हृदय की मुक्ति

17 अक्टूबर, 2020

झेंगशिन, अमेरिका

2016 के अक्टूबर में, जब हम देश से बाहर थे, तब मेरे पति और मैंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था। कुछ महीने बाद, बहन वांग जिसने मेरे साथ परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था, काफ़ी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। मुझे याद है, उस समय, सभी लोग उसकी अच्छी काबिलियत की तारीफ़ कर रहे थे। मुझे ये भी याद है कि कैसे, एक सभा के बाद, मैंने बहन लिन को यह कहते हुए सुना कि, "आज बहन वांग ने परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और स्वीकृति के बारे में जो भी सहभागिता की, वह सब दिल से बोला गया था। उसने जो कहा, उसमें कुछ रोशनी भी है और मेरे लिए यह काफ़ी मददगार रहा।" दरअसल, पहली बार, हर किसी को यह कहते हुए सुनकर मुझे उससे काफ़ी ईर्ष्या होने लगी। लेकिन कुछ समय बाद, मैं असंतुष्ट महसूस करने लगी : ऐसा कैसे हो सकता है कि सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे, और मेरी नहीं? क्या मैं ज़रा भी आगे नहीं बढ़ी थी? क्या मेरी सहभागिता में कुछ गड़बड़ी थी? धीरे-धीरे, मैं इस सच को मानने के लिए तैयार नहीं थी कि वह मुझसे बेहतर थी, और मैंने चोरी-छिपे खुद को उसके ख़िलाफ़ करना शुरू कर दिया। मैं मन-ही-मन सोचने लगी, "तुम परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता कर सकती हो, लेकिन मैं भी तो कर सकती हूँ। एक दिन आएगा जब मैं तुमसे आगे निकल जाऊँगी। मैं उस समझ और ज्ञान को बचा कर रखूँगी जो मुझे परमेश्वर के वचनों से मिलेगी और उसे सिर्फ सभाओं में ही साझा करूँगी। इस तरह से, हर कोई यह देख सकेगा कि मेरी सहभागिता काफ़ी अच्छी और व्यावहारिक भी है।"

उसके बाद कुछ समय के लिए, मैंने एक नोटबुक में वो सब कुछ लिखा जो मैंने परमेश्वर के वचनों से प्राप्त किया और समझा था। जब सभा का समय होता, तो मुझे ध्यान से अपने दिल में उनके बारे में विचार करना होता, ताकि मैं सहभागिता में उन्हें साझा करने का वह तरीका जान सकूँ जिससे यह सबके लिए उतना ही स्पष्ट, व्यवस्थित और विधिवत हो, जैसा कि बहन वांग करती है। लेकिन किसी कारणवश, जितना अधिक मैंने अपने भाई-बहनों के सामने दिखावा करने की कोशिश की, उतना ही मैंने अपना मज़ाक बना दिया। जैसे ही सहभागिता करने की मेरी बारी आती, तब या तो मेरा दिमाग खाली हो जाता या फिर मेरे शब्द बिलकुल खिचड़ी बनकर बाहर आते। मैं उन दृष्टिकोणों को साफ़ तौर पर ज़ाहिर करने में असमर्थ थी, जिन्हें मैं स्पष्ट करना चाहती थी। सभा मेरे लिए बहुत शर्मनाक बन जाती थी। एक दिन घर पहुंचने के बाद, मैंने अपने पति से कहा, "सभा के दौरान जब भी मैं यह सुनती हूँ कि परमेश्वर के वचनों के बारे में बहन वांग की सहभागिता में रोशनी है, तो मैं वाकई बहुत असहज महसूस करने लगती हूँ—" लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी बात ख़त्म करती, मेरे पति ने मेरी तरफ़ देखा और मुझसे पूरी ईमानदारी से कहा, "बहन वांग की बातचीत में वाकई रोशनी है, और यह हमारे लिए मददगार है। हमें इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। ये असहजता जो तुम महसूस कर रही हो, क्या यह सिर्फ ईर्ष्या नहीं है?" उनके शब्द मेरे चहरे पर किसी तमाचे की तरह थे। मैंने तुरंत इनकार में अपना सिर हिला दिया : "नहीं, ऐसा नहीं है। मैं ऐसी नहीं हूँ।" मेरे पति ने कहा, "हमारे सभी भाई-बहनों ने बहन वांग की सहभागिता का आनंद लिया है, लेकिन इसे सुनकर तुम्हें बेचैनी होती है। इसका मतलब यही है कि तुम ईर्ष्या कर रही हो, क्योंकि वह तुमसे ज़्यादा सक्षम है, क्या मैंने सही कहा?" यह सुनकर मैं और भी ज़्यादा दुखी हो गयी। क्या मैं सचमुच ऐसी ईर्ष्यालु थी? मैंने उनसे कहा, "अब बात करना बंद करो। मुझे शांत होने दो, और मैं खुद इस बारे में सोचूँगी।" इसके बाद, मेरे पति ने कलीसिया में बहन लियू को बताया कि मेरे साथ क्या हो रहा है, यह सोचकर कि वो मेरी मदद करेगी। जब मैंने इस बारे में सुना, तो उनको काफ़ी भला-बुरा कहा : "तुम मुझसे पूछे बिना उससे कैसे बात कर सकते हो? अगर उसने सबको इस बारे में बता दिया, तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" मैं जितना उस बारे में सोचती, उतना ही दुखी हो जाती। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मेरा मार्गदर्शन करो। मेरी मदद करो।"

