3. देहधारी परमेश्वर के कार्य और पवित्रात्मा के कार्य के बीच का अंतर
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बचाने का कार्य सीधे आत्मा की पद्धति और आत्मा की पहचान का उपयोग करके नहीं किया जाता, क्योंकि उसके आत्मा को मनुष्य द्वारा न तो छुआ जा सकता है, न देखा जा सकता है और न ही मनुष्य उसके निकट जा सकता है। यदि उसने सीधे तौर पर आत्मा के परिप्रेक्ष्य का तरीका इस्तेमाल कर मनुष्य को बचाने का प्रयास किया तो मनुष्य उसके उद्धार को प्राप्त करने में असमर्थ होगा। यदि परमेश्वर एक सृजित मनुष्य का बाहरी रूप धारण न करे तो मनुष्य के लिए इस उद्धार को प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं होगा। क्योंकि मनुष्य के पास उस तक पहुँचने का कतई कोई तरीका नहीं है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे कोई मनुष्य यहोवा के बादल के पास नहीं जा सकता था। केवल एक सृजित मनुष्य बनकर अर्थात् परमेश्वर जो देह बनने वाला है उस देह में अपने वचन को रखकर ही वह व्यक्तिगत रूप से वचन को उन सभी लोगों में ढाल सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं। केवल तभी मनुष्य व्यक्तिगत रूप से उसके वचन को सुन और देख सकता है और उसके वचन को प्राप्त भी कर सकता है और इसके माध्यम से पूरी तरह से बचाया जा सकता है। यदि परमेश्वर देह धारण न करे तो देह और रक्त से युक्त कोई भी मनुष्य ऐसे बड़े उद्धार को प्राप्त नहीं कर पाएगा, न ही एक भी मनुष्य बचाया जाएगा। यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों के बीच सीधे तौर पर काम करेगा तो पूरी मानवजाति मारी जाएगी या फिर परमेश्वर के संपर्क में आने का कोई उपाय न होने के कारण वह शैतान द्वारा पूरी तरह से बंदी बना ली जाएगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)
परमेश्वर अंत के दिनों में कार्य के एक नए चरण में प्रवेश करता है। वह अपने स्वभाव को और अधिक प्रकट करेगा, और वह यीशु के समय की दया और प्रेम नहीं होगा। चूँकि उसके हाथ में नया कार्य है, इसलिए इस नए कार्य के साथ एक नया स्वभाव होगा। इसलिए, यदि यह कार्य पवित्रात्मा द्वारा किया जाता—यदि परमेश्वर देहधारी न बनता, और इसके बजाय पवित्रात्मा ने गड़गड़ाहट के माध्यम से सीधे बात की होती, जिससे मनुष्य के पास उससे संपर्क करने का कोई उपाय न होता, तो क्या मनुष्य उसके स्वभाव को जान पाता? यदि केवल पवित्रात्मा ने कार्य किया होता, तो मनुष्य के पास परमेश्वर के स्वभाव को जान सकने का कोई तरीका न होता। लोग परमेश्वर के स्वभाव को अपनी आँखों से केवल तभी देख सकते हैं, जब वह देहधारी बनता है, जब वचन देह में प्रकट होता है, और वह अपना संपूर्ण स्वभाव देह के माध्यम से व्यक्त करता है। परमेश्वर वास्तव में और सच में मनुष्यों के बीच रहता है। वह मूर्त है; मनुष्य वास्तव में उसके स्वभाव के साथ जुड़ सकता है, उसके स्वरूप के साथ जुड़ सकता है; केवल इसी तरह से मनुष्य वास्तव में उसे जान सकता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)
