मेरी सिफारिश का परिणाम
क्षीयंगशंग, अमेरिका पिछले साल, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। पहले तो लगा कि मुझमें बहुत कमी है, तो अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मैं...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मई 2024 में मैंने कलीसिया में धर्मोपदेश लिखने का प्रशिक्षण लिया। शुरू में मुझे कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ा, मुझे लगा कि सत्य की मेरी समझ उथली होने के कारण मेरा लेखन खराब था। मेरी सहयोगी बहन ने मेरे साथ संगति की और मुझे प्रोत्साहित किया और उसने मुझे कुछ अच्छे तरीके भी बताए। बाद में धर्मोपदेश लिखते समय मैंने संबंधित सत्यों को खोजा और उन पर विचार करते हुए लिखा और मैंने उसे जल्दी ही पूरा कर लिया। दो दिन बाद पर्यवेक्षक ने मुझे पत्र लिखा, दो दिन बाद, पर्यवेक्षक ने मुझे पत्र लिखा, कहा कि मेरा धर्मोपदेश चुन लिया गया है और मुझमें अच्छी काबिलियत और कुछ विचार हैं। जब मैंने पत्र पढ़ा तो मैं हैरान भी थी और खुश भी। जैसे ही मैंने धर्मोपदेश लिखने का प्रशिक्षण शुरू किया उन्हें पता चल गया कि मेरे पास विचार हैं। मेरे आस-पास की कुछ बहनों ने कई धर्मोपदेश लिखे थे, लेकिन मैंने किसी का भी धर्मोपदेश चुने जाने के बारे में नहीं सुना था, इसलिए मुझे लगा कि जरूर मैं बहुत ही खास हूँ और सबकी नजरों में मैं काबिलियत और विचारों वाली व्यक्ति थी। कुछ दिनों बाद मैंने गलती से वह पत्र पढ़ लिया जो पर्यवेक्षक ने अगुआओं को लिखा था। पत्र में लिखा था, “चियाओ शिन धर्मोपदेश लिखने में काफी सक्रिय है और वह विचारों और काबिलियत वाली व्यक्ति है और हम फिलहाल उस पर ध्यान देकर उसे विकसित कर रहे हैं।” भले ही यह बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन मुझे लगा कि मैं सबका ध्यान खींचने वाली बन गई हूँ और मैं आम लोगों से अलग हूँ। मैंने यह भी सोचा कि पिछले साल कैसे मैंने एक हफ्ते में कई लेख लिखे थे और जल्द ही पर्यवेक्षक की नजर मुझ पर पड़ गई थी। पर्यवेक्षक ने कहा कि मुझमें लिखने की प्रतिभा है और मुझे पाठ आधारित कर्तव्य सौंपा। अब धर्मोपदेश लिखने का प्रशिक्षण शुरू करने के तुरंत बाद, एक और पर्यवेक्षक की नजर मुझ पर पड़ गई थी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं जहाँ भी जाती हूँ, सबका ध्यान खींच सकती हूँ, मुझमें सचमुच काबिलियत और लिखने की प्रतिभा है!” इसके बाद मैंने खुद को “लिखने की विशेष प्रतिभा वाली” मान लिया और मुझे लगा कि मैं दूसरों से अलग हूँ। मैंने सोचा, “मुझे लगन से प्रशिक्षण लेना है और हर धर्मोपदेश को पिछले वाले से बेहतर बनाना है, ताकि मैं कम से कम समय में मानक स्तर के धर्मोपदेश लिख सकूँ और इस तरह हर कोई निश्चित रूप से मुझे और भी ऊँचा समझेगा और मुझे और भी ज्यादा स्वीकार करेगा।” बाद में मैं धर्मोपदेश लिखने में बहुत सक्रिय थी और मैंने एक के बाद एक दो धर्मोपदेश लिखे जो मैंने पर्यवेक्षक को सौंप दिए। पर्यवेक्षक अक्सर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए पत्र लिखता था और मैं समझ गई कि पर्यवेक्षक मेरी परवाह करता है और मुझे महत्व देता है। मैं मन ही मन बहुत खुश होती थी और आत्म-संतुष्टि की भावना में जीती थी।
कुछ ही समय बाद मुझे अपने लिखे धर्मोपदेश पर लिखित प्रतिक्रिया मिली। मैंने उसे खोला और सबसे पहले मैंने देखा कि बहुत सारे मुद्दों को चिह्नित किया गया था—संगति के कुछ हिस्से अस्पष्ट थे और कुछ विषय से भटक गए थे... मैं बहुत निराश हो गई और हताश महसूस करने लगी। मैंने सोचा, “तर्क के हिसाब से, चूँकि मुझमें लिखने की प्रतिभा है, इसलिए मेरे धर्मोपदेशों में हर बार सुधार होना चाहिए और मुझमें स्पष्ट प्रगति दिखनी चाहिए, तो फिर मैं पीछे क्यों चली गई हूँ? क्या ऐसी गलती किसी लेखन प्रतिभा वाले व्यक्ति को करनी चाहिए? अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं वे यह तो नहीं सोचेंगे कि उन्होंने मुझे गलत समझा और मुझमें आखिर इस तरह की काबिलियत नहीं है?” मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही ज्यादा नकारात्मक होती गई और मुझमें अगुआओं द्वारा उठाए गए मुद्दों पर विचार करने की हिम्मत नहीं रही। