मुश्किलें मुझे अपने कर्तव्य से दूर नहीं रख सकतीं

24 जनवरी, 2022

यान पिंग, चीन

मुझे याद है, यह मेरे कलीसिया की अगुआ चुने जाने के ठीक बाद हुआ। उस दौरान, सीसीपी ने बड़े पैमाने पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के सदस्यों की गिरफ्तारी का एक नया दौर शुरू ही किया था। मैं थोड़ी चिंता हुई—क्योंकि हालात बहुत खराब थे, अगर मैं सभाओं के लिए हर दिन अलग-अलग जगह पर गई, तो हो सकता है पुलिस मुझे गिरफ्तार कर ले। अगर मैं गिरफ्तार हो गई, तो जरूर क्रूरता और यातना का शिकार हो जाऊंगी। मेरी सेहत हमेशा कमजोर रही है, मुझे कभी कोई कष्ट नहीं सहना पड़ा था, तो फिर मैं यातना कैसे सह सकूँगी? इन सबके बारे में सोचकर मैं डर गई और मैंने वह काम नहीं संभालना चाहा। लेकिन जब मैंने सोचा कि मेरे भाई-बहनों ने मुझे अगुआ के रूप में चुनकर, मुझमें अपना भरोसा दिखाया है, तो मैं सिर्फ डर के कारण, सौंपा गया यह काम स्वीकार न कर पाने को सही साबित नहीं कर पा रही थी। इसलिए मैंने चालाकी से जवाब दिया : "क्या मैं इस काम के लायक हूँ? मैंने पहले कभी अगुआ का पद नहीं संभाला, अगर कोई ऐसा मसला मेरे सामने आए, जिसे मैं सुलझा न पाऊँ, तो क्या मेरे कारण कलीसिया का कार्य पिछड़ नहीं जाएगा?" अगुआ ने संगति में, यह कहकर मुझे जवाब दिया, "हमें सौंपा गया काम हमारे लिए प्रशिक्षण का एक मिला मौका है। आप अपनी तरफ से पूरी कोशिश कीजिए।" अगुआ की संगति को सुनने के बाद, मैंने काम संभाल लिया। लेकिन जल्दी ही, अगुआ एक-के-बाद-एक संदेश भेजने लगी, पता चला मेरी सहकर्मी बहन ली, बहन वू और कुछ और सदस्यों को दूसरी कलीसियाओं के छह अगुआओं और सहकर्मियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया है, और हमसे कहा गया कि हम सब चौकस और सचेत रहें। मैं बुरी तरह डर गई, इतने सारे भाई-बहनों को कैसे गिरफ्तार कर लिया गया? मुझे एहसास हुआ कि कुछ दिन पहले ही मैं बहन ली से मिली थी, तो क्या पुलिस मेरी भी निगरानी कर रही थी? अगर ऐसा है, तो मेरे गिरफ्तार होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, क्योंकि हर जगह सुरक्षा कैमरे लगे हुए हैं। ऐसे माहौल में अपना कर्तव्य निभाना सचमुच खतरनाक था ... इस बारे में सोचकर, मैं बहुत डर जाती। मैं बहुत डरी हुई थी कि किसी दिन काम करते समय मुझे अचानक गिरफ्तार कर लिया जाएगा। देखने में तो लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मगर काम में मेरा दिल नहीं लग रहा था, मैंने कभी पलभर को भी नहीं सोचा कि अपना कर्तव्य बहुत अच्छे ढंग से कैसे निभाऊं। जब कभी भाई-बहन अपनी समस्याएँ लेकर मेरे पास आते, तो मैं उनकी मदद करने की मन:स्थिति में भी नहीं होती।

कुछ समय बाद, मुझे अगुआ से एक और संदेश मिला कि पुलिस गिरफ्तार भाई-बहनों से कह रही थी कि तस्वीरों के पुलिंदे में से कलीसिया के सदस्यों की पहचान करें, और यही नहीं, चौक और चौराहों पर नाकाबंदी करके लोगों के बैग जांच रही थी। उन्होंने हमें याद दिलाया कि हम जब कभी बाहर जाएं, तो बहुत सतर्क रहें। यह सुनकर, मैं और भी परेशान हो गई। लगा जैसे पुलिस ने भाई-बहनों के बारे में पहले ही बहुत-सी जानकारी इकट्ठा कर ली है। पिछली बार जब हम बहन ली से मिलने गईं, तो कहीं हमारी फोटो तो नहीं ले ली गई, अगर ऐसा कर लिया गया होगा, तो मुझे तस्वीरों में हर जगह देखकर पुलिस को यकीनन पता चल जाएगा कि मैं कलीसिया के कार्य की अगुआई कर रही हूँ। अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, तो पक्का मुझसे जबरन कुबूल करवा लेंगे! अपने स्कूटर पर सवार घर लौटते समय, मैं पूरे सफर में तनाव में थी—अगुआ के संदेश मुझे एक बहुत अंधियारी जगह में ले गए थे। हालांकि बाहर पहले ही अंधेरा हो चुका था, फिर भी मैंने अपना काला चश्मा उतारने