अगले दिन, उस दौरान जिन बातों का मैंने ख़ुलासा किया था, उन पर विचार किया। मुझे पता चला कि आम तौर पर जब मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ती थी, तो जो भी रोशनी मुझे मिलती थी, मैं उसे अपने तक ही रखती थी, और फिर उसे हमारी सभाओं के दौरान ही साझा करती थी। यह दरअसल सिर्फ एक चाह थी उन चीज़ों के बारे में बात करने की, जो दूसरों को नहीं पता थीं ताकि मेरे भाई-बहन मेरे बारे में ऊँचा सोचें। जब भी मैं देखती कि बहन वांग की बातों में रोशनी है, तो मैं हमेशा असहज महसूस करती और उससे आगे निकलना चाहती थी। मुझे लगता था कि मैं दूसरों के साथ वाकई सहज थी और हर छोटी बात पर हंगामा करने पर ध्यान नहीं देती थी, और मैं दिल से एक साधारण इंसान थी। लेकिन अब पता चला कि मैं किसी से ईर्ष्या भी कर सकती हूँ, और चुपचाप खुद को उसके खिलाफ करके उससे मुकाबला कर सकती हूँ। मैं ऐसी इंसान कैसे हो सकती हूँ? मैंने फ़ोन पर एक बहन को कॉल किया और उससे पूछा, "बहन, क्या तुम्हें कभी सभाओं के दौरान परमेश्वर के वचनों के बारे में दूसरे भाई-बहनों की सहभागिता में रोशनी होने की बात सुनकर ईर्ष्या महसूस होती है?" उसने जवाब दिया, "नहीं, कभी नहीं। अगर हमारे भाई-बहनों की सहभागिता में रोशनी है, तो यह मेरे लिए मददगार है। इससे मुझे वाकई ख़ुशी मिलती है, और मैं इसका बहुत आनंद उठाती हूँ!" उसे ऐसा कहते हुए सुनकर मैं और भी ज़्यादा बुरा महसूस करने लगी। मुझे तीव्रता से महसूस हुआ कि मैं कितनी ईर्ष्या करने लगी थी। किसी और को बहन से ईर्ष्या नहीं थी; सिर्फ मुझे थी। ऐसी हालत में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने उससे कहा, "हे परमेश्वर! मैं एक ईर्ष्यालु इंसान नहीं बनना चाहती, लेकिन जब भी मैं इस बहन की शानदार सहभागिता को सुनती हूँ, तो मैं ना चाहते हुए भी उससे ईर्ष्या करने लगती हूँ। हे परमेश्वर! मैं नहीं जानती कि मैं क्या करूँ। कृपा करके, तुम मुझे मेरी ईर्ष्या के बंधनों से निकलने में मदद करो।"

