अब मैं अनुभवात्मक गवाही लेख लिखने के लाभ जानती हूँ

24 अक्टूबर, 2024

2020 में मैं कलीसिया अगुआ थी। मैंने देखा कि कुछ भाई-बहनों ने अच्छे अनुभवात्मक गवाही लेख लिखे हैं, मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। लेकिन मैंने इन लेखों के लिखे जाने को कोई खास अहमियत नहीं दी, हमेशा यही सोचती थी कि केवल काबिल और लेखन कौशल वाले लोग ही अच्छा लिख सकते हैं। मुझमें उतनी काबिलियत नहीं थी और सत्य के बारे में मेरी समझ भी सतही थी। मेरे लिए लेख लिखना समय की बर्बादी थी और मैं उस समय का उपयोग शायद थोड़ा और काम करने में कर सकती थी। अगर मैंने अच्छा काम न किया तो लगेगा कि मुझमें दायित्व-बोध नहीं है और भाई-बहन मेरे बारे में अच्छी राय नहीं बनाएँगे। इसके अलावा, लेख लिखना एक निजी मामला था और यह मुझ पर निर्भर था कि मैं ऐसा करती हूँ या नहीं। मैं इसी में खुश थी कि थोड़ा ज्यादा काम और सभा करूँ ताकि भाई-बहन मेरे दायित्व-बोध की प्रशंसा करें। इसलिए मैं लेख लिखने में वक्त जाया नहीं करना चाहती थी। यही सिलसिला चलता रहा, मैं हर दिन केवल काम करने और भाई-बहनों के साथ सभा करने पर ध्यान देती रही। अगर कुछ गड़बड़ होती, तो मैं शायद ही कभी आत्मचिंतन करती। कभी-कभी मैं इस बात को समझ भी जाती कि मैंने किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, लेकिन मैं उसे दूर करने के लिए सत्य न खोजती। जिन भाई-बहनों के साथ मिलकर मैं काम करती थी, उन्होंने बताया भी कि मैं जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं दे रही, फिर भी मैंने तर्क देकर उस बात को नकार देती। बाद में, हालाँकि मैं दिनभर सभाओं में व्यस्त रहती, लेकिन चूँकि मैंने आत्म-चिंतन, आत्म-बोध या सत्य खोजने को महत्व नहीं दिया, तो मेरा कोई जीवन प्रवेश नहीं हुआ और मैं सभाओं में केवल कुछ धर्म-सिद्धांत या उपदेश और प्रोत्साहन के शब्द ही बोल पाती थी और असली दिक्कतें हल नहीं कर पाती थी। एक बार एक निरीक्षक ने कहा कि वह वास्तविक कार्य नहीं कर सकता, नकारात्मक अवस्था में जीने की वजह से वह निरीक्षण कार्य नहीं करना चाहता। मैं उसकी नकारात्मकता का मूल कारण साफ-साफ नहीं समझ पाई और यह नहीं जान सकी कि उसकी समस्या को कैसे हल करूँ। इसका समाधान तभी हुआ जब मेरी साथी बहन ने उसके साथ संगति की। उस समय मैंने अपनी अवस्था पर विचार नहीं किया और यही मानती रही कि भाग-दौड़ और ज्यादा सभाएँ करने का मतलब है कि मुझमें दायित्व-बोध है। कुछ समय के बाद, मेरे दिल में एक खालीपन आ गया और मुझे कोई प्राप्ति नहीं हुई।

एक बार एक बहन ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने अनुभवात्मक गवाही के लेख लिखे हैं। उसने यह कहते हुए मेरे साथ संगति की कि लेख लिखने से हमें अपने मन को शांत करने, सत्य खोजने प्रेरणा मिल सकती है। और हम जीवन प्रवेश कर सकते हैं। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने गवाही लेख लिखने को लेकर मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। परमेश्वर कहते हैं : “तुम लोगों ने केवल मेरे सत्य, मेरे मार्ग और मेरे जीवन को ही प्राप्त नहीं किया है, अपितु मेरी उस दृष्टि और प्रकटीकरण को भी प्राप्त किया है, जो यूहन्ना को प्राप्त दृष्टि और प्रकटीकरण से भी बड़ा है। तुम लोग कई और रहस्य समझते हो, और तुमने मेरा सच्चा चेहरा भी देख लिया है; तुम लोगों ने मेरे न्याय को अधिक स्वीकार किया है और मेरे धर्मी स्वभाव को अधिक जाना है। और इसलिए, यद्यपि तुम लोग इन अंत के दिनों में जन्मे हो, फिर भी तुम लोग पूर्व की और पिछली बातों की भी समझ रखते हो, और तुम लोगों ने आज की चीजों का भी अनुभव किया है, और यह सब मेरे द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया था। जो मैं तुम लोगों से माँगता हूँ, वह बहुत ज्यादा नहीं है, क्योंकि मैंने तुम लोगों को इतना ज़्यादा दिया है और तुम लोगों ने मुझमें बहुत-कुछ देखा है। इसलिए, मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि सभी युगों के संतों