की हिम्मत नहीं की। मैं सुरक्षा कैमरे में कैद होने का खतरा मोल लेकर पुलिस द्वारा किसी भी पल गिरफ्तार नहीं होना चाहती थी। उस पल, मेरे मन में एक स्वार्थी विचार कौंध गया। मैंने सोचा, "मैं अपने अगुआ से बातचीत कर लेती हूँ, और बड़ी बहन को अपना काम सौंप देती हूँ। वे पचास साल से ज्यादा उम्र की हैं—वे गिरफ्तार हो भी गईं, तो पुलिस उनके साथ यातना की चालें नहीं चलेगी।" लेकिन मुझे जल्द एहसास हो गया कि इस विचार में कितना स्वार्थ है। मैं पकड़े जाने और यातना दिए जाने से डरती थी, और मुझे लगता था कि हालात खतरनाक होंगे, इसलिए मैं काम बड़ी बहन को सौंप देना चाहती थी। मैं कितनी घिनौनी और नीच थी! लेकिन मुझे थोड़ा डर और घबराहट भी थी। मेरे मन में अक्सर भाई-बहनों को सताने और यातना देने की छवियाँ उभरतीं। मैं सोच-सोचकर और ज्यादा डरने लगी थी, और खुद से ही शिकायत करती : "वे क्यों चाहते हैं कि मैं ऐसा खतरनाक काम संभालूँ? अगर मैं गिरफ्तार हो गई तो क्या होगा? मेरी उम्र भी कम है, क्या मुझे बाकी का जीवन यातना सहते हुए जेल में ही बिताना होगा?" मैं बहुत ज्यादा घबराई और डरी हुई थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसे अपना हाल सुनाया : "हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर! मैं डरती हूँ कि मुझे गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाएगा और यातना दी जाएगी। अपना कर्तव्य निभाते हुए मेरा मन शांत नहीं रहता और मैं यह भी चाहती हूँ कि अपना काम किसी दूसरी बहन को सौंप दूँ, मैं हमेशा स्वार्थ से अपने देह-सुख के बारे में ही सोचती हूँ। मैं भयभीत और डरपोक होकर जीवन नहीं जीना चाहती। मैं शैतान से धोखा नहीं खाना चाहती। प्रिय परमेश्वर, मैं तुमसे विनती करती हूँ कि मुझे प्रकाशित करो, अपनी इच्छा समझने दो। मेरी यह भी विनती है कि मुझे शक्ति दो, ताकि परीक्षण के इन हालात में मैं डटकर खड़ी रह सकूँ।"

तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया, जिसका शीर्षक है, "प्रभु यीशु का अनुकरण करो।" "यरूशलम जाने के मार्ग पर यीशु बहुत संतप्त था, मानो उसके हृदय में कोई चाकू भोंक दिया गया हो, फिर भी उसमें अपने वचन से पीछे हटने की जरा-सी भी इच्छा नहीं थी; एक सामर्थ्यवान ताक़त उसे लगातार उस ओर बढ़ने के लिए बाध्य कर रही थी, जहाँ उसे सलीब पर चढ़ाया जाना था। अंततः उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया और वह मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा करते हुए पापमय देह के सदृश बन गया। वह मृत्यु एवं अधोलोक की बेड़ियों से मुक्त हो गया। उसके सामने नैतिकता, नरक एवं अधोलोक ने अपना सामर्थ्य खो दिया और उससे परास्त हो गए। वह तेंतीस वर्षों तक जीवित रहा, और इस पूरे समय उसने परमेश्वर के उस वक्त के कार्य के अनुसार परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए, कभी अपने व्यक्तिगत लाभ या नुकसान के बारे में विचार किए बिना और हमेशा परमपिता परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचते हुए, हमेशा अपना अधिकतम प्रयास किया। परमेश्वर के सामने उसकी सेवा के कारण, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप थी, परमेश्वर ने उसके कंधों पर समस्त मानवजाति के छुटकारे की भारी ज़िम्मेदारी डाल दी और उसे पूरा करने के लिए उसे आगे बढ़ा दिया, और वह इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के योग्य और उसका पात्र बन गया। जीवन भर उसने परमेश्वर के लिए अपरिमित कष्ट सहा, उसे शैतान द्वारा अनगिनत बार प्रलोभन दिया गया, किंतु वह कभी भी निरुत्साहित नहीं हुआ। परमेश्वर ने उसे इतना बड़ा कार्य इसलिए दिया, क्योंकि वह उस पर भरोसा करता था और उससे प्रेम करता था। यदि, यीशु के समान, तुम लोग