परमेश्वर को जानना V

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 166

क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने के लिए कौन-सा ज्ञान महत्त्वपूर्ण है? इस विषय पर अनुभव से बहुत-कुछ कहा जा सकता है, लेकिन पहले कुछ मुख्य बिंदु मुझे तुम लोगों को बताने चाहिए। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने के लिए व्यक्ति को पहले परमेश्वर की भावनाओं को समझना होगा : वह किससे घृणा करता है, किसे नापसंद करता है और किससे प्यार करता है; वह किसे बरदाश्त करता है, किसके प्रति दयालु है, और किस प्रकार के व्यक्ति पर वह दया करता है। यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है। व्यक्ति को यह भी समझना होगा कि परमेश्वर कितना भी स्नेही क्यों न हो, उसमें लोगों के लिए कितनी भी दया एवं प्रेम क्यों न हो, परमेश्वर अपनी हैसियत और स्थिति को ठेस पहुँचाने वाले किसी भी व्यक्ति को बरदाश्त नहीं करता, न ही वह यह बरदाश्त करता है कि कोई उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाए। यद्यपि परमेश्वर लोगों से प्यार करता है, फिर भी वह उन्हें लाड़-प्यार से बिगाड़ता नहीं। वह लोगों को अपना प्यार, अपनी दया एवं अपनी सहनशीलता देता है, लेकिन व‍ह कभी उनसे लाड़ नहीं करता; परमेश्वर के अपने सिद्धांत और सीमाएँ हैं। भले ही तुमने परमेश्वर के प्रेम को कितना भी महसूस किया हो, वह प्रेम कितना भी गहरा क्यों न हो, तुम्हें कभी भी परमेश्वर से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जैसा तुम किसी अन्य व्यक्ति से करते हो। यह सच है कि परमेश्वर लोगों से बहुत आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करता है, फिर भी यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को मात्र किसी अन्य व्यक्ति के रूप में देखता है, मानो वह मात्र कोई अन्य सृजित प्राणी हो, जैसे कोई मित्र या आराधना की कोई वस्तु, तो परमेश्वर उससे अपना चेहरा छिपा लेगा और उसे त्याग देगा। यह उसका स्वभाव है और लोगों को इस मुद्दे को बिना सोचे-समझे नहीं लेना चाहिए। अतः, हम अकसर परमेश्वर द्वारा अपने स्वभाव के बारे में कहे गए ऐसे वचन देखते हैं : चाहे तुमने कितने भी मार्गों पर यात्रा की हो, तुमने कितना भी अधिक काम किया हो या तुमने कितना भी अधिक कष्ट सहन किया हो, जैसे ही तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को ठेस पहुँचाते हो, वह तुम्हारे कृत्य के आधार पर तुममें से प्रत्येक को उसका प्रतिफल देगा। इसका अर्थ यह है कि हालाँकि परमेश्वर लोगों के साथ बहुत आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करता है, फिर भी लोगों को परमेश्वर से किसी मित्र या रिश्तेदार की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। परमेश्वर को अपना “यार” मत कहो। चाहे तुमने उससे कितना ही प्रेम क्यों न प्राप्त किया हो, चाहे उसने तुम्हें कितनी ही सहनशीलता क्यों न दी हो, तुम्हें कभी भी परमेश्वर से अपने मित्र के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहिए। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। क्या तुम समझे? क्या मुझे इस बारे में और अधिक कहने की ज़रूरत है? क्या तुम्हें इस मामले की पहले से कोई समझ है? सामान्य रूप से कहें, तो यह एक ऐसी गलती है, जिसे लोग सबसे आसानी से इस बात की परवाह किए बगैर करते हैं कि क्या वे सिद्धांतों को समझते हैं या फिर उन्होंने इसके विषय में पहले कभी नहीं सोचा। जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है, ऐसा किसी एक घटना या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये और उस स्थिति के कारण हो, जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्हें परमेश्वर की समझ है, कि उन्हें उसका कुछ ज्ञान है, और वे शायद कुछ ऐसी चीज़ें भी कर सकते हैं, जो परमेश्वर को संतुष्ट करेंगी। वे परमेश्वर के बराबर महसूस करना शुरू कर देते हैं और यह भी कि वे चतुराई से परमेश्वर के मित्र हो गए हैं। इस प्रकार की भावनाएँ भयावह रूप से गलत हैं। यदि तुम्हें इसकी गहरी समझ नहीं है—यदि तुम इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझते—तो तुम बहुत आसानी से परमेश्वर और उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे और उसके धार्मिक स्वभाव की अवमानना कर दोगे। अब तुम इसे समझ गए न? क्या परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अद्वितीय नहीं है? क्या यह कभी किसी मनुष्य के चरित्र या नैतिक दृष्टिकोण के बराबर हो सकता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता। अतः, तुम्हें नहीं भूलना चाहिए कि चाहे परमेश्वर लोगों से कैसा भी व्यवहार करे, चाहे वह लोगों के बारे में किसी भी प्रकार सोचता हो, परमेश्वर की स्थिति, अधिकार और हैसियत कभी नहीं बदलती। मानव-जाति के लिए परमेश्वर हमेशा सभी चीज़ों का प्रभु और सृष्टिकर्ता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 167

कहानी 1: एक बीज, धरती, एक पेड़, धूप, चिड़ियाँ और मनुष्य

छोटा-सा बीज धरती पर गिरा। भारी बारिश हुई और उस बीज से एक कोमल अंकुर फूटा, जबकि उसकी जड़ें धीरे-धीरे नीचे मिट्टी में विलीन हो गईं। समय के साथ वह प्रचंड हवाओं और कठोर बारिश का सामना करते हुए चंद्रमा के बढ़ने और घटने के साथ ऋतुओं के परिवर्तन को देखते हुए लंबा हो गया। गर्मियों में धरती पानी का उपहार लेकर आई, ताकि अंकुर मौसम की चिलचिलाती गर्मी सहन कर सके। और धरती के कारण अंकुर गर्मी से विह्वल नहीं हुआ, और इस प्रकार गर्मियों की सबसे खराब तपन बीत गई। जब जाड़ा आया, तो धरती ने उस अंकुर को अपने गर्म आगोश में लपेट लिया और धरती और अंकुर ने एक-दूसरे को कसकर जकड़े रखा। धरती ने अंकुर को गर्माहट दी, और इस प्रकार वह मौसम की सबसे कड़कड़ाती ठंड से जीवित बच गया, और उसे शीतकालीन आँधियों और बर्फीले तूफानों से कोई नुकसान नहीं हुआ। धरती का आश्रय पाकर अंकुर बहादुरी और ख़ुशी से बढ़ा। धरती का निःस्वार्थ पोषण पाकर वह स्वस्थ और सशक्त बना। बारिश में गाते हुए और हवा में नाचते-झूमते हुए वह आनंद से बढ़ा। अंकुर एवं धरती एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...

कई साल बीत गए, और वह अंकुर एक विशाल पेड़ में बदल गया। अनगिनत पत्तों वाली मोटी शाखाओं के साथ वह धरती पर मज़बूती से खड़ा था। उसकी जड़ें पहले की तरह धरती में धँसी थीं और अब मिट्टी में और गहरे चली गई थीं। धरती, जिसने कभी नन्हे अंकुर की सुरक्षा की थी, अब एक शक्तिशाली पेड़ की आधारशिला थी।

पेड़ पर सूरज की रोशनी की एक किरण चमक उठी। पेड़ ने अपने शरीर को लहराया, बाँहें बाहर की ओर तानकर फैलाईं और सूरज की रोशनी से भरी हवा में गहरी साँस ली। नीचे ज़मीन ने भी पेड़ के साथ साँस ली, और धरती ने महसूस किया जैसे वह फिर से नई हो गई हो। तभी शाखाओं के बीच से एक ताज़ी हवा का झोंका आया, और पेड़ ऊर्जा से लहराते हुए खुशी से सिहर उठा। पेड़ और सूरज की रोशनी एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...

लोग पेड़ की ठंडी छांव में बैठकर स्फूर्तिदायक एवं सुगंधित हवा का आनंद लेने लगे। उस हवा ने उनके दिलों एवं फेफड़ों को साफ़ किया, और इससे उनके भीतर का खून साफ़ हो गया, और उनके शरीर अब सुस्त और बेबस नहीं रहे। लोग और पेड़ एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...

चहकती नन्ही चिड़ियों का एक समूह पेड़ की शाखाओं पर उतरा। शायद वे किसी शत्रु से बचने के लिए या प्रजनन अथवा अपने बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए वहाँ उतरे थे, या शायद वे सिर्फ थोड़ा आराम कर रहे थे। चिड़ियाँ और पेड़ एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं ...

पेड़ की मुड़ी और उलझी हुई जड़ें धरती में गहरी धँस गईं। अपने तने से उसने हवा और वर्षा से धरती को आश्रय दिया, और अपने पैरों के नीचे धरती की रक्षा करने के लिए उसने अपने विशाल अंग फैला लिए। पेड़ ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि धरती उसकी माँ है। वे एक-दूसरे को मजबूत करते हैं और एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, और वे कभी अलग नहीं होंगे ...

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मैंने अभी जिन चीज़ों की बात की, उन्हें तुम लोग पहले देख चुके हो। जैसे बीज—वे उगकर पेड़ बन जाते हैं, और भले ही तुम इसकी प्रक्रिया का हर विवरण देखने में सक्षम न हो पाओ, फिर भी तुम जानते हो कि ऐसा होता है, है ना? तुम धरती एवं सूरज की रोशनी के बारे में भी जानते हो? पेड़ पर बैठे पक्षियों की तसवीर हर किसी ने देखी है, है ना? और पेड़ की छाया में खुद को ठंडक पहुँचाते लोगों की तसवीर—इसे भी तुम सबने देखा है, है ना? (हाँ, देखा है।) तो, ये सभी चीज़ें एक ही तसवीर में होने पर वह तसवीर किस चीज़ का एहसास देती है? (सामंजस्य का।) क्या उस छवि की प्रत्येक चीज़ परमेश्वर से आती है? (हाँ।) चूँकि वे परमेश्वर से आती हैं, इसलिए परमेश्वर इन सब विभिन्न चीज़ों के सांसारिक अस्तित्व का मूल्य एवं महत्व जानता है। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, जब उसने हर चीज़ की योजना बनाई और उसकी सृष्टि की, तो उसने इरादे के साथ ऐसा किया; और जब उसने उन चीज़ों को बनाया, तो हर चीज़ में प्राण डाले। जो परिवेश उसने मानव-जाति के अस्तित्व के लिए बनाया, जिसका वर्णन अभी हमारी कहानी में हुआ, वह ऐसा है, जिसमें बीज और धरती एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं, जिसमें धरती बीजों का पोषण कर सकती है और बीज धरती से बँधे हैं। यह संबंध परमेश्वर ने एकदम शुरू में ही निर्धारित कर दिया था। पेड़, सूरज की रोशनी, चिड़ियों और मनुष्यों का दृश्य परमेश्वर द्वारा मानव-जाति के लिए बनाए गए जीवंत वातावरण का चित्रण है। पहली बात, पेड़ धरती को नहीं छोड़ सकते, न वे सूरज की रोशनी के बिना रह सकते हैं। तो पेड़ को बनाने में परमेश्वर का क्या मकसद था? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ धरती के लिए है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ चिड़ियों के लिए है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ लोगों के लिए है? (नहीं।) उनके बीच क्या संबंध है? उनके बीच पारस्परिक सुदृढ़ीकरण, अन्योन्याश्रय और अविभाज्यता का संबंध है। दूसरे वचनों में, धरती, पेड़, सूरज की रोशनी, चिड़ियाँ और मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं और एक-दूसरे का पोषण करते हैं। पेड़ धरती की रक्षा करता है और धरती पेड़ का पोषण करती है; सूरज की रोशनी पेड़ के लिए आपूर्ति करती है, जबकि पेड़ सूरज की रोशनी से ताजी हवा प्राप्त करता है और धरती पर चिलचिलाती धूप की तपन कम करता है। अंत में इससे कौन लाभान्वित होता है? मानव-जाति, है कि नहीं? परमेश्वर द्वारा निर्मित जिस परिवेश में मानव-जाति रहती है, यह उसके अंतर्निहित सिद्धांतों में से एक है; यह दर्शाता है कि परमेश्वर का शुरू से क्या इरादा रहा था। हालाँकि यह एक साधारण-सी तसवीर है, फिर भी हम इसमें परमेश्वर की बुद्धि और उसके इरादे को देख सकते हैं। मनुष्य धरती या पेड़ों के बिना नहीं रह सकता, चिड़ियों एवं सूर्य के प्रकाश के बिना तो बिलकुल भी नहीं रह सकता। ठीक है ना? हालाँकि यह सिर्फ एक कहानी है, फिर भी यह परमेश्वर द्वारा स्वर्ग, धरती और सभी चीज़ों की रचना और परिवेश के उसके उपहार, जिसमें मनुष्य रह सकता है, के सूक्ष्म दर्शन का चित्रण करती है।

परमेश्वर ने मानव-जाति के लिए स्वर्ग एवं धरती और सभी चीज़ों की सृष्टि की, और साथ ही रहने के लिए परिवेश का भी निर्माण किया। पहली बात, हमारी कहानी का मुख्य बिंदु है सभी चीज़ों का पारस्परिक सुदृढ़ीकरण, अन्योन्याश्र और सह-अस्तित्व। इस सिद्धांत के अंतर्गत मानव-जाति के अस्तित्व का परिवेश सुरक्षित किया गया है; वह अस्तित्व में रह सकता है और निरंतर बना रह सकता है। इसके कारण मानव-जाति फल-फूल सकती है और प्रजनन कर सकती है। हमने जो तसवीर देखी थी, उसमें एक पेड़, धरती, सूरज की रोशनी, चिड़ियाँ और लोग एक-साथ थे। क्या उस तसवीर में परमेश्वर था? किसी ने उसे नहीं देखा। पर उसने दृश्य में चीज़ों के बीच पारस्परिक सुदृढ़ीकरण और अन्योन्याश्रय का नियम अवश्य देखा; इस नियम में व्यक्ति परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता को देख सकता है। परमेश्वर सभी चीज़ों का जीवन और अस्तित्व बनाए रखने के लिए ऐसे सिद्धांत और ऐसे नियम का उपयोग करता है। इस तरह से वह सभी चीज़ों और मानव-जाति को पोषण प्रदान करता है। क्या यह कहानी हमारे मुख्य विषय से जुड़ी है? ऊपरी तौर पर ऐसा नहीं लगता, पर वास्तव में, वह नियम, जिसके द्वारा परमेश्वर ने सभी चीजों को बनाया, और उन पर उसकी प्रभुता उसके सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत होने से घनिष्ठता से जुड़े हैं। ये तथ्य अविभाज्य हैं। अब तुम लोग कुछ सीखने लगे हो!

परमेश्वर उन नियमों का स्वामी है, जो सभी चीज़ों के संचालन को नियंत्रित करते हैं; वह उन नियमों का स्वामी है, जो सभी प्राणियों के अस्तित्व को नियंत्रित करते हैं; वह सभी चीज़ों को नियंत्रित करता है और उन्हें इस तरह रखता है कि वे एक-दूसरे को मजबूत भी करें और परस्पर निर्भर भी बनाएँ, ताकि वे नष्ट या विलुप्त न हों। केवल इसी तरह मनुष्य जीवित रह सकते हैं; केवल इसी तरह वे परमेश्वर के मार्गदर्शन में ऐसे परिवेश में रह सकते हैं। परमेश्वर संचालन के इन नियमों का स्वामी है, और कोई भी इनमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता, न कोई इन्हें बदल ही सकता है। केवल स्वयं परमेश्वर ही इन नियमों को जानता है और केवल वही इनका प्रबंध करता है। पेड़ कब अंकुरित होंगे; बारिश कब होगी; धरती कितना जल एवं कितने पोषक तत्त्व पौधों को देगी; किस मौसम में पत्ते गिरेंगे; किस मौसम में पेड़ों पर फल लगेंगे; कितने पोषक तत्त्व सूर्य का प्रकाश पेड़ों को देगा; सूर्य के प्रकाश द्वारा पोषित किए जाने के बाद पेड़ उच्छ्वास के रूप में क्या छोड़ेंगे—इन सभी चीज़ों को परमेश्वर ने पहले ही तब निश्चित कर दिया था, जब उसने सभी चीज़ों को बनाया था, उन नियमों के रूप में जिन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। परमेश्वर द्वारा बनाई हुई चीज़ें—चाहे वे जीवित हों या मनुष्य की दृष्टि में निर्जीव, उसके हाथ में रहती हैं, जहाँ वह उन्हें नियंत्रित करता है और उन पर शासन करता है। इन नियमों को कोई बदल या तोड़ नहीं सकता। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों का निर्माण किया था, तब उसने पूर्वनिर्धारित किया कि धरती के बिना पेड़ अपनी जड़ें नीचे नहीं फैला सकता, अंकुरित नहीं हो सकता और बढ़ नहीं सकता; कि यदि धरती पर कोई पेड़ न होता, तो वह सूख जाती; कि पेड़ को चिड़ियों का आशियाना भी होना चाहिए, और एक ऐसी जगह, जहाँ वे हवाओं से बचने के लिए आश्रय ले सकें। क्या कोई पेड़ धरती के बिना जी सकता है? बिलकुल नहीं। क्या वह सूरज या बारिश के बिना जी सकता है? वह इनके बिना भी नहीं जी सकता। ये सब चीज़ें मानव-जाति के लिए, उसके अस्तित्व के लिए हैं। पेड़ से मनुष्य ताजी हवा प्राप्त करता है, और वह धरती पर रहता है, जिसकी पेड़ों द्वारा रक्षा की जाती है। मनुष्य सूर्य की रोशनी और विभिन्न प्राणियों के बिना नहीं रह सकता। हालाँकि ये संबंध जटिल हैं, फिर भी तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर ने उन नियमों को बनाया है, जो सभी चीज़ों का नियंत्रण करते हैं, ताकि वे एक-दूसरे को मजबूत करें, एक-दूसरे पर निर्भर रहें, और एक-साथ मौजूद रहें। दूसरे शब्दों में, उसके द्वारा बनाई गई हर-एक चीज़ का मूल्य और महत्व है। यदि परमेश्वर ने कोई चीज़ बिना किसी महत्व के बनाई होती, तो परमेश्वर उसे लुप्त होने देता। यह उन तरीकों में से एक है, जिसे परमेश्वर सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करने में इस्तेमाल करता है। इस कहानी में “पोषण प्रदान करता है” शब्द क्या बताते हैं? क्या परमेश्वर प्रतिदिन पेड़ को पानी देता है? क्या पेड़ को साँस लेने के लिए परमेश्वर की मदद की आवश्यकता पड़ती है? (नहीं।) यहाँ “पोषण प्रदान करता है” से तात्पर्य परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों के निर्माण के बाद उनके प्रबंधन से है; उनका नियंत्रण करने वाले नियम स्थापित करने के बाद परमेश्वर द्वारा उनका प्रबंधन करना पर्याप्त है। धरती में बोए जाने के बाद बीज अपने आप उगता है। उसके उगने की सभी स्थितियाँ परमेश्वर द्वारा रची गई थीं। परमेश्वर ने धूप, जल, मिट्टी, हवा और आसपास का परिवेश बनाया; उसने वायु, ठंड, बर्फ, वर्षा एवं चार ऋतुओं को बनाया। ये वे स्थितियाँ हैं, जो पेड़ के उगने के लिए आवश्यक हैं और उन्हें परमेश्वर ने तैयार किया। तो, क्या परमेश्वर इस जीवनदायी परिवेश का स्रोत है? (हाँ।) क्या परमेश्वर को प्रतिदिन पेड़ों के हर एक पत्ते को गिनना पड़ता है? नहीं! न परमेश्वर को साँस लेने में पेड़ की मदद करने या यह कहकर सूर्य की रोशनी को जगाने की ज़रूरत पड़ती है कि “यह पेड़ों पर चमकने का समय है।” उसे ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। नियमानुसार चमकने का समय होने पर सूर्य की रोशनी अपने आप चमकती है; वह पेड़ पर प्रकट होकर चमकने लगती है और पेड़ को जब ज़रूरत होती है, वह उसे सोख लेता है, और जब आवश्यकता नहीं होती, तो भी वह नियमों के अंतर्गत जीता है। शायद तुम लोग इस घटना का स्पष्ट रूप से वर्णन न कर पाओ, लेकिन फिर भी यह एक तथ्य है, जिसे हर कोई देख सकता है और स्वीकार कर सकता है। तुम्हें बस यह पहचानना है कि हर चीज़ के अस्तित्व को नियंत्रित करने वाले नियम परमेश्वर से आते हैं, और यह जानना है कि उनकी वृद्धि और उनका जीवन परमेश्वर के प्रभुत्व में है।

अब, क्या इस कहानी में उस चीज़ का इस्तेमाल किया गया है, जिसे लोग “रूपक” कहते हैं? क्या यह मानवीकरण है? (नहीं।) मैंने एक सच्ची कहानी सुनाई है। हर तरह की जीवित चीज़, हर चीज़ जिसमें जीवन है, परमेश्वर द्वारा शासित है; निर्माण के समय हर चीज़ में परमेश्वर द्वारा प्राण डाले गए थे; हर जीवित चीज़ का जीवन परमेश्वर से आता है और वह उस क्रम और व्यवस्थाओं का अनुसरण करता है, जो उसे निर्देशित करती हैं। मनुष्य को इसे बदलने की ज़रूरत नहीं, न इसे मनुष्य की मदद की ज़रूरत है; यह उन तरीकों में से एक है, जिससे परमेश्वर सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करता है। तुम लोग समझे, या नहीं? क्या तुम्हें लगता है कि लोगों को इसे पहचानना ज़रूरी है? (हाँ।) तो, क्या इस कहानी का जीवविज्ञान से कुछ लेना-देना है? क्या यह किसी रूप में ज्ञान के किसी क्षेत्र या ज्ञानार्जन की किसी शाखा से संबंधित है? हम जीवविज्ञान पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, और हम निश्चित रूप से जैविक अनुसंधान नहीं कर रहे हैं। हमारी बात का मुख्य विचार क्या है? (परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है।) तुम लोगों ने सृष्टि के भीतर क्या देखा है? क्या तुमने पेड़ देखे हैं? क्या तुमने धरती देखी है? (हाँ।) तुम लोगों ने सूर्य की रोशनी देखी है, है न? क्या तुमने पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ देखी हैं? (देखी हैं।) क्या मानव-जाति ऐसे परिवेश में रहते हुए प्रसन्न है? (प्रसन्न है।) कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर मनुष्यों के घर, उनके जीवन के परिवेश की रक्षा करने के लिए सभी चीज़ों का—स्वयं द्वारा रचित चीज़ों का—इस्तेमाल करता है। इस तरह से परमेश्वर मनुष्य और सभी चीज़ों को पोषण प्रदान करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 168

कहानी 2: एक बड़ा पर्वत, एक छोटी जलधारा, एक प्रचंड हवा और एक विशाल लहर

एक छोटी जलधारा थी, जो यहाँ-वहाँ घूमती हुई बहती थी और अंततः एक बड़े पर्वत के निचले सिरे पर पहुँचती थी। पर्वत उस छोटी जलधारा के मार्ग को रोक रहा था, अतः उस जलधारा ने अपनी कमज़ोर एवं धीमी आवाज़ में पर्वत से कहा, “कृपया मुझे गुज़रने दो। तुम मेरे मार्ग में खड़े हो और मेरा आगे का मार्ग रोक रहे हो।” पर्वत ने पूछा, “तुम कहाँ जा रही हो?” जलधारा ने जवाब दिया, “मैं अपना घर ढूँढ़ रही हूँ।” पर्वत ने कहा, “ठीक है, आगे बढ़ो और सीधे मेरे ऊपर से बहकर निकल जाओ!” परंतु वह नन्ही जलधारा बहुत ही कमज़ोर और छोटी थी, अतः उसके लिए उस विशाल पर्वत के ऊपर से बहना संभव नहीं था। वह केवल पर्वत के निचले सिरे पर ही बहती रह सकती थी ...

एक प्रचंड हवा रेत और कंकड़ लेकर वहाँ आई, जहाँ पहाड़ खड़ा था। हवा पर्वत के ऊपर जोर से चीखी, “मुझे जाने दो!” पर्वत ने पूछा, “तुम कहाँ जा रही हो?” जवाब में हवा चिल्लाई, “मैं पर्वत के उस पार जाना चाहती हूँ।” पर्वत ने कहा, “ठीक है, अगर तुम मेरे सीने को चीर सकती हो, तो तुम जा सकती हो!” प्रचंड हवा ज़ोर-ज़ोर से गरजने लगी, लेकिन प्रचंडता से बहने के बावजूद वह पर्वत के सीने को चीरकर नहीं निकल सकी। हवा थक गई और आराम करने के लिए रुक गई—और पर्वत के दूसरी ओर एक मंद हवा बहने लगी, जिससे वहाँ के लोग प्रसन्न हो गए। यह लोगों को पर्वत का अभिवादन था ...

समुद्र के तट पर सागर की फुहार चट्टान के किनारे आहिस्ता-आहिस्ता लुढ़कने लगी। अचानक एक विशाल लहर ऊपर आई और गरजती हुई पर्वत की ओर अपना मार्ग बनाने लगी। “हट जाओ!” विशाल लहर चिल्लाई। पर्वत ने पूछा, “तुम कहाँ जा रही हो?” अपना वेग रोकने में असमर्थ लहर गरजी, “मैं अपने क्षेत्र का विस्तार कर रही हूँ! मैं अपनी बाँहें फैलाना चाहती हूँ।” पर्वत ने कहा, “ठीक है, यदि तुम मेरी चोटी से गुज़र सकती हो, तो मैं तुम्हें रास्ता दे दूँगा।” विशाल लहर थोड़ा पीछे हटी, और फिर से पर्वत की ओर उमड़ने लगी। लेकिन पूरी कोशिश करके भी वह पर्वत के ऊपर से नहीं जा सकी। लहर धीरे-धीरे वापस समुद्र में ही लौट सकती थी ...

हजारों साल तक छोटी जलधारा आहिस्ता-आहिस्ता पर्वत के निचले सिरे के चारों ओर रिसती रही। पर्वत के निर्देशों का पालन करते हुए अपना रास्ता बनाकर छोटी जलधारा वापस अपने घर पहुँच गई, जहाँ जाकर वह एक नदी में मिल गई, और नदी समुद्र में। पर्वत की देखरेख में छोटी जलधारा ने कभी अपना रास्ता नहीं खोया। जलधारा और पर्वत ने एक-दूसरे को पुष्ट किया और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।

हजारों साल तक प्रचंड हवा गरजती रही, जैसी कि उसकी आदत थी। वह फिर भी हवा के झोंकों के साथ रेत के बड़े-बड़े बगूले उड़ाती हुई अकसर पर्वत से “मिलने” आती। वह पर्वत को डराती, लेकिन उसके सीने को कभी नहीं चीर पाई। हवा और पर्वत एक-दूसरे को पुष्ट करते रहे और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।

हजारों साल तक विशाल लहर कभी आराम करने के लिए नहीं रुकी, और लगातार अपने क्षेत्र का विस्तार करते हुए वह निर्ममता से आगे बढ़ी। वह बार-बार पर्वत की ओर गरजती और उमड़ती, लेकिन पर्वत कभी एक इंच भी नहीं हिला। पर्वत ने समुद्र की निगरानी की, और इस तरह से, समुद्री जीव कई गुना बढ़े और फले-फूले। लहर और पर्वत एक-दूसरे को पुष्ट करते रहे और एक-दूसरे पर निर्भर रहे; उन्होंने एक-दूसरे को मजबूत बनाया, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया की और एक-दूसरे के साथ मौजूद रहे।

तो हमारी कहानी समाप्त होती है। पहले, मुझे बताओ, कहानी किस बारे में थी? शुरू करने के लिए, एक बड़ा पर्वत, एक छोटी जलधारा, एक प्रचंड हवा और एक विशाल लहर थी। पहले अंश में छोटी जलधारा और बड़े पर्वत के साथ क्या हुआ? मैंने एक जलधारा और एक पर्वत के बारे में बात करना क्यों चुना? (पर्वत की देखरेख में जलधारा ने कभी अपना रास्ता नहीं खोया। वे एक-दूसरे पर भरोसा करते थे।) तुम क्या कहोगे, पर्वत ने छोटी जलधारा की सुरक्षा की या उसे बाधित किया? (उसकी सुरक्षा की।) पर क्या उसने उसे बाधित नहीं किया? उसने और जलधारा ने एक-दूसरे का ध्यान रखा; पर्वत ने जलधारा की सुरक्षा की और उसे बाधित भी किया। जलधारा जब नदी में मिल गई, तो पर्वत ने उसकी सुरक्षा की, लेकिन साथ ही उसे उन जगहों पर बहने से भी रोका, जहाँ वह बह सकती थी और बाढ़ लाकर लोगों के लिए विनाशकारी हो सकती थी। क्या पहले अंश में यही सब नहीं था? जलधारा की सुरक्षा करके और उसे रोककर पर्वत ने लोगों के घरों की हिफ़ाज़त की। फिर छोटी जलधारा पर्वत के निचले सिरे पर नदी में मिल गई और बहकर समुद्र में चली गई। क्या यह जलधारा के अस्तित्व को नियंत्रित करने वाला नियम नहीं है? जलधारा को नदी और समुद्र में मिलने योग्य किसने बनाया? क्या वह पर्वत नहीं था? जलधारा ने पर्वत की सुरक्षा और बाधा पर भरोसा किया। तो क्या यह मुख्य बिंदु नहीं है? क्या तुम इसमें जल के लिए पर्वतों के महत्व को देखते हो? क्या छोटे-बड़े हर पर्वत को बनाने में परमेश्वर का कोई उद्देश्य था? (हाँ।) यह छोटा-सा अंश, जिसमें सिर्फ एक छोटी जलधारा और एक बड़ा पर्वत है, हमें परमेश्वर द्वारा उन दो चीज़ों के सृजन का मूल्य और महत्व दिखाता है; यह हमें उन पर उसके शासन की बुद्धिमत्ता और प्रयोजन भी दिखाता है। क्या ऐसा नहीं है?

