मेरा कर्तव्य लेनदेन वाला कैसे हो गया

24 जनवरी, 2022

छेना, चीन

अप्रैल 2017 में, मुझे हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी थी इसलिए अगुआ ने कुछ समय के लिए काम रुकवा दिया, ताकि मैं थोड़ा आराम कर सकूँ। इस बात से मैं बहुत परेशान हो गई, मैंने सोचा, "परमेश्वर अपना कार्य ख़त्म करने वाला है, इसलिए अभी अपना कर्तव्य निभाने और अच्छे कर्म करने का सबसे अहम वक्त है। कर्तव्य निभाये बिना, क्या मुझे अच्छी मंज़िल और परिणाम मिल पाएगा? क्या इतने सालों तक कड़ी मेहनत करना और कीमत चुकाना बेकार हो जाएगा? मैंने कर्तव्य निभाने के लिए अपना क्लिनिक तक बंद कर दिया, मेरे पति कोशिश करके भी मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने से नहीं रोक सके। अब मैं तलाकशुदा हूँ, परिवार भी नहीं है। सीसीपी मेरे पीछे पड़ी हुई है, जब देखो मेरे मॉम-डैड से मेरा पता-ठिकाना पूछती रहती है। मैं उनके घर भी नहीं जा सकती—आखिर मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ।" एक बहन ने मुझे आश्रय दिया। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा के बारे में मेरे साथ सहभागिता की, मुझे समर्पित होने को कहा, लेकिन उन्हें हमेशा कर्तव्य में व्यस्त देखकर मैं उनसे बहुत जलती। मैं अपनी सेहत के कारण अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी। क्या परमेश्वर मेरी सेहत को बहाना बनाकर मुझसे मेरा कर्तव्य छीनना, मुझे उजागर करके हटा देना नहीं चाहता? इस विचार ने मुझे निढाल कर दिया, मैं दुखी और हताश महसूस करने लगी। मेरे मन में परमेश्वर के बारे में ग़लतफ़हमियाँ और शिकायतें भी आने लगीं : मैंने अपना सब कुछ त्याग दिया और बिना कोई शिकायत किए इतनी पीड़ा सहती रही। ऐसा कैसे कि मुझे मेरा कर्तव्य निभाने तक की अनुमति नहीं? तब से, मैं न परमेश्वर के वचनों को समझ पा रही थी, न ही मेरे पास प्रार्थना में उससे कहने को कुछ था। मेरी भूख और नींद दोनों ख़त्म हो गए थे। मैं इतने अंधकार में थी कि मैंने नौकरी ढूँढने का भी मन बना लिया। मेरी हालत देखकर, एक बहन ने मेरा निपटान करते हुए कहा, "आप परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ रही हैं और अब पैसे कमाने के बारे में भी सोचने लगी हैं। आप पूरी तरह बदल चुकी हैं। आप सत्य की खोज नहीं कर रहीं।" उनकी बातें सुनना मेरे लिए कठिन था, मैंने खोज करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं नहीं जानती इसका अनुभव कैसे करना है, मेरे भविष्य के मार्ग का भी मुझे कोई अंदाज़ा नहीं। मैं अंधकार में जी रही हूँ, बहुत दुखी हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ।"

अगले कुछ दिनों तक मैं प्रार्थना और खोज करती रही। एक सुबह, परमेश्वर के वचनों की यह बात अचानक मेरे मन में आई : "क्या तेरे पास एक ऐसा चेहरा है जो आशीषें पा सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। इन अंशों को देखने के लिए मैंने फ़ौरन अपना कंप्यूटर ऑन किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "भ्रष्टाचार के हजारों सालों बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मूर्ख बन गया है; वह एक दुष्ट आत्मा बन गया है जो परमेश्वर का विरोध करती है, इस हद तक कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान के द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और शैतान के द्वारा रास्ते से भटका दिया गया है इसलिए वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी, मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : जब मनुष्य परमेश्वर