एक मूल्यांकन जिसने मुझे उजागर किया
मई 2021 के बीच के दिनों की बात है, एक कलीसिया अगुआ अचानक मुझसे बात करने आई और पूछने लगी कि क्या मैं बहन लीला के बारे में थोड़ा-बहुत जानती हूँ, क्या वह दूसरों के प्रति निष्पक्ष व्यवहार करती है और क्या कभी उसका आलोचनात्मक रवैया तो नहीं रहा है। वह इतनी सख्त नजर आ रही थी कि मैंने तुरंत पूछ लिया कि मामला क्या है। उसने बताया कि लीला का स्वभाव बहुत ही अहंकारी है और वह भाई-बहनों के साथ कुछ अगुआओं के बारे में आलोचनात्मक बातें कर कह चुकी है कि वे झूठे अगुआ हैं। उसने यह भी बताया कि लीला चिकनी-चुपड़ी बातें करती है और सभाओं में अपना आत्म-ज्ञान बघारती रहती है, जबकि वास्तव में वह खुद को बिल्कुल भी नहीं समझती है। उसने कहा कि अधिकतर भाई-बहन लीला की असलियत नहीं जान पाते और उसकी संगति को पसंद करते हैं। तभी मुझे याद आया कि किस प्रकार कलीसिया से निकाले जा चुके कुछ मसीह-विरोधियों ने ऐसी ही बातें की थीं और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आलोचना की थी। किसी इक्का-दुक्का अगुआ को झूठा बताना अलग बात है, लेकिन यह कहना कि उनमें से कई अगुआ झूठे हैं, यह तो अहंकार है। उस समय मैंने कहा, “उसका ऐसी बातें कहना गंभीर मसला है। वह जो आलोचनाएँ करती है, क्या वे उन मसीह-विरोधियों द्वारा की गई आलोचनाओं जैसी ही नहीं है?” मुझे पिछले साल की यह बात भी याद आई कि किस तरह अगुआओं के चुनावों के दौरान लीला एक उम्मीदवार के बारे में दूसरी बहन के साथ गुपचुप चर्चा कर कह रही थी कि यह उम्मीदवार अपनी छवि और रुतबे के बारे में बहुत ज्यादा परवाह करता है, केवल दिखावे के लिए काम करता है और कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है। मैं लीला के प्रति पूर्वाग्रह से भरने लगी और सोचने लगी कि वह वास्तव में आलोचनात्मक रवैये वाली है।
तब अगुआ ने मुझसे आग्रह किया कि मैं लीला का एक मूल्यांकन लिखकर दे दूँ। मैंने उसके साथ हाल-फिलहाल की अपनी उन मेल-मुलाकातों के बारे में सोचा, जब कुछ भाई-बहनों ने कुछ बातों पर उसकी आलोचना की। हालाँकि शुरुआत में उसने रक्षात्मक मुद्रा अपनाई लेकिन बाद में उसने आत्म-चिंतन कर खुद को जाना, खुद को कुछ बदला और प्रवेश किया और वह सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो गई। उसके साथ बातचीत में मैं देख पा रही थी कि वह आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान की परवाह करती है और यह देखा भी कि वह प्रार्थना करती है, सत्य सिद्धांत खोजती है और प्रवेश करने के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ती है। मुझे लगा कि वह सत्य की साधक है। लेकिन यह सोचकर कि कैसे अगुआ ने बताया कि लीला का अहंकारी स्वभाव है, वह चिकनी-चुपड़ी बातें करती है, लोगों को गुमराह करने में माहिर है और अब अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बिना सोचे-विचारे आलोचना कर रही है, ऐसे में अगर मैं अपने मूल्यांकन में यह लिखती हूँ कि लीला सत्य को स्वीकारने और इसका अनुसरण करने में सक्षम इंसान है तो क्या अगुआ यह नहीं सोचेगी कि मुझमें विवेकशीलता नहीं है और मैं मूर्ख हूँ? अगर मैंने अगुआ के मन पर अपनी खराब छाप छोड़ दी तो शायद वह भविष्य में मुझे कुछ कर्तव्य न निभाने दे। यह बात ध्यान में रखकर मैंने अपने मूल्यांकन में लिखा कि लीला अहंकारी स्वभाव की है और कभी-कभी अपनी