न्याय के जरिए खुद को जान पाना
"अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है।"
— "मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर की ताड़ना और न्याय है मनुष्य की मुक्ति का प्रकाश'
जब भी मैं यह भजन गाती हूँ, मुझे वह अनुभव याद आता है जब मैं आस्था में नई थी। तब, परमेश्वर के ये वचन कि "परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है," मुझे बिल्कुल समझ नहीं आते थे। मुझे लगता जैसे न्याय और ताड़ना से गुजरना सच में बहुत दर्दनाक होगा, तो फिर परमेश्वर इसे मानवजाति के लिए सुरक्षा और आशीष क्यों कहेगा? फिर बाद में, मैंने सच में परमेश्वर के वचनों के न्याय का अनुभव किया, मेरी काट-छाँट हुई, निपटान हुआ, तो मैं खुद इसे समझ सकी और महसूस कर पाई कि परमेश्वर के वचन कितने व्यावहारिक हैं।
मुझे याद है, जून 2015 के आखिरी दिनों में, मुझे पाँच अलग-अलग कलीसियाओं की सेवा के लिए प्रचारक चुना गया। शुरू-शुरू में, उन कलीसियाओं के अगुआओं और उपयाजकों के साथ सभा करते वक्त मैं घबरा जाती थी, मुझे फिक्र होती थी कि सत्य की मेरी समझ बेहद उथली होने के कारण मैं दूसरों की मदद नहीं कर पाऊँगी। तो, हर सभा से पहले मैं तैयारी करने की कोशिश करती, परमेश्वर के जिन विचारों पर चर्चा करनी होती, उन पर सच्ची जिम्मेदारी के साथ गंभीरता से सोचती। परमेश्वर के वचनों पर संगति करने के बाद, मैं दूसरों से उनकी मुश्किलों के बारे में पूछती। मुझे फिक्र रहती कि कहीं वे ऐसे मसले न उठा दें, जिनका मुझे अनुभव न हो, और जिनका जवाब मैं न दे पाऊँ, इसलिए मैं प्रार्थना करती, परमेश्वर से एक ईमानदार इंसान बनकर अपनी समझी हुई बातों पर ही संगति करने के लिए मार्गदर्शन करने की विनती करती। कोई बात समझ न आने पर, सबसे बेबाक होकर कह देती कि इसकी समझ मुझे नहीं है, फिर मैं प्रार्थना करती और ज्यादा सत्य खोजती। कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करने के बाद, मैं धीरे-धीरे कलीसिया कार्य के कुछ सिद्धांतों को समझ सकी, और काम के बारे में ज्यादा जान सकी। पहले के मुकाबले ज्यादा प्रेरित होकर, काफी देर तक काम करने लगी। अब मैं सभाओं में पहले की तरह कलीसिया अगुआओं से नहीं डरती थी, और मसले सुलझाने के लिए मेरे पास कुछ विचार भी थे। कभी-कभार जब मैं भाई-बहनों को यह कहते सुनती कि मैं बहुत छोटी हूँ, मेरी आस्था अधिक पुरानी नहीं है, फिर भी मैं आस्था से परिपूर्ण हूँ, कष्ट झेलने और कीमत चुकाने में समर्थ हूँ, सत्य का अनुसरण करती हूँ, तो मैं बहुत खुश हो जाती। जल्दी ही मैंने कलीसिया के कुछ चुनावों का प्रबंधन किया। मेरे प्रभार वाली कलीसियाओं के सभी अगुआ और कार्यकर्ता एक के बाद एक चुन लिए गए। ऐसे नतीजे देखकर मुझे लगा मेरा काम बहुत अच्छा है, तो कोई हैरानी नहीं कि मुझे प्रचारक के तौर पर चुना गया! ऐसा इसलिए कि मुझमें अच्छी काबिलियत थी और मैं कलीसिया में एक प्रतिभाशाली इंसान थी।
फिर अगस्त 2015 के आखिरी दिनों में, जब मुझे लगने लगा कि मैं अपना कर्तव्य बहुत अच्छी तरह निभा रही हूँ, तब एक उच्च अगुआ ने मुझसे कहा कि छोटी होने, मानवता में परिपक्व न होने और जीवन अनुभव की कमी के कारण, मैं भाई-बहनों की वास्तविक समस्याओं को सुलझा नहीं पाती, तो सिद्धांतों के आधार पर मैं एक प्रचारक के तौर पर काम करने लायक नहीं हूँ, और मुझे एक कलीसिया अगुआ के तौर पर ट्रेनिंग लेना चाहिए। उस वक्त मैंने कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं की, मगर पूरी तरह हताश महसूस किया। मुझे लगा, भले ही मेरा जीवन अनुभव सीमित था, पर एक प्रचारक बनने के बाद मैंने तेजी से तरक्की की थी, और कलीसिया कार्य के बहुत-से सिद्धांत सीख लिए थे। हाल ही में मैंने अपने बूते पर कलीसिया के कुछ चुनावों का प्रबंधन भी किया था, और दूसरे कहते थे कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ। मुझे लगा मेरे कर्तव्य में ऐसा बदलाव मेरे लिए अनुचित था। यही नहीं, मेरी समझ और काबिलियत भी बुरी नहीं थी, अपने सभी सहकर्मियों में जवाब देने और सीखने में मैं सबसे तेज थी, इसलिए आगे बढ़ने की मेरी संभावना सबसे ज्यादा होनी चाहिए थी। इसके अलावा, अनेक प्रचारकों में से मुझ अकेली के साथ ही पारिवारिक उलझनें नहीं थीं। मेरी आस्था दिली और गहरी थी, मैं अपने कर्तव्य में कष्ट झेल सकती थी, कीमत चुका सकती थी, तो मेरा तबादला क्यों किया गया?