को देखता है, तो वह उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी वह उसे धोखा देता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो परमेश्वर के श्रापों और परमेश्वर के कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपने मूल प्रकार्य को खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी, अपने मूल प्रकार्य को खो दिया है। मनुष्य जिसे मैं देखता हूँ, वह मानव रूप में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी भी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अन्तर की समझ नहीं है, मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीषें पाने की कामना करता है; उसकी मानवता बहुत नीच है फिर भी वह एक राजा के प्रभुत्व को पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ, वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ, कैसे वह सिंहासन पर बैठ सकता है? सचमुच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह नीच ढोंगी है! तुम सब जो आशीषें पाने की कामना करते हो, मैं सुझाव देता हूँ कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तू एक राजा बनने लायक है? क्या तेरे पास एक ऐसा चेहरा है जो आशीषें पा सकता है? तेरे स्वभाव में ज़रा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तूने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया, फिर भी तू एक बेहतरीन कल की कामना करता है। तू अपने आप को भुलावे में रख रहा है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। "व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास आशीष पाने के लिए करता है—क्या यह ऐसी बात नहीं है, जो हर किसी के दिल में है? ... आशीष पाने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे? अगर इस प्रेरणा से छुटकारा मिल जाता, या लोग खुद ही इसे चाहना बंद कर देते और इसे छोड़ देते, तो उनमें से कई लोग बिना ऊर्जा के अपना कर्तव्य निभाते और महसूस करते कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। ऐसा लगता, मानो उनकी आत्मा ही छीन ली गई हो। यह बात उनके दिल के अंतरतम हिस्से में है। शायद, जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं या कलीसिया का जीवन जीते हैं, तो उन्हें लगता हो कि वे अपने भीतर आशीष प्राप्त करने से प्रेरित नहीं हैं। लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं मानता। लोग खुद को ऊपर-ऊपर से देखते हैं और समझते हैं कि वे अच्छे हैं, और उन्हें लगता है कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अपने कर्तव्य-पालन में पहले ही जोशीले चरण से सत्य का अनुसरण करने के चरण में चले गए हैं, कि वे अब कर्तव्य निभाने के लिए जोश पर या क्षणिक आवेग पर निर्भर नहीं करते, बल्कि अपना कर्तव्य निभाते हुए, सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य पर्याप्त अच्छी तरह निभाने का प्रयास करने में सक्षम हैं, और कि वे लगातार खुद को निर्मल कर रहे हैं, ताकि वे परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाएँ और सृजित प्राणियों के रूप में स्वीकार्य हों सकें, और वे कुछ हद तक समर्पण भी कर पाएँ। लेकिन जब कुछ ऐसा होता है जो सीधे उनकी मंजिल और अंत से जुड़ा होता है, तो तब वे जैसा व्यवहार करते हैं, उससे उनके असली चेहरे पूरी तरह प्रकट हो जाते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर के न्याय के वचनों ने मुझे पूरी तरह उजागर कर दिया। पहले, मैं सिद्धांत में जानती थी कि आस्था केवल आशीष पाने के लिए नहीं हो