हमें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप क्रिसमस के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिए?

16 दिसम्बर, 2018

सियुआन द्वारा

सूचीपत्र
क्रिसमस का आरम्भ
प्रभु यीशु का जन्म मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के कारण हुआ
हमारे लिए प्रभु यीशु की इच्छाएं और अपेक्षाएं क्या हैं
क्या हम वास्तव में प्रभु की आराधना कर रहे हैं?
परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे हों और उनकी प्रशंसा कैसे अर्जित करें

हमें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप क्रिसमस के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिए?

क्रिसमस का आरम्भ

हर साल, जैसे जैसे क्रिसमस करीब आता है, सड़क पर दुकानें सांता क्लॉस और क्रिसमस ट्री के साथ क्रिसमस उपहारों के चमकदार प्रदर्शनी की व्यवस्था करती हैं। पेड़ों और इमारतों पर कई रंगीन रोशनियाँ लगी होती हैं, और पूरे शहर लालटेन और रंगीन झालरों से सजे होते हैं, और हर जगह आनंद और जोश होता है। ईसाई धर्म के लिए, क्रिसमस एक बहुत ही खास समय है, और क्रिसमस से कई महीने पहले से, कई कलिसियायें क्रिसमस के अवकाश के लिए आवश्यक सभी चीज़ें तैयार करने में व्यस्त होने लगती हैं। क्रिसमस के दिन, कलिसियायें भर जाती हैं, और भाई-बहन उत्सव में शामिल होते हैं, क्रिसमस की दावत खाते हैं, नाटकों का मंचन करते हैं और प्रभु यीशु की आराधना करते हैं, आदि। हर किसी का चेहरा खुशियों से चमकता है। हालांकि, जब हम प्रभु यीशु के जन्म का जश्न मनाने के लिए खुशी से इकट्ठे होते हैं, तब क्या हम क्रिसमस का अर्थ समझते हैं? शायद भाई-बहन कहें, "प्रभु यीशु को सभी मानवजाति के छुटकारे के लिए क्रूस पर ठोका गया था, और इसलिए प्रभु यीशु के जन्म की यादगारी में और उसका उत्सव मनाने के लिए, ईसाईयों ने क्रिसमस की स्थापना की। हालाँकि जिस दिन प्रभु यीशु का जन्म हुआ था, वह बाइबिल में दर्ज नहीं है, फिर भी मसीह के सुसमाचार के विस्तार के साथ क्रिसमस धीरे-धीरे दुनिया भर में एक अवकाश बन गया।" हम इसे जानते होंगे, लेकिन क्या हम वास्तव में प्रभु यीशु के जन्म के पीछे छिपे हमारे लिए परमेश्वर के प्यार और उसकी इच्छा के बारे में जानते हैं? हम कैसे क्रिसमस के प्रति वैसा दृष्टिकोण रख सकते हैं जो कि प्रभु के हृदय के अनुसार हो?

प्रभु यीशु का जन्म मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के कारण हुआ

