किसी इंसान में अंधा भरोसा होने के नतीजे
नवंबर 2020 में, कुछ भाई-बहनों ने मेरी साझीदार बहन वांग पर व्यावहारिक कार्य न करने और एक झूठी अगुआ होने का आरोप लगाया। हमारे वरिष्ठ ने जाँच के बाद इसकी सच्चाई की पुष्टि की और उसे बर्खास्त कर दिया। इसके बाद, उन्होंने मुझसे पूछा, "आप उसकी साझीदार थीं। क्या आपको मालूम था कि बहन वांग व्यावहारिक कार्य नहीं करती थीं?" मैं हकलाने लगी और साफ तौर पर नहीं समझा पाई, तो उन्होंने कर्तव्य में सिर्फ अपने ही काम पर ध्यान देने, दूसरे कामों की अनदेखी करने, स्वार्थी, घिनौनी और गैर-जिम्मेदार होने को लेकर मेरा निपटान किया। बाद में, दूसरों ने कहा कि मैं बहन वांग को बचाती थी, उसकी गलतियाँ छिपाती थी। ऐसे माहौल का सामना कर, मुझे पता था कि इसमें मेरे सीखने को सबक जरूर होंगे, तो मैंने आत्मचिंतन शुरू कर दिया। बहन वांग की बर्खास्तगी से पहले, मुझे उस पर आरोपों की शिकायत मिली थी। सुसमाचार कर्मियों के लिखित पत्र में शिकायत की गई थी कि वह व्यावहारिक कार्य नहीं करती थी, सुसमाचार कर्मियों के सामने मुश्किलें आने पर वह उन्हें हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं करती थी, सिर्फ काम की प्रगति के बारे में पूछती थी। वह कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहनों की हालत के बारे में शायद ही कभी पूछती थी, और कभी पूछती भी, तो उसमें कोई रुचि नहीं लेती थी। सभाओं में जब भाई-बहन सवाल पूछते, तो वह असली समस्याएँ सुलझाए बिना, कुछ सतही बातें बोलकर चली जाती थी। तब मैंने इस पर यकीन नहीं किया। भला बहन वांग व्यावहारिक कार्य कैसे नहीं करती? वह सुसमाचार कार्य के लिए ही नहीं, बल्कि वीडियो कार्य के लिए भी जिम्मेदार थी? मुझे लगा, वह वीडियो कार्य का लेखा-जोखा लेने में व्यस्त रही होगी, उसके पास सुसमाचार कार्य करने वाले भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने का समय नहीं रहा होगा। बहन वांग काम के अनेक पहलुओं के लिए जिम्मेदार थी, इसलिए मैंने सोचा यह सामान्य था कि वह हर काम ठीक से न कर पाए। जब भी हमारे वरिष्ठ हमसे काम की प्रगति के बारे में पूछते, वह बेधड़क जवाब देती थी। वह व्यावहारिक कार्य न करती, तो हालात पर उसे महारत कैसे होती? ऐसा तो नहीं कि वे बहन वांग से ठीक से पेश न आए हों, उसकी मुश्किलों का ख्याल न किया हो? यही नहीं, वह अतिमानव नहीं थी। वह सब-कुछ ठीक से नहीं कर सकती थी। वे हर चीज के लिए उसे दोष नहीं दे सकते। जब मैंने इस बारे में यूँ सोचा, तो मैंने शिकायत को महत्व नहीं दिया। मैंने बस सुसमाचार की सुपरवाइजर को हालात के बारे में बता दिया। बाद में उसने मुझे बताया कि पत्र की बातें बुनियादी तौर पर सच्ची थीं, फिर भी मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लगा, ऐसा कोई अगुआ या कार्यकर्ता नहीं होगा जिसके काम में भटकाव या कमियाँ न हों। यह इतनी बड़ी समस्या नहीं थी, तो उससे इस तरह पेश आने की जरूरत नहीं थी, मैंने मामले को वहीं छोड़ दिया। अब इस बारे में सोचने से डर लगता है। शिकायत मिलने के बाद, मैंने विस्तार से जाँच-पड़ताल और पुष्टि क्यों नहीं की? मैंने इससे निपटने के बारे में अपने सहकर्मियों से चर्चा नहीं की, न ही अपने वरिष्ठ को इस बारे में बताया। मैंने बस चुपचाप पत्र को दबा दिया। क्या यह बहन वांग को बचाना नहीं था? मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतना ही दुखी हुई। मैंने खुद से यह भी पूछा : मैं अपने कामों में सिद्धांत क्यों नहीं देखती? भाई-बहनों द्वारा एक झूठे अगुआ की शिकायत जैसे गंभीर मामले को, मैंने इतनी आसानी से कैसे छोड़ दिया? मुझे इतना यकीन क्यों था कि बहन वांग व्यावहारिक कार्य कर सकती है? मेरी इस सोच का आधार क्या था?