देह के कार्य में काफी कठिनाइयाँ अपरिहार्य हैं, देह वही पहचान धारण नहीं कर सकता जो पवित्रात्मा की होती है, वह आत्मा की तरह अलौकिक कार्य नहीं कर सकता, उसमें आत्मा के समान अधिकार होने का तो सवाल ही नहीं। फिर भी इस मामूली देह के द्वारा किए गए कार्य का सार पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए कार्य से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, और यह स्वयं देह ही है जो समस्त मानवजाति की आवश्यकताओं का उत्तर है। क्योंकि जिन्हें बचाया जाना है उनके लिए, पवित्रात्मा का उपयोगिता मूल्य देह की अपेक्षा कहीं अधिक निम्न है : पवित्रात्मा का कार्य संपूर्ण विश्व, सारे पहाड़ों, नदियों, झीलों और महासागरों को समाविष्ट करने में सक्षम है, मगर देह का कार्य और अधिक प्रभावकारी ढंग से प्रत्येक ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जिसके साथ वो सम्पर्क में आता है। इसके अलावा, स्पर्श-गम्य रूप वाली परमेश्वर की देह को मनुष्य के द्वारा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है और उस पर भरोसा किया जा सकता है, और यह परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान को और गहरा कर सकती है, तथा मनुष्य पर परमेश्वर के व्यावहारिक कर्मों की और अधिक गहन छाप छोड़ सकती है। आत्मा का कार्य रहस्य से ढका हुआ है; इसकी भविष्यवाणी कर पाना नश्वर प्राणियों के लिए कठिन है, उनके लिए उसे देख पाना तो और भी मुश्किल है। इसलिए वे मात्र आधारहीन कल्पनाओं पर ही भरोसा कर सकते हैं। लेकिन देह का कार्य सामान्य और व्यावहारिक है, उसकी बुद्धि कुशाग्र है, और एक ऐसी सच्चाई है जिसे नश्वर इंसान की आँखों द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा जा सकता है; इंसान परमेश्वर के कार्य की बुद्धि को व्यक्तिगत रूप से समझ सकता है, उसके लिए उसे अपनी कल्पना के घौड़े दौड़ाने की आवश्यकता नहीं है। यह देहधारी परमेश्वर के कार्य की सटीकता और उसका व्यावहारिक मूल्य है। पवित्रात्मा केवल उन्हीं कार्यों को कर सकता है जो मनुष्य के लिए अदृश्य हैं और जिसकी कल्पना करना उसके लिए कठिन है, उदाहरण के लिए पवित्रात्मा की प्रबुद्धता, पवित्रात्मा का प्रेरित करना, और पवित्रात्मा का मार्गदर्शन, लेकिन समझदार इंसान को वे कोई स्पष्ट अर्थ प्रदान नहीं कर सकते। वे केवल एक चलता-फिरता या एक मोटे तौर पर समान अर्थ प्रदान कर सकते हैं, और शब्दों से कोई निर्देश नहीं दे पाते। जबकि, देह में परमेश्वर का कार्य बहुत भिन्न होता है : इसमें वचनों का सटीक मार्गदर्शन होता है, और इससे स्पष्ट इरादे और स्पष्ट अपेक्षित लक्ष्य जुड़े होते हैं। इसलिए इंसान को अँधेरे में भटकने या अपनी कल्पना का उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, और अंदाज़ा लगाने की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं होती। देह में किया गया कार्य बहुत स्पष्ट होता है, और पवित्रात्मा के कार्य से काफी अलग होता है। पवित्रात्मा का कार्य केवल एक सीमित दायरे में ही उपयुक्त होता है, यह देह के कार्य का स्थान नहीं ले सकता। देह के कार्य द्वारा सटीक रूप से जो लक्ष्य अपेक्षित हैं, और इस कार्य से मनुष्य ज्ञान का जो व्यावहारिक मूल्य प्राप्त करता है, वह पवित्रात्मा के कार्य की सटीकता और व्यावहारिक मूल्य से कहीं ज्यादा है। भ्रष्ट मनुष्योंके लिए, केवल वही कार्य जो अनुसरण के लिए सटीक वचन और स्पष्ट लक्ष्य प्रदान करे, जो दृश्य और बोधगम्य हो, वही सबसे मूल्यवान प्रकार का काम है। केवल यथार्थवादी कार्य और समयोचित मार्गदर्शन ही मनुष्य की अभिरुचियों के लिए उपयुक्त होता है, और केवल व्यावहारिक कार्य ही मनुष्य को उसके भ्रष्ट और पतित स्वभाव से बचा सकता है। इसे केवल देहधारी परमेश्वर हासिल कर सकता है; केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य को उसके पुराने भ्रष्ट और पतित स्वभाव से बचा सकता है। यद्यपि आत्मा परमेश्वर का अंतर्निहित सार है, फिर भी इस तरह का कार्य केवल उसकी देह के द्वारा ही किया जा सकता है। यदि