एक आध्यात्मिक पुनर्जन्म
मैं एक गरीब ग्रामीण परिवार में पैदा हुआ था जो अपनी सोच में पिछड़ा हुआ था। मैं छोटी उम्र से ही घमंडी था और हैसियत पाने की मेरी इच्छा विशेष रूप से प्रबल थी। समय के साथ, सामाजिक प्रभाव और पारंपरिक शिक्षा के माध्यम से, मैंने जीवित रहने के शैतान के सभी प्रकार के नियमों को अपने हृदय में बसा लिया था। सभी प्रकार के भ्रमों ने ख्याति और हैसियत की मेरी इच्छा को विकसित कर दिया था, जैसे कि अपने दो हाथों से एक खूबसूरत मातृभूमि का निर्माण करना, प्रसिद्धि तुम्हें अमर बना देगी, लोगों को चेहरे की वैसे ही आवश्यकता होती है जैसे एक पेड़ को अपनी छाल की आवश्यकता होती है, आगे बढ़ना और शीर्ष पर रहना, एक व्यक्ति को अपने पूर्वजों का नाम ऊंचा करना चाहिए, आदि। ये धीरे-धीरे मेरी जिंदगी बन गए और इनके कारण मुझे दृढ़ता से विश्वास हो गया कि जब तक हम इस संसार में जी रहे हैं, तब तक हमें दूसरों से सम्मान पाने के लिए कार्य करना है। चाहे हम किसी भी तरह के लोगों के साथ हों, हमारे पास हैसियत अवश्य होनी चाहिए, हमें सबसे उत्कृष्ट होना चाहिए। केवल इस तरह से जीने के माध्यम से ही हममें सत्यनिष्ठा और गरिमा हो सकती है। केवल इस तरह से जीवन जीने का ही मूल्य है। अपने सपने को पूरा करने के लिए, मैंने प्राथमिक विद्यालय में बहुत मेहनत से अध्ययन किया; तूफान हो या बीमारी, मैंने कभी भी कक्षा नहीं चूकी। एक-एक दिन बीतता गया और मैं अंततः माध्यमिक विद्यालय में पहुँच गया। जब मैंने देखा कि मैं अपने सपने के काफी नज़दीक पहुँच रहा हूँ, तो मैंने धीमा पड़ने का साहस नहीं किया। मैं बार-बार अपने आप से कहता था कि मुझे डटे रहना है, कि मुझे अपने शिक्षकों और सहपाठियों के सामने अच्छी तरह से पेश होना है। हालाँकि, तभी, कुछ अप्रत्याशित घटित हुआ। हमारे प्रमुख शिक्षक और स्कूल के प्रधानाचार्य के बारे में एक बदनामी का किस्सा सामने आया, जो कोहराम का कारण बन गया। सभी शिक्षक और छात्र इसके बारे में जानते थे। एक दिन कक्षा में, उस शिक्षिका ने हमसे पूछा कि क्या हमने इसके बारे में सुना है और अन्य सभी विद्यार्थियों ने कहा "नहीं।" केवल मैं ही एक ऐसा था जिसने ईमानदारी से उत्तर दिया कि "मैंने सुना है।" उस समय से, मैं उस शिक्षिका की आँख में गड़ने लगा था और वो मेरे लिए चीज़ों को मुश्किल बनाने और मुझ पर कड़ी कार्यवाही करने के लिए प्रायः बहाने ढूँढती। मेरे सहपाठियों ने मुझसे दूरी रखनी शुरू कर दी और मुझे अलग करना शुरू कर दिया। वे मेरा मजाक उड़ाते और मुझे अपमानित करते थे। अंततः, मैं उस तरह की पीड़ा को अब और बर्दाश्त करने में समर्थ नहीं था और मैंने विद्यालय छोड़ दिया। इस तरह से आगे बढ़ने और शीर्ष पर होने का मेरा सपना कुचल दिया गया था। ख़्यालों में खोये हुए जब मैंने भविष्य के दिनों के बारे में सोचा तो मुझे एक अकथनीय उदासी और अवसाद महसूस हुआ। मैंने सोचा: क्या ऐसा हो सकता है कि मेरा जीवन इतने साधारण ढंग से बीत जाएगा? कोई हैसियत नहीं, कोई प्रतिष्ठा नहीं, कोई भविष्य नहीं। इस तरह जीने का क्या मतलब है? मैं सच में उस समय उस तथ्य को स्वीकार करने का इच्छुक नहीं था, किन्तु मैं अपनी परिस्थितियों को बदलने में असहाय था। मैं इस पीड़ा और निराशा में, जिससे मैं अपने आप को निकालने में समर्थ नहीं था, जी ही रहा था कि तभी सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे बचा लिया और मेरे हृदय में उस आशा को फिर से जला दिया जो बुझ गई थी। तब से मैंने एक पूरी तरह से नया जीवन शुरू किया।
मार्च 1999 में, एक भाग्यशाली अवसर से मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को सुना। मुझे पता चला कि देहधारी परमेश्वर पृथ्वी पर आ गया है और वह स्वयं मानव जाति से बात कर रहा है और हमें शैतान के अधिकार क्षेत्र से बचाने, पीड़ा और पतन के हमारे जीवन को छोड़ने, एक नए स्वर्ग और पृथ्वी में रहने देने के लिए मानवजाति की अगुआई कर रहा है। और अपने भाई-बहनों कीधैर्यवान और श्रमसाध्य संगति से, मैंने कई सत्यों को सुना जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं सुना था, जैसे कि: परमेश्वर की छः-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना, परमेश्वर के देह बनने का रहस्य, भ्रष्ट लोगों को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की आवश्यकता है, प्राणियों को किस प्रकार की समझ धारण करनी चाहिए, समस्त सृष्टि के प्रभु की आराधना कैसे करें, अपनी उचित मानवता कैसे जीएँ, वास्तव में मानव जीवन क्या है...। मैं इन सत्यों द्वारा अत्यधिक आकर्षित हो गया था और उन्होंने मुझमें दृढ़ विश्वास पैदा किया कि यह सच्चे परमेश्वर का कार्य है। उस दिन मेरे भाई-बहनों ने जीवन अनुभव का एक गीत भी गाया, "परमेश्वर हमें पूरी गहराई से प्रेम करता है": "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं तुझ में विश्वास रखता हूँ। यह सोचकर कि मैं दुनिया में कैसे भटका करता था, मैं लोगों की चंचलता और उदासीनता को गहराई से महसूस करता हूँ। मैंने संघर्ष किया और अंधेरे में भटका। जीवन की पीड़ाओं का कोई अंत नहीं है; आँसुओं से चेहरा पोंछते हुए, मैं बरसों तक तड़पता रहा। नाउम्मीदी में, मैं केवल बेबसी और मायूसी की ज़िंदगी जी सकता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर, तू हमें पूरी गहराई से प्रेम करता है। तेरे वचन जगाते हैं मुझे। मैंने आख़िरकार अपने दर्द भरे जीवन को दूर कर दिया है और मैं तेरे पास वापस आ गया हूँ। तेरे वचन मुझे प्रकाशित करते हैं, मैं एक उज्ज्वल जीवन देखता हूँ। मैं तेरे वचनों का आनंद लेता हूँ और तेरी उपस्थिति