बाद में, परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर, मैं इस मसले को थोड़ा समझ सकी। "यह कैसे तय किया जा सकता है कि अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहे हैं या नहीं, वे नकली अगुआ हैं या नहीं? सबसे बुनियादी बात यह देखना है कि वे वास्तविक कार्य करने में सक्षम हैं या नहीं, कि उनमें यह काबिलियत है या नहीं। दूसरे, देखो कि क्या वे वास्तव में वास्तविक कार्य करते हैं। वे जबान से क्या कहते हैं और सत्य की उनकी समझ किस तरह की है, इस बात को अनदेखा कर दो; जब वे सतही काम करें, तो इस बात पर ध्यान मत दो कि उनमें काबिलियत है या नहीं, वे प्रतिभाशाली और हुनरमंद हैं या नहीं, वे इस काम को अच्छे से करते हैं या नहीं—ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि वे कलीसिया का सबसे बुनियादी कार्य ठीक से कर पाते हैं या नहीं, वे सत्य का उपयोग कर समस्याओं को हल कर पाते हैं या नहीं और लोगों को सत्य की वास्तविकता में ले जा सकते हैं या नहीं। यही कार्य सबसे मूलभूत और आवश्यक है। यदि वे इस वास्तविक कार्य को करने के काबिल नहीं हैं, तो फिर चाहे उनमें कितनी भी काबिलियत हो, वे कितने भी प्रतिभावान हों, कितनी भी कठिनाइयाँ सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हों, वे नकली अगुआ ही रहेंगे। कुछ लोग कहते हैं, 'भूल जाओ कि उन्होंने कोई वास्तविक काम नहीं किया है। वे काबिल और सक्षम हैं। उन्हें थोड़े समय तक प्रशिक्षण दोगे तो वे अवश्य ही वास्तविक कार्य करने के काबिल बन जाएँगे। इसके अलावा, उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया है, कोई बुराई नहीं की है या कोई रुकावट नहीं डाली और हस्तक्षेप नहीं किया है—तो तुम कैसे कह सकते हो कि वे नकली अगुआ हैं?' इसे कैसे समझाएँ? भूल जाओ कि तुम कितने प्रतिभाशाली हो, तुम्हारी क्षमता कितनी अधिक है, या तुम कितने सुशिक्षित हो; महत्वपूर्ण यह है कि तुम वास्तविक कार्य करते हो या नहीं, और तुम एक अगुआ की जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो या नहीं। अगुआ के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान क्या तुमने अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले प्रत्येक विशिष्ट कार्य में भाग लिया, कार्य के दौरान उत्पन्न हुई कितनी समस्याएँ तुमने प्रभावी ढंग से हल कीं, तुम्हारे कार्य, तुम्हारी अगुआई, तुम्हारे मार्गदर्शन से कितने लोग सत्य के सिद्धांतों को समझ पाए, कलीसिया का कार्य कितना विकसित किया गया और आगे बढ़ाया गया? ये चीजें हैं, जो मायने रखती हैं। भूल जाओ कि तुम कितने मंत्र दोहरा सकते हैं, कितने शब्दों और सिद्धांतों में तुमने महारत हासिल की है, भूल जाओ कि तुम प्रतिदिन कितने घंटे मेहनत करते हो, तुम कितने थके हुए हो, और भूल जाओ कि सड़क पर तुमने कितना समय बिताया है, तुम कितनी कलीसियाओं में गए हो, तुमने कितने जोखिम उठाए हैं, तुमने कितने कष्ट उठाए हैं, ये तमाम बातें भूल जाओ। सिर्फ यह देखो कि तुम्हारी जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाला कार्य कितना प्रभावी रहा है, इससे कोई परिणाम निकला है या नहीं, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं में से ऐसी कितनी व्यवस्थाएँ और लक्ष्य तुम हासिल कर पाए हो जो तुमसे अपेक्षित थे, तुम्हारे द्वारा कितनी फलीभूत हुई हैं, तुम उन्हें कितने अच्छे से फलीभूत कर पाए हो, कितने अच्छे से उनका जायजा लिया गया है, काम के दौरान जो लापरवाही, विचलन या फिर सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है, उनमें से कितनी