बाद में, हमारी कलीसिया से बहन लियू मुझसे मिलने आयी। उसने मेरी हालत के मुताबिक मुझसे सहभागिता की, और परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी पढ़ा। "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनकी प्रसिद्धि को चुरा लेंगे और उनसे आगे निकल जाएंगे, अपनी पहचान बना लेंगे जबकि उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! सिर्फ़ खुद के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, और सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचना और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। जब मैंने परमेश्वर के इन वचनों को सुना, तो मुझे लगा कि मैं ठीक इसी स्थिति में थी। परमेश्वर के वचनों पर बहन वांग की सहभागिता प्रबुद्ध करने वाली थी, लेकिन मैंने उसकी कही बातों में सत्य को समझने की कोशिश नहीं की या उसके अभ्यास का मार्ग तलाशने की भी कोशिश नहीं की। इसके उलटे, मैं उससे ईर्ष्या करने लगी। जब मेरी खुद की सहभागिता अच्छी नहीं थी, और जब मैं उसका दिखावा नहीं कर पा रही थी, बल्कि, खुद को अपमानित कर रही थी, तो मेरा दिमाग घूमने लगता, और मैं बहुत निराश और परेशान हो जाती थी। मुझे इस बात का बहुत डर होता कि मेरे भाई-बहन मुझे नीचा दिखाएंगे। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी, मैं सिर्फ़ आगे निकल पाने के बारे में ही सोचती रहती थी—लेकिन मैं किसी और को खुद से बेहतर करते देख सहन नहीं कर पाती थी। क्या वह ईर्ष्यालु और द्वेषी होना नहीं था? उसमें सामान्य मानवता का लेश-मात्र भी अंश नहीं है! मुझे याद है, परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले भी मैं ऐसी ही थी। जब मैं अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और सहकर्मियों के साथ बातचीत करती थी, तो मैं बार-बार चाहती थी कि दूसरे लोग मेरे बारे में अच्छा बोलें। कभी-कभी, जब कोई सहकर्मी मेरे सामने किसी और के काम की तारीफ़ करता, तो मैं असहज महसूस करने लगती, और मैं खुद को अपना काम अच्छी तरह से करने के लिए समर्पित कर देती, ताकि दूसरे लोग मेरे बारे में अच्छी बातें करें, मुझे ऐसा करने में खुशी मिलती थी, चाहे वह काम कितना ही मुश्किल या थका देने वाला क्यों न हो। मुझे मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं होती थी, लेकिन मैंने इसे सिर्फ़ आगे बढ़ने की इच्छा के तौर पर सोचा। अब जाकर मैंने महसूस किया है कि ये सब शैतान के भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियां थीं। उसके बाद, मैं बार-बार परमेश्वर के सामने जाकर उससे अपनी कठिनाइयों के बारे में प्रार्थना करने लगी। सभाओं के दौरान, मैंने अपने दिल को शांत करके दूसरों की सहभागिता को सुनने पर ध्यान केंद्रित किया। सहभागिता के लिए मेरी बारी आने पर, अब मैं बहन वांग से बेहतर सहभागिता कर पाने के बारे में नहीं सोचती थी। इसके बजाय, मैं शांति से परमेश्वर के वचनों पर विचार करती और उनसे मुझे जो भी समझ आता था, उसे सहभागिता में साझा करती थी। जब मैंने इस तरह से अभ्यास करना शुरू किया, मैं वाकई काफ़ी ज़्यादा सहज और मुक्त महसूस करने लगी।

कुछ समय के बाद, मुझे वाकई ऐसा लगा कि मेरी ईर्ष्या पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गयी है, लेकिन शैतानी भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक अपनी जड़ें जमाये है, और जब भी कोई उपयुक्त परिस्थिति आती है, तो यह स्वयं प्रकट हो जाता है। बाद में, कुछ सभाओं के दौरान, जब भी मैं देखती कि दूसरे भाई-बहन, बहन वांग की सहभागिता की तारीफ़ कर रहे हैं, तो मुझे फिर से थोड़ी ईर्ष्या होने लगती। उसके बाद, मुझे अपने और उसके बीच कुछ दूरी महसूस होती। हालांकि, उस स्थिति में रहते हुए, मैंने दूसरों से इस बारे में बात करने की हिम्मत नहीं की। मुझे डर था कि अगर मैंने ऐसा किया, तो वे मुझे नीची नज़र से देखेंगे। इसलिए, कई सभाओं के दौरान, मुझे बहुत हिचक महसूस हुई।

