प्रश्न 4: व्यवस्था के युग का कार्य करने के लिए परमेश्वर ने मूसा का उपयोग किया, तो अंतिम दिनों में परमेश्वर अपने न्याय के कार्य को करने के लिए लोगों का इस्तेमाल क्यों नहीं करता है, बल्कि इस कार्य को उसे खुद करने के लिए देह बनने की ज़रूरत क्यों है? और देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर जिन लोगों का उपयोग करते हैं, उनमें क्या ख़ास अंतर है?

उत्तर:

ऐसा क्यों है कि परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए देहधारण करने की ज़रूरत है, जिनको सत्‍य को जानने की तीव्र अभिलाषा है और जो परमेश्वर के प्रकटन की खोज करना चाहते हैं, उनको इस प्रश्‍न में अत्‍यधिक दिलचस्‍पी है। यह एक ऐसा सवाल भी है जिसका संबंध इस बात से है कि हमें स्वर्ग के राज्य में आरोहित किया जा सकता है या नहीं। इसलिए, सत्‍य के इस पहलू को समझना बहुत ज़रूरी है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर को अंत के दिनों में अपने न्याय के कार्य के लिए स्वयं देहधारण करना होगा, बजाय इसके कि वे अपना कार्य करने के लिए मनुष्य को इस्तेमाल करें? यह न्याय के कार्य के स्वभाव से तय होता है। क्योंकि न्याय का कार्य परमेश्वर द्वारा सत्‍य की अभिव्यक्ति है और यह मानवजाति को जीतने, शुद्ध करने और बचाने के लिए उनका जो धार्मिक स्वभाव है उसकी अभिव्यक्ति है।

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अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय का कार्य सत्‍य के बहुत से पक्षों की अभिव्‍यक्तियों ये युक्‍त है, जिसमें परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप को व्यक्त करना, सभी रहस्यों को उजागर करना, मनुष्य के परमेश्वर-विरोधी और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने वाले शैतानी स्वभाव का न्‍याय करना, मनुष्य की भ्रष्ट बातों और आचरण को प्रकट और स्पष्ट करना, और पूरी मानव जाति के लिए परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक सार और सरल स्वभाव को प्रकट करना शामिल है। जब परमेश्वर द्वारा चुने गए व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के अनुसार न्याय की प्रक्रिया से गुज़रते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे कि वे परमेश्वर के साथ आमने-सामने होते हैं, उनके द्वारा न्‍याय किए और उजागर किए जाते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य का न्‍याय करते हैं, तो वे हमें अपने धर्मी स्वभाव की अभिव्यक्ति को देखने देते हैं, मानो कि परमेश्वर के पवित्र अस्तित्व को देखा जा रहा हो, जैसे कि स्वर्ग से उतरती दिव्य रोशनी देखी जा रही है, और परमेश्वर के वचन को देखना एक तेज दो-धारी तलवार की तरह है जो हमारे दिल और आत्मा में उतरती जाती है, जिसकी वजह से हमें अवर्णनीय पीड़ा सहन करनी पड़ती है। सिर्फ इसी तरीके से हम अपने भ्रष्ट सार और अपने भ्रष्टाचार के सत्‍य को पहचान सकते हैं, इसी तरीके से हम गहरा अपमान महसूस कर, अपना चेहरा शर्म से छिपा कर, सच्चे पश्चाताप के साथ परमेश्वर के सामने दंडवत हो सकते हैं, और फिर हम सत्‍य को स्‍वीकार करने में सक्षम होंगे और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जियेंगे, अपने आपको पूरी तरह से शैतान के प्रभाव से मुक्त करेंगे, और परमेश्वर द्वारा बचाये और सिद्ध किये जायेंगे। मनुष्य के न्याय, शुद्धि और उद्धार जैसे कार्य सिर्फ देहधारी परमेश्वर के द्वारा निजी तौर पर पूरे किये जा सकते हैं।