में रहता हूँ, मेरा दिल शांति और आनंद से भर गया है" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। इसने प्रकाश की एक किरण की तरह मेरी आत्मा को प्रकाशित कर दिया जो लंबे समय से अंधकार में थी, और मैं रोने लगा। ऐसा प्रतीत होता था कि दमन, अन्याय और उदासी भरे अनेक वर्षों से अचानक छुटकारा मिल गया हो। मेरा हृदय बहुत हल्का महसूस हो रहा था। इस उत्तेजना के अलावा, लाखों लोगों के बीच में से मुझे चुनने, मेरी थकी हुई, उदास आत्मा को एक स्नेह स्थल प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए मैं परमेश्वर के प्रति और भी अधिक आभारी था। तब से मेरा जीवन मौलिक रूप से बदल गया। मैं अब और उदास और खिन्न नहीं था, बल्कि मैंने अपना पूरा मन परमेश्वर के वचन को पढ़ने, सभाओं में जाने, और सत्य पर संगति करने में लगा दिया। हर दिन भरपूर और सुखद था। बाद में मैंने सुसमाचार का उपदेश देने का कर्तव्य करना शुरू कर दिया। क्योंकि मैं काफी उत्साही और सकारात्मक था और साथ ही चूंकि मुझमें एक निश्चित क्षमता थी, इसलिए कुछ समयावधि के बाद मेरे कार्य से वास्तव में परिणाम मिलने लगे। मुझे अपने ईसाई धर्मप्रचारक दल के अगुआ की प्रशंसा मिली, और कलीसिया के भाई और बहन भी मुझे आदर से देखते थे। वे हमेशा उन चीज़ों के बारे में मुझसे पूछते थे जो सुसमाचार का उपदेश देने के बारे में उन्हें समझ में नहीं आती थीं। इससे अनजाने में ही मैं थोड़ा अहंकारी होने लगा, और मैंने सोचा: मैंने इतनी जल्दी कलीसिया में वो ख्याति और हैसियत प्राप्त कर ली है जिसकी मैंने इतने वर्षों तक दुनिया में आशा की थी। मेरे अंदर के "नायक" को अंततः इसका स्थान मिल गया है! अपनी उपलब्धियों को देखकर मुझे बहुत संतुष्टि महसूस होती थी और मैं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए और भी कड़ी मेहनत करता था। चाहे कितनी ही बड़ी कठिनाई मेरे सामने आती, मैं इस पर विजय पाने के लिए पूरी कोशिश करता। कलीसिया मेरे लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करती थी, मैं स्वेच्छा से आज्ञापालन करता था और इसे पूरा करने के लिए अपनी पूरी जान लगा देता था। कभी-कभी कलीसिया का अगुआ मुझसे निपटता था और मेरे पहलुओं की काँट-छाँट करता था क्योंकि मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था। चाहे मैं कितना भी परेशान होता लेकिन बाहर से मैं कोई बहाने नहीं बनाता था। हालाँकि इस समयावधि के दौरान मैंने काफी कष्ट उठाया था, किन्तु जब तक मेरे भाई-बहनों के बीच मेरी हैसियत थी, और मुझे उनके द्वारा आदर से देखा जाता था, तो मुझे महसूस होता था कि इस कीमत का भुगतान करना उचित है। किन्तु परमेश्वर लोगों के हर अंग में देख सकता है। मानवीय जीवन और मूल्यों पर मेरे ग़लत दृष्टिकोणों को रूपान्तरित करने के लिए, परमेश्वर में मेरे विश्वास में और मेरे कर्तव्य करने में अशुद्धताओं को शुद्ध करने के लिए, परमेश्वर ने मुझे बचाने और मेरा न्याय करने के लिए बार-बार परिवेशों की व्यवस्था की।
सन 2003 की बात है, जब मुझे अपने ईसाई धर्म प्रचारक दल के अगुआ के रूप में कार्य करने के लिए पदोन्नत किया गया था। मेरी हैसियत में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ मेरे कार्य का दायरा भी बढ़ गया था, और मैं खुद से और भी अधिक प्रसन्न हो गया: स्वर्ण हर कहीं चमकता है। अपना कार्य अच्छी तरह से करने और लगातार उन्नति करने का मैंने दृढ़ संकल्प लिया है ताकि मेरे भाई-बहन मुझसे ईर्ष्या करेंगे और मेरी और अधिक प्रशंसा करेंगे। यह कितना अद्भुत होगा! जब मैं वहाँ पहुँचा जहाँ मुझे अपना कर्तव्य करना था, तो अगुवा ने इस बात को ध्यान में रखा कि मैंने अभी-अभी इस प्रकार के कार्य को हाथ में लिया है और मुझमें अनुभव और कार्य के तरीकों दोनों का अभाव है, इसलिए उसने आसपास के इलाकों से कई अन्य ईसाई धर्म प्रचारक दल के अगुआओं को एक साथ इकट्ठा किया ताकि हम एक दूसरे से सीख सकें। किन्तु संगति के दौरान, मैंने देखा कि वे सभी मेरी अपेक्षा अधिक उम्र के थे और वे सब कम क्षमता वाले थे। परमेश्वर के वचनों पर संगति के समय उन्होंने उतना स्पष्ट रूप से संवाद नहीं किया जितना मैंने किया था। मेरे मन में अहंकार घर कर गया और मैं उन सभी को तुच्छ समझने लगा। मुझे लगता कि अपने गुणों के भरोसे मैं निश्चित रूप से अच्छा काम करने में समर्थ हो जाऊँगा। सभा के बाद मैं तुरंत प्रत्येक दल के पास उनके कार्य की समझ प्राप्त करने के लिए जाता था। जब मुझे उनके कार्य में कुछ त्रुटियाँ और चूकें नज़र आयीं और यह पता चला कि दल के कुछ भाई-बहन सुसमाचार का उपदेश देने और परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं, तो मैं चिंतित और नाराज हो गया। मैं अपने भाइयों और बहनों को डाँटे बिना नहीं रह पाया: "क्या अपने कर्तव्य को इस तरह से पूरा करना वास्तव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो सकता है? आप कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते हैं, किन्तु आप परमेश्वर द्वारा बचाया जाना चाहते हैं। क्या इस तरह के व्यक्ति में कोई समझ है? ..." और कभी-कभी संगति के दौरान, हर एक को यह बताते हुए कि मैंने कैसे ईसाई धर्म प्रचारक कार्य में भाग लिया था, उन सभी परिणामों के बारे में बताते हुए जो मुझे प्राप्त हुए थे, मैं इतराता था। जब मैं अपने भाइयों और बहनों के चेहरों पर ईर्ष्या देखता तो मैं बहुत आत्मसन्तुष्ट होता था और मुझे लगता था कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक ज़िम्मेदार हूँ। समय के साथ, मेरे भाई-बहन किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने के लिए मेरे पास आते थे और परमेश्वर से प्रार्थना करने या उस पर भरोसा करने पर अब और ध्यान केंद्रित नहीं करते थे। और न केवल मुझे डर नहीं लगता था, बल्कि मुझे इसमें मज़ा आता था। अंत में, मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को पूरी तरह से गँवा दिया और मैं वास्तव में अब और कार्य नहीं कर पा रहा था। 