के लिए मेरी गवाही दो, और यह मेरे हृदय की एकमात्र इच्छा है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर में विश्वास रखने के इन कुछ वर्षों में मुझे कुछ सत्यों की समझ हासिल हुई, अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ और कुछ चीजों पर मेरे विचार बदले। यह परमेश्वर द्वारा मुझ पर कार्य करने का परिणाम था। मैंने जो कुछ हासिल किया है उसके बारे में लिखकर मैं परमेश्वर की गवाही दूँगी; यह मेरा कर्तव्य ही नहीं, मेरी जिम्मेदारी भी थी। मुझे इसे एक दायित्व के रूप में देखना चाहिए; यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होगा। लेकिन मैंने अनुभवात्मक गवाही लिखने को कभी अपने कर्तव्य के रूप में नहीं लिया था। बल्कि इसे मैंने एक वैकल्पिक कार्य के रूप में माना था और इसे बड़ी ही उदासीनता की दृष्टि से देखती थी। मैं बिल्कुल भी सक्रिय नहीं थी। मैंने परमेश्वर के कार्य को अनुभव किया था; अगर मैंने अपना अनुभव न लिखे और परमेश्वर की गवाही नहीं दी, तो इसका मतलब होगा कि मैं उसके अनुग्रह और आशीष को छिपा रही हूँ और मुझमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है।

इसके बाद मेरे अंदर एक धुँधली-सी जागरूकता आई कि अनुभवात्मक लेख न लिखना और परमेश्वर की गवाही न देना मेरे सत्य से प्रेम न करने की अभिव्यक्ति है। उस समय मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मुझे मिल गया और मैंने पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “सत्य से विमुख होने वालों की सबसे स्पष्ट दशा यह होती है कि उन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, यहाँ तक कि वे उनसे दूर भागकर घृणा करते हैं, वे प्रवृत्तियों के पीछे भागना खास पसंद करते हैं। वे अपने दिल में उन चीजों को स्वीकार नहीं करते जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें करने की अपेक्षा परमेश्वर लोगों से करता है। इसके बजाय, उनके प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण और उदासीन होता है, कुछ लोग तो उन मानकों और सिद्धांतों का अक्सर तिरस्कार भी करते हैं जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वे सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, अपने दिलों में उन चीजों के प्रति प्रतिरोधी, विरोधी होते हैं और घृणा से भरे रहते हैं। यह सत्य से विमुख होने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। ... ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जो उसके लिए कार्य करना और उत्साहपूर्वक भाग-दौड़ करना पसंद करते हैं, और बात जब अपने गुणों और शक्तियों का प्रयोग करने, दिखावा करने, अपनी प्राथमिकताओं में लिप्त होने की होती है, तो उनमें असीम ऊर्जा होती है। लेकिन अगर तुम उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहो, तो उनकी हवा निकल जाती है, उनका उत्साह भंग हो जाता है। अगर उन्हें दिखावा न करने दिया जाए, तो वे उदासीन और निराश हो जाते हैं। दिखावा करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों होती है? और सत्य का अभ्यास करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों नहीं होती? यहाँ क्या समस्या है? सभी लोग अपनी अलग पहचान बनाना पसंद करते हैं; वे सभी खोखले यश के लिए लालायित रहते हैं। आशीष और पुरस्कार पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने की बात हो तो हर किसी के पास असीम ऊर्जा होती है, तो फिर सत्य का अभ्यास करने और देह-सुख से विद्रोह करने की बात आने पर वे निराश क्यों हो जाते हैं, उदासीन क्यों रहते हैं? ऐसा क्यों होता है? इससे साबित होता है कि लोगों के दिलों में मिलावट है। वे पूरी तरह से आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं—स्पष्ट रूप से कहें तो, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए विश्वास करते हैं। पाने के लिए आशीष या लाभ न होने पर लोग उदासीन और निराश हो जाते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं रहता। यह सब सत्य से विमुख रहने वाले भ्रष्ट स्वभाव की देन है। इस तरह के स्वभाव के नियंत्रण में होने पर लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनने के अनिच्छुक होते हैं, वे अपनी ही राह चलते हैं और गलत रास्ता चुनते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने में लगे रहना गलत है, फिर भी इन चीजों को छोड़ना या दरकिनार कर देना उनसे सहन नहीं होता और वे अभी भी शैतान के रास्ते पर चलते हुए इन चीजों के लिए प्रयासरत रहते हैं। इस तरह के मामलों में, लोग परमेश्वर का नहीं, बल्कि शैतान का अनुसरण कर रहे होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह सब शैतान की सेवा में होता है और वे शैतान के सेवक हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ने खुलासा किया कि जो लोग सत्य से विमुख होते हैं वे सकारात्मक चीजों के बजाय नकारात्मक चीजों को पसंद करते हैं। मेरी भी यही स्थिति थी। अगर मैं भाग-दौड़ करके भाई-बहनों को यह दिखाने के लिए और अधिक काम कर सकूँ कि मुझे दायित्व का अहसास है, या दिखावा करके वरिष्ठ अगुआ के सामने अपनी अच्छी छवि पेश कर सकूँ, तो मैं उसके लिए भरसक कोशिश करूँगी, फिर चाहे उसमें कितना भी समय या कितनी भी मेहनत लग जाए। इस बीच जब अनुभवात्मक साक्ष्य लेख लिखने की बात आई, हालाँकि मैं अच्छी तरह से जानती थी कि यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है और मेरे जीवन प्रवेश के लिए लाभदायक है, मुझे लगा इससे मेरे काम में देरी होगी, तो मैं पूरी तरह से इसके विरोध में थी। मैं यह कहकर वजह ढूंढती और बहाने बनाती कि मैं काम में व्यस्त हूँ, मेरे पास लिखने का समय नहीं है। ऐसा नहीं है कि मेरे पास समय नहीं था, बल्कि मेरी प्रकृति सत्य के विपरीत थी। मैं न तो लेख लिखना चाहती थी और न ही सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई प्रयास करना चाहती थी। मैंने देखा कि सत्य के प्रति मेरा दृष्टिकोण बहुत ही ठंडा है और मैं सकारात्मक चीजों से विमुख हूँ, उनके विरोध में और उनके विपरीत हूँ। मैं एक कुमार्ग पर चल रही थी जो परमेश्वर की अपेक्षाओं के विरुद्ध था। जब यह बात समझ में आई तो मैं डर गई और मैंने मार्ग बदलना और खुद में परिवर्तन लाना चाहा।

मैंने यह विचार किया और समझा कि लेख लिखने की इच्छा का न होना मेरे एक भ्रामक दृष्टिकोण से प्रभावित है; मुझे लगा मैं एक कुशल लेखक नहीं हूँ और अच्छे गवाही लेख नहीं लिख सकती। अब जब यह देखती हूँ तो लगता है कि यह एक गलत नजरिया था। लेख लिखते समय यह मायने नहीं रखता कि कोई कितना अच्छा लेखक है। अगर कोई लच्छेदार भाषा का प्रयोग करता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक अच्छा गवाही लेख लिख सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि क्या उस व्यक्ति में वास्तविक अनुभव और समझ है। अनुभव के बिना कोई व्यक्ति अपने लेखन कौशल से महज खोखले धर्म-सिद्धांत ही लिख सकता है। यह समझ लेने पर मेरी मानसिकता काफी बदल गयी और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने हमेशा बाहरी भागदौड़ और काम करने को महत्व दिया है, मैंने कभी तेरे सामने आकर शांत मन से तेरे वचनों पर विचार नहीं किया। मैंने सत्य का अनुसरण न करके बहुत समय बर्बाद कर दिया। अब से मैं तेरे सामने खुद को शांत रखने, सत्य खोजने और समस्याओं का समाधान करने को तैयार हूँ।”

फिर मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कार्य के संबंध में, मनुष्य का विश्वास है कि परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ना, सभी जगहों पर प्रचार करना और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाना ही कार्य है। यद्यपि यह विश्वास सही है, किंतु यह अत्यधिक एकतरफा है; परमेश्वर इंसान से जो माँगता है, वह परमेश्वर के लिए केवल इधर-उधर दौड़ना ही नहीं है; यह आत्मा के भीतर सेवकाई और पोषण से जुड़ा है। कई भाइयों और बहनों ने इतने वर्षों के अनुभव के बाद भी परमेश्वर के लिए कार्य करने के