3 सिद्धांत—कैसे प्रार्थना करें ताकि परमेश्वर हमारी पुकार सुनें

28 दिसम्बर, 2018

चेंग शी

भाइयो और बहनो:

प्रभु की शांति आपके साथ हो! प्रार्थना करना हम ईसाइयों का, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। इसलिए हमारे लिए सुबह की प्रार्थना और शाम की प्रार्थना करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। फिर क्या आप जानते हैं कि सुबह की प्रार्थना और शाम की प्रार्थना को प्रभावी ढंग से कैसे किया जाता है? हालाँकि, कई भाई-बहन परेशानी महसूस करते हैं: हर दिन, हम सुबह और रात, दोनों समय प्रार्थना करते हैं; हम खाने से पहले और और खाने के बाद भी प्रार्थना करते हैं, साथ ही साथ जब हम सभा में होते हैं तब भी प्रार्थना करते हैं; इसके अलावा, हर बार जब हम प्रार्थना करते हैं, हम प्रभु से बहुत कुछ कहते हैं और लंबे समय तक प्रार्थना करते हैं। हालाँकि, हम हमेशा ऐसा महसूस करते हैं जैसे परमेश्वर वहाँ नहीं है; ऐसा लगता है जैसे हम प्रार्थना करते समय खुद से बात कर रहे हैं, और हमारी आत्मा शांति या आनंद महसूस नहीं करती है। परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं को क्यों नहीं सुनते? हम ऐसी प्रार्थना कैसे करें ताकि हम परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त कर सकें?

वास्तव में, परमेश्वर के हमारी प्रार्थना न सुनने के कुछ कारण हैं। मैं इस बारे में अपनी व्यक्तिगत समझ सभी से साझा करूँगा।

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पहला, क्या हम एक परमेश्वर से एक निष्कपट दिल से प्रार्थना करते हैं?

प्रभु यीशु ने कहा: "जिसमें सच्‍चे भक्‍त पिता की आराधना आत्मा और सच्‍चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही आराधकों को ढूँढ़ता है" (यूहन्ना 4:23)। परमेश्वर के वचनों ने हमें दिखाया है कि हमें परमेश्वर के इरादों के अनुसार उनकी आराधना करने के लिए प्रार्थना कैसे करनी चाहिए। परमेश्वर सबसे अधिक ध्यान इस बात पर केंद्रित करते हैं कि जब हम उनके सामने होते हैं तब क्या हम एक निष्कपट दिल रखते हैं और क्या हम उनसे ईमानदार और सच्चे शब्द बोलते हैं। अगर प्रार्थना करते समय हमारे दिल में उनके लिये आदर है, हमारा दिल निष्कपट है, तो परमेश्वर हमारी प्रार्थनाएं स्वीकार करेंगे। हालाँकि, जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, हम अक्सर परमेश्वर के सामने खुद को शांत करने में और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए एक सच्चे दिल का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं। हमारे होंठ हिलते हैं लेकिन हमारा दिल परिवार या काम के बारे में सोच रहा होता है और चिंताओं से भरा होता है। कभी-कभी, हमारे होंठ हिलते हैं लेकिन हमारे दिल नहीं। हमारा रवैया खरा नहीं होता, और हम बस उदासीनता से काम करते हैं और क्या हो सकता था इस पर विचार करते हैं, हम इसे लापरवाही से करते हैं। हम अक्सर कुछ प्रतिष्ठित, दिखावे से भरे, खोखले शब्द भी कहते हैं, ऐसे शब्द जो केवल सुनने में अच्छे लगते हैं या मिलावटी शब्द जो परमेश्वर को धोखा देने के लिए होते हैं। मिसाल के तौर पर, हम अपने माता-पिता से प्रभु की तुलना में ज़्यादा प्यार करते हैं या हम अपने कैरियर को प्रभु से ज्यादा प्यार करते हैं, फिर भी जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम कहते हैं, "हे प्रभु, मैं आपसे प्यार करता हूँ! मैं सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हूँ और अपने पूरे दिल से आपके लिए व्यय करना चाहता हूँ!" जब हमारे परिवारों को कुछ दुखद घटनाओं का सामना करना पड़ता है, तो हमारे दिल नकारात्मक हो जाते हैं और हम प्रभु से शिकायत करते हैं। फिर भी, जब हम प्रार्थना करते हैं, हम प्रभु को धन्यवाद देते हैं और प्रभु से प्रशंसा-युक्त शब्द कहते हैं... असल में, प्रार्थनाओं में, यदि कोई निष्कपट नहीं है और केवल कुछ बड़े-बड़े, खोखले या झूठे शब्दों का उपयोग करके उदासीनता से काम करता है या यदि कोई परमेश्वर के सामने अपना भेष बदलकर केवल कुछ कर्ण-प्रिय शब्द कहता है, तो वह परमेश्वर को धोखा दे रहा है। परमेश्वर उन प्रार्थनाओं को नहीं सुनेंगे जो खरी नहीं हैं।