2004 की शुरुआत में कलीसिया ने मुझे मेरे कर्तव्यों से मुक्त कर आध्यात्मिक चिंतन के लिए मुझे वापस घर भिजवा दिया। इस परिणाम के सामने, ऐसा लगा था मानो कि मैं बहुत जल्दी एक अथाह गड्ढे में गिर गया था। मेरा संपूर्ण शरीर हताशा की तीव्र भावना से निस्तेज और कमज़ोर हो गया था, और मैं यह सोचे बिना नहीं रह पाया: जब मैंने पहली बार अपना कर्तव्य करना शुरू किया था तो यह बहुत अद्भुत था। और अब, इस तरह के अपमान के साथ वापस जाना, मैं अपने परिवार और अपने गृहनगर में भाइयों और बहनों का सामना कैसे कर पाऊँगा? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे मेरा मजाक बनाएँगे, मुझे तुच्छ समझेंगे? जैसे ही मैं अन्य लोगों के मन में अपनी छवि और हैसियत को खोने के बारे में सोचता, तो मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे कि जैसे मैं बिखरने वाला हूँ। मैं नकारात्मकता में रह रहा था जिससे मैं स्वयं नहीं निकल सकता था, यहाँ तक कि मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ना भी जारी नहीं रख सकता था। इस पीड़ा के बीच में, परमेश्वर से प्रार्थना करना ही एकमात्र विकल्प था: "हे परमेश्वर! मैं अब बहुत कमज़ोर हो गया हूँ और मेरी आत्मा अंधकार में है क्योंकि मैं इस तथ्य को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ कि मेरा स्थान किसी और को दे दिया गया है। मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं का पालन करने का भी अनिच्छुक हूँ किन्तु मैं जानता हूँ कि तू जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है और तेरी उदार इच्छा से युक्त होता है। मैं तेरे द्वारा प्रबुद्ध किए जाने और तेरी इच्छा को समझने का इच्छुक हूँ।" प्रार्थना करने के बाद, परमेश्वर के ये वचन मेरे लिए प्रबुद्धता लाए: "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। ... यद्यपि आज तुम लोग इस चरण तक पहुँच गए हो, तब भी तुम लोगों ने हैसियत का राग अलापना नहीं छोड़ा, बल्कि लगातार इसके बारे में पूछताछ करते रहते हो, और इस पर रोज नज़र रखते हो, इस गहरे डर के साथ कि कहीकहीं किसी दिन तुम लोगों की हैसियत खो न जाए और तुम लोगों का नाम बर्बाद न हो जाए। ... अब तुम लोग अनुयायी हो, और तुम लोगों को कार्य के इस स्तर की कुछ समझ प्राप्त हो गयी है। लेकिन, तुम लोगों ने अभी तक हैसियत के लिए अपनी अभिलाषा का त्याग नहीं किया है। जब तुम लोगों की हैसियत ऊँची होती है तो तुम लोग अच्छी तरह से खोज करते हो, किन्तु जब तुम्हारी हैसियत निम्न होती है तो तुम लोग खोज नहीं करते। तुम्हारे मन में हमेशा हैसियत के आशीष होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि अधिकांश लोग अपने आप को निराशा से निकाल नहीं पाते? क्या उत्तर हमेशा निराशाजनक संभावनाएँ नहीं होता?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों में प्रकट किए गए न्याय ने मुझे एक कठोर जागृति दी, और मुझे समझाया कि उस समय परमेश्वर का कार्य मेरी हैसियत की अभिलाषा से निपटना था, मुझसे जीवन के उचित रास्ते पर कदम रखवाना था। जब मैंने अपना कर्तव्य करना शुरू किया था, उस समय के बारे में सोचूँ तो, मैं उस समय के दौरान बहुत सकारात्मक था जब मेरे पास हैसियत थी। मैं बेहद आत्मविश्वासी था और कष्ट या कठिनाइयों से नहीं डरता था। जब मेरा सामना किसी ऐसे से होता था जो मुझसे निपटता या मेरे पहलुओं की काँट-छाँट करता था तो मैं इसका विरोध नहीं करता था। किन्तु तब, जब मुझे जाने दिया गया था और घर लौटना पड़ा था उसके बाद मैं अपनी नकारात्मकता से बाहर नहीं आ पा रहा था। मैंने देखा कि बाहर से ऐसा प्रतीत होता था कि मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूँ, किन्तु वास्तविकता में मैं स्वयं चीज़ों का प्रबंधन करते हुए अपना कर्तव्य पूरा करने का झंडा लहरा रहा था। यह पूरी तरह से अपनी स्वयं की वर्षों से छुपी अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए परमेश्वर का उपयोग करना था—आगे होना और उच्च दिखाई देना। और यह सत्य का अनुसरण करने के लिए नहीं था और यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने के लिए तो बिल्कुल नहीं था। जब मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था और मैं अपने भाई-बहनों की कमियों को देखता था, तो मैं न केवल प्रेम से प्रेरित होकर उनकी सहायता नहीं करता था, बल्कि मैं अपनी हैसियत के भरोसे उन्हें डाँटता था। मैं जानबूझ कर स्वयं को ऊँचा उठाता था, स्वयं के लिए एक गवाही देता था, और मैं हर एक को लेकर व्याकुल रहता था कि वो मेरा आदर करे और मेरी प्रशंसा करे। शुरुआत से लेकर अंत तक, अपने विचारों और कार्यों में मेरा केवल एक ही लक्ष्य था—क्या बेशर्मी से परमेश्वर का विरोध करना नहीं था? मानवजाति परमेश्वर द्वारा सृजित की गई थी, इसलिए हमें आराधना करनी चाहिए और उसका आदर करना चाहिए। हमारे हृदय में केवल परमेश्वर की ही हैसियत होनी चाहिए, किन्तु मैं एक गंदा और भ्रष्ट, नीच व्यक्ति था जो दूसरों के दिल में जगह बनाना चाहता था। क्या यह बहुत अहंकारी होना नहीं है? क्या यह अपमानजनक और परमेश्वर के विपरीत नहीं है? क्या यह व्यवहार परमेश्वर के स्वभाव का एक गंभीर अपमान नहीं है? जब मैंने इसके बारे में