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था गलत है, इसलिए मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे और मैंने यह अंश देखा : “लोगों को स्वयं को बहुत पूर्ण, बहुत प्रतिष्ठित, बहुत कुलीन या दूसरों से बहुत भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से श्रेष्ठ नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना और परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक होने के कारण दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को बंधा हुआ महसूस कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम अपना कर्तव्य करना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के स्व-आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने मुद्दों पर अगुआओं का मार्गदर्शन इसलिए स्वीकार नहीं कर पा रही थी क्योंकि मैं घमंडी स्वभाव से नियंत्रित हो रही थी। मैं पूर्णता का अनुसरण कर दूसरों से अलग दिखने की कोशिश कर रही थी। जब मैंने दूसरों को यह कहते सुना कि मुझमें काबिलियत है और मेरे धर्मोपदेशों में मेरे अपने विचार हैं, तो मैं दंभी हो गई, और मैं खुद को कोई असाधारण व्यक्ति समझने लगी, बल्कि काबिलियत और एक विशेष प्रतिभा वाली व्यक्ति समझने लगी। मैं यह माँग करने लगी कि मेरे धर्मोपदेश दूसरों से बेहतर हों और मुझे लगा कि उनमें इतनी सारी समस्याएँ नहीं होनी चाहिए, क्योंकि तभी मैं लिखने की प्रतिभा वाली उपाधि के योग्य होती। इसलिए जब भी मुझे झटके लगते, मैं नकारात्मक हो जाती और खुद को ठीक से नहीं देख पाती थी। वास्तव में किसी के लिखे धर्मोपदेशों में मुद्दे होना बहुत सामान्य बात है और इस कर्तव्य को शुरू करते समय सब कुछ जानना, पूर्ण होना और कोई भी गलती न करना असंभव है। खुद से ऐसी माँगें करना अवास्तविक था। इसके अलावा, अगुआओं ने मेरी कमियों को खोजने, उन्हें दूर करना सीखने और आगे बढ़ने में मेरी मदद करने के लिए मेरी समस्याओं की ओर इशारा किया, लेकिन जब मुझे झटके लगे तो मैं नकारात्मक हो गई और अपनी कमियों का सामना नहीं कर सकी। मैं खुद को बहुत ऊँचा समझती थी और मैं सचमुच घमंडी थी! यह सोचने के बाद मैं अगुआओं का मार्गदर्शन और मदद स्वीकार करने को तैयार हो गई और इन विचलनों और गलतियों से बचने के लिए अपने धर्मोपदेश लिखते समय प्रासंगिक सत्यों को खोजने और उन पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित करने लगी।
उसके बाद मैंने अपना दिल शांत किया और प्रासंगिक सिद्धांतों का अध्ययन किया और मैं अपने अध्ययन के दौरान कुछ बातें समझ पाई। लेकिन जब असल में लिखने की बात आई तो मुझे अभी भी कुछ मुश्किलें हो रही थीं और मुझे लगा कि मानक स्तर का धर्मोपदेश लिखना आसान नहीं है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैंने पाया कि मेरे पास अभी भी कोई विचार नहीं हैं और मैं निराश होने लगी, मन ही मन सोचने लगी, “अगर मैं एक अच्छा धर्मोपदेश नहीं लिख पाई तो? अगुआ मुझे किस नजर से देखेंगे? कहीं वे यह तो नहीं कहेंगे, ‘पता चल गया कि चियाओ शिन की काबिलियत सचमुच खराब है और वह सिद्धांत भी नहीं समझ सकती’?” यह सोचकर मैं चिंतित हो गई और जब मैंने दोबारा अध्ययन किया, तो मेरा मन भटक गया और मुझे नींद आती रही। रात को जब मैंने सोने की कोशिश की तो मैं आहें भरे बिना नहीं रह सकी और मैं करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मैं सचमुच जल्दी से एक अच्छा धर्मोपदेश लिखना चाहती थी ताकि मैं उसे सबको दिखा सकूँ और इस तरह अपनी छवि सुधार सकूँ। लेकिन मैं उसे अच्छी तरह से लिखने के बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतना ही ज्यादा दबाव महसूस करती। अगली सुबह मैं उठी तो थकी हुई महसूस कर रही थी और मेरे सिर में दर्द होने लगा। मैंने दिन भर सोचा, लेकिन फिर भी मेरे मन में कोई विचार नहीं आया और ऐसा लगा जैसे कोई भारी पत्थर मुझ पर दबाव डाल रहा हो, जिससे साँस लेना मुश्किल हो रहा था। मेरी सहयोगी बहन मेरे साथ सिद्धांतों के बारे में अध्ययन करना चाहती थी, लेकिन मेरा मन नहीं था।