दूसरा, क्या हम परमेश्वर से तर्कसंगत तरीके से प्रार्थना करते हैं?

ज्यादातर समय, जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, हम परमेश्वर से चीजों की अंधाधुंध माँग करते हैं या हमारे पास परमेश्वर के लिए सभी प्रकार के असाधारण अनुरोध होते हैं। उदाहरण के लिए: यदि हमारे पास नौकरी नहीं है, तो हम परमेश्वर को नौकरी देने के लिए कहते हैं। अगर हमारे पास बच्चा नहीं है, तो हम परमेश्वर से हमें एक बच्चा प्रदान करने के लिए कहते हैं। अगर हम बीमार हैं, तो हम परमेश्वर को अपनी बीमारी का इलाज करने के लिए कहते हैं। अगर हमारे परिवार कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, तो हम परमेश्वर से हमारी मदद करने को कहते हैं। व्यवसायी लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उनसे आशीष माँगते हैं ताकि वे बहुत सारा पैसा कमा सकें। छात्र परमेश्वर से समझदारी और बुद्धि की आशीष देने के लिए कहते हैं। वृद्ध लोग परमेश्वर से बीमारी और आपदाओं से बचाने के लिए कहते हैं ताकि वे अपने अंतिम वर्ष शांति में बिता सकें। जीवन में, चाहे हम जिन भी कठिनाइयों और परीक्षणों का सामना करें, हम कभी भी परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन नहीं हो पाते। हम हमेशा आशा करते हैं कि परमेश्वर हमें हमारी परेशानियों से बचाएंगे ताकि हमें और पीड़ा नहीं सहनी पड़ेगी। हम हमेशा प्रभु से हमारी रक्षा करने के लिए कहते हैं ताकि हम खुश और शांतिपूर्ण रह सकें। इस प्रकार की प्रार्थना, परमेश्वर की रचनाओं में से एक की परमेश्वर से की गयी प्रार्थना नहीं है। इसके बजाय, इसमें परमेश्वर से चीज़ों को माँगना और उन्हें हमारे विचारों के अनुसार चीजों करने को कहना शामिल है। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे आशा करते हैं कि परमेश्वर उनके सभी अनुरोधों और इच्छाओं को पूरा करेंगे। यह मूल रूप से परमेश्वर के साथ व्यापार समझौता करना है और इसमें विवेक या तर्कसंगतता का एक कतरा भी नहीं है। इस तरह के लोगों में परमेश्वर के लिए वास्तविक विश्वास और प्रेम नहीं होता और न ही वे वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा का पालन या आदर करते हैं। बल्कि वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर का उपयोग कर रहे हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा परमेश्वर ने कहा था, "ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है" (मत्ती 15:8)। इसलिए, परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाओं को नहीं सुनते जो लोग अनुचित इरादों से करते हैं।

तीसरा, क्या हमारी कलीसिया में पवित्र आत्मा का कार्य है?