शुरुआत में, यहोवा ने मनुष्यों के बीच आत्मा के रूप में काम किया, उन्होंने अपनी व्यवस्थाओं और आज्ञाओं का प्रचार करने के लिए मूसा का उपयोग किया, मानवजाति का पृथ्वी पर रहने के लिए मार्गदर्शन किया, लोगों को यह बताया कि क्या अच्छा था और क्या बुरा, और परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है, आदि। लेकिन जब व्यवस्था के युग का अंत आ रहा था, चूँकि शैतान द्वारा मानवजाति को और अधिक गहराई से भ्रष्ट किया जा रहा था, इसलिएमनुष्य व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम नहीं हो पा रहा था और अब अपने पापों के प्रायश्चित के लिए पर्याप्त पापबलि नहीं थी जो वो चढ़ा सके; लोगों के सामने दंडित किये जाने और किसी भी समय व्यवस्था के कारण मृत्यदंड पाने का खतरा था। परमेश्वर उस मानवजाति को इस तरह से नष्ट होते हुए देखना सहन नहीं कर पा रहे थे, जिसे उन्होंने अपने हाथों से बनाया था। इसलिए, मानवजाति को जीवित रहने देने के लिए, परमेश्वर स्वर्ग से नीचे आये और प्रभु यीशु मसीह के रूप में देहधारण किया, वे प्रकट हुए और उन्होंने अपना कार्य किया, उन्होंने "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17), का तरीका व्यक्त किया। उन्होंने लोगों को सहनशील होना, धीरज रखना, अपने दुश्मनों से प्यार करना और लोगों को सत्तर गुना सात बार माफ़ करना सिखाया। उन्होंने बीमारों को भी ठीक किया और दुष्टात्माओं को बाहर निकाला, और कई संकेत और चमत्कार किए और अंत में, उन्हें क्रूस पर ठोक दिया गया, इस प्रकार उन्होंने मानवजाति को उनके पापों से छुड़ाया। जब तक हम प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं, ईमानदारी से प्रभु से प्रार्थना करते हैं, अपने पापों को स्वीकार करते हैं और पश्चाताप करते हैं, तब तक हमारे पाप क्षमा किये जाते हैं, और हम प्रभु से आयी शांति, प्रसन्नता और सारी भरपूर कृपा का आनंद ले सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि, केवल प्रभु यीशु के जन्म के कारण और परमेश्वर का छुटकारे का काम करने के लिए व्यक्तिगत रूप से देहधारण करने के कारण ही मानवजाति दंड और व्यवस्था की बेड़ियों से बचने में सक्षम हुई, और इसलिए वह अब और निंदा या मृत्यदंड के अधीन नहीं थी। केवल प्रभु यीशु के जन्म के कारण, उनका अनुसरण करने वाले वास्तविक शांति और प्रसन्नता का आनंद लेने में समर्थ थे। और तो और, प्रभु यीशु के जन्म के कारण और मानवजाति की भाषा का उपयोग करके अपने कथन बोलते हुए परमेश्वर के आत्मा के एक सामान्य शरीर में प्रकट होने के कारण ही हम प्रभु के शब्दों से परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य के लिए उनकी अपेक्षाओं के बारे में अधिक स्पष्ट रूप से जानते हैं, हम एक नया, उच्चतर अभ्यास पा सकते हैं, और परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और भी करीबी हो सकता है। प्रभु यीशु के धरती पर आने, उनके सत्य व्यक्त करने और क्रूस पर चढ़ाये जाने के काम को पूरा करने के पीछे जो था वो मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयासों से भरा था-यह हम भ्रष्ट मानवजाति के प्रति परमेश्वर का प्यार और कृपा था!

हमारे लिए प्रभु यीशु की इच्छाएं और अपेक्षाएं क्या हैं

प्रभु यीशु छुटकारे के काम को समाप्त करने के बाद, वे फिर जी उठे और स्वर्ग में आरोहित हो गये, तो उनके जन्म को याद रखने के लिए, कई लोग क्रिसमस की शाम को दावतों का आयोजन करते हैं, नाटकों का मंचन करते हैं और प्रभु यीशु के जन्म का जश्न मनाते हैं। लेकिन क्या हम कभी जान पाएं हैं कि क्रिसमस का अर्थ क्या है, और प्रभु यीशु की हमारे लिए इच्छाएं और अपेक्षाएं क्या हैं? परमेश्वर को संतुष्ट करने और उनकी प्रशंसा अर्जित करने के लिए हमें वास्तव में क्या करना चाहिए?