कई दिनों तक, मेरे मन में बस यही चलता रहा, मुझे जरा भी सुकून नहीं मिला। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, अपने कर्तव्य से मेरा तबादला कर दिया गया। इससे मुझे कौन-सा सबक सीखना होगा? मैं अपनी समस्या नहीं समझ पा रही हूँ—मुझे रास्ता दिखाओ।" इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। 'प्रतीक्षा' का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और उसकी इच्छा स्वयं को धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसकी प्रतीक्षा करना। 'खोजने' का अर्थ है परमेश्वर द्वारा निर्धारित लोगों, घटनाओं और चीज़ों के माध्यम से, तुम्हारे लिए परमेश्वर के जो विचारशील इरादें हैं उनका अवलोकन करना और उन्हें समझना, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, 'समर्पण करने', का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह जान लेना है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर नियंत्रण करता है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरा कर्तव्य बदल दिया गया था, और भले ही मैं परमेश्वर की इच्छा नहीं समझती थी, या नहीं जानती थी कि कौन-सा सबक सीखना है, पर कम-से-कम मुझमें समर्पण, प्रतीक्षा और परमेश्वर की इच्छा खोजने का रवैया होना चाहिए। अगर मैं पूरे समय असंतुष्ट ही रही, तो यह दूसरों के लिए मुश्किल खड़ी करना नहीं, बल्कि परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करना था। फिर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं समर्पण करने और कलीसिया अगुआ के तौर पर अपना भरसक प्रयास करने को तैयार थी।
फिर दो महीने बाद, मेरी साझीदार बहन शू ने बताया कि कलीसियाएं एक प्रचारक चुन रही हैं, और उसने सुना है कि उच्च अगुआ ने उम्मीदवार नामांकित कर दिए हैं। उसकी बात सुनकर मैं शांत नहीं रह सकी। मैंने तुरंत दोहराया, "क्या? उन्होंने उम्मीदवार नामांकित कर दिए? चुनावों के सिद्धांतों में साफ कहा गया है कि किसी को भी उम्मीदवार नामांकित करने की इजाजत नहीं है, और ऐसा काम शैतान यानी बड़ा लाल अजगर ही करता है। ऐसा करना सिद्धांतों का उल्लंघन है।" मेरी साझीदार तुरंत बोली, "मैंने ऐसा सुना है, मगर पता नहीं यह सच है या नहीं। यह बात इधर-उधर मत फैलाना।" उसकी बात सुनकर, मैंने हामी तो भर दी, लेकिन मन में इस बात पर खलबली मची हुई थी। बिना आग के धुंआ नहीं उठता, तो अगर उच्च अगुआ ने ऐसा नहीं किया था, तो कोई यूँ ही ऐसी बात क्यों बनाएगा? उसने ऐसा किया होगा और लोगों को पता चल गया होगा, इसीलिए इस पर चर्चा हो रही थी। पहले मैं एक प्रचारक थी और उसने उस पद से मेरा तबादला कर दिया था, अब उसने उम्मीदवार नामांकित कर दिए। वह सच में सिद्धांतों के बिना काम कर रही थी। इसलिए मैंने इस बात का जिक्र एक दूसरी कलीसिया की अगुआ, बहन लिन से किया। कुछ समय बाद, बहन लिन ने मुझे बताया कि सहकर्मियों की एक बैठक में वह इस मसले को समझ पाई थी। उच्च अगुआ ने थोड़े बेहतर कलीसिया अगुआओं में से कुछ को चुनाव के लिए चुना था। यह उम्मीदवार नामांकित करना नहीं था। उच्च अगुआ ने यह भी कहा कि बेतरतीबी से अफवाह फैलाकर मैं कलीसिया कार्य में बाधा डाल रही थी। यह सुनकर मुझे लगा मेरे साथ गलत हुआ था, और लगा मेरी मंशा ऐसी थी ही नहीं। मुझे जो भी मालूम था वह मैंने बहन लिन को संक्षेप में बता दिया। सबके सामने उच्च अगुआ के यह कहने पर कि मुझमें मंशाएं थीं और मेरा विश्लेषण करने के बाद, मैं सबको अपना मुँह कैसे दिखा सकती थी? इस बारे में जितना सोचा, उतना ही लगा मेरे साथ बहुत गलत हुआ था, और मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मैं बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी, उससे सबक सीखने का रास्ता दिखाने की विनती करने लगी। कुछ दिनों तक मैं बहुत उदास और दुखी थी, मुझमें कुछ भी करने का जोश नहीं था। फिर एक सभा में, मैंने "जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी" में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मैं खुद को थोड़ा-बहुत समझ पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "भाइयों और बहनों के बीच जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल और हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में अपने विश्वास में, अगर लोगों के अंदर परमेश्वर के प्रति श्रद्धा-भाव से भरा दिल नहीं है, अगर ऐसा दिल नहीं है जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिये कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा उपस्थित करने वाले और उसकी उपेक्षा करने वाले लोग बन जाएंगे। ... जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का आदर करने वाला और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता। छल-प्रपंच में लिप्त चारों तरफ अपनी अकड़ में चलते हुए, सभी जगह परमेश्वर का ध्वज लहराते हुए लोग उन्मत्त होकर हिंसा पर उतारू न हों; यह बहुत ही विद्रोही प्रकार का आचरण है। परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के परिवार में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या यहां मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या यहां प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता; वह परमेश्वर है जो लोगों को मौत की सजा देता है। क्या लोग यह सब पहले से ही नहीं जानते?" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचन "शैतान के अनुचर" और "कलीसिया को परेशान करते हैं" दिल में चुभनेवाले और डरानेवाले थे। परमेश्वर के वचनों के आधार पर, वास्तविक हालात को पूरी तरह समझे बिना बहन लिन को बताना कि उच्च अगुआ उम्मीदवार नामांकित कर रही थीं, यूँ ही अफवाह फैलाना और कलह के बीज बोना था। बहन शू ने मुझे साफ चेताया था कि यह बात उसने सुनी भर थी, और उसे नहीं पता था यह सच है या नहीं, मगर मैंने पलट कर बहन लिन को इस बारे में बता दिया। मैं चाहती थी ज्यादा लोग सोचें कि उच्च अगुआ सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं कर रही थीं, और चुनाव जैसे अहम मामले में भी, वे चोरी-छिपे उम्मीदवार नामांकित कर रही थीं, ताकि लोग उनके खिलाफ हो जाएँ। ऐसा करना वास्तव में उच्च अगुआ को कमजोर करना था, शैतान की सेविका की तरह कलीसिया कार्य में बाधा डालना था। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होता है। उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं! इन लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। जो सत्य के खोजी हैं उनका भरण-पोषण होने दो और वे अपने हृदय के तृप्त होने तक परमेश्वर के वचनों में आनंद प्राप्त करें। परमेश्वर धार्मिक है; वह किसी से पक्षपात नहीं करता। यदि तुम शैतान हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते; और यदि तुम सत्य की खोज करने वाले हो, तो यह निश्चित है कि तुम शैतान के बंदी नहीं बनोगे—इसमें कोई संदेह नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन, "उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं!" को पढ़कर मैं डर के मारे काँपने लगी। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, और अपनी मनमानी करती रही, शैतान की सेविका बनकर काम करती रही, तो अंत में परमेश्वर मुझे उजागर कर त्याग देगा। फिर मैंने इस वचन पर मनन किया : "जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे" अगर मैं अपने अपराधों के समाधान और खुद को जानने के लिए सत्य खोज सकी, तो क्या परमेश्वर मुझ पर दया नहीं करेगा? फिर मैंने मन-ही-मन सोचा बहन शू के यह बताने पर कि उच्च अगुआ ने उम्मीदवार नामांकित किए थे, मैंने ऐसी बड़ी प्रतिक्रिया क्यों दिखाई थी। इस घटना से कुछ महीने पहले, जब मेरा कर्तव्य बदला गया था, तब मैं इससे काफी असंतुष्ट थी, और उच्च अगुआ के खिलाफ हो गई थी। इसलिए जब मैंने किसी को यह कहते सुना कि उच्च अगुआ उम्मीदवार नामांकित कर रही थीं, तो मुझे लगा वे यकीनन सिद्धांत के अनुसार काम नहीं कर रही थीं, और मैंने बहन लिन को इस बारे में बता दिया, ताकि उसे अपने साथ करके उच्च अगुआ के खिलाफ कर दूँ। मैं जान-बूझकर उच्च अगुआ की आलोचना कर रही थी, इसमें बदले की भावना भी थी। यह बड़ी घिनौनी और दुष्ट मंशा थी! अपना यह बदसूरत रूप देखकर मैं पछतावे में डूब गई। अगर उच्च अगुआ ने मेरी करनी के सार का विश्लेषण फौरन नहीं किया होता, तो भाई-बहनों के बीच झूठी खबर के फैलने पर सारे लोग मेरे असली मंसूबे जान जाते, वे सभी उच्च अगुआ के खिलाफ हो गए होते, और उनके साथ ठीक से सहयोग करने में असमर्थ रहे होते। इससे कलीसिया के कार्य पर सीधा असर पड़ता। इसके बाद, मैं फौरन परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना और प्रायश्चित करने लगी। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, मैंने शैतान की सेविका की तरह बर्ताव किया है, तुम्हारे घर के कार्य में बाधा और परेशानी पैदा की है। मैं भ्रष्टता के साथ बातें और काम नहीं करते रहना चाहती। मैं अपने अपराधों और कुकर्मों को समझकर सच में प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मुझे रास्ता दिखाओ।"
