अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा को अलविदा
मैंने कुछ सालों पहले नए विश्वासियों के सिंचन का कार्यभार संभाला था। मुझे लगा जैसे यह मुझे परमेश्वर से मिला सम्मान है। मुझे पता था कि यह एक बहुत महत्वपूर्ण कर्तव्य है, इसलिए मैं सत्य पर और भी ज़्यादा मेहनत करके नए विश्वासियों का अच्छे से सिंचन करना चाहती थी, ताकि वे सत्य के मार्ग पर जल्द-से-जल्द चलने में सफल हों। जब भी मुझे समय मिलता, मैं सत्य को जानने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ती, और सभाओं में, मैं नए विश्वासियों के सवालों और समस्याओं पर अच्छे से विचार करती, परमेश्वर के वचनों में उनके सवालों का हल ढूँढ कर सहभागिता करती। जब भी मुझे कुछ समझने या हल करने में मुश्किल होती, तो मैं दूसरे भाई-बहनों के साथ मिलकर खोज करती। कुछ समय बाद, दूसरे भाई-बहन अपनी समस्या को लेकर सहभागिता के लिए मेरे पास आने लगे। मुझे लगा कि सिंचन के कर्तव्य में नई होने के बावजूद, हर कोई मुझे सम्मान दे रहा है। मुझे बहुत ख़ुशी हुई और अपने कर्तव्य को लेकर मेरा उत्साह भी काफी बढ़ गया।
बाद में, अगुआ ने बहन चेंग को मेरे साथ काम करने के लिए नियुक्त किया। कुछ वक्त बाद मुझे पता चला कि वे अपने कर्तव्य में बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ उठा रही हैं, और हमारे काम में समस्याओं का पता लगाने में भी अच्छी हैं। सभाओं में उनकी सहभागिता वाकई स्पष्ट और व्यवस्थित होती थी और वे कुछ समस्याओं को हल कर पाती थीं। हर कोई उन्हें पसंद करने लगा, कोई भी समस्या आने पर सहभागिता के लिए उनकी खोज होने लगी। ये सब देखकर मैं परेशान हो गई: "बहन चेंग एकदम नई हैं, मगर दूसरे भाई-बहन अभी से उनके बारे में इतना ऊँचा सोचने लगे। मदद की ज़रूरत होने पर, क्या वे सिर्फ उनकी ही खोज करेंगे, मेरी नहीं? क्या उन्हें लगेगा कि मैं बहन चेंग की बराबरी नहीं कर सकती? नहीं, मुझे और भी ज़्यादा मेहनत करनी होगी, ताकि सबको पता चले कि मैं कोई सहायिका नहीं हूँ, मैं अब भी दूसरों की समस्याओं को हल कर सकती हूँ। हर किसी के दिल में अपनी जगह बनाये रखने का यही एक तरीका है।" मैं सभी भाई-बहनों से मिलकर उनकी स्थिति और मुश्किलों के बारे में पूछने लगी, हर सभा से पहले मैं परमेश्वर के वचनों को ढूँढकर उनके नोट्स बनाने लगी। सभाओं में, मेरा मन यही सोचता रहता था कि मैं बहन चेंग से बेहतर सहभागिता कैसे करूं, ताकि सबको ऐसा लगे कि मैं अधिक काबिल हूँ। हैरानी की बात है, एक दिन अगुआ ने हमसे कहा कि बहन चेंग अब से समूह की अगुआ का कर्तव्य निभाएँगी। मैं चौंक गई। मैंने सोचा, "कहीं मेरे कान तो नहीं बज रहे? बहन चेंग समूह की अगुआ बनने जा रही हैं? ये सब कैसे हो गया? मैं यह कर्तव्य उनसे काफी पहले से निभा रही हूँ। दूसरों को पता चलेगा, तो वो क्या कहेंगे? कहीं वे ऐसा तो नहीं सोचेंगे कि वो मुझसे बेहतर हैं? मैं फिर सबका सामना कैसे करूँगी?" मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही खुद को दोषी पा रही थी, मैं इस सच को स्वीकार नहीं कर पाई। मैं एक बहुत अंधकार भरी, पीड़ादायक जगह में थी। मैं जानती थी कि मुझे इन सबके बारे में ऐसे नहीं सोचना चाहिए, मुझे नाम और रुतबे के लिए नहीं जीना चाहिए, मगर मैं खुद को काबू में नहीं कर सकी। मैंने यह कहकर खुद को संभालने की कोशिश की कि जो हो रहा है, अच्छे के लिए हो रहा है, और मुझे बिना किसी चिंता के बस अपना कर्तव्य अच्छे से निभाते रहना है। उस वक्त, मैंने वाकई सत्य की खोज नहीं की या इस बात पर आत्मचिंतन नहीं किया।
