सही तरीके से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए। इसमें कोई दोष नहीं है! अंतत:, परमेश्वर तुम्हारे साथ जैसा चाहे बर्ताव करे, वह हमेशा न्यायसंगत ही होता है; इस पर तुम्हें न तो संदेह करना चाहिये और न ही इसकी चिंता करनी चाहिये; भले ही इस समय तुम परमेश्वर की धार्मिकता न समझ पाओ, लेकिन वह दिन आयेगा जब तुम आश्वस्त हो जाओगे। परमेश्वर अपना कार्य प्रकाश में और न्यायसंगत ढंग से करता है; वह स्पष्ट रूप से सब कुछ ज्ञात करवाता है। अगर तुम लोग इस विषय पर ध्यान से चिंतन करो, तो तुम इस निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना और उनके स्वभाव बदलना है। यह देखते हुए कि परमेश्वर का कार्य लोगों के स्वभाव बदलने का कार्य है, यह असंभव है कि लोगों में भ्रष्टता प्रकट न हो। अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर ही लोग स्वयं को जान सकते हैं, और यह स्वीकार सकते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए तैयार हो सकते हैं। भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बाद अगर लोग लेशमात्र भी सत्य स्वीकार नहीं करते और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना जारी रखते हैं, तो वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के लिए उत्तरदायी होंगे। परमेश्वर उनसे विभिन्न मात्राओं में प्रतिशोध लेगा, और वे अपने अपराधों की कीमत चुकाएंगे। कभी-कभी तुम अनजाने ही स्वच्छंद हो जाते हो, और परमेश्वर तुम्हें इसका संकेत देता है, तुम्हारी काट-छाँट करता है, और तुमसे निपटता है। अगर तुम बदलकर बेहतर हो जाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें जवाबदेह नहीं ठहराएगा। यह स्वभाव-परिवर्तन की सामान्य प्रक्रिया है, और उद्धार के कार्य का वास्तविक महत्व इस प्रक्रिया में प्रकट होता है। यह कुंजी है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इस अंश से मैं परमेश्वर की इच्छा समझ गई। परमेश्वर ने इंसान के भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करके बदलने के लिए देहधारण किया है और अंत के दिनों में कार्य कर रहा है। परमेश्वर हमें हर मुमकिन तरीके से बचा रहा है। थोड़ी सी भ्रष्टता प्रकट करने या छोटे-मोटे अपराध के लिए वह किसी की निंदा नहीं करता। वह देखता है कि हम भ्रष्टता दिखाने के बाद सच में पश्चात्ताप करके बदल पाते हैं या नहीं। हमारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए हम अक्सर परमेश्वर से विद्रोह और विरोध वाले काम करते हैं, अपराध करते हैं। फिर भी अगर हम खेद प्रकट करके परमेश्वर की इच्छा के अनुसार काम करें, तो वह हमें पश्चात्ताप का मौका जरूर देगा। आस्था रखकर कर्तव्य निभाना शुरू करने के बाद से ही, मैं अपने अहंकारी स्वभाव के कारण नाम और रुतबे के पीछे भागती रही। मैंने बाधा डालने वाले कई काम किये जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान हुआ। मगर परमेश्वर ने मेरे अपराधों के लिए मेरी निंदा नहीं की। जब मुझे नाम और रुतबे के पीछे भागने के गलत मार्ग को थोड़ा समझी और मैंने पश्चात्ताप करना चाहा, तो परमेश्वर ने मुझ पर दया दिखाई, अपने वचनों से मुझे प्रबुद्ध बनाया, सत्य समझकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने में सक्षम बनाया, ताकि मैं अपनी नाकामी से सबक सीखकर सत्य खोजूँ, और अपने अपराधों का समाधान करूँ। इसे समझकर मैं मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का सच्चा इरादा जान सकी। वह जानता है शैतान हमें कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, शैतानी प्रकृति की जड़ें कितनी गहरी हैं, जो अक्सर हमसे परमेश्वर से विद्रोह और उसकी अवज्ञा करवाता है। अगर हम पश्चात्ताप करके परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करते रहेंगे, तो वह हमारी निंदा नहीं करेगा। वह हमें मार्ग दिखता रहेगा, ताकि हम सत्य समझ सकें, अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों और बेड़ियों से मुक्त हो सकें। यह सब समझने के बाद, परमेश्वर को लेकर मेरी सारी गलतफहमी दूर हो गई मैंने अपने कर्तव्य में सतर्क रहना छोड़ दिया। जब भी मेरे काम में गलतियाँ या चूक होती, तो मैं ठीक से उनका सामना कर सत्य खोज पाती थी, फौरन सुधार करती थी। इस तरह कर्तव्य निभाकर मैं आजाद महसूस करने लगी।