व्यवस्था के युग के शुरुआती चरण को याद करें, जब मंदिर में पवित्र आत्मा का कार्य हुआ करता था। जब लोग पाप करते थे, तो उन्हें पवित्र आत्मा का अनुशासन प्राप्त होता था। यदि परमेश्वर की सेवा करने वाले याजक व्यवस्था तोड़ते, तो आग सीधे स्वर्ग से नीचे आकर, उन्हें जलाकर मार डालती थी। लोग बहुत डर कर रहते थे और वे अपने दिल में परमेश्वर का आदर करते थे। हालाँकि, व्यवस्था के युग के बाद के समय के दौरान, जब यीशु प्रकट हुए और उन्होंने काम किया, तो यहूदी लोग व्यवस्था का पालन नहीं कर पाए, उन्होंने मंदिर का इस्तेमाल पैसे की अदला-बदली और पशुधन बेचने के लिए किया। उन्होंने मंदिर को चोरों का अड्डा बना दिया। इसमें अब पवित्र आत्मा का अनुशासन नहीं रह गया था। चूँकि पवित्र आत्मा पहले से ही यीशु के काम के समर्थन के लिए मंदिर छोड़ चुका था, इसलिए वे लोग जो मंदिर में रहते थे और यीशु के उद्धार को स्वीकार करने से इंकार करते थे, वे परमेश्वर के कार्य द्वारा हटा दिए गए और अंधकार में गिर गये। भले ही उन्होंने यहोवा के नाम पर प्रार्थना की, फिर भी परमेश्वर ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी। इससे भी अधिक, वे पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में असमर्थ रहे।

आइए, हम अपनी आज की कलीसिया पर नज़र डालें। पादरियों और एल्डरों के उपदेश अरुचिकर हैं। कोई नई रोशनी नहीं है। भाई-बहनों को जीवन पोषण नहीं मिलता, और उनकी आत्माएं सूखती जाती हैं, अन्धकारमय हो जाती हैं और पवित्र आत्मा की उपस्थिति को महसूस करने में असमर्थ होती हैं। वे देह और जीवन के सुख के लिए लोभ करने के साथ-साथ हैसियत और शक्ति की तलाश भी शुरू कर देंगे। सहकर्मियों के बीच संघर्ष शुरू हो जायेगा। उनके अपराध अक्सर उन पर विजय पा लेंगे और वे प्रभु के प्रति ऋणी महसूस नहीं करेंगे। वे प्रभु के वचनों का पालन नहीं करते हैं, न ही वे उनके आदेशों को मानते हैं। वे परमेश्वर की इच्छा का उल्लंघन करके पूरी तरह से परमेश्वर के विरोधी बन गए... इस तरह की कलीसिया और व्यवस्था के युग में बाद के समय में मौजूद मंदिर के बीच क्या अंतर है? यह पूरी तरह से बाइबल की भविष्यवाणी को पूरा करता है, "जब कटनी के तीन महीने रह गए, तब मैं ने तुम्हारे लिये वर्षा न की; मैं ने एक नगर में जल बरसाकर दूसरे में न बरसाया; एक खेत में जल बरसा, और दूसरा खेत जिस में न बरसा, वह सूख गया। इसलिये दो तीन नगरों के लोग पानी पीने को मारे मारे फिरते हुए एक ही नगर में आए, परन्तु तृप्‍त न हुए; तौभी तुम मेरी ओर न फिरे,' यहोवा की यही वाणी है" (आमोस 4:7–8)। वास्तव में परमेश्वर ने अनुग्रह के युग की कलीसिया को छोड़ दिया है। बहुत से भाई-बहन ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि कलीसिया में पवित्र आत्मा का कार्य अब नहीं रहा तथा परमेश्वर ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। तो ऐसा कैसे सम्भव है कि हमारी आत्माएं न सूखें? परमेश्वर हमारी प्रार्थनाएं कैसे सुन सकते हैं?