एक शाम, मुझे बहन लियू का कॉल आया। चिंतित हो, उसने मुझसे पूछा कि अभी मैं किसी तरह की कठिनाइयों का सामना तो नहीं कर रही। मैंने अस्पष्ट जवाब दिया, "क्या मैं बहुत भ्रष्ट हूँ? क्या परमेश्वर मेरे जैसी इंसान को बचाने से इंकार करेगा?" इस डर के कारण कि वह मुझे नीची नज़र से देखेगी, मैंने आगे कुछ नहीं कहा। फिर बहन लियू ने मेरी स्थिति को देखते हुए मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "जब कुछ लोग सुनते हैं कि एक ईमानदार इंसान बनने के लिए, एक व्यक्ति को अपने आपको पूरी तरह खोलना और स्पष्ट करना होगा, तो वे कहते हैं : 'ईमानदार होना कठिन है। क्या मुझे सोची गयी हर बात दूसरों को बतानी होगी? क्या सकारात्मक चीज़ों की संगति करना पर्याप्त नहीं है? मुझे अपने अंधकारमय या भ्रष्ट पक्ष के बारे में दूसरों को बताने की ज़रूरत नहीं है, है ना?' यदि तू इन चीज़ों को दूसरों को नहीं बताता है, और अपना विश्लेषण नहीं करता है, तो तू स्वयं को कभी नहीं जान पाएगा, कभी नहीं पहचान पाएगा कि तू किस तरह की चीज़ है, और दूसरे लोग कभी भी तुझ पर भरोसा नहीं कर पाएंगे। यह तथ्य है। यदि तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर विश्वास करें, तो पहले तुमको ईमानदार बनना होगा। एक ईमानदार व्यक्ति होने के नाते तुम्हें अपना दिल खोलना चाहिए, ताकि हर कोई उसके अंदर देख सके, तुम्हारे विचारों को समझ सके, और तुम्हारा असली चेहरा देख सके; अच्छा दिखने के लिए तुम्हें तुम खुद भेष धारण करने या खुद को आकर्षक बनाने का प्रयास न करो। लोग तभी तुम पर विश्वास करेंगे और तुमको ईमानदार मानेंगे। यह ईमानदार होने का सबसे मूल अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति होने की शर्त है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ने के बाद, उसने मुझसे सहभागिता की, "हमें सत्य की तलाश करने के लिए खुलकर सहभागिता करनी होगी; यह आध्यात्मिक मुक्ति पाने का एक तरीका है। यह सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने का एक तरीका भी है। ऐसा करके, हम अपने भाई-बहनों की मदद पा सकते हैं। इससे हमारे भ्रष्ट स्वभावों का ज़्यादा जल्दी समाधान होता है, और हमें मुक्ति का एहसास होता है। अगर हम अपनी कठिनाइयों का सामना नहीं करना चाहेंगे, तो हम शैतान की चालबाजी में आसानी से फंस जायेंगे, और हमारे जीवन को नुकसान उठाना पड़ेगा।" बहन लियू की बातचीत को सुनने के बाद, मैंने हिम्मत की और उसे बताया कि मैं किस तरह के हालात से गुज़र रही थी। बहन लियू ने फिर परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "परमेश्वर जिन लोगों को बचाता है वे वही लोग हैं जिनके स्वभाव शैतान की भ्रष्टता के कारण भ्रष्ट हो गये हैं; वे निष्कलंक, पूर्ण लोग नहीं हैं, वे ऐसे लोग भी नहीं हैं जो रिक्तता में जीवन जीते हैं। कुछ लोग, अपनी भ्रष्टता के प्रकट होते ही सोचते हैं, 'एक बार फिर, मैंने परमेश्वर का विरोध किया है; मैंने कई सालों से उस पर विश्वास किया है, लेकिन मैं अब भी नहीं बदला हूँ। परमेश्वर निश्चित रूप से अब मुझे पसंद नहीं करता है!' यह किस तरह का रवैया है? उन लोगों ने खुद से उम्मीद छोड़ दी है, और वे सोचते हैं कि अब परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता है। क्या यह परमेश्वर को गलत समझने वाली बात नहीं है? जब तुम इतना नकारात्मक होते हो तो, शैतान के लिये तुम्हें नुकसान पहुंचाना सबसे आसान होता है, और एक बार वह कामयाब हो गया, तो परिणामों की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए, चाहे तुम कितनी ही बड़ी मुश्किल में क्यों न हो या चाहे तुम कितना भी निराश क्यों न महसूस करते हो, तुम्हें कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिये! जीवन में प्रगति की प्रक्रिया में और बचाये जाते समय, लोग कभी-कभी गलत मार्ग चुन लेते हैं या पथभ्रष्ट हो जाते हैं। वे कुछ समय के लिए अपने जीवन में कुछ अपरिपक्वता दिखाते हैं, या कभी-कभी कमज़ोर या नकारात्मक हो जाते हैं, गलत बातें कहते हैं, फिसल जाते हैं और गिरते हैं, या असफलता का सामना करते हैं। परमेश्वर के दृष्टिकोण से, ऐसी बातें सामान्य हैं, और वह इन बातों का बतंगड़ नहीं बनाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर में आस्था के लिए सर्वाधिक आवश्यक है जीवन में प्रवेश')