समस्याओं को तुम हल कर पाए हो, उन्हें सुधार पाए हो, उन कमियों को दूर कर पाए हो और मानव संसाधन, प्रशासन या विविध विशिष्ट कार्यों से संबंधित कितनी समस्याओं को तुम सुलझा पाए हो और, क्या तुमने उन्हें सिद्धांत और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार हल किया है, इत्यादि—ये सभी वे मानक हैं, जिनके द्वारा यह जाँचा जा सकता है कि कोई अगुआ या कर्मी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहा है या नहीं" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मैं समझ गई कि किसी अगुआ की योग्यता परखने के लिए, सबसे अहम सिद्धांत यह देखना है कि क्या वे व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं, क्या वे वास्तव में व्यावहारिक कार्य करते हैं, क्या उनके कार्य से लोगों को कोई मार्ग मिल पाता है, और क्या वे लोगों के जीवन-प्रवेश और उनके कर्तव्य की व्यावहारिक समस्याएँ हल कर सकते हैं। अगर वे यह नहीं कर सकते, तो उनकी काबिलियत और खूबियां जितनी भी ऊँची हों, या वे कितना भी अच्छा बोल सकते हों, वे झूठे अगुआ हैं, और उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। बहन वांग को देखें, तो हालाँकि उसने पहले कुछ व्यावहारिक कार्य किए थे, मगर काम का बोझ बढ़ने के बाद, वह देह-सुख में लीन और आराम-पसंद हो गई। उसने कभी भी भाई-बहनों को वास्तव में कार्य की राह नहीं दिखाई, भले ही कभी-कभार वह काम के बारे में पूछ लेती, पर उसमें कोई रुचि नहीं लेती थी। वह समस्याएँ जानने पर ध्यान नहीं देती थी, बस काम की प्रगति के बारे में पूछ लेती थी, इसलिए भाई-बहनों के काम में समस्याएँ और भटकाव आने पर, वह उन्हें बिल्कुल नहीं समझ पाती थी। जब अपने कर्तव्य में वे मुश्किलें झेलते, उनमें नकारात्मकता आती, तो वह शायद ही कभी मदद या संगति करती थी, जिससे सुसमाचार कार्य पर सीधा असर पड़ता था। जब कुछ भाई-बहनों ने भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हुए उसकी मदद माँगी, तो उसका जवाब सतही था, उसने न उनकी समस्याओं की परवाह की, न ही उन्हें सुलझाया, और वे उससे कभी कुछ नहीं पा सके। बहन वांग के बर्ताव को परखने से, पता चलता है कि वह वही काम करना चाहती थी जो उसे अच्छा दिखा सकते थे। लेकिन जब उसे कष्ट सहने होते, कीमत चुकानी होती, और असली समस्याएँ सुलझानी होतीं, तो वह उन चीजों से दूर रहती। उसने सच में व्यावहारिक कार्य नहीं किया। मैं अपने पुराने आकलनों और उसकी छवियों के आधार पर उसे परख रही थी। मैं धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी। बड़ी बेवकूफ थी।
बाद में, मैंने आत्मचिंतन किया, सोचा, मैं खुद पर और बहन वांग पर इतना यकीन क्यों करती थी। इस समस्या की जड़ क्या थी? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "झूठे अगुआ उन निरीक्षकों की जाँच नहीं करेंगे जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, या जो अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक निरीक्षक चुनना है और सब-कुछ ठीक हो जाएगा; फिर निरीक्षक सभी कार्य मामलों को संभालेगा, उन्हें तो बस बीच-बीच में सभाएँ आयोजित करते रहना है, उन्हें काम पर नजर रखने या यह पूछने की आवश्यकता नहीं होगी कि कैसा चल रहा है, वे इन बातों से दूर रह सकते हैं। अगर कोई निरीक्षक से जुड़ी समस्या को लेकर आता है, तो झूठा अगुआ कहेगा, 'यह तो मामूली-सी समस्या है, कोई बड़ी बात नहीं है। इसे तो तुम लोग खुद ही संभाल सकते हो। मुझसे मत पूछो।' समस्या की रिपोर्ट करने वाला व्यक्ति कहता है, 'वह निरीक्षक आलसी पेटू है। बस खा-पीकर मजे करने के सिवा कुछ नहीं करता, एकदम निकम्मा है। वह अपने काम में थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहता, काम और जिम्मेदारियों से बचने के लिए हमेशा धोखा देने के तरीके खोजता है और बहाने बनाता है। वह निरीक्षक बनने लायक नहीं है।' झूठा अगुआ जवाब देगा, 'जब उसे निरीक्षक चुना गया था, तब तो वह ठीक था। तुम जो कह रहे हो, वह सच नहीं है, और अगर है भी तो यह सिर्फ एक अस्थायी अभिव्यक्ति है।' झूठा अगुआ निरीक्षक की स्थिति के बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं करता, बल्कि उस व्यक्ति के साथ अपने पिछले अनुभवों के आधार पर ही मामले को परखता और उसका निर्धारण करता है। चाहे कोई भी निरीक्षक की समस्याओं की रिपोर्ट करे, झूठा अगुआ उसे अनदेखा करता है। निरीक्षक के लिए काम बस के बाहर होता है, वे अपना काम पूरा कर पाने में सक्षम नहीं होते और पहले ही सब कुछ काम खराब कर चुकने के करीब होते हैं—लेकिन नकली अगुआ को कोई परवाह नहीं होती। यह वैसे भी बुरी बात है कि जब कोई व्यक्ति निरीक्षक के मुद्दों की रिपोर्ट करता है, तो अगुआ आंखें मूंद लेता है। लेकिन सबसे घृणित क्या होता है? जब लोग उसे निरीक्षक के गंभीर मुद्दों के बारे में बताते हैं, तो वह उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि दुनियाभर के बहाने बनाता है : 'मैं इस निरीक्षक को जानता हूँ, वह सच में परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे कभी कोई समस्या नहीं होगी। यदि हुई भी, तो परमेश्वर उसकी रक्षा और उसे अनुशासित करेगा। अगर उससे कोई गलती हो भी जाती है, तो वह उसके और परमेश्वर के बीच का मामला है—हमें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।' नकली अगुआ इस तरह अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं। वे सत्य समझने और आस्था होने का दिखावा करते हैं—नतीजतन, वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर देते हैं, यहाँ तक कि उसे ठप्प कर देते हैं, और इस दौरान अज्ञानता का ढोंग करते हैं। क्या वे सिर्फ नौकरशाह नहीं हैं? नकली अगुआ कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, न ही वे समूह अगुआओं और निरीक्षकों के कार्य को गंभीरता से लेते हैं। लोगों के बारे में उनका नजरिया उनकी अपनी सोच और कल्पनाओं पर आधारित होता है। किसी को कुछ समय के लिए अच्छा काम करते देखकर, उसे लगता है कि वह व्यक्ति हमेशा ही अच्छा काम करेगा, उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा; अगर कोई कहता है कि इस व्यक्ति के साथ कोई समस्या है, तो वह उस पर विश्वास नहीं करता, अगर कोई उस व्यक्ति पर उंगली उठाता है, तो वह उसे अनदेखा कर देता है। ... नकली अगुआ बहुत घमंडी होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, 'जब मैंने इस व्यक्ति को खोजा था, तो मैं गलत नहीं था। कोई गड़बड़ नहीं हो सकती; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करे, मस्ती करना पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?' यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या यह तुम्हारा विशेष कौशल है? तुम उस व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसकी प्रकृति और सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनकी प्रकृति और सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? उनके साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर तुम प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते हो और ऐसे लोगों को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या तुम अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? उतावले नहीं हो जाते हो? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि झूठे अगुआ अक्सर लोगों को अपनी धारणाओं-कल्पनाओं के आधार पर परखते हैं। वे लोगों पर सिर्फ उनके अस्थाई व्यवहार के आधार पर भरोसा करते हैं, और फिर वे कलीसिया का कार्य पूरी तरह से उन्हें सौंप कर बेपरवाह हो जाते हैं, इस दौरान वे सत्य के सिद्धांत कभी नहीं खोजते या समस्याओं पर शिकायत करने वाले दूसरे लोगों की बिल्कुल नहीं सुनते। बस खुद पर यकीन करते हैं, अपनी ही राय से चिपके रहते हैं। वे बेहद घमंडी और पूरी तरह गैर-जिम्मेदार होते हैं। क्या मेरा बर्ताव वैसा ही नहीं था जैसा परमेश्वर ने खुलासा किया था? मैं सोचती थी, बहन वांग बहुत-से कामों के लिए जिम्मेदार थी, हर दिन बहुत व्यस्त रहती थी, फिर भी काम के बारे में वरिष्ठ के पूछने पर वह बेधड़क जवाब दे पाती थी, इसलिए मैंने मान लिया कि वह व्यावहारिक कार्य करती थी। जब भाई-बहनों ने उसकी शिकायत की, तो मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा, वे उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा रखते थे, उसी पर सारा दोष मढ़ रहे थे। बाद में, मैंने जाना कि बहन वांग व्यावहारिक कार्य न करने के कुछ लक्षण दिखा रही थी, मगर मैंने सोचा, "कोई भी पूर्ण नहीं होता, किसी बड़े कारण से कुछ काम ठीक से नहीं हुए होंगे, यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।" मेरे घमंड, दंभ और आत्मविश्वास के कारण, बहन वांग की समस्या लंबे समय तक ठीक नहीं हुई, जिससे कलीसिया के कार्य में रुकावट आई, और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान हुआ। जब मैंने परमेश्वर का खुलासा देखा कि झूठे अगुआ दंभी होते हैं, अपनी धारणाओं के आधार पर दूसरों को परखते हैं, तो मेरा दिल टूट गया। मैं सच में बहुत ज्यादा दंभी थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं थी, मैं लोगों को परख नहीं पाती थी, लोगों का सार भी नहीं समझ पाती थी। यही नहीं, मैंने कभी वास्तव में बहन वांग के काम की निगरानी या जाँच भी नहीं की थी, कभी नहीं देखा था कि वह कलीसिया के विभिन्न काम कैसे करती थी, उनका लेखा-जोखा कैसे लेती थी, क्या वास्तविक समस्याएँ सुलझाई जाती थीं, या क्या वास्तविक कार्य किया जाता था। मुझे इन चीजों का कुछ पता नहीं था, और मैंने शायद ही कभी इनके बारे में पूछा। मैंने इतनी बेपरवाही से उस पर भरोसा कैसे किया? पहले जब मैं अपनी मित्र से चीजें खरीदने में मदद को कहती थी, तब भी मैं निश्चिंत नहीं रहती थी। मुझे फिक्र थी कि चीजें छाँटने में मदद करते समय, वह उनकी क्वालिटी की सावधानी से जाँच नहीं कर रही थी। अगर उसने न टिकने वाली खराब चीजें खरीद ली, तो क्या होगा? इसलिए मैंने उसे अनगिनत बार चेताया। जब वह चीजें लेकर आई, तब भी मैंने सावधानी से उन्हें जाँचा। अच्छी न होतीं, तो नुकसान से बचने के लिए मैं फौरन उन चीजों को वापस कर देना चाहती थी। अपने निजी हित की बात होती, मैं किसी पर यूँ ही भरोसा करने की हिम्मत नहीं करती थी। लेकिन भाई-बहनों के एक झूठे अगुआ की शिकायत के बड़े मामले में, मैंने बहन वांग पर, उसकी अस्थाई छवि के आधार पर, आँखें बंद करके यकीन कर लिया। मैंने उसका काम देखा ही नहीं और जब किसी ने उस पर आरोप लगाया, तो मैंने गंभीरता से नहीं लिया। मैं कलीसिया के कार्य में बहुत ज्यादा गैर-जिम्मेदार थी। अगर मैं जिम्मेदार होती और कलीसिया के कार्य का बोझ उठाती, तो बहन वांग की सिर्फ मीठी बातें सुनने, आँखें बंद कर उस पर भरोसा करने, और शिकायत पत्र को दबा देने के बजाय, उसके काम की वास्तव में देखरेख और जाँच की होती। इस प्रक्रिया के दौरान, मुझमें सत्य खोजने का रवैया भी नहीं था। यह सच में मेरा घमंडी और अविवेकी स्वभाव था कि मैं सिर्फ अपनी ही राय पर यकीन करती थी। मैंने कलीसिया के कार्य को बड़ी गैर-जिम्मेदारी से लिया।