ऊपर वर्णित तीन परिस्थितियाँ वो मुख्य कारण हैं जिसकी वजह से प्रभु हमारी प्रार्थनाओं को नहीं सुनते। हम केवल इतना कर सकते हैं कि हम प्रभु के सामने आयें, उनके इरादों की तलाश करें और इन मुद्दों पर विचार करें। हमें इसकी भी खोज करनी चाहिए कि प्रभु से कैसे प्रार्थना करनी है ताकि वे हमारी प्रार्थना सुनें। यह वो सत्य है जिसमें हमें तुरंत प्रवेश करने की आवश्यकता है। अब, मैं कार्यान्वयन के तीन तरीकों को सबके साथ साझा करूँगा ताकि आप जान सकें कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार प्रार्थना कैसे करनी है। अगर हम हर दिन उसे काम में लाएंगे और दिल से अभ्यास करेंगे तो मुझे विश्वास है कि प्रभु हमारी प्रार्थनाओं को सुनेंगे।

पहला, हमें मन से प्रार्थना करनी चाहिए, निष्कपटता से प्रार्थना करनी चाहिए और ऐसी सच्ची बातें कहनी चाहिए जो दिल से निकलें।

हम सभी जानते हैं कि परमेश्वर भरोसेमंद है। परमेश्वर के साथ कोई धोखाधड़ी, कोई पाखंड, और कोई झूठ नहीं है। परमेश्वर हममें से हर एक के साथ खरा है। परमेश्वर यह आशा भी करता है कि हम उससे निष्कपटता से और इमानदारी से प्रार्थना करेंगे। यह बिल्कुल वैसा है जैसा प्रभु यीशु ने कहा था: "परन्तु तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। इसलिए, जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हमें परमेश्वर से स्पष्ट रूप से बात करनी चाहिए। अगर हम कमज़ोर हैं, तो हमें कहना चाहिए कि हम कमज़ोर हैं। चाहे जो भी विचार, कल्पना, दर्द, कठिनाई हो, या ऐसी चीजें हों जो हमने की हैं पर जो परमेश्वर के इरादे के अनुसार नहीं हैं, हमें अपने दिल को पूरी तरह से खोलना चाहिए और परमेश्वर को उनके बारे में बताना चाहिए। कुछ ऐसे शब्द और मामले हो सकते हैं जो हम अन्य लोगों के सामने स्वीकारने में शर्मिंदा महसूस करें। हालाँकि, हम इन चीज़ों को परमेश्वर से नहीं छिपा सकते। हमें अपने दिल को परमेश्वर के सामने खोलना चाहिए और ईमानदारी से उनके बारे में परमेश्वर को बताना चाहिए। जब परमेश्वर देखते हैं कि हमारे दिल उनके लिए पूरे खुले हैं और हम उनसे कुछ छुपा नहीं रहे हैं और इसके अलावा, हम वो चीजें कह रहे हैं जो सीधे हमारे दिल से आतीं हैं और हम परमेश्वर से बहुत ईमानदारी से बात कर रहे हैं, परमेश्वर हमें उनके इरादे और सत्य के सभी पहलुओं को समझने के लिए मार्गदर्शन करेंगे। यह हमें चलने का मार्ग देगा।

इसके अतिरिक्त, जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हमें परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना होगा। हमें एक ध्यानमग्न दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। हमें अधूरे मन वाला व्यक्ति नहीं होना चाहिए या बिना भावनाओं के बस शब्द नहीं कहने चाहिए। जब हम अपने माता-पिता से बात करते हैं, तो हम उनका सम्मान करने में सक्षम होते हैं। उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण खरा होता है। क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि वे हमारे बड़े हैं और उन्होंने हमारा पालन-पोषण किया है? परमेश्वर ने हमें बनाया, हमें जीवन दिया, जीने के लिए हमें जिसकी भी जरूरत है, वो प्रदान किया और उन्होंने हमें सत्य प्रदान किया है। क्या यह और भी ज़रूरी नहीं कि हम एक आदरपूर्ण दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करें? इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम परमेश्वर से किस बारे में प्रार्थना करते हैं, हमारा दिल भक्ति से भरा होना चाहिए और हमें परमेश्वर के इरादे की तलाश करनी चाहिए और उन्हें अपने विचारों, कठिनाइयों के बारे में ईमानदारी से बताना चाहिए और हमें धैर्यपूर्वक परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। केवल इस तरह से हम परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त करेंगे, और उनके इरादों को समझेंगे। तब समय से हमारी कठिनाइयों का समाधान हो जाएगा।

दूसरा, हमें रचे गये प्राणियों के स्थान पर खड़ा होना चाहिए और परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए; हमें एक ऐसे दिल से प्रार्थना करनी चाहिए जो परमेश्वर को समर्पित होता हो।

जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हमें स्पष्ट होना चाहिए कि हम रचनाएं हैं और परमेश्वर हमारे सृष्टिकर्ता हैं। परमेश्वर अपने हाथों में सभी चीज़ों और घटनाओं को रखते हैं। हमारा सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियंत्रित है। जिसका भी हम हर दिन सामना करते हैं, भले ही वह छोटा मामला हो या बड़ा, यह सब परमेश्वर की व्यवस्था के कारण है। जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो हमें रचनाओं के रूप में अपनी स्थिति में दृढ़ रहना चाहिए, और परमेश्वर के सामने एक आस्थावान और समर्पण के दृष्टिकोण के साथ परमेश्वर की इच्छा की तलाश करनी चाहिए। हमें परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, जब हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और हम नहीं जानते कि हमें क्या करना है, हम इस तरह से प्रार्थना कर सकते हैं: "हे परमेश्वर! मैं इस मामले में सत्य को समझ नहीं पा रहा हूँ। मुझे नहीं पता कि मुझे चीजों को आपके इरादों के अनुसार कैसे करना चाहिए। फिर भी, मैं आपके वचनों में खोज करने और चीजों को आपके अनुरोधों के अनुसार करने और अपने इरादों को पूरा करने के लिए तैयार हूँ। कृपया मुझे प्रबुद्ध करें और मेरा मार्गदर्शन करें। आमीन!" जब हमारे दिल में परमेश्वर के लिए एक स्थान होता है और जब हम एक रचना के स्थान पर खड़े हो सकते हैं और प्रार्थना कर सकते हैं, साष्टांग कर सकते हैं, अपने सृष्टिकर्ता की आराधना कर सकते हैं, और जब हम उसके काम का पालन कर सकते हैं और उसके वचनों को अपने अभ्यास में डाल सकते हैं, तभी हम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बना पाएंगे और पवित्र आत्मा के काम को प्राप्त करेंगे। हम सभी जानते हैं कि अय्यूब एक ऐसा व्यक्ति था जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। जब उसने अपने सभी मवेशियों, बेटों, बेटियों को खो दिया, जब वह सिर से पैर तक घावों से ढका हुआ था और बहुत दर्द सह रहा था, तब भी वह मानता था कि परमेश्वर सबके शासक हैं और परमेश्वर की अनुमति के बिना, उसके साथ ऐसा नहीं होता। इसके अलावा, वह यह भी जानता था कि उसके जीवन सहित, वह सब कुछ जो उसके पास था, परमेश्वर द्वारा उसे दिया गया था। इससे फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कब इसे वापस लेना चाहते हैं, यह प्राकृतिक और उचित है। इसलिए, उसने परमेश्वर से शिकायत नहीं की और न ही उसकी परमेश्वर से कोई माँग थी। नतीजतन, वह झुका और उसने आराधना की और समर्पण भरे दिल के साथ उसने परमेश्वर से प्रार्थना की। उसने ये शब्द कहे: "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?" (अय्यूब 2:10)। अय्यूब दृढ़ता से खड़ा रहा और उसने परमेश्वर के लिए गवाही दी। उसकी समझ और परमेश्वर के प्रति समर्पण ने उसे परमेश्वर की प्रशंसा दिलायी। अगर हम भी परमेश्वर को उस तरह से संबोधित करने में सक्षम हों जैसे कि अय्यूब था, यदि हमारे दिल में परमेश्वर के लिए जगह हो और यदि हम ऐसे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम हों जो इसकी परवाह ना करते हुए कि हम किन परीक्षणों का सामना करते हैं, परमेश्वर को समर्पित होता है, तो परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन करेंगे और हमें प्रबुद्ध करेंगे ताकि हम सत्य को समझ सकें। हमारी आत्माएं अधिकाधिक पैनी हो जाएंगी और हमारे विचार अधिकाधिक स्पष्ट हो जायेंगे। जब हम कोई भ्रष्टता प्रकट करते हैं या किन्हीं बुरी स्थितियों का सामना करते हैं, तो उसके बारे में जागरूक होना और समय पर उसका हल निकालना हमारे लिए आसान होगा। फिर, परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध ज़्यादा से ज़्यादा करीबी हो जाएगा और हमारा जीवन निरंतर तेजी से बढ़ेगा।