बहन ने यह सहभागिता मेरे साथ साझा की : "हम सब शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किये जा चुके हैं। हम घमंडी, चालाक, दुष्ट और पापी हैं। ये शैतानी स्वभाव हम सभी के अंदर गहराई तक समाये हुए हैं, और यहां तक कि हमारी प्रकृति बन गए हैं। इस वजह से, हमारे व्यवहार और दृष्टिकोण में हर जगह भ्रष्टाचार ही प्रकट होता है। यह मुझे वाकई परेशान करता था : मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ थी और इसे प्रकट करने के बाद पछताती भी थी, फिर भी मैं अगली बार इसे क्यों दोहराती थी? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे आख़िरकार एहसास हुआ कि मेरा शैतानी स्वभाव वाकई चिंताजनक था, और धीरे-धीरे मुझे यह समझ आया कि स्वभाव में बदलाव ऐसे ही रातों-रात नहीं होता। सिर्फ ज़रा सी आत्मचेतना प्राप्त करने के बाद ही लोग बदल नहीं सकते। लंबे समय तक परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के बिना, काट-छाँट और निपटान के बिना, और परीक्षाओं और शुद्धिकरण के बिना, सच्चा बदलाव असंभव है। न्याय करने और ताड़ना देने के लिए परमेश्वर के आने का उद्देश्य हमें शुद्ध करना और बदलना है। वह जानता है कि शैतान ने हमें कितनी गहराई तक भ्रष्ट किया है, वह हमारी कद-काठी और उन कठिनाइयों को भी जानता है जिनका हम अपने स्वभावों को बदलने की कोशिश करते हुए सामना करते हैं, इसलिए वह सत्य को तलाशने वालों को माफ़ कर रहा है और उनके साथ धैर्यवान है। परमेश्वर उम्मीद करता है कि हमारे पास सत्य को तलाशने का संकल्प है, और हम पूरी निष्ठा से अपने स्वभावों को बदलना चाहते हैं। इसलिए, हमें अपने आप से सही व्यवहार करना चाहिए। हमें परमेश्वर के वचनों को ज़्यादा खाना और पीना होगा, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना होगा, देह-सुख को त्यागना होगा, और सत्य का अभ्यास करना होगा। फिर एक दिन, हमारे भ्रष्ट स्वभाव ज़रूर बदल जाएंगे।"

हमने फिर परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "जैसे ही पद, प्रतिष्ठा या रुतबे की बात आती है, हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा दूसरों से अलग दिखना, मशहूर होना, और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई झुकने को अनिच्छुक रहता है, इसके बजाय हमेशा विरोध करना चाहता है—इसके बावजूद कि विरोध करना शर्मनाक है और परमेश्वर के घर में इसकी अनुमति नहीं है। हालांकि, वाद-विवाद के बिना, तुम अब भी संतुष्ट नहीं होते हो। जब तुम किसी को दूसरों से विशिष्ट देखते हो, तो तुम्हें ईर्ष्या और नफ़रत महसूस होती है, तुम्हें लगता है कि यह अनुचित है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा वही व्यक्ति दूसरों से अलग क्यों दिखता है, और मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती है?' फिर तुम्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो। और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब एक बार फिर तुम्हारा सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो तुम इससे जीत नहीं पाते हो। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? क्या किसी व्यक्ति का इस तरह की स्थिति में गिर जाना एक फंदा नहीं है? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं। ... तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आज़माकर देखो! अगर तुम इस तरह की स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होना चाहते हो, तो तुम्हें पहले इन चीज़ों को अलग करना होगा और इन्हें छोड़ना होगा। अन्यथा, तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, उतना ही अंधेरा तुम्हारे आस-पास छा जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफ़रत महसूस करोगे, और कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम ऐसा कर पाने में उतने ही कम सक्षम होगे, जैसे-जैसे तुम कम चीज़ें प्राप्त करोगे, तुम्हारी नफ़रत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफ़रत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम्हारे अंदर जितना अधिक अंधेरा छाता है, तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उतने ही बुरे ढंग से करोगे; तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन जितने बुरे ढंग से करोगे, तुम उतने ही कम उपयोगी होगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')