फिर एक दिन, मुझे पता चला कि बहन झाँग के परिवार को सीसीपी की अफवाहों और झूठों के कारण गिरफ़्तार कर लिया गया है, और वो उनसे उनकी आस्था का त्याग करवाने की कोशिश कर रहे थे। संकोच के कारण बहन झांग सभाओं में नहीं आ रही थीं। मैंने उनके साथ सहभागिता करने की उम्मीद में उनसे संपर्क किया, मगर उन्होंने कहा कि वे पहले से ही बहन चेंग के संपर्क में हैं, दोनों साथ मिलकर सत्य की खोज और सहभागिता कर रही हैं। ये बात मेरे लिए परेशान करने वाली थी। बहन झांग अपनी समस्याओं को लेकर हमेशा मेरे पास आया करती थीं, मगर अब, वो मेरे बजाय सीधा बहन चेंग के पास चली गईं। क्या उन्हें ऐसा लगा कि मैं उतनी अच्छी नहीं हूँ? क्या हर कोई मुझे भूलने लगा है? इस विचार ने मुझे पूरी तरह हतोत्साहित कर दिया। मैंने सोचा कि बहन चेंग मुझसे मेरी चमक छीन रही हैं, इसलिए मैं उनके ख़िलाफ़ हो गई। मैं उनके संदेशों का जवाब देने में देर करने लगी, कभी-कभी उनके संदेश के जवाब में बस "ज़रूर" लिख कर छोड़ देती थी। एक बार की बात है जब हम सब कुछ भाई-बहनों के साथ ऑनलाइन सभा कर रहे थे। बहन चेंग ने दूसरी बहन के सवाल के जवाब में अपनी सहभागिता दी। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी, मुझे बस ये डर था कि सबका ध्यान बहन चेंग की सहभागिता पर ही रहेगा। मैं सहभागिता करने का बस एक मौका चाहती थी, ताकि दूसरे भाई-बहन यह देख सकें कि मैं भी अपने कर्तव्य को लेकर ज़िम्मेदार हूँ और समस्याओं को हल कर सकती हूँ। बहन चेंग की सहभागिता पूरी होते ही, जिन बहन ने सवाल किया था उन्होंने कहा कि उनकी सहभागिता व्यावहारिक समस्या को हल नहीं कर पाई। बहन चेंग को परेशान देखकर मैं बहुत उत्साहित हो गई। मैंने सोचा, "आप वास्तविक समस्या को हल किये बिना केवल बातें ही करती जा रही थीं। इससे कोई फायदा नहीं हुआ। अब आप अपमानित दिख रही हैं। ये तो कोई भी बता सकता है। मुझे इस मौके का फायदा उठाना होगा, ताकि मैं सबको दिखा सकूँ कि मेरी सहभागिता आपकी सहभागिता से बेहतर है।" मैं फ़ौरन अपनी सहभागिता साझा करने लगी। मेरी सहभागिता पूरी होते ही, यह स्पष्ट हो गया कि मैंने इस बहन के सवाल को अच्छी तरह समझा ही नहीं और मेरा जवाब किसी काम का नहीं था। उन्होंने तो मुझे सचेत रहने का संदेश भी लिख दिया। उस वक्त मुझे बेवकूफों जैसा महसूस हो रहा था और मैं किसी कोने में जाकर छिप जाना चाहती थी। तभी कोई ज़रूरी काम याद आने पर मैंने कॉल काट दिया। बाद में, मैंने देखा कि वे लोग अब भी उस ऑनलाइन सभा में मौजूद थे, तब मेरे में एक दुर्भावनापूर्ण विचार आया: "अगर आप ऐसे ही बातें करती रहीं, तो न जाने यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा। अगर मैं सभा में नहीं रह सकती, तो और कोई भी नहीं रह सकता। नहीं तो सबका ध्यान बहन चेंग की तरफ ही जाएगा।" इसलिए बिना कुछ सोचे-समझे, मैंने यह संदेश भेज दिया: "सभा का समय ख़त्म हुआ, बातों को ज़्यादा खींचने की कोई ज़रूरत नहीं है। बाकी समस्याओं पर हम कल चर्चा कर सकते हैं।" कुछ ही मिनटों में सभी लोग ऑफ़लाइन हो गए। मैं वहीँ परेशान होकर कंप्यूटर के सामने बैठी रही। मैं अपनी सहभागिता को लेकर बहुत शर्मिंदा थी, जिस तरह मैंने बहन चेंग की नाकामी का आनंद उठाया, उसके बारे में सोचकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैं आखिर कर क्या रही थी? हमारा कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए उनके साथ काम करने के बजाय, मैं ईर्ष्या की आग में जल रही थी, खुलेआम और मन-ही-मन बहन चेंग को नीचा दिखाने की कोशिश कर रही थी। क्या इसे कर्तव्य निभाना कहा जाएगा? मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पाई।