बाद में उच्च अगुआ ने मुझे एक कार्य सौंपा। यह एक बहुत जरूरी कार्य था। अगर मुझसे गलती हुई तो उसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती, हालाँकि इस कार्य में दूसरे भाई-बहनों के साथ चर्चा करके सारे फैसले करने थे, पर फैसले को लेकर कोई समस्या आती और कलीसिया का कार्य रुक जाता, तो प्रभारी होने के नाते इसकी जिम्मेदारी मुझ पर ही आती। यह ख्याल आने पर, मैं यह कार्य स्वीकारना नहीं चाहती थी। फिर याद आया परमेश्वर ने कहा है : "कुछ लोग हैं जो कहते हैं, 'मेरी क्षमता खराब है, मैं उतना पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, मैं प्रतिभाहीन हूँ, और मेरे चरित्र में दोष हैं। मुझे अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा कठिनाइयाँ होती हैं। अगर मैंने कोई बुरा काम किया और मुझे बदल दिया गया, तो मैं क्या करूँगा?' तुम किससे डरते हो? क्या काम ऐसी चीज है, जिसे तुम अपने दम पर पूरा कर सकते हो? तुम केवल एक भूमिका निभा रहे हो, तुमसे पूरे काम की जिम्मेदारी लेने के लिए नहीं कहा जा रहा। अगर तुम अपना ही काम सँभाल सको, तो भी पर्याप्त होगा। तब क्या तुम अपनी जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतर जाओगे? सीधी-सी बात है—ऐसा क्या है, जिसके बारे में तुम हमेशा अनुमान लगाते रहते हो? अगर तुम अपनी ही छाया से डरते हो, और तुम्हारा पहला विचार यह होता है कि तुम कैसे बचोगे, तो क्या तुम नाकारा नहीं हो? नाकारा कौन होता है? वह जो अपनी प्रगति के बारे में कोई विचार नहीं करता और जो अपना सर्वस्व देने को तैयार नहीं होता, जो हमेशा भोजन के लिए चिरौरी करने के बारे में सोचता रहता है और आनंद लेना चाहता है। ऐसा व्यक्ति कचरा होता है। कुछ लोग इतने संकीर्ण दायरे वाले होते हैं—उनका वर्णन करने का एक उपाय है। क्या है वह? (चरित्र की चरम क्षुद्रता।) अत्यंत क्षुद्र चरित्र वाले लोग अधम होते हैं। सभी अधम लोग अपने से ऊँचे लोगों को मापने के लिए अपने दिलों का उपयोग करते हैं; उन्हें हर कोई उतना ही स्वार्थी और मतलबी लगता है, जैसे वे होते हैं। ऐसा व्यक्ति नाकारा होता है। वह परमेश्वर पर विश्वास कर सकता है, लेकिन आसानी से सत्य स्वीकार नहीं करता। लोगों का बहुत कम आस्था रखने का क्या कारण है? यह सत्य की समझ की कमी के कारण होता है। अगर तुम पर्याप्त सत्य नहीं समझते, और तुम्हारी समझ बहुत उथली है, तो यह परमेश्वर द्वारा अपने कार्य में शुरू की जाने वाली हर परियोजना या उसके द्वारा की जाने वाली हर चीज या तुमसे उसकी सभी अपेक्षाएँ समझ पाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। अगर तुम वह समझ हासिल नहीं कर सकते, तो तुम परमेश्वर के बारे में सभी प्रकार के अनुमानों, कल्पनाओं, गलतफहमियों और धारणाओं को जन्म दोगे। और अगर तुम्हारे दिल में बस यही सब हो, तो क्या तुम परमेश्वर पर सच्ची आस्था रख सकते हो?" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। इन वचनों से समझ आया कि मैं फिर से आशंकित होकर परमेश्वर से सतर्कता बरत रही थी। मुझे डर था कि अगर गलती हुई तो उसकी जिम्मेदारी मुझे उठानी पड़ेगी, उसका असर मेरे भविष्य की संभावनाओं पर पड़ेगा, मैं इससे बचना चाहती थी। मैंने देखा मेरा स्वभाव बेहद धूर्त था—मेरी आस्था सच्ची नहीं थी। मैं इस तरह परमेश्वर पर संदेह नहीं कर सकती, कर्तव्य से बच नहीं सकती। भले ही मुझमें कई समस्याएँ थीं, मेरे पास सत्य की वास्तविकता भी नहीं थी, पर मैं दूसरों के साथ काम करके, उनकी खूबियों से सीखकर अपनी कमियों की भरपाई कर सकती थी, परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य के सिद्धांत खोज सकती थी। परमेश्वर इंसान से ज्यादा कुछ नहीं चाहता। मैं जानती थी अगर मैं अपनी कोशिश करूँगी तो वो मुझे मार्ग दिखाएगा, और धीरे-धीरे सभी समस्याएँ हल हो जाएंगी। यह सोचकर मैंने खुशी-खुशी वह कार्य स्वीकार कर लिया।

पहले, गलतफहमियों और धारणाओं में जीते हुए, मैं परमेश्वर से सतर्क रहती थी, मैंने कभी उसके प्रति समर्पण नहीं किया, इन सबके बाद भी परमेश्वर ने मुझे बचाने में हार नहीं मानी। अपने वचनों से प्रबुद्ध करके मार्ग दिखाता रहा, ताकि मैं मनुष्य को बचाने की उसकी इच्छा समझ सकूँ, अपना धूर्त, कुकर्मी स्वभाव देख सकूँ, परमेश्वर को लेकर अपनी गलतफहमियाँ दूर कर पाऊँ, सत्य खोजकर उसे संतुष्ट करने का संकल्प ले सकूँ। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर का स्वभाव कितना धार्मिक है, मनुष्य के लिए उसका प्रेम कितना सच्चा है! अब मैं अपने कर्तव्य में सिर्फ सत्य खोजने, परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए कर्तव्य निभाने पर ध्यान देना चाहती हूँ।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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