सकती, पर मैं खुद को अच्छे से नहीं जानती थी। इन हालात ने मेरी आशीष पाने की इच्छा को स्पष्ट कर दिया। इतने सालों तक मैंने सब-कुछ त्यागा, अपना क्लिनिक बंद करके कलीसिया में कर्तव्य निभाने लगी, बहुत कष्ट सहे, हर हालात का सामना किया। मुझे लगा कि अपनी आस्था में इतना त्याग करके, मुझे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष ज़रूर मिलेगी और मेरी एक अच्छी मंज़िल होगी, इसलिए मैं अपने कर्तव्य को लेकर उत्साहित थी। अब जब मैं अपनी सेहत के कारण कर्तव्य नहीं निभा पा रही, तो मुझे लगा कि मैंने अपनी मंज़िल खो दी और आशीष पाने के सपने चूर हो गए। मैं बहुत ज्यादा निराश थी। मुझे न केवल अपने त्याग का पछतावा हुआ, मैं तो परमेश्वर को दोषी ठहराकर उससे तर्क करने लगी, उसका विरोध करने लगी। मैंने त्याग को परमेश्वर से आशीष पाने के लिए लेन-देन का ज़रिया समझ लिया, सोचा कि मेरी तकलीफ़ों और योगदान के बदले परमेश्वर को मुझे अच्छी मंज़िल और परिणाम देना ही होगा। जब ऐसा नहीं हुआ, तो मैंने शिकायत की, उसे दोषी ठहराया। हाँ। इससे मुझे परमेश्वर के इन वचनों का ध्यान आया: "परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन लक्ष्य पूरे करने में उसका उपयोग करना है। क्या यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के स्वभाव के अपमान का एक और तथ्य नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर का स्वभाव उसके वचनों में प्रकाशित होता है। अपनी आस्था में ऐसा दृष्टिकोण रखकर, मैं परमेश्वर के साथ लेनदेन कर रही थी, उसे धोखा दे रही थी, आशीष पाने के लिए इस्तेमाल कर रही थी। इससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है। पौलुस के सारे योगदान और त्याग परमेश्वर से केवल धार्मिकता का ताज पाने के लिए थे। इससे परमेश्वर के स्वभाव का बहुत अपमान हुआ, और पौलुस दंडित हुआ। थोड़े-बहुत त्याग करने के बाद, मैं भी पौलुस की तरह इनाम, ताज, स्वीकृति और आशीष की माँग करने लगी। जब मुझे उम्मीद के मुताबिक नहीं मिला, तो मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष देने लगी, उसे धोखा देने की भी सोची। मेरी समझ और विवेक कहां खो गया था? मेरे जैसे शैतान का आशीष के सपने देखना, बड़ी बेशर्मी है! अगर मैं अपनी सेहत के कारण कर्तव्य से दूर नहीं होती, तो अपनी आस्था में कभी भी अपने गलत इरादों को नहीं देख पाती, गलत मार्ग पर ही चलती रहती, और मेरा अंत पौलुस जैसा होता। इस विचार ने मुझे थोड़ा डरा दिया और मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर की यह व्यवस्था, मेरे प्रति उसका प्रेम और उद्धार ही था! परमेश्वर की इच्छा समझते ही मुझे बहुत पछतावा और आत्मग्लानि हुई, मैं प्रार्थना करते-करते रोने लगी, "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारे उद्धार की बहुत आभारी हूँ। अगर मुझे इस तरह उजागर नहीं किया जाता, तो मैं तुम्हारा विरोध करते-करते अनजाने में ही नर्क पहुँच जाती। परमेश्वर, मैं आशीष पाने की चाह छोड़कर तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को हटाकर सत्य की खोज करते हुए, एक इंसान की तरह जीना चाहती हूँ।"