कहानी का दूसरा अंश किस बारे में था? (एक प्रचंड हवा और एक बड़े पर्वत के बारे में।) क्या हवा एक अच्छी चीज़ है? (हाँ।) यह ज़रूरी नहीं है—कभी-कभी हवा बहुत तेज होती है और आपदा का कारण बन जाती है। यदि तुम्हें प्रचंड हवा में खड़ा कर दिया जाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? यह उसकी ताकत पर निर्भर करता है। अगर तीसरे या चौथे स्तर की ताकत वाली हवा होगी, तो यह सहनीय होगी। अधिक से अधिक व्यक्ति को अपनी आँखें खुली रखने में तकलीफ होगी। लेकिन अगर हवा प्रचंड हो जाए और बवंडर बन जाए, तो क्या तुम उसे झेल पाओगे? तुम नहीं झेल पाओगे। अतः लोगों का यह कहना गलत है कि हवा हमेशा अच्छी होती है, या यह कि वह हमेशा खराब होती है, क्योंकि यह उसकी ताकत पर निर्भर करता है। अब, यहाँ पर्वत का क्या काम है? क्या उसका काम हवा को शुद्ध करना नहीं है? पर्वत प्रचंड हवा को घटाकर किसमें बदल देता है? (हवा के हलके झोंके में।) अब जिस परिवेश में लोग रहते हैं, उसमें ज्यादातर लोग प्रचंड हवा महसूस करते हैं या हवा का हलका झोंका? (हवा का हलका झोंका।) क्या यह परमेश्वर के प्रयोजनों में से एक नहीं था, पहाड़ बनाने के उसके इरादों में से एक नहीं था? लोगों के लिए ऐसे परिवेश में रहना कैसा होगा, जहाँ रेत हवा में बेतरतीब ढंग से उड़ती हो, बेरोकटोक और बिना छने? क्या ऐसा हो सकता है कि जहाँ चारों तरफ रेत और पत्थर उड़ते हों, वह भूमि लोगों के रहने लायक न रह जाए? पत्थरों से लोगों को चोट लग सकती है और रेत उन्हें अंधा कर सकती है। हवा लोगों के पैर उखाड़ सकती है या उन्हें आसमान में उड़ाकर ले जा सकती है। घर तबाह हो सकते हैं और हर तरह की आपदाएँ आ सकती हैं। फिर भी क्या प्रचंड हवा के अस्तित्व का कोई मूल्य है? मैंने कहा यह बुरी है, तो किसी को लग सकता है कि इसका कोई मूल्य नहीं है, लेकिन क्या ऐसा ही है? हवा के हलके झोंके में बदलने के बाद क्या उसका कोई मूल्य नहीं है? जब मौसम नम या उमस से भरा होता है, तो लोगों को सबसे अधिक किस चीज़ की आवश्यकता होती है? उन्हें हवा के हलके झोंके की जरूरत होती है, जो उन पर धीरे से बहे, उन्हें तरोताजा कर दे और उनका दिमाग साफ़ कर दे, उनकी सोच तेज कर दे और उनकी मनोदशा सुधार दे। अब, उदाहरण के लिए, तुम लोग एक कमरे में बैठे हुए हो, जहाँ बहुत सारे लोग हैं और हवा घुटन भरी है—तुम्हें सबसे अधिक किस चीज़ की आवश्यकता होगी? (हवा के हलके झोंके की।) ऐसी जगह जाना, जहाँ हवा गंदी और धूल से भरी हो, आदमी की सोच धीमी कर सकता है, उसका रक्त-प्रवाह कम कर सकता है, और उसके मस्तिष्क की स्पष्टता घटा सकता है। लेकिन, थोड़ी-सी हलचल और संचरण हवा को तरोताजा कर देता है, और लोग ताजी हवा में अलग तरह से महसूस करते हैं। हालाँकि छोटी जलधारा आपदा बन सकती है, हालाँकि प्रचंड हवा आपदा बन सकती है, लेकिन जब तक पर्वत है, वह उस खतरे को लोगों को फायदा पहुँचाने वाली ताकत में बदल देगा। क्या ऐसा नहीं है?

कहानी का तीसरा अंश किसके बारे में था? (बड़े पर्वत और विशाल लहर के बारे में।) यह अंश पर्वत के निचले हिस्से में समुद्र-तट पर स्थित है। हम पर्वत, समुद्री फुहार और एक विशाल लहर देखते हैं। इस उदाहरण में पर्वत लहर के लिए क्या है? (एक रक्षक और एक अवरोधक।) वह एक रक्षक और अवरोधक दोनों है। एक रक्षक के रूप में वह समुद्र को अदृश्य होने से बचाता है, ताकि उसमें रहने वाले प्राणी कई गुना बढ़ सकें और फल-फूल सकें। एक अवरोधक के रूप में पर्वत समुद्री जल को उमड़कर बहने और आपदा उत्पन्न करने, लोगों के घरों को नुकसान पहुँचाने और उन्हें नष्ट करने से रोकता है। अतः हम कह सकते हैं कि पर्वत रक्षक और अवरोधक दोनों है।

यह बड़े पर्वत और छोटी जलधारा, बड़े पर्वत और प्रचंड हवा, और बड़े पर्वत और विशाल लहर के बीच अंतर्संबंध का महत्व है; यह उनके द्वारा एक-दूसरे को मजबूत बनाने, एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करने और उनके सह-अस्तित्व का महत्व है। परमेश्वर द्वारा बनाई गई ये चीज़ें अपने अस्तित्व में एक नियम और व्यवस्था द्वारा नियंत्रित होती हैं। तो, इस कहानी में तुमने परमेश्वर के कौन-से कार्य देखे? क्या परमेश्वर सभी चीज़ों को बनाने के बाद से उन्हें अनदेखा करता आ रहा है? क्या उसने सभी चीज़ों के कार्य करने के नियम और प्रारूप केवल बाद में उनकी उपेक्षा करने के लिए बनाए? क्या ऐसा हुआ है? (नहीं।) तो फिर क्या हुआ? परमेश्वर अभी भी नियंत्रण करता है। वह जल, हवा और लहरों का नियंत्रण करता है। वह उन्हें उच्छृंखल रूप से नहीं चलने देता और न वह उन्हें उन घरों को नुकसान पहुँचाने या उन्हें बरबाद करने देता है, जिनमें लोग रहते हैं। इस कारण से लोग धरती पर रह सकते हैं, कई गुना बढ़ सकते हैं और फल-फूल सकते हैं। इसका मतलब है कि जब परमेश्वर ने सभी चीजें बनाईं, तो उसने उनके अस्तित्व के लिए नियमों की योजना पहले ही बना ली थी। जब परमेश्वर ने प्रत्येक चीज़ बनाई, तो उसने सुनिश्चित किया कि वह मनुष्य को लाभ पहुँचाएगी, और उसने उस पर नियंत्रण कर लिया, ताकि वह मानव-जाति को परेशान न करे या उसे संकट में न डाले। यदि परमेश्वर का प्रबंधन न होता, तो क्या जल अनियंत्रित रूप से न बह रहा होता? क्या हवा बिना किसी नियंत्रण के न बह रही होती? क्या पानी और हवा किसी नियम का पालन करते हैं? यदि परमेश्वर ने उनका प्रबंधन न किया होता, तो कोई नियम उन्हें नियंत्रित न करता, हवा गरजा करती और जल निरंकुश होता तथा बाढ़ का कारण बनता। यदि लहर पर्वत से अधिक ऊँची होती, तो क्या समुद्र का अस्तित्व रह पाता? नहीं रह पाता। यदि पर्वत लहर के समान ही ऊँचा नहीं होता, तो समुद्र का अस्तित्व न रहता और पर्वत अपना मूल्य एवं महत्व खो देता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 169

परमेश्वर ने वह सब-कुछ बनाया जिसका अस्तित्व है, और वह हर उस चीज का संप्रभु है जो मौजूद है; वह इन सबका प्रबंधन करता है और इन सबको पोषण प्रदान करता है, और सभी चीजों के भीतर, वह हर मौजूद चीज के हर वचन और कार्रवाई को देखता और जाँचता है। इसी तरह परमेश्वर मानव-जीवन के हर कोने को भी देखता और जाँचता है। अतः परमेश्वर अपनी सृष्टि के अंतर्गत मौजूद हर चीज़ का हर विवरण अंतरंग रूप से जानता है; हर चीज़ की कार्यप्रणाली, उसकी प्रकृति और उसके जीवित रहने के नियमों से लेकर उसके जीवन के महत्त्व और उसके अस्तित्व के मूल्य तक, परमेश्वर को यह सब समग्र रूप से ज्ञात है। परमेश्वर ने सब चीज़ों को बनाया—तुम लोग क्या सोचते हो कि उसे उन नियमों का अध्ययन करने की ज़रूरत है, जो उन्हें नियंत्रित करते हैं? क्या उनके बारे में जानने-समझने के लिए परमेश्वर को मानवीय ज्ञान या विज्ञान को पढ़ने की ज़रूरत है? (नहीं।) क्या मनुष्यों में कोई ऐसा है, जिसके पास सभी चीज़ों को समझने की वैसी विद्वत्ता और ज्ञान है, जैसा परमेश्वर के पास है? नहीं है ना? क्या कोई खगोलशास्त्री या जीव-विज्ञानी है, जो वास्तव में उन नियमों को समझता है, जिनके द्वारा सभी चीज़ें जीवित रहती और बढ़ती हैं? क्या वे वास्तव में हर चीज़ के अस्तित्व के मूल्य को समझ सकते हैं? (नहीं, वे नहीं समझ सकते।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी चीज़ों को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था, और मनुष्य चाहे जितना भी ज्यादा और जितनी भी गहराई से इस ज्ञान का अध्ययन कर लें, या जितने भी लंबे समय तक वे इसे जानने का प्रयास कर लें, वे कभी भी परमेश्वर के द्वारा बनाई गई सभी चीज़ों के रहस्य या उद्देश्य की थाह नहीं ले पाएँगे। क्या यह सही नहीं है? अब, हमारी अब तक की चर्चा से क्या तुम लोगों को लगता है कि तुमने “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” उक्ति के सही अर्थ की आंशिक समझ हासिल कर ली है? (हाँ।) मैं जानता था कि जब मैं इस विषय—परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है—की चर्चा करूँगा, अनेक लोग तुरंत इस दूसरी उक्ति के बारे में सोचने लगेंगे, “परमेश्वर सत्य है, और परमेश्वर अपने वचन का प्रयोग हमें पोषण प्रदान करने के लिए करता है,” लेकिन वे इस विषय के अर्थ के इस स्तर से परे कुछ नहीं सोचेंगे। कुछ लोगों को तो यह भी लग सकता है कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य के जीवन, दैनिक खान-पान और तमाम दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य के लिए उसके पोषण के रूप में नहीं गिनी जाती। क्या कुछ लोग ऐसे नहीं हैं, जो इस तरह से महसूस करते हैं? फिर भी, क्या परमेश्वर के सृजन में उसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं है—कि मानव-जाति का अस्तित्व बना रहे और वह सामान्य रूप से जीवित रहे? परमेश्वर उस परिवेश को बनाए रखता है, जिसमें लोग रहते हैं और वह उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है। इसके अतिरिक्त, वह सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है और उनके ऊपर प्रभुत्व रखता है। इस सबसे मानव-जाति सामान्य रूप से जीवित रह पाती है, फल-फूल पाती है और बढ़ पाती है; इस तरह परमेश्वर अपनी बनाई सभी चीज़ों और मानव-जाति का पोषण करता है। क्या यह सच नहीं है कि लोगों को इन चीज़ों को पहचानने एवं समझने की आवश्यकता है? शायद कुछ लोग कह सकते हैं, “यह विषय स्वयं सच्चे परमेश्वर के बारे में हमारे ज्ञान से बहुत दूर है, और हम इसे नहीं जानना चाहते, क्योंकि हम केवल रोटी के सहारे नहीं जीते, बल्कि परमेश्वर के वचन के सहारे जीते हैं।” क्या यह समझ सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? यदि तुम्हें केवल परमेश्वर की कही हुई बातों का ही ज्ञान है, तो क्या तुम लोगों को परमेश्वर की पूर्ण समझ हो सकती है? यदि तुम केवल परमेश्वर के कार्य एवं उसके न्याय और ताड़ना को ही स्वीकार करते हो, तो क्या तुम्हें परमेश्वर की पूर्ण समझ हो सकती है? यदि तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के अधिकार के एक छोटे-से भाग को ही जानते हो; तो क्या तुम इसे परमेश्वर की समझ हासिल करने के लिए काफी समझोगे? (नहीं।) परमेश्वर के कार्य उसके द्वारा सभी चीजों के सृजन के साथ शुरू हुए और वे आज तक जारी हैं—परमेश्वर के कार्य हर समय और हर क्षण प्रकट हैं। अगर कोई यह विश्वास करता है कि परमेश्वर सिर्फ इसलिए अस्तित्व में है, क्योंकि उसने लोगों के एक समूह को बचाने और उस पर अपना कार्य करने के लिए चुना है, और कि किसी अन्य चीज़ का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, और न ही उसके अधिकार, उसकी हैसियत, और उसके क्रियाकलापों से कोई लेना-देना है, तो क्या यह समझा जा सकता है कि उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? जिन लोगों को यह तथाकथित “परमेश्वर का ज्ञान” है, उन्हें केवल एकतरफा समझ है, जिसके अनुसार वे परमेश्वर के कर्मों को लोगों के एक समूह तक सीमित कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? क्या इस तरह का ज्ञान रखने वाले लोग परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों की सृष्टि और उनके ऊपर उसके प्रभुत्व को नकारते नहीं हैं? कुछ लोग इस पर ध्यान नहीं देना चाहते, इसके बजाय वे सोचते हैं : “मैंने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर का प्रभुत्व नहीं देखा है। इसका मुझसे कोई वास्ता नहीं और मैं इसे समझने की परवाह भी नहीं करता। परमेश्वर जो कुछ चाहता है वह करता है, और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं केवल परमेश्वर की अगुआई और उसके वचन को स्वीकार करता हूँ, ताकि मुझे परमेश्वर द्वारा बचाया और परिपूर्ण बनाया जा सके। मेरे लिए और कुछ मायने नहीं रखता। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, तब जो भी नियम उसने बनाए या सभी चीज़ों एवं मानव-जाति को पोषण प्रदान करने के लिए जो कुछ वह करता है, उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” यह कैसी बात है? क्या यह विद्रोह का कार्य नहीं है? क्या तुम लोगों में इस तरह की समझ रखने वाला कोई है? मैं जानता हूँ कि तुममें बहुत लोग ऐसे हैं, भले ही तुम लोग ऐसा न कहो। ऐसे लकीर के फकीर लोग हर चीज़ अपने ही “आध्यात्मिक” दृष्टिकोण से देखते हैं। वे परमेश्वर को बाइबल तक सीमित कर देना चाहते हैं, उसके द्वारा कहे गए वचनों तक सीमित कर देना चाहते हैं, अक्षरशः लिखित वचन से निकाले गए अर्थ तक सीमित कर देना चाहते हैं। वे परमेश्वर को और अधिक जानने की इच्छा नहीं करते और वे नहीं चाहते कि परमेश्वर अन्य कार्य करने पर ध्यान दे। इस प्रकार की सोच बचकानी है और हद से ज्यादा धार्मिक भी है। क्या इस तरह के विचार रखने वाले लोग परमेश्वर को जान सकते हैं? उनके लिए परमेश्वर को जानना बहुत कठिन होगा। आज मैंने दो कहानियाँ सुनाई हैं, जिनमें से प्रत्येक कहानी दो भिन्न पहलुओं की ओर ध्यान खींचती है। इनके संपर्क में अभी-अभी आने पर, तुम लोगों को लग सकता है कि ये गहन या कुछ अमूर्त हैं और इन्हें जानना-समझना कठिन है। इन्हें परमेश्वर के कार्यों और स्वयं परमेश्वर से जोड़ना कठिन हो सकता है। फिर भी, परमेश्वर के सभी कार्य और वह सब, जो उसने सभी चीज़ों और संपूर्ण मानव-जाति के मध्य किया है, प्रत्येक व्यक्ति को, हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर को जानना चाहता है, स्पष्ट एवं सटीक रूप से जानना चाहिए। यह ज्ञान तुम्हें परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व में तुम्हारे विश्वास को निश्चितता प्रदान करेगा। यह तुम्हें परमेश्वर की बुद्धि, उसके सामर्थ्य, और उसके द्वारा सभी चीज़ों का पोषण करने के तरीके का सटीक ज्ञान भी देगा। इससे तुम लोग परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व को स्पष्ट रूप से समझ पाओगे और यह देख सकोगे कि उसका अस्तित्व काल्पनिक नहीं है, मिथक नहीं है, अस्पष्ट नहीं है, सिद्धांत नहीं है, और निश्चित रूप से एक तरह की आध्यात्मिक सांत्वना नहीं है, बल्कि एक वास्तविक अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त, इससे लोग यह जान पाएँगे कि परमेश्वर ने हमेशा समस्त सृष्टि और मानव-जाति को पोषण प्रदान किया है; परमेश्वर इसे अपने तरीके से और अपनी लय के अनुसार करता है। तो, ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर ने सभी चीज़ें बनाईं और उन्हें नियम दिए कि वे सभी, उसके पूर्व-निर्धारण के अनुसार, अपने आवंटित कार्य करने, अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने, और अपनी भूमिका निभाने में सक्षम हैं; उसके पूर्व-निर्धारण में हर चीज़ का मानव-जाति की सेवा में और मनुष्य के रहने के स्थान और परिवेश में अपना उपयोग है। यदि परमेश्वर ऐसा न करता और मानव-जाति के पास अपने रहने के लिए परिवेश न होता, तो उसके लिए परमेश्वर में विश्वास करना या उसका अनुसरण करना असंभव होता; यह महज एक खोखली बात होती। क्या ऐसा नहीं है?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 170

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाया जाने वाला बुनियादी जीवित रहने का पर्यावरण (चुने हुए अंश)

हमने इस वाक्यांश “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” के सम्बन्ध में बहुत से विषयों और विषयवस्तु पर बातचीत की है, किन्तु क्या तुम लोग अपने हृदय के भीतर जानते हो कि परमेश्वर तुम लोगों को अपने वचन की आपूर्ति करने और तुम लोगों पर अपनी ताड़ना एवं अपने न्याय के कार्य को क्रियान्वित करने के अलावा मनुष्यजाति को कौन सी चीज़ें प्रदान करता है? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह और आशीष प्रदान करता है; वह मुझे अनुशासन और राहत देता है, वह मुझे हर संभावित तरीके से देखरेख और सुरक्षा देता है।” अन्य लोग कहेंगे, “परमेश्वर मुझे प्रतिदिन भोजन और पेय प्रदान करता है,” जबकि कुछ अन्य लोग यहाँ तक कहेंगे कि, “परमेश्वर मुझे सब कुछ देता है।” इन चीज़ों के बारे में जिनके सम्पर्क में लोग अपने दैनिक जीवन के दौरान आ सकते हैं, तुम सभी लोगों के पास कुछ उत्तर हो सकते हैं जो तुम लोगों के स्वयं के भौतिक जीवन अनुभव से सम्बन्धित हैं। परमेश्वर हर एक इंसान को बहुत सी चीज़ें देता है, यद्यपि जिसकी हम यहाँ पर चर्चा कर रहे हैं वह सिर्फ लोगों की दैनिक आवश्यकताओं के दायरे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति के देखने के क्षेत्र को बढ़ाने और तुम लोगों को चीज़ों को एक बृहत् परिप्रेक्ष्य से देखने देने के आशय से है। चूँकि परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है, तो वह कैसे सभी चीज़ों के जीवन को बनाए रखता है? ताकि सभी चीज़ें लगातार अस्तित्व में बनी रह सकें, तो उनके अस्तित्व को बनाए रखने और उनके अस्तित्व की व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए परमेश्वर सभी चीज़ों के लिए क्या लाता है? यही वह मुख्य बिन्दु है जिसके बारे में हम आज चर्चा कर रहे हैं। ... मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उस विषय को और उन चीज़ों को जिनके बारे में मैं बात करने जा रहा हूँ परमेश्वर के कर्मों से जोड़ सकते हो, और उन्हें किसी ज्ञान के साथ जोड़ या किसी मानवीय संस्कृति या अनुसन्धान से बाँध नहीं सकते हो। मैं सिर्फ परमेश्वर और स्वयं परमेश्वर के बारे में बात कर रहा हूँ। तुम लोगों के लिए यही मेरा सुझाव है। मुझे यकीन है, तुम समझते हो, है न?

परमेश्वर ने मानवजाति को बहुत सी चीज़ें प्रदान की हैं। लोग जो कुछ देख सकते हैं, अर्थात्, जो वे महसूस कर सकते हैं, उसके बारे में बात करके मैं शुरूआत करने जा रहा हूँ। ये ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लोग अपने भीतर समझ सकते हैं और स्वीकार कर सकते हैं। अतः परमेश्वर ने मनुष्यजाति को क्या आपूर्ति किया है इस पर चर्चा करने के लिए आओ हम पहले भौतिक जगत के साथ शुरूआत करें।

i. वायु

सबसे पहले, परमेश्वर ने वायु को बनाया ताकि मनुष्य साँस ले सके। “वायु” एक पदार्थ है जिसके साथ मनुष्यगण रोज संपर्क कर सकते हैं और यह एक ऐसी चीज़ है जिसके ऊपर मनुष्य हर पल निर्भर रहते हैं, यहाँ तक कि उस समय भी जब वह सोता है? वह वायु जिसका परमेश्वर ने सृजन किया है वह मनुष्यजाति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है : यह उनकी प्रत्येक श्वास एवं स्वयं उनके जीवन के लिए अति आवश्यक तत्व है। यह सार, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है किन्तु देखा नहीं जा सकता है, सभी चीज़ों के लिए परमेश्वर की प्रथम भेंट थी। वायु का सृजन करने के बाद, क्या परमेश्वर ने बस दुकान बन्द कर दी थी? वायु का सृजन करने के बाद, क्या परमेश्वर ने वायु के घनत्व पर विचार किया? क्या परमेश्वर ने वायु के तत्वों का विचार किया? जब परमेश्वर ने वायु को बनाया तो वह क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने वायु को क्यों बनाया, और उसका तर्क क्या था? मनुष्यों को वायु की आवश्यकता होती है, और उन्हें श्वास लेने की आवश्यकता होती है। सबसे पहले, वायु का घनत्व मनुष्यों के फेफड़ों के लिए माकूल होना चाहिए। क्या कोई वायु के घनत्व को जानता है? यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे लोगों को जानने की आवश्यकता है; इसे जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें वायु के घनत्व के सम्बन्ध में किसी सटीक संख्या की आवश्यकता नहीं है और एक साधारण अंदाजा होना ही अच्छा है। परमेश्वर ने ऐसे घनत्व के साथ वायु को बनाया जो साँस लेने हेतु मानवीय फेफड़ों के लिए बिल्कुल उपयुक्त होगी, अर्थात्, मनुष्य जब साँस अन्दर लें, तो वे सहज महसूस करें यह उनके शरीर को नुकसान नहीं पहुँचाएगी। वायु के घनत्व के पीछे यही अवधारणा है। तब हम वायु के तत्वों के बारे में बात करेंगे। पहली बात, वायु के तत्व मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले विषैले नहीं होते हैं और उससे फेफड़े और शरीर को नुकसान नहीं पहुँचेगा। परमेश्वर को इस सब के बारे में विचार करना था। परमेश्वर को विचार करना था कि वह वायु जो मनुष्य साँस से ले रहा है वह आसानी से भीतर और बाहर आनी-जानी चाहिए, और यह कि, भीतर श्वास लेने के बाद, वायु का तत्व और मात्रा ऐसी होनी चाहिए जिससे रक्त और साथ ही फेफड़ों और शरीर की बेकार हवा सही ढंग से चयापचय हो जाए, और साथ ही यह भी कि उस हवा में कोई ज़हरीले अवयव नहीं होने चाहिए। इन दो मानकों के सम्बन्ध में, मैं तुम लोगों में ज्ञान का ढेर नहीं भरना चाहता हूँ, बल्कि इसके बजाए बस तुम लोगों को यह जानने देना चाहता हूँ कि परमेश्वर के मस्तिष्क में एक विशेष वैचारिक प्रक्रिया थी जब उसने हर एक चीज़ को बनाया था—सर्वश्रेष्ठ। इसके अलावा, जहाँ तक वायु में धूल की मात्रा, पृथ्‍वी पर धूल, रेत एवं मिट्टी की मात्रा, और साथ ही वह धूल जो आकाश से नीचे आती है उसकी मात्रा की बात है—परमेश्वर के पास इन चीज़ों का प्रबंधन करने के लिए भी परमेश्वर के तरीके हैं, उन्हें दूर करने या उन्हें विघटित करने के तरीके। जबकि धूल की कुछ मात्रा है, किन्तु परमेश्वर ने इसे ऐसा बनाया कि धूल मनुष्य के शरीर एवं श्वसन को नुकसान नहीं पहुँचाए, और कि धूल के कण ऐसे आकार के हों जो शरीर के लिए नुकसानदेह न हों। क्या परमेश्वर का वायु की रचना करना रहस्यमयी नहीं है? क्या यह उसके मुँह से हवा फूँकने के समान ही सरल था? (नहीं।) यहाँ तक कि उसके सरल चीज़ों के सृजन में भी, परमेश्वर का रहस्य, उसका मन, उसके विचार और उसकी बुद्धि सब कुछ स्पष्ट हैं। क्या परमेश्वर यथार्थवादी नहीं है? (हाँ, वह यथार्थवादी है।) अर्थात्, यहाँ तक कि किसी सरल चीज़ का सृजन करने में भी, परमेश्वर मनुष्यजाति के बारे में सोच रहा था। पहली बात, वह वायु जिसे मनुष्य साँस के साथ अंदर लेते हैं वह साफ है, उसके तत्व मनुष्य के श्वास लेने के लिए उपयुक्त हैं और, वे विषैले नहीं हैं और मनुष्य को कोई नुकसान नहीं पहुँचाते हैं, और उसका घनत्व मनुष्य के श्वास लेने के लिए उपयुक्‍त है। यह वायु, जिसे मनुष्य श्वास के साथ अन्दर एवं बाहर लेते-निकालते हैं, उनके शरीर और उनकी देह के लिए जरूरी है। अतः मनुष्य मुक्त रूप से बिना किसी रूकावट या चिंता के साँस ले सकते हैं। वे सामान्य रूप से साँस ले सकते हैं। वायु वह है जिसका परमेश्वर ने आदि में सृजन किया था और जो मनुष्य के श्वास लेने के लिए अपरिहार्य है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 171

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाया जाने वाला बुनियादी जीवित रहने का पर्यावरण (चुने हुए अंश)

ii. तापमान

दूसरी चीज़ है तापमान। हर कोई जानता है कि तापमान क्या होता है। तापमान एक ऐसी चीज़ हैं जिससे मनुष्य के जीवित रहने के लिए उपयुक्त वातावरण को अवश्य सुसज्जित होना चाहिए। यदि तापमान बहुत ही अधिक है, मान लीजिए यदि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर है, तो क्या मनुष्यों के लिए बहुत क्षीण करने वाला नहीं होगा? क्या उनके जीने के लिए ये बेहद थकाऊ नहीं होगा? क्या होगा यदि तापमान बहुत नीचे है, और शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस कम हो जाता है? मनुष्य तब भी इसे सहन नहीं कर पाएँगे। इसलिए, परमेश्वर ने तापमान के इस क्रम को निर्धारित करने में वास्तव में विशेष रूप से ध्यान दिया था। तापमान की जो सीमा मनुष्‍य शरीर के अनुकूल है वह मूल रूप से -30 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री सेल्सियस तक है। यह उत्तर से दक्षिण तक तापमान की बुनियादी सीमा है। ठण्डे प्रदेशों में, तापमान संभवतः -50 से -60 डिग्री सेल्सियस तक गिर सकता है। ऐसा प्रदेश एक ऐसा स्थान नहीं हैं जहाँ रहने के लिए परमेश्वर मनुष्य को अनुमति देता है। ऐसे ठण्डे प्रदेश क्यों हैं? इसके बीच परमेश्वर की बुद्धि और उसके इरादे निहित हैं। वह तुम्हें उन स्थानों के निकट जाने की अनुमति नहीं देता है। परमेश्वर उन स्थानों को सुरक्षित रखता है जो बहुत अधिक गर्म और बहुत अधिक ठण्डे हैं, अर्थात् वह मनुष्य को वहाँ रहने की अनुमति देने को तैयार नहीं है। ये मनुष्यजाति के लिए नहीं है। वह पृथ्वी पर ऐसे स्थानों का अस्तित्व क्यों रहने देता है? यदि परमेश्वर मनुष्यजाति को वहाँ रहने या वहाँ अस्तित्व में बने रहने की अनुमति नहीं देता है, तो परमेश्वर उन्हें क्यों बनाता है? इसमें परमेश्वर की बुद्धि निहित है। अर्थात्, मनुष्यों के जीवित रहने के लिए वातावरण के बुनियादी तापमान को भी परमेश्वर के द्वारा न्यायसंगत रूप से समायोजित किया गया है। इसमें भी एक नियम है। परमेश्वर ने इस तापमान को बनाए रखने में सहायता करने, इस तापमान को नियन्त्रित करने के लिए कुछ चीज़ों को बनाया है। इस तापमान को बनाए रखने में कौन सी चीज़ों का उपयोग किया जाता है? सर्वप्रथम, सूर्य लोगों के लिए गर्माहट ला सकता है, किन्तु यदि यह बहुत अधिक गर्म हो तो क्या लोग इसे ले पाएँगे। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो सूर्य के निकट जाने का साहस करता है? क्या पृथ्वी पर कोई उपकरण है जो सूर्य के करीब जा सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? यह अत्यधिक गर्म है। यह सूर्य के पास जाने से पिघल जाएगा। इसलिए, परमेश्वर ने मनुष्यजाति से सूर्य की दूरी के विशिष्ट उपाय को कार्यान्वित किया है; उसने विशेष कार्य किया है। परमेश्वर के पास इस दूरी के लिए एक मानक है। साथ ही पृथ्वी में उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव भी हैं। वहाँ पूरी की पूरी हिमनद हैं। क्या मानवजाति हिमनदों पर रह सकती है? क्या यह मनुष्यों के रहने के लिए उपयुक्त है? नहीं, इसलिए लोग इन स्थानों पर नहीं जाते। चूँकि लोग उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव पर नहीं जाते, इसलिए हिमनद सुरक्षित रहेंगे, और वे अपनी भूमिका निभाने में समर्थ होंगे, जो तापमान को नियन्त्रित करने के लिए है। समझे? यदि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव न हों और सूर्य हमेशा पृथ्वी पर चमकता रहे, तो पृथ्वी के सभी लोग गर्मी से मर जाएँगे। क्या परमेश्वर मनुष्यों के जीवित बचे रहने हेतु उपयुक्त तापमान को नियन्त्रित करने के लिए मात्र इन दो चीज़ों का ही उपयोग करता है? नहीं, सभी किस्म की जीवित चीज़ें भी हैं, जैसे मैदानों पर घास, जंगलों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष और सब प्रकार के पौधे जो सूर्य की गर्मी को सोख लेते हैं और ऐसा करने में, सूर्य की ताप ऊर्जा को इस तरह से तटस्थ कर देते हैं जो उस पर्यावरण के तापमान को विनियमित कर देता है जिसमें मनुष्यजाति रहती है। जल के स्रोत भी हैं, जैसे नदियाँ एवं झीलें। नदियों एवं झीलों की सतह का क्षेत्रफल कुछ ऐसा नहीं है जिसे किसी के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। पृथ्वी पर कितना जल है, कहाँ जल प्रवाहित होता है, जिस दिशा में यह प्रवाहित होता है, जल की मात्रा या प्रवाह की गति को कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता है? केवल परमेश्वर ही जानता है। जल के ये विभिन्न स्रोत, जिसमें भूमिगत जल और भूमि के ऊपर की नदियाँ और झीलें शामिल हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं, भी उस तापमान को नियन्त्रित कर सकते हैं जिसमें मनुष्य रहते हैं। इसके सबसे ऊपर, हर प्रकार की भौगोलिक संरचनाएँ हैं, जैसे पहाड़, मैदान, घाटियाँ और आर्द्र भूमियाँ है; ये विभिन्न भौगोलिक संरचनाएँ और उनके सतही क्षेत्रफल और आकार सभी तापमान को नियन्त्रित करने में भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि इस पर्वत की परिधि 100 किलोमीटर है, तो इन 100 किलोमीटर द्वारा उपयोगिता का योगदान 100 किलोमीटर जितना होगा। जहाँ तक केवल इसकी बात है कि परमेश्वर ने इस पृथ्वी पर कितनी पर्वत मालाएँ और घाटियाँ बनायी हैं, तो यह ऐसा कुछ है जिसके विषय में परमेश्वर ने पूर्ण रूप से विचार किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा रचना की गई प्रत्येक चीज़ के अस्तित्व के पीछे एक कहानी है, और ये परमेश्वर की बुद्धि एवं योजनाएँ से युक्त हैं। उदाहरण के लिए, वनों और सभी प्रकार की विभिन्न वनस्पतियों पर विचार करो—जिस विस्तार-क्षेत्र और सीमा-क्षेत्र में वे मौजूद हैं और उगते हैं, वह किसी भी मनुष्य के नियंत्रण से परे है, और इन चीज़ों पर किसी का भी प्रभाव नहीं है। इसी प्रकार, किसी मनुष्य का इस पर भी नियंत्रण नहीं है कि वे कितना जल सोखते हैं, न इस पर कि वे सूर्य से कितनी ताप-ऊर्जा सोखते हैं। ये सभी चीज़ें उस योजना के दायरे के भीतर आती हैं, जिसे परमेश्वर ने तब बनाया था, जब उसने सभी चीज़ों का सृजन किया था।

