जब मेरी रिपोर्ट कर दी गई
2016 में एक दिन मुझे अचानक एक पत्र मिला जिसमें मेरी रिपोर्ट की गई थी। यह पत्र उन दो बहनों ने लिखा था जिन्हें मैंने हटा दिया था। रिपोर्ट में लिखा था कि मैं कलीसिया में तानाशाही और मनमाने ढंग से अपने कर्तव्य करती थी, मैंने दो झूठे अगुआओं को बढ़ावा दिया, और उनमें से एक जिसका सरनेम झांग है, कुकर्मी है, जिसने अगुआ बनने के बाद कलीसिया के काम में रुकावट डाली और उसे खराब किया और पूरी कलीसिया के काम को लगभग रोक दिया था। उस खत में लिखा था कि अगर मैंने उस समय उनकी सलाह मानी होती या भाई-बहनों से पूछताछ में और समय लिया होता, तो मैं उन दो झूठे अगुआओं को चुनकर कलीसिया के कार्य का नुकसान न करती। इस खत को पढ़कर मैं सन्न रह गई और थोड़ा डर भी गई। सोचा, “ऐसा कैसे हो सकता है? ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है।” मैं उस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाई। पत्र लिखने वाली दोनों बहनों के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं थी, मुझे लगा वे मुझसे बदला ले रही हैं। वे मूलतः कलीसिया की अगुआ रही थीं, उनकी क्षमता खराब थी और वे असल में काम नहीं करती थीं। उन्होंने झूठे अगुआओं का बचाव कर उनकी रक्षा की थी और उन्होंने रिपोर्ट करने वालों की निंदा की थी और उन पर हमला किया था, तो आखिरकार उन्हें बदलना पड़ा। मुझे याद आया कि झांग को पदोन्नत करते समय मैंने उनकी राय मांगी थी। उन्होंने बस इतना कहा था कि झांग अच्छी इंसान नहीं है, वह लोगों से सहयोग नहीं करती। उन्होंने उसके कुकर्मी होने की बात कभी नहीं कही। लेकिन अब जब झांग उजागर हो गई है, तो वे मेरी रिपोर्ट कर रही हैं। क्या वे नाराज नहीं थीं कि मैंने उन्हें हटा दिया था। ऊपर से, उस समय, सीसीपी इतनी गिरफ्तारियां कर रही थी और हालात इतने खराब थे कि हम ठीक से चुनाव भी नहीं करा सके, कुछ समय तक कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल पाया था। झांग में कम से कम दूसरों से बेहतर काबिलियत और समझ तो थी, तो उस स्थिति में, मैं और किसे चुनती? किसी को तो अगुआ चुनना ही था। मैंने उसे पदोन्नत करते समय कई भाई-बहनों से पूछताछ की थी, लेकिन किसी ने नहीं बताया था कि वह कुकर्मी है। कर्तव्यों में हर किसी से गलती होती है। पहली नज़र में किसी के सार को कौन पकड़ सकता है? गलत अगुआओं का चुना जाना एक सामान्य बात है। सही व्यक्ति ही चुना जाएगा इसकी गारंटी कौन दे सकता है? क्या वो दोनों केवल बाल की खाल नहीं निकाल रही थीं? मैं मन में खुद को सही ठहराने की कोशिश करती रही। उस रिपोर्ट पर मुझे सख्त एतराज़ था। लेकिन रिपोर्ट में दर्ज दोनों लोग झूठी अगुआ साबित हो चुकी थीं, और झांग कुकर्मी साबित हुई थी। उन्होंने अगुआओं के तौर पर कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने लोगों के जीवन-प्रवेश का बहुत नुकसान किया था। जब तथ्य मेरे सामने आए तो उनसे बचने का कोई रास्ता नहीं था। मैंने बेमन से स्वीकारा कि मैं लोगों को पहचानने में नाकाम रही थी, कि मैं अहंकारी थी, आत्मतुष्ट थी और बिना विचारे लोगों का इस्तेमाल किया। पर मैंने अपनी समस्याओं को नहीं समझा और आत्म-मंथन नहीं किया, और आखिरकार बात आई-गई हो गई।
मुझे ताज्जुब हुआ कि जब मेरे अगुआ को इसका पता चला, तो उसने भी मुझे उजागर किया कि मैंने कुकर्मी को अगुआ चुना, चेतावनी नहीं सुनी और मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट हूँ। केवल तब जाकर मुझे इसका कुछ अहसास हुआ। क्या मैंने सच में गलती की थी? क्या मैं वाकई बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट थी? लेकिन उस स्थिति में, मैं और क्या कर सकती थी? मुझे अपनी गलती समझ में ही नहीं आई। खोजते हुए मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा किया है या सही चीज को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन सी चीजें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें खोजबीन करना उचित है। ... ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जिसे अच्छा समझते हो उसी को तुम सही मानोगे, और तुम इस पर संदेह नहीं करोगे, इस पर चिंतन-मनन नहीं करोगे, और यह विश्लेषण नहीं करोगे कि क्या इसमें कुछ ऐसा है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगाया, और मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। जब भी मुझे समय मिला, मैंने इस मामले पर विचार किया, और खोजने पर मुझे लगा कि मैं वाकई बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट थी। जबसे मुझे पत्र मिला था, तो मैं खुद को समझाने में लगी थी-उस समय हालात इतने खराब थे कि हम चुनाव नहीं करा सकते थे, कोई उपयुक्त उम्मीदवार भी नहीं था। झांग ही सबसे अच्छी उम्मीदवार थी, और उस संदर्भ में उसे चुनकर मैंने गलती नहीं की थी। कौन कह सकता था कि वह बाद में कुकर्मी निकलेगी। मैंने जानबूझकर कुकर्मी को कलीसिया के कार्य में बाधा डालने के लिए नहीं चुना था। तो मुझे लगा कि मैंने कुछ गलत नहीं किया है, विचार और आत्म-चिंतन की कोशिश नहीं की, बल्कि रिपोर्ट का पत्र लिखने वाली बहनों का विरोध कर इसे बहुत नापसंद किया और जानबूझकर मुझमें गलती ढूँढ़ने के लिए उनके बारे में राय बनाई। अब सोचती हूँ तो लगता है, जब मैंने झांग को चुना था, तो इन दोनों ने वास्तव में उसके अच्छी इंसान न होने की बात कही थी। मुझे भी पता था कि उन्हें चिंता थी कि कुकर्मी को अगुआ चुनने से कलीसिया के काम को नुकसान होगा, लेकिन उस समय वो सही से झांग का सार नहीं देख पाईं थीं, इसलिए उन्होंने उसे सीधे कुकर्मी कहने की हिम्मत नहीं की थी। लेकिन मैं बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट थी, और उन्हें हिकारत से देखती थी। मुझे लगा कि उनके द्वारा अगुआ के बतौर चुने गए अधिकतर लोग कमज़ोर थे-अगर उन्हें लोगों की समझ नहीं थी, तो उनकी सलाह का क्या मतलब था? जब इतने प्रयासों के बाद मुझे कोई काम संभालने वाला मिला है तो वे राजी नहीं हो रही हैं। मुझे लगा था वो जानबूझकर आलोचना कर रही हैं। इसलिए मैंने उनकी एक नहीं सुनी थी। अब शांत मन से आत्म-चिंतन कर जब मैंने सत्य खोजा, तो महसूस हुआ कि मेरे द्वारा अगुआओं के चयन में वाकई समस्याएं थीं। हालांकि नियमित चुनाव का सवाल नहीं था, झांग को चुनने से पहले मुझे उन लोगों से सहमति लेनी चाहिए थी जो अगुआ के चुनाव से पहले सत्य को समझते थे। उस समय, मैंने केवल अपनी साथी बहन के साथ इस पर चर्चा की थी, कुछ अन्य लोगों से पूछा कि झांग के बारे में उन्हें क्या लगता है। उनमें से, रिपोर्ट करने वाली दोनों बहनें मेरी पसंद से सहमत नहीं थीं, फिर भी उनके प्रति पूर्वाग्रह के कारण मैंने आगे पता नहीं लगाया। मैंने व्यक्तिपरक धारणाओं पर भरोसा करके, खुद ही तय कर लिया था कि झांग एक उपयुक्त अगुआ है। इस मामले में, मैंने परमेश्वर के घर में लोगों को अगुआ के पदों पर पदोन्नत करने के सिद्धांतों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया था। मैंने झांग का सामान्य प्रदर्शन समझने और साफ करने के लिए उनसे नहीं पूछा था, जो जानते थे, न ही मैंने सत्य समझने वालों से कोई राय-मशविरा किया। अहम बात यह है कि जब अलग-अलग राय आईं तो मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट बन गई थी, मैंने दूसरों के सुझावों को नकारा, उन्हें अनदेखा किया, और तानाशाही के साथ झांग को अगुआ नियुक्त कर दिया। मैं सचमुच पागलों की तरह पेश आ रही थी। परमेश्वर के घर ने बार-बार जोर दिया है कि अगुआओं को चुनने में सबसे बड़ी पाबंदी कुकर्मियों और कपटियों को अगुवा चुनना है। जब मेरी उन दो बहनों ने कहा कि झांग अच्छी इंसान नहीं है, तो अगर मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता, तो उसे चुनने से