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े: "अब मैं तुम लोगों को यह बताने पर ध्यान केन्द्रित करने वाला हूँ कि पतरस ने मुझे कैसे जाना और उसका अंतिम परिणाम क्या था। ... मैंने उसके अनगिनत परीक्षण लिए, स्वभाविक रूप से उन्होंने उसे अधमरा कर दिया, परन्तु इन सैकड़ों परीक्षणों के मध्य, उसने कभी भी मुझमें अपनी आस्था नहीं खोई या मुझसे मायूस नहीं हुआ। जब मैंने उससे कहा कि मैंने उसे त्याग दिया है, तो भी वह निराश नहीं हुआ और पहले के अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार एवं व्यावहारिक ढंग से मुझे प्रेम करना जारी रखा। जब मैंने उससे कहा कि भले ही वह मुझ से प्रेम करता है, तो भी मैं उसकी प्रशंसा नहीं करूँगा, अंत में मैं उसे शैतान के हाथों में दे दूँगा। लेकिन ऐसे परीक्षण जो उसकी देह ने नहीं भोगे, मगर जो वचनों के परीक्षण थे, उन परीक्षणों के मध्य भी उसने मुझसे प्रार्थना की और कहा : 'हे परमेश्वर! स्वर्ग, पृथ्वी और सभी वस्तुओं के मध्य, क्या ऐसा कोई मनुष्य है, कोई प्राणी है, या कोई ऐसी वस्तु है जो तुझ सर्वशक्तिमान के हाथों में न हो? जब तू मुझे अपनी दया दिखाता है, तब मेरा हृदय तेरी दया से बहुत आनन्दित होता है। जब तू मेरा न्याय करता है, तो भले ही मैं उसके अयोग्य रहूँ, फिर भी मैं तेरे कर्मों के अथाहपन की और अधिक समझ प्राप्त करता हूँ, क्योंकि तू अधिकार और बुद्धि से परिपूर्ण है। हालाँकि मेरा शरीर कष्ट सहता है, लेकिन मेरी आत्मा में चैन है। मैं तेरी बुद्धि और कर्मों की प्रशंसा कैसे न करूँ? यदि मैं तुझे जानने के बाद मर भी जाऊँ, तो भी मैं उसके लिए सहर्ष और प्रसन्नता से तैयार रहूँगा। ...'" "मेरे समक्ष उसकी निष्ठा के कारण, और उस पर मेरे आशीषों के कारण, वह हज़ारों सालों के लिए मनुष्यों के लिए एक उदाहरण और आदर्श बना हुआ है। क्या तुम लोगों को उसकी इसी बात का अनुकरण नहीं करना चाहिए?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि वह अपनी किस्मत या मंज़िल से बंधा नहीं था। जब परमेश्वर ने पतरस से खुद कहा कि वह उसके प्रेम के बावजूद उसे स्वीकार नहीं करेगा और अंत में उसे शैतान के हवाले कर देगा, तब भी पतरस अपनी आख़िरी साँस तक परमेश्वर से प्रेम करता रहा और उसके प्रति समर्पित रहा। परमेश्वर के प्रति पतरस के प्रेम में किसी प्रकार का लेनदेन या मिलावट नहीं था, सिर्फ सच्चा प्रेम और आज्ञाकारिता थी। परमेश्वर के वचनों से मैंने अभ्यास का मार्ग पाया और पतरस की तरह ही परमेश्वर से प्रेम करने और स्वभाव में बदलाव लाने के मार्ग पर चलने को तैयार हो गई। परमेश्वर चाहे मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, चाहे मेरा परिणाम या मंज़िल कुछ भी हों, मैं परमेश्वर के नियमों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर उसके लिए खुद को खपाऊँगी। मैं कलीसिया में पहले की तरह अपना कर्तव्य तो नहीं निभा सकती थी, लेकिन पिछले कुछ सालों में मैंने परमेश्वर के वचनों के पोषण का आनंद उठाया था और थोड़े-बहुत अनुभव भी हासिल किए थे, तो मैं परमेश्वर की गवाही देने के लिए उसके कार्य से मिली सीख के बारे में लिख सकती थी। यह भी तो सृजित इंसान का कर्तव्य निभाना है। मैं परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने लगी, उसके वचनों पर विचार करने और अनुभव की गवाहियाँ लिखने लगी। मैंने खुद को परमेश्वर के ज़्यादा करीब पाया, मैंने अपने भविष्य और संभावनाओं के बारे में चिंता करना छोड़ दिया। मुझे बहुत आज़ादी का एहसास हुआ। जब मेरी सेहत थोड़ी ठीक हुई, मेरा ब्लड प्रेशर सामान्य हो गया, तो मैं कलीसिया में दोबारा अपना कर्तव्य निभाने लगी।

मुझे लगा कि इस अनुभव के बाद परमेश्वर में आस्था को लेकर अपने विचारों के बारे में मैंने थोड़ा-बहुत जान लिया है, अब आशीष पाने की उम्मीद मेरी रुकावट नहीं बनेगी। मगर मैं गलत थी, कुछ वक्त बाद वह इच्छा दोबारा सिर उठाने लगी।