आत्मा अकेले ही कार्य करता, तब उसके कार्य का प्रभावी होना संभव नहीं होता—यह एक स्पष्ट सत्य है। यद्यपि अधिकांश लोग इस देह के कारण परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं, फिर भी जब वह अपना कार्य पूरा करेगा, तो जो लोग उसके विरोधी हैं वे न केवल उसके शत्रु नहीं रहेंगे, बल्कि उसके गवाह बन जाएँगे। वे ऐसे गवाह बन जाएँगे जिन्हें उसके द्वारा जीत लिया गया है, ऐसे गवाह जो उसके अनुकूल हैं और उससे अभिन्न हैं। मनुष्य के लिए देह में उसने जो कार्य किया है उसके महत्व को वह मनुष्य को ज्ञात करवाएगा, और मनुष्य के अस्तित्व के अर्थ के लिए इस देह के महत्व को मनुष्य जानेगा, मनुष्य के जीवन के विकास के संबंध में उसके व्यावहारिक मूल्य को जानेगा, और इसके अतिरिक्त, यह जानेगा कि यह देह जीवन का एक जीवंत स्रोत बन जाएगी जिससे अलग होने की बात मानव सहन नहीं कर सकता। हालाँकि परमेश्वर की देहधारी देह परमेश्वर की पहचान और रुतबे से बिल्कुल मेल नहीं खाती, और मनुष्य को परमेश्वर के वास्तविक दर्जे से असंगत प्रतीत होती है, फिर भी यह देह, जो परमेश्वर की अंतर्निहित छवि या परमेश्वर की अंतर्निहित पहचान नहीं दर्शाती, वह कार्य कर सकती है जिसे परमेश्वर का आत्मा सीधे तौर पर करने में असमर्थ है। ये हैं परमेश्वर के देहधारण के अंतर्निहित मायने और मूल्य, इस महत्व और मूल्य को इंसान न तो समझ पाता है और न ही स्वीकार कर पाता है। यद्यपि सभी लोग परमेश्वर के आत्मा का आदर करते हैं और परमेश्वर की देह का तिरस्कार करते हैं, फिर भी इस बात पर ध्यान न देते हुए कि वे क्या सोचते-समझते हैं, देह के व्यावहारिक मायने और मूल्य पवित्रात्मा से बहुत बढ़कर हैं। निस्संदेह, यह केवल भ्रष्ट मनुष्य के संबंध में है। जो भी सत्य को खोजता है और परमेश्वर के प्रकटन के लिए लालायित रहता है, उसके लिए पवित्रात्मा का कार्य केवल दिल को छू सकता या प्रेरणा प्रदान कर सकता है, अद्भुतता का यह भाव दे सकता है कि यह कार्य अवर्णनीय और अकल्पनीय है, और एक एहसास प्रदान करता है कि यह महान, असाधारण, और प्रशंसनीय है, मगर सभी के लिए अलभ्य और अप्राप्य भी है। मनुष्य और परमेश्वर का आत्मा एक-दूसरे को केवल दूर से ही देख सकते हैं, मानो उनके बीच बहुत दूरी हो, और वे कभी भी एक समान नहीं हो सकते, मानो मनुष्य और परमेश्वर किसी अदृश्य विभाजन रेखा द्वारा अलग कर दिए गए हों। वास्तव में, यह पवित्रात्मा के द्वारा मनुष्य को दिया गया एक मायाजाल है, जो इसलिए है क्योंकि पवित्रात्मा और मनुष्य दोनों एक ही प्रकार के नहीं हैं, दोनों एक ही संसार में कभी साथ नहीं रह सकते, और क्योंकि पवित्रात्मा में मनुष्य का कुछ भी नहीं है। इसलिए मनुष्य को पवित्रात्मा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पवित्रात्मा सीधे तौर पर वह कार्य नहीं कर सकता जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता है। देह का कार्य मनुष्य को अनुसरण के लिए व्यावहारिक लक्ष्य, स्पष्ट वचन और यह एहसास देता है कि परमेश्वर व्यावहारिक, सामान्य, विनम्र और साधारण है। भले ही मनुष्य उससे डरता हो, फिर भी अधिकांश लोगों के लिए उससे सम्बन्ध रखना आसान है : मनुष्य उसका चेहरा देख सकता है, उसकी आवाज सुन सकता है, इंसान को उसे दूर से देखने की आवश्यकता नहीं है। यह देह इंसान को सुगम्य लगती है, दूर या अथाह नहीं, बल्कि दृश्य और स्पर्शगम्य महसूस होती है, क्योंकि यह देह उसी संसार में है जिसमें मनुष्य है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