पहले मैंने और लोगों से पूछा होता जो अच्छी तरह जानते थे, झांग की मानवता के बारे में स्थिति साफ करती, और तय करती कि वह कुकर्मी तो नहीं है। अगर जांच के बाद भी मैं निश्चित नहीं होती और कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिलता, तो उस पर नजर रखते हुए मैं उसे रख सकती थी, ये पता लगने पर कि वो अच्छी इंसान नहीं है, और सही रास्ते पर नहीं है, तो उसे बर्खास्त कर सकती थी। इससे कलीसिया के कार्य में रुकावट नहीं आती। अगर मुझे परमेश्वर का जरा भी भय होता तो मैंने किसी को यूं ही अगुआ नहीं चुन लिया होता, और सोचती कि सब कुछ ठीक होगा और इस मामले से हाथ झाड़ लेती। अब मैंने पाया कि मुझे लगा था कि जो मैं सही मानती थी उसके मुताबिक मेरी सोच सही थी, जो पूरी तरह मेरे अपने विचारों, मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था। मैं आत्मतुष्ट होकर अपने विचारों पर अड़ी थी, नतीजतन मैंने एक कुकर्मी को सालभर अगुआ बनाए रखा, जिससे कलीसिया का सारा काम लगभग थम गया था। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने अगुआ चुनने में एक छोटी-सी गलती नहीं बल्कि दुष्टता की थी, परमेश्वर का विरोध करने की भयंकर भूल की थी। परमेश्वर के चुने हुए लोग उसका अनुसरण कर सत्य का पालन करें और उद्धार पाएं, इसके लिए उन्हें अच्छा अगुआ चाहिए, लेकिन मैंने अगुआ के चुनाव को बिल्कुल गंभीर मामला नहीं माना। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। न केवल मैं भाई-बहनों के लिए अच्छा अगुआ नहीं चुन पाई थी बल्कि मैंने एक कुकर्मी को एक महत्वपूर्ण जगह पर बैठाकर परमेश्वर के चुने लोगों को नुकसान पहुँचाने दिया। मैंने भाई-बहनों के जीवन की बिल्कुल परवाह नहीं की और न उनका दायित्व लिया। कर्तव्य के प्रति ऐसे दृष्टिकोण के होते हुए मैं अगुआ बनने योग्य कैसे थी? अगुआ के चयन में मैं बेहद उतावली, असावधान और लापरवाह थी, मैं इतनी अहंकारी और आत्मतुष्ट थी कि लोगों की चेतावनी के बावजूद मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। मैं निरंकुश और स्वेच्छाचारी थी, उससे कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बहुत ज़्यादा नुकसान हुआ। उस नुकसान की अब मैं भरपाई नहीं कर सकती थी। मैंने भाई-बहनों के लिए एक दुष्ट अगुआ चुना था और मैंने बहुत बुरा किया था, लेकिन मेरी दो बहनों के मुझे रिपोर्ट करने और उजागर करने पर, मेरे अंदर अपराधबोध या पछतावा नहीं था, बल्कि मैंने उसका विरोध और अपना बचाव किया। मैं बेहद ज़िद्दी और घृणित थी!
इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन शुरू किया : मैं इतनी अहंकारी और निरंकुश क्यों थी कि मैं सलाह नहीं ले सकी, सत्य सिद्धांत नहीं खोज पाई? यह कैसा स्वभाव था? परमेश्वर ने इस मामले को कैसे देखा? एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश मिले : “अहंकारी और दंभी होना इंसान का सबसे प्रत्यक्ष शैतानी स्वभाव है, और अगर लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके पास इसे साफ करने का कोई मार्ग नहीं होगा। सभी लोगों का स्वभाव अहंकारी और दंभी होता है, और वे हमेशा घमंडी होते हैं। वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, वे हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। संभव है तुम जो कहो, वह सचमुच सही और वाजिब हो, या तुम्हारा किया सही और त्रुटिहीन हो, मगर तुमने कैसा स्वभाव प्रदर्शित किया है? क्या यह अहंकारी और दंभी स्वभाव नहीं है? अगर तुम इस अहंकारी और दंभी स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो क्या इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सत्य का तुम्हारा अभ्यास प्रभावित नहीं होगा? अगर तुम अपने अहंकारी और दंभी स्वभाव को ठीक नहीं कर लेते, तो क्या इससे भविष्य में गंभीर रुकावटें पैदा नहीं होंगी? यकीनन रुकावटें आएंगी, यह होकर ही रहेगा। बोलो, क्या परमेश्वर इंसान के इस बर्ताव को देख सकता है? परमेश्वर यह देखने में बहुत समर्थ है! परमेश्वर न सिर्फ लोगों के दिलों की गहराई जाँचता है, वह हर जगह हमेशा उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : ‘तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों का नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।’ तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का उद्गार है। किस स्वभाव का प्रदर्शन? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से ऊब चुके हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुमसे घृणा करेगा, तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : ‘इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है। यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।’ ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है! मैं क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर से घृणा करता है? क्या उन्होंने परमेश्वर को शाप दिया? क्या उन्होंने परमेश्वर के सामने उसका विरोध किया? क्या उन्होंने उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना या निंदा की? ऐसा जरूरी नहीं। तो मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से घृणा करने वाला स्वभाव दर्शाना परमेश्वर से घृणा करना है? यह राई का पहाड़ बनाना नहीं है, यह स्थिति की वास्तविकता है। यह पाखंडी फरीसियों जैसा होना है, जिन्होंने सत्य से अपनी घृणा के कारण प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया—बाद में हुए परिणाम भयावह थे। इसका यह अर्थ है कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव ऐसा है कि वह सत्य से ऊब चुका है और उससे घृणा करता है, तो यह कभी भी कहीं भी उफन कर बाहर आ सकता है, और अगर वे इसी के सहारे जीते हैं तो क्या वे परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो सत्य से या विकल्प चुनने से जुड़ी होती है, तो अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे परमेश्वर का विरोध करेंगे, और उसे धोखा देंगे, क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर और सत्य से घृणा करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने समस्या के सार और मूल को दिखाया, विशेष रूप से इन वचनों ने : “तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का उद्गार है। किस स्वभाव का प्रदर्शन? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से ऊब चुके हो, सत्य से घृणा करते हो।” इस भाग ने मेरे दिल को भेद दिया, और सचमुच गहरा आघात पहुँचाया। मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर के लिए मेरा यह अहंकारी स्वभाव सत्य से घृणा, उसका तिरस्कार और उसे नकारने वाला था। यह एक कुकर्मी और मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर परमेश्वर मुझे सत्य से घृणा और तिरस्कार करने वाला कहता है, तो मैं एक शैतान और राक्षस हूँ जिसे बचाया नहीं जा सकता। मुझे बहुत डर लगा। हालाँकि मुझे पता था कि मेरा स्वभाव अहंकारी और आत्मतुष्टि का है, आसानी से किसी की सलाह नहीं मानती, इस कारण बहुत से अपराध किए हैं, मैंने इसे बस मान लिया। कभी-कभी तो मैं सोचती थी कि अहंकार और आत्मतुष्टि भ्रष्ट लोगों के सामान्य लक्षण हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं, इसलिए मैं इनमें लिप्त रही, और मुझे यह इतनी गंभीर समस्या नहीं लगी जिसे दूर करना ज़रूरी हो। इस वजह से, कर्तव्य निभाते समय अक्सर मेरा अहंकारी स्वभाव और आत्मतुष्टि उजागर हो जाती थी, फिर भी मानने से इनकार कर देती थी। काट-छाँट के समय जरूर मुझे थोड़ी बेचैनी और पछतावा हुआ, और तब जानबूझकर मैं खुद को संयमित करती, मगर न चाहते हुए भी अक्सर यह उजागर हो ही जाता था। मेरे परिचित मुझे अहंकारी