मुझे कलीसिया की अगुआ के लिए चुना गया था। एक सभा में, हमारी अगुआ ने हमें हर समूह के अगुआ की व्यावहारिक कार्य करने की काबिलियत का मूल्यांकन करने को कहा और बताया कि किसी भी कपटी इंसान या ऐसे व्यक्ति को वह पद नहीं दिया जाएगा जो सत्य स्वीकार नहीं करता। मैं समझ गई कि मुझे जल्द से जल्द ये काम पूरा करना होगा, वरना गलत इंसान चुने जाने से कलीसिया के काम के साथ भाई-बहनों का भी नुकसान होगा। ऐसा करने से मैं न केवल अगुआ का कर्तव्य खो दूँगी, बल्कि यह एक अपराध, एक बुरा कर्म भी होगा। एक महीने बाद ज़रूरी बदलाव कर दिए गए और मैं बहुत खुश थी। लेकिन हैरत तब हुई, जब जल्द ही हमारे अगुआ को पता चला कि मेरे द्वारा चुने लोगों में से एक इंसान कपटी था। इस बात ने मुझे परेशान कर दिया। मुझे लगा कि मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाकर, कलीसिया के काम में रुकावट डाली थी। कुछ समय बाद, भाई-बहनों ने शिकायत की कि मेरे चुने गए लोगों में से एक और इंसान अहंकारी निकला। वह दूसरों के तर्कपूर्ण सुझावों को अस्वीकार करता, उन्हें फटकार लगाता और बाधित करता था। वे उसे बर्खास्त कराना चाहते थे। एक के बाद एक समस्या देख मैं सुन्न पड़ गई। मैं बहुत दुखी थी, ऐसा महसूस कर रही थी जैसे मेरा सत्य का ज्ञान उथला है, मुझमें सत्य-वास्तविकता नहीं है। अगर कलीसिया का काम दोबारा किसी वजह से प्रभावित हुआ तो, यह बहुत बुरी बात होगी। ऐसा हुआ तो मेरे भविष्य, मेरी किस्मत, मेरे परिणाम और मेरी मंज़िल का क्या होगा? मैं फ़ौरन अपना कर्तव्य त्याग कर कोई और काम करने की सोचने लगी। एक सुबह मुझे चक्कर आने जैसा महसूस होने लगा, मैंने देखा कि मेरा ब्लड प्रेशर सामान्य से बहुत ज़्यादा है। मैंने हमारी अगुआ को इस बारे में बताया, सोचा कि मेरी सेहत की समस्या के कारण, बेहतर यही होगा कि वे मुझे कोई दूसरा काम सौंप दें। इससे मेरी ज़िम्मेदारियाँ भी कम हो जाएँगी। जो बहन मेरे साथ काम करती थी, मैंने उनसे शांत मन से कहा, "ज़रूरत होने पर मैं इस पद का त्याग करने को तैयार हूँ, फिर मैं जो कर्तव्य कर पाऊँगी वो करूंगी।" उन्होंने यह कहते हुए मेरा निपटान किया, कि मैं नकारात्मकता दिखा रही हूँ, और मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। मैं यह मानना नहीं चाहती थी। मैंने सोचा कि मैं कोई भी कर्तव्य निभाने और उसका पालन करने को तैयार हूँ। इसमें नकारात्मकता कहाँ है? फिर मुझे एहसास हुआ कि उनकी बात में परमेश्वर की इच्छा है, इसलिए मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, ताकि अपनी सही स्थिति जान सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा: "जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपने देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुसकराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के न्याय के वचनों ने मेरे दिल पर वार किया। क्या मैं वैसी इंसान नहीं थी जैसा परमेश्वर ने उजागर किया? जब मुझे लगा कि मेरे कर्तव्य से मुझे आशीष मिलेगा, तो मैं पूरे उत्साह से कड़ी मेहनत की। इसके विपरीत हुआ तो मैंने अपना दूसरा पहलू दिखाया और मैं अब वह काम नहीं करना चाहती थी। मैं केवल अपने भविष्य और मंज़िल के बारे में सोच रही थी। गलतियां करने के बाद भी, मैंने अपनी विफलताओं की रोशनी में न तो आत्मचिंतन किया, न ही सत्य खोजा, अपनी कमियाँ दूर करने और अच्छा काम करने की कोशिश तक नहीं की, मैं ज़िम्मेदारी उठाने और अपना भविष्य बर्बाद करने से डरती थी। ब्लड प्रेशर की बीमारी का बहाना बनाकर, मैं इस कर्तव्य की जगह कम ज़िम्मेदारी वाला काम चाहती थी। मेरी बातें बाहर से तो बहुत तर्कपूर्ण लग रही थीं, लेकिन उनके पीछे मेरी घिनौनी मंशा छिपी हुई थी। मैं कपटी थी!