परमेश्वर की ज़िम्मेदारी पर पूरा ध्यान देने में समर्थ हो, और अपनी देह की इच्छाओं से मुँह मोड़ सकते हो, तो परमेश्वर अपने महत्वपूर्ण कार्य तुम लोगों को सौंप देगा, ताकि तुम लोग परमेश्वर की सेवा करने की शर्तें पूरी कर सको। केवल ऐसी परिस्थितियों में ही तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम परमेश्वर की इच्छा और आदेश पूरे कर रहे हो, और केवल तभी तुम लोग यह कहने की हिम्मत कर सकोगे कि तुम सचमुच परमेश्वर की सेवा कर रहे हो" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। गाते समय इस भजन ने मेरे दिल को छू लिया। सूली पर चढ़ाए जाने की पीड़ा और कष्ट का सामना करके प्रभु यीशु ने अपने देह की कमजोरी के बावजूद पछतावे या पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया। बल्कि वह दृढ़ता से सूली की तरफ चला गया, पाप-बलि देने, सभी इंसानों को शैतान के चंगुल से छुटकारा दिलाने के लिए, बहुत कष्ट सहते हुए, इतना महान था इंसान के लिए परमेश्वर का प्रेम। और मैंने परमेश्वर के साथ कैसा बर्ताव किया? परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम करने के लिए, मैंने सिर्फ अपनी निजी सुरक्षा के बारे में सोचा, हमेशा गिरफ्तार होने, जेल में डाल दिए जाने, सताए और यातना दिए जाने से डरती रही। मैं डरपोक बनी डर में जीती रही, बस यूं ही काम करने का दिखावा करती रही, कभी भी उसका कोई सच्चा प्रभाव हासिल नहीं कर पाई। यह देखकर कि हालात कितने खतरनाक हैं, मैंने अपना काम एक बड़ी बहन के हवाले कर देने के बारे में भी सोचा। मैं कितनी स्वार्थी और घिनौनी थी! परीक्षण की उस घड़ी में, मैंने ज़रा भी नहीं सोचा कि परमेश्वर की गवाही देनी है और शैतान को नीचा दिखाना है। मैंने सिर्फ अपने देह-सुख के बारे में सोचा, सोचा कि कष्ट झेले बिना, त्याग किए बिना कैसे सुरक्षित रूप से अपना काम पूरा कर लूं, ताकि मुझे परमेश्वर का उद्धार, उसके आशीष और साथ ही उसके वचन की तमाम चीजें मिल सकें। मुश्किल का सामना होते ही, मैंने खुद की सुरक्षा के लिए अपना कर्तव्य छोड़ देना चाहा, परेश्वर से कुतर्क किया और उसके विरुद्ध विद्रोह भी, लेकिन यह एहसास होने पर कि परमेश्वर में अपनी आस्था के मेरे ये विचार सौदेबाजी के थे, मैं कुछ भी नहीं कह पाई। मैंने पतरस के बारे में सोचा, जिसने मुश्किलों के बीच परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण कर दिया था। उसने कभी अपनी खुशहाली की चिंता नहीं की, बल्कि परमेश्वर की इच्छा के प्रति खुद को समर्पित कर दिया, परमेश्वर के दिल को आराम पहुँचाया। आखिरकार, परमेश्वर की शानदार गवाही के रूप में उसे एक उल्टे सलीब पर चढ़ा दिया गया। पतरस के कामों से अपनी करतूतों की तुलनाकर मैंने शर्मिंदा और दोषी महसूस किया, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! इस स्थिति ने मेरी स्वार्थपरता और नीचता को उजागर कर दिया है। मैं जेल जाने और कष्ट सहने से डर रही थी, कभी भी यह नहीं सोचा कि तुम्हारी गवाही कैसे दूँ। हे परमेश्वर, मैं अब अपने निजी लाभ या नफा-नुकसान के बारे में चिंता नहीं करना चाहती। मैं सिर्फ तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। अगर मुझे सच में गिरफ्तार कर सताया गया, तो मैं समर्पण के लिए तैयार हूँ। मैं कसम खाती हूँ कि मैं यहूदा बनकर भाई-बहनों को धोखा नहीं दूँगी और तुम्हारी गवाही दूँगी।" प्रार्थना करके मुझे बहुत सुकून मिला, मैंने ठहराव महसूस किया।