यह केवल परमेश्वर की सावधानीपूर्वक योजना, विचार और सभी पहलुओं में व्यवस्थाओं के कारण है कि मनुष्य एक वातावरण में एक ऐसे उपयुक्त तापमान के साथ रह सकता है। इसलिए, हर एक चीज़ जिसे मनुष्य अपनी आँखों से देखता है, जैसे कि सूर्य, उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव जिनके बारे में लोग अक्सर सुनते हैं, और साथ ही भूमि के ऊपर और नीचे तथा जल के विभिन्न जीवित प्राणी, और जंगलों का सतही क्षेत्रफल एवं अन्य प्रकार की वनस्पतियाँ, और जल के स्रोत, विभिन्न जलाशय, कितना समुद्री जल एवं मीठा पानी है, और विभिन्न भौगोलिक वातावरण—परमेश्वर मनुष्य के जीवित बचे रहने के लिए सामान्य तापमान को बरकरार रखने हेतु इन चीज़ों का उपयोग करता है। यह परम सिद्धांत है। यह केवल इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसे विचार हैं जिससे मनुष्य एक वातावरण में ऐसे उपयुक्त तापमान के साथ रहने में समर्थ होता है। यह न तो बहुत अधिक ठण्डा हो सकता है और न ही बहुत अधिक गर्म हो सकता है : जो स्थान बहुत अधिक गर्म होते हैं और जहाँ तापमान उस सीमा से अधिक होता है जिसे मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है वे निश्चित रूप से परमेश्वर के द्वारा तुम्हारे लिए नहीं बनाए गए हैं। जो स्थान बहुत अधिक ठण्डे हैं और जहाँ तापमान बहुत कम हैं; ऐसे स्थान जो, जैसे ही मनुष्य पहुँचेंगे, उन्हें कुछ ही मिनट में इतना जमा देंगे कि वे बोलने के काबिल भी नहीं रहेंगे, उनके दिमाग़ जम जाएँगे, वे सोचने के काबिल नहीं रहेंगे, और बहुत ही जल्द उनका दम घुट जाएगा—ऐसे स्थानों को भी परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए नहीं बनाया जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य किस प्रकार का अनुसन्धान करना चाहते हैं, या चाहे वे नई खोज करना चाहते हैं या ऐसी सीमाओं को तोड़ना चाहते हैं—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोग क्या सोचते हैं, वे कभी भी उन सीमाओं से पार जाने में समर्थ नहीं होंगे जो मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है। वे कभी भी परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाई गई सीमाओं से छुटकारा पाने में समर्थ नहीं होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया है, परमेश्वर बहुत अच्छी तरह से जानता है कि किस तापमान तक मानव शरीर अनुकूलित कर सकता है। लेकिन मनुष्य स्वयं नहीं जानते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि मनुष्य नहीं जानते हैं? मनुष्यों ने किस प्रकार की मूर्खता भरी चीज़ें की हैं? क्या कुछ ऐसे लोग नहीं हैं जो हमेशा उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों को चुनौती देना चाहते हैं? वे उस भूमि पर कब्‍ज़ा करने के लिए हमेशा वहाँ जाना चाहते हैं, ताकि वे वहाँ जड़ जमा सकें और उसका विकास कर सकें। यह एक बेतुकेपन का कृत्य होगा। भले ही तुमने पूरी तरह से ध्रुवों का अुनसन्धान कर लिया हो, तो क्या? भले ही तुम ऐसे तापमानों पर स्‍वयं को अनुकूलित कर सकते हो, तुम वहाँ रह सकते हो, और तुम उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के सजीव वातावरण को “सुधार” देते हो, तब भी क्या इससे मानवजाति को किसी तरह का लाभ पहुँच सकता है? मनुष्यजाति के पास एक ऐसा वातावरण है जिसमें वे जीवित रह सकते हैं, परन्तु वे बस शांतिपूर्ण ढंग से और विनम्रता से यहाँ नहीं रह सकते हैं, और उन्हें वहाँ जाना है जहाँ वे जीवित बचे नहीं रह सकते हैं। ऐसा मामला क्यों है? वे इस उपयुक्त तापमान में रहते हुए उकता गए हैं। उन्होंने बहुत से आशीषों का आनन्द उठाया है। इसके अतिरिक्त, इस सामान्य जीवित रहने के वातावरण को मानवजाति के द्वारा काफी हद तक नष्ट कर दिया गया है, इसलिए वे थोड़ा और नुकसान करने या किसी “मनोरथ” में संलग्न होने के लिए उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर भी जा सकते हैं, ताकि वे एक प्रकार के “प्रवर्तक” बन सकें। क्या यह मूर्खता नहीं है? अर्थात्, अपने पूर्वज शैतान की अगुवाई में, यह मनुष्यजाति, बेधड़क और निर्दयतापूर्वक उस सुन्दर आवास को नष्ट करते हुए जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बनाया था, लगातार एक के बाद एक बेतुकी चीज़ें करती है। शैतान ने यही किया था। इसके अलावा, यह देखते हुए कि पृथ्वी पर मनुष्यजाति का जीवन थोड़ा खतरे में है, बहुत से लोग चाँद पर जा कर बसने के तरीके ढूँढ़ते हैं, वे बच निकलने के लिए एक मार्ग खोजने के लिए यह देखते हैं कि वे वहाँ रह सकते हैं या नहीं। अंत में, चाँद पर ऑक्सीजन नहीं है। क्या मानवजाति ऑक्सीजन के बिना जीवित बची रह सकती है? चूँकि चाँद में ऑक्सीजन का अभाव है, तो यह ऐसी जगह नहीं है जिस पर मनुष्य ठहर सकता है, और फिर भी मनुष्य वहाँ जाने की लगातार इच्छा बनाए रखता है। यह क्या है? यह भी आत्म-विनाश है। यह ऐसा स्थान है जो वायु विहीन है, और तापमान मनुष्य के जीवित बचे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है, इसलिए परमेश्वर के द्वारा इसे मनुष्य के लिए नहीं बनाया गया है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 172

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाया जाने वाला बुनियादी जीवित रहने का पर्यावरण (चुने हुए अंश)

iii. आवाज़

तीसरी चीज़ क्या है? यह कुछ ऐसी भी चीज़ है जिसे मानवजाति के लिए एक सामान्य जीवित रहने के वातावरण में अवश्य होना चाहिए। यह कुछ ऐसी चीज़ भी है जिसके साथ परमेश्वर को निपटना पड़ता था जब उसने सभी चीज़ों की रचना की थी। यह कुछ ऐसा है जो परमेश्वर के लिए और हर एक के लिए भी अति महत्वपूर्ण है। यदि परमेश्वर ने इसे सँभाला न होता, तो यह मानवजाति के जीवित बचे रहने के लिए एक बहुत बड़ी बाधा बन जाता। कहने का अर्थ है कि इसका मनुष्य के शरीर और जीवन पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता, इस हद तक कि मनुष्यजाति ऐसे वातावरण में जीवित रहने में समर्थ नहीं होती। ऐसा भी कहा जा सकता है कि सभी जीवित प्राणी ऐसे वातावरण में जीवित बचे नहीं रह सकते हैं। तो यह चीज़ क्या है? यह आवाज़ है। परमेश्वर ने हर एक चीज़ को बनाया, और हर चीज़ परमेश्वर के हाथों में जीवित रहती है। परमेश्वर की नज़रों में, सभी चीज़ें गतिमान और जीवित हैं। दूसरे शब्दों में परमेश्वर द्वारा सृजित प्रत्येक चीज़ के अस्तित्व का मूल्य एवं अर्थ है। अर्थात्, उन सभी के अस्तित्व के पीछे उन सभी की एक आवश्यकता है। परमेश्वर की नज़रों में हर चीज़ का एक जीवन है; प्रत्येक चीज़ के पास एक जीवन है; चूँकि वे सभी जीवित हैं, इसलिए वे आवाज़ उत्पन्न करेंगे। उदाहरण के लिए, पृथ्वी लगातार घूम रही है, सूर्य लगातार घूम रहा है, और चाँद भी लगातार घूम रहा है। सभी चीज़ों के बढ़ने और विकास और गति में निरन्तर आवाज़ उत्पन्न हो रही है। पृथ्वी की चीज़ें निरन्तर बढ़ रही हैं, विकसित हो रही हैं और गतिमान हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ों के आधार गतिमान हैं और स्थानांतरित हो रहे हैं, जबकि समुद्र की गहराईयों में सभी जीवित चीज़ें गतिमान हैं और तैर रही हैं। इसका अर्थ है कि ये जीवित चीज़ें और परमेश्वर की नज़रों में सभी चीज़ें, लगातार, सामान्य रूप से, और नियमित रूप से गतिमान हैं। तो इन चीज़ों की गुप्त बढ़ोतरी और विकास और गति क्या लाती है? शक्तिशाली आवाज़ें। पृथ्वी के अलावा, सभी प्रकार के ग्रह भी लगातार गतिमान हैं, और इन ग्रहों की जीवित चीज़ें और इनके जीवधारी निरन्तर बढ़ रहे हैं, और विकसित हो रहे हैं और गतिमान हैं। अर्थात्, सभी चीज़ें जिनमें जीवन है और जिनमें जीवन नहीं है परमेश्वर की निगाहों में वे निरन्तर आगे बढ़ रही हैं, और साथ ही वे आवाज़ भी उत्पन्न कर रही हैं। परमेश्वर भी इन आवाज़ों से निपटा है। तुम लोगों को यह कारण पता होना कि चाहिए कि क्यों इन आवाज़ों से निपटा जाता है, है न? जब तुम किसी हवाई जहाज़ के करीब जाते हो, तो हवाई जहाज़ की गरज़ती हुई आवाज़ तुम्हारे साथ क्या करती है? तुम्हारे कान समय के साथ बहरे हो जायेंगे। क्या तुम्हारा हृदय उसे सह पाएगा? कुछ कमज़ोर हृदय वाले लोग उसे सहन नहीं कर पाएँगे। वास्तव में, यहाँ तक कि जिनके हृदय मज़बूत है वे भी इसे सहन नहीं कर पाएँगे यदि यह लंबे समय तक चलती है। अर्थात्, मनुष्य के शरीर पर आवाज़ का असर, चाहे यह कानों पर हो या हृदय पर, हर एक व्यक्ति के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है, और ऐसी आवाजें जो बहुत ही ऊँची होती हैं वे लोगों को नुकसान पहुँचाएँगी। इसलिए, जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों की रचना की और उसके बाद जब उन्होंने सामान्य ढंग से कार्य करना शुरू कर दिया, तो परमेश्वर ने इन आवाज़ों को—सभी गतिमान चीज़ों की आवाज़ों को—उचित उपचार के जरिए स्थापित कर दिया। यह भी आवश्यक विचारों में से एक है जो परमेश्वर के पास तब था जब वह मनुष्यजाति के लिए एक वातावरण का सृजन कर रहा था।

सबसे पहले, पृथ्वी की सतह से वायुमण्डल की ऊँचाई आवाज़ों को प्रभावित करेगी। साथ ही, भूमि के बीच खालीपन का आकार भी आवाज़ में हेरफेर करेगा और उसे प्रभावित करेगा। फिर विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का संगम है, वह भी आवाज़ को प्रभावित करेगा। अर्थात्, परमेश्वर कुछ आवाज़ों से छुटकारा पाने के लिए कुछ निश्चित पद्धतियों का उपयोग करता है, ताकि मनुष्य एक ऐसे वातावरण में ज़िन्दा रह सकें जिसे उनके कान और हृदय सह सकें। अन्यथा आवाज़ें मनुष्यजाति के जीवित रहने में एक बड़ी रूकावट लाएँगी; ये उनके जीवन में एक बड़ी परेशानी पैदा करेंगी। यह उनके लिए एक बड़ी समस्या होगी। अर्थात्, परमेश्वर ने भूमि, वायुमण्डल और विभिन्न प्रकार के भौगोलिक वातावरण को बनाते समय विशेष ध्यान रखा था। इन सभी चीज़ों में परमेश्वर की बुद्धि निहित है। इसके विषय में मनुष्यजाति की समझ को बहुत अधिक विस्तृत होने की आवश्यकता नहीं है। उनको बस यह जानने की आवश्यकता है कि इसमें परमेश्वर का कार्य निहित है। अब तुम लोग मुझे बताओ, परमेश्वर ने जो कार्य किया क्या वो जरूरी था? जो कार्य परमेश्वर ने किया अर्थात, मनुष्यजाति के रहने के वातावरण और उसके सामान्य जीवन को बनाए रखने के लिए बहुत सटीकता से आवाज़ को हेरफेर करना, क्या ये जरूरी था? (हाँ।) यदि यह कार्य आवश्यक था, तो इस दृष्टिकोण से, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने सभी चीज़ों की आपूर्ति के लिए ऐसी पद्धति का उपयोग किया था। परमेश्वर ने मानवजाति को ऐसा शांत वातावरण प्रदान किया था और उसके लिए ऐसा शांत वातावरण सृजित किया, ताकि मानव शरीर ऐसे वातावरण में बिना किसी व्यवधान के बहुत सामान्य तरह से रह सके, और ताकि वह अस्तित्व में बना रहने और सामान्य रूप से जीवन बिताने में समर्थ हो सके। क्या यह एक तरीका है जिससे परमेश्वर मनुष्यजाति के लिए आपूर्ति करता है? क्या यह कार्य जो परमेश्वर ने किया अति महत्वपूर्ण था? (हाँ।) यह बहुत आवश्यक था। तो कैसे तुम लोग इसकी सराहना करते हो? भले ही तुम लोग महसूस नहीं कर सकते हो कि यह परमेश्वर का कार्य था, और न ही तुम लोग जानते हो कि उस समय परमेश्वर ने इसे कैसे किया, तब भी क्या तुम लोग परमेश्वर के द्वारा इस कार्य को करने की आवश्यकता को महसूस कर सकते हो? क्या तुम लोग परमेश्वर की बुद्धि या उस देखरेख और उस विचार को महसूस कर सकते हो जिसे उसने इसमें डाला है? (हाँ।) बस उसे महसूस करने में समर्थ होना ही काफी है। यह पर्याप्त है। बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें परमेश्वर ने सभी चीज़ों के बीच किया है जिन्हें लोग महसूस नहीं कर सकते हैं। मेरा इसका यहाँ उल्लेख करने का उद्देश्य बस तुम लोगों को परमेश्वर के कार्यों के बारे में जानकारी देना है और यह इसलिए है ताकि तुम लोग परमेश्वर को जान सको। ये संकेत तुम लोगों को परमेश्वर को बेहतर ढंग से जानने एवं समझने दे सकते हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 173

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाया जाने वाला बुनियादी जीवित रहने का पर्यावरण (चुने हुए अंश)

iv. प्रकाश

चौथी चीज़ लोगों की आँखों से संबंध रखती है : प्रकाश। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। जब तुम चमकता हुआ प्रकाश देखते हो, और उसकी यह चमक एक निश्चित क्षमता तक पहुँचती है, तो वह मनुष्य की आँखों को अंधा कर सकती है। आखिरकार, मनुष्य की आँखें देह की आँखें हैं। वे जलन को नहीं सह सकती हैं। क्या कोई सूर्य को सीधे घूरकर देखने की हिम्मत करता है? कुछ लोगों ने इसकी कोशिश की है, और अगर वे धूप का चश्मा पहने हों, तो वह ठीक काम करता है—लेकिन उसके लिए एक उपकरण के इस्तेमाल की आवश्यकता होती है। बिना उपकरणों के, मनुष्य की नंगी आँखों में सूर्य का सामना करने और उसे सीधे घूरकर देखने का सामर्थ्य नहीं है। हालाँकि, परमेश्वर ने मानवजाति तक प्रकाश पहुँचाने के लिए ही सूर्य को सृजित किया, पर इस प्रकाश का भी उसने ध्यान रखा। सूर्य को सृजित करने के बाद परमेश्वर ने उसे ऐसे ही कहीं रखकर उपेक्षित नहीं छोड़ दिया; परमेश्वर ऐसे काम नहीं करता। वह अपनी क्रियाओं में बहुत सावधान रहता है और उनके बारे में गहराई से विचार करता है। परमेश्वर ने मनुष्यों के लिए आँखें सृजित कीं, ताकि वे देख सकें, और उसने अग्रिम रूप से प्रकाश के पैमाने भी तय कर दिए, जिनसे वे चीज़ों को देख सकते हैं। यदि पर्याप्त प्रकाश नहीं है तो यह काम नहीं करेंगी। यदि इतना अंधकार है कि लोग अपने सामने अपने हाथ को नहीं देख सकते हैं, तो उनकी आँखें अपनी कार्य प्रणाली को गँवा देंगी और किसी काम की नहीं होंगी। अत्यधिक चमक वाली कोई जगह मानवीय आँखों के लिए असहनीय होगी और वे कुछ भी देखने में समर्थ नहीं होंगे। अतः उस वातावरण में जहाँ मनुष्यजाति रहती है, परमेश्वर ने उन्हें प्रकाश की वह मात्रा दी है जो मानवीय आँखों के लिए उचित है। यह प्रकाश लोगों की आँखों को घायल नहीं करेगा या क्षति नहीं पहुँचाएगा। इसके अतिरिक्त, इसमें लोगों की आँखें काम करना बन्द नहीं करेगी। इसीलिए परमेश्वर ने पृथ्वी और सूर्य के चारों ओर बादलों को फैला दिया, और हवा का घनत्व भी सामान्य रूप से उस प्रकाश को छानने में समर्थ है जो लोगों की आँखों या त्वचा को घायल कर सकता है। यह आपस में जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के द्वारा सृजित पृथ्वी का रंग भी सूर्य की रोशनी और हर प्रकार की रोशनी को परावर्तित करता है और प्रकाश की चमक के उस भाग से छुटकारा दिलाता है जो मनुष्य की आँखों को असहज कर देता है। उस तरह से, लोगों को बाहर घूमने और अपने जीवन को बिताने में समर्थ होने के लिए हमेशा अत्यंत काले धूप के चश्मे पहनने की आवश्यकता नहीं है। सामान्य परिस्थितियों के अन्तर्गत, मनुष्य की आँखें अपनी दृष्टि के दायरे के भीतर चीज़ों को देख सकती हैं और प्रकाश के द्वारा विघ्न नहीं डाला जाएगा। अर्थात्, यह प्रकाश न तो बहुत अधिक चुभने वाला और न ही बहुत अधिक धुँधला हो सकता है : अगर यह बहुत धुँधला होगा, तो लोगों की आँखों को क्षति पहुँचेगी और थोड़े-से इस्तेमाल के बाद वे नष्ट हो जाएँगी; अगर यह बहुत चमकीला होगा, तो लोगों की आँखें उसे झेल नहीं पाएँगी। यह प्रकाश जो लोगों को मिलता हैं मनुष्य की आँखों के देखने के लिए उपयुक्त अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर ने विभिन्न तरीकों से प्रकाश से मनुष्य की आँखों को होने वाली क्षति को न्यूनतम कर दिया गया है; और हालाँकि यह प्रकाश मनुष्य की आँखों को लाभ या हानि पहुँचा सकता है, फिर भी यह लोगों को अपनी आँखों का इस्तेमाल जारी रखते हुए उन्हें उनके जीवन के अंत तक पहुँचने देने देने के लिए पर्याप्त है। क्या परमेश्वर ने पूरी तरह से इस पर विचार नहीं किया था? फिर भी दुष्ट शैतान अपने मन में हमेशा ऐसे विचारों को लाए बिना काम करता है। शैतान के साथ प्रकाश हमेशा या तो बहुत चमकीला होता है या बहुत धुँधला। शैतान ऐसे ही काम करता है।

परमेश्वर ने मनुष्यजाति के जीवित रहने की अनुकूलता को बढ़ाने के लिए मानव शरीर के सभी पहलुओं के लिए इन चीज़ों को किया—देखना, सुनना, चखना, साँस लेना, महसूस करना ... ताकि वे सामान्य रूप से जी सकें और निरन्तर ऐसा करते रहे। अर्थात्, परमेश्वर के द्वारा बनाया गया ऐसा मौजूदा रहने का पर्यावरण ही वह रहने का पर्यावरण है जो मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त और हितकारी है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह बहुत ज़्यादा नहीं है और यह सब कुछ बहुत ही सामान्य है। आवाज़, प्रकाश और वायु ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में लोग सोचते हैं कि वे उनके साथ पैदा हुए हैं, ऐसी चीज़ें हैं जिनका आनन्द वे पैदा होने के क्षण से ही उठा सकते हैं। परन्तु इन चीजों के तुम्हारे आनंद के पीछे जो कुछ परमेश्वर ने किया वह कुछ ऐसा है जिसे जानने एवं समझने की उन्हें आवश्यकता है। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हें यह महसूस होता है या नहीं कि इन चीज़ों को समझने या जानने की कोई आवश्यकता है, संक्षेप में, जब परमेश्वर ने इन चीज़ों की रचना की, तब उसने बहुत सोच विचार किया था, उसकी एक योजना थी, उसकी कुछ अवधारणाएँ थीं। उसने ऐसे ही, अकस्मात, या बिना सोचे-विचारे मनुष्यजाति को ऐसे रहने के वातावरण में नहीं रखा। तुम लोग सोच सकते हो कि मैंने इनमें से प्रत्येक चीज़ के बारे में बहुत भव्य रूप से बोला है, किन्तु मेरे दृष्टिकोण से, प्रत्येक चीज़ जो परमेश्वर ने मनुष्यजाति को प्रदान की है वह मानवजाति के ज़िन्दा रहने के लिए आवश्यक है। इसमें परमेश्वर का कार्य है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 174

परमेश्वर द्वारा मनुष्यजाति के लिए बनाया जाने वाला बुनियादी जीवित रहने का पर्यावरण (चुने हुए अंश)

v. वायु का प्रवाह

पाँचवीं चीज़ क्या है? यह चीज़ प्रत्येक मनुष्य के दैनिक जीवन से बहुत ज़्यादा जुड़ी हुई है, और यह संबंध मज़बूत है। यह कुछ ऐसा है जिसके बिना मानव शरीर इस भौतिक जगत में जीवित नहीं रह सकता है। यह चीज़ वायु का प्रवाह है। “वायु का प्रवाह” ऐसा शब्द है जिसे शायद सभी लोग समझते हैं। तो वायु का प्रवाह क्या है? तुम ऐसा कह सकते हो कि हवा के बहने को “वायु का प्रवाह” कहते हैं। वायु का प्रवाह वह हवा है जिसे मानवीय आँखें नहीं देख सकती हैं। यह एक ऐसा तरीका भी है जिससे गैस बहती है। किन्तु वायु का प्रवाह क्या है जिसके बारे में हम यहाँ बात कर रहे हैं? जैसे ही मैं कहूँगा तुम लोग समझ जाओगे। पृथ्वी घूमती हुई पहाड़ों, महासागरों और सभी चीज़ों को उठाए रहती है, और जब यह घूमती है तो उसमें गति होती है। यद्यपि तुम किसी घूर्णन को महसूस नहीं कर सकते हो, फिर भी उसका घूर्णन वास्तव में विद्यमान है। उसका घूर्णन क्या लाता है? जब तुम दौड़ते हो तो तुम्हारे कानों के आस पास हवा होती है? यदि जब तुम दौड़ते हो तो हवा पैदा हो सकती है, तो जब पृथ्वी घूर्णन करती है हवा की शक्ति क्यों नहीं हो सकती है? जब पृथ्वी घूर्णन करती है, तब सभी चीज़ें गतिमान होती हैं। यह गतिवान होती है और एक निश्चित गति से घूर्णन करती है, जबकि पृथ्वी पर सभी चीज़ें निरन्तर आगे बढ़ रही और विकसित हो रही होती हैं। इसलिए, एक निश्चित गति से गतिमान होने से स्वाभाविक रूप से वायु का प्रवाह उत्पन्न होगा। वायु का प्रवाह ऐसा ही है। क्या यह वायु का प्रवाह कुछ निश्चित हद तक मानव शरीर को प्रभावित करेगा? सामान्य तूफ़ान उतने प्रबल नहीं होते हैं, किन्तु जब वे टकराते हैं, तो लोग स्थिर खड़े नहीं रह सकते हैं और उन्हें हवा में चलने में कठिनाई होती है। यहाँ तक कि एक कदम लेना भी कठिन होता है। यह इतना प्रबल होता है, कि कुछ लोगों को हवा के द्वारा किसी चीज़ के विरुद्ध धकेल दिया जाता है और वे हिल नहीं सकते हैं। यह एक तरीका है जिससे वायु का प्रवाह मानवजाति को प्रभावित कर सकता है। यदि सारी पृथ्वी मैदान से भरी होती, तो मानव शरीर के लिए वायु के उस प्रवाह के सामने टिकना अत्यंत कठिन होता जो पृथ्वी के घूर्णन और सभी चीज़ों के एक निश्चित गति से चलने के द्वारा उत्पन्न होता इसे सँभालना बहुत कठिन होता। यदि मामला ऐसा होता, तो वायु का यह प्रवाह न केवल मानवजाति के लिए क्षति लेकर आता, बल्कि विध्वंस भी लेकर आता। ऐसे पर्यावरण में कोई भी ज़िन्दा बचने में समर्थ नहीं होता। यही कारण है कि विभिन्न पर्यावरणों में ऐसे वायु के प्रवाहों का समाधान करने के लिए परमेश्वर विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का उपयोग करता है, वायु के प्रवाह कमज़ोर पड़ जाते हैं, अपनी दिशाएँ बदल लेते हैं, अपनी गति बदल लेते हैं, और अपने बल को बदल लेते हैं। इसीलिए लोग पहाड़ों, पर्वत मालाओं, मैदानों, पहाड़ियों, घाटियों, तराईयों, पठारों एवं नदियों जैसे विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों को देख सकते हैं। परमेश्वर वायु के प्रवाह की गति, दिशा और बल को परिवर्तित करने के लिए इन विभिन्न भौगोलिक पर्यावरणों का उपयोग करता है, उसे एक उचित वायु गति, वायु दिशा और वायु बल में घटाने और हेरफेर करने के लिए वह ऐसी पद्धतियों का उपयोग करता है, ताकि मनुष्य के पास एक सामान्य रहने का वातावरण हो सके। क्या ऐसा करना आवश्यक है? (हाँ।) इस तरह का कुछ करना मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होता है, किन्तु यह परमेश्वर के लिए आसान है क्योंकि वह सभी चीज़ों का अवलोकन करता है। उसके लिए मनुष्यजाति के लिए उपयुक्त वायु के प्रवाह वाला एक पर्यावरण बनाना बहुत सरल है, बहुत आसान है। इसलिए, परमेश्वर के द्वारा बनाए गए एक ऐसे पर्यावरण में, सभी चीज़ों के बीच हर एक चीज़ अपरिहार्य है। उन सभी के अस्तित्व का महत्व और आवश्यकता है। हालाँकि, यह दर्शन शैतान और भ्रष्ट कर दी गयी मनुष्यजाति की समझ में नहीं आता है। वे पहाड़ों को समतल भूमि बनाने, घाटियों को भरने, और कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए समतल भूमि पर गगनचुम्बी इमारतें बनाने के व्यर्थ स्वप्न देखते हुए, लगातार ढहाते और निर्माण करते रहते हैं। यह परमेश्वर की आशा है कि मनुष्यजाति प्रसन्नता से रह सके, प्रसन्नता से प्रगति कर सके, और प्रत्येक दिन को उस उपयुक्त वातावरण में प्रसन्नता से बिता सके जिसे उसने उनके लिए बनाया है। इसीलिए जब मनुष्यजाति के रहने के लिए वातावरण से निपटने की बात आती है तो परमेश्वर कभी भी असावधान नहीं रहा है। तापमान से लेकर वायु तक, आवाज़ से लेकर प्रकाश तक, परमेश्वर ने जटिल योजनाएँ बनाई हैं और जटिल व्यवस्थाएँ की हैं, ताकि मनुष्यजाति के शरीर और उनके रहने का पर्यावरण प्राकृतिक स्थितियों से किसी व्यवधान के अधीन नहीं होगा, और उसके बजाए मनुष्यजाति जीवित रहने और बहुगुणित होने और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में सभी चीज़ों के साथ सामान्य रूप से जीने में समर्थ होगी। यह सब परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों और मनुष्यजाति को प्रदान किया जाता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 175