बारे में कभी नहीं सोचा है, क्योंकि मनुष्य द्वारा कल्पित कार्य परमेश्वर द्वारा की गई माँग के साथ असंगत है। इसलिए, मनुष्य को कार्य के मामले में किसी भी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, और ठीक इसी कारण से मनुष्य का प्रवेश भी काफ़ी एकतरफा है। तुम सभी लोगों को परमेश्वर के लिए कार्य करने से अपने प्रवेश की शुरुआत करनी चाहिए, ताकि तुम लोग अनुभव के हर पहलू से बेहतर ढंग से गुज़र सको। यही है वह, जिसमें तुम लोगों को प्रवेश करना चाहिए। कार्य परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने को संदर्भित नहीं करता, बल्कि इस बात को संदर्भित करता है कि मनुष्य का जीवन और जिसे वह जीता है, वे परमेश्वर को आनंद देने में सक्षम हैं या नहीं। कार्य परमेश्वर के प्रति गवाही देने और साथ ही मनुष्य के प्रति सेवकाई के लिए मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा और परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान के उपयोग को संदर्भित करता है। यह मनुष्य का उत्तरदायित्व है और इसे सभी मनुष्यों को समझना चाहिए। कहा जा सकता है कि तुम लोगों का प्रवेश ही तुम लोगों का कार्य है, और तुम लोग परमेश्वर के लिए कार्य करने के दौरान प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हो। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का अर्थ मात्र यह नहीं है कि तुम जानते हो कि उसके वचन को कैसे खाएँ और पीएँ; बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम लोगों को यह जानना चाहिए कि परमेश्वर की गवाही कैसे दें और परमेश्वर की सेवा करने तथा मनुष्य की सेवकाई और आपूर्ति करने में सक्षम कैसे हों। यही कार्य है, और यही तुम लोगों का प्रवेश भी है; इसे ही हर व्यक्ति को संपन्न करना चाहिए। कई लोग हैं, जो केवल परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने, और हर जगह उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, किंतु अपने व्यक्तिगत अनुभव को अनदेखा करते हैं और आध्यात्मिक जीवन में अपने प्रवेश की उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर की सेवा करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (2))परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि कलीसिया का कार्य करने के लिए इंसान के पास जीवन अनुभव होना चाहिए। जब कोई सत्य पर संगति कर वास्तविक समस्याओं का समाधान करता है तभी वह वास्तविक कार्य करता है, और जब अपने कार्य में परिणाम लाता है तभी वह वास्तव में अपना कर्तव्य-निर्वहन करता है। पहले, मेरा मानना था कि अगर मैं भाग-दौड़ कर भाई-बहनों के साथ ज्यादा संगति करती हूँ, तो इसका मतलब है कि मैं वास्तविक काम कर रही हूँ। यह एक गलत दृष्टिकोण है जो परमेश्वर के वचनों का अनुपालन नहीं करता। मुझे याद है जिन दिनों मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर संगति करती थी, मैं उनकी अवस्था और कठिनाइयों से निपटते समय समस्या के मूल कारण को नहीं समझ पाती थी। मैं समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच पाती थी, मैं या तो केवल उन्हें उपदेश देने के लिए कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल देती या फिर उन्हें कार्य करने के तरीके के लिए कुछ नियम दे देती, लेकिन उन्हें अभ्यास का मार्ग दिखाने में एकदम नाकाम रहती थी। मैं चाहे कितनी भी संगति करती, यह व्यवहारिक नहीं था, इससे भाई-बहनों की समस्याएँ हल नहीं होती थीं। भाई-बहनों को नहीं पता था कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना है, वे कठिनाइयों का सामना करते समय अपने भ्रष्ट स्वभाव में ही जीते थे। वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते थे और उनके काम में मौजूद समस्याएँ जस की तस बनी रहती थीं। इसे मैं अपना कर्तव्य-निर्वहन कैसे कह सकती थी? मैं परमेश्वर और भाई-बहनों दोनों को मूर्ख बनाकर धोखा दे रही थी। तब जाकर मुझे साफ तौर पर इस बात का एहसास हुआ कि सतही दायित्व-बोध