उसी समय, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद किया : "संसार में घटित होने वाली समस्त चीजों में से ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसमें मेरी बात आखिरी न हो। क्या कोई ऐसी चीज है, जो मेरे हाथ में न हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 1)। यह सब अचानक कौंध गया। जाहिर है! मैं हर दिन सभाओं में भाग लूँ और अपना कर्तव्य निभाऊँ, तो भी परमेश्वर की स्वीकृति के बिना गिरफ्तार नहीं की जा सकती। अगर परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि मुझे सताए जाने और मुश्किलें झेलने का अनुभव करना होगा, तो फिर मैं सारा दिन अंदर छुपी रहूँ, तो भी गिरफ्तार कर ली जाऊँगी। सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है, इसलिए किसी भी स्थिति से मेरा सामना हो, मुझे बस स्वीकार करना होगा। मैं हमारी सुरक्षा रणनीतियों को अमल में लाने की भरसक कोशिश करूंगी, लेकिन जब गिरफ्तार होने की बात आएगी, तो मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के सामने समर्पण करने को तैयार हूँ। परमेश्वर के वचनों से मिली प्रबुद्धता और प्रकाशन से मुझे शक्ति और आस्था मिली, मुझे उसी समय मुक्त होने का अनुभव हुआ। उसके बाद से, जब भी मैं सभाओं के लिए बाहर गई, मैंने शांत और निडर महसूस करती। सीसीपी ने गिरफ्तारियों का अपना अंधाधुंध अभियान जारी रखा, लेकिन यह देखकर कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने मेरे भाई-बहनों में आस्था जगाई, उन्हें अपना काम जारी रखने दिया, मुझे गहरी प्रेरणा मिली, और मैं अपने काम पर ध्यान देकर त्याग कर पाई। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर मुझे रास्ता दिखा रहा है, और मैं अपने भाई-बहनों की समस्याओं और मसलों को सुलझा पायी। कलीसिया का कार्य भी सामान्य रूप से चल रहा था। इससे मैं समझ सकी कि शैतान चाहे जितना भी बर्बर और बेलगाम क्यों न हो, वह कभी भी परमेश्वर के कार्य में रुकावट पैदा नहीं कर सकता। परमेश्वर में मेरी आस्था और भी गहरी हो गई।

मुझे लगा इन सबका अनुभव करने के बाद, मैंने थोड़ा आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया होगा, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि जब परमेश्वर मेरे लिए एक नया आयोजन करेगा, तो मैं फिर एक बार पूरी तरह से उजागर हो जाऊँगी।

इसी जुलाई के महीने में मुझे अपने अगुआ का यह संदेश मिला, कि पिछले दो-तीन महीनों से पुलिस मेरे नियमित संपर्क की बहन लियू का पीछा कर रही है। पुलिस, बहन लियू के संपर्क के बीस के करीब भाई-बहनों की भी निगरानी कर रही थी, जिनमें मैं भी शामिल थी। पुलिस ने उन सभा-स्थलों के फोटो भी ले लिए थे जहां बहन लियू ने सभाओं में भाग लिया था। इस कारण से, मेरी अगुआ ने मुझे सलाह दी कि मैं भाई-बहनों के संपर्क में आने से बचूँ। यह पढ़कर, मैं बिल्कुल शांत नहीं रह पाई, मैंने सोचा : "मैं बहन लियू से अक्सर मिलती रहती हूँ, हाल ही में मैं उसके साथ काउंटी में बाइक सवारी पर भी जा चुकी हूँ। उस सड़क पर ऊपर से नीचे तक सुरक्षा कैमरे लगे हुए थे; अगर उन्होंने हमारी फुटेज देख ली, तो मैं भयंकर मुसीबत में फंस जाऊँगी। सीसीपी पहले से भी ज्यादा अंधाधुंध तरीके से ईसाइयों को गिरफ्तार कर सता रही है। इस संकटकाल में अगर मैं गिरफ्तार हो गई, तो कौन जाने पुलिस मुझे कैसी यातना देगी। कहीं वे मुझे पीट-पीट कर मार न डालें?" इस बारे में मैंने जितना ज्यादा सोचा, मैं उतनी ही ज्यादा डर गई, और खुद को शांत कर परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ पाई। जल्द ही, मुझे पता चला कि जिस किराए के घर में बहन लियू थी, वहां परमेश्वर के वचनों की किताबें रखी हैं। अगर उन्हें शीघ्र निकाला नहीं गया, तो पुलिस उन्हें खोज लेगी, और परमेश्वर के घर को नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन मैं दुविधा में थी : पुलिस ढूँढ़-ढूँढ़ कर विश्वासियों को गिरफ्तार करने के अंधाधुंध अभियान में लगी थी। अगर किताबें ले जाते समय मैं पुलिस के सामने पड़ गई, तो क्या उन्हें सारे प्रमाण नहीं मिल जाएंगे? उस हालत में, ऐसा हो ही नहीं सकता कि पूछताछ में यातना न दी जाए, और शायद मेरे लिए यह घातक भी साबित हो। इन सबके बारे में सोचकर, मैंने जाना नहीं चाहा। फिर मैंने यह भी सोचा कि अगर मैं नहीं गई, तो क्या मैं परमेश्वर के घर को नुकसान होते देखती रहूँ? कुछ समय तक मेरे मन में इन विचारों की उठापटक चली, लेकिन मैं अपना मन नहीं बना पाई।