बाद में मैंने उसे पिछले कुछ दिनों की अपनी अवस्था के बारे में खुलकर बताया और उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का उपयोग करता है ताकि लोग और कुछ नहीं बस इन दो ही चीजों के बारे में सोचें। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते और भारी बोझ उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों पर अदृश्य बेड़ियाँ डाल देता है और इन बेड़ियों में बंधे रहकर, उनमें उन्हें तोड़ देने की न तो ताकत होती है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते रहते हैं और बड़ी ही कठिनाई से घिसटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर मानवजाति भटककर परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इस तरह, एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? शायद आज भी तुम शैतान की कुटिल मंशाओं की असलियत नहीं देख पाते, क्योंकि तुम्हें लगता है कि प्रसिद्धि और लाभ के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं होगा। और तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ ही त्याग देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, और उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और प्रकाशरहित हो जाएगा। परंतु धीरे-धीरे तुम सब लोग एक दिन समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ ऐसी भार-भरकम बेड़ियाँ हैं, जिन्हें शैतान मनुष्य पर डाल देता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का प्रतिरोध करोगे, जिन्हें शैतान तुम्हारे लिए लाता है। जब वह समय आएगा कि तुम उन सभी चीजों से खुद को मुक्त करना चाहोगे जिन्हें शैतान ने तुम्हारे मन में बैठा दिया है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे सच में नफरत करोगे जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी तुम्हारे अंदर परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प पैदा होगी” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, मेरा दिल अचानक रोशन हो गया। मुझे एहसास हुआ कि पिछले कुछ दिनों में मेरे दिल में जो घुटन की भावना थी, वह प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे से बाधित और बँधे होने के कारण थी। पहले तो पर्यवेक्षक ने कहा कि मेरे धर्मोपदेश में अच्छे विचार हैं और मैं आत्म-संतुष्ट हो गई, यह महसूस करते हुए कि मुझमें अच्छी काबिलियत और लिखने की एक विशेष प्रतिभा है और इसलिए मैंने दूसरों की स्वीकृति और प्रशंसा पाने की उम्मीद में धर्मोपदेश लिखने में और भी ज्यादा मेहनत की। हालाँकि जब मेरे लिखे दो धर्मोपदेशों में बहुत सारे मुद्दे बताए गए, तो मुझे चिंता होने लगी कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे और अब मुझे काबिलियत और प्रतिभा वाली व्यक्ति नहीं समझेंगे, इसलिए मैं अगुआओं द्वारा बताए गए मुद्दों पर शांत होकर विचार नहीं कर सकी, न ही मैंने अपनी कमियों को दूर करने के लिए सिद्धांतों का अध्ययन किया या सत्य खोजा। मैं तो बस अपनी छवि बहाल करने के लिए जल्दी से एक अच्छा धर्मोपदेश लिखना चाहती थी और नहीं चाहती थी कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखें। हालाँकि मैं जितनी ज्यादा व्याकुल होती गई, मेरे विचार उतने ही ज्यादा धुँधले होते गए और दिन भर काम करने के बाद भी, मैंने कोई प्रगति नहीं की। मुझे याद आया कि जब मैंने पहली बार धर्मोपदेश लिखना शुरू किया था, हालाँकि बहुत मुश्किलें थीं, मेरे पास परमेश्वर पर निर्भर रहने वाला एक शुद्ध दिल था, मैंने विचार करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों का सचमुच अध्ययन किया और उन्हें खोजा और परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध किया और मेरा मार्गदर्शन किया और इसलिए जब मैंने लिखा, तो मेरे पास कुछ विचार थे। लेकिन अब मैं सिर्फ अपने आत्म-सम्मान और रुतबे के बारे में सोचती थी और दूसरों की नजरों में एक अच्छी छवि बनाए रखने की कोशिश के मेरे विचारों ने मुझे खाने या सोने नहीं दिया, मुझे चक्कर और बेहोशी-सी महसूस होने लगी और इस वजह से मैं धर्मोपदेश लिखने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। मेरा दिल पूरी तरह से प्रसिद्धि और लाभ के नियंत्रण में था। अगर मैं इस अवस्था को न बदलती, तो मैं बस अँधेरे और असहनीय पीड़ा में जीती रहती और समय के साथ, मैं यह कर्तव्य खो देती। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करने की अवस्था में नहीं जीना चाहती, लेकिन मुझे नहीं पता कि इसे कैसे हल किया जाए। मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं इस गलत अवस्था से बाहर निकल सकूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकूँ।”
अगली सुबह बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सुनाए और एक अंश से मुझे बहुत मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हर कोई जानता है कि किसी व्यक्ति के लिए सिर्फ इसलिए खुद को ऊँचा समझना अच्छी बात नहीं है कि वह अपने कर्तव्य निर्वहन में कुछ नतीजे प्राप्त करने में सक्षम रहा है। तो फिर लोग फिर भी खुद को ऊँचा समझते रहते हैं? इसकी एक वजह लोगों का अहंकार और सतहीपन है। क्या अन्य कारण भी हैं? (एक कारण यह भी है कि लोगों को यह बोध नहीं होता कि परमेश्वर ही ये नतीजे हासिल कराने में उनकी अगुवाई करता है। वे सोचते हैं कि सारे श्रेय के हकदार वे खुद हैं, उनके पास साधन हैं, इसलिए वे अपने बारे में ऊँची राय रखते हैं। वास्तव में, परमेश्वर के कार्य के बिना लोग कुछ भी करने में असमर्थ हैं, लेकिन वे यह देख नहीं पाते।) यह कथन सही है, और यही इस मुद्दे में काफी महत्वपूर्ण भी है। अगर लोग परमेश्वर को नहीं जानेंगे और उन्हें प्रबुद्ध करने के लिए उनके पास पवित्र आत्मा नहीं होगी तो वे हमेशा खुद को कुछ भी करने में सक्षम समझेंगे। इसलिए यदि उनके पास साधन हैं, तो वे अहंकारी हो सकते हैं और अपने बारे में ऊँची राय रख सकते हैं। क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो, फिर भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यह क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो हम सोचते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को असीम रूप से बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं था, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव नहीं होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है? (यह हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) जब तुम मानते हो कि यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो तुम सही मनःस्थिति में होते हो, और तब तुम इसका श्रेय लेने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचोगे। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो, ‘यह मेरा योगदान है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? इस कार्य के लिए इंसान के सहयोग की जरूरत है; यह उपलब्धि मुख्य रूप से हमारे सहयोग की बदौलत होती है,’ तो तुम गलत हो। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर किसी ने तुम्हारे साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? तुम्हें पता ही नहीं होता कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, न ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग पता होता। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह ‘सहयोग’ केवल खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक स्तर का हो सकता है? बिल्कुल नहीं। यह समस्या के अस्तित्व को दर्शाता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, उसमें क्या वह परिणाम प्राप्त करता है, क्या मानक स्तर का अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर का अनुमोदन पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। भले ही तुम अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर दो, लेकिन अगर परमेश्वर कार्य न करे, अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध न करे और तुम्हारा मार्गदर्शन न करे, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंततः इसका क्या परिणाम होता है? लगातार परिश्रम करने के बाद, तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया होगा, न ही तुमने सत्य और जीवन प्राप्त किया होगा—यह सब व्यर्थ हो गया होगा। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य का मानक स्तर का होना, तुम्हारे भाई-बहनों को सुदृढ़ करना, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना, ये सब परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंततः प्रभावशाली ढंग से कर्तव्यों को निभाना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और अगुआई पर निर्भर करता है; केवल तभी तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग और उसके द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो। ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष हैं, अगर लोग यह नहीं देख पाते, तो वे अंधे हैं। परमेश्वर का घर चाहे किसी भी प्रकार का कार्य करे, नतीजा क्या होना चाहिए? इसका एक भाग परमेश्वर की गवाही देना और परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार होना चाहिए, जबकि इसका दूसरा भाग भाई-बहनों को सुदृढ़ कर लाभ पहुँचाना होना चाहिए। परमेश्वर के घर के कार्य को दोनों क्षेत्रों में नतीजे प्राप्त करने चाहिए। परमेश्वर के घर में तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, क्या तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना नतीजे प्राप्त कर सकते हो? कदापि नहीं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना तुम जो करते हो वह मूलतः व्यर्थ है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के स्व-आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं “लिखने की विशेष प्रतिभा वाली” होने का तमगा इसलिए नहीं उतार पा रही थी क्योंकि मैंने धर्मोपदेश लिखने की सारी प्रभावशीलता का श्रेय खुद को दिया था और मैंने सोचा कि ये नतीजे केवल मेरी अच्छी काबिलियत, विशेष प्रतिभा और कड़ी मेहनत के प्रयासों से ही मिले हैं। असल में, मुझे लिखने के दौरान बहुत संघर्ष करना पड़ा था और परमेश्वर से प्रार्थना करने, प्रासंगिक सत्यों पर विचार करने और परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाने से ही मुझे थोड़ी प्रेरणा मिली थी। हालाँकि बाद में जब दूसरों ने प्रशंसा और प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहे तो मैं दंभी हो गई, यह सोचते हुए कि यह सब मेरी अपनी उपलब्धि है और मैंने खुद पर “लिखने की विशेष प्रतिभा वाली” होने का तमगा भी लगा लिया और मैं यह देखने में नाकाम रही कि मैं वास्तव में क्या हूँ। वास्तव में कोई कर्तव्य अच्छी तरह से किया जा सकता है या नहीं, यह एक विशिष्ट तरीके से कर्तव्य के सिद्धांतों और प्रासंगिक सत्यों को समझने पर निर्भर करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाना। कई बार ऐसा होता है जब हमारे पास कोई विचार नहीं होते और परमेश्वर से प्रार्थना करने, उसका मार्गदर्शन खोजने और उसके वचनों पर मनन करने से, हम अनजाने में कुछ सत्यों को समझ जाते हैं और कुछ प्रकाश और विचार पाते हैं और तभी हमारे लिखे धर्मोपदेशों से अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। यह हमारी अपनी क्षमताओं के कारण नहीं है। मैंने सोचा कि पिछले कुछ दिनों से मैं कैसे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का अनुसरण करने की अवस्था में जी रही थी, परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाने में असमर्थ थी। भले ही मैंने लिखने में मेहनत की थी, लेकिन मेरा दिमाग एकदम खाली था, कोई विचार नहीं थे और मैं पूरी तरह से मूर्ख बन रही थी। मुझे सचमुच एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्यों में अच्छे नतीजे परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन से मिले थे और मेरे पास घमंड करने के लिए कुछ भी नहीं था। फिर भी मैंने