जो कुछ मनुष्य ने अब प्राप्त किया है—अपना वर्तमान आध्यात्मिक कद, ज्ञान, प्रेम, वफादारी, समर्पण और अंतर्दृष्टि—ये ऐसे परिणाम हैं, जिन्हें वचनों के न्याय के माध्यम से प्राप्त किया गया है। तुम जो वफादारी रखने में और आज तक खड़े रहने में समर्थ हो, यह वचन के माध्यम से प्राप्त किया गया है। अब मनुष्य देखता है कि देहधारी परमेश्वर का कार्य वास्तव में असाधारण है, और इसमें बहुत-कुछ ऐसा है, जिसे मनुष्य द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, और वे रहस्य और चमत्कार हैं। इसलिए बहुतों ने समर्पण कर दिया है। कुछ लोगों ने अपने जन्म के समय से ही किसी भी मनुष्य के प्रति समर्पण नहीं किया है, फिर भी जब वे आज परमेश्वर के वचनों को देखते हैं, तो वे अनजाने ही पूरी तरह से समर्पण कर देते हैं, और वे जाँच करने या कुछ और कहने का उपक्रम नहीं करते; मनुष्य वचन के अधीन गिर गया है और वचन के न्याय के अधीन दंडवत् पड़ा है। यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों से सीधे बात करता, तो समस्त मानवजाति उस वाणी के प्रति समर्पित हो जाती, प्रकाशन के वचनों के बिना नीचे गिर जाती, बिल्कुल वैसे ही जैसे पौलुस दमिश्क की राह पर ज्योति के मध्य भूमि पर गिर गया था। यदि परमेश्वर इसी तरीके से काम करता रहता, तो मनुष्य वचन के न्याय के माध्यम से अपनी भ्रष्टता को जानने और इसके परिणामस्वरूप उद्धार प्राप्त करने में कभी समर्थ न होता। केवल देह बनकर ही परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को हर मनुष्य के कानों तक पहुँचा सकता है, ताकि वे सभी, जिनके पास कान हैं, उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा उसके न्याय के कार्य को प्राप्त कर सकें। मनुष्य को समर्पण हेतु डराने के लिए आत्मा के प्रकटन के बजाय केवल इस तरीके से उसके वचन द्वारा परिणाम प्राप्त किया जाता है। केवल इस व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से उसके भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से उजागर किया जा सकता है, ताकि मनुष्य उसे पहचान सके और बदलवा सके। ये सब चीज़ें देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य हैं, जिसमें वह एक व्यावहारिक तरीके से बोलकर और न्याय करके वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणाम प्राप्त करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है। इसे देहधारी परमेश्वर के अधिकार को ज्ञात करवाने के लिए, वचन के कार्य द्वारा प्राप्त किए गए परिणाम ज्ञात करवाने के लिए, और यह ज्ञात करवाने के लिए किया जाता है कि आत्मा देह में आ चुका है और वह वचन के द्वारा मनुष्य का न्याय करने के माध्यम से अपना अधिकार प्रदर्शित करता है। यद्यपि उसका देह एक साधारण और सामान्य मानवता का बाहरी रूप है, किंतु उसके वचन से प्राप्त परिणाम मनुष्य को दिखाते हैं कि वह अधिकार से परिपूर्ण है, कि वह स्वयं परमेश्वर है और उसके वचन स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं। इसके माध्यम से सभी मनुष्यों को दिखाया जाता है कि वह स्वयं परमेश्वर है, कि वह देह बना स्वयं परमेश्वर है, कि किसी के भी द्वारा उसे नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए, और कि कोई भी उसके वचन के द्वारा किए गए न्याय के परे नहीं हो सकता और अंधकार की कोई भी शक्ति उसके अधिकार पर हावी नहीं हो सकती। उसके प्रति मनुष्य का समर्पण पूरी तरह उसके देह बना वचन होने के कारण है, यह पूरी तरह उसके अधिकार के कारण और वचन द्वारा उसके न्याय के कारण है। उसके द्वारा धारित देह