अगले दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं। उनका परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं होता, परमेश्वर के प्रति भक्ति-भाव तो बिलकुल भी नहीं होता; जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो वे केवल अपनी रक्षा और बचाव करते हैं, वे केवल अपने बारे में सोचते हैं। उनके लिए अपने अस्तित्व और सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर के घर के कार्य को कितना नुकसान हुआ है—अगर वे अब भी जीवित हैं और उन्हें कुछ नहीं होता है, तो बस यही मायने रखता है। ऐसे लोगों का स्वभाव दुष्ट होता है, वे भाई-बहनों या परमेश्वर के घर के बारे में नहीं सोचते, वे केवल अपने बारे में सोचते हैं। वे मसीह-विरोधी हैं। तो जब ऐसी विपत्तियाँ उन लोगों पर आती हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं, तो वे उनसे कैसे निपटते हैं? (वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने, परमेश्वर के घर के चढ़ावों को नुकसान से बचाने का कोई उपाय सोचेंगे, और नुकसान कम करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं तथा भाई-बहनों के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ करेंगे। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी पहला काम अपनी रक्षा करने और परमेश्वर के घर के कार्य की उपेक्षा करने का करते हैं। और इसलिए, जब बड़ा लाल अजगर गिरफ्तारियाँ करता है, तो कलीसियाओं को होने वाला नुकसान बहुत ज्यादा गंभीर होता है।) मसीह-विरोधी जो कुछ करते हैं, वह परमेश्वर के घर के कार्य और चढ़ावों को बड़े लाल अजगर को समर्पित करने के समान है। वे इसे सुलझाने के लिए किसी को नहीं भेजते, बल्कि इसे अनदेखा करते हैं। यह प्रकारांतर से विश्वासघात हीहै। जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं, वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि इसमें जोखिम शामिल होते हैं, और वे परिणाम से निपटने के लिए उन जोखिमों को उठाने के लिए तैयार रहते हैं और वहाँ से हटने से पहले परमेश्वर के घर को होने वाले नुकसान को न्यूनतम रखते हैं। वे अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं देते। तुम लोग इसे क्या कहते हो : क्या लोग अपनी सुरक्षा की जरा-भी परवाह नहीं कर सकते? अपने परिवेश के खतरों से कौन वाकिफ नहीं होता? लेकिन तुम्हें अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए जोखिम उठाने चाहिए। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हें अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए। परमेश्वर के घर का कार्य और वह जो परमेश्वर तुम्हें सौंपता है, सबसे महत्वपूर्ण हैं, और उन्हें प्राथमिकता देना सभी चीजों से ऊपर है। मसीह-विरोधी अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं; उनका मानना है कि किसी और चीज का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। जब किसीदूसरे के साथ कुछ होता है, तो वे परवाह नहीं करते, चाहे वह कोई भी हो। जब तक खुद मसीह-विरोधी के साथ कुछ बुरा नहीं होता, तब तक वे आराम से बैठे रहते हैं। वे निष्ठारहित होते हैं, जो मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार से निर्धारित होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के वचनों