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के द्वारा न्याय का अनुभव करते हुए, हम सभी यह महसूस कर चुके हैं कि कैसे मनुष्यों द्वारा, परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिक स्वभाव को अपमानित नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के वचन का हर एक अक्षर उनकी महिमा और प्रचंड क्रोध से भरा है, प्रत्येक वचन हमारे दिलों में भीतर तक गहरी चोट करते हुए, हमारे परमेश्वर विरोधी और परमेश्वर से विश्वासघात करने वाले शैतानी स्वभाव को पूरी तरह से उजागर करता है, साथ ही यह हमारे दिलों के भीतर गहराई तक समाये भ्रष्ट स्वभाव के तत्वों को बाहर निकाल देता है जिन्हें हम स्वयं भी देख नहीं पाते हैं, जिससे हम यह पहचानने में सक्षम होते हैं कि कैसे हमारा स्वभाव और अस्तित्व अहंकार, स्व-धार्मिकता, स्वार्थ और विश्वासघात से भरा हुआ है, कैसे हम इन चीजों के अनुसार जीवन जीते हैं, जैसे कि जीवित शैतान मंडली पूरी धरती पर घूमती फिर रही है, जिसमें इंसानियत का लेशमात्र भी नामोनिशान नहीं है। परमेश्वर इसे घिनौना और निंदनीय पाते हैं। हम अफ़सोस के कारण अपमानित और ध्वस्त महसूस करते हैं। हम अपनी खुद की नीचता और बुराई देखते हैं और जानते हैं कि हम परमेश्वर के सामने रहने के लायक नहीं हैं, इसलिए हम दंडवत करते हुए, परमेश्वर द्वारा उद्धार पाने की चाह रखते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के द्वारा न्याय का अनुभव करने में, हम असल में परमेश्वर के प्रकटन के गवाह बनते हैं। हम देखते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता अदूषित है और उनकी धार्मिकता का अपमान नहीं किया जा सकता है। हम उन ईमानदार इरादों और सच्चे प्रेम को पहचानते हैं जिसके साथ परमेश्वर मानवजाति को बचाने का प्रयास करते हैं और शैतान के हाथों अपने भ्रष्टाचार के सत्‍य और वास्तविकता को समझते हैं। इस प्रकार, अपने दिलों में, हम परमेश्वर के प्रति सम्‍मान महसूस करने लगते हैं और खुशी से सत्य को स्वीकार करते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करते हैं। इस तरह, हमारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। आज जो परिवर्तन हमने प्राप्त किए हैं वह न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के देहधारण का नतीज़ा है। तो, केवल जब परमेश्वर का देहधारण सत्‍य को प्रकट करता है, न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के धर्मपरायण स्वभाव को और वह सब जो उनमें है और वे स्वयं हैं, को व्यक्त करता है, तभी हम सच्ची रोशनी और परमेश्‍वर के प्रकटन को देख पाते हैं, और हमें परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होने लगता है। सिर्फ इसी तरीके से हम देख सकते हैं कि केवल परमेश्वर ही हमें बचा और शुद्ध कर सकते हैं। मसीह के अलावा, कोई भी व्यक्ति अंत के दिनों में न्याय का कार्य नहीं कर सकता।

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अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय का कार्य सत्‍य, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव, मनुष्य को जीतने, शुद्ध करने और सिद्ध करने के लिए परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि के जरिये किया जाना चाहिए। अंत के दिनों में परमेश्वर न्याय का यह कार्य करने के लिए स्वयं प्रकट होंगे। यह कार्य एक युग के शुरू होने के और दूसरे के खत्म होने को दर्शाता है। यह कार्य परमेश्वर के देहधारण द्वारा ही किया जाना चाहिए, उनके स्‍थान पर कोई भी मनुष्य इसे पूरा नहीं कर सकता है। ऐसा क्यों है कि ज़्यादातर लोग इस बात पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर को स्वयं देहधारण कर अपना कार्य करने के बजाय, अपने हर कार्य के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना चाहिए? यह अविश्वसनीय