कल्पनाओं के अनुसार लोगों की आलोचना करती है। मैंने लिखा कि सत्य को स्वीकारने में उसे पसीने छूटते हैं और जब लोग उसकी समस्याओं को लेकर उसे घेरते हैं तो वह अपने पक्ष में बहाने पेश करती है। मैंने उसकी कुछ ऐसी भ्रष्टताओं का उल्लेख भी किया जो उसने कभी-कभार अपने दैनिक जीवन में प्रकट की थीं। हालाँकि मैंने सत्य का अनुसरण करने के उसने कुछ तरीकों के बारे में भी लिखा, लेकिन मैंने यह टिप्पणी भी जोड़ दी कि मैं इस बारे में निश्चित नहीं हूँ कि वह वास्तव में सत्य खोजने वाली इंसान है। मूल्यांकन लिखकर मुझे थोड़ी-सी बेचैनी हुई; लीला के बारे में अगुआ ने जैसा बयान किया था मुझे तो वैसा कभी नहीं लगा था। भले ही उसका अहंकारी स्वभाव था और कभी-कभी वह रूखे और रास न आने वाले ढंग से बात करती थी, फिर भी वह दिल की बुरी नहीं थी। जब भी समस्याएँ आती थीं तो वह कलीसिया के हितों को ऊपर रखती थी और वह इतनी साहसी थी कि दूसरों को सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते देख आवाज उठा सके। उदाहरण के लिए, एक बार जब लीला ने देखा कि एक बहन हमेशा अपने कर्तव्य में कोताही बरतती है और इससे कार्य में देरी हो रही है तो वह इतनी सक्षम थी कि उसने आपसी रिश्ते को ताक पर रखा और अविलंब उस बहन की कमी बताकर उसकी मदद की, साथ ही अगुआ को भी इस बारे में बता दिया। अगर कोई लीला के समग्र व्यवहार पर नजर डाले तो तो वह कलीसिया के हितों की रक्षा करने में सक्षम थी और एक सही इंसान थी, लेकिन अगुआ ने तो इसके उलट बात की थी। मुझे लगा कहीं अगुआ पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो नहीं है और वह जो मूल्यांकन जुटा रही थी उसके आधार पर कहीं लीला को कलीसिया से बरखास्त या बाहर तो नहीं कर दिया जाएगा। इस बारे में मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही बेचैनी बढ़ती गई, इसलिए मैंने अगुआ से पूछ लिया कि क्या वह लीला के साथ उसकी समस्याओं पर संगति कर चुकी है और उसने इन्हें कैसे समझा है। लेकिन अगुआ ने इस सवाल से बचते हुए कहा कि लीला अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आलोचना करने की आदत से ग्रस्त रही है और वह अब फिर से यही सब कर रही है। उसने बताया कि लीला के आरोपों के कारण एक अगुआ इस्तीफा देने की सोच रही है, इसलिए वह पहले ही एक विघ्न बन चुकी है। यह सुनकर मैंने अंदाजा लगाया कि अगुआ को समस्याओं की समझ शायद मुझसे बेहतर होगी और मुझमें विवेकशीलता नहीं होगी और मैं लीला के ऊपरी व्यवहार से प्रभावित हो गई हूँगी। इसलिए मैंने और कुछ नहीं कहा।
कुछ दिनों बाद एक उच्च अगुआ ने स्थिति के बारे में विचार कर कहा कि लीला कोई मनमाने ढंग से अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आलोचना नहीं कर रही है, बल्कि न्याय की भावना के साथ झूठे अगुआओं को उजागर कर उनकी रिपोर्ट भेज रही है। लीला ने उस अगुआ की रिपोर्ट भेजी थी, इसलिए वह लीला को यह कहकर सता रही थी और दंडित कर रही थी कि वह मनमाने ढंग से अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आलोचना करती है—यहाँ तक कि उसने एकतरफा फैसला कर लीला को कर्तव्य निभाने से भी रोक दिया! लीला ने जिन झूठे अगुआओं की रिपोर्ट भेजी थी वे सब बरखास्त कर दिए गए थे और उसे उसका कर्तव्य दुबारा सौंप दिया गया था। यह सुनकर मेरे दिल की धड़कन थम सी गई—मैं चौंक पड़ी और असहज-सी भी हो गई। मैंने यह कहकर