सच्चा दायित्व-बोध नहीं है। अधिक काम और भागदौड़ करने का मतलब यह नहीं है कि वह व्यक्ति निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा रहा है, वह वास्तविक कार्य तो बिल्कुल नहीं कर रहा है। अपने कर्तव्य के प्रति सच्चा दायित्व-बोध रखने का मतलब हर जगह भाग-दौड़ करना नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है जीवन में आध्यात्मिक आपूर्ति, अपने काम में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और कुछ घट जाने पर सत्य की खोज करने पर ध्यान देना, अपने अंदर की कमियों को जानने की कोशिश करना और अभ्यास के सिद्धांतों को ढूंढना, फिर भाई-बहनों की वास्तविक कठिनाइयों और मुद्दों को हल करने के लिए अपने अनुभवात्मक ज्ञान का उपयोग करना। ऐसा करके ही इंसान अपने कार्य में अच्छा परिणाम ला सकता है, केवल यही दूसरों के जीवन में प्रवेश के लिए शिक्षाप्रद और लाभकारी होता है। मुझे यह बात भी समझ आ गई कि अनुभवात्मक गवाही लेखन मुझे अपने मन को शांत करने, परमेश्वर के वचनों पर विचार और आत्म-चिंतन करने के लिए प्रेरित कर सकता है। अगर मैं अधिक सत्य समझकर और अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में ज्ञान प्राप्त कर यह सीख सकूँ कि उन्हें कैसे हल करना है, तभी मैं साफ तौर पर देखकर भाई-बहनों की अवस्थाओं और समस्याओं का समाधान कर सकती हूँ। अपना काम अच्छे से करने के लिए मुझे जीवन प्रवेश को महत्व देना था और लेख लिखना सत्य का अनुसरण करने का एक बहुत अच्छा तरीका था। विशेषकर, एक अगुआ के रूप में मुझे सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान देते हुए परमेश्वर की गवाही देने वाले लेख लिखने की पहल करनी थी। तभी मैं अपना काम अच्छे से कर सकती थी। चूँकि गवाही लेख लिखना कोई वैकल्पिक मामला नहीं था, इसलिए मेरे पास उन्हें न लिखने का कोई बहाना नहीं था।

मुझे परमेश्वर के वचनों के एक और अंश का विचार आया : “किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की अगुवाई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है, तो कलीसिया में मौजूद सभी लोग उसके पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चलने लगेंगे, जिसका कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया, तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ अपने ही किसी अलग रास्ते पर चलने लगते हैं, तो सिर्फ वे खुद ही नहीं, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। अगर अगुआ सही व्‍यक्ति है, ऐसा व्‍यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्‍य का अनुसरण और अभ्‍यास करता है, तो उसकी अगुवाई में चल रहे लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन खाएँगे और पीएँगे और सामान्य रूप से सत्य का अनुसरण करेंगे, और, साथ ही साथ, अगुआ का जीवन अनुभव और प्रगति दूसरों को दिखाई देगी और उन पर असर डालेगी। तो, वह सही मार्ग क्‍या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्‍य की समझ और सत्‍य में प्रवेश की ओर ले जाने, और दूसरों को परमेश्‍वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं अच्छी तरह समझ गई कि एक अगुआ और कार्यकर्ता के नाते मैंने जो रास्ता अपनाया वह बहुत महत्वपूर्ण है। यदि मैंने अपने कार्य में सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान नहीं दिया और केवल यही प्रयास किया कि लोग मेरे बारे में अच्छी राय बनाएँ, मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर इधर-उधर भाग-दौड़ करने में ही व्यस्त रहूँ, काम करने और उपदेश देने के लिए अपनी बुद्धि और प्रतिभा पर भरोसा करूँ, तो फिर जिन भाई-बहनों की मैं अगुआई कर रही हूँ, वे भी जीवन प्रवेश को महत्व नहीं देंगे और केवल काम करने की मानसिकता में ही रहेंगे। एक अगुआ के रूप में जीवन प्रवेश न पाना केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है; यह कई भाई-बहनों के जीवन को भी प्रभावित करेगा और नुकसान पहुंचाएगा। यह समझकर मुझे आत्मग्लानि और दुःख हुआ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती और गलत मार्ग पर चल रही हूँ। मैं एक अगुआ के रूप में अपने काम में लापरवाह और असफल रही हूँ। मैं भाई-बहनों की ऋणी हूँ, मुझे इस बात पर शर्म आती है कि मैं तेरे आदेश को संभाल नहीं पाई। परमेश्वर! मैं मार्ग बदलने को तैयार हूँ; मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं सत्य की राह पर चलूँ।”