है! क्या मानवजाति वास्तव में परमेश्वर के आगमन का स्वागत करती है? ऐसा क्यों है कि हर बार बहुत से लोग यह सोचते हैं कि परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करेंगे? इसका कारण यह है कि मनुष्य अपनी अवधारणाओं के अनुसार काम करते हैं, वे ठीक वैसे ही काम करते हैं जैसा उनके विचार में काम किया जाना चाहिए। इसलिए ज़्यादातर लग आसानी से एक मनुष्य की पूजा करते हैं, उसे एक ऊँचा दर्जा देकर उसकी बातों का पालन करते हैं। लेकिन परमेश्वर के कार्य करने का तरीका कभी भी मनुष्य की सोच और कल्पना के अनुरूप नहीं होता, वे कोई भी काम उस तरह नहीं करते जैसे मनुष्य को लगता है कि करना चाहिए। इसलिए हमें परमेश्वर के साथ तालमेल बैठाने में परेशानी होती है। परमेश्वर का सार सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर का स्वभाव पवित्र, धार्मिक और उसका अपमान नहीं किया जा सकता है। हालांकि, भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और वह शैतानी स्वभाव से भरा है; उनका परमेश्वर के साथ तालमेल बिठाना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए, हमें परमेश्वर के देहधारण के कार्य को स्वीकार करना मुश्किल लगता है, हम अध्ययन और पालन करने के लिए तैयार नहीं होते हैं, इसके बजाय हम मनुष्य की पूजा करते हैं और उसके काम में आँखें मूंदकर विश्वास करते हैं, उसे इस तरह स्वीकार करने और पालन करने लगते हैं जैसे कि यह परमेश्वर का कार्य हो। यहाँ समस्या क्या है? आप कह सकते हैं कि मनुष्य को इस बात का ज़रा सा भी अंदाजा नहीं है कि परमेश्वर पर विश्वास करने और उनके कार्यों को समझने का क्या मतलब है, इसलिए, अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य देहधारण द्वारा सत्य की अभिव्यक्ति के माध्यम से किया जाना चाहिए ताकि भ्रष्ट मनुष्‍यजाति की सभी समस्याओं का समाधान किया जा सके। जहां तक कुछ लोगों के सवाल का संबंध है कि आखिर परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल क्यों नहीं करते, क्या इसके जवाब की अभी भी आवश्यकता है? मनुष्य का सार मनुष्य ही है, मनुष्य में दिव्य सार नहीं होता है, इसलिए मनुष्य सत्‍य व्यक्त करने, परमेश्वर के स्वभाव को व्यक्त करने, वह सब जो परमेश्वर में है और उनका अस्तित्‍व, उसे व्यक्त करने में अक्षम है, और वह मनुष्य जाति के उद्धार का कार्य नहीं कर सकता। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि हम सभी मनुष्यों को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, और हमारे स्‍वभाव पापी हैं, ऐसे में हमारे पास दूसरे मनुष्यों का न्‍याय करने की क्या योग्यता है? क्योंकि बुरा और भ्रष्ट मनुष्य अपने आपको ही शुद्ध करने और बचाने में अक्षम है, तो वह दूसरों को शुद्ध करने और बचाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है? भ्रष्ट मनुष्य को सिर्फ अपमान मिलेगा क्योंकि अन्य लोग उनके न्याय को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होंगे। सिर्फ परमेश्वर ही धर्मी और पवित्र हैं, और सिर्फ परमेश्वर ही सत्य, मार्ग, और जीवन हैं। इसलिए, अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य निश्चय ही उनके देहधारण द्वारा पूरा किया जाएगा। यह हकीकत है कि कोई भी मनुष्य ऐसे कार्य के लिए योग्य नहीं है।