उसके बाद, मैंने इस बारे में आत्मचिंतन किया कि आखिर मेरी समस्या क्या है। हर वक्त हर बात को लेकर बहन चेंग से अपनी तुलना करते रहना जीने का एक थकाऊ और पीड़ादायक तरीका था। परमेश्वर के वचनों से मुझे कोई प्रबुद्धता हासिल नहीं हो रही थी, मैं प्रार्थना में भी ध्यान नहीं दे रही थी, सभाएं उदासीन और नीरस होने लगी थीं, उनमें कोई रोशनी नहीं थी। मेरा मन अंधकार से भरा था। इस पीड़ा में, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की: "परमेश्वर, मैं नाम और रुतबे के लिए जी रही हूँ, दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए हमेशा उनसे होड़ करती हूँ और उनके साथ अपनी तुलना करती रहती हूँ। मुझे पता है यह सही स्थिति नहीं है, मगर मैं इन सबसे निकल नहीं पा रही। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं खुद को पहचान सकूँ।"
एक दिन, एक सभा में मेरी नज़र परमेश्वर के इन वचनों पर पड़ी: "जब मसीह-विरोधी किस्म के लोग कोई काम करते हैं, तो चाहे कोई भी काम हो और चाहे वे किसी भी समूह में हों, उनका आचरण अलग ही नजर आता है : वे हमेशा लोगों को विवश और नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। हमेशा लोगों की अगुआई करना चाहते हैं और चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का हो। वे हमेशा दिखते रहना चाहते हैं और सुर्खियों में बने रहना चाहते हैं; वे चाहते हैं कि उन पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजर और ध्यान जाए। मसीह-विरोधी जब भी किसी समूह में शामिल होते हैं, चाहे उसकी संख्या कुछ भी हो, समूह के सदस्य कोई भी हों, उनका पेशा या पहचान कुछ भी हो, मसीह-विरोधी सबसे पहले यह देखेंगे कि कौन अच्छा बोलता है, कौन प्रभावशाली है, कौन बहुत पढ़ा-लिखा है और कौन सबसे धनी है। वे देखते हैं कि वे किसे हरा सकते हैं और किसे नहीं, कौन उनसे आगे है और कौन पीछे। वे पहले इन चीजों का मूल्यांकन करते हैं। स्थिति का शीघ्रता से आकलन कर लेने के बाद, वे अपना काम शुरू कर देते हैं, जो उनके नीचे हैं उन्हें अलग कर देते हैं और उनकी उपेक्षा करते हैं। वे पहले उनके पास जाते हैं जिन्हें वे श्रेष्ठ मानते हैं, जिनके पास कुछ प्रतिष्ठा और कुछ हैसियत होती है, जिनके पास कुछ हुनर होता है और जो कुछ हद तक सक्षम होते हैं। वे खुद को पहले ऐसे लोगों से तौलते हैं। भाई-बहन यदि इनमें से किसी भी व्यक्ति का सम्मान करते हैं, यदि वे लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखते आ रहे हैं या अच्छी स्थिति में हैं, तो वे उन्हें निशाना बनाकर उनसे ईर्ष्या करने लगते हैं। वे उनके प्रतिस्पर्धा बन जाते हैं। फिर, मसीह-विरोधी चुपचाप ऐसे लोगों से अपनी तुलना करते हैं, जो सम्मानित हैं, जिनके पास हैसियत है और जिनकी बोलने की कला भाई-बहनों से अनुसरण करवा सकती है, वे यह देखते हैं कि वे क्या करने योग्य हैं और उन्होंने क्या महारत हासिल की है। देखने-समझने से, मसीह-विरोधियों को एहसास होता है कि ये लोग किसी पेशे-विशेष के विशेषज्ञ हैं, और लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास रखने या किसी और कारण से हर कोई उन्हें बहुत सम्मान देता है। एक बार जब वे ऐसे 'शिकार' की खोज कर लेते हैं, ऐसे प्रतियोगी को पहचान लेते हैं और कारण ढूंढ़ लेते हैं, तो मसीह-विरोधी एक कार्य-योजना तैयार करते हैं। वे यह देखते हैं कि वे अपने प्रतिद्वंद्वी के साथ कहाँ कमजोर पड़ रहे हैं, और वे उस चीज पर काम करने लगते हैं। यदि वे किसी पेशे में अपने विरोधी जितने अच्छे नहीं हैं, तो वे उस पेशे का अध्ययन करेंगे, हर तरह की जानकारी निकालेंगे और विनम्रतापूर्वक दूसरों से निर्देश माँगेंगे। वे उस पेशे से जुड़े हर तरह के काम में हिस्सा लेंगे, धीरे-धीरे अनुभव जमा करेंगे और अपनी शक्ति