और आत्मतुष्ट समझते थे, अगुआ मुझे काम देते समय, अहंकारी और आत्मतुष्ट न होने और दूसरों की राय ज्यादा सुनने की हिदायत अक्सर ही देते रहते थे कि कहीं मेरे अहंकार और आत्मतुष्टता से कलीसिया के कार्य को नुकसान न हो। अब परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मुझे पता चला कि मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट हूँ और सत्य को नकारती थी, तो कलीसिया के कार्य के लिए लोगों की सलाह कितनी भी सही या फायदेमंद क्यों न हो, मैं अपने ही विचारों पर अड़ी रहती थी। अगर कोई सत्य सिद्धांतों पर संगति करता या सुझाव देता, तो मैं उसे नापसंद कर उसका विरोध करती। मैं हर किसी से घृणा करती, और बर्दाश्त नहीं कर पाती थी, जो मुझे उजागर करता था। इससे पता चला कि मुझमें सत्य से घृणा और उसका तिरस्कार करने का मसीह-विरोधी स्वभाव है। शुरुआत में मेरी दोनों बहनों ने मेरे चुने गए अगुआ के बारे में मुझे चेताया था कि वह सही नहीं है, डर के मारे मैंने कुकर्मी को कलीसिया का नुकसान करने की छूट दे दी, और अभी भी मैंने उनकी एक सलाह नहीं सुनी और अपने विचारों पर ही अड़ी रही। अब जबकि दोनों बहनें मेरे पद के कारण बेबस नहीं थीं, उन्होंने मुझे उजागर करने और मेरी समस्याएं रिपोर्ट करने के लिए खत लिख दिया। उन्होंने कलीसिया के काम की रक्षा के लिये ऐसा किया, लेकिन यह मेरे लिए भी एक चेतावनी थी। फिर भी न केवल मैंने इसे मानने से इनकार किया और न आत्ममंथन या खुद जानने की कोशिश की, बल्कि उनका तिरस्कार कर उन्हें ठुकरा दिया, यहां तक कि उनकी आलोचना और निंदा भी की कि वो मेरे खिलाफ कुछ हासिल कर सकते थे। क्या मेरा रवैया सत्य से घृणा और तिरस्कार का नहीं था? फिर मैंने परमेश्वर का वचन पढ़ा : “तुम लोगों के विचार में किस तरह के लोग सत्य से चिढ़ते हैं? क्या वे वो लोग होते हैं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करते हैं? हो सकता है कि वे खुलकर परमेश्वर का विरोध न करें, लेकिन उनका प्रकृति-सार परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले होते हैं, जो परमेश्वर से खुले तौर पर यह कहने के समान है, ‘मुझे तुम्हारी बातें सुनना पसंद नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करता, और चूँकि मैं नहीं मानता कि तुम्हारे वचन सत्य हैं, इसलिए मैं तुम पर विश्वास नहीं करता। मैं उस पर विश्वास करता हूँ, जो मेरे लिए फायदेमंद और लाभकारी है।’ क्या यह अविश्वासियों का रवैया है? यदि सत्य के प्रति तुम्हारा यह रवैया है, तो क्या तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता नहीं रखते? और यदि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? नहीं बचाएगा। परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले सभी लोगों के प्रति परमेश्वर के कोप का यही कारण है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर कहता है कि सत्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण है, तो क्या सत्य से घृणा और बैर करके मैं परमेश्वर के प्रति घृणा नहीं दिखा रही थी और उसे अपना शत्रु नहीं मान रही थी? यह एक शैतानी स्वभाव की बारंबार अभिव्यक्ति थी! सत्य से घृणा करने वाले कुकर्मी, राक्षस और शैतान हैं! अगर मेरे भाई-बहनों की सलाह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से आ रही थी, सत्य के अनुसार थी और उससे कलीसिया के कार्य को लाभ हो रहा था, तो भी मैं इतनी अहंकारी और आत्मतुष्ट थी कि मैंने उसे खोजा, स्वीकारा या समर्पण नहीं किया, तो मैं पवित्र आत्मा के प्रबोधन के विरुद्ध जा रही थी और परमेश्वर का विरोध कर रही थी। जैसे ही मुझे यह समझ आया, मैं और भी डर गई क्योंकि मुझे पता था कि मेरी समस्या बेहद गंभीर थी। जैसा मैंने सोचा था, यह कुछ हद तक अहंकारी और आत्मतुष्ट होने और दूसरों की सलाह न मानने जितना सरल नहीं था। समस्या पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर के प्रति मेरे दृष्टिकोण के साथ-साथ परमेश्वर के प्रति मेरे प्रतिरोध की थी।