का यह अंश ठीक निशाने पर है। एक मसीह-विरोधी का स्वभाव दुष्ट होता है, बहुत स्वार्थी और घिनौना होता है। जब उसकी निजी सुरक्षा की बात आती है, तो वह अपना नुकसान करने के बजाय परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान होने देगा। उसमें अंतरात्मा की आवाज या समझ जरा भी नहीं होती, न ही उसमें परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी भी वफादारी होती है। अपनी बात कहूँ, तो खतरे का सामना होने पर, मैं बस यही सोचती रहती कि खुद की रक्षा कैसे करूँ और खतरों से कैसे बचूँ। जब मैंने सुना कि परमेश्वर के वचनों की किताबें अभी भी घर में ही हैं, तो मैं साफ तौर पर समझ गई कि अगर मैंने उन्हें नहीं निकाला, तो पुलिस उन किताबों को जब्त कर लेगी, और परमेश्वर के घर को नुकसान पहुंचेगा। मुझे परमेश्वर के घर के हितों को आगे रखकर फौरन किताबें वहां से निकाल लेनी चाहिए थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने अपना चेहरा दिखाया, तो पुलिस मुझे गिरफ्तार करके सताएगी और यातना देगी, शायद मौत का खतरा भी हो, इसलिए मैं जाने को तैयार नहीं थी। क्या मैं परमेश्वर के वचनों की ये किताबें पुलिस के हवाले नहीं कर रही थी? हालात चाहे जो हों, मैं हमेशा पहले अपनी सुरक्षा पर ध्यान देती थी और परमेश्वर के घर के हितों का बहुत कम ध्यान रखती थी। मैं अपने काम में सुरक्षा पर ध्यान देती थी, लेकिन ऐसा करते समय मैं परमेश्वर के घर के हितों को धोखा दे रही थी। मैं कितनी अमानवीय थी! हालांकि शायद ऐसा न लगे कि मैं किसी मसीह-विरोधी जैसी पापी थी, फिर भी मेरा स्वभाव किसी मसीह-विरोधी से अलग नहीं था। मैं स्वार्थी और घिनौनी थी, और सिर्फ निजी हित के लिए ही काम करती थी। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो निश्चय ही मैं परमेश्वर के क्रोध की भागीदार बनूंगी, और ठुकरा दी जाऊँगी। जो लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं उसके प्रति वफादार होते हैं, वे निजी सुरक्षा पर ध्यान नहीं देते। अहम मुकामों पर, वे अपने निजी हितों को दरकिनार कर परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के साथ दिल और मन से एक हो जाते हैं। तभी मैं यह निश्चित रूप से जान पाई कि मुझे अपना शैतानी त्यागना होगा, और हालात चाहे जितने खतरनाक हों, कितनी भी मुसीबतें आएं, मुझे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए हर जोखिम मोल लेने को तैयार होना होगा। मैं परमेश्वर में आस्था रखने और नुकसान कम करने के लिए उन किताबों को निकालने को तैयार थी। इसके बाद, मेरी प्रार्थनाएं लगातार इस मसले के इर्द-गिर्द घूम रही थीं, मैंने परमेश्वर से यह भी विनती की कि मुझे आस्था दे और मुझे डर और कायरता से छुटकारा दिलाए। मैंने जख़्म नामक उस फिल्म को याद किया जो मैंने दो दिन पहले देखी थी। मुख्य किरदार को 13 वर्ष की छोटी उम्र से ही सीसीपी द्वारा गिरफ्तार कर सताया जा रहा था। 28 वर्ष की उम्र में उसे तीन बार गिरफ्तार किया गया और हर प्रकार की यातना दी गई। फिर भी हालात जितने भी दुखदायी और मुश्किल क्यों न हों, जब उसकी जिंदगी भी दांव पर लगी हो, तब भी उसने हर कदम पर डटे रहने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा किया, और आखिरकार उसने शैतान को हराकर गवाही दी। यही नहीं, जेल से रिहा होने के बाद भी, वह एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाती रही। मैंने उन भाई-बहनों के बारे में भी सोचा, जिन्हें सीसीपी ने गिरफ्तार कर सताया और जिनकी ब्रेनवाशिंग की, कैसे उन्होंने शैतान के दबाव और यातना से उबरने के लिए परमेश्वर के वचनों का प्रयोग किया। शैतान चाहे जितना भी दुष्ट और क्रूर क्यों न हो, अगर हम सच्चाई से परमेश्वर पर भरोसा करें, परमेश्वर के वचनों के दिखाए रास्ते पर चलें, तो हम शैतान को पछाड़कर गवाही दे सकते हैं। ये सब उत्साहजनक बातें थीं और इनसे मेरी आस्था का नवीकरण करने में मदद मिली—मैं अब उतना ज्यादा नहीं डर रही थी।