उस दौरान मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर सत्य खोज रही थी। उस वक्त मैं अपना कर्तव्य बदलने को लेकर इतनी प्रतिरोधी क्यों थी, इस हद तक कि मैं शैतान के लिए काम करने लगी, भाई-बहनों के बीच मतभेद पैदा करने लगी, और उच्च अगुआ की आलोचना करने लगी? एक दिन अपने धार्मिक कार्यों के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जो लोग परमेश्वर के सामने अपने आपको बड़ा मूल्य देते हैं, वे सबसे अधिक अधम लोग हैं, जबकि जो खुद को तुच्छ समझते हैं, वे सबसे अधिक आदरणीय हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को जानते हैं, और दूसरों के आगे परमेश्वर के कार्य की धूमधाम से उद्घोषणा करते हैं, जबकि वे सीधे परमेश्वर को देखते हैं—ऐसे लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। ऐसे लोगों में परमेश्वर की गवाही नहीं होती, वे अभिमानी और अत्यंत दंभी होते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं)। "मैं तुम सबको समझा रहा हूँ कि अपने आपको स्वर्ण से अधिक मूल्यवान मत समझो। जब दूसरे लोग परमेश्वर का न्याय स्वीकार कर सकते हैं, तो तुम क्यों नहीं? तुम दूसरों से कितने ऊँचे हो? अगर दूसरे लोग सत्य के आगे सिर झुका सकते हैं, तो तुम भी ऐसा क्यों नहीं कर सकते?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के ये वचन सीधे मेरे दिल में उतर गए। मैं ठीक ऐसी ही घमंडी और दंभी किस्म की इंसान थी। मैंने एक प्रचारक के तौर पर काम करके कुछ सिद्धांत सीखे थे, तो मुझे लगने लगा था कि मुझमें अच्छी काबिलियत थी, मैं अध्ययन में तेज थी, कलीसिया में एक प्रतिभाशाली इंसान थी और मेरा पोषण किया जाना चाहिए। इतनी कम उम्र में, कष्ट सहने, अपने कर्तव्य में कीमत चुकाने और सत्य खोजने में सक्षम होने को लेकर भाई-बहनों से अपनी प्रशंसा सुनकर, मैं खुद को बहुत ऊंची समझने लगी थी। मैंने खुद को सत्य की खोजकर्ता का तमगा दे दिया। उच्च अगुआ ने मेरे साथ सिद्धांतों पर संगति की, और कहा कि उस वक्त मेरी असली हालत के कारण मैं एक प्रचारक के तौर पर काम करने लायक नहीं थी, मगर मैं इसे स्वीकार नहीं पाई। मुझे यह भी लगा कि मेरा कर्तव्य बदलकर उच्च अगुआ मेरे लिए मुश्किल खड़ी कर रही थीं, वे सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थीं। यह जरा भी समझे बिना कि मैं सच में किससे बनी थी, मैं खुद को बहुत बड़ी और महान समझने लगी थी। पूरी तरह आश्वस्त भी थी कि मैं एक प्रचारक बनने के लायक थी, मगर दरअसल मुझे विश्वासी बने ज्यादा समय नहीं बीता था और मुझे ज्यादा वास्तविक अनुभव भी नहीं था। कलीसिया अगुआओं के ठीक से सहयोग न करने जैसी कुछ व्यावहारिक समस्याएँ झेलने के सिवाय, उनकी मदद करने के लिए मुझे कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं था। अपना कर्तव्य बदलने के दो महीने बाद भी, मैं इस बात से खुश नहीं थी, और इसे मोटे तौर पर भी स्वीकार नहीं पाई थी। मैं तो चोरी-छिपे उच्च अगुआ के काम की आलोचना करती थी, कहती थी ये सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। मेरा घमंड सभी तर्कों से परे था। मैं सत्य के इस्तेमाल से वास्तविक समस्याएँ नहीं सुलझा पा रही थी, नहीं जानती थी कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करूँ। समस्याएँ झेलते समय भी मैंने सच में समर्पण नहीं किया, सबक नहीं सीखे। ये बातें यह दिखाने के लिए काफी थीं कि मुझे ज्यादा व्यावहारिक अनुभव नहीं था, मैं सत्य नहीं समझती थी, और अपनी भ्रष्टता का मुझे कोई ज्ञान नहीं था। मैं उन कलीसियाओं की वास्तविक समस्याओं को कैसे सुलझा सकती थी? जब उच्च अगुआ ने मेरा कर्तव्य बदल दिया, तो उन्होंने कहा कि मुझे पर्याप्त जीवन अनुभव नहीं था और मैं वास्तविक समस्याएँ नहीं सुलझा पाती हूँ। अगर वास्तविकता यह खुलासा नहीं करती, तो मैं कभी समझ न पाती कि मैं कितनी घमंडी थी।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। मेरे कर्तव्य का बदलना मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और संरक्षण था। अगर यह नहीं हुआ होता, तो मैं अब भी नहीं जान पाती कि मैं कितनी घमंडी हूँ। उच्च अगुआ के मुझे उजागर करने और परमेश्वर के कठोर न्याय और खुलासे से मेरी बड़ी जल्दी चीर-फाड़ हो गई, मगर इससे मुझे अपना घमंड और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा की कमी समझने में मदद मिली, मैंने जाना कि अपने रुतबे और फायदे के लिए मैं शैतान की सेविका बन गई थी, और कलीसिया कार्य में बाधा डाल रही थी। परमेश्वर ने समय रहते मुझे दुराचार के रास्ते पर जाने से रोक दिया, खुद के बारे में जानने का मौका दिया।
इसके बाद, मैंने कलीसिया अगुआ के रूप में बढ़िया करने की भरसक कोशिश की। मेरी साझीदार, बहन शू, अपना कर्तव्य निभाने के अलावा अपने परिवार की देखभाल भी करती थी। मुझ पर ऐसी घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ नहीं था, तो मुझ पर समय के बंधन नहीं थे। भाई-बहनों को जब मुश्किलें होतीं, तो मैं अक्सर उनके साथ संगति कर मामले सुलझाने के लिए चली जाती। शुरू में, मैं बहन शू की समस्याएँ समझकर माफ कर दिया करती थी, मगर कुछ समय बाद, मुझे लगने लगा कि मैं उससे ज्यादा व्यस्त रहती हूँ। कभी-कभी मैं देखती कि जब उसके परिवार में कोई समस्या खड़ी होती, और वह कलीसिया के मामलों का ध्यान नहीं रखती या तुरंत उन्हें नहीं संभालती, तो मुझे उससे थोड़ी घृणा होने लगती। मुझे लगता उसे अपने परिवार से बहुत ज्यादा प्यार था, और समय के साथ इससे कलीसिया कार्य में रुकावट पैदा होगी। कभी-कभी मैं बहन शू के साथ संगति साझा करती, लेकिन उसे थोड़ी परेशान देखकर, मेरा लहजा उसके प्रति घृणा और तिरस्कार का हो जाता। बहन शू मुझसे दबी हुई महसूस करती, डरती कि अगर उसने कुछ गलत कर दिया, तो मैं उससे सख्ती से पेश आऊँगी। अपने घमंडी स्वभाव की ज्यादा समझ न होने के कारण, जल्दी ही मेरी पुरानी समस्याएँ फिर से उभरने लगीं।