परमेश्वर के वचनों के बारे में बहन की सहभागिता ने मुझे एहसास दिलाया कि मेरी ईर्ष्या की वजह नाम और रुतबा पाने की प्रबल इच्छा थी, और मेरा स्वभाव भी बहुत ज्यादा घमंडी था। मेरे अंदर बचपन से ही सीसीपी की शिक्षा और जीवन में सभी प्रकार के शैतानी फ़लसफ़ों और विषों को कूट-कूट कर भरा गया था, जैसे, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," और "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो।" ये शैतानी विष मेरे दिल के भीतर गहराई तक समाये हुए थे, जिसने मुझे घमंडी, दंभी, स्वार्थी और नीच बना दिया था। मैं ख़ास तौर से महत्वाकांक्षी और आक्रामक हो गयी थी; मैं चाहे जो भी करती, उसमें दूसरों से आगे निकलने की तीव्र इच्छा महसूस होती। मैं समाज में इसी तरह से रही, और कलीसिया में भी मेरा यही रवैया रहा। सभाओं में सहभागिता और प्रार्थना करते हुए भी, मैं दूसरे लोगों से बेहतर बनना चाहती थी, और सिर्फ़ तभी ख़ुश होती थी जब दूसरे मेरी तारीफ़ करते थे। जब भी कोई ख़ुद को मुझसे बेहतर साबित करता, तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाती थी और ईर्ष्यालु बन जाती थी। अंदर-ही-अंदर, मैं उस व्यक्ति का विरोध करते हुए उसके ख़िलाफ़ काम करने लगती थी। जब मैं उससे वाकई आगे नहीं निकल पाती थी, तो फिर निराशा और ग़लतफ़हमी में रहने लगती थी, अपने साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर पाती थी। मैं परमेश्वर को लेकर भी ग़लतफ़हमी पाल लेती थी, और सोचती थी कि मैं परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य नहीं हो सकती। मैंने देखा कि शैतान की भ्रष्टता ने मुझे अहंकारी, कमज़ोर, स्वार्थी और नीच बना दिया है, और मेरा जीवन बहुत ही दयनीय हो गया है। बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों से अभ्यास करने का एक मार्ग मिला। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीज़ों को छोड़ना, उन्हें अलग रखना और अभ्यास करना सीखना होगा। मुझे अपनी देह की इच्छाओं को त्यागना और अपने अभिमान और रुतबे को संयमित रखना सीखना होगा, मुझे बहन वांग की शक्तियों से और अधिक सीखना चाहिए, और अपनी कमजोरियों को दूर करना चाहिए। ज़्यादा-से-ज़्यादा सत्य के बारे में जानने और उन्हें समझने का यही एकमात्र तरीका था।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, तो मैं समझ गयी कि चूंकि परमेश्वर द्वारा दी गई क्षमता और योग्यताएं प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति से उसकी अपेक्षाएं भी अलग होती हैं। दरअसल, अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जब हम अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल करेंगे, तब जाकर परमेश्वर के हृदय को शांति मिलेगी। बहन वांग बहुत सक्षम है और वह जल्दी ही सत्य को समझ जाती है। आज परमेश्वर हमारे लिए एक साथ सभा करने की व्यवस्था करता है, ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य, हमारे लिए एक-दूसरे की शक्तियों से सीखना और अपनी कमजोरियों की भरपाई करना है, ताकि हम सत्य को समझ सकें और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में एक साथ प्रवेश कर सकें। मुझे अपनी शक्तियों और कमियों को ठीक से संभालना होगा। चाहे परमेश्वर ने मुझे जैसी भी क्षमता दी हो, मुझे उसके नियम और व्यवस्थाओं को मानना चाहिए, अपने उद्देश्यों को सुधारना चाहिए, और पूरे दिल से सत्य को तलाशना चाहिए। मैं जितना समझती हूँ मुझे उतनी ही सहभागिता करनी चाहिए, और मैं जितना जानती हूँ मुझे उतना ही अभ्यास करना चाहिए। मुझे पूरी कोशिश करनी चाहिए, और इस तरह से, परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करेंगे और मेरा मार्गदर्शन करेंगे। इन उद्देश्यों के लिए मैंने परमेश्वर के सामने ये संकल्प लिये : अब से, मैं सत्य को तलाशने के लिए कोशिश करना चाहती हूँ, अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों के प्रति संकीर्ण मानसिकता और ईर्ष्या नहीं रखना चाहती, और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए एक सच्चे इंसान की तरह जीवन जीना चाहती हूँ।