का विकास करेंगे। एक बार विश्वास हो जाने पर कि उनमें अपने प्रतिद्वंद्वी का मुकाबला करने की योग्यता आ गयी है, वे नियमित रूप से लोगों को अपने 'प्रबुद्ध विचारों' से अवगत कराने लगते हैं। वे अक्सर अपने प्रतिद्वंद्वी को मूर्ख दिखाने और उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए उसे जानबूझकर नकारते हैं और उसका महत्व घटाने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे यह प्रदर्शित करने में सक्षम होते हैं कि वे बाकियों से भिन्न हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी से अधिक प्रतिभाशाली हैं। क्या आम आदमी इन बातों को पहचान सकता है? अपनी इस पूरी हरकत के दौरान, मसीह-विरोधी ही जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं—उन्हें और परमेश्वर को ही पता होता है। साधारण लोग तो केवल उनका जुनून, उनकी खोज, उनकी पीड़ा, उनके द्वारा चुकाई गयी कीमत और अच्छा प्रतीत होने वाला उनका व्यवहार ही देख पाते हैं। जबकि पूरे मामले की सच्चाई उनके दिल की गहराई में छिपी होती है। उनका असली मकसद क्या होता है? वे हैसियत पाने के लिए ऐसा करते हैं। वे नहीं जानते कि जिस लक्ष्य की ओर उनका सारा काम, उनकी सारी मेहनत और उनके द्वारा चुकाई गई सारी कीमत लक्षित होती है, वह ऐसी चीज है जो उनके दिल में है और जिसे वे कभी नहीं भूल सकते, न ही कभी त्याग सकते हैं, वह है : हैसियत" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा असर पड़ा, मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मुझे ये भी एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरे विचारों और भावनाओं को बिल्कुल स्पष्ट देख रहा था। देखा जाए तो, जब से मैंने सिंचन का कार्यभार संभाला, मैं इसे दिखावा करने के मौके की तरह समझ रही थी। मैं दूसरे भाई-बहनों की समस्याओं का हल करके अपने लिए उनकी प्रशंसा और स्वीकृति पाना चाहती थी। जब अगुआ ने बहन चेंग को हमारे साथ काम करने भेजा, तब मेरा ध्यान हमारे कर्तव्य को साथ मिलकर अच्छे से निभाने पर नहीं, बल्कि उनके साथ होड़ करने और उनसे अपनी तुलना करने पर था। मेरा ध्यान सिर्फ इसी बात पर था कि सभी भाई-बहन अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाते हैं, हम दोनों में से किसकी प्रतिष्ठा ज़्यादा है और दूसरों के बीच किसकी जगह ज़्यादा ऊँची है। जब हर कोई अपनी समस्याओं को लेकर बहन चेंग के पास जाने लगा, तो मैं डर गई और अलग-थलग महसूस करने लगी, इसलिए मैं उन्हें अपने प्रतिद्वंदी की तरह देखने लगी। मैं उन्हें हराना चाहती थी, अपनी हर कथनी और करनी में उनसे आगे निकल जाना चाहती थी, मैंने दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए क्या कुछ नहीं किया। मैं इच्छा और महत्वाकांक्षा के काबू में आ चुकी थी मैंने तो रुतबा पाने की चाह में बहन चेंग की हार का भी आनंद उठाया। देखने में तो यही लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मगर मेरा ध्यान अपने कर्तव्य को अच्छे से करने, सभाओं का अधिक से अधिक लाभ उठाने या भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने में उनकी मदद करने पर नहीं था। मेरा उठाया गया हर एक कदम केवल शोहरत और रुतबा पाने के लिए था। क्या यह मसीह विरोधी स्वभाव नहीं है? मसीह विरोधी, रुतबे और शोहरत को सबसे ज़्यादा महत्व देते हैं। वे अपने से बेहतर लोगों से ईर्ष्या करते हैं, उनसे लड़ते हैं और हमेशा खुद की उनसे तुलना करते रहते हैं। वो रुतबा पाने, खुद को ऊँचा बताने और दिखावा करने के लिए दूसरों को रौंदने, नीचा दिखाने, और बदनाम करने से कभी पीछे नहीं हटेंगे। मैं जो भी कर रही थी क्या उसके पीछे मेरे मसीह विरोधी इरादे छिपे हुए नहीं थे? ऐसे इरादे के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए, मैं परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। इस बात का एहसास होते ही मैं बहुत दुखी हो गई, मैं जानती थी कि मुझे खुद को बदलना होगा। अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए मुझे वाकई सत्य की खोज और आत्मचिंतन करना होगा।