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। परमेश्वर के वचन ने जिस घमंडी इंसान का खुलासा किया था, वह मैं थी। शिकायतों से निपटते वक्त, परमेश्वर का भय मानने वाला कोई समझदार इंसान सतर्क रहता, समस्या को एक निष्पक्ष और न्यायसंगत नजरिये से देखता, बेपरवाही से किसी पर भरोसा नहीं करता, न ही मनमानी से मामले पर फैसला करता। वे भाई-बहनों द्वारा उजागर की गई समस्या की जाँच कर पुष्टि करते, फिर सिद्धांतों के अनुसार चीजों से निपटते। लेकिन शिकायत मिलने के बाद, मैंने शिकायत निपटाने के सिद्धांतों को बिल्कुल नहीं खोजा, मैंने इस बात की तह में नहीं गई कि क्या शिकायत के मसले सही हैं। इसके बजाय, मैंने बहन वांग का साथ देकर आरोप पत्र लिखने वालों की आलोचना की। सुपरवाइजर के यह जानने के बाद भी कि शिकायत से जुड़ी समस्याएँ सही हैं, और मुझे तथ्य साफ दिखाई दे रहे थे, फिर भी मैंने अनदेखी की, और दूसरों ने जिन चीजों की पुष्टि की थी, उनकी उपेक्षा की। मैं सचमुच घमंडी और अड़ियल थी। मुझमें परमेश्वर का जरा भी डर नहीं था। मैं खुद पर इतना ज्यादा यकीन करती थी कि मामले की पुष्टि किए बिना, निपटाए बिना मैंने पत्र को बेपरवाही से दबा दिया। क्या यह एक झूठे अगुआ को बचाने के लिए उसका साथ देना नहीं था? भाई-बहनों में एक झूठे अगुआ की शिकायत करने का साहस था। उनमें न्याय की भावना थी, वे कलीसिया के कार्य का मान रख रहे थे। एक अगुआ के रूप में, मुझे उनका साथ देना चाहिए था, सिद्धांतों के अनुसार शिकायत की जाँच करनी चाहिए थी, और अगर यह तय होता कि बहन वांग एक झूठी अगुआ थी, तो मुझे फौरन उसका तबादला या उसे बर्खास्त करना चाहिए था। लेकिन मैंने इस असली शिकायत को यूँ लिया मानो वे अगुआओं और कार्मिकों से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा कर रहे थे। सार रूप में, मैं एक झूठी अगुआ की रक्षा कर रही थी, भाई-बहनों को दबा रही थी, और उन्हें अगुआओं या कर्मियों के किसी भी काम पर उंगली नहीं उठाने दे रही थी। क्या यह बड़े लाल अजगर के अधिकारियों जैसा नहीं था, जो एक-दूसरे को बचाते हैं? बाहरी दुनिया में, जहाँ अधिकारी शासन करते और आदेश देते रहते हैं, आम लोगों को बोलने का अधिकार तक नहीं होता। इस डर से कि उनकी मुश्किलें बढ़ा दी जाएँगी, वे लीडरों से "नहीं" कहने की हिम्मत भी नहीं कर सकते। गंभीर मामलों में, लोगों को अक्सर सताया भी जाता है। लेकिन परमेश्वर के घर में, सत्य का राज्य होता है, सत्ता परमेश्वर के हाथ में होती है। परमेश्वर का घर लोगों से सिद्धांतों के अनुसार पेश आता है। इंसान किसी भी रुतबे का हो, अगर वे व्यावहारिक कार्य नहीं करते, सत्य पर अमल नहीं करते, तो परमेश्वर का घर, पुष्टि और खोजबीन कर सिद्धांतों के अनुसार मामले को निपटाएगा। इससे परमेश्वर की धार्मिकता का पता चलता है, जो बाहरी दुनिया से पूरी तरह अलग है। लेकिन, एक अगुआ होकर, शिकायत मिलने पर मैंने न तो उसे निपटाया, न ही मामले को सुलझाया। इसके बजाय, घमंड में चूर, मैंने जिसे चाहा, बचाया, सत्य के सिद्धांतों पर अमल नहीं किया। यह एक झूठी अगुआ का बर्ताव था, शैतान की सत्ता का प्रदर्शन था। इस विचार से मैं डर के मारे काँप उठी। मैंने सिद्धांतों के बिना काम किया, जिससे भाई-बहन एक झूठी अगुआ के अधीन होकर जी रहे थे, उनके हालात और मुश्किलें ठीक नहीं की जा सकीं, वे दर्द और अँधेरे में जीते रहे। क्या मैं भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? मैं सच में घिनौनी थी! मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, अब मैं अपनी मनमानी से काम नहीं करना चाहती। मुझे अपने घमंडी स्वभाव को ठीक करने का रास्ता दिखाओ।"