के द्वारा लाया गया कार्य ही वह अधिकार है जो उसके पास है। उसके देह धारण करने का कारण यह है कि देह के पास भी अधिकार हो सकता है, और वह एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्यों के बीच इस प्रकार कार्य करने में सक्षम है, जो मनुष्यों के लिए दृष्टिगोचर और मूर्त है। यह कार्य परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे तौर पर किए जाने वाले कार्य से कहीं अधिक व्यावहारिक है, जिसमें समस्त अधिकार है, और इसके परिणाम भी स्पष्ट हैं। इसकी वजह यह है कि देहधारी परमेश्वर की देह व्यावहारिक तरीके से बोल और कार्य कर सकती है। उसकी देह का बाहरी रूप कोई अधिकार नहीं रखता, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है, जबकि उसका सार अधिकार वहन करता है, किंतु उसका अधिकार किसी के लिए भी दृष्टिगोचर नहीं है। जब वह बोलता और कार्य करता है, तो मनुष्य उसके अधिकार के अस्तित्व का पता लगाने में असमर्थ होता है; इससे उसे उसका व्यावहारिक कार्य करने में सुविधा होती है। यह समस्त व्यावहारिक कार्य परिणाम प्राप्त कर सकता है। भले ही कोई मनुष्य यह एहसास न करता हो कि परमेश्वर अधिकार रखता है, या यह न देखता हो कि परमेश्वर को नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए, या परमेश्वर का कोप न देखता हो, फिर भी वह अपने छिपे हुए अधिकार, अपने छिपे हुए कोप और उन वचनों के माध्यम से, जिन्हें वह खुलकर बोलता है, अपने वचनों के अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में, उसकी आवाज़ के लहजे, उसकी वाणी की कठोरता और उसके वचनों की समस्त बुद्धि के माध्यम से मनुष्य पूरी तरह से आश्वस्त हो जाता है। इस तरीके से, जिस देहधारी परमेश्वर के पास देखने में कोई अधिकार नहीं लगता, उसके वचनों के प्रति मनुष्य समर्पण कर देता है, जिससे मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का लक्ष्य पूरा होता है। यह उसके देहधारण के महत्व का एक और पहलू है : अधिक व्यावहारिक ढंग से बोलना और अपने वचनों की वास्तविकता को मनुष्य पर प्रभाव डालने देना, ताकि मनुष्य परमेश्वर के वचन का सामर्थ्य देख सके। अतः यदि यह कार्य देहधारण के माध्यम से न किया जाता, तो यह मामूली परिणाम भी प्राप्त न करता और पापी लोगों को पूरी तरह से बचाने में सक्षम न होता। यदि परमेश्वर देह न बना होता, तो वह पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। चूँकि मनुष्य देह वाला प्राणी है, इसलिए वह और परमेश्वर दो अलग-अलग दुनिया के हैं और अलग-अलग प्रकृति के हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच संबंध स्थापित किए जाने का कोई उपाय ही नहीं है, और इसका तो जिक्र ही क्या करना कि मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता। ऐसा होने के कारण, अपना मूल काम करने के लिए परमेश्वर के आत्मा को एक सृजित प्राणी बनना आवश्यक है। परमेश्वर दोनों काम कर सकता है, वह सबसे ऊँचे स्थान पर भी चढ़ सकता है और मनुष्यों के बीच कार्य करने और उनके बीच रहने के लिए अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, किंतु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता और पवित्रात्मा नहीं बन सकता, और वह निम्नतम स्थान में तो बिल्कुल भी नहीं उतर सकता। इसीलिए अपना कार्य करने हेतु परमेश्वर का देह बनना आवश्यक है। इसी प्रकार, प्रथम देहधारण के दौरान, केवल देहधारी परमेश्वर का देह ही सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मनुष्य को छुटकारा दे सकता था, जबकि परमेश्वर