क्या अब तुम लोगों को परमेश्वर ओर मनुष्यजाति के बीच के बड़े अन्तर का आभास होता है? बस सभी चीज़ों का स्वामी कौन है? क्या मनुष्य है? (नहीं।) तो जिस प्रकार परमेश्वर और मनुष्य सभी चीज़ों के साथ निपटते हैं उसके बीच क्या अन्तर है? (परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है और उनकी व्यवस्था करता है, जबकि मनुष्य उन सबका आनन्द लेता है।) क्या तुम लोग उन वचनों से सहमत हो? परमेश्वर और मनुष्यजाति के बीच में सबसे बड़ा अन्तर है कि परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है और सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है। परमेश्वर प्रत्येक चीज़ का स्रोत है, और मनुष्यजाति सभी चीज़ों का आनन्द लेती है जबकि परमेश्वर उनकी आपूर्ति करता है। अर्थात्, मनुष्य तब सभी चीज़ों का आनन्द उठाता है जब वह उस जीवन को स्वीकार कर लेता है जिसे परमेश्वर सभी चीज़ों को प्रदान करता है। मनुष्यजाति परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों के सृजन के परिणामों का आनन्द उठाती है, जबकि परमेश्वर स्वामी है। तो सभी चीज़ों के दृष्टिकोण से, परमेश्वर और मनुष्यजाति के बीच क्या अन्तर है? परमेश्वर सभी चीज़ों के विकास के तरीके को साफ-साफ देख सकता है, और सभी चीज़ों के विकास के तरीके को नियन्त्रित करता है और उस पर वर्चस्व रखता है। अर्थात्, सभी चीज़ें परमेश्वर की दृष्टि में हैं और उसके निरीक्षण के दायरे के भीतर हैं। क्या मनुष्यजाति सभी चीज़ों को देख सकती है? मनुष्यजाति जो देखती है वह सीमित है, ये केवल वही हैं जिन्हें वे अपनी आँखों के सामने देखते हैं। यदि तुम इस पर्वत पर चढ़ते हो, तो जो तुम देखते हो वह यह पर्वत है। पर्वत के उस पार क्या है तुम उसे नहीं देख सकते हो। यदि तुम समुद्र तट पर जाते हो, तो तुम महासागर के इस भाग को देखते हो, परन्तु तुम नहीं जानते हो कि महासागर का दूसरा भाग किसके समान है। यदि तुम इस जंगल में आते हो, तो तुम उन पेड़ पौधों को देख सकते हो जो तुम्हारी आँखों के सामने और तुम्हारे चारों ओर हैं, किन्तु जो कुछ और आगे है उसे तुम नहीं देख सकते हो। मनुष्य उन स्थानों को नहीं देख सकते हैं जो अधिक ऊँचे, अधिक दूर और अधिक गहरे हैं। वे उस सब को ही देख सकते हैं जो उनकी आँखों के सामने हैं और उनकी दृष्टि के क्षेत्र के भीतर है। भले ही मनुष्य एक वर्ष की चार ऋतुओं के तरीके और सभी चीज़ों के विकास के तरीके को जानते हों, फिर भी वे सभी चीज़ों को प्रबंधित करने या उन पर वर्चस्व रखने में असमर्थ हैं। दूसरी ओर, जिस तरह से परमेश्वर सभी चीज़ों को देखता है वह ऐसा है जैसे परमेश्वर किसी मशीन को देखता है जिसे उसने व्यक्तिगत रूप से बनाया है। वह हर एक अवयव को बहुत ही अच्छी तरह से जानेगा। इसके सिद्धांत क्या हैं, इसके तरीके क्या हैं, और इसका उद्देश्य क्या है—परमेश्वर इन सभी चीज़ों को सीधे-सीधे और स्पष्टता से जानता है। इसलिए परमेश्वर परमेश्वर है, और मनुष्य मनुष्य है! भले ही मनुष्य विज्ञान और सभी चीज़ों के नियमों पर अनुसन्धान करता रहे, फिर भी यह एक सीमित दायरे में होता है, जबकि परमेश्वर सभी चीज़ों को नियन्त्रित करता है, जो मनुष्य के लिए असीमित नियंत्रण है। यदि मनुष्य किसी छोटी सी चीज़ पर अनुसन्धान करते हैं जिसे परमेश्वर ने किया था, तो वे उस पर अनुसन्धान करते हुए बिना किसी सच्चे परिणाम को हासिल किए अपना पूरा जीवन बिता सकते हैं। इसीलिए यदि ज्ञान का और परमेश्वर का अध्ययन करने के लिए जो कुछ भी तुमने सीखा है उसका उपयोग करते हो, तो तुम कभी भी परमेश्वर को जानने या समझने में समर्थ नहीं होगे। किन्तु यदि तुम सत्य को खोजने और परमेश्वर को खोजने के मार्ग का उपयोग करते हो, और परमेश्वर को जानने के दृष्टिकोण से परमेश्वर की ओर देखते हो, तो एक दिन तुम स्वीकार करोगे कि परमेश्वर के कार्य और उसकी बुद्धि हर जगह है, और तुम यह भी जान जाओगे कि बस क्यों परमेश्वर को सभी चीज़ों का स्वामी और सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत कहा जाता है। तुम्हारे पास जितना अधिक ऐसा ज्ञान होगा, तुम उतना ही अधिक समझोगे कि क्यों परमेश्वर को सभी चीज़ों का स्वामी कहा जाता है। सभी चीज़ें और प्रत्येक चीज़, जिसमें तुम भी शामिल हो, निरन्तर परमेश्वर की आपूर्ति के नियमित प्रवाह को प्राप्त कर रही हैं। तुम भी स्पष्ट रूप से आभास करने में समर्थ हो जाओगे कि इस संसार में, और इस मनुष्यजाति के बीच, परमेश्वर के पृथक और कोई नहीं है जिसके पास सभी चीज़ों के ऊपर शासन करने, उनका प्रबन्धन करने, और उन्हें अस्तित्व में बनाए रखने की ऐसी सामर्थ्य और ऐसा सार हो सकता है। जब तुम ऐसी समझ प्राप्त कर लोगे, तब तुम सच में स्वीकार करोगे कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। जब तुम इस स्थिति तक पहुँच जाते हो, तब तुमने सचमुच में परमेश्वर को स्वीकार कर लिया है और तुमने उसे अपना परमेश्वर एवं अपना स्वामी बनने दिया है। जब तुम्हारे पास ऐसी समझ होगी और तुम्हारा जीवन ऐसी स्थिति पर पहुँच जाएगा, तो परमेश्वर अब और तुम्हारी परीक्षा नहीं लेगा और तुम्हारा न्याय नहीं करेगा, और न ही वह तुमसे कोई माँग करेगा, क्योंकि तुम परमेश्वर को समझते हो, उसके हृदय को जानते हो, और तुमने परमेश्वर को सच में अपने हृदय में स्वीकार कर लिया है। सभी चीज़ों पर परमेश्वर के वर्चस्व और प्रबंधन के बारे में इन विषयों पर बातचीत करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है। यह लोगों को और अधिक ज्ञान एवं समझ देने के लिए है; मात्र तुमसे स्वीकार करवाने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें परमेश्वर के कार्यकलापों का और अधिक व्यावहारिक ज्ञान एवं समझ देने के लिए है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 176

दैनिक भोजन एवं पेय जो परमेश्वर मनुष्यजाति के लिए तैयार करता है (चुने हुए अंश)

अनाज, फल और सब्जियाँ, सभी प्रकार के मेवे सभी शाकाहारी खाद्य पदार्थ हैं। भले ही वे शाकाहारी खाद्य पदार्थ हैं, फिर भी उनमें मानव शरीर की आवश्यकताओं को तृप्त करने के लिए पर्याप्त पोषक तत्व हैं। हालाँकि, परमेश्वर ने नहीं कहाः “मनुष्यजाति को इन चीज़ों को देना पर्याप्त है। मनुष्यजाति बस इन चीज़ों को ही खा सकती है।” परमेश्वर यहीं नहीं रूका और इसके बजाए उसने ऐसी चीज़ें तैयार की जो मनुष्यजाति को और भी अधिक स्वादिष्ट लगीं। ये चीज़ें कौन सी हैं? ये विभिन्न किस्मों के माँस और मछलियाँ हैं जिन्हें तुम लोग देख और खा सकते हो। अनेक किस्मों के माँस और मछलियाँ हैं जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्यजाति के लिए तैयार किया है। सारी मछलियाँ जल में रहती हैं; उनके मांस का स्वाद उस मांस से भिन्न है जिन्हें भूमि पर उपजाया जाता है और वे मनुष्यजाति को भिन्न-भिन्न पोषक तत्व प्रदान कर सकती हैं। मछलियों के गुण मानव शरीर की ठण्डक एवं गर्मी के साथ भी समायोजित हो सकते हैं, इसलिए वे मनुष्यजाति के लिए अत्यंत लाभदायक हैं। परन्तु जो स्वादिष्ट लगता है उसका अतिभोग नहीं किया जा सकता है। अभी भी वही कहावत है : परमेश्वर मानवजाति को सही समय पर सही मात्रा देता है, ताकि लोग मौसम एवं समय के अनुरूप सामान्य और उचित तरीके से इन चीज़ों का आनन्द उठा सकें। मुर्गी पालन में क्या शामिल है? मुर्गी, बटेर, कबूतर, इत्यादि। बहुत से लोग बत्तख और कलहंस भी खाते हैं। यद्यपि परमेश्वर ने इस प्रकार के मांस बनाये लेकिन, परमेश्वर की अपने चुने हुए लोगों के लिए, कुछ अपेक्षाएँ थी और उसने अनुग्रह के युग के दौरान उनके आहार पर विशिष्ट सीमाएँ लगा दी। अब यह सीमा व्यक्तिगत स्वाद और व्यक्तिगत समझ पर आधारित है। ये विभिन्न किस्मों के मांस मनुष्य के शरीर को भिन्न-भिन्न पोषक तत्व प्रदान करते हैं, जो प्रोटीन एवं लौह की पुनः-पूर्ति कर सकते हैं, रक्त को समृद्ध कर सकते हैं, मांसपेशियों एवं हड्डियों को मज़बूत कर सकते हैं और अधिक ऊर्जा प्रदान कर सकते हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि लोग उन्हें पकाने और खाने के लिए लोग कौन सी विधियों का उपयोग करते हैं, संक्षेप में, एक ओर ये चीज़ें स्वाद और भूख को सुधारने में लोगों की सहायता कर सकती हैं, और दूसरी ओर उनके पेट को तृप्त कर सकती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मानव शरीरों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। ये ही वे विचार हैं जो परमेश्वर के पास थे जब उसने मनुष्यजाति के लिए भोजन बनाया था। शाकाहारी भोजन और साथ ही मांस है—क्या यह समृद्ध और भरपूर नहीं है? किन्तु लोगों को समझना चाहिए कि परमेश्वर के मूल इरादे क्या थे जब उसने मनुष्यजाति के लिए सभी खाद्य पदार्थों को बनाया था। क्या यह मनुष्यजाति को इन खाद्य पदार्थों का अतिभोग करने देने के लिए था? क्या होगा यदि लोग अपने आप को इस भौतिक सन्तुष्टि में लिप्त करते हैं? क्या वे अतिपोषित नहीं हो जाते हैं? क्या अतिपोषण मानव शरीर में सभी प्रकार की बीमारियाँ नहीं लाता? (हाँ।) इसीलिए परमेश्वर सही समय पर सही मात्रा को विभाजित करता है और विभिन्न अवधियों और मौसम के अनुसार लोगों को भिन्न-भिन्न खाद्य पदार्थों का आनन्द लेने देता है। उदाहरण के लिए, बहुत गर्म ग्रीष्म ऋतु में रहने के बाद, लोग अपने शरीरों में काफ़ी गर्मी, रोगजनक शुष्कता या नमी जमाकर लेंगे। जब शरद ऋतु आएगी, तो बहुत किस्मों के फल पक जाएँगे, और जब लोग कुछ फलों को खाएँगे तो उनकी नमी हट जाएगी। साथ ही साथ, पशु एवं भेड़ें हृष्ट पुष्ठ हो जाएँगे, तो लोगों को पोषण के लिए कुछ मांस खाना चाहिए। विभिन्न किस्मों के मांस खाने के बाद, लोगों के शरीर में शीत ऋतु की ठण्ड का सामना करने में सहायता करने के लिए ऊर्जा और गर्मी होगी, और उसके परिणामस्वरूपः वे शीत ऋतु को शांतिपूर्वक गुज़ार पाएँगे। मनुष्यजाति के लिए किस समय पर कौन सी चीज़ तैयार करनी है, और किस समय पर कौन सी चीज़ें उगने देनी हैं, कौन से फल लगने देने हैं और पकने देने हैं—इन सबको परमेश्वर के द्वारा बहुत सोचसमझ कर नियन्त्रित और पूरा किया जाता है। यह इस बारे में विषय है कि “परमेश्वर ने किस प्रकार मनुष्यजाति के दैनिक जीवन के लिए आवश्यक भोजन तैयार किया था।” हर प्रकार के भोजन के अलावा, परमेश्वर मनुष्यजाति को जल के स्रोतों की आपूर्ति भी करता है। भोजन के बाद लोगों को कुछ जल पीना पड़ता है। क्या मात्र फल खाना पर्याप्त है? लोग केवल फल खा कर ही खड़े होने में समर्थ नहीं होंगे, और इसके अतिरिक्त, कुछ मौसमों में कोई फल नहीं होते हैं। तो मनुष्यजाति की पानी की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? परमेश्वर के द्वारा झीलों, नदियों और सोतों सहित भूमि के ऊपर और भूमि के नीचे जल के अनेक स्रोतों को तैयार करने के द्वारा। जल के इन स्रोतों से ऐसी स्थितियों में पानी पीया जा सकता है जहाँ कोई संदूषण, या मानव प्रसंस्करण या क्षति नहीं हो। अर्थात्, मनुष्यजाति के भौतिक शरीरों के जीवन के लिए खाद्य पदार्थ के स्रोतों के सम्बन्ध में, परमेश्वर ने बिल्कुल सटीक, बिल्कुल परिशुद्ध और बिल्कुल उपयुक्त सामग्रियाँ बनायी हैं, ताकि लोगों के जीवन समृद्ध और भरपूर हो जाएँ और किसी चीज़ का अभाव न हो। यह कुछ ऐसा है जिसे लोग महसूस कर सकते हैं और देख सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, सभी चीज़ों में, जो परमेश्वर ने कुछ पौधों, पशुओं और विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों को बनाया जो विशेष रूप से मानव देह में होने वाली चोटों या बिमारियों को चंगा करने के लिए हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम जल जाते हो या दुर्घटनावश तुम गर्म पानी से झुलस जाते हो, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम इसे पानी से साफ़ कर सकते हो? क्या तुम बस कहीं से कपड़े का एक टुकड़ा पा सकते हो और इसे लपेट सकते हो? हो सकता है कि उस तरह से यह मवाद से भर जाए या संक्रमित हो जाए। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हें बुखार हो जाता है, सर्दी लग जाती है, किसी शारीरिक काम से कोई चोट लग जाती है, ग़लत चीज़ खाने से पेट की कोई बीमारी हो जाती है, या रहने की आदतों या भावनात्मक मामलों के कारण कुछ बीमारियाँ पनप जाती हैं, जैसे कि वाहिका सम्बन्धी बीमारियाँ, मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ या अन्दरूनी अंगों की बीमारियाँ—इन सब का उपचार करने के लिए उनके अनुरूप कुछ पौधे हैं। ऐसे पौधे हैं जो रूकावट को दूर कर रक्त के संचार को सुधारते हैं, दर्द को दूर करते हैं, रक्तस्राव को रोकते हैं, संज्ञाहीनता प्रदान करते हैं, सामान्य त्वचा पुनः-प्राप्त करने में लोगों की सहायता करते हैं, शरीर में रक्त की गतिहीनता को दूर करते हैं, और शरीर के विषों को निकालते हैं। संक्षेप में, इन सभी को दैनिक जीवन में उपयोग किया जा सकता है। वे लोगों के लिए उपयोगी हैं और उन्हें परमेश्वर के द्वारा मानव शरीर हेतु आवश्यकता होने की स्थिति में बनाया गया है। इनमें से कुछ को मनुष्य के द्वारा अनजाने में खोज लिए जाने की परमेश्वर के द्वारा अनुमति दी गयी है, जबकि जबकि अन्यों को उन लोगों द्वारा जिन्हें परमेश्वर ने ऐसा करने के लिए चुना था, या उस विशेष घटना के परिणामस्वरूप जो परमेश्वर ने आयोजित की थी, खोजा गया था। उनकी खोज के बाद, मनुष्यजाति उन्हें आनेवाली पीढ़ियों को सोंपेगी, और बहुत से लोग उनके बारे में जानेंगे। इस तरह, इन पौधों के परमेश्वर के सृजन का मूल्य और अर्थ है। संक्षेप में, ये सभी चीज़ें परमेश्वर की ओर से हैं और इन्हें उस समय तैयार किया गया और रोपा गया था जब उसने मनुष्यजाति के लिए एक रहने का पर्यावरण बनाया था। ये सभी चीज़ें अत्यंत आवश्यक हैं। क्या मनुष्यजाति की तुलना में परमेश्वर के विचार बेहतर तरीके से सोचे गए थे? जब तुम वह सब देखते हो जो परमेश्वर ने बनाया है, तो क्या तुम परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष को महसूस कर पाते हो? परमेश्वर ने गुप्तरूप से कार्य किया था। जब मनुष्य अभी तक इस पृथ्वी पर नहीं आया था, तब इस मनुष्यजाति के सम्पर्क में आने से पहले, परमेश्वर ने इन सभी को पहले से ही बना लिया था। जो कुछ भी उसने किया था वह मनुष्यजाति के वास्ते था, उनके जीवित बचे रहने के वास्ते था और मनुष्यजाति के अस्तित्व के विचार के वास्ते था, ताकि मनुष्यजाति इस समृद्ध और भरपूर भौतिक संसार में खुशी से रह सके जिसे परमेश्वर ने उनके लिए बनाया है, उन्हें भोजन एवं वस्त्रों की चिन्ता नहीं करनी पड़े, और उन्हें किसी चीज़ का अभाव न हो। मनुष्यजाति ऐसे पर्यावरण में निरन्तर सन्तान उत्पन्न करती और जीवित बची रहती है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 177

शुरूआत में, हमने मनुष्यजाति के रहने के पर्यावरण के बारे में और जो कुछ परमेश्वर ने किया, तैयार किया, और इस पर्यावरण के लिए वह निपटा उस बारे में, और साथ ही परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए तैयार की गई सभी चीज़ों के बीच सम्बन्धों के बारे में और कैसे सभी चीज़ों के द्वारा मनुष्यजाति को नुकसान पहँचाने से रोकने के लिए परमेश्वर इन सम्बन्धों से निपटा उस बारे में बात की थी। परमेश्वर ने मनुष्यजाति के पर्यावरण पर उन विभिन्न तत्वों द्वारा उत्पन्न किए गए नकारात्मक प्रभावों का भी समाधान किया जो सभी चीज़ों के द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, उसने सभी चीज़ों को उनकी कार्यशीलता को अधिकतम करने दिया, और मनुष्यजाति के लिए एक अनुकूल पर्यावरण, और सभी लाभदायक तत्व लाया ताकि वह ऐसे पर्यावरण के अनुरूप बनने तथा प्रजनन चक्र को और जीवन को सामान्य तरीके से निरंतर जारी रखने में सक्षम बन सके। अगली चीज़ मानव शरीर के लिए आवश्यक भोजन थी—दैनिक खाद्य और पेय पदार्थ। मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के लिए यह भी एक आवश्यक शर्त है। अर्थात्, मानव शरीर मात्र साँस ले कर, बस धूप या वायु के साथ, या मात्र उपयुक्त तापमानों के साथ ही जीवित नहीं रह सकता है। उन्हें अपना पेट भरने की भी आवश्यकता होती है। उनके पेट को भरने के लिए इन चीज़ों को भी पूरी तरह परमेश्वर के द्वारा मनुष्यजाति के लिए तैयार किया गया था—यह मनुष्यजाति के भोजन का स्रोत है। इन समृद्ध और भरपूर पैदावार—मनुष्यजाति के खाद्य एवं पेय पदार्थ के स्रोत—को देखने के पश्चात्, क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर ही मनुष्यजाति और सभी चीज़ों के लिए आपूर्ति का स्रोत है? यदि जब उसने सभी चीज़ों का सृजन किया था तब परमेश्वर ने केवल पेड़ों एवं घास को या सिर्फ विभिन्न जीवित प्राणियों को ही बनाया होता, यदि उन विभिन्न जीवित प्राणी और पौधों में सभी पशुओं और भेड़ों के खाने के लिए होते, या ज़ेब्रा, हिरन एवं विभिन्न प्रकार के पशु होते, उदाहरण के लिए, सिंह, ज़िराफ़ तथा हिरन जैसी चीज़ों को खाते हैं, बाघ मेम्नों एंव सुअरों जैसी चीज़ों को खाते हैं—किन्तु मनुष्य के खाने के लिए एक भी उपयुक्त चीज़ नहीं होती, तो क्या उससे काम चलता? उससे काम नहीं चलता। मनुष्यजाति निरन्तर जीवित बचे रहने में समर्थ नहीं होती। क्या होता यदि मनुष्य केवल पेड़ों के पत्ते ही खाते? क्या उससे काम चलता? क्या मनुष्य उस घास को खा सकते थे जिसे भेड़ों के लिए बनाया गया है? यदि वे थोड़ी सी खाने की कोशिश करते तो ठीक रहता, किन्तु यदि वे लम्बे समय तक इसे खाते रहते, तो वे ज़्यादा समय तक ज़िन्दा नहीं रहते। और यहाँ कुछ चीज़ें भी हैं जो पशुओं के द्वारा खायी जा सकती हैं, परन्तु यदि मनुष्य उन्हें खाएँगे तो वे विषाक्त हो जाएँगी। ऐसी कुछ विषैली चीज़ें हैं जिन्हें पशु बिना प्रभावित हुए खा सकते हैं, परन्तु मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने मनुष्यों का सृजन किया, इसलिए परमेश्वर मानव शरीर के सिद्धांतों और संरचना को और मनुष्यों को किस चीज़ की आवश्यकता है इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानता है। परमेश्वर इसकी बनावट और इसके तत्वों के बारे में, और इसे किस चीज़ की आवश्यकता है, और साथ ही मानव शरीर के भीतरी अंग किस प्रकार कार्य करते हैं, वे कैसे अवशोषित करते है, निकालते हैं और चयापचय करते हैं, इस बारे में पूर्णतः स्पष्ट है। लोग इस पर स्पष्ट नहीं हैं और कई बार आँख बंदकर खाते और अनुपूरक लेते हैं। वे अत्यधिक अनूपूरक लेते हैं और अंत में असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। यदि तुम सामान्य रूप से इन चीज़ों को खाते और इनका आनंद लेते हो जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तैयार किया है, तो तुम्हारे साथ कुछ ग़लत नहीं होगा। भले ही कभी-कभी तुम ख़राब मनोदशा में होते हो और तुम्हें रक्त की गतिहीनता होती है, फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम्हें बस एक खास प्रकार के पौधे को खाने की आवश्यकता है और रक्त की गतिहीनता ठीक हो जाएगी। परमेश्वर ने इन सभी चीज़ों को तैयार किया है। इसलिए, परमेश्वर की नज़रों में, मनुष्यजाति किसी भी अन्य जीवधारी से कहीं ऊँची है। परमेश्वर ने सभी प्रकार के पौधों के लिए जीवित रहने के पर्यावरण तैयार किए हैं और सभी प्रकार के पशुओं के लिए भोजन एवं जीवित रहने के पर्यावरण तैयार किए हैं, किन्तु केवल मनुष्यजाति की अपेक्षाएँ ही उनके स्वयं के रहने के पर्यावरण के प्रति बहुत अधिक कठोर हैं और उपेक्षा किए जाने में सबसे अधिक असहनीय हैं। अन्यथा, मनुष्यजाति निरन्तर विकसित होने और प्रजनन करने और सामान्य रूप से जीने में समर्थ नहीं होती। परमेश्वर अपने हृदय में इसे अच्छी तरह से जानता है। जब परमेश्वर ने इस चीज़ को किया, तब उसने किसी भी अन्य चीज़ की अपेक्षा इस पर अधिक ध्यान दिया था। शायद तुम अपने जीवन में कुछ मामूली चीज़ों के, जिन्हें तुम देख सकते हो और उनका आनंद उठा सकते हो, महत्व को महसूस नहीं कर पा रहे, या कोई ऐसी चीज़, जिसे तुम अपने जीवन में देख सकते हो और जिसका आनंद उठा सकते हो और जो तुम्हारे पास जन्म से है, लेकिन परमेश्वर ने बहुत पहले से या गुप्त रूप से तुम्हारे लिए तैयारी कर रखी है। परमेश्वर ने उन सभी नकारात्मक कारकों को अधिकतम संभव सीमा तक हटा दिया है और उनका समाधान कर दिया है जो मनुष्यजाति के लिए प्रतिकूल हैं और मानव शरीर को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इससे क्या स्पष्ट होता है? क्या इससे मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का रवैया स्पष्ट होता है जब उसने इस बार उनका सृजन किया था? यह रवैया क्‍या था? परमेश्वर का रवैया सख्‍़त और गम्भीर था, और उसने परमेश्वर के अलावा किन्हीं भी कारकों या स्थितियों या शत्रुओं के बल के किसी हस्तक्षेप को सहन नहीं किया था। इससे, तुम जब उसने मनुष्यजाति का सृजन किया था तब और इस बार मनुष्यजाति के उसके प्रबन्धन में परमेश्वर के रवैये को देख सकते हो। परमेश्वर का रवैया क्या है? रहने और जीवित बचे रहने के पर्यावरण से जिसका मनुष्यजाति आनन्द उठाती है और साथ ही उनके दैनिक खाद्य और पेय पदार्थ और दैनिक आवश्यकताओं के माध्यम से, हम मनुष्यजाति के प्रति उत्तरदायित्व की परमेश्वर के रवैये को जो उसके पास तब से है जबसे उसने उनका सृजन किया था, और साथ ही इस बार मनुष्यजाति को बचाने के परमेश्वर के दृढ़ निश्चय को देख सकते हैं। क्या हम इन चीज़ों के माध्यम से परमेश्वर की प्रमाणिकता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की अद्भुतता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की अगाधता को देख सकते हैं? क्या हम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को देख सकते हैं? परमेश्वर संपूर्ण, मनुष्यजाति को आपूर्ति करने के लिए, और साथ ही सभी चीज़ों की आपूर्ति करने के लिए केवल अपने सर्वशक्तिमान और विवेकी मार्गों का उपयोग करता है। जिसके बारे में बोलते हुए, मेरे इतना कुछ कहने के बाद, क्या तुम लोग यह कह सकते हो कि परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है? (हाँ।) यह निश्चित है। क्या तुम्हें कोई संदेह हैं? (नहीं।) परमेश्वर के द्वारा सभी चीज़ों की आपूर्ति यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है, क्योंकि वह उस आपूर्ति का स्रोत है, जिसने सभी चीज़ों को अस्तित्व में बने रहने, जीवित रहने, प्रजनन करने और जारी रहने में सक्षम किया है, और स्वयं परमेश्वर के अलावा और कोई स्रोत नहीं है। परमेश्वर सभी चीज़ों की सभी आवश्यकताओं की और मनुष्यजाति की भी सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है, चाहे वे लोगों की सर्वाधिक बुनियादी पर्यावरणीय आवश्यकताएँ हों, उनके दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ हों, या सत्य संबंधी आवश्यकताएँ हों, जिसकी वह लोगों की आत्माओं के लिए आपूर्ति करता है। हर तरह से, परमेश्वर की पहचान और उसकी हैसियत मानवजाति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, केवल स्वयं परमेश्वर ही सभी चीज़ों के लिए जीवन का स्रोत है। अर्थात, परमेश्वर इस संसार का शासक, स्वामी और आपूर्तिकर्ता है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं। मनुष्यजाति के लिए, क्या यह परमेश्वर की पहचान नहीं है? यह पूरी तरह सत्य है। इसलिए जब तुम आकाश में पक्षियों को उड़ते हुए देखते हो, तो तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर ने उन चीज़ों को बनाया जो उड़ सकती हैं। परन्तु ऐसी जीवित चीज़ें हैं जो पानी में तैर सकती हैं, और वे भिन्न-भिन्न तरीकों से भी जीवित रह कर बची रहती हैं। पेड़ और पौधे जो मिट्टी में रहते हैं वे बसंत ऋतु में अंकुरित होते हैं और उनमें फल लगते हैं और शरद ऋतु में पत्ते झाड़ देते हैं, और पतझड़ की ऋतु में अपनी पत्तियों को छोड़ देते हैं, और शीत ऋतु तक सभी पत्तियाँ गिर जाती हैं और वे शीत ऋतु से गुज़रते हैं। यह उनके जीवित बचे रहने का तरीका है। परमेश्वर ने सभी चीज़ों का सृजन किया, जिनमें से हर एक विभिन्न रूपों और विभिन्न तरीकों के माध्यम से जीता है और अपनी सामर्थ्य और जीवन के रूप को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का उपयोग करता है। चाहे कोई सी भी पद्धति क्यों न हो, यह सब परमेश्वर के शासन के अधीन है। जीवन के सभी रूपों और जीवित प्राणियों के ऊपर परमेश्वर के शासन का क्या उद्देश्य है? क्या यह मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के वास्ते है? वह मनुष्यजाति के जीवित बचे रहने के वास्ते जीवन की सभी व्यवस्थाओं को नियन्त्रित करता है। यह दिखाता है कि परमेश्वर के लिए बस मनुष्यजाति का जीवित बचे रहना कितना महत्वपूर्ण है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 178