हाँ, मैंने इस बारे में भी थोड़ा सोच-विचार और खोज करने के बाद परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरा मार्गदर्शन करने को कहा, ताकि मैं इस समस्या की जड़ को समझ कर सचमुच पश्चाताप कर सकूँ। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "शैतान के खेमे में, चाहे वह कोई छोटा कार्यालय हो या कोई बड़ा संगठन, जनता के बीच हो या सरकारी स्तर पर, लोग किस वातावरण में कार्य करते हैं? उनके कार्यों के सिद्धांत और दिशानिर्देश क्या होते हैं? प्रत्येक व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है; हर कोई अपने रास्ते पर चलता है। वे अपने हित में और अपने आप ही कार्य करते हैं। जिस किसी के पास अधिकार होता है उसी का निर्णय अंतिम होता है। वे दूसरों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि जैसा वे चाहते हैं वैसा ही करते हैं, प्रसिद्धि, धन और हैसियत के लिए संघर्ष करते हैं। यदि तुम लोग न तो सत्य समझो और न ही उस पर अमल करो, तो क्या तुम, ऐसी स्थिति में, जहाँ तुम्हें परमेश्वर के वचन प्रदान नहीं किए गए हैं, उनसे अलग होगे? बिल्कुल नहीं—तुम बिल्कुल उनके जैसे ही होगे। तुम लोग उसी तरह लड़ोगे जैसे अविश्वासी लड़ते हैं। तुम लोग उसी तरह संघर्ष करोगे जैसे अविश्वासी संघर्ष करते हैं। सुबह से लेकर रात तक तुम ईर्ष्या और विवाद करोगे, साजिश और षड्यंत्र रचोगे। इस समस्या की जड़ क्या है? यह सब इसलिए होता है क्योंकि लोग भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं। भ्रष्ट स्वभाव का शासन शैतान का शासन है; भ्रष्ट मानवता बिना किसी अपवाद के, शैतानी स्वभाव में जीती है। तो, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम इतने अच्छे या विनम्र और ईमानदार हो, कि सत्ता और लाभ के लिए संघर्ष में लिप्त नहीं हो सकते। यदि तुम सत्य नहीं समझते और तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं है, तो तुम निश्चित रूप से अपवाद नहीं हो, और तुम किसी भी तरह अपनी निष्कपटता, दया या अपनी युवावस्था के कारण, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को कायम रखने के लिए लड़ाई-झगड़े से दूर नहीं रह पाओगे। लड़ना, चीजों को पकड़ना, संघर्ष करना—यह सभी शैतान के दुष्ट स्वभाव के प्रतीकात्मक व्यवहार हैं। हर कोई, बिना किसी अपवाद के, किसी भी कीमत पर प्रसिद्धि, धन और हैसियत के लिए लड़ाई-झगड़ा, हाथापाई और छल-कपट करता है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयास में, लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं। इसलिए, यदि तुम सत्य नहीं समझते, सत्य स्वीकार नहीं करते और सिद्धांत के आधार पर कार्य नहीं कर पाते, तो ये भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे विचारों और कार्यों पर हावी रहेंगे और उन्हें नियंत्रित करेंगे। तुम इससे बच नहीं सकते। अब, जब तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, तो तुम थोड़े-बहुत आज्ञाकारी, हृदय से लचीले, थोड़े गंभीर होते हो, और तुम्हारे अंदर जिम्मेदारी की एक भावना होती है, या तुम अपनी हैसियत की चिंता नहीं करते और अक्सर लड़ाई-झगड़े से दूर रह पाते हो, विनम्र हो पाते हो और शांतिपूर्ण ढंग से सहयोग कर पाते हो, तुम खोज करने