के आत्मा के पास मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के लिए एक पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए सीधे देह बन सकता था, किंतु मनुष्य परमेश्वर द्वारा अपने लिए तैयार की गई पापबलि लेने के लिए सीधे स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था। ऐसा होने के कारण, मनुष्य द्वारा इस उद्धार को लेने के लिए स्वर्ग में आरोहण करने के बजाय, यही संभव था कि परमेश्वर से कुछ बार स्वर्ग और पृथ्वी के बीच आने-जाने का आग्रह किया जाए, क्योंकि मनुष्य पतित हो चुका था, और इससे भी बढ़कर, वह स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था, और पापबलि तो बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए, यीशु के लिए मनुष्यों के बीच आना और व्यक्तिगत रूप से उस कार्य को करना आवश्यक था, जिसे मनुष्य द्वारा पूरा किया ही नहीं जा सकता था। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तब यह परम आवश्यकता के कारण होता है। यदि किसी भी चरण को परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे संपन्न किया जा सकता, तो वह देहधारी होने का अनादर सहन न करता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)
क्योंकि जिसका न्याय किया जाता है वह मनुष्य है, मनुष्य जो कि हाड़-माँस का है और भ्रष्ट किया जा चुका है, और यह शैतान की आत्मा नहीं है जिसका सीधे तौर पर न्याय किया जाता है, इसलिए न्याय का कार्य आध्यात्मिक जगत में कार्यान्वित नहीं किया जाता, बल्कि मनुष्यों के बीच किया जाता है। मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए देह में प्रकट परमेश्वर से अधिक उपयुक्त और कोई योग्य नहीं है। यदि न्याय सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा किया जाए, तो यह सर्वव्यापी नहीं होता, और तो और मनुष्य के लिए इसे स्वीकार करना कठिन होता, क्योंकि पवित्रात्मा मनुष्य के रूबरू आने में असमर्थ है। इस बिंदु के प्रकाश में, प्रभाव तत्काल नहीं होते, और मनुष्य परमेश्वर के अपमान न किए जाने योग्य स्वभाव को साफ-साफ देखने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं होता। यदि देह में प्रकट परमेश्वर मनुष्यजाति की भ्रष्टता का न्याय करे तभी शैतान को पूरी तरह से हराया जा सकता है। देह में प्रकट परमेश्वर भी सामान्य मानवता वाला व्यक्ति है, और वह सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यही उसकी जन्मजात पवित्रता, और उसके अनुपम होने का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही मनुष्य का न्याय करने के योग्य है, और उसका न्याय करने की स्थिति में है, क्योंकि वह सत्य और धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में समर्थ है। जो सत्य और धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने लायक नहीं हैं। यदि इस कार्य को परमेश्वर के आत्मा द्वारा किया जाता, तो इसका अर्थ शैतान पर विजय नहीं होता। पवित्रात्मा अंतर्निहित रूप से ही नश्वर प्राणियों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, और परमेश्वर का आत्मा अंतर्निहित रूप से पवित्र है, और देह पर विजय प्राप्त किए हुए है। यदि पवित्रात्मा ने इस कार्य को सीधे तौर पर किया होता, तो वह मनुष्य के पूरे विद्रोहीपन का न्याय नहीं कर पाता, और उसकी सारी अधार्मिकता को प्रकट नहीं कर पाता। क्योंकि न्याय के कार्य को परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं के माध्यम से भी कार्यान्वित किया जाता है, और मनुष्य के