अगुआ का साथ दिया था कि लीला का अहंकारी स्वभाव है, वह मनमाने ढंग से अगुआओं की आलोचना करती है और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है। क्या मैं भी लीला की निंदा नहीं कर रही थी? यह एक गंभीर समस्या थी! मुझे लगा कि यह कोई छोटी बात नहीं है और मुझे वास्तव में आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, खुद को समझने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर में विश्वास करने और जीवन में सही मार्ग पर चलने के लिए तुम्हें, कम से कम, गरिमा और इंसान के सदृश जीना चाहिए, तुम्हें लोगों के भरोसे के योग्य होना चाहिए और मूल्यवान माना जाना चाहिए, लोगों को लगना चाहिए कि तुम्हारे चरित्र और निष्ठा में दम है, कि तुम जो कुछ भी कहते हो उसे पूरा करते हो और अपने वचन पर कायम रहते हो। ... समस्त गरिमामय लोगों में कुछ न कुछ व्यक्तित्व होता है, वे कभी-कभी दूसरों के साथ निभा नहीं पाते, लेकिन वे ईमानदार होते हैं और उनमें कोई झूठ या चालाकी नहीं होती। दूसरे लोग अंततः उनका बहुत आदर करते हैं, क्योंकि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, वे ईमानदार होते हैं, उनमें गरिमा, निष्ठा और चरित्र होता है, वे कभी दूसरों का फायदा नहीं उठाते, जब लोग मुसीबत में होते हैं तो वे उनकी मदद करते हैं, वे लोगों से जमीर और सूझ-बूझ के साथ व्यवहार करते हैं, और उनके बारे में कभी तुरंत निर्णय नहीं लेते। दूसरे लोगों का मूल्यांकन या उनकी चर्चा करते समय ये व्यक्ति जो कुछ भी कहते हैं वह सटीक होता है, वे वही कहते हैं जो वे जानते हैं और जो वे नहीं जानते उसके बारे में अपना मुँह नहीं खोलते, वे नमक-मिर्च नहीं लगाते, और उनके शब्द साक्ष्य या संदर्भ का काम दे सकते हैं। निष्ठावान व्यक्ति जब बोलते और कार्य करते हैं, तो अपेक्षाकृत व्यावहारिक और भरोसेमंद होते हैं। निष्ठाहीन लोगों को कोई मूल्यवान नहीं मानता, उनकी कथनी और करनी पर कोई ध्यान नहीं देता, या उनके शब्दों और कार्यों को महत्वपूर्ण नहीं मानता, और कोई उन पर भरोसा नहीं करता। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बहुत ज्यादा झूठ बोलते हैं और ईमानदारी भरे शब्द बहुत कम बोलते हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे लोगों के साथ बातचीत करते हैं या उनके लिए कुछ करते हैं तो उनमें ईमानदारी नहीं होती, वे सभी को धोखा देने और मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं, और कोई उन्हें पसंद नहीं करता। क्या तुम लोगों को कोई ऐसा व्यक्ति मिला है, जो तुम लोगों की नजर में भरोसेमंद हो? क्या तुम लोग खुद को दूसरे लोगों के भरोसे के काबिल समझते हो? क्या दूसरे लोग तुम पर भरोसा कर सकते हैं? अगर कोई तुमसे किसी दूसरे व्यक्ति की स्थिति के बारे में पूछे, तो तुम्हें उस व्यक्ति का मूल्यांकन और आकलन अपनी इच्छा के अनुसार नहीं करना चाहिए, तुम्हारे शब्द वस्तुनिष्ठ, सटीक और तथ्यों के अनुरूप होने चाहिए। तुम्हें उसी के बारे में बात करनी चाहिए जो तुम समझते हो, और उन चीजों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए जिनके बारे में पूरी जानकारी न हो। तुम्हें उस व्यक्ति के प्रति न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए। यही कार्य करने का जिम्मेदारी भरा तरीका है। अगर तुमने सिर्फ सतही स्तर की घटना देखी है, और तुम जो कहना चाहते हो वह उस व्यक्ति के बारे में सिर्फ तुम्हारी अपनी राय है, तो तुम्हें उस व्यक्ति पर आँख मूँदकर निर्णय नहीं सुनाना चाहिए, और तुम्हें निश्चित रूप से उस पर राय नहीं देनी चाहिए। तुम्हें अपनी बात इस तरह शुरू करनी चाहिए, ‘यह सिर्फ मेरी अपनी राय है,’ या ‘मैं बस ऐसा महसूस करता हूँ।’ इस तरह तुम्हारे शब्द अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ होंगे, और तुम्हारी बात सुनकर दूसरा व्यक्ति तुम्हारे शब्दों की ईमानदारी और तुम्हारा निष्पक्ष रवैया समझ पाएगा, और वह तुम पर भरोसा करने में सक्षम होगा। क्या तुम लोग आश्वस्त हो कि तुम इसे कर सकते हो?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह एहसास हुआ कि सच्चे और ईमानदार लोग दूसरों का आकलन सही और तथ्यपरक ढंग से करते हैं और मूर्खतापूर्ण ढंग से अपनी बात नहीं कहते हैं। वे बस उतना ही कहते हैं जितना जानते हैं, उससे ज्यादा नहीं। उन पर भरोसा किया जा सकता है। लेकिन जो सच्चे नहीं हैं उनके आकलन में व्यक्तिगत मंशाएँ छिपी होती हैं, वे जो मन में आता है वह कह देते हैं, यहाँ तक कि वे अपने निजी उद्देश्य पूरे करने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं या चीजों को उलट-पुलट देते हैं। इस तरह का इंसान झूठ बहुत ज्यादा बोलता है, सच बहुत कम बोलता है और उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसे लोगों में आत्म-सम्मान और सत्यनिष्ठा की कमी होती है। मैंने लीला के बारे में अपने आकलन पर पुनर्विचार किया। जब मैंने अगुआ के मुँह से उसे अहंकार, आत्मतुष्ट और आलोचक बताते हुए निंदा सुनी तो मैंने यह जानने की कोई कोशिश नहीं की कि क्या यह तथ्यपरक है या नहीं और यह जाँच भी नहीं की कि लीला ने जिन अगुआओं की रिपोर्ट की है कहीं वे झूठे अगुआ तो नहीं हैं। उसकी निंदा करने में मैंने बस आँख मूँदकर अगुआ का साथ दे दिया। भले ही मुझे यह एहसास था कि लीला के बारे में अगुआ की राय मेरे अपने अनुभव से मेल नहीं खाती और इससे मुझे उलझन भी हुई, लेकिन मुझे यह डर लगा कि वह मुझे अविवेकी मूर्ख बता देगी और इससे मेरी खराब छाप पड़ेगी और शायद मुझे महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने को नहीं मिलेगा। इसी कारण मैंने लीला का नकारात्मक मूल्यांकन किया। मैं तथ्यों के विरुद्ध जाकर उसे दोषी ठहरा रही थी और उसका उत्पीड़न कर रही थी; मैं अपना द्वेषपूर्ण स्वभाव प्रकट कर रही थी। यह लीला की ईमानदारी ही थी कि वह रुतबे और सत्ता से बेबस हुए बिना झूठे अगुआओं के बारे में बताकर उन्हें उजागर कर रही थी। मैं उसका समर्थन करने में ही विफल नहीं रही, बल्कि उसकी निंदा करने में मैंने एक झूठी अगुआ का साथ भी दिया और उसे पीड़ा देने के सिवाय कुछ नहीं किया। इसे बुराई करना कहते हैं और मैं शैतान की मददगार की भूमिका निभा रही थी। यह एहसास होने पर मेरा मन पछतावे और आत्म-ग्लानि से भर गया। मैं लीला की बहुत ऋणी थी और उसका सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझमें मानवता नहीं है। मैंने एक झूठी अगुआ का अनुसरण कर लीला को सताया और उसकी निंदा की। मैंने तुम्हारे सामने एक अपराध किया है। परमेश्वर मैं गलत थी और प्रायश्चित करना चाहती हूँ।”
मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े जिनसे मुझे खुद को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े व्यावहारिक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक बात कहने तक में सक्षम नहीं होते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते रहते हैं। जब तुम किसी वास्तविक स्थिति के बारे में पूछते हो तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि अपने शब्दों को तुम्हारे विचारों के अनुरूप ढाल सकें। वे जो कुछ भी कहते हैं वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, चापलूसी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुँह से एक भी ईमानदार शब्द नहीं निकलता” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो))। “मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह मिलावटी होता है और उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल रहते हैं, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी घृणित और अकथनीय चालें और षड्यंत्र। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और कार्य अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे बेईमान होते हैं और उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे भाषा का उपयोग करके बदल देते हैं, जिससे वे जो कुछ कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर सच बाहर आ जाता है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं। ... जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग आचरण करते हैं और दुनिया से बरताव करते हैं, वह लोगों को झूठ बोलकर बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं, और वे भरोसे के लायक नहीं होते। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह गुमराह या परेशान हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचन यह खुलासा करते हैं कि मसीह-विरोधी अपने शब्दों और कार्यकलापों में हमेशा चालबाजियाँ चलते हैं; वे घुमा-फिराकर बोलकर दूसरों को धोखा देते हैं और उनमें कोई विश्वसनीयता नहीं होती है। मसीह के संपर्क में रहते हुए भी वे उसके वचनों में सुराग ढूँढ़ते रहते हैं और हवा का रुख भाँपकर चाटुकार बने रहते हैं। उनमें कुछ भी ईमानदार नहीं होता है। वे वाकई धूर्त, कपटी और बुरे होते हैं। मैं मसीह के सीधे संपर्क में कभी नहीं रही, बल्कि मैंने संकेतों पर ध्यान दिया, लोगों की राय भाँपी और यह अंदाजा लगाया कि दूसरे क्या चाहते हैं। मैं एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रदर्शित कर रही थी। कुछ महीनों पहले अगुआ ने मुझसे लीला के बारे में मूल्यांकन माँगा था। उस समय मैंने उसके बारे में अगुआ की नकारात्मक राय नहीं सुनी थी; मुझे लगा कि वह शायद लीला को पदोन्नति देना चाहती है। इसलिए मैंने कहा कि समस्याएँ सामने आने पर लीला सत्य की खोज और इसका अनुसरण कर सकती है, कि उसमें न्याय की भावना है और वह कलीसिया के हितों को सुरक्षित रख सकती है। मैंने वास्तव में सिर्फ उसकी खूबियों के बारे में लिखा, उसकी कमजोरियों का शायद ही कोई उल्लेख किया। अबकी बार जब मैंने अगुआ के मुँह से यह सुना कि लीला सही इंसान नहीं है और वह दूसरों से लीला का मूल्यांकन माँग रही है तो मुझे मालूम था कि लीला के बारे में मेरा अनुभव अगुआ से भिन्न है। लेकिन यह सोचकर कि अगुआ कहेगी कि मेरे पास विवेकशीलता है, मैंने उसका साथ दिया और यह कह बैठी कि लीला का अहंकारी स्वभाव है, उसका आलोचनात्मक रवैया है और जब चीजें घटित होती हैं तो