बेशर्मी से खुद को बहुत ऊँचा समझा था, सारा श्रेय खुद को दिया था। यह सचमुच शर्मनाक था! मैंने अभी-अभी धर्मोपदेश लिखने का प्रशिक्षण शुरू किया था, इसलिए यह कहकर कि मेरे धर्मोपदेशों में विचार हैं, पर्यवेक्षक का इरादा मुझे प्रोत्साहित करना और मुझसे लगन से लिखवाना था। पर्यवेक्षक ने अगुआओं से कहा कि वे मुझ पर इसलिए ध्यान केंद्रित कर रहे हैं क्योंकि वे मुझे विकसित करना चाहते हैं और इसका कोई और मतलब नहीं है। कई बार जब मैं धर्मोपदेश लिख रही थी तो मैं साफ महसूस होता था कि सत्य की मेरी संगति स्पष्ट नहीं हैं और कभी-कभी मुझे मुख्य बातें समझने में संघर्ष करना पड़ता था। हालाँकि मैंने प्रासंगिक सिद्धांतों का अध्ययन किया था, लेकिन उन्हें व्यावहारिक रूप से लागू करते समय मुझमें अभी भी कमी थी और मुझे अभी भी दूसरों से सुधार और मदद की जरूरत थी। लेकिन मैं खुद को असाधारण समझती थी, मानो मैं हवा में तैर रही हूँ और मैं सचमुच अपनी सीमाओं से अनजान थी। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतना ही ज्यादा शर्मिंदा महसूस करती, अपना चेहरा छिपाना चाहती थी और मैं बस धरती में समा जाना चाहती थी। उस पल मैंने अपने ऊपर लगाए ऊँचे सम्मान के तमगे को अपने दिल से निकाल फेंका।
उसके बाद मैंने सोचा कि मैंने अभी-अभी धर्मोपदेश लिखने का प्रशिक्षण शुरू किया है और अभी भी कुछ सिद्धांत नहीं समझती हूँ, इसलिए मैंने बहनों के साथ अध्ययन किया और मैंने अपने लिखे दो समस्याग्रस्त धर्मोपदेशों को सबके विश्लेषण और चर्चा के लिए उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया। सबने सुझाव दिए और उसके बाद जब मैंने फिर से धर्मोपदेशों को संशोधित किया, जब भी मुझे कुछ समझ नहीं आता तो मैं अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करती और मैं खोजती और विचार करती और एक लेख को संशोधित करने के बाद, मैंने उसे आगे बढ़ा दिया। हालाँकि, दूसरे को संशोधित करते समय, मुझे कुछ कठिनाई हुई। मैं सत्य के बारे में स्पष्ट नहीं थी और थोड़ी परेशान महसूस कर रही थी। मुझे यह भी डर था कि सत्य की संगति स्पष्ट रूप से नहीं हो पाएगी और मैं सोच रही थी कि इसे जमा करने के बाद अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। कहीं वे यह तो नहीं कहेंगे कि मेरी काबिलियत अपर्याप्त है? मैंने भाई-बहनों से मदद माँगने की हिम्मत नहीं की, लेकिन मेरे पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं था और मैंने अपने दिल में बहुत दबाव महसूस किया। उस पल मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएँ तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग जमीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीजें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएँ और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उच्च नैतिकता और रुतबे के पीछे भागते हो; तुम हमेशा दूसरों से श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और उच्च नैतिकता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा तुम्हें अस्वीकार कर देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, व्यावहारिक तरीके से परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते हुए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाकर, ईमानदार इंसान बनकर और मानव के समान जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य के उचित निर्वहन के लिए सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची नहीं हैं और वह लोगों से बड़े नतीजे हासिल करने के लिए नहीं कहता। इसके बजाय, वह चाहता है कि लोग आज्ञाकारी हों और समर्पण करें और अगर लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार विनम्र रहकर अपना कर्तव्य ठीक से करते हैं, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लेकिन मैं हमेशा अलग दिखना चाहती थी और दूसरों की प्रशंसा और स्वीकृति पाने के लिए अच्छे धर्मोपदेश लिखना चाहती थी और यह महत्वाकांक्षा और इच्छा से नियंत्रित था। यह एक भ्रष्ट स्वभाव