परमेश्वर मात्र उसके चुने हुए लोगों का ही परमेश्वर नहीं है। तुम वर्तमान में परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और वह तुम्हारा परमेश्वर है, किन्तु परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों से बाहर के लोगों के लिए, क्या परमेश्वर उनका परमेश्वर है? क्या परमेश्वर अपने अनुयाइयों को छोड़ अन्य लोगों का भी परमेश्वर है? क्या परमेश्वर सभी चीज़ों का परमेश्वर है? (हाँ।) तो क्या परमेश्वर केवल उन्हीं लोगों पर अपना कार्य और अपने क्रियाकलापों को करता है जो उसका अनुसरण करते हैं? (नहीं।) उसका उद्देश्य क्या है? लघुतम स्तर पर, उसके कार्य का दायरा पूरी मनुष्यजाति और सभी चीज़ों को घेरता है। उच्चतम स्तर पर, यह समस्त ब्रह्माण्ड को घेरता है जिसे लोग नहीं देख सकते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि परमेश्वर सम्पूर्ण मनुष्यजाति के बीच में अपना कार्य करता है और अपनी कार्यकलापों को कार्यान्वित करता है। यह लोगों को स्वयं परमेश्वर के बारे में जानने देने के लिए पर्याप्त है। यदि तुम परमेश्वर को जानना चाहते हो और सचमुच में उसे जानते और समझते हो, तो परमेश्वर के कार्य की केवल तीन अवस्थाओं तक ही सीमित मत रहो, और मात्र उस कार्य की कहानियों तक ही सीमित मत रहो जिसे परमेश्वर ने एक बार किया था। यदि तुम उसे उस तरह से जानने की कोशिश करते हो, तो तुम परमेश्वर को एक निश्चित सीमा तक सीमित कर रहे हो। तुम परमेश्वर को अत्यंत महत्वहीन के रूप में देख रहे हो। ऐसा करना लोगों को कैसे प्रभावित करता है? तुम कभी भी परमेश्वर की अद्भुतता और उसकी सर्वोच्चता को नहीं जान पाओगे, और तुम कभी भी परमेश्वर की सामर्थ्य और सर्वशक्तिमत्ता और उसके अधिकार के दायरे को नहीं जान पाओगे। ऐसी समझ इस सत्य को स्वीकार करने की तुम्हारी योग्यता को कि परमेश्वर सभी चीज़ों का शासक है, और साथ ही परमेश्वर की सच्ची पहचान एवं हैसियत के बारे में तुम्हारे ज्ञान को प्रभावित करेगी। दूसरे शब्दों में, यदि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ का दायरा सीमित है, तो जो तुम प्राप्त कर सकते हो वह भी सीमित होता है। इसीलिए तुम्हें अवश्य दायरे को बढ़ाना और अपने क्षितिज़ को खोलना चाहिए। चाहे यह परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के प्रबन्धन और परमेश्वर के शासन का, या परमेश्वर के द्वारा शासित और प्रबंधित सभी चीज़ों का दायरा हो, तुम्हें इसे पूरी तरह जानना चाहिए और उसमें परमेश्वर के कार्यकलापों को जानना चाहिए। समझ के ऐसे मार्ग के माध्यम से, तुम अचेतन रूप में महसूस करोगे कि परमेश्वर उनके बीच सभी चीज़ों पर शासन कर रहा है, उनका प्रबन्धन कर रहा है और उनकी आपूर्ति कर रहा है। इसके साथ-साथ, तुम सच में महसूस करोगे कि तुम सभी चीज़ों के एक भाग हो और सभी चीज़ों के एक सदस्य हो। चूँकि परमेश्वर सभी चीज़ों की आपूर्ति करता है, इसलिए तुम भी परमेश्वर के शासन और आपूर्ति को स्वीकार करते हो। यह एक तथ्य है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। सभी चीज़ें अपने स्वयं के नियमों के अधीन हैं, जो परमेश्वर के शासन के अधीन है, और सभी चीज़ों के पास जीवित बचे रहने के अपने स्वयं के नियम हैं, जो परमेश्वर के शासन के भी अधीन है, जबकि मनुष्यजाति का भाग्य और जो उनकी आवश्यकता है वे भी परमेश्वर के शासन और उसकी आपूर्ति से नज़दीकी से संबंधित हैं। इसीलिए, परमेश्वर के प्रभुत्व और शासन के अधीन, मनुष्यजाति और सभी चीज़ें परस्पर संबंधित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं, और परस्पर गुंथे हुए हैं। यह सभी चीज़ों के सृजन का परमेश्वर का प्रयोजन और मूल्य है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VIII

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 179

जब से परमेश्वर ने सभी चीजों की रचना की है, वे सुव्यवस्थित रूप से और उसके द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य और प्रगति कर रही हैं। उसकी निगाह के नीचे, उसके शासन के अधीन मानवजाति का अस्तित्व बरकरार है और पूरे समय सभी चीजें नियमित रूप से विकसित होती रही हैं। ऐसी कोई चीज नहीं है, जो इन व्यवस्थाओं को बदल या नष्ट कर सके। परमेश्वर के शासन के कारण ही सभी प्राणी वंश-वृद्धि कर सकते हैं, और उसके शासन और प्रबंधन के कारण ही सभी प्राणी जीवित रह सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर के शासन के अधीन सभी प्राणी अस्तित्व में आते हैं, फलते-फूलते हैं, गायब हो जाते हैं, और एक सुव्यवस्थित तरीके से पुनर्जन्म लेते हैं। जब बसंत का आगमन होता है, रिमझिम बारिश ताजे मौसम का एहसास लेकर आती है और पृथ्वी को गीला कर देती है। जमीन नर्म पड़ने लगती है, मिट्टी के भीतर से घास निकल आती है और अंकुरित होना शुरू कर देती है, और वृक्ष धीरे-धीरे हरे हो जाते हैं। ये सभी जीवित चीजें पृथ्वी पर नई जीवन-शक्ति लेकर आती हैं। ऐसा ही दिखता है, जब सभी प्राणी अस्तित्व में आते और फलते-फूलते हैं। सभी तरह के जानवर बसंत की गर्माहट महसूस करने के लिए अपनी माँदों से बाहर निकल आते हैं और एक नए वर्ष की शुरुआत करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में सभी प्राणी धूप सेंकते हैं और मौसम द्वारा लाई गई गर्माहट का आनंद लेते हैं। वे तेजी से बढ़ते हैं। पेड़, घास और सभी तरह के पौधे तब तक तेजी से बढ़ते हैं, जब तक अंततः उन पर फूल नहीं खिल जाते और फल नहीं लग जाते। ग्रीष्म ऋतु के दौरान मनुष्य समेत सभी प्राणी बहुत व्यस्त रहते हैं। पतझड़ में बारिश शरद ऋतु की ठंडक लेकर आती है, और सभी प्रकार के जीव फसलों की कटाई के मौसम का आगमन महसूस करने लगते हैं। सभी जीव फल उत्पन्न करते हैं, और मनुष्य शीत ऋतु की तैयारी में भोजन की व्यवस्था करने के लिए इन विभिन्न प्रकार के फलों की तुड़ाई करना शुरू कर देते हैं। शीत ऋतु में ठंड आने के साथ सभी जीव धीरे-धीरे शांत होकर आराम करने लगते हैं, और लोग भी इस मौसम के दौरान विराम ले लेते हैं। एक मौसम से लेकर दूसरे मौसम तक, बसंत से ग्रीष्म में, ग्रीष्म से शरद में और शरद से शीत में जाना—ये सभी बदलाव परमेश्वर द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं के अनुसार होते हैं। वह इन व्यवस्थाओं का उपयोग करके सभी चीजों और मानवजाति की अगुआई करता है और उसने मानवजाति के लिए एक समृद्ध और खुशनुमा जीवन-शैली ईजाद की है, उसके अस्तित्व के लिए एक ऐसा परिवेश तैयार किया है जिसमें अलग-अलग तापमान और ऋतुएँ हैं। इसलिए, इस व्यवस्थित जीवन-परिवेश के अंतर्गत मनुष्य सुव्यवस्थित तरीके से जीवित रह सकते हैं और वंश-वृद्धि कर सकते हैं। मनुष्य इन व्यवस्थाओं को नहीं बदल सकते और न ही कोई व्यक्ति या प्राणी इन्हें तोड़ सकता है। यद्यपि असंख्य परिवर्तन हो चुके हैं—समुद्र मैदान बन गए हैं और मैदान समुद्र—लेकिन ये नियम अभी भी अस्तित्व में हैं। ये इसलिए अस्तित्व में हैं, क्योंकि परमेश्वर अस्तित्व में है। ये परमेश्वर के शासन और प्रबंधन के कारण अस्तित्व में हैं। इस प्रकार के सुव्यवस्थित, विस्तीर्ण परिवेश के साथ लोगों का जीवन इन व्यवस्थाओं और नियमों के अंतर्गत आगे बढ़ता है। इन व्यवस्थाओं के अंतर्गत पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग पले-बढ़े, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग इनके अंतर्गत जीवित रहे हैं। लोगों ने इस सुव्यवस्थित जीवन-परिवेश का और साथ ही परमेश्वर द्वारा सृजित बहुत सारी चीजों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनंद लिया है। भले ही लोगों को लगे कि इस प्रकार के नियम प्राकृतिक हैं, और वे उन्हें तिरस्कारपूर्वक हलके में लें, और भले ही उन्हें यह न लगे कि परमेश्वर इन व्यवस्थाओं का आयोजन कर रहा है, कि परमेश्वर इन व्यवस्थाओं पर शासन कर रहा है, लेकिन कुछ भी हो, परमेश्वर हमेशा से इस अपरिवर्तनशील कार्य में लगा हुआ है। इस अपरिवर्तनशील कार्य में उसका उद्देश्य मानवजाति को अस्तित्व में बनाए रखना है, ताकि वह जीवित रह सके।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 180

परमेश्वर समस्त मानवजाति का पालन-पोषण करने हेतु सभी चीजों के लिए सीमाएँ तय करता है (चुने हुए अंश)

आज मैं इस विषय पर बात करने जा रहा हूँ कि परमेश्वर द्वारा समस्त चीजों के लिए लाई गई इस तरह की व्यवस्थाएँ कैसे पूरी मानवजाति का पालन-पोषण करती हैं। यह अपेक्षाकृत एक बड़ा विषय है, इसलिए हम इसे कई हिस्सों में विभाजित कर उन पर एक-एक कर चर्चा कर सकते हैं, ताकि तुम लोगों के लिए उनका स्पष्ट रूप से वर्णन किया जा सके। इस तरह तुम लोगों के लिए इसे समझना आसान हो जाएगा और तुम लोग इसे धीरे-धीरे समझ सकते हो।

पहला भाग : परमेश्वर द्वारा हर तरह के भूभाग के लिए सीमाएँ निर्धारित करना

तो पहले भाग से शुरू करते हैं। जब परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन किया, तो उसने पहाड़ों, मैदानों, रेगिस्तानों, पहाड़ियों, नदियों और झीलों के लिए सीमाएँ खींचीं। पृथ्वी पर पर्वत, मैदान, मरुस्थल और पहाड़ियाँ हैं, साथ ही विभिन्न जल-निकाय भी हैं। ये विभिन्न प्रकार के भूभाग बनाते हैं, है न? इनके बीच में परमेश्वर ने सीमाएँ खींचीं। जब हम सीमाएँ खींचने की बात करते हैं, तो इसका अर्थ है कि पर्वतों का अपना खाका है, मैदानों का अपना खाका, मरुस्थलों की निश्चित सीमाएँ हैं, और पहाड़ियों का एक निश्चित क्षेत्र है। नदियों और झीलों जैसे जल-निकायों की भी एक निश्चित मात्रा है। अर्थात्, जब परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि की, तब उसने हर चीज को पूरी स्पष्टता से विभाजित किया। परमेश्वर ने पहले ही निर्धारित कर दिया है कि किसी निर्दिष्ट पहाड़ का घेरा कितने किलोमीटर का होना चाहिए, और उसका दायरा क्या है। उसने यह भी निर्धारित कर दिया है कि किसी निर्दिष्ट मैदान का घेरा कितने किलोमीटर का होनी चाहिए, और उसका दायरा क्या है। सभी चीजों की रचना करते समय उसने मरुस्थलों की सीमाएँ और साथ ही पहाड़ियों के विस्तार और उनके अनुपात भी तय किए और यह भी कि वे किन चीजों से घिरे हुए होंगे—यह सब उसके द्वारा निर्धारित किया गया था। उसने नदियों और झीलों की रचना करने के दौरान उनका दायरा निर्धारित किया—उन सभी की अपनी सीमाएँ हैं। तो जब हम “सीमाओं” की बात करते हैं, तो इसका क्या अर्थ होता है? हमने अभी इस बारे में बात की थी कि कैसे परमेश्वर सभी चीजों के लिए व्यवस्थाएँ स्थापित कर उन पर शासन करता है। अर्थात्, पहाड़ों का दायरा और उनकी सीमाएँ पृथ्वी के घूमने या समय गुजरने के कारण बढ़ेंगी या घटेंगी नहीं। वे स्थिर और अपरिवर्तनीय हैं, और यह परमेश्वर है जो उनकी अपरिवर्तनीयता निर्दिष्ट करता है। जहाँ तक मैदानी क्षेत्रों की बात है, उनका दायरा कितना है, वे किन चीजों से घिरे हैं—यह परमेश्वर द्वारा तय किया गया है। उनकी अपनी सीमाएँ हैं, और इसलिए पृथ्वी के किसी टीले का मैदान की जमीन से अचानक उभर आना असंभव होगा। मैदान अचानक किसी पर्वत में नहीं बदल सकता—यह असंभव होगा। यह उन व्यवस्थाओं और सीमाओं का अर्थ है, जिनकी अभी हमने बात की। जहाँ तक मरुस्थलों की बात है, हम यहाँ मरुस्थलों या किसी अन्य प्रकार के भूभाग के विशिष्ट कार्यों या उनकी भौगोलिक स्थिति की बात नहीं करेंगे, केवल उनकी सीमाओं की बात करेंगे। परमेश्वर के शासन के अधीन मरुस्थल की सीमाएँ भी नहीं बढ़ेंगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर ने उसे उसकी व्यवस्था, उसकी सीमाएँ दी हैं। उसका क्षेत्र कितना बड़ा है और उसकी कार्य क्या है, वह किन चीजों से घिरा है, और वह कहाँ स्थित है—यह परमेश्वर द्वारा पहले ही तय कर दिया गया है। वह अपनी सीमाओं से आगे नहीं बढ़ेगा, न अपनी जगह बदलेगा, और उसके क्षेत्र का मनमाने ढंग से विस्तार नहीं होगा। हालाँकि नदियों और झीलों जैसे पानी के प्रवाह सुव्यवस्थित और सतत हैं, फिर भी वे कभी अपने दायरे से बाहर या अपनी सीमाओं से परे नहीं जाएँगी। वे सभी एक सुव्यवस्थित तरीके से एक ही दिशा में बहती हैं, उस दिशा में, जिसमें उन्हें बहना चाहिए। इसलिए परमेश्वर के शासन की व्यवस्थाओं के अंतर्गत कोई नदी या झील मनमाने ढंग से सूख नहीं जाएगी, या अपने प्रवाह की दिशा या मात्रा पृथ्वी के घूमने या समय गुजरने के साथ बदल नहीं देगी। यह सब परमेश्वर के नियंत्रण में है। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर द्वारा इस मानवजाति के मध्य सृजित सभी चीजों के अपने निर्धारित स्थान, क्षेत्र और सीमाएँ हैं। अर्थात्, जब परमेश्वर ने सभी चीजों की रचना की, तब उनकी सीमाएँ तय कर दी गई थीं और उन्हें मनमाने ढंग से पलटा, नवीनीकृत किया या बदला नहीं जा सकता। “मनमाने ढंग से” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे मौसम, तापमान, या पृथ्वी के घूमने की गति के कारण बेतरतीब ढंग से अपना स्थान नहीं बदलेंगी, अपना विस्तार नहीं करेंगी या अपने मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं लाएँगी। उदाहरण के लिए, पर्वत एक निश्चित ऊँचाई का होता है, उसका आधार एक निश्चित क्षेत्र का होता है, समुद्र-तल से उसकी एक निश्चित ऊँचाई होती है, और उस पर एक निश्चित मात्रा में वनस्पति होती है। इस सबकी योजना और गणना परमेश्वर द्वारा की गई है और इसे मनमाने ढंग से बदला नहीं जाएगा। जहाँ तक मैदानों की बात है, अधिकतर मनुष्य मैदानी इलाकों में निवास करते हैं, और मौसम में कोई परिवर्तन उनके क्षेत्रों या उनके अस्तित्व के मूल्य को प्रभावित नहीं करेगा। यहाँ तक कि इन विभिन्न भूभागों और भौगोलिक परिवेशों में समाविष्ट वे चीजें भी, जिन्हें परमेश्वर द्वारा रचा गया था, मनमाने ढंग से नहीं बदली जाएँगी। उदाहरण के लिए, मरुस्थल की संरचना, भूमिगत खनिज भंडारों के प्रकार, मरुस्थल में पाई जाने वाली रेत की मात्रा और उसका रंग, मरुस्थल की मोटाई—ये मनमाने ढंग से नहीं बदलेंगे। ऐसा क्यों है कि वे मनमाने ढंग से नहीं बदलेंगे? ऐसा परमेश्वर के शासन और उसके प्रबंधन के कारण है। परमेश्वर स्वयं द्वारा सृजित इन सभी विभिन्न भूभागों और भौगोलिक परिवेशों के भीतर सारी चीजों का प्रबंधन एक योजनाबद्ध और सुव्यवस्थित तरीके से कर रहा है। इसलिए परमेश्वर द्वारा सृजित किए जाने के हजारों, बल्कि लाखों वर्षों बाद भी ये सभी भौगोलिक परिवेश अभी भी अस्तित्व में हैं और अपनी भूमिकाएँ निभा रहे हैं। हालाँकि कुछ समय ऐसे होते हैं जब ज्वालामुखी फटते हैं, और ऐसे समय होते हैं जब भूकंप आते हैं, और बड़े पैमाने पर भूमिगत बदलाव होते हैं, फिर भी परमेश्वर किसी भी प्रकार के भूभाग को अपना मूल कार्य छोड़ने की अनुमति बिलकुल नहीं देगा। केवल परमेश्वर के इस प्रबंधन, उसके शासन और इन व्यवस्थाओं पर उसके नियंत्रण के कारण ही यह सब—यह सब, जिसे मानवजाति देखती और जिसका आनंद लेती है—सुव्यवस्थित तरीके से पृथ्वी पर मौजूद रह सकता है। तो परमेश्वर पृथ्वी पर मौजूद इन सभी विभिन्न भूभागों का प्रबंधन इस तरह क्यों करता है? उसका उद्देश्य यह है कि विभिन्न भौगोलिक परिवेशों में रहने वाले सभी प्राणियों के पास एक स्थिर परिवेश हो, और वे उस स्थिर परिवेश में जीते रहने और वंश-वृद्धि करने में सक्षम हों। ये सभी चीजें—चाहे वे चल हों या अचल, अपने नथुनों से साँस लेती हों या न लेती हों—मानवजाति के अस्तित्व के लिए एक विशिष्ट परिवेश का निर्माण करती हैं। केवल इसी प्रकार का परिवेश पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनुष्यों का पालन-पोषण करने में सक्षम है, और केवल इसी प्रकार का परिवेश मनुष्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी शांतिपूर्वक ढंग से जीते रहने दे सकता है।

मैंने जिस विषय पर अभी-अभी बात की है, वह कुछ बड़ा है, इसलिए शायद तुम लोगों के जीवन से थोड़ा अलग लगता है, लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम सब इसे समझ सकते हो। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी चीजों पर परमेश्वर के प्रभुत्व की व्यवस्थाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं—सचमुच बहुत महत्वपूर्ण! इन व्यवस्थाओं के अंतर्गत सभी प्राणियों के विकास की पूर्वशर्त क्या है? यह परमेश्वर के शासन के कारण है। यह उसके शासन के ही कारण है कि सभी चीजें उसके शासन के अंतर्गत अपने-अपने कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ जंगलों का पोषण करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जंगल अपने भीतर रहने वाले विभिन्न पक्षियों और पशुओं का पोषण और संरक्षण करते हैं। मैदान मनुष्यों द्वारा फसल उगाए जाने के लिए और साथ ही विभिन्न पशु-पक्षियों के लिए तैयार किया गया मंच हैं। वे अधिकांश मानवजाति को समतल भूमि पर रहने देते हैं और लोगों के जीवन में सहूलियत प्रदान करते हैं। और मैदानों में घास के मैदान भी शामिल हैं—घास के मैदानों की विशाल पट्टियाँ। घास के मैदान पृथ्वी की सतह को पौधों का आवरण प्रदान करते हैं। वे मिट्टी का संरक्षण करते हैं और घास के मैदानों में रहने वाले मवेशियों, भेड़ों और घोड़ों का पालन-पोषण करते हैं। मरुस्थल भी अपना कार्य करता है। यह मनुष्यों के रहने की जगह नहीं है; इसकी भूमिका नम जलवायु को शुष्क बनाना है। नदियों और झीलों के प्रवाह लोगों के लिए सुविधाजनक ढंग से पीने का पानी लेकर आते हैं। जहाँ कहीं वे बहती हैं, वहाँ लोगों के पास पीने का पानी होता है, और सभी चीजों की पानी की आवश्यकताएँ सरलता से पूरी हो जाती हैं। ये परमेश्वर द्वारा विभिन्न भूभागों के लिए बनाई गई सीमाएँ हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 181

परमेश्वर समस्त मानवजाति का पालन-पोषण करने हेतु सभी चीजों के लिए सीमाएँ तय करता है (चुने हुए अंश)

दूसरा भाग : परमेश्वर द्वारा जीवन के हर रूप के लिए सीमाएँ निर्धारित करना

परमेश्वर द्वारा खींची गई इन सीमाओं के कारण विभिन्न भूभागों ने अस्तित्व के लिए विभिन्न परिवेश तैयार किए हैं, और अस्तित्व के लिए ये परिवेश विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों के लिए सुविधाजनक रहे हैं, और उन्होंने उन्हें जीवित रहने के लिए स्थान भी दिया है। इससे विभिन्न जीवों के अस्तित्त्व के परिवेशों की सीमाएँ विकसित की गई हैं। यह दूसरा भाग है, जिस पर हम आगे बात करने जा रहे हैं। सर्वप्रथम, पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े कहाँ रहते हैं? क्या वे वनों-उपवनों में रहते हैं? ये उनके घर हैं। इसलिए, विभिन्न भौगोलिक परिवेशों के लिए सीमाएँ स्थापित करने के अलावा परमेश्वर ने विभिन्न पशु-पक्षियों, मछलियों, कीड़े-मकोड़ों और सभी पेड़-पौधों के लिए भी सीमाएँ खींचीं और व्यवस्थाएँ स्थापित कीं। विभिन्न भौगोलिक परिवेशों के मध्य भिन्नताओं के कारण और विभिन्न भौगोलिक परिवेशों की मौजूदगी के कारण विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों, मछलियों, कीड़े-मकोड़ों और पेड़-पौधों के पास जीवित रहने के लिए विभिन्न परिवेश हैं। पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े विभिन्न पेड़-पौधों के बीच रहते हैं, मछलियाँ पानी में रहती हैं, और पेड़-पौधे भूमि पर उगते हैं। भूमि में विभिन्न क्षेत्र जैसे पर्वत, मैदान और पहाड़ियाँ शामिल हैं। जब पशु-पक्षियों के पास अपने निश्चित घर होते हैं, तो वे इधर-उधर नहीं भटकते। उनके घर जंगल और पहाड़ हैं। अगर किसी दिन उनके घर नष्ट हो जाएँ, तो यह सारी व्यवस्था अराजकता में बदल जाएगी। जैसे ही यह व्यवस्था अराजकता में बदलेगी, तो परिणाम क्या होंगे? सबसे पहले किसे नुकसान पहुँचेगा? मानवजाति को! परमेश्वर द्वारा स्थापित इन व्यवस्थाओं और सीमाओं के अंतर्गत क्या तुम लोगों ने कोई अजीब घटना देखी है? उदाहरण के लिए, मरुस्थल में चलते हुए हाथी। क्या तुम लोगों ने ऐसा कुछ देखा है? अगर सचमुच ऐसा हुआ, तो यह एक बहुत ही अजीब घटना होगी, क्योंकि हाथी जंगल में रहते हैं, और वही वह परिवेश है, जो परमेश्वर ने उनके अस्तित्व के लिए तैयार किया है। जीने के लिए उनके पास अपना परिवेश है, अपना निश्चित घर है, इसलिए वे इधर-उधर क्यों भागेंगे? क्या किसी ने शेरों या बाघों को समुद्र-तट पर टहलते हुए देखा है? नहीं, तुमने नहीं देखा होगा। शेरों और बाघों का घर जंगल और पर्वत हैं। क्या किसी ने समुद्र की ह्वेल या शार्क मछलियों को मरुस्थल में तैरते हुए देखा है? नहीं, तुमने नहीं देखा होगा। ह्वेल और शार्क मछलियाँ अपना घर समुद्र में बनाती हैं। क्या मनुष्यों के जीने के परिवेश में ऐसे लोग हैं, जो भूरे भालुओं के साथ रहते हैं? क्या ऐसे लोग हैं, जो अपने घरों के भीतर और बाहर हमेशा मोरों या अन्य पक्षियों से घिरे रहते हैं? क्या किसी ने चीलों और जंगली हंसों को बंदरों के साथ खेलते देखा है? (नहीं।) ये सब अजीब घटनाएँ होंगी। तुम लोगों को इतनी अजीब लगने वाली इन चीजों के बारे में मेरे बात करने की वजह यह है कि तुम लोग समझ जाओ कि परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों के जीवित रहने की अपनी व्यवस्थाएँ हैं—चाहे वे स्थायी रूप से एक ही स्थान पर रहती हों या नहीं, या वे अपने नथुनों से साँस ले सकती हों या नहीं। परमेश्वर ने इन प्राणियों को सृजित करने से बहुत पहले ही उनके लिए उनके अपने घर और अस्तित्व के लिए उनके अपने परिवेश बना दिए थे। इन प्राणियों के पास अपने अस्तित्व के लिए अपने निश्चित परिवेश, अपना भोजन, अपने निश्चित घर थे और उनके पास अपने अस्तित्व के लिए उपयुक्त तापमानों वाली निश्चित जगहें थीं। इस तरह वे किसी भी तरह से इधर-उधर नहीं भटकते थे या मानवजाति के अस्तित्व को कमजोर या लोगों के जीवन को प्रभावित नहीं करते थे। परमेश्वर सभी चीजों का प्रबंधन इसी तरह से करता है और मानवजाति को जीवित रहने हेतु उत्तम परिवेश प्रदान करता है। सभी चीजों के अंतर्गत जीवित प्राणियों में से प्रत्येक के पास जीवित रहने हेतु अपने अलग परिवेश के भीतर जीवन बनाए रखने वाला भोजन होता है। उस भोजन के साथ वे जीवित रहने के लिए अपने पैदाइशी परिवेश से जुड़े रहते हैं; उस प्रकार के परिवेश में वे अपने लिए परमेश्वर द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं के अनुसार जीवन-यापन और वंश-वृद्धि करते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। इस प्रकार की व्यवस्थाओं के कारण, परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण, सभी चीजें मानवजाति के साथ सामंजस्यपूर्वक रहती हैं और मानवजाति सभी चीजों के साथ परस्पर निर्भर रहते हुए सह-अस्तित्व में एक-साथ रहती है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 182

परमेश्वर समस्त मानवजाति का पालन-पोषण करने हेतु सभी चीजों के लिए सीमाएँ तय करता है (चुने हुए अंश)

तीसरा भाग : परमेश्वर द्वारा मानवजाति के पालन-पोषण के लिए परिवेश और पारिस्थितिकी बनाए रखना

परमेश्वर ने सभी चीजों की रचना की और उनके लिए सीमाएँ निर्धारित कीं; उनके मध्य उसने सभी प्रकार के जीवों का पालन-पोषण किया। इसी दौरान उसने मनुष्यों के जीवित रहने के लिए विभिन्न साधन भी तैयार किए, इसलिए तुम देख सकते हो कि मनुष्यों के पास जीवित रहने के लिए कोई एक ही तरीका नहीं है, न ही उनके पास जीवित रहने के लिए कोई एक ही प्रकार का परिवेश है। हमने पहले परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के लिए विभिन्न प्रकार के आहार और जल-स्रोत तैयार करने के बारे में बात की थी, जो मानवजाति के दैहिक जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। किंतु, इस मानवजाति में सभी लोग अनाज पर ही नहीं जीते। भौगोलिक परिवेशों और भूभागों की भिन्नताओं के कारण लोगों के पास जिंदा रहने के लिए अलग-अलग साधन हैं। जिंदा रहने के ये सभी साधन परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए हैं। इसलिए सभी मनुष्य मुख्य रूप से खेती में नहीं लगे हैं। अर्थात्, सभी लोग फसल उगाकर अपना भोजन प्राप्त नहीं करते। यह तीसरा भाग है, जिसके बारे में हम बात करने जा रहे हैं : मनुष्यों की विभिन्न जीवनशैलियों के कारण सीमाएँ उत्पन्न हुई हैं। तो मनुष्यों की और कौन-कौन से प्रकार की जीवनशैलियाँ हैं? भोजन के विभिन्न स्रोतों के अनुसार और किस प्रकार के लोग हैं? उनके कई प्राथमिक प्रकार हैं।

पहला है शिकारी जीवनशैली। हर कोई जानता है कि वह क्या है। जो लोग शिकार करके जिंदा रहते हैं, वे क्या खाते हैं? (शिकार।) वे जंगल के पशु-पक्षियों को खाते हैं। “शिकार” एक आधुनिक शब्द है। शिकारी इसे शिकार के रूप में नहीं देखते; वे इसे भोजन के रूप में, और अपने दैनिक भरण-पोषण के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो, उन्हें एक हिरण मिल जाता है। उनके लिए हिरण का मिलना बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी किसान को जमीन से भोजन प्राप्त होना। किसान जमीन से भोजन प्राप्त करता है, और जब वह उस भोजन को देखता है, तो वह खुश होता है और सुकून महसूस करता है। खाने के लिए फसलें होने से परिवार भूखा नहीं रहेगा। किसान का हृदय निश्चिंत हो जाता है और वह संतुष्टि महसूस करता है। शिकारी भी अपनी पकड़ में आए शिकार को देखकर सुकून और संतुष्टि महसूस करता है, क्योंकि अब उसे भोजन की चिंता नहीं करनी है। अगली बार के भोजन के लिए कुछ है और भूखे रहने की जरूरत नहीं है। यह ऐसा व्यक्ति है, जो जीवन-यापन के लिए शिकार करता है। शिकार पर निर्भर रहने वाले अधिकतर लोग पहाड़ी जंगलों में रहते हैं। वे खेती नहीं करते। वहाँ कृषि-योग्य भूमि पाना आसान नहीं है, इसलिए वे विभिन्न जीवों, विभिन्न प्रकार के शिकार पर जिंदा रहते हैं। यह पहली प्रकार की जीवनशैली है, जो आम लोगों से अलग है।

दूसरे प्रकार की जीवनशैली चरवाहे की है। क्या जीविका के लिए पशु चराने वाले लोग खेती भी करते हैं? (नहीं।) तो वे क्या करते हैं? वे कैसे जीते हैं? (अधिकांशतः, वे जीवन-यापन के लिए मवेशी और भेड़े चराते हैं, और शीत ऋतु में वे अपने मवेशियों को मारकर खाते हैं। उनका मुख्य भोजन गाय और भेड़ का मांस होता है, और वे दूध की चाय पीते हैं। हालाँकि चरवाहे चारों ऋतुओं में व्यस्त रहते हैं, वे अच्छी तरह खाते हैं। उनके पास प्रचुर मात्रा में दूध, दुग्ध-उत्पाद और मांस होता है।) जो लोग जीवन-यापन के लिए पशु चराते हैं, वे मुख्य रूप से गाय और भेड़ का मांस खाते हैं, भेड़ और गाय का दूध पीते हैं, और हवा में लहराते बालों और धूप में चमचमाते चेहरों के साथ खेतों में अपने पशु चराते हुए मवेशियों और घोड़ों की सवारी करते हैं। वे आधुनिक जीवन के तनाव नहीं झेलते। पूरे दिन वे नीले आसमान और घास के मैदानों के व्यापक विस्तार को निहारते हैं। जीवन-यापन के लिए मवेशी चराने वाले अधिकतर लोग घास के मैदानों में रहते हैं, और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी खानाबदोश जीवनशैली बरकरार रख पाए हैं। हालाँकि घास के मैदानों में जीवन थोड़ा एकाकी होता है, लेकिन वह बहुत खुशहाल जीवन भी होता है। यह कोई बुरी जीवनशैली नहीं है!