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों में अपने घमंडी स्वभाव को ठीक करने के लिए अभ्यास का मार्ग तलाशा। परमेश्वर के वचनों में, मैंने पढ़ा, "अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, 'क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? क्या वह इसका तिरस्कार या इससे घृणा करेगा?' तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफ़रत हो जाए। यह लोगों की विद्रोहशीलता से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही ऐसे हृदय होते हैं जो परमेश्वर से डरते हैं, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले इंसान के साथ सहभागिता के जरिये सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाला कोई इंसान न मिल पाए, तो तुम्हें कुछ लोग ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का ज्यादा सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करना जारी रखते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने अभ्यास का मार्ग दिखाया। परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कर्तव्य निभाने के लिए हमारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए। कोई काम करते समय हमें सत्य खोजने में समर्थ होना चाहिए, पता करना चाहिए कि क्या परमेश्वर के वचन में इसका कोई आधार है, क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है, और परमेश्वर की इच्छा क्या है। इस तरह, अक्सर खुद को जाँचकर हम मनमानी करने, और कलीसिया के कार्य को बाधित करने वाली हरकतों से बच सकते हैं। इसके अलावा, हमें खुद को नकारने में समर्थ होना चाहिए, और खुले मन से भाई-बहनों के सुझाव सुनने चाहिए। खास तौर से उन चीजों में, जिनके बारे में हमें स्पष्ट नहीं है और जो कलीसिया के अहम कार्यों से जुड़ी हुई हैं, हमें सहकर्मियों के साथ मिलकर खोज और संगति करनी चाहिए, और एकमत होने पर सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। अगर हम खुद पर अंधा यकीन कर मनमानी करेंगे, तो परमेश्वर का अपमान करने वाले काम करना आसान होगा। इस नाकामी से, मैंने देखा कि मुझमें सत्य की वास्तविकताएं बिल्कुल नहीं हैं, न ही मैं लोगों को परख सकती हूँ। इसके बाद जब मेरे साथ बुरी चीजें घटीं, तो मैं आँखें बंद कर अपनी ही राय पर अड़ी नहीं रह पाई, बल्कि सचेत होकर खुद को नकार सकी, सत्य के सिद्धांतों को खोज सकी।
बाद में, मैंने नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया, और एक समूह के काम की जिम्मेदारी निभाने लगी। एक बार, अगुआ ने मुझसे कुछ भाई-बहनों के काम की निगरानी और जाँच-पड़ताल करने को कहा। मैं इन सभी लोगों को जानती थी और वे सभी जमीन से जुड़े हुए लोग थे, तो मैंने सोचा कि शायद मुझे अक्सर जाँच-पड़ताल करने की जरूरत न पड़े, और कोई बड़ी समस्या भी न हो। लेकिन फिर मैंने सोचा, "मैंने काम की वास्तव में जाँच-पड़ताल नहीं की, न ही उसका लेखा-जोखा लिया, मगर मुझे पूरा यकीन है कि कोई समस्या नहीं होगी। क्या यह अभी भी मेरा घमंडी स्वभाव के साथ कर्तव्य निभाना नहीं है?" फिर, वास्तव में जाँच-पड़ताल करने के बाद, मैंने देखा कि काम में अब भी बहुत-सी समस्याएँ और भटकाव थे, फिर संगति करके और समस्याएँ सुलझाकर धीरे-धीरे काम में सुधार हो पाया। इससे मैं समझ सकी कि सिर्फ अपने घमंडी स्वभाव के भरोसे न रहकर, और सभी चीजों में सत्य के सिद्धांतों को खोजने में समर्थ होकर ही मैं अपने कर्तव्य में नतीजे हासिल कर पाऊँगी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?