बाद में, मेरे अगुआ ने इस मामले में मेरी चीरफाड़ की और कहा, “जब तुमने कुकर्मी को पदोन्नत किया, तो दूसरों ने तुम्हें चेताया था कि इस व्यक्ति की गंभीर समस्याएं हैं, फिर भी तुमने नहीं सुनी, और केवल अपने ही विचारों पर भरोसा किया। अगर तुम्हारे विचारों का आधार परमेश्वर के वचन हैं, तो तुम खुद पर भरोसा कर सकती हो। अगर ऐसा नहीं है, और आधार तुम्हारी बेतुकी धारणाएं हैं, तो खुद पर भरोसा करना तुम्हारी मानवता के साथ समस्या है। तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर रही थी, और तुममें निष्पक्षता की समझ की कमी है। तुम तर्कहीन और गलत थी।” अगुआ की संगति के बाद विश्लेषण वाकई मेरे दिल को बेध गया। यह सच था, मेरा स्वभाव अहंकारी और आत्मतुष्ट ही नहीं था, बल्कि मेरी मानवता में भी समस्या थी, और मैं लोगों से उचित व्यवहार नहीं पाई थी। किसी को चुनने और उसके उपयोग को तय करने के बाद, मैं उनके बारे में किसी की आलोचना नहीं मानती थी, खासकर तब जब सुझाव देने वाले वो होते थे जिनको मैं हिकारत से देखती थी और जिन्हें मैंने बर्खास्त कर दिया था। मैं उनसे कुछ नहीं लेना चाहती थी और अहंकारवश मैंने उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया। लगा कि ढंग से कर्तव्य न करने पर बर्खास्त हो चुके लोग मुझे कौन-सी अच्छी सलाह दे सकेंगे। मन में मैं उन दोनों बहनों को पूरी तरह से नकार चुकी थी। मैं लोगों से अपनी भावनाओं के अनुसार ही पेश आती और उन्हें चुनती थी। उनसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार सही व्यवहार नहीं करती थी। इससे पता चलता है कि मेरी मानवता, चरित्र और स्वभाव, सभी में समस्याएं थीं। जितना मैं विचार करती, उतना ही मुझे अपनी समस्या गंभीर लगती। अपने अहंकार और आत्मतुष्टता के कारण, मैं कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्य पर बहनों की सलाह नहीं मानती थी, जिसकी वजह से कलीसिया के काम को भारी नुकसान पहुंचता था। परमेश्वर में मेरे विश्वास के क्रम में ये एक और कुकर्म था। मैं सच में दोषी और बेचैन महसूस कर रही थी और सोचने लगी कि मैं अनजाने में कुकर्म और परमेश्वर का विरोध क्यों करती रही? मूल कारण क्या था? इसका उत्तर मुझे परमेश्वर के वचनों में मिला, परमेश्वर कहता है : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। यह सही था। मेरा स्वभाव बहुत ही अहंकारी और बहुत ही ज्यादा बेतुका था। मुझे हमेशा लगता था कि मैं सही थी, मानो मेरे विचार और राय सही हैं, और मैं दूसरों को सवाल नहीं करने देती थी, अलग सुझाव देना तो दूर की बात है। जैसे, अगुआ चुनने के मामले में, परमेश्वर के घर के साफ निर्देश हैं कि दुष्ट और धोखेबाज लोगों को नहीं चुना जा सकता। यह निषिद्ध है और एक बहुत ही गंभीर मसला है। जब मेरी दोनों बहनों ने मुझे झांग की खराब मानवता के बारे में बताया, तो मैंने इस बारे में कुछ लोगों से लापरवाही से पूछा, और अपनी निजी धारणाओं को ऊपर रखते हुए, मैंने उनकी सलाह सिरे से ठुकरा दी। सत्य की समझ रखने वाले भाई-बहनों से पूछताछ नहीं की, न ही मैंने खराब मानवता वाले या कुकर्मी के सार वाले व्यक्ति के बीच का अंतर स्पष्ट किया, न ही मैंने यह पता लगाया कि झांग लोगों से सहयोग क्यों नहीं कर पाती, यह समस्या भ्रष्ट स्वाभाव की थी या दुष्ट मानवता की। अगर यह मात्र किसी भ्रष्ट स्वभाव का मामला था और वो सत्य स्वीकार सकती थी, तो वो बदल भी सकती थी, फिर उसे बुरा नहीं कहा जाता। अगर वह द्वेषपूर्ण मानवता की थी और सत्य से घृणा करने वाली थी, तो फिर वह कुकर्मी थी। फिर उसके कुकर्मों के लिए कैसे भी उसकी काट-छाँट की जाए, वह उसे नहीं स्वीकारती, न ही वह कभी ईमानदारी से प्रायश्चित करती। अगर मैंने उस समय सत्य खोजा