बाद में, बहन शू प्रचारक पद की उम्मीदवार बनी और फिर चुन ली गई। पता चलने पर मेरे लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल था। मैं सोचने लगी कि सिर्फ छोटी होने के कारण मैं उम्मीदवार नहीं बन सकी, मगर ऐसा कैसे कि मैं बहन शू की बराबरी नहीं कर सकी? मेरी काबिलियत उससे बेहतर थी, मेरे कर्तव्य में ज्यादा जोश था, और मैं परिवार में उलझी हुई नहीं थी। साथ ही, हाल ही में, मेरी काट-छाँट हुई थी, निपटान हुआ था, नाकाम होने पर, मुझे उजागर किया गया था, और मैंने खुद के बारे में थोड़ी समझ हासिल की थी। मैं अभी भी थोड़ा घमंड दिखा रही थी, लेकिन काफी-कुछ बदल चुकी थी। अब बहन शू बहुत-सी कलीसियाओं के कार्य के लिए जिम्मेदार, एक प्रचारक के रूप में चुन ली गई थी, मगर मैं सिर्फ एक कलीसिया की ही प्रभारी थी, तो क्या इसका मतलब यह था कि मुझमें इतनी कमियाँ थीं? मैं बहुत छोटी थी—तो क्या सिर्फ उस कलीसिया में अगुआ बने रहना मेरी प्रतिभा को व्यर्थ करना नहीं था? अपनी काबिलियत के साथ, क्या मैं सिर्फ एक ही कलीसिया का प्रभार संभाल सकती थी? क्या मैं परमेश्वर के घर में कोई अहम भूमिका अदा नहीं कर सकती? उच्च अगुआ मेरी प्रगति और मेरा बदलाव क्यों नहीं देख पाईं? एक प्रचारक बहन झैंग ने भी सभाओं में कई बार लगातार मेरी काट-छाँट की, मेरा निपटान किया। उसने कहा, "आपके साथ अपने पहले की बातचीत में मुझे लगा था जैसे आप में सचमुच अच्छी मानवता है। मुझे यह देखकर हैरानी हो रही है कि आप कितनी घमंडी और अहंकारी हैं। थोड़ी-सी काबिलियत लेकर आप दूसरों को नीची नजर से देखती हैं और हर मोड़ पर उन्हें दबाती हैं। आप लगातार लोगों को अपना उदास चेहरा दिखाती रहती हैं। अब मैं समझ गई हूँ कि आपमें अच्छी मानवता नहीं है।" उसकी यह बात सुन मैं पूरी तरह टूट गई। हर सभा में उसे मेरी समस्याओं के बारे में बोलने की क्या जरूरत है? यह मुझसे इतनी सख्ती क्यों दिखाती है? मैंने बस थोड़ी भ्रष्टता दिखाई थी, थोड़ी घमंडी थी, लेकिन क्या मेरे साथ यूँ बात करना जरूरी था? यह सब सहन न होने पर, मैं अकेली चुपचाप रोने के लिए बाथरूम चली जाती। मुझे लगता जैसे मेरे दिल में कोई नश्तर चुभा दिया गया हो। मैं हर दिन प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारती, उससे एक सबक सीखने में मार्गदर्शन की विनती करती।
उस दौरान, मैंने परमेश्वर के न्याय और खुलासे के बहुत-से वचन पढ़े। उनमें से एक अंश ने मुझ पर खासी गहरी छाप छोड़ी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। परमेश्वर का स्वागत करने के बदले में तुम लोग धन, उपहार और प्रशंसा माँगते हो। एक-दो सिक्के देते हुए भी तुम्हारा दिल दुखता है; जब तुम दस सिक्के देते हो तो तुम आशीष दिए जाने और दूसरों से विशिष्ट माने जाने की अभिलाषा करते हो। तुम लोगों जैसी मानवता के बारे में तो बात करना या सुनना भी अपमानजनक है। क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रशंसा-योग्य है? जो अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो नहीं निभाते; जो अगुआई करते हैं और जो अनुसरण करते हैं; जो परमेश्वर का स्वागत करते और जो नहीं करते; जो दान देते हैं और जो नहीं देते; जो उपदेश देते हैं और जो वचन ग्रहण करते हैं, इत्यादि; ऐसे सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम लोगों को यह हास्यास्पद नहीं लगता? यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिलकुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा? इस तरह की समझ के साथ तुम परमेश्वर से जुड़ने के योग्य कैसे हो? क्या तुम लोगों को इस मुकाम पर अपने बारे में डर नहीं लगता? तुम्हारा स्वभाव पहले ही इस हद तक खराब हो चुका है कि तुम परमेश्वर के साथ संगत होने में असमर्थ हो। इस बात को देखते हुए, क्या तुम लोगों की आस्था हास्यास्पद नहीं है? क्या तुम्हारी आस्था बेतुकी नहीं है? तुम अपने भविष्य से कैसे निपटोगे? तुम कैसे चुनोगे कि कौन-सा मार्ग लेना है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का सटीक खुलासा किया। अपने कर्तव्य में कुछ सिद्धांत सीखने के बाद, मुझे लगा था जैसे मुझमें बड़ी काबिलियत थी, मैं प्रतिभाशाली थी। थोड़े त्याग करने और कीमत चुकाने के बाद, मैं अपनी बड़ाई करने लगी, मुझे लगा मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ। जब हमारे कर्तव्य में बहन शू और मैं साझीदार बनीं, मैं उससे थोड़ा ज्यादा काम करती थी, तो मुझे लगता मैं उससे ज्यादा अनुसरण करती हूँ, उससे बेहतर हूँ। बहन शू को पारिवारिक मामलों में उलझा देख, मैं उसकी हालत समझने के बजाय उसकी अहमियत कम कर उसे नीची नजरों से देखती, और घृणा से उसे आँखें दिखाती। मेरे दिल में उसके लिए जरा भी प्यार नहीं था, बल्कि मैं उसे हमेशा रोके रखती थी। यह पूरी तरह से एक घमंडी स्वभाव दिखाना था, और इससे परमेश्वर को नफरत थी। हालाँकि बहन शू को जरूर कुछ पारिवारिक उलझनें थीं, पर उसमें अच्छी इंसानियत थी, और वह अपना कर्तव्य निभाने में कुशल थी। साथ ही, उसकी संगति सच में व्यावहारिक थी, और वह दूसरों की दिक्कतें सुलझा सकती थी। खेती-किसानी के व्यस्त मौसम में, कुछ लोग सभाओं में देर से आते या नियमित रूप से नहीं आते। मैं उनके साथ संगति करती कि सत्य के अनुसरण का यह अहम वक्त है, हमेशा देह-सुख में व्यस्त रहकर वे कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे, और कोई बेवकूफ ही अपने आराम के लालच में खुद को तबाह करेगा। मैं ये तमाम खोखली बातें कहती और वे सब हामी में सिर हिलाते, लेकिन बाद में वे अपनी खेती-किसानी में लग जाते और सभाओं में देर से आने लगते। हालांकि कुछ पारिवारिक उलझनों के अनुभव के कारण, बहन शू उनके वास्तविक-जीवन के संघर्षों को ठीक से समझ पाती। वह भाई-बहनों की मदद करने के लिए अपने अनुभवों पर संगति करती। वे सब सुनते और उन्हें लगता कि यह सब बहुत व्यावहारिक है, फिर वे सभाओं में नियमित रूप से आने लगते। हम दोनों भाई-बहनों के साथ संगति करतीं। मैं उनकी वास्तविक समस्याएँ नहीं सुलझा पाती, लेकिन बहन शू अपनी संगति से सच्चे नतीजे हासिल कर लेती। इससे देखा जा सकता था कि उसके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव था।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि वास्तविकता क्या है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "परमेश्वर के वचनों को मानते हुए स्थिरता के साथ उनकी व्याख्या करने के योग्य होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे पास वास्तविकता है; बातें इतनी भी सरल नहीं हैं जितनी तुम सोचते हो। तुम्हारे पास वास्तविकता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम क्या कहते हो; अपितु यह इस पर आधारित है कि तुम किसे जीते हो। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन और तुम्हारी स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन जाते हैं, तभी कहा जा सकता है कि तुममें वास्तविकता है और तभी कहा जा सकता है कि तुमने वास्तविक समझ और असल आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया है। तुम्हारे अंदर लम्बे समय तक परीक्षा को सहने की क्षमता होनी चाहिए, और तुम्हें उस समानता को जीने के योग्य होना अनिवार्य है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर तुम से करता है; यह मात्र दिखावा नहीं होना चाहिए; बल्कि यह तुम में स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होना चाहिए। तभी तुम में वस्तुतः वास्तविकता होगी और तुम जीवन प्राप्त करोगे। ... धिक्कार है उन पर जो अहंकारी और दंभी होते हैं, और धिक्कार है उन्हें जिन्हें स्वयं का कोई ज्ञान नहीं है; ऐसे लोग बातें करने में कुशल होते हैं, परन्तु अपनी बातों पर अमल करने में ऐसे लोग बहुत ही खराब होते हैं। छोटी-सी भी समस्या नज़र आते ही ये लोग सन्देह करना आरम्भ कर देते हैं और त्याग देने का विचार उनके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाता है। उनमें कोई वास्तविकता नहीं होती; उनके पास मात्र सिद्धान्त हैं, जो धर्म से ऊपर हैं और ये उन समस्त वास्तविकताओं से रहित हैं जिनकी परमेश्वर अभी अपेक्षा करता है। मुझे उनसे अधिक घृणा होती है जो मात्र सिद्धान्तों की बात करते हैं और जिनमें कोई वास्तविकता नहीं होती। जब वे कोई कार्य करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते हैं, परन्तु जैसे ही उनका सामना वास्तविकता से होता है, वे बिखर जाते हैं। क्या यह ये नहीं दर्शाता कि इन लोगों के पास कोई वास्तविकता नहीं है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हवा और लहरें कितनी भयंकर हैं, यदि तुम अपने मन में थोड़-सा भी सन्देह किए बिना खड़े रह सकते हो और तुम स्थिर रह सकते हो और उस समय भी इन्कार करने की स्थिति में नहीं रहते हो जब तुम ही अकेले बचते हो, तब यह माना जाएगा कि तुम्हारे पास सच्ची समझ है और वस्तुतः तुम्हारे पास वास्तविकता है। अगर जिधर हवा बहती है यदि तुम भी उधर ही बह जाते हो, तुम भीड़ के पीछे जाते हो और वही कहते हो जो अन्य लोग कह रहे हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी उत्तम