तीसरे प्रकार की जीवनशैली मछली पकड़ने की है। मानवजाति का एक छोटा समूह समुद्र के किनारे या छोटे द्वीपों पर रहता है। उनके चारों ओर पानी और सामने समुद्र होता है। ये लोग जीविका के लिए मछली पकड़ते हैं। जो लोग जीविका के लिए मछली पकड़ते हैं, उनके भोजन का स्रोत क्या होता है? उनके भोजन के स्रोतों में सभी प्रकार की मछलियाँ, समुद्री भोजन और समुद्र के अन्य उत्पाद शामिल हैं। जो लोग जीविका के लिए मछली पकड़ते हैं, वे खेती-बाड़ी नहीं करते, बल्कि हर दिन मछली पकड़ने में बिताते हैं। उनके मुख्य भोजन में विभिन्न प्रकार की मछलियाँ और समुद्र के उत्पाद शामिल हैं। वे कभी-कभार चावल, आटे और दैनिक जरूरत के लिए इन चीजों का व्यापार भी करते हैं। यह उन लोगों की एक अलग प्रकार की जीवनशैली है, जो पानी के समीप रहते हैं। पानी के समीप रहते हुए वे अपने आहार के लिए पानी पर निर्भर रहते हैं और मछली पकड़कर जीविका चलाते हैं। मछली पकड़ना उन्हें न केवल भोजन का स्रोत देता है, बल्कि आजीविका का साधन भी देता है।

खेती-बाड़ी करने के अलावा, मानवजाति मुख्य रूप से उपर्युक्त तीन जीवनशैलियों पर निर्भर करती है। लेकिन अधिकतर लोग आजीविका के लिए खेती-बाड़ी करते हैं, केवल कुछ जन-समूह मवेशी चराकर, मछली पकड़कर और शिकार करके जीवन निर्वाह करते हैं। और खेती से जीवन-निर्वाह करने वाले लोगों को किस चीज की आवश्यकता होती है? उन्हें जमीन की आवश्यकता होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे जमीन में फसलें उगाकर जीवन-यापन करते आए हैं, और चाहे वे सब्जियाँ उगाएँ या फल या अनाज, वे पृथ्वी से भोजन और अपनी दैनिक जरूरत की चीजें प्राप्त करते हैं।

मनुष्य की इन विभिन्न जीवनशैलियों का आधार बनने वाली मूल शर्तें क्या हैं? क्या यह बिलकुल आवश्यक नहीं है कि जिन परिवेशों वे जीवित रह पाते हैं, उन्हें बुनियादी स्तर पर संरक्षित किया जाए? अर्थात्, अगर शिकार से जीवन-निर्वाह करने वालों को पहाड़ी जंगलों या पशु-पक्षियों को खोना पड़े, तो उनकी जीविका का स्रोत खत्म हो जाएगा। इस जाति और प्रकार के लोग किस दिशा में जाएँगे, यह अनिश्चित हो जाएगा और वे लुप्त भी हो सकते हैं। और जो लोग अपनी जीविका के लिए मवेशी चराते हैं, उनके बारे में क्या खयाल है? वास्तव में वे जिस पर निर्भर हैं, वह उनके मवेशी नहीं हैं, बल्कि वह परिवेश है जिसमें उनके मवेशी जीवित रह पाते हैं—घास के मैदान। अगर घास के मैदान न होते, तो चरवाहे अपने मवेशियों को कहाँ चराते? मवेशी और भेड़ें क्या खाते? मवेशियों के बिना इन खानाबदोश लोगों के पास कोई जीविका न होती। अपनी जीविका के स्रोत के बिना ये लोग कहाँ जाते? उनके लिए जिंदा रहना बहुत कठिन हो जाता; उनका कोई भविष्य न होता। अगर पानी के स्रोत नहीं होते, और नदियाँ और झीलें पूरी तरह से सूख जातीं, तो क्या वे सभी मछलियाँ, जो जीने के लिए पानी पर निर्भर हैं, फिर भी जीवित रहतीं? वे जीवित न रहतीं। जो लोग अपनी जीविका के लिए जल और मछलियों पर आश्रित हैं, क्या वे जीवित रह पाते? अगर उनके पास भोजन न रहता, अगर उनके पास अपनी जीविका का स्रोत न रहता, तो वे जीवित न रह पाते। अर्थात्, अगर किसी जाति के सामने अपनी जीविका या अस्तित्व को लेकर कोई समस्या आती है, तो वह जीवित नहीं रह पाती, वह पृथ्वी से गायब हो सकती है, विलुप्त हो सकती है। और अगर अपनी जीविका के लिए खेती करने वाले लोग अपनी जमीन खो दें, अगर वे सभी प्रकार के पेड़-पौधे उगाकर उनसे अपना भोजन प्राप्त न कर पाएँ, तो क्या परिणाम होगा? भोजन के बिना लोग क्या भूख से मर नहीं जाएँगे? अगर लोग भूख से मर रहे हों, तो क्या मनुष्यों की उस नस्ल का सफाया नहीं हो जाएगा? इसलिए विभिन्न परिवेश बनाए रखने के पीछे यही परमेश्वर का उद्देश्य है। विभिन्न परिवेश और पारिस्थितिक तंत्र और उनमें विभिन्न जीवों को बनाए रखने में परमेश्वर का एक ही उद्देश्य है—और वह है हर तरह के लोगों का पालन-पोषण करना, उन लोगों का पालन-पोषण करना, जो विभिन्न भौगोलिक परिवेशों में रहते हैं।

अगर सृष्टि की सभी चीजें अपनी व्यवस्थाएँ खो दें, तो उनका अस्तित्व नहीं रहेगा; अगर सभी चीजों की व्यवस्थाएँ लुप्त हो जाएँ, तो सभी चीजों के बीच जीव बचे नहीं रह पाएँगे। मानवजाति भी अपना वह परिवेश गँवा देगी, जिस पर वह जीवित रहने के लिए निर्भर है। अगर मनुष्य यह सब गँवा दें, तो वे जीवित नहीं रह पाएँगे, जैसे कि वे रहते आए हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी फल-फूल नहीं पाएँगे और वंश-वृद्धि नहीं कर पाएँगे। मनुष्य आज तक जिंदा बचे हुए हैं, तो उसका कारण यह है कि परमेश्वर ने उनका पोषण करने, मनुष्यों का विभिन्न तरीकों से पालन-पोषण करने के लिए उन्हें सृष्टि की सभी चीजें प्रदान की हैं। परमेश्वर द्वारा विभिन्न तरीकों से मानवजाति का पालन-पोषण करने के कारण ही वह आज तक जीवित बची हुई है। जीवित रहने के ऐसे निश्चित परिवेश के कारण, जो कि अनुकूल हैं और जिसमें प्राकृतिक व्यवस्थाएँ सुव्यवस्थित हैं, पृथ्वी पर सभी प्रकार के लोग, सभी प्रकार की नस्लें अपने निर्धारित क्षेत्रों के भीतर जीवित रह सकती हैं। कोई भी इन क्षेत्रों या अपने बीच की इन सीमाओं से बाहर नहीं जा सकता, क्योंकि यह परमेश्वर है, जिसने इन्हें खींचा है। परमेश्वर इस तरह सीमाएँ क्यों खींचेगा? यह पूरी मानवजाति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है—सचमुच बेहद महत्वपूर्ण!

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 183

परमेश्वर समस्त मानवजाति का पालन-पोषण करने हेतु सभी चीजों के लिए सीमाएँ तय करता है (चुने हुए अंश)

चौथा भाग : परमेश्वर द्वारा विभिन्न नस्लों के बीच सीमाएँ खींचना

चौथे, परमेश्वर ने विभिन्न नस्लों के बीच सीमाएँ खींचीं। पृथ्वी पर गोरे लोग, काले लोग, भूरे लोग और पीले लोग हैं। ये विभिन्न प्रकार के लोग हैं। परमेश्वर ने इन विभिन्न प्रकार के लोगों के जीवन के लिए भी दायरा तय किया है, और अनजाने ही ये लोग परमेश्वर के प्रबंधन के अधीन जीवित रहने के अपने अनुकूल परिवेश के भीतर रहते हैं। कोई भी इसके बाहर कदम नहीं रख सकता। उदाहरण के लिए, गोरे लोगों की बात करते हैं। इनमें से अधिकतर लोग किस भौगोलिक इलाके में रहते हैं? वे अधिकांशतः यूरोप और अमेरिका में रहते हैं। काले लोग मुख्यतः जिस भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं, वह अफ्रीका है। भूरे लोग मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्वी एशिया और दक्षिण एशिया में थाइलैंड, भारत, म्यांमार, वियतनाम और लाओस जैसे देशों में रहते हैं। पीले लोग मुख्य रूप से एशिया में, अर्थात् चीन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में रहते हैं। परमेश्वर ने इन विभिन्न प्रकार की सभी नस्लों को उचित रूप से विभाजित किया है, ताकि ये विभिन्न नस्लें संसार के विभिन्न भागों में फैल जाएँ। संसार के इन विभिन्न भागों में परमेश्वर ने बहुत पहले ही मनुष्यों की प्रत्येक अलग नस्ल के जीवित रहने के लिए उपयुक्त परिवेश तैयार किया है। जीवित रहने के इन परिवेशों के अंतर्गत परमेश्वर ने उनके लिए विविध रंगों और बनावट की जमीन तैयार की। दूसरे शब्दों में, गोरे लोगों के शरीरों की रचना करने वाले घटक काले लोगों के शरीरों की रचना करने वाले घटकों के समान नहीं होते, और वे अन्य नस्लों के लोगों के शरीरों की रचना करने वाले घटकों से भी अलग होते हैं। जब परमेश्वर ने सभी चीजों की रचना की, तब उसने पहले ही उस नस्ल के अस्तित्व के लिए एक परिवेश तैयार कर लिया था। ऐसा करने का उसका उद्देश्य यह था कि जब उस प्रकार के लोग अपने वंश की वृद्धि शुरू करें, और जब उनकी संख्या बढ़ने लगे, तो उन्हें एक दायरे के भीतर स्थिर किया जा सके। मनुष्यों की रचना करने से पहले ही परमेश्वर ने इन सारी बातों पर विचार कर लिया था—वह यूरोप और अमेरिका को गोरे लोगों के विकसित होने और जीवित रहने के लिए आरक्षित कर देगा। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी का निर्माण कर रहा था, तब उसके पास पहले से ही एक योजना थी, भूमि के उस हिस्से में जो कुछ उसने रखा, उसे रखने, और वहाँ उसने जिसका पालन-पोषण किया, उसका पालन-पोषण करने में उसका एक उद्देश्य और प्रयोजन था। उदाहरण के लिए, उस भूमि पर कौन-से पर्वत, कितने मैदान, कितने जल-स्रोत, किस प्रकार के पशु-पक्षी, कौन-सी मछलियाँ और कौन-से पेड़-पौधे होंगे, परमेश्वर ने उन्हें बहुत पहले ही तैयार कर लिया था। किसी निर्दिष्ट प्रकार के मनुष्यों, किसी निर्दिष्ट नस्ल के अस्तित्व के लिए परिवेश तैयार करते समय परमेश्वर को अनेक मुद्दों पर हर दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता थी : भौगोलिक परिवेश, जमीन की बनावट, पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ, विभिन्न प्रकार की मछलियों के आकार, मछलियों के शरीरों की रचना करने वाले घटक, पानी की गुणवत्ता में अंतर, और साथ ही विभिन्न प्रकार के सभी पेड़-पौधे...। परमेश्वर ने यह बहुत पहले ही तैयार कर लिया था। उस प्रकार का परिवेश जीवित रहने के लिए ऐसा परिवेश है, जिसे परमेश्वर ने गोरे लोगों के लिए सृजित और तैयार किया और जो स्वभावतः उनका है। क्या तुम लोगों ने देखा है कि जब परमेश्वर ने सभी चीजों की रचना की, तो उसने इस पर बहुत ज्यादा सोच-विचार किया और एक योजना के साथ कार्य किया? (हाँ, हमने देखा है कि विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए परमेश्वर के बहुत सुचिंतित विचार थे। विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के जीवित रहने के लिए जो परिवेश उसने निर्मित किया, उसमें किस प्रकार के पशु-पक्षी और मछलियाँ रहेंगी, कितने पर्वत और मैदान होंगे, इस पर उसने बहुत सावधानी और सूक्ष्मता से विचार किया था।) उदाहरण के लिए, गोरे लोगों को लो। गोरे लोग मुख्य रूप से कौन-से आहार खाते हैं? जो आहार गोरे लोग खाते हैं, वे उन आहारों से बिलकुल अलग हैं जो एशिया के लोग खाते हैं। जो मुख्य आहार गोरे लोग खाते हैं, उनमें मुख्यतः मांस, अंडे, दूध और मुर्गी शामिल हैं। अनाज, जैसे रोटी और चावल, सामान्यतः पूरक आहार हैं, जिन्हें थाली के किनारे रखा जाता है। यहाँ तक कि सब्जी का सलाद खाते हुए भी वे उसमें कुछ भुने हुए मांस या चिकन के टुकड़े डालते हैं, और गेहूँ-आधारित आहार में भी वे पनीर, अंडे और मांस शामिल कर लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके मुख्य आहार गेहूँ-आधारित आहार या चावल नहीं हैं; वे बड़ी मात्रा में मांस और पनीर खाते हैं। वे प्रायः बर्फीला पानी पीते हैं, क्योंकि जो खाना वे खाते हैं, उसमें कैलोरी की मात्रा बहुत अधिक होती है। इसलिए गोरे लोग असाधारण रूप से तगड़े होते हैं। यह उनकी आजीविका का स्रोत और परमेश्वर द्वारा उनके जीने के लिए तैयार किया गया परिवेश है, जिससे वे इस तरह की जीवनशैली अपना सकते हैं, जो अन्य नस्लों के लोगों की जीवनशैलियों से अलग है। इस जीवनशैली में कुछ सही या गलत नहीं है—यह कुदरती, परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और परमेश्वर के शासन और उसकी व्यवस्थाओं से उत्पन्न है। इस नस्ल के लोगों की यह जीवनशैली और जीविका के ये स्रोत उनकी नस्ल के कारण, और परमेश्वर द्वारा उनके लिए तैयार किए गए जीवन-परिवेश के कारण हैं। तुम कह सकते हो कि परमेश्वर द्वारा गोरे लोगों के लिए तैयार किया गया जीवन-परिवेश और उन्हें उस परिवेश से प्राप्त होने वाली दैनिक जीविका समृद्ध और भरपूर है।

परमेश्वर ने दूसरी नस्लों के अस्तित्व के लिए भी आवश्यक परिवेश तैयार किया। दुनिया में काले लोग भी हैं—काले लोग कहाँ रहते हैं? वे मुख्य रूप से मध्य और दक्षिण अफ्रीका में रहते हैं। उस प्रकार के परिवेश में जीने के लिए परमेश्वर ने उनके लिए क्या तैयार किया? उष्णकटिबंधीय वर्षा-वन, सभी प्रकार के पशु-पक्षी, साथ ही मरुस्थल, और सभी प्रकार के पेड़-पौधे, जो उनके आस-पास रहते हैं। उनके पास जल के स्रोत, अपनी जीविका और भोजन है। परमेश्वर उनके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं था। चाहे उन्होंने कभी कुछ भी किया हो, उनका अस्तित्व कभी कोई समस्या नहीं रहा है। वे भी संसार के एक हिस्से में बसते हैं।

अब बात करते हैं पीले लोगों की। पीले लोग मुख्य रूप से पृथ्वी के पूर्व में रहते हैं। पूर्व और पश्चिम के परिवेशों और भौगोलिक स्थितियों के बीच क्या अंतर हैं? पूर्व में अधिकांश भूमि उपजाऊ है, और पदार्थों और खनिज भंडारों से समृद्ध है। अर्थात्, भूमि के ऊपर और भूमि के नीचे सब प्रकार के संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं। और लोगों के इस समूह के लिए, इस नस्ल के लिए परमेश्वर ने तदनुरूप जमीन, जलवायु और विभिन्न भौगोलिक परिवेश भी तैयार किए, जो उनके लिए उपयुक्त हैं। हालाँकि इस भौगोलिक परिवेश और पश्चिम के परिवेश के बीच बहुत अंतर हैं, फिर भी लोगों के लिए आवश्यक भोजन, उनकी जीविका और जीवित रहने के संसाधन भी परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए। यह पश्चिम में गोरे लोगों के जीवन-परिवेश से अलग परिवेश है। लेकिन वह एक चीज कौन-सी है, जो मुझे तुम लोगों को बताने की आवश्यकता है? पूर्वी नस्ल के लोगों की संख्या अपेक्षाकृत बड़ी है, इसलिए परमेश्वर ने पृथ्वी के उस हिस्से में बहुत सारे ऐसे तत्त्व जोड़ दिए, जो पश्चिम से भिन्न हैं। वहाँ उसने कई विभिन्न भूदृश्य और सभी प्रकार की भरपूर सामग्रियाँ जोड़ीं। वहाँ प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं; भूभाग भी विभिन्न और वैविध्यपूर्ण हैं, जो पूर्वी नस्ल के लोगों की विशाल संख्या का पालन-पोषण करने के लिए पर्याप्त हैं। पूर्व की जो चीज उसे पश्चिम से अलग करती है, वह है—दक्षिण से उत्तर तक और पूर्व से पश्चिम तक—उसकी जलवायु पश्चिम से बेहतर है। चार ऋतुएँ स्पष्ट रूप से भिन्न हैं, तापमान अनुकूल हैं, प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, और प्राकृतिक दृश्य और भूभाग के प्रकार पश्चिम से बहुत बेहतर हैं। परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया? परमेश्वर ने गोरे और पीले लोगों के बीच एक बहुत ही तर्कसंगत संतुलन बनाया। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि गोरे लोगों के खान-पान के हर पहलू, उनके द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली चीजें, और उनके आनंद के लिए उपलब्ध कराई गई चीजें उन चीजों से कहीं बेहतर हैं, जिनका आनंद लेने में पीले लोग सक्षम हैं। लेकिन परमेश्वर किसी भी नस्ल के प्रति पक्षपाती नहीं है। परमेश्वर ने पीले लोगों को कहीं अधिक खूबसूरत और बेहतर जीवन-परिवेश दिया। यही संतुलन है।

परमेश्वर ने पूर्वनियत कर दिया है कि किस प्रकार के लोग दुनिया के किस भाग में रहने चाहिए; क्या मनुष्य इन सीमाओं के बाहर जा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं जा सकते।) कितनी अद्भुत चीज है! अगर विभिन्न युगों या असाधारण समय के दौरान युद्ध या अतिक्रमण भी हो जाएँ, तो भी ये युद्ध और अतिक्रमण अस्तित्व के उन परिवेशों को बिलकुल नष्ट नहीं कर सकते, जिन्हें परमेश्वर ने प्रत्येक नस्ल के लिए पूर्वनिर्धारित किया हुआ है। अर्थात्, परमेश्वर ने संसार के एक निश्चित भाग में एक प्रकार के लोगों को बसाया है और वे उन सीमाओं के बाहर नहीं जा सकते। अगर लोगों में अपने क्षेत्रों को बदलने या फैलाने की किसी प्रकार की महत्वाकांक्षा भी हो, तो भी, परमेश्वर की अनुमति के बिना इसे हासिल कर पाना बहुत मुश्किल होगा। उनके लिए सफल होना बहुत ही कठिन होगा। उदाहरण के लिए, गोरे लोग अपने क्षेत्र का विस्तार करना चाहते थे और उन्होंने कुछ अन्य देशों में उपनिवेश बनाए। जर्मनों ने कुछ देशों पर आक्रमण किया, और ब्रिटेन ने एक बार भारत पर कब्जा कर लिया। परिणाम क्या हुआ? अंत में वे विफल हो गए। हम उनकी इस विफलता से क्या समझते हैं? जो कुछ परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर रखा है, उसे नष्ट करने की अनुमति नहीं है। इसलिए, ब्रिटेन के विस्तार में तुमने चाहे कितना भी वेग देखा हो, अंततः उन्हें पीछे हटना पड़ा और उस जमीन को छोड़ना पड़ा, जो अभी भी भारत थी। उस जमीन पर रहने वाले लोग अभी भी भारतीय हैं, अंग्रेज नहीं, क्योंकि परमेश्वर ऐसा नहीं होने देगा। इतिहास या राजनीति पर शोध करने वालों में से कुछ लोगों ने इस विषय पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किए हैं। वे ब्रिटेन की असफलता के कारण बताते हुए कहते हैं कि ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि किसी जाति-विशेष पर विजय नहीं पाई जा सकती, या इसका कोई अन्य मानवीय कारण हो सकता है...। ये वास्तविक कारण नहीं हैं। वास्तविक कारण है परमेश्वर—वह ऐसा नहीं होने देगा! परमेश्वर एक जाति को एक निश्चित भूभाग में रहने देता है और उन्हें वहाँ बसाता है, और अगर परमेश्वर उन्हें वहाँ से जाने की अनुमति नहीं देता, तो वे कभी नहीं जा पाएँगे। अगर परमेश्वर उनके लिए एक निश्चित क्षेत्र आवंटित करता है, तो वे उस क्षेत्र के भीतर ही रहेंगे। मनुष्य इन निश्चित क्षेत्रों से मुक्त या आजाद नहीं हो सकते। यह निश्चित है। अतिक्रमणकारियों की ताकतें कितनी भी बड़ी हों या अतिक्रमित लोग कितने भी कमजोर हों, आक्रमणकारियों की सफलता अंततः परमेश्वर को तय करनी है। यह उसके द्वारा पहले से ही पूर्वनिर्धारित है और कोई इसे बदल नहीं सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 184

परमेश्वर सभी पर शासन करता है और सभी का भरण-पोषण करता है, वह सभी चीजों का परमेश्वर है (चुने हुए अंश)

सभी चीजों के विकास के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं के दृष्टिकोण से देखने पर, क्या संपूर्ण मानवजाति का, उसकी तमाम विविधता में, परमेश्वर द्वारा भरण-पोषण नहीं किया जा रहा है? अगर ये व्यवस्थाएँ नष्ट हो गई होतीं या परमेश्वर ने मनुष्यों के लिए ये व्यवस्थाएँ निर्धारित न की होतीं, तो उनकी क्या संभावनाएँ होतीं? जीवित रहने के लिए अपने मूल परिवेश खो देने पर क्या उनके पास भोजन का कोई स्रोत होता? संभव है कि भोजन के स्रोत एक समस्या बन जाते। अगर लोगों के भोजन के स्रोत खो जाते, अर्थात्, अगर उन्हें खाने के लिए कुछ न मिलता, तो वे कितने दिनों तक जीवित रह पाते? संभवतः वे एक माह भी न जी पाते और उनका जीवित बचे रहना एक समस्या बन जाता। इसलिए परमेश्वर द्वारा लोगों के जीवित रहने, उनके सतत अस्तित्व, प्रजनन और जीवन-निर्वाह के लिए की जाने वाली हर चीज बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर द्वारा अपनी सभी सृजित चीजों के मध्य की जाने वाली हर चीज मानवजाति के जीवित रहने से निकटता से संबंधित और अविभाज्य है। अगर मानवजाति का जीवित रहना एक समस्या बन जाता, तो क्या परमेश्वर का प्रबंधन जारी रह पाता? क्या परमेश्वर का प्रबंधन तब भी अस्तित्व में बना रहता? परमेश्वर का प्रबंधन उस संपूर्ण मानवजाति के अस्तित्व के साथ-साथ रहता है, जिसका वह पालन-पोषण करता है, इसलिए परमेश्वर अपनी सृष्टि की सभी चीजों के लिए जो भी तैयारियाँ करता है और जो कुछ भी वह मनुष्यों के लिए करता है, वह सब उसके लिए जरूरी है, और यह मानवजाति के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। अगर परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के लिए निर्धारित व्यवस्थाएँ हटा दी जातीं, अगर ये व्यवस्थाएँ तोड़ी या बाधित की जातीं, तो कोई भी चीज अस्तित्व में न रह पाती, मानवजाति का जीवन-परिवेश मौजूद न रह पाता, न ही उसकी दैनिक जीविका और न स्वयं मानवजाति अस्तित्व में बने रहते। इस कारण से, मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर का प्रबंधन भी अस्तित्व में न रहता।

हर चीज, जिसकी हमने चर्चा की है, हर वस्तु, हर मद प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व से घनिष्ठता से जुड़ी है। तुम लोग कह सकते हो, “तुम जिस बारे में बात कर रहे हो, वह बहुत बड़ा है, वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हम देख पाएँ,” और कदाचित् ऐसे लोग हैं जो कहेंगे, “तुम जिस बारे में बात कर रहे हो, उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” लेकिन यह न भूलो कि तुम सभी चीजों के मात्र एक हिस्से के रूप में जी रहे हो; तुम परमेश्वर के शासन के अंतर्गत सभी सृजित चीजों में से एक हो। परमेश्वर द्वारा सृजित चीजें उसके शासन से अलग नहीं की जा सकतीं, और कोई एक भी व्यक्ति स्वयं को उसके शासन से अलग नहीं कर सकता। उसका शासन और पोषण खोने का अर्थ होगा कि लोगों का जीवन, लोगों का दैहिक जीवन लुप्त हो जाएगा। यह परमेश्वर द्वारा मानवजाति के अस्तित्व के लिए परिवेश स्थापित करने का महत्व है। तुम चाहे जिस भी नस्ल के हो या जिस भी भूभाग पर रहते हो, चाहे वह पश्चिम में हो या पूर्व में—तुम जीवित रहने के लिए उस परिवेश से अपने आपको अलग नहीं कर सकते, जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए स्थापित किया है, और तुम जीवित रहने के लिए उस परिवेश के पोषण और प्रावधानों से अपने आपको अलग नहीं कर सकते, जिसे उसने मनुष्यों के लिए स्थापित किया है। चाहे तुम्हारी जीविका कुछ भी हो, तुम जीने के लिए जिस पर भी आश्रित हो, और अपने दैहिक जीवन को बनाए रखने के लिए तुम जिस चीज पर भी निर्भर हो, तुम स्वयं को परमेश्वर के शासन और प्रबंधन से अलग नहीं कर सकते। कुछ लोग कहते हैं : “मैं किसान नहीं हूँ, मैं जीविका के लिए फसल नहीं उगाता। मैं अपने भोजन के लिए स्वर्ग पर आश्रित नहीं हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व परमेश्वर द्वारा स्थापित जीवन-परिवेश की वजह से कायम नहीं है। उस प्रकार के परिवेश ने मुझे कुछ नहीं दिया है।” क्या यह सही है? तुम कहते हो कि तुम अपने जीने के लिए फसल नहीं उगाते, लेकिन क्या तुम अनाज नहीं खाते? क्या तुम मांस और अंडे नहीं खाते? और क्या तुम सब्जियाँ और फल नहीं खाते? जो कुछ भी तुम खाते हो, जिन चीजों की भी तुम्हें जरूरत पड़ती है, वे सब उस परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए स्थापित जीवन-परिवेश से अविभाज्य हैं। और मानवजाति के लिए आवश्यक हर चीज का स्रोत परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों से अलग नहीं किया जा सकता, जो अपनी संपूर्णता में तुम्हारे जीवन-परिवेशों का निर्माण करती हैं। जो जल तुम पीते हो, जो कपड़े तुम पहनते हो, और वे सभी चीजें जिन्हें तुम इस्तेमाल करते हो—उनमें से कौन-सी चीज परमेश्वर द्वारा सृजित चीजों से प्राप्त नहीं होती? कुछ लोग कहते हैं : “कुछ चीजें ऐसी हैं, जो परमेश्वर द्वारा सृजित चीजों से प्राप्त नहीं होतीं। देखो, प्लास्टिक उन चीजों में से एक है। यह एक रासायनिक चीज है, एक मानव-निर्मित चीज है।” क्या यह सही है? प्लास्टिक मानव-निर्मित अवश्य है, और वह एक रासायनिक चीज भी है, लेकिन प्लास्टिक के मूल घटक कहाँ से आए? उसके मूल घटक परमेश्वर द्वारा सृजित सामग्रियों से प्राप्त किए गए। जो चीजें तुम देखते हो और जिनका तुम आनंद उठाते हो, हर एक चीज जिसका तुम उपयोग करते हो, वे सब परमेश्वर द्वारा सृजित चीजों से प्राप्त की जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति की जो भी नस्ल हो, उसकी जो भी जीविका हो, या वह जिस भी प्रकार के जीवन-परिवेश में रहता हो, वह अपने आपको परमेश्वर द्वारा प्रदत्त चीजों से अलग नहीं कर सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 185