होता, और कुकर्मियों के सार और लक्षणों के अनुसार झांग के व्यवहार को आँका होता, तो मैं उसे पहचान जाती, उसका चयन करने पर न अड़ी होती, कलीसिया के कार्य को इतने बड़े नुकसान से बचा लेती। इन नतीजों का जिम्मेदार मेरा अहंकारी होना और सत्य की खोज न करना था। यदि मुझे परमेश्वर का थोड़ा-सा भी भय और, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता होती, तो ऐसी भूल और दुष्टता न करती। लेकिन मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट थी, और अगुआ के चुनाव के इस गंभीर मामले में मैंने न तो सत्य की तलाश की थी, न ही मैंने अपनी बहनों के सुझावों को सुना था। मैंने एक बुरे व्यक्ति को अगुआ के रूप में चुन लिया था, और कलीसिया के पूरे काम को कमजोर कर दिया था। बहुत से भाई-बहनों ने कष्ट उठाए, उनके जीवन को नुकसान पहुंचा, और मैंने ऐसा अपराध किया जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। मैं बहुत कठोर और ज़िद्दी थी! स्वयं से घृणा कर मैंने खुद को धिक्कारा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रायश्चित की इच्छा जताई।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़कर अभ्यास का मार्ग पाया। परमेश्वर कहता है : “अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, ‘क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? वह इसका तिरस्कार करेगा या इससे घृणा करेगा?’ तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों के विद्रोहीपन से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले कुछ लोगों के साथ सहभागिता करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाले लोग न मिल पाएँ, तो तुम्हें शुद्ध समझ वाले कुछ लोगों को ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का और भी सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करते रखते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी खड़ी करता है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर को नाराज करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे...। अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो, और सत्य खोजने के लिए खुद से और प्रश्न पूछते हैं, तो तुम्हारे कार्यों में विचलन कम होते जाएँगे। इस तरह से सत्य खोज सकने वाले लोग ही परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहकर उसका भय मानते हैं, क्योंकि ऐसे में तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और आज्ञाकारी हृदय से खोजते हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास के सिद्धांत दिए : मैं चाहे जो करूँ, मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए, और सत्य और सिद्धांत खोजकर उनके अनुसार कार्य करना चाहिए। खासकर कलीसिया के कार्य और हितों से जुड़े मामलों में, मैं आँखें मूँदकर अपने विचार से काम नहीं कर सकती। वरना अगर मैंने कलीसिया को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया या उसके कार्य में बाधा डाली, तो यह परमेश्वर के विरुद्ध बुरा कर्म और पाप होगा। साथ ही, मैं कर्तव्य पालन करते हुए अकेले चीजें तय नहीं कर सकती, न ही मैं अपने तरीके से काम करते हुए निरंकुश हो सकती हूँ। मुझे अपने सहयोगी भाई-बहनों से चर्चा करनी चाहिए, सत्य समझने वाले भाई-बहनों के साथ खोजना चाहिए और संगति करनी चाहिए, और खुद से अलग दूसरों की राय भी सुननी चाहिए। किसी की हैसियत कुछ भी हो, उसमें हुनर या प्रतिभा हो या न हो, मुझे विनम्रता से उनकी सलाह सुननी चाहिए। जिन मामलों की मुझे समझ न हो, उनमें मुझे तुरंत अपने अगुआओं का मार्गदर्शन लेना चाहिए, सिद्धांतों को स्पष्ट करना चाहिए, सीखना चाहिए कि सत्य के अनुसार और परमेश्वर को ठेस पहुँचाए बिना काम कैसे करें। मुझे खुद को नकारना सीखना चाहिए। मैं किसी चीज़ को जितना सही मानती