सोचा तो, मैं अपने स्वयं के अहंकारी स्वभाव से डरने लगा। बात ये थी कि मैं पहले से ही परमेश्वर के दण्ड के अधीन होने की ख़तरनाक परिस्थिति में था! परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है और मानवजाति के अपमानों को बर्दाश्त नहीं करता है। वह, मुझे, इस विद्रोही बच्चे को, निर्दयतापूर्वक उसके कार्य को अस्तव्यस्त करने और गड़बड़ी करने देना कैसे बर्दाश्त कर सकता था? केवल तभी मुझे एहसास हुआ कि मुझे छोड़ दिया जाना परमेश्वर की महान सहिष्णुता और महान प्रेम था। अन्यथा, मैंने उस हद तक बड़ी दुष्टता कर दी होती कि वह मुझे क्षमा करने में असमर्थ होता। तब बहुत देर हो जाती। मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा मैं उतना ही अधिक डरगया, और उतना ही अधिक मुझे महसूस हुआ कि मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ। मैं उसके सामने दण्डवत होकर यह प्रार्थना किए बिना नहीं रह पाया: "हे परमेश्वर! मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी, बहुत सतही है। मैंने अपना कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण नहीं किया है, और मैंने तेरे प्रेम को चुकाने के बारे में विचार नहीं किया है। मैं प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए इधर-उधर भागने में व्यस्त था, और मैंने कलीसिया में आगे बढ़ने में अपना मन लगा लिया था, तो ऐसा कैसे हो सकता था की मैं इस तरह के इरादे के साथ अपना कर्तव्य पूरा करने के दौरान ठोकर न खाऊँ और गिर न पड़ूँ? यदि समय पर तेरे न्याय और ताड़ना, और तेरे व्यवहार और काँट-छाँट मुझ पर नहीं आए होते, तो मैं निश्चित रूप से मसीह के दुश्मन के मार्ग पर चलना जारी रखता। अंत में मैंउद्धार के अपने अवसर को बर्बाद कर देता। हे परमेश्वर! मेरे प्रति तेरी दया और तेरे उद्धार के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ। आज के दिन से, शीघ्र ही अपने भ्रष्ट स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए, मैं अपनी महत्वाकांक्षी अभिलाषाओं को छोड़ने और सत्य का अनुसरण करने, और तेरे न्याय और तेरी ताड़ना को और अधिक स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।" परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन ने मुझे मेरी नकारात्मकता से बाहर निकाला और मुझे मेरे अहंकारी स्वभाव और परमेश्वर का विरोध करने के सार की कुछ पहचान प्राप्त करने की अनुमति दी। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में भी कुछ समझ प्राप्त हुई, और मुझे अपने हृदय में एक महान मुक्ति महसूस हुई। मैं ऐसे किसी भी परिवेश में जो परमेश्वर ने मेरे लिए बनाया है, सत्य को खोजना, और उसकी इच्छा को और अधिक गहराई से समझना जारी रखने की इच्छुक हूँ।
उसके बाद अपने प्रयासों में, मैंने परमेश्वर के वचनों को देखा जिनमें कहा गया है: "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों ने लोगों को पहले से ही पूर्णतः स्पष्टऔर समझ में आने लायक ढंग से बता दिया था कि उसकी इच्छा और अपेक्षाएँ क्या हैं ताकि मानवजाति अनुसरण का एक उचित तरीका समझ सके और समझ सके कि ग़लत मार्ग क्या है। उस समय मैं प्रतिष्ठा और हैसियत को हर चीज़ से ऊपर रखता था, किन्तु वास्तविकता में, परमेश्वर यह नहीं देखता है कि लोगों की हैसियत कितनी उच्च है, और उनकी वरिष्ठता किस प्रकार की है, या परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए उन्होंने कितना कष्ट झेला है। वह इस बात को देखता है कि उन्होंने सत्य का अनुसरण किया है या नहीं और उन्हें परमेश्वर की वास्तविक समझ है या नहीं। जिनके पास सत्य है, किन्तु कोई उच्च हैसियत नहीं है वे भी उसकी प्रशंसा प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जिनके पास सत्य नहीं है और उच्च हैसियत है वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर घृणा और अस्वीकार करता है। यह परमेश्वर का धार्मिकता और पवित्रता का स्वभाव है। हैसियत किसी व्यक्ति के भाग्य का निर्धारण नहीं कर सकती है, न ही यह किसी व्यक्ति के परमेश्वर पर विश्वास में उसके उद्धार की प्रतीक है। विशेष रूप से यह किसी व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा सिद्ध बनाए जाने का कोई चिह्न नहीं है। किन्तु मैंने अपने मूल्य को मापने के लिए हमेशा अपनी हैसियत का उपयोग किया था और मेरी सबसे बड़ी खुशी दूसरों के द्वारा आदर और प्रशंसा पाना रही थी। क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रतिकूल नहीं था? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करना पूरी तरह से व्यर्थ नहीं था? मैं परमेश्वर द्वारा न केवल बचाए जाने में असमर्थ होता, बल्कि अंत में अपने बुरे तरीकों के कारण मैंने परमेश्वर के दण्ड को झेला होता। उस समय, परमेश्वर ने मुझे सत्य में प्रवेश करने, स्वभाव में परिवर्तन की खोज करने, परमेश्वर की आज्ञा का अनुसरण करने और परमेश्वर से प्रेम करने में समर्थ होने, और अंत में उसके द्वारा बचाये और सिद्ध बनाये जाने की अनुमति दी थी। केवल यही सही मार्ग था। इस सब को समझने के बाद, मेरा हृदय परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया था। उसके न्याय और उसकी ताड़ना का धन्यवाद जिसने मुझे प्रतिष्ठा और हैसियत का पीछा करने के खतरे और परिणामों को अंततः स्पष्ट रूप से देखने दिया, मुझे गलत मार्ग में से वापस खींच लिया और मुझे प्रबुद्ध किया था ताकि मैं परमेश्वर की इच्छा को समझ सकूँ। केवल तभी मैं समय पर जागने और वापस लौटने में समर्थ हुआ था। उस अनुभव के माध्यम से अनुसरण पर अपने गलत दृष्टिकोण के बारे में मुझे कुछ ज्ञान मिल गया था, मैं कुछ सत्यों और साथ ही परमेश्वर के दयालु इरादों को भी समझ गया था, और मेरी मनःस्थिति एक बार फिर से ठीक हो गयी। मैंने एक बार फिर से खुद को अपने कर्तव्य को पूरा करने में लगा दिया।
