379 परमेश्वर से विश्वासघात करना मानवीय प्रकृति है
1 मनुष्य की प्रकृति उसकी आत्मा से आती है, न कि उसके शरीर से। प्रत्येक व्यक्ति का केवल आत्मा ही जानता है कि कैसे उसने शैतान के प्रलोभनों, यातना और भ्रष्टता का अनुभव किया है। मनुष्य के शरीर के लिए ये बातें ज्ञानातीत हैं। इसलिए, मानवजाति अनचाहे ही उत्तरोत्तर अधिक अंधकारमय, कलुषित और दुष्ट बनती जाती है, जबकि मेरे और मनुष्य के बीच की दूरी अधिक से अधिक बढ़ती जाती है, और मानवजाति का जीवन और अधिक अंधकारमय होता जाता है। मानवजाति की आत्माएँ शैतान की मुट्ठी में हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि मनुष्य का शरीर भी शैतान के कब्जे में है। तो फिर कैसे इस तरह का शरीर और इस तरह की मानवजाति परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे? वे उसके साथ सहज ही संगत कैसे हो सकते हैं? मैंने इस कारण से शैतान को हवा में बहिष्कृत किया है क्योंकि उसने मेरे साथ विश्वासघात किया था। तो फिर, मनुष्य अपनी संलग्नता से कैसे मुक्त हो सकते हैं? यही कारण है कि मनुष्य की प्रकृति विश्वासघात की है।
2 तुम चाहे कितने भी समय से परमेश्वर के अनुयायी रहे हो—तुम्हारी प्रकृति फिर भी परमेश्वर को धोखा देने की ही है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर को धोखा देना इंसान की प्रकृति में है, क्योंकि लोग अपने जीवन में पूर्ण परिपक्वता हासिल कर पाने में अक्षम होते हैं, और उनके स्वभाव में केवल सापेक्ष बदलाव ही आ पाता है। तुम्हारा जीवन कितना भी परिपक्व क्यों न हो, तुम्हारे अनुभव चाहे कितने भी गहरे क्यों न हों, तुम्हारा आत्म-विश्वास चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, तुम चाहे कहीं भी क्यों न पैदा हुए हो और कहीं भी क्यों न जा रहे हो, परमेश्वर को धोखा देने की तुम्हारी प्रकृति किसी भी समय और किसी भी स्थान पर उजागर हो सकती है। परमेश्वर हर व्यक्ति को यह बताना चाहता है : परमेश्वर को धोखा देना हर व्यक्ति की जन्मजात प्रकृति है। इन वचनों को व्यक्त करने के पीछे परमेश्वर का इरादा इंसान को मिटा देने या उसकी निंदा करने का बहाना खोजना नहीं है, बल्कि लोगों को इंसान की प्रकृति से और अधिक वाकिफ कराना है, ताकि वे परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए हर समय सावधानी से उसके सामने रह सकें, जो उन्हें परमेश्वर की उपस्थिति गँवाने और वापसी-रहित मार्ग पर जाने से रोक देगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2) से रूपांतरित