उसे सत्य स्वीकारने में संघर्ष करना पड़ता है। दोनों ही मौकों पर मैं एक ही व्यक्ति का मूल्यांकन कर रही थी, लेकिन मैंने नितांत अलग-अलग बातें कीं। मैं दूर-दूर तक निष्पक्ष या तथ्यपरक नहीं थी। मैंने प्रभु यीशु के वचनों के बारे में सोचा : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो” (मत्ती 5:37)। लेकिन लीला के बारे में लिखते हुए मैंने अगुआ पर अच्छा प्रभाव जमाना चाहा, इसलिए मैंने यह अंदाजा लगाने की कोशिश की कि वह क्या सुनना चाहती है। अपनी राय जताने से पहले मुझे मन-ही-मन कई बार सोचना पड़ा और मैंने अपने विचारों को जटिल बना दिया। मैंने जो कुछ भी कहा और किया उसमें व्यक्तिगत मंशाओं की मिलावट थी; इसका एक भी शब्द ईमानदार या सच्चा नहीं था। मैं बहुत ही ज्यादा कपटी और बुरा व्यवहार कर रही थी। मैं अपनी कथनी-करनी में सिद्धांतहीन थी और परमेश्वर या दूसरे लोगों के भरोसे के लायक नहीं थी। मैं अपना मान-सम्मान और सत्यनिष्ठा पूरी तरह गँवा चुकी थी। मुझे खुद से अधिकाधिक घृणा हुई। पहले जब मैं झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को अपने नाम और रुतबे की रक्षा करने के लिए दूसरों का उत्पीड़न और उनकी निंदा करते देखती थी तो मैं क्रोधित हो जाती थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इसी तरह की बुराई कर बैठूँगी। महज अपने लक्ष्य साधने और अपने हितों की रक्षा करने के लिए मैंने तथ्यों को तोड़-मरोड़ दिया। जो इंसान न्याय की भावना रखती थी और कलीसिया के हितों की रक्षा करती थी, उसे आलोचनात्मक रवैये वाली बताकर मैंने गलत ढंग से पेश किया। एक नेक इंसान पर झूठे आरोप लगाकर मैं उसके साथ अन्याय कर रही थी। मैं एक झूठी अगुआ के पक्ष में खड़े होकर लीला की निंदा और दमन कर रही थी।
एक बार एक सभा के दौरान एक बहन ने कहा कि उसने यह सुना है कि अगुआ लीला के बारे में मूल्यांकन जुटा रही है, लेकिन लीला बिल्कुल भी वैसी नहीं है जैसा अगुआ उसे चित्रित कर रही है। इस बहन ने अगुआ की बातें आँख मूँदकर नहीं मानीं; इसके बजाय उसने यह अंतर पहचाना कि अगुआ की कथनी और करनी में क्या उचित-अनुचित है। उसने उच्च अगुआओं को भी इस बारे में बता दिया और लीला के प्रति उस तरह के व्यवहार पर रोक लगवा दी। मेरी जैसी स्थिति का ही सामना करने के बावजूद यह बहन सत्य खोजने में सक्षम थी; उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था और उसके शब्द ईमानदार और निष्पक्ष थे। उसने लीला का बचाव किया और कलीसिया के हितों को सर्वोपरि रखा, जबकि मैंने झूठी अगुआ के झूठ-फरेब और चालाकियों पर भरोसा कर लिया और उसकी बेलगाम बुराई को प्रोत्साहन देकर मैं शैतान की दासी जैसी बन गई। इसके लिए मुझे वास्तव में खुद से नफरत हो गई। मैंने यह चिंतन किया कि जब अगुआ ने लीला के बारे में ऐसी बातें कहीं तो मैं इतनी आसानी से क्यों मान गई। इसका कारण यह था कि मैं इस सत्य को पूरा नहीं समझती थी कि आलोचनात्मक होना क्या है। दरअसल कोई व्यक्ति आलोचनात्मक है, यह जानने का महत्वपूर्ण आधार यह है कि उसके शब्दों के पीछे क्या मंशा छिपी है और वह जो समस्याएँ बता रहा है क्या वे तथ्यात्मक हैं। अगर व्यक्ति ऐसे झूठे अगुआओं को देखता है जो सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते और फिर सत्य को समझने वाले भाई-बहनों के साथ संगति कर भेद करता है, अगर उस व्यक्ति की मंशा कलीसिया के हितों को