सन 2004 की जुलाई में मैं पहाड़ों में एक दूरदराज के क्षेत्र में गया और वहाँ सुसमाचार के कार्य पर एक भाई के साथ सहयोग किया। जब मैंने उस कार्य को शुरू किया, तो मैंने अपनी पिछली असफलता को सबक के रूप में ध्यान में रखा। मैंने बार-बार अपने आप को प्रतिष्ठा या हैसियत का अनुसरण नहीं करने बल्कि एक सृजन के रूप में ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करने की याद दिलायी, इसलिए जब कोई ऐसे मुद्दे होते थे, जो मेरी समझ में नहीं आते थे या जिन पर मैं स्पष्ट नहीं होता था, तो मैं अपने आप के बारे में न सोचकर सक्रिय रूप से अपने भाई के साथ संगति करने की कोशिश करता था ताकि इस पर चर्चा कर सकूँ और इसे हल कर सकूँ। किन्तु जैसे-जैसे मेरे कार्य के अधिक से अधिक परिणाम आने लगे, मेरी अहंकारी प्रकृति ने एक बार फिर अपना सिर उठा लिया और मैंने अपनी छवि और हैसियत पर पुनः ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। एक बार एक सभा के दौरान, स्थानीय ईसाई धर्म प्रचारक दल के एक सदस्य ने मुझे खुशी से कहा: "आपके यहाँ आने के कारण हमने अधिक विश्वासियों को परिवर्तित कर दिया है। ..." मेरे मुँह से निकला कि यह तो पवित्र आत्मा के कार्य का परिणाम था, किन्तु अपने हृदय में मैं स्वयं से बहुत खुश था। सभा समाप्त होने और अपने मेजबान परिवार के घर मेरे लौट जाने के बाद, मैंने अपने बिस्तर पर बैठकर अपने मन में उस समय के दौरान अपने कार्य के हर दृश्य को दोहराया। मैं स्वयं को बधाईदिये बिना न रह पाया, और यह सोचने लगा कि: ऐसा लगता है कि मुझमें इस कार्य की वास्तविक क्षमता है। यदि मैं कड़ी मेहनत करना जारी रखता हूँ, तो मुझे निश्चित रूप से पुनः पदोन्नत किया जा सकता है। तब मैंने अपने आप को पूरी तरह से एक नायक के रूप में देखा, और मेरे हृदय से परमेश्वर के प्रति सम्मान पहले ही जा चुका था। उसके बाद से अपने कर्तव्य को करते समय, मैंने हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा करनी और अपने सहकर्मियों के साथ पद की तुलना करनी शुरू कर दी। मैंने अपने भाई-बहनों के सामने बेशर्मी से दिखावा करना शुरू कर दिया, मानो कि हमारे कार्यों से कोई भी परिणाम मेरे प्रयासों के कारण ही थे। जैसे ही मैं फिर से खाई में फिसलने की ओर एक-एक कदम बढ़ा रहा था, तभी परमेश्वर ने मेरी ओर एक बार फिर उद्धार का हाथ बढ़ाया। एक शाम मुझे अचानक एक गंभीर फ्लू हो गया। मेरा तापमान 102 डिग्री तक पहुँच गया और कई दिनों तक दवा लेने के बाद भी मैं ठीक नहीं हुआ। मैं एक जलसेक लेने के लिए चिकित्सालय गया, किन्तु मेरी हालत सुधरने के बजाय और अधिक गंभीर हो गई। मैं किसी भी चीज़ को, यहाँ तक कि पानी को भी, नहीं निगल सकता था। अंततः, मैं बिस्तर पर पड़ गया और मुझे लगने लगा मानो कि मैं मृत्यु के कगार पर हूँ। उस बीमारी की यंत्रणा में, मैं अब ये नहीं सोचता था कि अगले दिन मेरी किस प्रकार की हैसियत होगी। मैं जल्दी से घुटने के बल बैठ गया और परमेश्वर से प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! मुझ पर आयी यह बीमारी तेरी उदार इच्छा और साथ ही तेरा धार्मिक स्वभाव है। मैं तुझे ग़लत समझना नहीं चाहता हूँ या तुझ पर दोष लगाना नहीं चाहता हूँ; मैं तुझसे एक बार पुनः मुझे प्रबुद्ध और रोशन करने, मुझे तेरी इच्छा को समझने की अनुमति देने की प्रार्थना करता हूँ ताकि मैं अपनी स्वयं की भ्रष्टता को और अधिक गहराई से समझ सकूँ।" प्रार्थना करने के बाद, मेरा हृदय बहुत अधिक शांत हो जाता था। तभी, परमेश्वर के ये वचन अचानक मुझे मिले: "तुम सबकी अभिमानी और दंभी प्रकृति तुम सबको अपने अंतःकरण के साथ विश्वासघात करने, मसीह के खिलाफ विद्रोह करने और उसका विरोध करने और अपनी कुरूपता प्रकट करने के लिए प्रेरित करती है, और इस तरह तुम सबके इरादों, धारणाओं, असाधारण इच्छाओं और लालच से भरी नज़रों को प्रकाश में ले आती है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर के इन वचनों में से हर एक ने मेरे हृदय को तलवार की तरह छेद दिया; उन्होंने मेरे मर्मस्थल पर चोट की। हर एक तरह की अहंकार की कुरूपता जो मैंने प्रकट की थी, बहुत स्पष्टता के साथ मेरे मन में आई। मेरा हृदय पीड़ा में था और मैं बेहद व्याकुल और शर्मिंदा था। तब जाकर मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि यह मेरी स्वयं की अहंकारी प्रकृति थी जो मेरी अंतरात्मा के मूल कार्य को गँवा देने का कारण बनी थी जिसकी वजह से मैं हमेशा ईमानदारी से परमेश्वर का आज्ञापालन और उसकी आराधना करने में समर्थ नहीं हो पाता था। यह हमेशा मेरी महत्वाकांक्षा और अभिलाषा को आश्रय देने का कारण बनती थी, और जैसे ही मुझे कुछ अवसर मिलता, मैं हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा करता, और मैं स्वयं का दिखावा करना और दूसरों को दबाना चाहता था। मैं एक अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति हो ही नहीं सकता था। यह स्पष्ट था कि मेरे कार्य का हर परिणाम पवित्र आत्मा के कार्य पर निर्भर करता था; यह परमेश्वर का आशीष था। लेकिन, मैंने बेशर्मी से परमेश्वर की महिमा चुरा ली, स्वयं को ऊंचा उठाने के लिए अवसर का लाभ उठाया और अपने भाई-बहनों का सम्मान पाने और उनके द्वारा पूजे जाने का आनंद लिया; मैं इतना अहंकारी हो गया था कि मैं अपना विवेक खो बैठा। तब जाकर मुझे ये एहसास हुआ कि मेरी यह अहंकारी प्रकृति निश्चित रूप से परमेश्वर के प्रति मेरे विरोध की मूल थी। यदि मैं इसका समाधान नहीं करता हूँ, तो मैं कभी भी परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता या अपने कर्तव्य को पूरा करने के प्रति निष्ठा प्राप्त नहीं पाऊँगा।