था। मुझे पहले प्रशासनिक आदेश का ख्याल आया जिसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पालन करना चाहिए, जिसमें कहा गया है: “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। लेकिन मैंने हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का अनुसरण किया, मैं दूसरों से प्रशंसा और सम्मान पाना और उनके दिलों में जगह बनाना चाहती थी। इससे परमेश्वर घृणा करता है। इस अवस्था में जीने से मेरे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना असंभव हो जाता है और यह काम में बाधा भी डाल सकता है। मुझे जल्दी से अपने गलत अनुसरण को बदलना था और दृढ़ तरीके से अपना कर्तव्य पूरा करना था। हालाँकि धर्मोपदेश लिखने में मुझमें अभी भी बहुत सी कमियाँ थीं, मैं सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने अपना दिल शांत करने और सहयोग करने की पूरी कोशिश करने को तैयार थी। मैं उतना ही लिखती जितना मैं समझती थी और मैं धर्मोपदेश लिखने में आने वाले हर मुद्दे को अपनी कमियों को दूर करने का एक अवसर मानती। मुझे विश्वास था कि इस तरह धीरे-धीरे प्रशिक्षण के माध्यम से, मैं निश्चित रूप से प्रगति करूँगी। जब मैंने यह सोचा तो मुझे लगा कि मेरी अवस्था काफी बेहतर हो गई है।
अगली बार जब मैंने धर्मोपदेश लिखे तो मैंने पहले वह लिखा जो मैं समझती थी और जो बातें मैं नहीं समझती थी, उनके लिए मैं खोजती और विचार करती या भाई-बहनों के साथ संवाद करती और एक बार जब मेरा दिल रोशन हो जाता तो मैं लिखती। इस तरह मेरे लिखे धर्मोपदेशों की प्रभावशीलता बहुत बेहतर हो गई। कुछ ही समय बाद अगुआओं ने हमें अध्ययन करने और उनसे सीखने के लिए कुछ अच्छे धर्मोपदेश भेजे। वे धर्मोपदेश न केवल नए और रोशन करने वाले थे, बल्कि बहुत मार्मिक भी थे और सत्यों की संगति वास्तव में व्यावहारिक और स्पष्ट थी। तुलना करने पर मुझे एहसास हुआ कि मेरे धर्मोपदेश सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से भरे हैं और सत्य की संगति स्पष्ट रूप से नहीं की गई है। उस पल मुझे एहसास हुआ कि मुझमें कितनी कमी है। भाई-बहनों की तुलना में मैं बहुत पीछे थी! लेकिन जब उन्होंने अपने विचारों और लाभों के बारे में लिखा तो उन्होंने न केवल घमंड नहीं किया, बल्कि कहा कि उनमें बहुत सी कमियाँ हैं और मानक स्तर का धर्मोपदेश लिख पाना उनकी अपनी काबिलियत के कारण नहीं था, न ही इसलिए कि सत्य की उनकी समझ स्पष्ट थी, बल्कि प्रार्थना, खोज और प्रासंगिक सत्यों पर विचार करने से पवित्र आत्मा का प्रबोधन पाने के माध्यम से था। यह देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने सोचा कि कैसे मैंने अभी-अभी धर्मोपदेश लिखना शुरू किया है और सिर्फ एक सतही समझ के साथ, मैंने सोचा कि मैं अच्छा कर रही हूँ और मैं औसत से ऊपर हूँ। मैंने तो अपने ऊपर लिखने की विशेष प्रतिभा होने का ऐसा तमगा लगा लिया था जिसे मैं उतार नहीं पा रही थी। मैं सचमुच खुद को बढ़ा-चढ़ाकर आँक रही थी और मुझमें कोई आत्म-जागरूकता नहीं थी!
अब धर्मोपदेश लिखते समय मैं अगुआओं के सुझावों को सही ढंग से ले पाती हूँ और अगर कुछ ऐसा है जो मैं नहीं समझती या नहीं कर सकती तो मैं खोजने की पहल कर सकती हूँ और मेरे धर्मोपदेशों की गुणवत्ता पहले की तुलना में सुधर गई है। मैं अपने दिल में जानती हूँ कि मैंने जो प्रगति की है, वह परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की बदौलत है। इस अनुभव के माध्यम से मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ हासिल की है और मैंने अपने जीवन प्रवेश में कुछ लाभ पाए हैं। मैंने यह भी देखा है कि सत्य की मेरी समझ सचमुच उथली है और मुझे सत्य सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। अगर यह प्रकाशन न होता तो मैं आत्म-संतुष्टि की अवस्था में जीती रहती और मैंने अपने कर्तव्य में कोई प्रगति नहीं की होती। इस असफलता और झटके ने मुझे बहुत लाभ पहुँचाया है और मैं तहे दिल से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ!
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