परमेश्वर सभी पर शासन करता है और सभी का भरण-पोषण करता है, वह सभी चीजों का परमेश्वर है (चुने हुए अंश)

लोगों के हृदय में परमेश्वर की समझ जितनी अधिक होती है, उतनी ही उनके हृदय में उसके लिए जगह होती है। उनके हृदय में परमेश्वर का ज्ञान जितना बड़ा होता है, उनके हृदय में परमेश्वर का स्थान उतना ही बड़ा होता है। जिस परमेश्वर को तुम जानते हो, अगर वह खोखला और अस्पष्ट है, तो जिस परमेश्वर में तुम विश्वास करते हो, वह भी खोखला और अस्पष्ट ही होगा। जिस परमेश्वर को तुम जानते हो, वह तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी के दायरे तक ही सीमित होता है, और उसका सच्चे स्वयं परमेश्वर से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए, परमेश्वर के व्यावहारिक कार्यों को जानना, परमेश्वर की वास्तविकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को जानना, स्वयं परमेश्वर की सच्ची पहचान को जानना, उसके स्वरूप को जानना, सभी सृजित चीजों के बीच अभिव्यक्त उसके कार्यों को जानना—ये चीजें हर उस व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, जो परमेश्वर को जानने की कोशिश में लगा है। इनका इस बात से सीधा संबंध है कि लोग सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या नहीं। अगर तुम परमेश्वर के बारे में अपनी समझ केवल शब्दों तक सीमित रखते हो, अगर तुम उसे अपने छोटे-मोटे अनुभवों, परमेश्वर के अनुग्रह के बारे में अपनी समझ या परमेश्वर के लिए अपनी छोटी-मोटी गवाहियों तक ही सीमित रखते हो, तो मैं कहता हूँ कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह सच्चा स्वयं परमेश्वर बिलकुल नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह एक काल्पनिक परमेश्वर है, सच्चा परमेश्वर नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सच्चा परमेश्वर वह है, जो हर चीज पर शासन करता है, जो हर चीज के मध्य चलता है, और हर चीज का प्रबंधन करता है। वही है, जिसकी मुट्ठी में पूरी मानवजाति और सभी चीजों की नियति है। जिस परमेश्वर के बारे में मैं बात कर रहा हूँ, उसका कार्य और उसके कृत्‍य लोगों के एक छोटे-से हिस्से तक ही सीमित नहीं हैं। अर्थात्, वे केवल उन लोगों तक ही सीमित नहीं हैं, जो वर्तमान में उसका अनुसरण करते हैं। उसके कर्म सभी चीजों में, सभी चीजों के अस्तित्व में, और सभी वस्तुओं के परिवर्तन की व्यवस्थाओं में अभिव्यक्त होते हैं। अगर तुम परमेश्वर की सभी सृजित चीजों में परमेश्वर का कोई कर्म देख या पहचान नहीं सकते, तो तुम उसके किसी भी कर्म की गवाही नहीं दे सकते। अगर तुम परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते, अगर तुम उस छोटे तथाकथित परमेश्वर की बात करते रहते हो जिसे तुम जानते हो, वह परमेश्वर जो तुम्हारे अपने विचारों तक ही सीमित है और तुम्हारे मस्तिष्क के संकुचित दायरे में रहता है, अगर तुम उसी किस्म के परमेश्वर के बारे में बोलते रहते हो, तो परमेश्वर कभी तुम्हारी आस्था की प्रशंसा नहीं करेगा। जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो अगर तुम ऐसा सिर्फ इस संदर्भ में करते हो कि कैसे तुम परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, कैसे तुम परमेश्वर का अनुशासन और उसकी ताड़ना स्वीकार करते हो, और कैसे तुम उसके लिए अपनी गवाही में उसके आशीषों का आनंद लेते हो, तो यह बिलकुल भी पर्याप्त नहीं है, और यह उसे कतई संतुष्ट नहीं कर सकता। अगर तुम परमेश्वर के लिए उस तरह गवाही देना चाहते हो जो उसकी इच्छा के अनुरूप हो, सच्चे स्वयं परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्यों से उसके स्वरूप को समझना होगा। तुम्हें हर चीज पर परमेश्वर के नियंत्रण से उसका अधिकार देखना चाहिए, और यह तथ्य देखना चाहिए कि कैसे वह समस्त मानवजाति का भरण-पोषण करता है। अगर तुम केवल यह स्वीकार करते हो कि तुम्हारा दैनिक भरण-पोषण और जीवन की तुम्हारी जरूरत की चीजें परमेश्वर से आती हैं, लेकिन तुम यह तथ्य नहीं देख पाते कि परमेश्वर ने अपनी सृष्टि की सभी चीजें संपूर्ण मानवजाति के पोषण के लिए ली हैं, और सभी चीजों पर अपने शासन के माध्यम से वह संपूर्ण मानवजाति की अगुआई कर रहा है, तो तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में कभी सक्षम नहीं होगे। यह सब कहने में मेरा क्या उद्देश्य है? यही कि तुम लोग इसे हलके में न लो, कि तुम गलती से ऐसा न समझो कि ये विषय, जिनके बारे में मैंने बात की है, जीवन में तुम लोगों के व्यक्तिगत प्रवेश के लिए अप्रासंगिक हैं, और कि तुम लोग इन विषयों को मात्र एक प्रकार के ज्ञान या सिद्धांत के रूप में न लो। अगर तुम लोग मेरी बात उस तरह के रवैये से सुनते हो, तो तुम लोगों को कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। तुम लोग परमेश्वर को जानने का यह महान अवसर खो दोगे।

इन सब चीजों के बारे में बात करने के पीछे मेरा लक्ष्य क्या है? मेरा लक्ष्य है कि लोग परमेश्वर को जानें, और लोग परमेश्वर के व्यावहारिक कार्यों को समझें। जब तुम परमेश्वर को समझ जाते हो और उसके कार्यों को जान जाते हो, केवल तभी तुम्हारे पास उसे जानने का अवसर या संभावना होती है। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी व्यक्ति को समझना चाहते हो, तो तुम उसे कैसे समझोगे? क्या यह उसके बाहरी रूप को देखने से होगा? क्या यह ये देखने से होगा कि वह क्या पहनता है और कैसे तैयार होता है? क्या यह ये देखने से होगा कि वह कैसे चलता है? क्या यह उसके ज्ञान के दायरे को देखने से होगा? (नहीं।) तो तुम किसी व्यक्ति को कैसे समझते हो? तुम उस व्यक्ति का आकलन उसकी बातचीत, उसके व्‍यवहार, उसके विचारों, और जो चीजें वह अपने बारे में व्यक्त और प्रकट करता है, उनके आधार पर करते हो। इसी तरह से तुम किसी व्यक्ति को जानते हो, समझते हो। इसी प्रकार, अगर तुम लोग परमेश्वर को जानना चाहते हो, अगर तुम उसके व्यावहारिक पक्ष, उसके सच्चे पक्ष को समझना चाहते हो, तो तुम लोगों को उसे उसके कर्मों से और उसके द्वारा की जाने वाली हर व्यावहारिक चीज के माध्यम से जानना चाहिए। यह सबसे अच्छा तरीका है, और यही एकमात्र तरीका है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 186

परमेश्वर मनुष्य को जीवित रहने के लिए एक स्थिर परिवेश देने हेतु सभी चीजों के बीच के संबंधों को संतुलित करता है (चुना हुआ अंश)

जब परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि की, तो उसने उन्हें संतुलित करने के लिए, पहाड़ों और झीलों, पौधों और सभी प्रकार के पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों के निवास की स्थितियाँ संतुलित करने के लिए सभी प्रकार की पद्धतियों और तरीकों का उपयोग किया। उसका लक्ष्य सभी प्रकार के प्राणियों को उन व्यवस्थाओं के अंतर्गत जीने और वंश-वृद्धि करने देना था, जिन्हें उसने स्थापित किया था। सृष्टि की कोई भी चीज इन व्यवस्थाओं के बाहर नहीं जा सकती, और व्यवस्थाएँ तोड़ी नहीं जा सकतीं। केवल इस प्रकार के आधारभूत परिवेश के अंतर्गत ही मनुष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रूप से जीवित रह सकते हैं और वंश-वृद्धि कर सकते हैं। अगर कोई प्राणी परमेश्वर द्वारा स्थापित मात्रा या दायरे से बाहर जाता है, या वह उसके द्वारा निर्दिष्ट वृद्धि-दर, प्रजनन-आवृत्ति या संख्या पार कर जाता है, तो मानवजाति का जीवन-परिवेश विभिन्न मात्राओं में विनाश भुगतेगा। और साथ ही, मानवजाति का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। अगर किसी एक प्रकार का प्राणी संख्या में बहुत अधिक हो जाता है, तो वह लोगों का भोजन छीन लेगा, उनके जल-स्रोत नष्ट कर देगा, और उनके निवास-स्थान बरबाद कर देगा। इस तरह, मनुष्य का प्रजनन या उसके अस्तित्व की स्थिति तुरंत प्रभावित होगी। उदाहरण के लिए, पानी सभी चीजों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अगर चूहे, चींटियाँ, टिड्डियाँ और मेंढक या दूसरी तरह के जानवर बहुत ज्यादा होंगे, तो वे बहुत सारा पानी पी जाएँगे। जब वे ज्यादा मात्रा में जल पिएँगे, तो पेयजल के स्रोतों और जलीय क्षेत्रों के निश्चित दायरे में लोगों के पीने का पानी और जल-स्रोत कम हो जाएँगे और उन्हें जल की कमी अनुभव होगी। अगर सभी प्रकार के जानवरों की संख्या बढ़ जाने के कारण लोगों के पीने का पानी नष्ट, दूषित या खत्म हो जाता है, तो उस प्रकार के कठोर जीवन-परिवेश के अंतर्गत मानवजाति का अस्तित्व गंभीर रूप से खतरे में पड़ जाएगा। अगर केवल एक या फिर अनेक प्रकार के प्राणी अपनी उपयुक्त संख्या से आगे बढ़ जाते हैं, तो मानवजाति के अस्तित्व के स्थान के भीतर की हवा, तापमान, आर्द्रता, यहाँ तक कि हवा की संरचना भी विभिन्न मात्राओं में विषाक्त और नष्ट हो जाएगी। इन परिस्थितियों में मनुष्यों का अस्तित्व और उसकी नियति भी इन पारिस्थितिक कारकों से उत्पन्न खतरों में पड़ जाएगी। इसलिए, अगर ये संतुलन बिगड़ जाते हैं, तो वह हवा जिसमें लोग साँस लेते हैं, खराब हो जाएगी, वह जल जो वे पीते हैं, दूषित हो जाएगा, और वह तापमान जिसकी उन्हें जरूरत है, वह भी विभिन्न मात्राओं में परिवर्तित और प्रभावित होगा। अगर ऐसा होता है, तो वे जीवन-परिवेश, जो स्वभावतः मानवजाति के हैं, बहुत बड़े प्रभावों और चुनौतियों के अधीन हो जाएँगे। मनुष्यों के आधारभूत जीवन-परिवेशों के नष्ट हो जाने के इस प्रकार के परिदृश्य में मानवजाति की नियति और भविष्य की संभावनाएँ क्या होंगी? यह एक बहुत गंभीर समस्या है! चूँकि परमेश्वर जानता है कि किस कारण से सृष्टि की प्रत्येक चीज मानवजाति के लिए अस्तित्व में है, उसके द्वारा सृजित हर प्रकार की चीज की क्या भूमिका है, हर चीज लोगों पर कैसा प्रभाव डालती है, और वह मानवजाति को कितना लाभ पहुँचाती है, चूँकि परमेश्वर के हृदय में इस सबके लिए एक योजना है और वह स्वयं द्वारा सृजित सभी चीजों के हर पहलू का प्रबंधन करता है, इसलिए हर चीज जो वह करता है, मनुष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और जरूरी है। इसलिए अब से जब तुम परमेश्वर द्वारा सृजित चीजों के मध्य कोई पारिस्थितिक घटना घटित होते देखो या परमेश्वर द्वारा सृजित चीजों के मध्य किसी प्राकृतिक नियम को कार्य करते देखो, तो परमेश्वर द्वारा सृजित किसी भी चीज की अनिवार्यता के बारे में कोई संदेह मत करना। अब तुम सभी चीजों के बारे में परमेश्वर की व्यवस्थाओं पर और मानवजाति का पोषण करने के उसके विभिन्न तरीकों पर मनमानी आलोचना करने के लिए अज्ञानता भरे शब्दों का उपयोग नहीं करोगे। न ही तुम परमेश्वर की सृष्टि की सभी चीजों के लिए उसकी व्यवस्थाओं पर मनमाने ढंग से निष्कर्ष नहीं निकालोगे।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 187

परमेश्वर आध्यात्मिक संसार पर कैसे शासन करता और उसे चलाता है

भौतिक संसार के संबंध में, जब भी कुछ बातें या घटनाएँ लोगों की समझ में नहीं आतीं, तो वे प्रासंगिक जानकारी खोज सकते हैं, या उनके मूल और पृष्ठभूमि का पता लगाने के लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन जब दूसरे संसार की बात आती है, जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं—आध्यात्मिक संसार, जिसका अस्तित्व भौतिक संसार के बाहर है—तो लोगों के पास बिलकुल भी ऐसा कोई साधन या माध्यम नहीं है, जिसके द्वारा इसके बारे में कुछ भी जाना जा सके। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ, क्योंकि मनुष्य के संसार में भौतिक संसार की हर चीज मनुष्य के भौतिक अस्तित्व से अविभाज्य है, और चूँकि लोगों को ऐसा महसूस होता है कि भौतिक संसार की हर चीज उनके भौतिक रहन-सहन और भौतिक जीवन से अविभाज्य है, इसलिए अधिकतर लोग केवल उन भौतिक चीजों से ही अवगत हैं, या उन्हें ही देखते हैं, जो उनकी आँखों के सामने होती हैं, जो उन्हें दिखाई पड़ती हैं। लेकिन जब आध्यात्मिक संसार की बात आती है—अर्थात् हर उस चीज की, जो दूसरे संसार की है—तो यह कहना उचित होगा कि अधिकतर लोग विश्वास नहीं करते। चूँकि लोग उसे देख नहीं सकते, और मानते हैं कि उसे समझने की या उसके बारे में कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है, साथ ही आध्यात्मिक संसार भौतिक संसार से पूरी तरह से भिन्न है, और परमेश्वर के दृष्टिकोण से तो वह खुला है—लेकिन मनुष्यों के लिए वह गुप्त और बंद है—इसलिए लोगों को इस ससार के विभिन्न पहलुओं को समझने का मार्ग खोजने में अत्यंत कठिनाई होती है। आध्यात्मिक संसार के विभिन्न पहलू, जिनके बारे में मैं बोलने जा रहा हूँ, केवल परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता से संबंध रखते हैं; मैं कोई रहस्य प्रकट नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं तुम लोगों को उन रहस्यों में से कोई रहस्य बता रहा हूँ, जिन्हें तुम लोग जानना चाहते हो। चूँकि यह परमेश्वर की संप्रभुता, परमेश्वर के प्रशासन और परमेश्वर के भरण-पोषण से संबंधित है, इसलिए मैं केवल उस हिस्से के बारे में बोलूँगा, जिसे जानना तुम लोगों के लिए आवश्यक है।

पहले, मैं तुम लोगों से एक प्रश्न पूछता हूँ : तुम्हारे विचार से आध्यात्मिक संसार क्या है? मोटे तौर पर कहा जाए, तो यह भौतिक संसार से बाहर का संसार है, एक ऐसा संसार, जो लोगों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। फिर भी, तुम्हारी कल्पना में, आध्यात्मिक संसार किस प्रकार का होना चाहिए? इसे न देख पाने के परिणामस्वरूप, शायद तुम लोग इसके बारे में सोच पाने में असमर्थ हो। लेकिन जब तुम लोग कुछ किंवदंतियाँ सुनते हो, तब तुम लोग इसके बारे में सोच रहे होते हो, और इसके बारे में सोचने से स्वयं को रोक नहीं पाते हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बहुत सारे लोग जब छोटे होते हैं, तो उनके साथ एक बात होती है : जब कोई उन्हें कोई डरावनी कहानी—भूतों या आत्माओं की—सुनाता है, तो वे अत्यंत भयभीत हो जाते हैं। आखिर वे भयभीत क्यों हो जाते हैं? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे उन चीजों की कल्पना कर रहे होते हैं; भले ही वे उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन उन्हें महसूस होता है कि वे उनके कमरे में चारों ओर हैं, किसी छिपे या अँधेरे कोने में, और वे इतने डर जाते हैं कि उनकी सोने की हिम्मत नहीं होती। विशेष रूप से रात में, वे अपने कमरे में अकेले रहने या अपने आँगन में अकेले जाने की हिम्मत नहीं करते। यह है तुम्हारी कल्पना का आध्यात्मिक संसार, और लोगों को लगता है कि यह एक भयावह संसार है। तथ्य यह है कि हर कोई कुछ हद तक इसकी कल्पना करता है, और हर कोई इसे थोड़ा अनुभव कर सकता है।

हम आध्यात्मिक संसार के बारे में बात करने से आरंभ करते हैं। वह क्या है? मैं तुम्हें एक छोटा-सा और सरल स्पष्टीकरण देता हूँ : आध्यात्मिक संसार एक महत्वपूर्ण स्थान है, जो भौतिक संसार से भिन्न है। मैं क्यों कहता हूँ कि वह महत्वपूर्ण है? हम उसके बारे में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। आध्यात्मिक संसार का अस्तित्व मनुष्य के भौतिक संसार से अभिन्न रूप से जुड़ा है। सभी चीजों के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व में वह मनुष्य के जीवन और मृत्यु के चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाता है; यह उसकी भूमिका है, और यह उन कारणों में से एक है जिससे उसका अस्तित्व महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह एक ऐसा स्थान है, जो पाँच इंद्रियों के लिए अगोचर है, कोई भी सही-सही अनुमान नहीं लगा सकता कि आध्यात्मिक संसार का अस्तित्व है या नहीं। इसके विभिन्न गत्यात्मक पहलू मनुष्य के अस्तित्व के साथ घनिष्ठता से जुड़े हैं, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन की व्यवस्था भी आध्यात्मिक संसार से बेहद प्रभावित होती है। इसमें परमेश्वर की संप्रभुता शामिल है या नहीं? शामिल है। जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुम लोग समझ जाते हो कि मैं क्यों इस विषय पर चर्चा कर रहा हूँ : ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह परमेश्वर की संप्रभुता से और साथ ही उसके प्रशासन से संबंधित है। इस तरह के संसार में—जो लोगों के लिए अदृश्य है—उसकी हर स्वर्गिक आज्ञा, आदेश और प्रशासनिक प्रणाली भौतिक संसार के किसी भी देश की व्यवस्थाओं और प्रणालियों से बहुत ऊपर है, और उस संसार में रहने वाला कोई भी प्राणी उनकी अवहेलना या उल्लंघन करने का साहस नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता और प्रशासन से संबंधित है? आध्यात्मिक संसार में स्पष्ट प्रशासनिक आदेश, स्पष्ट स्वर्गिक आज्ञाएँ और स्पष्ट विधान हैं। विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में सेवक सख्ती से अपने कर्तव्यों का निर्वाह और नियमों-विनियमों का पालन करते है, क्योंकि वे जानते हैं कि किसी स्वर्गिक आज्ञा के उल्लंघन का क्या परिणाम होता है; वे स्पष्ट रूप से अवगत हैं कि किस प्रकार परमेश्वर दुष्टों को दंड और भले लोगों को इनाम देता है, और किस प्रकार वह सभी चीजों को चलाता है, और उन पर शासन करता है। इसके अतिरिक्त, वे स्पष्ट रूप से देखते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर अपने स्वर्गिक आदेशों और विधानों को कार्यान्वित करता है। क्या वे उस भौतिक संसार से भिन्न हैं, जिसमें मानवजाति रहती है? वे दरअसल बहुत ज्यादा भिन्न हैं। आध्यात्मिक संसार एक ऐसा संसार है, जो भौतिक संसार से पूर्णतया भिन्न है। चूँकि वहाँ स्वर्गिक आदेश और विधान हैं, इसलिए यह परमेश्वर की संप्रभुता, प्रशासन, और इसके अतिरिक्त, उसके स्वभाव और स्वरूप को स्पर्श करता है। इसे सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को यह नहीं लगता कि इस विषय पर बोलना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक है? क्या तुम लोग इसमें निहित रहस्य जानना नहीं चाहते? (हाँ, हम चाहते हैं।) ऐसी है आध्यात्मिक संसार की अवधारणा। हालाँकि यह भौतिक संसार के साथ सह-अस्तित्व में है, और साथ-साथ परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता के अधीन है, लेकिन इस संसार का परमेश्वर का प्रशासन और उसकी संप्रभुता भौतिक संसार की तुलना में बहुत सख्त है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 188

मानवजाति में मैं सभी लोगों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत करता हूँ। पहले हैं अविश्वासी, जो धार्मिक विश्वासों से रहित होते हैं। वे अविश्वासी कहलाते हैं। अविश्वासियों की बहुत बड़ी संख्या केवल धन में विश्वास रखती है; वे केवल अपने हित साधते हैं, भौतिकवादी होते हैं और केवल भौतिक संसार में विश्वास करते है—वे जीवन और मृत्यु के चक्र में, या देवताओं और भूतों के बारे में कही जाने वाली किसी बात में विश्वास नहीं रखते। मैं इन लोगों को अविश्वासियों के रूप में वर्गीकृत करता हूँ, और ये पहले प्रकार के हैं। दूसरा प्रकार अविश्वासियों से अलग विभिन्न आस्था वाले लोगों का है। मानवजाति में मैं इन आस्था वाले लोगों को अनेक मुख्य समूहों में विभाजित करता हूँ : पहले हैं यहूदी, दूसरे कैथोलिक, तीसरे ईसाई, चौथे मुस्लिम और पाँचवें बौद्ध; ये पाँच प्रकार हैं। ये विभिन्न आस्था वाले लोग हैं। तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और इसमें तुम लोग शामिल हो। ऐसे विश्वासी वे लोग हैं, जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। ये लोग दो प्रकारों में विभाजित हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। इन प्रमुख प्रकारों में स्पष्ट रूप से अंतर किया गया है। तो अब तुम लोग अपने मन में मनुष्यों के प्रकारों और श्रेणियों में स्पष्ट रूप से अंतर करने में सक्षम हो, है न? पहला प्रकार अविश्वासियों का है और मैं बता चुका हूँ कि वे कौन होते हैं। क्या वे लोग, जो आकाश के वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं, अविश्वासी होते हैं? कई अविश्वासी केवल आकाश के वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं; वे मानते हैं कि वायु, वर्षा, आकाशीय बिजली इत्यादि आकाश के इस वृद्ध मनुष्य द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं, जिस पर वे फसल बोने और काटने के लिए निर्भर रहते हैं—लेकिन जब परमेश्वर पर विश्वास करने का उल्लेख किया जाता है, तो वे उसमें विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते। क्या इसे परमेश्वर में विश्वास होना कहा जा सकता है? ऐसे लोगों को अविश्वासियों में सम्मिलित किया जाता है। तुम इसे समझते हो, है न? इन श्रेणियों को समझने में गलती मत करना। दूसरे प्रकार में आस्था वाले लोग आते हैं और तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इस समय परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। तो मैंने सभी मनुष्यों को इन प्रकारों में क्यों विभाजित किया है? (क्योंकि विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत और गंतव्य भिन्न-भिन्न हैं।) यह इसका एक पहलू है। जब इन विभिन्न प्रजातियों और प्रकारों के लोग आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, तो उनमें से प्रत्येक के जाने का भिन्न स्थान होता है और वे जीवन और मृत्यु के चक्र की भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं के अधीन किए जाते हैं, और यही कारण है कि मैंने मनुष्यों को इन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया है।

अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुने हुए अंश)

हम अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र से आरंभ करते हैं। मृत्यु के बाद व्यक्ति को आध्यात्मिक संसार के एक परिचारक द्वारा ले जाया जाता है। व्यक्ति का ठीक-ठीक क्या ले जाया जाता है? उसकी देह नहीं, बल्कि उसकी आत्मा। जब उसकी आत्मा ले जाई जाती है, तब वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचता है, जो आध्यात्मिक संसार की एक एजेंसी होती है, जो अभी-अभी मरे लोगों की आत्मा को विशेष रूप से प्राप्त करती है। यह पहला स्थान है, जहाँ मरने के बाद व्यक्ति जाता है, जो आत्मा के लिए अजनबी होता है। जब उन्हें इस स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक अधिकारी पहली जाँचें करता है, उनके नाम, पते, आयु और समस्त अनुभवों की पुष्टि करता है। जीवित रहते हुए उनके द्वारा की गई हर चीज एक पुस्तक में लिखी जाती है और उसकी सटीकता का सत्यापन किया जाता है। इस सब की जाँच हो जाने के बाद उन मनुष्यों के पूरे जीवन के व्यवहार और कार्यकलापों का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि उन्हें दंड दिया जाएगा या मनुष्य के रूप में उनका पुनर्जन्म जारी रहेगा, जो कि पहला चरण है। क्या यह पहला चरण भयावह होता है? यह अत्यधिक भयावह नहीं होता, क्योंकि इसमें केवल इतना ही होता है कि मनुष्य एक अंधकारमय और अपरिचित स्थान पर पहुँचता है।

दूसरे चरण में, अगर इस मनुष्य ने जीवनभर बहुत सारे बुरे कार्य किए होते हैं और अनेक कुकर्म किए होते हैं, तो उससे निपटने के लिए उसे दंड के स्थान पर ले जाया जाता है। यह वह स्थान होता है, जो स्पष्ट रूप से लोगों को दंड देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन्हें किस प्रकार दंड दिया जाता है, इसका सटीक विवरण उनके द्वारा किए गए पापों पर, और इस बात पर निर्भर करता है कि मृत्यु से पूर्व उन्होंने कितने बुरे कार्य किए—यह इस द्वितीय चरण में होने वाली पहली स्थिति है। मृत्यु से पूर्व उनके द्वारा किए गए बुरे कार्यों और उनकी दुष्टताओं की वजह से, दंड पाने के बाद जब वे पुनः जन्म लेते हैं—जब वे एक बार फिर भौतिक संसार में जन्म लेते हैं—तो कुछ लोग मनुष्य ही बनते हैं, जबकि कुछ पशु बनते हैं। अर्थात्, व्यक्ति के आध्यात्मिक संसार में लौटने के बाद उनके द्वारा की गई बुराई की वजह से उन्हें दंडित किया जाता है; इसके अतिरिक्त, उनके द्वारा किए गए बुरे कार्यों की वजह से, अपने अगले जन्म में वे संभवतः मनुष्य नहीं, बल्कि पशु बनकर लौटेंगे। जो पशु वे बन सकते हैं, उनमें गाय, घोड़े, सूअर और कुत्ते शामिल हैं। कुछ लोग चिड़िया, बतख या कलहंस के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं...। पशुओं के रूप में पुनर्जन्म लेने के बाद जब वे फिर से मरेंगे, तो आध्यात्मिक संसार में लौट जाएँगे। वहाँ, पहले की तरह, उनकी मृत्यु से पहले के उनके व्यवहार के आधार पर आध्यात्मिक संसार तय करेगा कि वे मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेंगे या नहीं। अधिकतर लोग बहुत अधिक बुराई करते हैं, और उनके पाप बहुत गंभीर होते हैं, इसलिए उन्हें सात से बारह बार तक पशुओं के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। सात से बारह बार—क्या यह डरावना नहीं है? (यह डरावना है।) तुम लोगों को क्या चीज डराती है? किसी मनुष्य का पशु बनना—यह भयावह है। और मनुष्य के लिए पशु बनने में सबसे पीड़ादायक चीजें क्या हैं? कोई भाषा न होना, केवल साधारण विचार होना, केवल वही चीजें कर पाना जो पशु करते हैं और वही खाना खा पाना जो पशु खाते हैं, पशु जैसी साधारण मानसिकता और हाव-भाव होना, सीधे खड़े होकर न चल पाना, मनुष्यों के साथ संवाद न कर पाना, और यह तथ्य कि मनुष्यों के किसी भी व्यवहार और गतिविधियों का पशुओं से कोई संबंध नहीं होता। अर्थात्, सब चीजों के बीच, पशु होना सभी जीवित प्राणियों में तुम्हें निम्नतम बना देता है, जो मनुष्य होने से कहीं अधिक दुःखदायी है। यह उन लोगों के लिए आध्यात्मिक संसार के दंड का एक पहलू है, जिन्होंने बहुत बुराई और बड़े पाप किए होते हैं। जब उनके दंड की गंभीरता की बात आती है, तो इसका निर्णय इस आधार पर लिया जाता है कि वे किस प्रकार के पशु बनते हैं। उदाहरण के लिए, क्या सूअर बनना कुत्ता बनने से बेहतर है? सूअर कुत्ते से बेहतर जीवन जीता है या बदतर? बदतर, है न? अगर लोग गाय या घोड़ा बनते हैं, तो वे सूअर से बेहतर जीवन जिएँगे या बदतर? (बेहतर।) क्या बिल्ली के रूप में पुनर्जन्म लेने वाला व्यक्ति ज्यादा सुखी रहेगा? वह बिलकुल वैसा ही पशु होगा, और बिल्ली होना गाय या घोड़ा होने से अधिक आसान होगा, क्योंकि बिल्लियाँ अपना अधिकांश समय नींद की सुस्ती में गुजारती हैं। गाय या घोड़ा बनना अधिक मेहनत वाला काम है। इसलिए अगर व्यक्ति गाय या घोड़े के रूप में पुनर्जन्म लेता है, तो उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है, जो एक कठोर दंड के समान है। कुत्ता बनना गाय या घोड़ा बनने से थोड़ा बेहतर होगा, क्योंकि कुत्ते का अपने स्वामी के साथ निकट संबंध होता है। कई वर्षों तक पालतू रहने के बाद कुछ कुत्ते अपने मालिक की कही हुई बहुत सारी बातें समझने में समर्थ हो जाते हैं। कभी-कभी कुत्ता अपने मालिक की मनःस्थिति और अपेक्षाओं के अनुसार ढल सकता है और मालिक कुत्ते के साथ बेहतर व्यवहार करता है, और कुत्ता बेहतर खाता और पीता है, और जब उसे दर्द होता है तो उसकी अधिक देखभाल की जाती है। तो क्या कुत्ता अधिक सुखी जीवन व्यतीत नहीं करता? इस प्रकार, गाय या घोड़ा होने की तुलना में कुत्ता होना बेहतर है। इसमें, व्यक्ति के दंड की गंभीरता यह निर्धारित करती है कि वह कितनी बार, और साथ ही किस प्रकार के पशु के रूप में जन्म लेता है।