परमेश्वर के मार्गदर्शन के तहत, मैंने एक बार पुनः उसके वचनों के बारे में विचार किया: "जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि 'मुझे ईमानदार और व्यवहारिक होना चाहिए, और परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।' तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वयं को जानना मुख्यतः मानवीय प्रकृति को जानना है')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे लिए अभ्यास का और प्रवेश करने का मार्ग दिखाया, और दिखाया कि यदि मैं प्रतिष्ठा और हैसियत की संभावनाओं के बारे में अपने विचारों को पूरी तरह से छोडना चाहता हूँ, तो मुझे अपनी स्वयं की प्रकृति को जानने में प्रयास लगाने पड़ेंगे। जब मैं सचमुच देख सकूँगा कि मैं कितना नीच, कितना बेकार हूँ, तो मैं कम-महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने में समर्थ हो पाऊँगा तथा अब और अहंकारी नहीं होऊंगा। तब, मैं अपने दोनों पैरों को दृढ़ता से जमीन पर रख कर सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हो जाऊंगा। वास्तविकता में, परमेश्वर का इस न्याय और ताड़ना को देना, यह झटका और अनुशासन, मेरे लिए मेरे स्वयं के सार और मेरी अंतर्निहित पहचान और हैसियत की सच्ची समझ पाने के लिए थी। यह मुझे परमेश्वर के सामने आत्म-ज्ञान पाने, मेरी स्वयं की आत्मा की दरिद्रता, मेरी अपनी तुच्छता को पहचानने की अनुमति देने के लिए था। यह मुझे इस बात को जानने देने के लिए था कि मुझे जिस चीज़ की आवश्यकता है, वह सत्य है, परमेश्वर द्वारा उद्धार है, जिससे मैं परमेश्वर के सामने झुक सकता था और एक अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति बन सकता था। यह इसलिए था कि मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के अपने कर्तव्य को पूरा कर सकूँ और, उसके हृदय को चोट पहुँचाते हुए, हैसियत का अब और अनुसरण नहीं करूँ। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के तहत मेरे पास आगे बढ़ने के लिए एक मार्ग और साथ ही सत्य का अनुसरण करने का विश्वास था। यद्यपि मैं शैतान के द्वारा गहराई तक भ्रष्ट कर दिया गया था और मेरी अहंकारी प्रकृति गहराई तक समाई हुई थी, फिर भी जब तक मैं परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना और उसके परीक्षण और शुद्धिकरण को स्वीकार करने और मानने में, उससे अपनी स्वयं की प्रकृति और सार को पहचानने में, और फिर अथक रूप से सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ, तब तक मैं निश्चित रूप से प्रतिष्ठा और हैसियत के बंधनों और कष्टों को दूर करने में, और बचाए जाने के मार्ग में प्रवेश करने, सिद्ध बनाए जाने में समर्थ रहूंगा। परमेश्वर की ओर वापस लौटने के बाद, मैं अपनी बीमारी से दो दिनों के भीतर ठीक हो गया। इससे मुझे और भी अधिक महसूस हुआ कि उसने मुझे अनुशासित करने के लिए उस बीमारी को एक तरीके के रूप में उपयोग किया था। यह जानबूझकर मुझे पीड़ित करने के लिए नहीं था, न ही इसमें कोई दंड था—यह मेरे सुन्न हृदय को जगाने, मुझसे मेरे ग़लत अनुसरणों को यथाशीघ्र छुड़वाने और परमेश्वर पर विश्वास करने के सही मार्ग पर कदम रखवाने के लिए था। मैं परमेश्वर के प्रेम द्वारा गहराई तक प्रेरित और रोमांचित हो गया था। मैंने ईमानदारी से परमेश्वर के प्रति अपना धन्यवाद और प्रशंसा अर्पित कर दिए।
बीमारी से ठीक होने के बाद मैंने अपने आप को एक बार फिर से कार्य में लगा दिया। मैंने चुपचाप अपने हृदय में संकल्प लिया था कि जब मेरा सामना किसी ऐसी चीज़ से होगा जिसका प्रतिष्ठा या हैसियत के साथ संबंध हो, तो मैं निश्चित रूप से परमेश्वर के लिए गवाही दूँगा। कई महीनों के बाद, मुझे पता चला कि एक अन्य ईसाई धर्म प्रचारक दल को बहुत अच्छे परिणाम मिल रहे हैं और उस दल ने परमेश्वर के कुछ चमत्कारिक कार्यों का अनुभव किया है, और उसने अपने कुछ सफल अनुभवों और अभ्यास के अपने मार्ग का सारांश दिया है। जबकि, जिस कार्य में मैं भाग ले रहा था वह गिरावट पर था। जब मैंने अपने भाइयों और बहनों के चेहरों पर निराशा देखी, विशेषरूप से जब मैंने एक बहन को यह कहते सुना कि, "अब हम परमेश्वर से आए इस तरह के महान उद्धार का आनंद लेते हैं किन्तु हम उसके कार्य की गवाही देने में असमर्थ हैं। हम वास्तव में उसके प्रति ऋणी हैं," और फिर हर किसी को रोते हुए देखा, तो मेरे हृदय में बहुत ज्यादा पीड़ा हुई। मैं नहीं जानता था कि कैसे इस दुर्दशा से बाहर निकला जाए, और मैं बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करता था: "हे परमेश्वर! व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करते हुए हम सभी कमज़ोर हैं, किन्तु मैं जानता हूँ कि तू हमारे आत्मविश्वास की परीक्षा ले रहा है, हमारी भक्ति का परीक्षण कर रहा है। किन्तु मेरी कद-काठी बहुत छोटी है और मैं उस वजन को वास्तव में सहन नहीं कर सकता हूँ। मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि तू मुझे प्रबुद्ध कर ताकि मैं तेरी इच्छा को समझ सकूँ। मैं तेरे मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने को तैयार हूँ।" प्रार्थना करने के बाद, अचानक मुझे एक विचार आया: मुझे वहाँ सह-कार्यकर्ता से हमसे मिलने और संगति करने के लिए कहना चाहिए ताकि हम उसके कुछ गुणों और अनुभवों से सीख सकें। इस तरह से