कलीसिया की अगली सभा काफ़ी जल्दी हुई। अब मैं अपने भाई-बहनों को बताना चाहती थी कि मुझे बहन वांग से कितना ईर्ष्या थी, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के कौन से पहलू मैंने प्रकट किये थे, लेकिन जैसे ही मैंने इनके बारे में सोचा, मैं डर गयी कि वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे, और बहन वांग क्या सोचेगी, जब उसे मेरे बारे में पता चलेगा कि मैं उससे इतनी ईर्ष्या करती थी। अंदर-ही-अंदर, मुझे इस स्थिति का सामना करने में थोड़ी हिचक महसूस हुई। मन-ही-मन, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "हे परमेश्वर! मुझे आस्था और हिम्मत दो। मैं अपने घमंड और रुतबे को अलग रखकर, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर सहभागिता करना चाहती हूँ, और हमारे बीच आई रुकावटों को ख़त्म करना चाहती हूँ। हे, परमेश्वर, मेरे मार्गदर्शक बनो।" प्रार्थना करने के बाद, मुझे बहुत शांति महसूस हुई, और फिर जिस स्थिति में मैं थी और जिस हालात से मैं गुज़र रही थी, मैंने उन सबके बारे में बात की। मेरी बातें सुनने के बाद, मेरे भाई-बहनों ने मुझे नीची नज़रों से नहीं देखा, बल्कि वाकई ईमानदारी से अभ्यास कर पाने के लिए मेरी हिम्मत की सराहना की। उन्होंने कहा कि मेरे अनुभव से ही उन्हें एहसास हुआ है कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करके ही हम अपने शैतानी स्वभावों का ख़ात्मा कर सकते हैं, छुटकारा और मुक्ति पा सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अब वे जान गये हैं कि अगली बार ऐसी स्थिति आने पर उन्हें क्या करना है। बाद की सभाओं के दौरान, मैंने बहन वांग की बहुत-सी शक्तियों के बारे में जाना : परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय, वह अपनी सहभागिता में अपनी स्थिति को अभिव्यक्त करने में समर्थ थी। जब भी उसे किसी परेशानी का सामना करना पड़ता, तो वह परमेश्वर के सामने जाकर उसके इरादों को जानने और उसके वचनों से अभ्यास का मार्ग तलाशने पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम थी। उसकी इन शक्तियों को देखने के बाद ही मुझे समझ आया कि वह मेरी प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि ऐसी इंसान थी जो मेरी मदद कर सकती थी। तभी मुझे दिल की गहराइयों तक यह समझ में आया कि हमारे लिए एक साथ काम करने की परमेश्वर की व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि हम एक-दूसरे की शक्तियों से सीखें, ताकि एक-दूसरे की कमज़ोरियों की भरपाई कर सकें। जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मैं पूरी तरह से बंधन मुक्त महसूस करने लगी। अब मुझे लगता है कि हर सभा बहुत ही आनंदमय है। अब मुझे ईर्ष्या नहीं होती, बल्कि अब मैं दूसरों की शक्तियों से अपनी कमज़ोरियों को ख़तम कर पाती हूँ, उनके साथ तालमेल बनाकर रहती हूँ, और आत्मा में मुक्ति महसूस करती हूँ।

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