सर्वोपरि रखने की है तो फिर वह आलोचनात्मक नहीं है, बल्कि उसमें न्याय की भावना है। वास्तव में जो लोग आलोचनात्मक होते हैं उनकी अपनी ही मंशाएँ होती हैं; वे तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते हैं और चीजों को उलट-पुलट देते हैं; वे लोगों को बदनाम कर उनकी कटु आलोचना करते हैं; वे दूसरों के बारे में जानकारी जुटाकर उन्हें धमकाते हैं या वे लोगों के द्वारा दिखाई गई भ्रष्टता को अतिरंजित करते हैं और उन पर अनाप-शनाप ढंग से ठप्पा लगाते हैं। दूसरों के साथ वे जो कुछ भी करते हैं वह है दमन और तिरस्कार। इसी को आलोचनात्मक होना कहते हैं। आलोचनात्मक होना किसे कहते हैं, मुझे इसकी खरी समझ नहीं थी; इसलिए मैंने गलत ढंग से यह मान लिया कि अगर हम किसी अगुआ या कार्यकर्ता में कोई समस्या देखते हैं तो हमें उन्हें सीधे बता देना चाहिए या किसी उच्च अगुआ को रिपोर्ट कर देना चाहिए और अगर हम उनकी समस्याओं पर उनकी पीठ पीछे दूसरे भाई-बहनों के साथ चर्चा करते हैं तो फिर यह आलोचनात्मक होना है। मैं स्थिति के संदर्भ या सार को नहीं देख रही थी। जब मैंने यह सुना कि लीला ने कुछ बहनों के साथ एकांत में बात कर यह कहा था कि कुछ अगुआ वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं और वे झूठे अगुआ हैं तो मैंने सोच लिया कि उसका आलोचनात्मक रवैया है, इसलिए मैंने बिना सोचे-समझे उसकी निंदा की। मैंने इस बारे में कोई विचार ही नहीं कि वह जो कह रही है वह वास्तविकता है या नहीं। लेकिन अब तथ्यों ने दिखा दिया कि उसने जो भी कहा था वह सच था। उसने सत्य बोलने और कलीसिया के हितों की रक्षा करने की हिम्मत की। उसमें न्याय की भावना थी और वह आलोचनात्मक नहीं थी।
अपनी इस विफलता से मैंने कुछ सबक सीखे। आइंदा मूल्यांकन करते समय मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय अवश्य होना चाहिए और मुझे दूसरों पर अंधा होकर भरोसा नहीं करना चाहिए। मुझे तथ्यों और परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों के सार को पहचानना चाहिए। अगर मैं सत्य को नहीं समझती हूँ और चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती हूँ तो कम-से-कम मुझे स्पष्टवादी होना चाहिए और किसी की चापलूसी कर गलत-बयानी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब मैं कहता हूँ ‘परमेश्वर के मार्ग पर चलना,’ तो ‘परमेश्वर के मार्ग’ का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, ‘उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?’ और तुम उत्तर देते हो, ‘वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।’ लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि ‘मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,’ इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य का मार्ग है, वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जो हर होने वाली चीज अंततः इस बात पर आकर टिकती है कि क्या हम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हैं। परमेश्वर हमारे दिल और दिमाग को ताड़ता है। हम जो कुछ भी सोचते और करते हैं वह सारा का सारा परमेश्वर देखता है। जब हम दूसरों का मूल्यांकन करते हैं तो हमारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए। हमें व्यक्तिगत मंशा या हित से नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें तथ्यात्मक होना चाहिए, जो जानते हैं सिर्फ वही कहना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप ईमानदार रहना चाहिए। अगर हमें किसी के व्यवहार या स्थिति के अनुकूल सत्य सिद्धांतों की स्पष्ट समझ नहीं है तो हमें अधिक से अधिक खोज और प्रार्थना करनी चाहिए ताकि हम मनमाने ढंग से किसी का आकलन न बैठें या उस पर तोहमत न लगा दें। मैंने कलीसिया को स्वच्छ करने के कार्य के बारे में भी सोचा। व्यक्तिगत मंशाएँ होने और लोगों का आकलन तथ्यात्मक ढंग से और तथ्यों के अनुसार न कर पाने से दूसरे लोग गुमराह हो सकते हैं। गंभीर मामलों में कोई व्यक्ति गलती से बहिष्कृत या निष्कासित हो सकता है जिससे उसके साथ अन्याय होगा। भावनाओं के आधार पर बोलने और कार्य करने, किसी छद्म-विश्वासी या बुरे व्यक्ति को शह देने या बचाने का नतीजा यह हो सकता है कि जिस व्यक्ति को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए वह कलीसिया में ही बना रहेगा और यहाँ और भी गड़बड़ी पैदा करेगा। कर्तव्य में बदलावों के मामले में भी यही बात लागू होती है। अगर कोई मूल्यांकन गलत है तो यह अच्छे लोगों को पदोन्नत और विकसित करने से रोक सकता है, जबकि बुरे लोग अपने पदों पर जमे रहेंगे। इससे न केवल भाई-बहनों का जीवन प्रवेश रुक जाता है, बल्कि कलीसिया के कार्य में भी गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं और बाधाएँ आती हैं। इसके अलावा मुझे यह एहसास भी हुआ कि सारे मूल्यांकन समग्र व्यवहार के आधार पर होने चाहिए; ये निष्पक्ष और तथ्यपरक होने चाहिए। हम सिर्फ लोगों की कमियों या भ्रष्टता के क्षणिक प्रदर्शन पर ध्यान केंद्रित कर और राई का पहाड़ बनाकर उन पर कोई ठप्पा नहीं लगा सकते हैं। यह एहसास होने पर मैंने यह बात गाँठ बाँधनी शुरू कर दी कि भविष्य में दूसरे लोगों का मूल्यांकन करते समय मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए और मुझे यह कार्य तथ्य-आधारित, निष्पक्ष और तथ्यपरक ढंग से करना चाहिए। बाद में अपना कर्तव्य मानकर मुझे लीला का एक और मूल्यांकन लिखना पड़ा। मैं जानती थी कि यह एक परीक्षा है, मैं देखना चाहती थी कि क्या मैं सत्य का अभ्यास कर सकती हूँ, सिद्धांतों में प्रवेश कर सकती हूँ और अपनी बहन का मूल्यांकन निष्पक्ष और तथ्यपरक ढंग से कर सकती हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने अपने हृदय को शांत कर उससे प्रार्थना की, परमेश्वर से मेरे हृदय में झाँकने को कहा। मैं ईमानदार होना चाहती थी। मुझे सच को सच कहना था, अपनी मंशा के अनुसार नहीं बोलना था। मैं जो जानती थी उसे लिखना था और अगर मैं कोई चीज नहीं जानती थी तो ऐसा बता देना था। इस बात पर अमल कर मुझे बहुत ही अच्छा लगा।
लीला के इस मूल्यांकन के कारण मुझे अपने कुटिल और कपटी भ्रष्ट स्वभाव को देखने और यह जानने में मदद मिली कि अगर मैं अपनी ही मंशा के आधार पर बोलूँगी और कार्य करूँगी तो मैं न चाहते हुए भी बुराई करूँगी और लोगों को नुकसान पहुँचाऊँगी। मैंने यह भी समझ लिया कि परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीना, परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार सत्यवादी होकर बोलना और कार्य करना और ईमानदार व्यक्ति बनना ही एक सच्चा मानव के समान जीने और परमेश्वर की स्वीकृति पाने का अकेला तरीका है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?