बाद में, मैंने आत्मचिंतन भी किया : ऐसे खतरनाक काम को स्वीकार करने को मैं इसलिए तैयार नहीं थी क्योंकि मुझे पुलिस की यातना का डर सता रहा था। मरना तो दूर की बात, मैं कष्ट भी नहीं झेलना चाहती थी। तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "परमेश्‍वर हमें राह दिखाता हुआ जिस मार्ग पर ले जाता है, वह कोई सीधा मार्ग नहीं है, बल्कि वह गड्ढों से भरी टेढ़ी-मेढ़ी सड़क है; इसके अतिरिक्त, परमेश्‍वर कहता है कि मार्ग जितना ही ज्‍़यादा पथरीला होगा, उतना ही ज्‍़यादा वह हमारे स्‍नेहिल हृदयों को प्रकट कर सकता है। लेकिन हममें से कोई भी ऐसा मार्ग उपलब्‍ध नहीं करा सकता। अपने अनुभव में, मैं बहुत-से पथरीले, जोखिम-भरे मार्गों पर चला हूँ और मैंने भीषण दुख झेले हैं; कभी-कभी मैं इतना शोकग्रस्‍त रहा हूँ कि मेरा मन रोने को करता था, लेकिन मैं इस मार्ग पर आज तक चलता आया हूँ। मेरा विश्‍वास है कि यही वह मार्ग है जो परमेश्‍वर ने दिखाया है, इसलिए मैं सारे कष्टों के संताप सहता हुआ आगे बढ़ता जाता हूँ। चूँकि यह परमेश्‍वर का विधान है, इसलिए इससे कौन बच सकता है? मैं किसी आशीष के लिए याचना नहीं करता; मैं तो सिर्फ़ इतनी याचना करता हूँ कि मैं उस मार्ग पर चलता रह सकूँ, जिस पर मुझे परमेश्‍वर की इच्‍छा के मुताबिक चलना अनिवार्य है। मैं दूसरों की नकल करते हुए उस मार्ग पर नहीं चलना चाहता, जिस पर वे चलते हैं; मैं तो सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि मैं आखिरी क्षण तक अपने निर्दिष्‍ट मार्ग पर चलने की अपनी निष्‍ठा का निर्वाह कर सकूँ। ... किसी व्‍यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्‍वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मार्ग... (6)')। मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर भी मनन किया : "क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा" (मत्ती 16:25)। तब मुझे एहसास हुआ कि जीवन और मृत्यु की ही तरह, हर इंसान की नियति भी परमेश्वर के हाथ में है। मैं गिरफ्तार होकर जेल में डाल दी जाऊंगी या नहीं, सताई जाऊंगी या नहीं, यह सब परमेश्वर के हाथ में है। मुझे पूरी तरह से समर्पण कर देना चाहिए। जैसे कि शैतान द्वारा अय्यूब के प्रलोभन की कहानी में है, अय्यूब की संपत्ति छीन ली गई, उसके बच्चों को मार डाला गया, और उसके पूरे शरीर पर भयानक फोड़े हो गए। परमेश्वर, शैतान को अय्यूब का जीवन लेने की अनुमति नहीं दे रहा था, इसलिए शैतान उसकी अवज्ञा करने की हिम्मत नहीं कर रहा था। यह परमेश्वर का अधिकार है। अय्यूब को परमेश्वर की प्रभुसत्ता का पता था, इसलिए भयानक कष्टों के चंगुल में फंसे होकर भी उसने परमेश्वर को दोष नहीं दिया, और यहाँ तक कहा : "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। अंत में, अय्यूब ने शैतान को पूरी तरह से शर्मिंदा कर दिया, और परमेश्वर से दोगुने आशीष कमाए। परमेश्वर ने अपना कार्य शुरू करने के बाद से, यह निर्धारित और नियोजित कर दिया है कि कौन अपनी आस्था के लिए मरेगा, किसे जेल में डाल दिया जाएगा, और हर इंसान को कैसे कष्ट झेलने होंगे, और हर मामले में, परमेश्वर के दयावान इरादे निहित होते हैं। अनुग्रह के युग में, बहुत-से संत प्रभु यीशु का सुसमाचार फैलाते हुए मर गए। उदाहरण के लिए पतरस को लें : ऐसा प्रतीत हुआ था कि उसे सूली पर चढ़ा दिया गया है, लेकिन उसका आत्मा स्वर्ग के राज्य में आरोहित हो गया, और उसे परमेश्वर की चिरस्थाई प्रशस्ति और आशीष हासिल हुआ। हमारे बहुत-से भाई-बहन, जिन्होंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया है, उन्हें सीसीपी ने गिरफ्तार कर तरह-तरह की यातना दी है, दुष्कर्म किए हैं, मगर उन्होंने शैतान के सामने घुटने नहीं टेके। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने सत्य का अनुसरण जारी रखा, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए खतरों से खेले, और उन्होंने परमेश्वर की बहुत-सी अद्भुत और शानदार गवाहियाँ दीं। ये सभी लोग विजेता हैं जिन्हें परमेश्वर ने पूर्ण किया है। उनके देह ने कष्ट सहे होंगे, लेकिन उन्होंने सत्य हासिल किया है और परमेश्वर की प्रशस्ति और आशीष पाए हैं। और फिर ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने गिरफ्तार होने के बाद सताए जाने और यातना के डर से, परमेश्वर और अपने भाई-बहनों को धोखा दिया और जो यहूदा की तरह शर्मसार किए गए। उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर अपमान किया और उन्हें स्थाई रूप से परमेश्वर के उद्धार से वंचित होना पड़ा। कुछ लोग जेल जाने से भी डरते हैं, इसलिए वे भयभीत और डरपोक बन कर जीते हैं, और अपना कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं करते। वे परमेश्वर से दूर हो जाते हैं, उसे धोखा देते हैं, और घास-फूस और अविश्वासी बन जाते हैं। दरअसल, सीसीपी की गिरफ्तारियों और यातना ने उजागर कर दिया है कि कौन सच्चे विश्वासी हैं और कौन झूठे, हरेक को उसकी किस्म के अनुसार अलग-अलग कर दिया गया है। इससे हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर कितना धार्मिक है! तब मैं समझ सकी कि परमेश्वर के घर की किताबें निकालने का काम, परमेश्वर का मेरे परीक्षण का तरीका था, यह देखने के लिए कि क्या मैं परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और वफादार हूँ और क्या मैं उसकी गवाही दूँगी। इसका एहसास होने के बाद, मैंने दिल लगाकर अपना कर्तव्य निभाने की ठान ली। अगर मैं सचमच गिरफ्तार हो गई, तो मैं परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने जीवन सहित, सबकुछ दाँव पर लगा दूँगी, भले ही मुझे अपनी जान देनी पड़े, मैं शैतान के सामने माथा नहीं टेकूंगी। मैंने दिल के भीतर तक शांति और ठहराव महसूस किया, मैंने परमेश्वर का, उसके उद्धार, प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिए अपने दिल की गहराई से धन्यवाद किया, जिनके कारण मैं इन मुश्किलों के दौरान कुछ सत्यों को समझ सकी थी, जिनसे मुझे एक ज्यादा व्यावहारिक सबक सीखने को मिला। अगली सुबह, सबसे पहले, मैंने उठकर परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि मुझे आस्था और साहस दे, और कहा कि मैं उसके मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ। उस दिन संयोग से बारिश हो रही थी; कोई भी बाहर नहीं था, इसलिए मैं मौक़ा देखकर उस घर में घुस गई, और अंदर से परमेश्वर के वचनों की सारी किताबें निकाल लाई।

उस अनुभव के बाद, मैं बहुत खुश और शांतचित्त थी। इन सबसे गुजरकर मैं प्रकाशित और पूर्ण हो गई थी। इसने उजागर कर दिया कि मैं कितनी स्वार्थी और इंसानियत से खाली थी, इसने मेरी आस्था और समर्पण को पूर्ण कर दिया। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण ही मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, प्रभुसत्ता और बुद्धिमत्ता की नई समझ मिली, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की अनुमति मिली। शायद मुझे आनेवाले हालात का अंदाजा न हो, लेकिन अब मैं उतनी कायर और डरपोक नहीं हूँ। मैं परमेश्वर की प्रभुसत्ता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाने के लिए तैयार हूँ। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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