रीति से बातें करते हो, यह इस बात का प्रमाण नहीं होगा कि तुम में वास्तविकता है। इसलिए मैं तुम्हें परामर्श देता हूँ कि निरर्थक शब्द बोलने में जल्दबाज़ी न करो। क्या तुम जानते हो परमेश्वर क्या करने वाला है? दूसरे पतरस जैसा व्यवहार मत करो, नहीं तो स्वयं को लज्जित करोगे और तुम अपनी प्रतिष्ठा को बनाए नहीं रख पाओगे—यह किसी का कुछ भला नहीं करता है। अधिकतर व्यक्तियों का कोई असल आध्यात्मिक कद नहीं होता। हालाँकि परमेश्वर ने बहुत-से कार्य किये हैं, परन्तु उसने लोगों पर वास्तविकता प्रकट नहीं की है; यदि सही-सही कहें तो, परमेश्वर ने कभी किसी को व्यक्तिगत रूप से ताड़ना नहीं दी है। कुछ लोगों को ऐसे परीक्षणों के ज़रिए उजागर किया गया है, उनके पापी हाथ यह सोचकर दूर-दूर तक पहुँच रहे थे कि परमेश्वर का फायदा उठाना आसान है, वे जो चाहे कर सकते हैं। चूँकि वे इस प्रकार के परीक्षण का भी सामना करने के योग्य नहीं हैं, अधिक चुनौतीपूर्ण परीक्षणों का तो सवाल ही नहीं उठता है, वास्तविकता के होने का भी सवाल नहीं उठता। क्या यह परमेश्वर को मूर्ख बनाने का प्रयास नहीं है? वास्तविकता रखना ऐसा कुछ नहीं है जिसमें जालसाजी की जा सके, और न ही यह ऐसा कुछ है, जिसे तुम जान कर प्राप्त कर सकते हो। यह तुम्हारे वास्तविक आध्यात्मिक कद पर निर्भर है, और यह इस बात पर भी निर्भर है कि तुम समस्त परीक्षणों का सामना करने के योग्य हो या नहीं। क्या तुम समझते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल सत्य का अभ्यास करना ही इंसान में वास्तविकता का होना है)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। किसी इंसान में वास्तविकता है या नहीं, यह उसकी बातों से नहीं पता चलता, बल्कि इससे पता चलता है कि क्या वह सत्य पर अमल करता है, अपने जीवन अनुभव के साथ परमेश्वर की गवाही देता है। अगर आप सिर्फ सिद्धांत समझते हैं और सोचते हैं कि आपके पास वास्तविकता है, तो यह घमंड है, आपको आत्मज्ञान नहीं है। मुझे लगता था कि मैं आस्था से परिपूर्ण हूँ, मैं कलीसिया कार्य को समय अनुसार संभाल सकूंगी, मैं अपने कर्तव्य में जोशीली थी, परमेश्वर के सामने समर्पण को तैयार भी दिखती थी, लेकिन बहन शू के प्रचारक के रूप में चुन लिए जाने के बाद मेरा संतुलन बिगड़ गया। मुझे लगा मैं उससे बेहतर थी, ज्यादा काबिल थी, तो मुझे क्यों नहीं चुना गया? मेरे दिल में शिकायतों ने घर कर लिया, लगा मेरे साथ उचित नहीं हुआ था। अपने बर्ताव के आधार पर, मैं खुद को सचमुच नहीं जानती थी, और मैं परमेश्वर के बनाए हालात के सामने समर्पित नहीं हो पा रही थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता थी ही नहीं। मुझे अपने कर्तव्य में बस थोड़ा उत्साह था, कुछ सिद्धांत बोल लेती थी। मैंने इन्हीं चीजों को अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद मान लिया, लेकिन दरअसल, मैं भाई-बहनों की असली दिक्कतों को सच में नहीं समझ पाती थी, और उनकी वास्तविक समस्याएँ नहीं सुलझा पाती थी। एक कलीसिया अगुआ के तौर पर सेवा करने देना मुझे एक मौका देना ही था, लेकिन मैं खुद को जरा भी जाने बिना एक प्रचारक बनने के लिए लड़ना चाहती थी। मैं सभी तर्कों से परे घमंडी थी। मैं चाहती थी परमेश्वर खास तौर पर मेरी कद्र करे, जो नामुमकिन था। परमेश्वर ऐसे किसी इंसान को पसंद नहीं करेगा जो काबू से बाहर हो और जिसमें समझ हो ही नहीं। यह देखकर मुझे बहुत पछतावा हुआ कि मेरा स्वभाव अहंकारी था, मैंने कोई बदलाव नहीं किए थे, और मेरा व्यवहार परमेश्वर के लिए घृणास्पद और अप्रिय था। मुझे लगा मैं बेहद सुन्न थी, सच में खुद को नहीं जानती थी। अगर बहन झैंग ने मेरा निपटान नहीं किया होता, तो मैं अभी भी अपनी समस्याएँ नहीं देख पाई होती। मेरे लिए ऐसे हालात तैयार करने पर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे परमेश्वर की इच्छा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब तुम थोड़ी सी बाधा या कठिनाई से पीड़ित होते हो, तो ये तुम लोगों के लिए अच्छा है; यदि तुम लोगों को एक मौज करने का समय दिया गया होता, तो तुम लोग बर्बाद हो जाते, और तब तुम्हारी रक्षा कैसे की जाती? आज तुम लोगों को इसलिए सुरक्षा दी जाती है क्योंकि तुम लोगों को दंडित किया जाता है, शाप दिया जाता है, तुम लोगों का न्याय किया जाता है। क्योंकि तुम लोगों ने काफी कष्ट उठाया है इसलिए तुम्हें संरक्षण दिया जाता है। नहीं तो, तुम लोग बहुत समय पहले ही दुराचार में गिर गए होते। यह जानबूझ कर तुम लोगों के लिए चीज़ों को मुश्किल बनाना नहीं है—मनुष्य की प्रकृति को बदलना मुश्किल है, और उनके स्वभाव को बदलना भी ऐसा ही है। आज, तुम लोगों के पास वो समझ भी नहीं है जो पौलुस के पास थी, और न ही तुम लोगों के पास उसका आत्म-बोध है। तुम लोगों की आत्माओं को जगाने के लिए तुम लोगों पर हमेशा