अब, परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपना कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल क्यों किया? ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यवस्था के युग के कार्य और अंत के दिनों के न्याय के कार्य अलग-अलग प्रकृति के हैं। व्यवस्था के युग में, मनुष्य जाति भी नवजात थी, मनुष्य को शैतान के द्वारा बहुत कम भ्रष्ट किया गया था। यहोवा परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से व्‍यवस्‍था और आज्ञाओं को लागू करना था जिसका उद्देश्य प्रारंभिक मनुष्य को एक मार्गदर्शन देना था कि वह पृथ्वी पर कैसे जिये। कार्य के इस चरण का उद्देश्य मनुष्य के स्वभाव को बदलना नहीं था, इसके लिए अधिक सत्‍य व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं थी। परमेश्वर को सिर्फ इस्त्राएलियों के लिए निर्धारित व्यवस्था को समझाने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करने की जरूरत थी, ताकि इस्त्राएलियों को पता चल सके कि व्यवस्था का पालन कैसे करना चाहिए, यहोवा परमेश्वर की उपासना कैसे करनी चाहिए, और पृथ्वी पर एक साधारण ज़िंदगी कैसे जीनी चाहिए। ऐसा करने पर, कार्य का वह चरण पूरा हो गया था। इसलिए, व्यवस्था के युग का कार्य करने के लिए परमेश्वर ने मूसा का इस्तेमाल किया, उन्हें निजी तौर पर कार्य पूरा करने के लिए देहधारण करने की ज़रूरत नहीं थी। इसके विपरीत, अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का उद्देश्य मानव जाति को बचाना है, जिसे शैतान ने पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को जारी करना और कुछ नियमों का प्रचार करना इस मामले में पर्याप्त नहीं होगा। काफी मात्रा में सत्‍य की अभिव्‍यक्ति होनी चाहिए। परमेश्वर का निहित स्वभाव, वह सब जो परमेश्वर में है और वे स्वयं हैं, उसे पूरी तरह से व्यक्त किया जाना चाहिए, सत्य, मार्ग, और जीवन को पूरी मानवजाति के लिए खोल दिया जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि परमेश्वर स्वयं मानव जाति के आमने-सामने आकर इन बातों को उजागर कर रहे हैं, जिससे कि वे सत्य को समझ सके और परमेश्वर को जान सके, और ऐसा करने में, वे पूरी तरह से मानव जाति को शुद्ध करते, बचाते और सिद्ध करते हैं। परमेश्वर को यह कार्य, निजी तौर पर देहधारण लेकर करना होता है, उनके अलावा कोई भी मनुष्य यह कार्य नहीं कर सकता। परमेश्वर अपने वचन के कुछ अंशों को जारी करने के लिए पैगंबरों का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन परमेश्वर पैगंबरों को परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, वह सब जो उनमें है और वे स्वयं हैं, को व्यक्त करने या संपूर्ण सत्य को व्यक्त करने की अनुमति नहीं देते, क्योंकि भ्रष्ट मानवजाति ऐसा करने के लायक नहीं है। अगर परमेश्वर ने अपने संपूर्ण स्वभाव और सत्य को व्यक्त करने के लिए मनुष्‍य का इस्तेमाल किया तो वे संभवत: परमेश्वर को अपमानित कर देंगे, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है, वह अपनी खुद की अवधारणाओं और विचारों को धोखा दे सकता है, उसके कार्यों में अशुद्धियां होंगी, जो आसानी से परमेश्वर को अपमानित करेगा और परमेश्वर के कार्य की समग्र प्रभावशीलता को प्रभावित करेगा। इसके अलावा, हम वह सब जो परमेश्वर के पास है और उनमें है, इसके लिए उसके पास जो कुछ है और वह जो है उसे लेने को तत्पर रहता है, जो सत्य के लिए उनके कार्य में मनुष्य की अशुद्धियों को समाहित कर देता है। इससे एक गलतफहमी पैदा होती है और परमेश्वर का अपमान होता है। साथ ही, अगर परमेश्वर को अपने संपूर्ण स्वभाव और सत्य को व्यक्त करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना होता, तो मनुष्य की अशुद्धियों के कारण, हम इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते और उनका विरोध भी कर सकते थे। परमेश्वर के साथ हमारे असंतोष की ज्वाला को हवा देते हुए, विद्रोह को भड़काते हुए, और हमें अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए उकसाते हुए फिर शैतान दोष निकालता और आरोप लगाने लगता। यह मनुष्य द्वारा परमेश्वर का कार्य किए जाने का अंतिम परिणाम है। ख़ास तौर पर, अंत के दिनों में अत्यधिक भ्रष्ट मनुष्‍य के परमेश्वर द्वारा उद्धार किये जाने के मामले में, मनुष्यगण परमेश्वर के देहधारी के कार्य को स्वीकार करने और उनका पालन करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते है। इसलिए अगर परमेश्वर ने इस कार्य को करने के लिए मनुष्यों का इस्तेमाल किया होता, तो लोगों द्वारा इसे स्वीकार करने और इसका पालन करने की संभावना बहुत कम होगी। क्या ये सीधे-सादे तथ्य नहीं हैं? धार्मिक जगत के एल्डर और पादरियों को देखें, क्या परमेश्वर के देहधारण के कार्य के प्रति उनका विरोध और निंदा उस विरोध से अलग है, जैसा विरोध यहूदी मुख्य पादरियों और फरीसियों ने पहले प्रभु यीशु का किया था? परमेश्वर द्वारा भ्रष्ट मनुष्य जाति का उद्धार आसान काम नहीं है। हमें यह समझना होगा कि परमेश्वर कैसे सोचते हैं!

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देहधारण के जरिये अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य सही मायनों में सार्थक है। परमेश्वर अंत के दिनों में पृथ्वी पर देहधारण कर मनुष्यों के बीच रहते हुए मनुष्य जाति के लिए अपने वचनों को प्रकट करते हैं, उन्होंने अपनेखुद के स्वभाव और स्वरूप के बारे में जनता को बताया। परमेश्वर किससे प्रेम करते हैं और परमेश्वर किससे नफ़रत करते हैं, परमेश्वर का क्रोध किसकी ओर निर्देशित होता हैं, किसे वे सज़ा देते हैं, उनकी भावनात्मक स्थिति, मनुष्यों से उनकी मांग, मनुष्यों के लिए उनके इरादे, जीवन, मूल्यों आदि पर मनुष्य का आदर्श दृष्टिकोण, वे इन सारी बातों की जानकारी हमें देते हैं, हमें जीवन में स्पष्ट लक्ष्य रखने की अनुमति देते हैं ताकि हमें बिना किसी उद्देश्य के अनिश्चित धार्मिक खोज में जाने की जरूरत ना पड़े। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "देहधारी परमेश्वर उस युग का अंत करता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मनुष्यजाति को दिखाई देती थी, और साथ ही वह अज्ञात परमेश्वर में मनुष्यजाति के विश्वास करने के युग को भी समाप्त करता है।" जो लोग भी अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्यों और वचनों से होकर गुज़रे हैं, उन सभी का एकसमान अनुभव है: भले ही हम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुज़र चुके हैं, सभी तरह के परीक्षणों और शुद्धिकरणों का सामना किया है, और बड़े लाल अजगर के क्रूर, वहशी यातनाओं और उत्पीड़नों की पीड़ा को काफी हद तक सहन किया है, हमने परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को अपने पर आते देखा है, हमने परमेश्वर की महिमा और क्रोध तथा उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को जाना है, हमने उस स्वरूप को देखा है जो परमेश्वर में है और जो वे स्वयं हैं, जैसे कि हम स्वयं परमेश्वर को देख रहे हों। हालांकि हमने परमेश्वर के अध्यात्मिक शरीर को नहीं देखा है, परमेश्वर का अंतर्निहित स्वभाव, उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्‍ता, और वह सब जो उनके पास है और वे स्वयं हैं, उसे पूरी तरह से हमारे बीच प्रकट किया जा चुका है, जैसे कि परमेश्वर हमारे पास, हमारे आमने-सामने आए हों, जिससे हम सही मायनों में परमेश्वर को जान पाएं और हमारे पास एक ऐसा हृदय हो जो परमेश्वर का भय मानता हो, ताकि हम मृत्यु तक हमारे लिए परमेश्वर की योजनाओं का पालन कर सकें। हम सभी को महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन और कार्य में हम एक व्यावहारिक