भाई और बहनें भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और अगुआई का आनंद लेने में और यह जानने में समर्थ हो जाएँगे कि सुसमाचार के अपने कार्य को कैसे करना है। मैं जानता था कि यह विचार पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से आया था, किन्तु मेरे हृदय में अभी भी कुछ आशंकाएँ थी। मैंने सोचा: मैं उस भाई की तुलना में हर तरह से अधिक सक्षम हूँ और जब हम सभा में एक साथ होते थे तो मैं हमेशा उसे तुच्छ समझता था, किन्तु अब, उसका प्रदर्शन मेरे प्रदर्शन की अपेक्षा बेहतर है। जब वह मुझे इस तरह से हताश और शर्मिंदा देखेगा तो क्या वह मुझ पर हँसेगा? क्या भाई-बहन मुझे तुच्छ समझेंगे? मेरी इज्ज़त का क्या होगा? मैंने बहुत सोचा, और मैं अभी भी अपनी इज्ज़त और हैसियत के विचार को नहीं छोड़ पा रहा हूँ, किन्तु जैसे ही मैंने मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की अत्यावश्यक इच्छा और मेरे भाई-बहनों के पास पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और अगुआई न होने के बारे में सोचा, तो मुझे मेरे हृदय के भीतर ताड़ना मिलती थी। जैसे ही मैं डगमगा रहा था, कि तभी परमेश्वर से आए इन वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया: "पवित्र आत्मा न केवल उन खास लोगों में कार्य करता है जो परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं, बल्कि कलीसिया में भी कार्य करता है। वह किसी में भी कार्य कर रहा हो सकता है। शायद वह वर्तमान समय में, तुममें कार्य करे, और तुम इस कार्य का अनुभव करोगे। किसी अन्य समय शायद वह किसी और में कार्य करे, और ऐसी स्थिति में तुम्हें शीघ्र अनुसरण करना चाहिए; तुम वर्तमान प्रकाश का अनुसरण जितना करीब से करोगे, तुम्हारा जीवन उतना ही अधिक विकसित होकर उन्नति कर सकता है। कोई व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, यदि पवित्र आत्मा उसमें कार्य करता है, तो तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। उसी प्रकार अनुभव करो जैसा उसने किया है, तो तुम्हें उच्चतर चीजें प्राप्त होंगी। ऐसा करने से तुम तेजी से प्रगति करोगे। यह मनुष्य के लिए पूर्णता का ऐसा मार्ग है जिससे जीवन विकसित होता है। पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति तुम्हारी आज्ञाकारिता से पूर्ण बनाए जाने के मार्ग तक पहुँचा जाता है। तुम्हें पता नहीं होता कि तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति के जरिए कार्य करेगा, न ही यह पता होता है कि किस व्यक्ति, घटना, चीज़ के जरिए वह तुम्हें पाने या देखने देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे)। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में मैं उसकी इच्छा को समझ गया और इस बारे में मुझे थोड़ी समझ मिली कि पवित्र आत्मा के कार्य में लोगों की अगुआई कैसे करनी है और उन्हें कैसे सिद्ध बनाना है। मुझे एहसास हुआ कि: परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर की बुद्धि अद्भुत और रहस्यमय हैं। मुझे नहीं मालूम कि अपनी इच्छा को समझाने के लिए वह किस प्रकार के व्यक्ति या चीज़ के माध्यम से वह मुझे प्रबुद्ध करेगा और मेरा मार्गदर्शन करेगा, न ही मुझे मालूम है कि किस प्रकार के परिवेश के माध्यम से वह मेरे भ्रष्ट स्वभाव से निपटेगा। मुझे अवश्य पवित्र आत्मा के कार्य का पालन करना सीखना चाहिए, और किसी की हैसियत कितनी भी ऊँची या नीची हो, उनकी उम्र कुछ भी हो, या वे कितने भी समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, जब तक कि उनकी संगति सत्य के अनुरूप है, तब तक यह परमेश्वर की वर्तमान इच्छा है, और यह व्यावहारिक मार्ग दिखा सकती है, जो पवित्र आत्मा के कार्य और उसकी प्रबुद्धता से आता है। मुझे अवश्य स्वीकार करना, पालन करना और अभ्यास करना चाहिए—यही वो मानवीय विवेक है जो मुझे अवश्य धारण करना चाहिए। यदि मैं पवित्र आत्मा के कार्य का पालन नहीं करता हूँ, तो मैं अपने घमंड को बनाए रखने के लिए अपने काम के साथ समझौता करने के लिए तैयार हूँ। मैं अपनी छवि और हैसियत बनाए रखने के लिए अपने भाइयों और बहनों को अंधकार में रहने देने का इच्छुक हूँ। उस हालत में, मैं वास्तव में एक दुष्ट सेवक और एक मसीह विरोधी हूँ! जब मुझे इसका एहसास हुआ, मैं डर गया और मैंने फिर से ज़िद्दी होने और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के विरुद्ध जाने का साहस नहीं किया। मैं अपनी स्वयं की शैतानी प्रकृति को छोड़ने और व्यावहारिक कार्यकलापों के माध्यम से परमेश्वर के हृदय को सुख पहुँचाने का इच्छुक था। इसलिए, मैंने तुरंत उस सह-कार्यकर्ता को फोन किया और आ कर हमारे साथ संवाद करने के लिए कहा। मुझे इस बात से शर्मिंदगी हुई कि हमारे व्यक्तिगत रूप से मिलने पर, उस भाई ने मुझे थोड़ा भी तुच्छ नहीं समझा या वह मुझ पर हँसा नहीं। उसने बहुत ही सच्चाई के साथ संगति में इस बात को साझा किया कि जब पवित्र आत्मा उनके बीच कार्य करता था तो वे किस प्रकार मिलजुल कर कार्य करते थे, और जब वे बाधाओं और असफलताओं का सामना करते थे तो वे परमेश्वर पर कैसे भरोसा करते थे और परमेश्वर से प्रार्थना करते थे, उसके बाद उन्होंने परमेश्वर के कौन से कार्यों को देखा, उन्होंने परमेश्वर के बारे में किस प्रकार की सच्ची समझ प्राप्त की थी, और बहुत कुछ। अपने भाई के निश्चिंत और खुशहाल रूप को देख कर, फिर अपने भाई-बहनों को जी लगा कर और चाव के साथ सुनते हुए और धीरे-धीरे उनके चेहरे पर प्रकट होती मुस्कुराहट को देख कर, मुझे तीव्र वेदना महसूस हुई मानो कि मेरा दिल टूट गया हो। हालाँकि, इस