अंदर कभी भी पवित्रात्मा के बारे में कोई धारणाएँ नहीं रही हैं, इसलिए पवित्रात्मा मनुष्य की अधार्मिकता को बेहतर तरीके से प्रकट करने में असमर्थ है, वह ऐसी अधार्मिकता को पूरी तरह से उजागर करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है। देहधारी परमेश्वर उन सब लोगों का शत्रु है जो उसे नहीं जानते। अपने प्रति मनुष्य की धारणाओं और विरोध का न्याय करके, वह मनुष्यजाति के सारे विद्रोहीपन को उजागर करता है। देह में उसके कार्य के प्रभाव पवित्रात्मा के कार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट होते हैं। इसलिए, संपूर्ण मनुष्यजाति के न्याय को पवित्रात्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न नहीं किया जाता, बल्कि यह देहधारी परमेश्वर का कार्य है। देहधारी परमेश्वर को मनुष्य देख और छू सकता है, और देहधारी परमेश्वर मनुष्य पर पूरी तरह से विजय पा सकता है। मनुष्य उसका विरोध करने से उसके प्रति समर्पण करने की ओर, उसका उत्पीड़न करने से उसे स्वीकार करने की ओर, उसके बारे में धारणा रखने से उसे जानने की ओर, और उसे अस्वीकार करने से उसे प्रेम करने की ओर—ये हैं देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रभाव। मनुष्य को परमेश्वर के न्याय की स्वीकृति से ही बचाया जाता है, वह परमेश्वर के बोले गए वचनों से ही धीरे-धीरे उसे जानने लगता है, परमेश्वर के प्रति उसके विरोध के दौरान परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर विजय पायी जाती है, और परमेश्वर की ताड़ना की स्वीकृति के दौरान वह उससे जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है। यह समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर के कार्य हैं, यह पवित्रात्मा के रूप में परमेश्वर के कार्य नहीं हैं। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य महानतम और बेहद गंभीर कार्य है, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का अति महत्वपूर्ण भाग देहधारण के कार्य के दो चरण हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
देह में उसके कार्य की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह उन लोगों के लिए सटीक वचन, उपदेश और मनुष्यजाति के लिए अपने सटीक इरादों को उन लोगों के लिए छोड़ सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं, ताकि बाद में उसके अनुयायी देह में किए गए उसके समस्त कार्य और संपूर्ण मनुष्यजाति के लिए उसके इरादों को अत्यधिक सटीकता से, और अधिक व्यावहारिक शब्दों में उन लोगों तक पहुँचा सकें जो इस मार्ग को स्वीकार करते हैं। केवल मनुष्यों के बीच कार्य करता हुआ देहधारी परमेश्वर ही सही अर्थों में परमेश्वर के मनुष्य के साथ रहने और उसके साथ जीने को यथार्थ बनाता है और परमेश्वर के चेहरे को देखने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, और परमेश्वर के व्यक्तिगत वचन को सुनने की मनुष्य की इच्छा को पूरा करता है। देहधारी परमेश्वर उस युग का अंत करता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मनुष्यजाति को दिखाई देती थी, और साथ ही वह अज्ञात परमेश्वर में मनुष्यजाति के विश्वास करने के युग को भी समाप्त करता है। विशेष रूप से, परमेश्वर के अंतिम देहधारण का कार्य संपूर्ण मनुष्यजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो अधिक वास्तविक, अधिक व्यावहारिक, और अधिक सुंदर है। यह काम न केवल व्यवस्था और विनियमों के युग का ही अंत करता है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह मनुष्यजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रकट करता है जो व्यावहारिक और सामान्य है, जो धार्मिक और पवित्र है, जो प्रबंधन योजना के कार्य का खुलासा करता है और मनुष्यजाति के रहस्यों और मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मनुष्यजाति का सृजन किया और प्रबंधन कार्य को अंजाम तक पहुँचाता है, और जिसने हज़ारों वर्षों तक खुद को छिपा कर रखा है। यह काम अस्पष्टता के युग का पूर्णतः अंत करता है, यह उस युग का समापन करता है जिसमें संपूर्ण मनुष्यजाति परमेश्वर का चेहरा खोजना तो चाहती थी मगर खोज नहीं पायी, यह उस युग का अंत करता है जिसमें संपूर्ण मनुष्यजाति शैतान की सेवा करती थी, और यह संपूर्ण मनुष्यजाति की एक पूर्णतया नए युग में अगुवाई करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रकट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है। केवल जब परमेश्वर अपने देह में कार्य करता है, तभी जो लोग उसका अनुसरण करते हैं, वे अब और उन चीजों को खोजते और टटोलते नहीं हैं जो विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रतीत होती हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर के इरादों का अंदाजा लगाना बंद कर देते हैं। जब परमेश्वर देह में अपने कार्य को फैलाता है, तो जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे उसके द्वारा देह में किए गए कार्य को सभी धर्मों और पंथों में आगे बढ़ाएँगे, और वे उसके सभी वचनों को संपूर्ण मनुष्यजाति के कानों तक पहुँचाएँगे। उसके सुसमाचार को प्राप्त करने वाले जो सुनेंगे, वे उसके कार्य के तथ्य होंगे, ऐसी चीजें होंगी जो मनुष्य के द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखी और सुनी गई होंगी, और तथ्य होंगे, अफवाह नहीं। ये तथ्य ऐसे प्रमाण हैं जिनसे वह कार्य को फैलाता है, और वे ऐसे साधन भी हैं जिन्हें वह कार्य को फैलाने में उपयोग करता है। बिना तथ्यों के उसका सुसमाचार सभी देशों और सभी स्थानों तक नहीं फैलेगा; बिना तथ्यों के केवल मनुष्यों की कल्पनाओं के सहारे, वह कभी भी संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय नहीं पा सकेगा। पवित्रात्मा मनुष्य के लिए अस्पृश्य और अदृश्य है, और पवित्रात्मा का कार्य मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य के और प्रमाण या और तथ्यों को छोड़ने में असमर्थ है। मनुष्य परमेश्वर के असली चेहरे को कभी नहीं देख पाएगा, वह हमेशा ऐसे अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करेगा जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। मनुष्य कभी भी परमेश्वर के मुख को नहीं देखेगा, न ही मनुष्य परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से बोले गए वचनों को कभी सुन पाएगा। आखिर, मनुष्य की कल्पनाएँ खोखली होती हैं, वे परमेश्वर के असली चेहरे का स्थान कभी नहीं ले सकतीं; मनुष्य परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य का अभिनय नहीं कर सकता। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल परमेश्वर के व्यक्तिगत रूप से से अपना कार्य करने के लिए देह बनने और मनुष्य के बीच आने के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। परमेश्वर के लिए मनुष्य के सामने प्रकट होने का यही सबसे आदर्श तरीका है, जिसमें मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है। इसे कोई गैर-देहधारी परमेश्वर संपन्न नहीं कर सकता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है