मैं अपनी आस्था में हमेशा आशीष के पीछे भागते रहने की असली वजह के बारे में विचार करने लगी। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा: "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। इससे मैंने यह सीखा कि मैं हमेशा अपने बारे में इसलिए सोचती रहती थी, क्योंकि शैतान ने मुझे गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "अगर कोई लाभ न हो, तो उंगली भी न उठाओ," जीवन जीने के ये शैतानी नियम मेरी प्रकृति बन चुके थे, जिससे मैं बहुत स्वार्थी, नीच, और खुदगर्ज़ बन गई थी। मैं अपने हर काम में सबसे पहले अपना फ़ायदा देखती थी। जब मैंने बीते सालों में अपनी आस्था के मार्ग पर ध्यान दिया, तो कर्तव्य निभाने का मेरा पहला मकसद आशीष और इनाम पाकर, अंत में स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना था। वर्षों तक कड़ी मेहनत करना और कष्ट सहना, सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना नहीं था, सचमुच परमेश्वर के लिए खुद को खपाना नहीं था। ये सब परमेश्वर का इस्तेमाल करने, उसे धोखा देने और उससे सौदा करने के लिए था। यह परमेश्वर से प्रेम या उसे संतुष्ट करने के लिए नहीं था। फिर मैं विश्वासी कैसे हुई? मैं एक गैर-विश्वासी थी। परमेश्वर ने मुझे कलीसिया की अगुआ बनने का मौका दिया, ताकि मैं समस्या हल करने के लिए सत्य का इस्तेमाल करने का अभ्यास कर सकूँ, विवेक और समझ हासिल करूँ, लेकिन मैंने यह मौका नहीं सँजोया। मैं सत्य के साथ प्रवेश करने के बजाय, अपने भविष्य और किस्मत के बारे में सोचती रही। मैं परमेश्वर के ख़िलाफ़ जाने वाले मार्ग पर चल रही थी। मैं जानती थी मुझे पश्चाताप करके सत्य खोजना होगा, नहीं तो बेशक मुझे नष्ट कर दिया जाएगा।

एक दिन मैंने धार्मिक कार्य के दौरान परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा: "भ्रष्ट इंसान की आवश्यकताओं के कारण ही देहधारी परमेश्वर देह में आया है। परमेश्वर के समस्त बलिदान और कष्ट मनुष्य की आवश्यकताओं की वजह से हैं, न कि परमेश्वर की आवश्यकताओं के कारण, न ही वे स्वयं परमेश्वर के लाभ के लिए हैं। परमेश्वर के लिए कोई फायदे-नुकसान या प्रतिफल नहीं हैं; परमेश्वर भविष्य की कोई फसल नहीं काटेगा, बल्कि जो मूल रूप से उसका था, बस वही प्राप्त करेगा। वह इंसान के लिए जो कुछ करता और त्यागता है, इसलिए नहीं है कि वह कोई बड़ा प्रतिफल प्राप्त कर सके, बल्कि यह पूरी तरह इंसान के लिए ही है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)। जब मैंने इस पर विचार किया, तो परमेश्वर के प्रेम से बहुत प्रेरित हुई। परमेश्वर सर्वोच्च, पवित्र और सम्माननीय है, उसने अत्यंत भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए दो बार देहधारण किया, भयंकर अपमान और कष्ट का सामना किया। प्रभु यीशु अपना जीवन देकर मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए क्रूस पर चढ़ गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अंत के दिनों में चीन में देहधारण किया है, वह इंसान को शुद्ध करने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, धार्मिक दुनिया और सीसीपी उस पर अत्याचार करके उसका तिरस्कार कर रही है। वह हमारे बीच काम करने के लिए सब सहता है, बदले में बिना कुछ पाए हमें अपने वचन देता है, ताकि हमें शैतान के प्रभाव से बचा सके। परमेश्वर अपने फ़ायदे या नुकसान की सोचे बिना मानवजाति को बचाने के लिए कितनी बड़ी कीमतें चुकाता है। बदले में वह हमसे किसी भी चीज़ या किसी इनाम की उम्मीद नहीं रखता। उसका प्रेम निस्वार्थ और सच्चा है। परमेश्वर का सार कितना सुंदर और अच्छा है! फिर खुद को देखा, मैं कहती हूँ कि मुझमें आस्था है, परमेश्वर को खुश करने की चाह है, लेकिन मैं उसके प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। मैं उसके लिए काम बस इसलिए करती थी ताकि आशीष पाने के लिए लेनदेन कर सकूँ, मैंने परमेश्वर का इस्तेमाल और उसे धोखा दिया। मैंने जाना कि मैं कितनी स्वार्थी, कपटी, नीच और बेशर्म थी। मैं शैतान की तरह जी रही थी। मेरे जैसी परमेश्वर का विरोध करने वाली, शैतान के किस्म की इंसान कितना भी त्याग क्यों न करे, उसे परमेश्वर की स्वीकृति कभी नहीं मिलेगी। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह भी पढ़ा: "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सृजित प्राणियों को आशीष पाने के लिए आस्था नहीं रखनी चाहिए। परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना ही एक सार्थक जीवन है। मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं आशीष पाने के पीछे भागना बंद करके, बुराई का मार्ग छोड़कर, तुम्हारे सामने पश्चाताप करना चाहती हूँ। मेरी अंतिम मंज़िल चाहे जैसी भी हो, मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान देना चाहती हूँ।" अपनी स्थिति ठीक करने के बाद, मेरा ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया।

मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ के कुछ वीडियो भी देखे। "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। "लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं होता कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर होता है कि उन्होंने सत्य को समझा और हासिल किया है या नहीं, और वे परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं और एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक है, और यही वह सिद्धांत है, जिससे वह पूरी मानवजाति को मापता है। यह सिद्धांत अपरिवर्तनीय है, और तुम्हें यह याद रखना चाहिए। कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ने या किसी अवास्तविक चीज़ का अनुसरण करने की मत सोचो। उद्धार पाने वाले सभी लोगों से अपेक्षित परमेश्वर के मानक अपरिवर्तनीय हैं; वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के प्रति जो प्रवृत्ति होनी चाहिए मनुष्य की')। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि हमें अंत में आशीष मिलेगी या श्राप, इसका हमारे कर्तव्य से कोई संबंध नहीं। पूरी तरह से बचाए जाने की कुंजी है कि क्या हम सत्य खोजते और पाते हैं, और अपने स्वभाव को बदल पाते हैं। मैं कब और क्या कर्तव्य निभाती हूँ, सब कुछ परमेश्वर तय करता है, मेरा परिणाम और मेरी मंज़िल तो और भी परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के अधीन है। मुझे परमेश्वर के आयोजनों को स्वीकार करते हुए, मन लगाकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरे पास सत्य-वास्तविकता बिल्कुल भी नहीं थी, यही कारण है कि उस कर्तव्य ने मेरी गलतियां और कमियां उजागर कीं। सत्य खोजने और इन सिद्धांतों को समझने से मेरी कमियों में सुधार और जीवन में मेरी प्रगति हो सकती थी। यह देखकर, मैंने अपने भविष्य और किस्मत के बारे में चिंता करना छोड़ दिया, अब मैं अपना कर्तव्य भी नहीं बदलना चाहती थी। हर तरह की समस्या हल करने के लिए, मैं सत्य खोजते हुए दृढ़ता से काम करने लगी, कुछ सिद्धांतों को अच्छे से समझा और धीरे-धीरे कर्तव्य में कम गलतियां हो गईं। अपने कर्तव्य में आशीष पाने की चाह छोड़कर परमेश्वर के वचनों का पालन करके मैं बहुत स्वतंत्र महसूस कर रही थी। तब से, परमेश्वर मुझे आशीष देता रहा और मुझे राह दिखाता रहा है, नतीजे भी बेहतर हुए हैं।

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