और प्रतीक्षा करने योग्य होते हो। कोई व्यक्ति इस तरह का रवैया कैसे प्राप्त करता है? इसका संबंध परमेश्वर के प्रावधान और निर्देश से है। उनके बिना, लोग इन बातों को नहीं समझ पाते। बचपन से ही लोगों को सिखाया जाता है, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।' बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं : 'अव्वल बनने के लिए संघर्ष करना होगा। यदि तुम अव्वल होने के लिए लड़ोगे नहीं, तो तुम निकम्मे कायर हो, हर कोई तुम्हें हिकारत से देखेगा और तुम्हें धमकाएगा!' जब बच्चे थोड़े बड़े हो जाते हैं, तो वे अपने माता-पिता के निर्देश के बिना भी, अपने आप ही ऐसा सोचने लगते हैं। वे जहां भी जाएंगे, लड़ेंगे। वे सोचते हैं कि अगर वे लड़ेंगे नहीं तो मूर्ख बन जाएँगे। लोगों के समूह में, उन्हें लगता है कि यदि उनकी कुछ साख नहीं बनेगी और प्रतिष्ठा नहीं होगी, तो वे किसी काम के नहीं हैं। इसलिए, कल्पना, धारणा और ज्ञान के परे, मनुष्य के अंदर केवल भ्रष्ट स्वभाव होता है। इंसान, जिसका सार भ्रष्ट स्वभाव है, शैतान के स्वरूप को जीता है। उसका हर काम और कर्म शैतान के स्वभाव और शैतान के विचारों के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है। इससे कोई बच नहीं पाता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे पता चला कि क्यों मैं नाम और फ़ायदे के पीछे भागने से खुद को रोक नहीं पा रही थी। ऐसा इसलिए क्योंकि मेरे अंदर शैतानी दृष्टिकोण और विष भर कर मुझे भ्रष्ट कर दिया गया था, मुझे घर पर और स्कूल में यही सिखाया गया था, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है" और "तुम जितना अधिक सहोगे, उतना अधिक सफल होगे"। इसलिए किसी भी समूह में रहकर मुझे बस दूसरों से प्रशंसा की चाह थी, प्रशंसा मिलने और स्वीकृति पाने पर मैं बहुत खुश हुआ करती थी। मुझे लगता था कि केवल यही सम्मान भरा और अनमोल जीवन है। किसी के नीचे काम करके मुझे बहुत निरर्थक महसूस होता था, मैं अपना चेहरा नहीं दिखा पाती थी। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के बावजूद, मैं दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए अपना काम इन्हीं शैतानी विचारों और अवधारणाओं के अनुसार करती थी। भाई-बहनों के साथ कर्तव्य निभाने का मतलब है आपसी सहयोग से और एक-दूसरे की कमियों को पूरा करते हुए काम करना, ताकि हम बेहतर परिणाम दे सकें। हमें मददगार बनना चाहिए, बल्कि हमें तो एक-दूसरे का साथ देना चाहिए। मगर मैं बहन चेंग को अपना विरोधी समझ बैठी थी, हमेशा उन्हें हराने के पीछे पड़ी रहती थी। ऐसा करने में नाकाम होने पर, मैंने सभा में उनकी सहभागिता को खराब करने के लिए छल का सहारा लिया। ऐसे अमानवीय काम करके मैं अपने पापी और दुर्भावनापूर्ण स्वभाव को समझ पाने में सक्षम हुई। मैं हमेशा यही सोचती थी कि कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ना और प्रशंसा पाना ही जीने का एकमात्र सम्मानित तरीका है। इन शैतानी विषों के अनुसार जीवन जीकर, मेरी महत्वकांक्षाएं बढती गईं और मेरी समझ कम होती रही, जब तक कि मेरा व्यवहार दूसरों के प्रति कठोर और खासकर परमेश्वर के लिए घृणित नहीं हो गया। इसमें सम्मान कहाँ है? आखिर मुझे यह समझ आ गया कि शैतान के विषों ने मुझे कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। मैं अच्छी और बुरी चीज़ों के बीच अंतर नहीं कर पाती थी, मैं अपना विवेक और समझ खो चुकी थी। जिन मसीह विरोधियों को कलीसिया से निकाल दिया गया उन्होंने कभी सत्य की खोज नहीं की, वे सिर्फ नाम और रुतबे के पीछे भागते रहे, और अंत में उन्हें उजागर करके हटा दिया गया। हमेशा इन चीज़ों के पीछे भागते रहना परमेश्वर के विरोध और विनाश का मार्ग था। मैंने जाना कि इस तरह का जीवन जीने के परिणाम कितने भयानक होते हैं, अगर परमेश्वर के वचन मुझे उजागर नहीं करते, तो मैं खुद को कभी नहीं जान पाती, और किसे पता कि मैं कौन सा पाप कर बैठती?