हूँ, उतना ही मुझे उससे कम चिपकना चाहिए और खोजना चाहिए कि वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। यह अहंकार और आत्मतुष्टता की समस्या हल कर सकता है, और मुझे बुराई करने और परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने से बचा सकता है। पहले मैं खुद को नहीं जानती थी, खुद के बारे में जागरूक नहीं थी और मैं खुद पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करती थी। इस कष्टमय असफलता के बाद ही मैंने देखा कि जब मुझे खुद पर यकीन था, नहीं लगता था कि मैं गलत हो सकती हूँ, जब खुद को सही मानने का आधार भी मजबूत था, तो तथ्य बताते हैं कि मैं गलत होने के साथ-साथ, हद से ज्यादा, मूर्खतापूर्ण और घृणास्पद तरीके से गलत थी, जिसके परिणाम विनाशकारी थे। अतीत में, मैंने अपने अहंकार के कारण बहुत से अपराध किए हैं। उस समय असल में मुझे लगता था कि मैं सही हूँ, कभी-कभी मैंने परमेश्वर के वचनों को भी आधार बनाया था। हालाँकि बाद में तथ्यों से साबित हो गया कि मैं गलत थी, क्योंकि मैंने परमेश्वर के वचनों को ठीक से नहीं समझा था और न ही सिद्धांतों को जाना था। इसके बजाय विवेकहीनता से परमेश्वर के वचन इस्तेमाल किए थे और आंख बंद कर नियम लगाए थे। जब मुझे इसका एहसास हुआ तो मैंने माना कि मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं है, मैं लोगों या मामलों को ठीक से देख नहीं पाती थी, और मेरे कुछ विचार बेतुके और हास्यास्पद थे। इसके अलावा, मुझमें क्षमता की कमी थी, मैं भोली थी, और चीजों और सत्य को अच्छे से समझती नहीं थी। थोड़े-बहुत सिद्धांत जानकर नियमों का सख्ती से पालन करती थी। उस समय, मुझे विश्वास हो गया कि मैं अयोग्य थी, मैं बेकार और दयनीय थी, और अब मैं अपने विचारों पर अड़ना नहीं चाहती थी।
उसके बाद, अब जब लोग अलग-अलग सुझाव देते हैं, और मैं अपनी बात पर अड़ना चाहती हूँ, तो इन दर्दनाक सबकों को याद करती हूँ। मुझे याद आता है कि बहुत-से ऐसे विचार जिन्हें मैं पूरी तरह सही मानती थी, वे सत्य से तुलना करने पर हर तरह से गलत थे, और परमेश्वर भी उनकी निंदा करता था। अब मैं अपने विचारों पर नहीं अड़ती, और तुरंत दूसरों के विचार और सलाह मांगती हूँ। कभी-कभी चर्चा के दौरान, अनजाने में मैं लोगों के सुझाव नकार देती हूँ, लेकिन इसका एहसास होते ही मैं तुरंत पूछती हूँ कि अधिकांश लोगों के क्या विचार हैं, ऐसा न हो कि मैं सही सलाह का पालन न करूं, और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुंचाऊँ। जिन मामलों में मुझे लगता है कि मैं सही हूँ, वहाँ भी अब मैं खुद निर्णय लेने का साहस नहीं करती, और मैं अपने साथी भाई-बहनों से सलाह मांग सकती हूँ या अपने अगुआ का मार्गदर्शन लेती हूँ। ऐसा करके मुझे सुकून मिलता है, और इस तरह तानाशाही से कार्य करने के कारण कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुंचाने से भी बच जाती हूँ। हालाँकि आज भी मेरा अहंकारी और आत्मतुष्ट स्वभाव उजागर होता है, लेकिन फिर भी पहले से बहुत बेहतर हो चुका है।
मैं एक बेहद अहंकारी और आत्मतुष्ट व्यक्ति हूँ। जब मैं सोचती हूँ कि मैं सही हूँ, तो मैं खुद को नहीं नकार पाती या दूसरों के सुझावों को नहीं सुन पाती। अगर यह परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता, और मेरे भाई-बहनों ने रिपोर्ट से उजागर न किया होता, और बार-बार परमेश्वर उजागर कर मेरी काट-छाँट न करता, तो मैं खुद को कभी न जान पाती, और खुद को नहीं नकार पाती। अगर अब मुझमें थोड़ा-बहुत बदलाव आया है, यह तथ्य कि मुझमें कुछ विवेक और इंसान जैसी अनुरूपता है, तो वह शुद्ध रूप से परमेश्वर के श्रमसाध्य कार्य की वजह से ही है और उसके वचनों की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन का ही फल है। मुझे बचाने के लिए मैं तहेदिल से परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?