बार यह मेरी इज्ज़त या हैसियत को संतुष्ट करने के लिए नहीं था, बल्कि इसलिए था क्योंकि परमेश्वर की प्रति मेरे कर्ज़दार होने के कारण मुझे मेरे हृदय में फटकार मिली थी। इसकी वजह से, मैंने एक अच्छे अगुआ द्वारा उठाए जाने वाले उत्तरदायित्व और कर्तव्य का ईमानदारी से अनुभव किया था। यदि मैं जिस सड़क को अपनाता हूँ वह सही नहीं होगी, तो यह बहुत से लोगों के जीवन को नुकसान और बर्बाद कर देगी। यह कई लोगों के लिए आध्यात्मिक कष्ट लाएगी। उस हालत में, क्या मैं परमेश्वर का विरोध करने वाला एक मुख्य अपराधी नहीं बन गया हूँ? जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, तो मैं कैसे हिसाब दूंगा? उस समय ही मैंने अंततः सचमुच अपने हृदय के भीतर से स्वयं से घृणा की। मुझे इस बात से नफ़रत हुई कि अतीत में अपना कर्तव्य करते समय मैं न केवल अपने कार्य में ईमानदारी से शामिल नहीं हुआ था, बल्कि केवल प्रतिष्ठा और हैसियत का पीछा करने और हैसियत के आशीष में मस्त रहने की सोचता था। इसने न केवल मेरे भाई-बहनों के जीवन में प्रवेश बाधा डाली, बल्कि उससे भी अधिक यह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में हस्तक्षेप करता था। मैंने अक्सर पवित्र आत्मा के कार्य को भी गँवा दिया था और अंधकार में गिर गया था। मैंने देखा कि प्रतिष्ठा और हैसियत का अनुसरण करने से मेरा भला होने से अधिक नुकसान हुआ था। किन्तु जब मैं अपराध-बोध और पश्चाताप महसूस कर रहा था, तो मुझे थोड़ी सी राहत भी महसूस हुई। ऐसा इसलिए था क्योंकि, परमेश्वर की अगुआई में, मैंने इस एक बार सत्य को अभ्यास में लाने के लिए अंततः व्यक्तिगत लाभ को छोड़ दिया था। मैंने कुछ ऐसा किया था जो कार्य के लिए, मेरे भाई-बहनों के लिए और मेरे स्वयं के लिए लाभदायक था। मैंने व्यावहारिक कार्यों के माध्यम से शैतान को शर्मिंदा किया था और इस बार परमेश्वर के लिए गवाही दी थी।
परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव में और प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागने की वजह से, मैंने कई बाधाओं और विफलताओं का सामना किया था। मैंने कई चक्करदार मार्ग लिए थे, और इस वजह से निपटारे और शुद्ध किए जाने के काम से गुज़रा था। धीरे-धीरे, मैंने हैसियत को बहुत कम महत्वपूर्ण समझन शुरू किया, और जिस पर मैं पहले विश्वास करता था—हैसियत के बिना न ही कोई भविष्य है और न ही कोई आपको आदर से देखेगा—यह गलत परिप्रेक्ष्य बदल गया। मैंने अब 15 वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है। हर बार जब मैं अपने ऊपर परमेश्वर के कार्य के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे हमेशा एक प्यारी भावना घेर लेती है। मैं अपने लिए परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को कभी भी भूल नहीं पाऊँगा। यदि परमेश्वर ने मेरे जीवन के प्रारंभिक चरणों में मेरे लिए परिवेश की रूपरेखा नहीं खींची होती और शोहरत, लाभ और हैसियत की मेरी इच्छाओं का निपटारा नहीं किया होता, तो मैं उस विश्वास को छोड़ने का कैसे इच्छुक होता जिसके अनुसार मैं कई वर्षों से जी रहा था और जो मेरा जीवन बन गया था? यदि समय पर मुझे परमेश्वर द्वारा उद्धार नहीं मिला होता, तो मैं अभी भी शैतान के ज़हर के अनुसार जी रहा होता, और ऐसे सपने के वास्ते अपनी जिंदगी को व्यर्थ नष्ट कर रहा होता जिसे कभी भी साकार नहीं किया जा सकता है। और यदि परमेश्वर बार-बार प्रकाशन और शुद्धिकरण नहीं करता, तो मैं अभी भी गलत मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहा होता और मुझे कभी भी पता नहीं चलता कि मेरा अपना घमंड कितना गंभीर है और हैसियत के लिए मेरी अभिलाषा कितनी शक्तिशाली है। मैंने विशेष रूप से यह नहीं जाना होता कि मैं परमेश्वर का शत्रु हूँ। यह परमेश्वर का उल्लेखनीय कार्य था जिसके कारण मैं शोहरत, लाभ और हैसियत के सार और नुकसान को ठीक ढंग से समझ पाया। इसने जीवन के मेरे मिथ्या मूल्यों और परिप्रेक्ष्यों को वास्तविक परिवर्तन से गुज़रने दिया, और इसने मुझे यह समझने दिया कि केवल सत्य का अनुसरण करना और एक सृजन का कर्तव्य पूरा करना ही एक वास्तविक मानवीय जीवन है, और केवल शैतान के अंधकारमय प्रभाव को त्यागने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर जीने के माध्यम से ही मैं अर्थपूर्ण और मूल्य वाला जीवन जी सकता हूँ। यह पूरी तरह से परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का परिणाम है कि मैं उस समझ और परिवर्तन को प्राप्त करने में समर्थ हूँ जो आज मुझमें है। हालांकि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना ने शुद्धिकरण की पीड़ा से गुजरना मेरे लिए आवश्यक बनाया था, किन्तु मुझे परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य, उसके उदार सार, और धार्मिकता और पवित्रता के उसके स्वभाव के बारे में कुछ समझ मिल गई है। अब मैं शैतान के उन ज़हरों को स्पष्ट रूप से देखने, उनसे घृणा करने और उन्हें दूर करने में समर्थ हूँ जिन्होंने मुझे कई वर्षों तक नुकसान पहुँचाया था, और मैं एक सच्चा मानवीय जीवन प्राप्त करने में समर्थ हूँ। इनमें से किसी को भी व्यर्थ में नहीं सहा गया था। यह सबसे अधिक सार्थक, सबसे अधिक मूल्यवान चीज़ थी। यहाँ से आगे के मार्ग पर, मैं परमेश्वर से आने वाले न्याय और ताड़ना, और परीक्षणों और शुद्धिकरण को अधिक से अधिक स्वीकार करने का इच्छुक हूँ, ताकि मेरे हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव को शीघ्र ही शुद्ध किया जा सके, और मैं एक ऐसा व्यक्ति बन सकूँ जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?