एक सुबह, मैंने एक और अंश पढ़ा: "परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता कि उनमें एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने की क्षमता हो या वे कोई महान उपक्रम संपन्न करें, न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का प्रवर्तन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने देखा है उसे याद रखो और सही समय आने पर परमेश्वर के कहे अनुसार अभ्यास करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम्हारी जीवन-शैली और तुम्हारा जीवन बन जाएँ। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, कुलीनता और प्रतिष्ठा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? सत्य को व्यावहारिक तरीके से ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए परमेश्वर के वचन पर दृढ़ता से भरोसा करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करके और एक सच्चे की इंसान की तरह जीवन जी कर। इतना काफी है। मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालो या बेकार के सपने न देखो, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागो या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करो। इसके अलावा, ऐसे महान या अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश न करो, जो लोगों में श्रेष्ठ हो और दूसरों से अपनी पूजा करवाता हो। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; ऐसे सृजित प्राणियों को परमेश्वर नहीं बचाता। इसके बावजूद अगर कुछ लोग प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')।
परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर किसी से शोहरत पाने या महान बनने या कुछ शानदार हासिल करने के लिए नहीं कहता। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि हम बस उसके वचनों का अभ्यास करें और एक सृजित इंसान का कर्तव्य निभाकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करें। परमेश्वर की आँखों में केवल ऐसे इंसान के लिए सम्मान होता है जो उसे प्रसन्न करता है। लेकिन मेरा अनुसरण एक सृजित इंसान का कर्तव्य निभाने का नहीं था। यह हमेशा ही लोगों से प्रशंसा और उनकी स्वीकृति पाने का था, दूसरों के बीच अपनी धाक जमाने का था, जो परमेश्वर की इच्छा के बिल्कुल विपरीत है। हमारा मन परमेश्वर का मंदिर होना चाहिए, जहाँ हम उसकी पूजा और उसका गुणगान कर सकें। समस्याएं आने पर, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करके उस पर भरोसा करना चाहिए, उसके वचनों के अनुसार जीना चाहिए। मगर मैं तो हमेशा लोगों के दिलों में जगह बनाने की कोशिश में लगी रहती थी, ताकि वे मेरी प्रशंसा और मेरा सम्मान करें। मैं परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके लोगों के दिलों में उसकी जगह लेने की कोशिश कर रही थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता ज़रा सी भी नहीं थी। ऐसी बहुत सी चीज़ें थीं जिन्हें मैं समझने या हल करने में नाकाम थी, मगर फिर भी मैंने सिद्धांतों की बात की। मैं यही सोचती रही कि मैं बहुत महान हूँ और खुद को ऊँचा समझने लगी। मैं बेशर्मों की तरह दूसरों से वाहवाही और सम्मान पाना चाहती थी, जब मुझे ये सब नहीं मिला, तो मैं इनके लिए लड़ने लगी। मुझे खुद की पहचान बिल्कुल भी नहीं थी और बड़ी बेशर्म