फिर मैंने भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के इरादे पर संगति की, मैंने अपने अनुभव और समझ पर भी संगति की। बाद में भाई-बहनों की अवस्था में कुछ सुधार देखने को मिला। उनमें से कुछ ने जब अपने काम में समस्याओं और कठिनाइयों का सामना किया तो उन्होंने आत्म-चिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करना शुरू किया, परमेश्वर के वचनों से मार्ग खोजना और नकारात्मकता की अवस्था में न रहना सीखना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्हें अपने कार्यों में कुछ परिणाम मिलने लगे। ऐसा परिणाम देखकर, मुझे लगा कि यह पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन है और यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने का परिणाम है। मुझे यह भी समझ आ गया कि अगर कोई अपना कार्य अच्छे से करना चाहता है, तो सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान देना और जीवन प्रवेश करना बेहद अहम है। तब से मैंने सत्य खोजने को महत्व देना शुरू कर दिया। जब भी मैं कुछ अनुभव करके समझ हासिल करती तो उसके बारे में लिखने का अभ्यास करती। फिर मैंने कई अनुभवात्मक गवाही लेख लिखे और लगा कि मुझे कुछ लाभ हुआ है। कुछ लेखों में मैंने एक भ्रामक दृष्टिकोण को निशाना बनाया और उसे समझने के लिए सत्य की खोज की। जब मैंने परमेश्वर के सामने शांत मन से उसके वचनों पर विचार किया, तो मुझे समझ आया कि उस भ्रामक दृष्टिकोण में क्या गलत है। साथ ही मुझे साफ तौर पर यह भी समझ आया कि यह भ्रामक दृष्टिकोण मुझे सत्य का अभ्यास करने से रोक रहा है और मेरे कार्य को प्रभावित कर रहा है। अन्य लेखों में, मैंने एक विशेष मामले के संबंध में प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव पर आत्म-चिंतन किया। परमेश्वर के वचनों से जो उजागर हुआ, उससे मुझे पता चला कि मैं स्वार्थी और घृणित हूँ और एक सच्चे इंसान की तरह नहीं जीती। मुझे लगा कि शैतान ने मुझे बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। इसके अलावा, पहले मैंने जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं दिया था और मैं भाई-बहनों की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाई थी। लेकिन कुछ समय तक लेख लिखने का अभ्यास करने के बाद, मुझे धीरे-धीरे कुछ सत्य समझ में आने लगे। कुछ समस्याएँ ऐसी थीं जिन्हें मैं ज्यादा साफ तौर पर देख पाई थी। जब मैंने उनके बारे में भाई-बहनों के साथ संगति की तो यह उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ।

गवाही लेख लिखने के प्रति अपने दृष्टिकोण पर विचार करते हुए, मैंने देखा कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ, मैंने अपने जीवन प्रवेश को महत्व नहीं दिया, मेरे मन में ऐसे कई गलत विचार हैं जिन्होंने मुझे सत्य का अनुसरण करने से रोक रखा है। इस सब के कारण मैं अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान केवल काम करने पर ध्यान दे रही थी और श्रम के मार्ग पर चल रही थी। ऐसा करके मैं चाहे कितनी भी व्यस्त दिखूँ, मुझे सत्य प्राप्त नहीं होगा। मुझे यह भी समझ आया कि वास्तव में कर्तव्य-निर्वहन का क्या मतलब है और अपने कर्तव्य में सच्चा दायित्व-बोध रखने के लिए अभ्यास कैसे करना है। मैं यह भी समझ गई कि अनुभवात्मक गवाही लेख लिखना सत्य का अनुसरण करने का एक बहुत ही अच्छा मार्ग है। मेरी इस समझ और प्राप्ति का सारा श्रेय परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन को जाता है।

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