तीसरा, अगर हमारी कलीसिया में पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, तो हमें तलाशने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

हम सभी जानते हैं, व्यवस्था के युग के बाद की अवधि में, मनुष्य शैतान द्वारा अधिकाधिक गहराई से दूषित हो गया था। मनुष्य पाप के भीतर रहता था और उसके सामने व्यवस्था द्वारा दोषी ठहराए जाने और मृत्युदंड पाने का खतरा था। फिर, यीशु मसीह के नाम के अंतर्गत परमेश्वर ने व्यवस्था का युग समाप्त कर दिया, अनुग्रह के युग की शुरूआत की और मानवजाति के छुटकारे का काम किया। तब से, यहूदी धर्म ने पूरी तरह से परमेश्वर की महिमामय उपस्थिति को खो दिया। इससे फर्क नहीं पड़ता था कि प्रभु यीशु के नाम और कार्य को स्वीकार न करने वाले लोग, कौन सी परिस्थितियों का सामना करते थे, कैसे प्रार्थना करते थे और यहोवा परमेश्वर से कैसे अनुनय-विनय करते थे, परमेश्वर उनकी नहीं सुनते थे और उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं होता था। जबकि, जिन लोगों ने यीशु के नए कार्य को स्वीकार किया और यीशु के नाम पर प्रार्थना की, वे परमेश्वर के जीवंत जल के झरने के पोषण का आनंद प्राप्त करते थे। जब वे प्रभु को पुकारते तो वे परमेश्वर के कर्मों को देखने में सक्षम होते और उनके पास पवित्र आत्मा के काम का साथ होता था।

आजकल, हम प्रभु के नाम पर चाहे जैसे भी प्रार्थना करें, हमें पवित्र आत्मा के कार्य का एहसास नहीं होता, और हम उनकी उपस्थिति को महसूस नहीं कर पाते। हम अपने जीवन के पोषण नहीं प्राप्त कर पाते है और हम पाप करते हैं लेकिन अनुशासन नहीं पाते। ऐसा सम्भव है कि एक बार फिर पवित्र आत्मा का कार्य का मार्ग मोड़ दिया गया है। बाइबल कहती है, "यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:47–48)। "क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए" (1 पतरस 4:17)। इन पदों से हम देख सकते हैं कि, अंत के दिनों में, परमेश्वर न्याय के कार्य के चरण को करने के लिए एक बार फिर लौट आएंगे। परमेश्वर भरोसेमंद हैं। वे जो कहेंगे, वैसा ही होगा। जहाँ तक हमारी बात है, हमें परमेश्वर से जीवन के झरने तक जाने के लिए मार्गदर्शन माँगते हुए, तलाश और प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि हम सिंचन और पोषण प्राप्त कर सकें और अपने प्रभु के पदचिन्हों का अनुसरण कर सकें। मेरा मानना है कि जब तक हमारे पास ऐसा दिल है जो प्यासा है और तलाशता है, हम परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त करेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने हमसे वादा किया है, "माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा" (मत्ती 7:7)

परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उनका धन्यवाद। मुझे उम्मीद है कि प्रार्थना कैसे करनी है इसके संबंध में आज जो विषयवस्तु साझा की गई है, उससे सभी को फायदा होगा। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में प्रार्थना एक महत्वपूर्ण कदम है। ये वह मुख्य मार्ग भी है जिसके माध्यम से हम पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर सकते हैं। जब हम समझ जाते हैं कि प्रभु से उत्तर पाने के लिए प्रार्थना कैसे करनी है, जब हमारे पास अनुसरण करने के लिए एक व्यावहारिक मार्ग होता है और जब हम अक्सर इसका अभ्यास करते हैं, केवल तभी प्रभु हमारी प्रार्थना सुनेंगे। काश, हमारी प्रार्थना जल्द ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो जाये।

सारी महिमा परमेश्वर की हो!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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