प्रभु यीशु ने कहा था: "वह समय आता है कि तुम न तो इस पहाड़ पर पिता की आराधना करोगे, न यरूशलेम में। ...परन्तु वह समय आता है, वरन् अब भी है, जिसमें सच्‍चे भक्‍त पिता की आराधना आत्मा और सच्‍चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही आराधकों को ढूँढ़ता है" (यूहन्ना 4:21, 23)। हम प्रभु यीशु के वचनों से समझ सकते हैं कि प्रभु चाहते हैं की हम आत्मा और सत्य में परमेश्वर की आराधना करें, और कड़ाई से सभी औपचारिकताओं का पालन न करें या गतिविधियों में शामिल न हों। अतीत में मंदिर में फरीसी, मुख्य याजक और शास्त्री केवल विभिन्न धार्मिक समारोहों में शामिल होने और नियमों से चिपके रहने पर ध्यान केंद्रित करते थे। हर दिन, वे परमेश्वर की आराधना करने के लिए चढ़ावे अर्पित करते थे, परन्तु उन्होंने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने पर बहुत ध्यान नहीं दिया, और न ही उन्होंने यहोवा के आदेशों का पालन किया, इस हद तक कि उन्होंने परमेश्वर के आदेशों को भी त्याग दिया और केवल मनुष्यों की परंपराओं का पालन किया। अंत में, न केवल उन्होंने परमेश्वर की प्रशंसा नहीं पायी, बल्कि वे प्रभु यीशु द्वारा घृणा किये गये और शापित किये गये। यदि कलिसियायें अब बड़े क्रिसमस समारोह आयोजित करतीं हैं, तो यह जोश की क्षणिक चमक-दमक है; हर कोई आनन्द और खुशी में इकट्ठा होता है, लेकिन हम वास्तव में प्रभु की आराधना नहीं करते हैं, या इस अवसर का उपयोग उनकी इच्छा को समझने या उनके बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं करते हैं, और इसलिए हमें प्रभु यीशु की मंजूरी नहीं मिलेगी। असल में, जब प्रभु यीशु ने आधिकारिक तौर पर अपना काम शुरू किया तब से, जब तक उन्होंने छुटकारे के अपने काम को पूरा किया, उन्होंने कई सत्य व्यक्त किये और हमारे लिए कई अपेक्षाएं सामने रखीं। प्रभु की इच्छा है कि हम सभी उनके वचनों को अभ्यास में डालने पर ध्यान दें, और चाहे हम किन्हीं भी मुद्दों या लोगों का सामना क्यों न करें, हर समय, हर जगह, उनकी शिक्षाओं के अनुसार चलें। प्रभु की हमसे यही अपेक्षा है, और हममें से जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उन लोगों के लिए यह अभ्यास का सबसे मौलिक सिद्धांत है। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा: "यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे" (यूहन्ना 8:31), "जो आज्ञा मैं तुम्हें देता हूँ, यदि उसे मानो तो तुम मेरे मित्र हो" (यूहन्ना 15:14)। इसलिए यह देखा जा सकता है कि, हमारे सामान्य जीवन में और अन्य लोगों के साथ हमारे व्यवहार में, प्रभु के वचनों के अनुसार अभ्यास करने पर ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह कुछ ऐसा है जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वालों और परमेश्वर की आराधना करने वालों को सबसे पहले हासिल करना चाहिए।

क्या हम वास्तव में प्रभु की आराधना कर रहे हैं?

अब, कई भाई-बहन क्रिसमस में प्रभु यीशु के जन्म का जश्न मनाने, एक साथ प्रार्थना करने, बाइबल को एक साथ पढ़ने और प्रभु की स्तुति गाने के लिए कलीसिया में आते हैं। लेकिन शेष समय, हम अपनी खुद की नौकरियों और करियर में या अन्य लोगों के साथ बातचीत करने में व्यस्त रहते हैं। बहुत ही कम समय हम प्रभु के सामने खुद को शांत करते हैं और उनके वचनों का पठन-पूजन करते हैं या उनकी इच्छा को समझने की कोशिश करते हैं। कुछ भाई-बहन अक्सर सभाओं में भाग लेते हैं, लेकिन वे शायद ही कभी अपने जीवन में प्रभु के वचनों का अभ्यास और अनुभव करते हैं, वे अभी भी पाप में रहते हैं, और उनके पाप तेजी से बढ़ते हैं। मिसाल के तौर पर, प्रभु यीशु की अपेक्षा है कि हम नम्र और सौम्य हों, लेकिन जैसे जैसे हम साथ मिलते हैं और कलीसिया में भाई-बहनों और सहकर्मियों के साथ मिलकर काम करते हैं, तो हम अपने घमंडी स्वभावों के प्रभुत्व में रहते हैं, हम अपने विचारों और सोच को सर्वोत्तम समझते हैं, हम स्वयं का पक्ष लेते हैं, और हम दूसरों के साथ शांतिपूर्वक मिलकर रहने में असमर्थ होते हैं। प्रभु यीशु की अपेक्षा है कि हम दूसरों को माफ करना सीखें और दूसरों से अपने समान प्यार करें। लेकिन जब दूसरे हमारी रुचियों का उल्लंघन करते हैं, तो हम बहुत परेशान महसूस करते हैं, इस हद तक कि हम शैतान के जहरीले स्वभावों में रहते हैं, और हम अन्य लोगों की आलोचना और निंदा करते हैं। प्रभु यीशु की यह अपेक्षा है कि हम खुद को सांसारिक लोगों से अलग कर दें, लेकिन सांसारिक प्रसिद्धि, हैसियत और शारीरिक सुखों की हमारी खोज में, हम दुनिया के बुरे रुझानों का पालन करते हैं, पाप में रहते हैं और हम प्रभु से अधिकाधिक दूर होते जाते हैं। ये केवल कुछ उदाहरण हैं कि हम कैसे प्रभु की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रहते हैं। हम धार्मिक समारोहों को बनाये रखने को तो बहुत महत्व देते हैं, प्रभु के उद्धार के लिए आभारी होने पर ध्यान देते हैं और हम विभिन्न छुट्टियों के विशिष्ट दिनों पर प्रभु की स्तुति करते हैं, फिर भी हम प्रभु के मार्ग का पालन नहीं करते हैं और हम अक्सर पाप में रहते हैं। क्या हमें प्रभु यीशु की आराधना ऐसे करनी चाहिए? क्या प्रभु वास्तव में इसके लिए हमारी प्रशंसा कर सकते हैं? माता-पिता द्वारा बच्चों को बड़ा करने का उदाहरण लें। अगर बच्चे वास्तव में समझदार और सन्तान के रूप में उचित हैं, तो वे यह जान लेंगे कि उनके माता-पिता क्या पसंद करते हैं क्या नहीं, और जब भी वे उनके लिए कुछ भी करते हैं तो उन्हें हमेशा पता होगा कि माता-पिता को खुश करने के लिए उन्हें क्या करना है। लेकिन अगर वे बस अपने माता-पिता के जन्मदिन पर बस एक बड़ी दावत करें, और सिर्फ कहें, "माँ, पिताजी मैं आपसे बहुत प्यार करता/करती हूँ" लेकिन जब उन्हें वास्तव में उनकी ज़रूरत हो, तो वे सन्तान के रूप में जो उचित जिम्मेदारियाँ हैं उनको पूरा करने के बजाय अपने जीवन में व्यस्त रहें, तो क्या उन्हें सचमुच सन्तान के रूप में उचित कहा जा सकता है?

परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे हों और उनकी प्रशंसा कैसे अर्जित करें

अगर हम वे लोग बनना चाहते हैं जो वास्तव में परमेश्वर की आराधना करते हैं और उनकी प्रशंसा अर्जित करते हैं, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना, अपने दिल में परमेश्वर को ऊँचा बनाना, सभी चीजों में प्रभु के मार्गों का पालन करने पर ध्यान देना, प्रभु के वचनों को सबसे आगे रखना, और जो हम वास्तव में जो जीते हैं उसका, परमेश्वर की गवाही देने और परमेश्वर की महिमा करने के लिए उपयोग करना, मुख्य है। बेशक, कुछ भाई-बहन एक दूसरे के साथ अपने जीवन में प्रभु के वचनों का अभ्यास करने के ज्ञान और अनुभव की अदला-बदली के लिए, अपने आध्यात्मिक जीवन में समस्याओं को सुलझाने में एक दूसरे की मदद करने, सहारा देने के लिए, और अपने और परमेश्वर के बीच की दूरी को कम करने के लिए, क्रिसमस में इकट्ठे होकर गीत गाते और प्रभु की स्तुति करते हैं, और यह भी परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। इसके अलावा, जब क्रिसमस आ रहा होता है, तो अब कई पश्चिमी देश हैं जो सताए गए ईसाइयों और बेघर लोगों के लिए धर्मार्थ कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जो दुनिया भर से आश्रय की तलाश में भटकते लोगों और सताए गए ईसाई शरणार्थियों को इकट्ठा करते हैं ताकि वे आपस में अनुभवों का आदान-प्रदान कर सकें, इस प्रकार वे उन्हें सर्दियों की कड़कड़ाती ठंड में परमेश्वर की गर्माहट को महसूस करने में सक्षम बनाते हैं। ये भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर याद रखेंगे। संक्षेप में, अवकाश स्वयं महत्वपूर्ण नहीं है और विभिन्न समारोह महत्वपूर्ण नहीं हैं। जो चीजें सबसे महत्वपूर्ण हैं वो हैं प्रभु यीशु के वचन और वे चीजें जिनकी उन्हें हमसे अपेक्षा है। परमेश्वर से भय खाने वाला दिल रखने में और सभी चीजों में प्रभु की इच्छा तलाशने में समर्थ होना, प्रभु के वचनों का अभ्यास करना और प्रभु की अपेक्षाओं को पूरा करके उन्हें संतुष्ट करना-यही सबसे महत्वपूर्ण है। इसी तरीके से अभ्यास करने पर हम प्रभु यीशु की वास्तव में आराधना करते हैं और उनकी प्रशंसा अर्जित करते हैं।

परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन का धन्यवाद, परमेश्वर हम सबके साथ हों!

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