थी! परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है और वह सबसे श्रेष्ठ है। वह खुद देहधारण करके धरती पर आया है और मानवजाति को बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है। उसने कई अद्भुत कार्य किए हैं, मगर फिर भी कभी दिखावा नहीं करता कभी परमेश्वर होने का फायदा नहीं उठाता। वह गुप्त और विनम्र है। परमेश्वर का सार कितना मनोरम है। इस विचार ने मुझे और भी ज़्यादा शर्मिंदा और दुखी कर दिया। मैंने दैहिक इच्छाओं का त्याग करके सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया। मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, मेरी बेतुकी महत्वाकांक्षाएं काबू से बाहर हो चुकी हैं। मैं हर वक्त दूसरों से लड़ती रहती हूँ, उनसे अपनी तुलना करती हूँ और सबसे प्रशंसा पाने की उम्मीद करती हूँ। यह अच्छा मार्ग नहीं है और इससे तुम्हें नफ़रत है। मैं इस तरह से अब और नहीं जीना चाहती। मैं तुम्हारे वचनों के अनुसार जीवन जीकर अच्छे से अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।" उसके बाद, मैंने बहन चेंग के पास जाकर अपनी स्थिति और भ्रष्टता के बारे में सब कुछ बता दिया। हमने मिल-जुलकर काम करने के महत्व के बारे में सहभागिता की। उस पल मुझे बहुत दृढ़ता और सुकून महसूस हुआ।
तभी से, भले ही मैं अब भी हमारे काम में बहन चेंग से मुकाबला करने को तत्पर थी, मगर जब भी मेरे मन में यह ख्याल आता, मैं फ़ौरन प्रार्थना करने लगती, दैहिक इच्छाओं का त्याग करके परमेश्वर के वचनों का पालन करती। एक बार की बात है जब सभा की मेजबानी की बारी बहन चेंग की थी, मैंने देखा कि वे तैयारी में बहुत व्यस्त हैं, इसलिए मैंने दूसरी समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ लिये। मैंने सोचा, "इन अंशों को मैंने ढूँढा है। अगर सभा अच्छे से हुई, तो क्या सभी भाई-बहन ये सोचेंगे कि सारा काम बहन चेंग ने अकेले किया है? क्या वो ये सोचेंगे कि वे मुझसे ज्यादा काम करती हैं? शायद इस सभा की मेज़बानी मुझे करनी चाहिए।" मगर, जैसे ही मैंने अपनी बात कहने के लिए मुँह खोलने की कोशिश की, मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर नाम और फ़ायदे के लिए लड़ रही हूँ। तभी मुझे परमेश्वर के इन वचनों की याद आयी: "तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आज़माकर देखो! अगर तुम इस तरह की स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होना चाहते हो, तो तुम्हें पहले इन चीज़ों को अलग करना होगा और इन्हें छोड़ना होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। हमें त्याग करना सीखना होगा, दिखावा करने का कोई भी मौका छोड़ कर अन्य लोगों को सामने आने देना होगा। इससे हमें दिखावा करने या दूसरों की प्रशंसा पाने का मौका तो नहीं मिलेगा, मगर अंदर-ही-अंदर हमें मुक्ति का एहसास होगा। हम भ्रष्टता के काबू से मुक्त होकर परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाएंगे। यह सबसे महान इनाम है। इसलिए मैंने उनसे यह कहते हुए एक संदेश भेजा, "कल आप ही सभा की मेज़बानी करें, मैं सहभागिता में आपकी मदद करूँगी।" अगले दिन सभा में, मैं अपनी छवि के बारे में नहीं सोच रही थी, मैं यह सोच रही थी कि लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता कैसे की जाए। बहन चेंग और मैंने साथ में सहभागिता की, हम दोनों ने अपने-अपने हिस्से का योगदान दिया। इसके बाद, सभी ने यह कहा कि सभा उनके लिए बेहद फायदेमंद साबित हुई। मैंने इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद किया और सत्य का अभ्यास करने के आनंद को महसूस कर सकी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?