और वास्तविक तरीके से परमेश्वर को देखते हैं और जानते हैं, हमने सभी अवधारणाओं और भ्रमों को पूरी तरह से दूर कर दिया है और हम वास्तव में परमेश्वर को जानने वाले बन गए हैं। इससे पहले, हम परमेश्वर के स्वभाव को प्रेम करने वाला और दयालु समझते थे, हमारा मानना था कि परमेश्वर में विश्वास करने से मनुष्यों को सभी पापों से क्षमा और मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचनों का अध्ययन करने के बाद, हम यह अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि परमेश्वर का स्वभाव न सिर्फ दयालु और प्रेम करने वाला है, बल्कि यह धर्मी, प्रतापी और क्रोधी भी है। जो कोई भी उनके स्वभाव को ठेस पहुंचाएगा उसे दंडित किया जाएगा। इसलिए, हमें परमेश्वर का आदर करना चाहिए, सत्‍य को अपनाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य को अनुभव करके, हम सब असल में और व्यावहारिक रूप से समझ चुके हैं कि परमेश्वर का स्वभाव पवित्र, धार्मिक है और उसका अपमान नहीं किया जा सकता है, हम परमेश्वर की दया और प्रेम को समझ चुके हैं, सच्चे रूप से परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की प्रशंसा करने योग्य हो गए हैं, हम यह जान चुकें हैं कि कैसे परमेश्वर ने खुद को विनम्रतापूर्वक छिपाता है, हमने उनके ईमानदार इरादों, बहुत सारे प्रेम योग्‍य गुणों को जाना है, उनकी भावनात्मक स्थिति, उनकी विश्वसनीयता, उनकी सुंदरता और अच्छाई को समझा है, उनके अधिकार, संप्रभुता, उनके द्वारा हर चीज की जांच-पड़ताल आदि को महसूस किया है। परमेश्वर का स्वरूप हमारे सामने प्रकट हुआ है, मानो कि हम स्वयं परमेश्वर को देख रहे हैं, जो हमें उनको आमने-सामने जानने का मौक़ा देता है। अब हम हमारी अवधारणाओं और विचारों के आधार पर परमेश्वर पर विश्वास और उनका अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर के लिए सच्चा सम्मान और श्रद्धा महसूस करते हैं, और सही मायनों में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं और उन पर भरोसा करते हैं। हमने यह जान लिया है कि अगर परमेश्वर ने सत्य को व्यक्त करने और न्याय का कार्य करने के लिए निजी तौर पर देहधारण नहीं किया होता, तो हम परमेश्वर को कभी भी नहीं जान पाते, और अपने आपको पापों से मुक्त करने और शुद्धता प्राप्त करने में अक्षम होते। तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप इसे कैसे देखते हैं, अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य स्वयं देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, उनके बजाय कोई भी यह कार्य नहीं कर सकता। मनुष्य की अवधारणाओं और भ्रांतियों को देखते हुए, अगर परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना होता, तो वे वांछित प्रभाव प्राप्त कर पाने में सक्षम नहीं होते।

—राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर

पिछला: प्रश्न 3: परमेश्वर ने अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य का पुत्र बनकर देहधारण क्यों किया है? पुनर्जीवित हुए प्रभु यीशु के आध्यात्मिक शरीर और देहधारी “मनुष्य के पुत्र” के बीच असली अंतर क्या है? यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे हम नहीं समझ पाते हैं—कृपया इसके बारे में सहभागिता करें।

अगला: प्रश्न 5: ऐसा क्यों कहा जाता है कि भ्रष्ट मानवजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा बचाया जाना चाहिये? यह ऐसी बात है जिसे ज़्यादातर लोग नहीं समझते—कृपया इसके बारे में सहभागिता करें।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

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