दबाव डालना पड़ता है, और तुम लोगों को हमेशा ताड़ना देनी पड़ती है और तुम्हारा न्याय करना पड़ता है। ताड़ना और न्याय ही वह चीज़ हैं जो तुम लोगों के जीवन के लिए सर्वोत्तम हैं। और जब आवश्यक हो, तो तुम पर आ पड़ने वाले तथ्यों की ताड़ना भी होनी ही चाहिए; केवल तभी तुम लोग पूरी तरह से समर्पण करोगे। तुम लोगों की प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि ताड़ना और शाप के बिना, तुम लोग अपने सिरों को झुकाने और समर्पण करने के अनिच्छुक होगे। तुम लोगों की आँखों के सामने तथ्यों के बिना, तुम पर कोई प्रभाव नहीं होगा। तुम लोग चरित्र से बहुत नीच और बेकार हो। ताड़ना और न्याय के बिना, तुम लोगों पर विजय प्राप्त करना कठिन होगा, और तुम लोगों की अधार्मिकता और अवज्ञा को जीतना मुश्किल होगा। तुम लोगों का पुराना स्वभाव बहुत गहरी जड़ें जमाए हुए है। यदि तुम लोगों को सिंहासन पर बिठा दिया जाए, तो तुम लोगों को स्वर्ग की ऊँचाई और पृथ्वी की गहराई के बारे में कोई अंदाज़ न हो, तुम लोग किस ओर जा रहे हो इसके बारे में तो बिल्कुल भी अंदाज़ा न हो। यहाँ तक कि तुम लोगों को यह भी नहीं पता कि तुम सब कहाँ से आए हो, तो तुम लोग सृष्टि के प्रभु को कैसे जान सकते हो? आज की समयोचित ताड़ना और शाप के बिना तुम्हारा अंत का दिन पहले ही आ चुका होता। तुम लोगों के भाग्य के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं—क्या यह और भी निकटस्थ खतरे की बात नहीं है? इस समयोचित ताड़ना और न्याय के बिना, कौन जाने कि तुम लोग कितने घमंडी हो गए होते, और कौन जाने तुम लोग कितने पथभ्रष्ट हो जाते। इस ताड़ना और न्याय ने तुम लोगों को आज के दिन तक पहुँचाया है, और इन्होंने तुम लोगों के अस्तित्व को संरक्षित रखा है। जिन तरीकों से तुम लोगों के 'पिता' को 'शिक्षित' किया गया था, यदि उन्हीं तरीकों से तुम लोगों को भी 'शिक्षित' किया जाता, तो कौन जाने तुम लोग किस क्षेत्र में प्रवेश करते! तुम लोगों के पास स्वयं को नियंत्रित करने और आत्म-चिंतन करने की बिलकुल कोई योग्यता नहीं है। तुम जैसे लोग, अगर कोई हस्तक्षेप या गड़बड़ी किए बगैर मात्र अनुसरण करें, आज्ञापालन करें, तो मेरे उद्देश्य पूरे हो जाएंगे। क्या तुम लोगों के लिए बेहतर नहीं होगा कि तुम आज की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करो? तुम लोगों के पास और क्या विकल्प हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (6))। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए, मेरे मन में एक प्रचारक से लेकर अपना कर्तव्य बदलने तक, एक के बाद एक, सारे दृश्य झलकने लगे। मैं सच में महसूस करने लगी कि परमेश्वर का न्याय और काट-छाँट मेरे लिए उसका संरक्षण है। मैं इतनी अहंकारी थी कि मैं जान नहीं पाई वह क्या था, मैं बहुत जिद्दी और दिल से विद्रोही भी थी। अगर तथ्यों ने मुझे इस तरह बार-बार नहीं घेरा होता, तो पता नहीं अपने घमंड में मैं किस हद तक चली गई होती। मैंने सच में यह भी महसूस किया कि परमेश्वर का प्रेम मानवजाति के लिए कितना व्यावहारिक है। परमेश्वर ने मुझे चेताने और उसके सामने आकर आत्मचिंतन करने में मेरी मदद के लिए बार-बार ऐसे हालात बनाए। उसके वचनों ने मुझे रास्ता दिखाया, मेरा न्याय कर मेरे विद्रोही स्वभाव और भ्रष्टता का खुलासा किया, जिससे मैं खुद को जानकर परमेश्वर के सामने प्रायश्चित कर सकी। परमेश्वर लोगों के जीवन की इतनी ज्यादा जिम्मेदारी उठाता है। वह इतना प्यारा है, और हमारे प्रेम के बहुत योग्य है। "परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है," इन वचनों का वास्तविक अर्थ मैं सचमुच थोड़ा-बहुत समझ पाई हूँ। अगर लोग अपने स्वभाव को शुद्ध करना और बदलना चाहते हैं, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना नहीं हो सकता। मैंने उस कर्तव्य में बने रहने को सचमुच तैयार होकर, परमेश्वर से समर्पण की प्रार्थना की, कहा कि भले ही कभी मेरी तरक्की न हो, तो भी मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।
कुछ समय बाद, मुझे उच्च अगुआ का एक पत्र मिला, जिसमें बताया गया कि मुझे तरक्की दी गई है और मुझे दूसरी जगह जाकर कर्तव्य निभाना होगा। मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। तब मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना, मुझे लगा वह कितना प्यारा है! वास्तविकता यह है कि परमेश्वर मुझे दूसरा कोई कर्तव्य न निभाने देकर, वहाँ फँसाए रखने की कोशिश नहीं कर रहा था, बल्कि मैं ही हर चीज को लेकर समस्या खड़ी कर रही थी और उल्टा सोच रही थी, इसलिए जरूरी था कि परमेश्वर मुझे शुद्ध कर बदलने के लिए ऐसी व्यवस्था करता। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर के सच्चे इरादों का भी मैंने सचमुच अनुभव किया। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?