जीवित रहते हुए बहुत सारे पाप करने के कारण कुछ लोगों को सात से बारह बार पशु के रूप में पुनर्जन्म लेने का दंड दिया जाता है। पर्याप्त बार दंडित होने के बाद, आध्यात्मिक संसार में लौटने पर उन्हें कहीं और ले जाया जाता है—एक ऐसे स्थान पर, जहाँ विभिन्न आत्माएँ पहले ही दंड पा चुकी होती हैं, और उस प्रकार की होती हैं जो मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिए तैयार हो रही होती हैं। इस स्थान पर प्रत्येक आत्मा को इस प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है कि वे किस प्रकार के परिवार में जन्म लेंगे, पुनर्जन्म होने के बाद उनकी क्या भूमिका होगी, आदि। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब इस संसार में आएँगे तो गायक बनेंगे, इसलिए उन्हें गायकों के बीच रखा जाता है; कुछ लोग इस संसार में आएँगे तो व्यापारी बनेंगे और इसलिए उन्हें व्यापारी लोगों के बीच रखा जाता है; और अगर किसी को मनुष्य बनने के बाद वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता बनना है तो उसे अनुसंधानकर्ताओं के बीच रखा जाता है। वर्गीकृत कर दिए जाने के बाद उनमें से प्रत्येक को एक भिन्न समय और नियत तिथि के अनुसार भेजा जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कि आजकल लोग ई-मेल भेजते हैं। इसमें जीवन और मृत्यु का एक चक्र पूरा हो जाता है। जिस दिन कोई व्यक्ति आध्यात्मिक संसार में पहुँचता है, उस दिन से लेकर जब तक उसका दंड समाप्त नहीं हो जाता या जब तक उसका किसी पशु के रूप में अनेक बार पुनर्जन्म नहीं हो जाता और जब वह मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने की तैयारी करता है, तब यह प्रक्रिया पूर्ण होती है।

जहाँ तक उनकी बात है, जिन्होंने दंड भोग लिया है और जो अब पशु के रूप में जन्म नहीं लेंगे, क्या उन्हें मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए भौतिक संसार में तुरंत भेजा जाता है? या, उन्हें मनुष्यों के बीच आने से पहले कितना समय लगता है? यह किस आवृत्ति के साथ हो सकता है? इसके कुछ सामयिक प्रतिबंध हैं। आध्यात्मिक संसार में होने वाली हर चीज कुछ सटीक सामयिक प्रतिबंधों और नियमों के अधीन है—जिसे अगर मैं संख्याओं के साथ समझाऊँ, तो तुम लोग समझ जाओगे। जो लोग थोड़े समय के भीतर पुनर्जन्म लेते हैं, जब वे मरते हैं तो मनुष्य के रूप में उनके पुनर्जन्म की तैयारियाँ पहले ही की जा चुकी होती हैं। अल्पतम समय, जिसमें यह हो सकता है, तीन दिन है। कुछ लोगों के लिए इसमें तीन माह लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीस वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन सौ वर्ष लगते हैं, इत्यादि। तो इन सामयिक नियमों के बारे में क्या कहा जा सकता है, और उनका सटीक विवरण क्या है? वह इस बात पर, कि भौतिक संसार—मनुष्यों का संसार—किसी आत्मा से क्या चाहता है, और उस भूमिका पर आधारित होता है, जिसे उस आत्मा को इस संसार में निभाना है। जब लोग साधारण व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं, तो उनमें से अधिकतर का पुनर्जन्म बहुत जल्दी हो जाता है, क्योंकि मनुष्यों के संसार को ऐसे साधारण लोगों की अत्यधिक आवश्यकता होती है—और इसलिए तीन दिन के बाद वे एक ऐसे परिवार में भेज दिए जाते हैं, जो उनके मरने से पहले के परिवार से सर्वथा भिन्न होता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इस संसार में विशेष भूमिका निभाते हैं। “विशेष” का अर्थ है कि मनुष्यों के संसार में उनकी कोई बड़ी माँग नहीं होती; ऐसी भूमिका निभाने के लिए ज्यादा लोगों की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए इसमें तीन सौ वर्ष लग सकते हैं। दूसरे शब्दों में, यह आत्मा हर तीन सौ वर्ष में या तीन हजार वर्ष तक में एक केवल बार आएगी। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इस तथ्य के कारण होता है कि या तो तीन सौ वर्ष तक या तीन हजार वर्ष तक संसार में ऐसी भूमिका की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उन्हें आध्यात्मिक संसार ही में कहीं पर रखा जाता है। उदाहरण के लिए, कनफ्यूशियस को लो, परंपरागत चीनी संस्कृति पर उसका गहरा प्रभाव था और उसके आगमन ने उस समय की संस्कृति, ज्ञान, परंपरा और लोगों की विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला था। लेकिन इस तरह के मनुष्य की हर एक युग में आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उसे पुनर्जन्म लेने से पहले, तीन सौ या तीन हजार वर्ष तक प्रतीक्षा करते हुए आध्यात्मिक संसार में ही रहना पड़ा था। चूँकि मनुष्यों के संसार को ऐसे किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे व्यर्थ ही प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि उसके जैसी बहुत कम भूमिकाएँ थीं, और उसके करने के लिए बहुत कम काम था। इसलिए उसे अधिकांश समय आध्यात्मिक संसार में ही कहीं पर निष्क्रिय रखना पड़ा था, ताकि मनुष्यों के संसार में आवश्यकता पड़ने पर उसे भेजा जा सके। जिस बारंबारता के साथ अधिकतर लोग पुनर्जन्म लेते हैं, उसके लिए आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे सामयिक नियम हैं। लोग चाहे साधारण हों या विशेष हों, उनके पुनर्जन्म लेने की प्रक्रिया के लिए आध्यात्मिक संसार में उचित नियम और सही अभ्यास हैं, और ये नियम और अभ्यास परमेश्वर द्वारा भेजे जाते हैं, वे आध्यात्मिक संसार के किसी परिचारक या प्राणी द्वारा निर्धारित या नियंत्रित नहीं किए जाते।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 189

अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुने हुए अंश)

किसी आत्मा के लिए उसका पुनर्जन्म, इस जीवन में उसकी भूमिका क्या है, किस परिवार में वह जन्म लेती है और उसका जीवन किस प्रकार का होता है, ये उस आत्मा के पिछले जीवन से गहराई से संबंधित होते हैं। मनुष्य के संसार में हर प्रकार के लोग आते हैं, और जो भूमिकाएँ वे निभाते हैं, वे अलग-अलग होती हैं, उसी तरह उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य भी अलग-अलग होते हैं। और वे कौन-से कार्य होते हैं? कुछ लोग कर्ज चुकाने आए होते हैं : अगर उन्होंने पिछली जिंदगी में दूसरों से बहुत ज्यादा पैसा उधार लिया था, तो वे इस जिंदगी में वही कर्ज चुकाने के लिए आते हैं। इस बीच कुछ लोग अपने कर्ज उगाहने के लिए आते हैं : पिछले जन्मों में उनके साथ बहुत-सी चीजों में और अत्यधिक पैसों का घोटाला किया गया होता है, जिसके परिणामस्वरूप, उनके आध्यात्मिक संसार में आने के बाद वह उन्हें न्याय देता है और उन्हें इस जीवन में अपने कर्ज उगाहने देता है। कुछ लोग एहसान का कर्ज चुकाने के लिए आते हैं : उनके पिछले जीवन-काल में—यानी उनके पिछले जन्म में—कोई उनके प्रति दयावान था, और इस जीवन में उन्हें पुनर्जन्म लेने का एक बड़ा अवसर प्रदान किए जाने के कारण वे उस एहसान का बदला चुकाने के लिए पुनर्जन्म लेते हैं। इस बीच, दूसरे इस जीवन में किसी की जान लेने के लिए पैदा हुए होते हैं। और वे किसकी जान लेते हैं? उनकी जान, जिन्होंने पिछले जन्मों में उनकी जान ली थी। संक्षेप में, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन अपने पिछले जन्मों के साथ मजबूत संबंध रखता है, यह संबंध अटूट होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन उसके पिछले जीवन से बहुत अधिक प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, मान लो, मरने से पहले झांग ने ली को एक बड़ी रकम का धोखा दिया था। तो क्या झांग ली का कर्जदार है? हाँ है, तो क्या यह स्वाभाविक है कि ली को झांग से अपना कर्ज वसूल करना चाहिए? नतीजतन, उनकी मृत्यु के उपरांत, उनके बीच एक कर्ज है जिसका निपटान होना ही चाहिए। जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और झांग मनुष्य बनता है, तो ली किस तरह उससे अपना कर्ज वसूल करता है? एक तरीका है झांग के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लेना; झांग खूब धन अर्जित करता है, जिसे ली द्वारा उड़ा दिया जाता है। चाहे झांग कितना भी धन कमाए, उसका पुत्र ली उसे उड़ा देता है। चाहे झांग कितना भी धन अर्जित करे, वह कभी पर्याप्त नहीं होता; और इस बीच उसका पुत्र किसी न किसी कारण से पिता के धन को विभिन्न तरीकों से उड़ा देता है। झांग हैरान रह जाता है और सोचता है, “मेरा यह पुत्र हमेशा दुर्भाग्य ही क्यों लाता है? दूसरों के पुत्र इतने सदाचारी क्यों हैं? मेरे ही पुत्र की कोई महत्वकांक्षा क्यों नहीं है, वह इतना निकम्मा और धन कमाने में असमर्थ क्यों है, और मुझे हमेशा उसकी सहायता क्यों करनी पड़ती है? चूँकि मुझे उसे सहारा देना है, तो मैं सहारा दूँगा—लेकिन ऐसा क्यों है कि चाहे मैं कितना भी धन उसे दे दूँ, उसे हमेशा और अधिक चाहिए? क्यों वह मेहनत का काम करने में असमर्थ है, और उसके बजाय आवारागर्दी, खाना-पीना, वेश्यावृत्ति और जुएबाजी जैसी चीजें करने में ही लगा रहता है? आखिर यह हो क्या रहा है?” फिर झांग कुछ देर के लिए विचार करता है : “हो सकता है, पिछले जन्म में मैं उसका ऋणी रहा हूँ। तो ठीक है, मैं वह कर्ज उतार दूँगा! यह मामला तब तक समाप्त नहीं होगा, जब तक मैं कर्ज पूरा नहीं चुका दूँगा!” वह दिन आ सकता है, जब ली अपना कर्ज वसूल कर ले, और जब वह चालीस या पचास के दशक में चल रहा हो, तो हो सकता है कि एक दिन अचानक उसे चेतना आए और वह महसूस करे कि, “अपने जीवन के पूरे पूर्वार्द्ध में मैंने एक भी भला काम नहीं किया है! मैंने अपने पिता का कमाया हुआ सारा धन उड़ा दिया है, इसलिए मुझे एक अच्छा इंसान बनने की शुरुआत करनी चाहिए! मैं स्वयं को मजबूत बनाऊँगा; मैं एक ऐसा व्यक्ति बनूँगा जो ईमानदार हो और उचित रूप से जीवन जीता हो, और मैं अपने पिता को फिर कभी दुःख नहीं पहुँचाऊँगा!” वह ऐसा क्यों सोचता है? वह अचानक बदलकर अच्छा कैसे गया? क्या इसका कोई कारण है? क्या कारण है? (ऐसा इसलिए है, क्योंकि ली ने अपना कर्ज वसूल कर लिया है, झांग ने अपना कर्ज चुका दिया है।) इसमें कार्य-कारण संबंध है। कहानी बहुत समय पहले आरंभ हुई थी, उनके मौजूदा जीवन से पहले, उनके पिछले जन्म की यह कहानी वर्तमान तक लाई गई है, और दोनों में से कोई दूसरे को दोष नहीं दे सकता। चाहे झांग ने अपने पुत्र को कुछ भी सिखाया हो, उसके पुत्र ने कभी नहीं सुना, और कभी मेहनत का काम नहीं किया। लेकिन जिस दिन कर्ज चुका दिया गया, उसे अपने पुत्र को सिखाने की कोई आवश्यकता नहीं रही—वह स्वाभाविक रूप से समझ गया। यह एक साधारण-सा उदाहरण है। क्या ऐसे अनेक उदाहरण हैं? (हाँ, हैं।) यह लोगों को क्या बताता है? (कि उन्हें अच्छा बनना चाहिए और बुराई नहीं करनी चाहिए।) कि उन्हें कोई बुराई नहीं करनी चाहिए, और उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलेगा! अधिकतर अविश्वासी बहुत बुराई करते हैं, और उन्हें उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलता है, है न? लेकिन क्या यह प्रतिफल मनमाना होता है? हर कार्य की एक पृष्ठभूमि और उसके प्रतिफल का एक कारण होता है। क्या तुम्हें लगता है कि किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने के बाद तुम्हें कुछ नहीं होगा? क्या तुम्हें लगता है कि उस पैसे की ठगी करने के बाद तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा? यह असंभव है; निश्चित रूप से इसके परिणाम होंगे! सभी व्यक्तियों को, चाहे वे जो भी हों, या वे यह विश्वास करते हों या नहीं कि परमेश्वर है, अपने व्यवहार का उत्तरदायित्व लेना होगा और अपने कार्यों के परिणाम भुगतने होंगे। इस साधारण-से उदाहरण के संबंध में—झांग को दंडित किया जाना और ली का कर्ज चुकाया जाना—क्या यह उचित नहीं है? जब लोग ऐसे कार्य करते हैं, तो इसी प्रकार का परिणाम होता है। यह आध्यात्मिक संसार के प्रशासन से अविभाज्य है। अविश्वासी होने के बावजूद, परमेश्वर में विश्वास न करने वालों का अस्तित्व इसी तरह की स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के अधीन होता है। कोई इनसे बच नहीं सकता, और कोई इस हकीकत को टाल नहीं सकता।

जिन लोगों में आस्था नहीं है, वे प्रायः मानते हैं कि मनुष्य को दिखने वाली हर चीज का अस्तित्व है, जबकि देखी न जा सकने वाली या लोगों से बहुत दूर स्थित चीज का अस्तित्व नहीं है। वे यह मानना पंसद करते हैं कि “जीवन और मृत्यु का चक्र” नहीं होता, और कोई “दंड” नहीं होता; इसलिए वे बिना किसी मलाल के पाप और बुराई करते हैं। बाद में उन्हें दंडित किया जाता है, या उनका पुनर्जन्म पशुओं के रूप में होता है। अविश्वासियों के बीच विभिन्न प्रकार के अधिकतर लोग इस दुष्चक्र में फँसते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आध्यात्मिक संसार समस्त जीवित प्राणियों के अपने प्रशासन में सख्त है। चाहे तुम विश्वास करो या नहीं, यह तथ्य मौजूद है, क्योंकि एक भी व्यक्ति या वस्तु उस दायरे से नहीं बच सकती, जिसे परमेश्वर अपनी आँखों से देखता है, और एक भी व्यक्ति या वस्तु उसकी स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के नियमों और सीमाओं से नहीं बच सकती। इस प्रकार, यह साधारण-सा उदाहरण हर एक को बताता है कि चाहे तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो या नहीं, पाप और बुराई करना अस्वीकार्य है, और सभी कार्यों के परिणाम होते हैं। जब किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने वाला कोई दंडित किया जाता है, तो ऐसा दंड उचित है। इस तरह के आम तौर पर देखे जाने वाले व्यवहार को आध्यात्मिक संसार में दंडित किया जाता है और वह दंड परमेश्वर के आदेशों और स्वर्गिक आज्ञाओं द्वारा दिया जाता है। इसलिए गंभीर आपराधिक और दुष्टतापूर्ण व्यवहार—बलात्कार और लूटपाट, धोखाधड़ी और कपट, चोरी और डकैती, हत्या और आगजनी इत्यादि—और भी अधिक भिन्न-भिन्न गंभीरता वाले दंड की शृंखला के भागी होते हैं। इन भिन्न-भिन्न गंभीरता वाले दंडों की शृंखला में क्या शामिल है? उनमें से कुछ समय के उपयोग द्वारा गंभीरता के स्तर का निर्धारण करते हैं, जबकि कुछ विभिन्न तरीकों का उपयोग करके ऐसा करते हैं; और अन्य यह निर्धाररित करके करते हैं कि लोग पुनर्जन्म होने पर कहाँ जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बदजबान होते हैं। “बदजबान” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है प्रायः दूसरों को गाली देना और दूसरों को कोसने वाली द्वेषपूर्ण भाषा का उपयोग करना। द्वेषपूर्ण भाषा क्या दर्शाती है? वह दर्शाती है कि व्यक्ति का हृदय कलुषित है। ऐसे लोगों के मुख से अकसर दूसरों को कोसने वाली अभद्र भाषा निकलती है, और ऐसी द्वेषपूर्ण भाषा गंभीर परिणाम लाती है। मरने और उचित दंड भोगने के बाद ऐसे लोगों का पुनर्जन्म गूँगों के रूप में हो सकता है। कुछ लोग जीवित रहते हुए बड़े धूर्त होते हैं, वे प्रायः दूसरों का लाभ उठाते हैं, उनके छोटे-छोटे षड्यंत्र विशेष रूप से सुनियोजित होते हैं, और वे लोगों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। उनका पुनर्जन्म मूर्ख या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के रूप में हो सकता है। कुछ लोग अकसर दूसरों के निजी जीवन में ताक-झाँक किया करते हैं; उनकी आँखें बहुत-कुछ वह देखती हैं जिससे उन्हें अवगत नहीं होना चाहिए, और वे बहुत-कुछ ऐसा जान लेते हैं जो उन्हें नहीं जानना चाहिए। नतीजतन, उनका पुनर्जन्म अंधे के रूप में हो सकता है। कुछ लोग जब जीवित होते हैं तो बहुत चालाक होते हैं, वे प्रायः झगड़ते हैं और बहुत दुष्टता करते हैं। इसलिए उनका पुनर्जन्म विकलांग, लँगड़े या लूले के रूप में हो सकता है; या वे कुबड़े या अकड़ी हुई गर्दन वाले, लँगड़ाकर चलने वाले के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं या उनका एक पैर दूसरे से छोटा हो सकता है, इत्यादि। इसमें उन्हें अपने जीवित रहने के दौरान की गई दुष्टता के स्तर के आधार पर विभिन्न दंडों का भागी बनाया जाता है। तुम लोगों को क्या लगता है, कुछ लोग कमजोर नजर वाले क्यों होते हैं? क्या ऐसे काफी लोग हैं? आजकल ऐसे बहुत लोग हैं। कुछ लोग कमजोर नजर वाले इसलिए होते हैं, क्योंकि अपने पिछले जन्मों में उन्होंने अपनी आँखों का बहुत अधिक उपयोग करते हुए बहुत सारे बुरे कार्य किए होते हैं, इसलिए वे इस जन्म में कमजोर नजर वाले पैदा होते हैं और गंभीर मामलों में वे अंधे भी जन्मते हैं। यह प्रतिफल है! कुछ लोग मरने से पहले दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं; वे अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, सहकर्मियों या अपने से जुड़े लोगों के लिए कई अच्छे कार्य करते हैं। वे दूसरों को दान देते हैं और उनकी देखभाल करते हैं, या आर्थिक रूप से उनकी सहायता करते हैं, लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं। जब ऐसे लोग आध्यात्मिक संसार में लौटते है, तो उन्हें दंडित नहीं किया जाता। किसी अविश्वासी को किसी भी प्रकार से दंडित न किए जाने का अर्थ है कि वह बहुत अच्छा इंसान था। परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने के बजाय वे केवल आकाश के वृद्ध व्यक्ति पर विश्वास करते हैं। ऐसा व्यक्ति केवल इतना ही विश्वास करता है कि उससे ऊपर कोई आत्मा है, जो उनके हर कार्य को देखती है—यह व्यक्ति बस इसी में विश्वास करता है। परिणामस्वरूप यह व्यक्ति कहीं अधिक सदाचारी होता है। ये लोग दयालु और परोपकारी होते हैं और जब अंततः वे आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, तो वह उनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार करेगा और उनका पुनर्जन्म शीघ्र ही हो जाएगा। जब उनका पुनर्जन्म होगा, तो वे किस प्रकार के परिवारों में आएँगे? हालाँकि वे परिवार धनी नहीं होंगे, लेकिन वे हर नुकसान से मुक्त होंगे, उनके सदस्यों के बीच सामंजस्य होगा; पुनः जन्मे ये लोग सुरक्षित, खुशहाल दिन बिताएँगे, और हर कोई आनंदित होगा और अच्छा जीवन जिएगा। जब ये लोग व्यस्क होंगे, तो उनके बड़े, भरे-पूरे परिवार होंगे, उनके बच्चे प्रतिभाशाली होंगे और सफलता का आनंद लेंगे, और उनके परिवार सौभाग्य का आनंद उठाएँगे—और ऐसा परिणाम इन लोगों के पिछले जन्मों से अत्यधिक जुड़ा होता है। अर्थात्, मरने और पुनः जन्म लेने के बाद लोग कहाँ जाते हैं, वे पुरुष होते हैं या स्त्री, उनका मिशन क्या होता है, जीवन में वे क्या करेंगे, कौन-से झटके सहेंगे, किन आशीषों का आनंद लेंगे, किनसे मिलेंगे और उनके साथ क्या होगा—कोई इन चीजों की भविष्यवाणी नहीं कर सकता, इनसे बच नहीं सकता या इनसे छिप नहीं सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारा जीवन निर्धारित कर दिए जाने के बाद तुम्हारे साथ जो भी होता है—तुम उससे बचने का कैसे भी प्रयास करो, और किसी भी तरह से करो—आध्यात्मिक संसार में परमेश्वर तुम्हारे लिए जो जीवन-क्रम निर्धारित कर देता है, उसके उल्लंघन का तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं होता। क्योंकि जब तुम्हारा पुनर्जन्म होता है, तो तुम्हारे जीवन की नियति पहले ही निर्धारित की जा चुकी होती है। चाहे वह अच्छी हो या बुरी, सभी को उसका सामना करना चाहिए, और आगे बढ़ते रहना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिससे इस संसार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता, और कोई भी मुद्दा इससे अधिक वास्तविक नहीं है। मैं जो कुछ भी कहता रहा हूँ, तुम सब वह समझ गए हो, है न?

इन चीजों को समझने के बाद, क्या अब तुम लोगों ने देखा कि परमेश्वर के पास अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के लिए बहुत सख्त और कठोर जाँच-व्यवस्था और प्रशासन है? पहली बात, उसने आध्यात्मिक क्षेत्र में विभिन्न स्वर्गिक आज्ञाएँ, आदेश और प्रणालियाँ स्थापित की हुई हैं, और एक बार इनकी घोषणा हो जाने के बाद, आध्यात्मिक संसार के विभिन्न आधिकारिक पदों के प्राणियों द्वारा उन्हें परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए अनुसार बहुत कड़ाई से कार्यान्वित किया जाता है, और कोई उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं करता। इसलिए, मनुष्य के संसार में मनुष्य के जीवन और मृत्यु के चक्र में, चाहे कोई पशु के रूप में पुनर्जन्म ले या इंसान के रूप में, दोनों के लिए नियम हैं। चूँकि ये नियम परमेश्वर से आते हैं, इसलिए कोई उन्हें तोड़ने का साहस नहीं करता, न ही कोई उन्हें तोडने में समर्थ है। यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता और ऐसे नियम होने के कारण ही है कि यह भौतिक संसार, जिसे लोग देखते हैं, नियमित और व्यवस्थित है; यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता के कारण ही है कि मनुष्य उस दूसरे संसार के साथ शांति से रहने में समर्थ हैं, जो उनके लिए पूर्ण रूप से अदृश्य है, और वे इसके साथ समरसता से रहने में सक्षम हैं—जो पूर्ण रूप से परमेश्वर की संप्रभुता से अभिन्न है। व्यक्ति के दैहिक जीवन की मृत्यु के बाद भी आत्मा में जीवन रहता है, और इसलिए अगर वह परमेश्वर के प्रशासन के अधीन न होती तो क्या होता? आत्मा हर जगह भटकती रहती, हर जगह घुसपैठ करती, यहाँ तक कि मनुष्य के संसार में जीवित प्राणियों को भी हानि पहुँचाती। यह हानि केवल मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि पौधों और पशुओं को भी पहुँचाई जा सकती थी—लेकिन पहले हानि लोगों को पहुँचती। अगर ऐसा होता—अगर वह आत्मा प्रशासन-रहित होती, वाकई लोगों को हानि पहुँचाती, और वाकई दुष्टतापूर्ण कार्य करती—तो उस आत्मा से भी आध्यात्मिक संसार में ठीक से निपटा जाता : अगर चीजें गंभीर होतीं, तो शीघ्र ही आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता और उसे नष्ट कर दिया जाता। अगर संभव होता, तो उसे कहीं रख दिया जाता और फिर उसका पुनर्जन्म होता। कहने का आशय है कि आध्यात्मिक संसार में विभिन्न आत्माओं का प्रशासन व्यवस्थित होता है, और उसे चरणों और नियमों के अनुसार किया जाता है। यह केवल ऐसे प्रशासन के कारण ही है कि मनुष्य के भौतिक संसार में अराजकता नहीं आई है, कि भौतिक संसार के लोगों में एक सामान्य मानसिकता, सामान्य तर्कशक्ति और एक व्यवस्थित दैहिक जीवन है। मनुष्यों में ऐसा सामान्य जीवन होने के बाद ही देह में रहने वाले जीव पीढ़ियों तक पनपते और प्रजनन करते रह सकते हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 190

अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुने हुए अंश)

जब अविश्वासियों की बात आती है, तो क्या परमेश्वर की कार्रवाइयों के पीछे अच्छों को पुरस्कृत करने और दुष्टों को दंड देने का सिद्धांत है? क्या इसमें कोई अपवाद है? (नहीं।) क्या तुम लोग देखते हो कि परमेश्वर की कार्रवाइयों के पीछे एक सिद्धांत है? अविश्वासी वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, न ही वे उसके आयोजनों के प्रति समर्पित होते हैं। इसके अलावा, वे उसकी संप्रभुता से भी अनभिज्ञ हैं, उसे स्वीकार तो वे बिलकुल नहीं करते। अधिक गंभीर बात यह है कि वे परमेश्वर की निंदा करते हैं, उसे कोसते हैं, और उन लोगों के प्रति शत्रुता रखते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके ऐसे रवैये के बावजूद परमेश्वर उनका प्रशासन करने के अपने सिद्धांतों से विचलित नहीं होता; वह अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार व्यवस्थित रूप से उन्हें प्रशासित करता है। उनकी शत्रुता को वह किस प्रकार लेता है? अज्ञानता के रूप में! नतीजतन, उसने इन लोगों का—अर्थात् अविश्वासियों की व्यापक संख्या का—अतीत में एक बार पशुओं के रूप में पुनर्जन्म करवाया है। तो परमेश्वर की नजरों में अविश्वासी सटीक रूप से क्या हैं? वे सब जंगली जानवर हैं। परमेश्वर जंगली जानवरों और साथ ही मनुष्यों को भी प्रशासित करता है, और इस प्रकार के लोगों के लिए उसके वही सिद्धांत हैं। यहाँ तक कि इन लोगों के उसके प्रशासन में भी उसके स्वभाव को देखा जा सकता है, जैसे कि सभी चीजों पर उसके प्रभुत्व के पीछे उसकी व्यवस्थाओं को देखा जा सकता है। और इसलिए, क्या तुम उन सिद्धांतों में परमेश्वर की संप्रभुता देखते हो, जिनसे वह उन अविश्वासियों को प्रशासित करता है, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया है? क्या तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हो? (हम देखते हैं।) दूसरे शब्दों में, चाहे वह सभी चीजों में से किसी भी चीज से निपटे, परमेश्वर अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। यह परमेश्वर का सार है; वह स्वयं द्वारा स्थापित आदेशों या स्वर्गिक आज्ञाओं को यूँ ही सिर्फ इसलिए कभी नहीं तोड़ेगा कि वह ऐसे लोगों को जंगली जानवर मानता है। परमेश्वर सिद्धांत से कार्य करता है, लापरवाही से बिलकुल नहीं, और उसकी कार्रवाइयाँ किसी भी कारक से पूरी तरह अप्रभावित रहती हैं। वह जो कुछ भी करता है, उसमें उसके सिद्धांतों का पालन होता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर में स्वयं परमेश्वर का सार है; यह उसके सार का एक पहलू है, जो किसी सृजित प्राणी में नहीं है। परमेश्वर स्वयं द्वारा सृजित सभी चीजों में से हर चीज, व्यक्ति और सभी जीवित चीजों की सार-सँभाल में, उनके प्रति अपने दृष्टिकोण, प्रबंधन, प्रशासन और शासन में न्यायपरायण और उत्तरदायी है, और इसमें वह कभी भी लापरवाह नहीं रहा। जो अच्छे हैं, वह उनके प्रति कृपापूर्ण और दयावान है; जो दुष्ट हैं, उन्हें वह निर्दयता से दंड देता है; और विभिन्न जीवित प्राणियों के लिए वह समयबद्ध और नियमित तरीके से, विभिन्न समयों पर मानव-संसार की विभिन्न आवश्यकताओं के अनुसार उचित व्यवस्थाएँ करता है, इस तरह से कि इन विभिन्न जीवित प्राणियों का उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं के अनुसार व्यवस्थित रूप से पुनर्जन्म होता रहे, और वे एक व्यवस्थित तरीके से भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार के बीच आते-जाते रहें।

किसी जीवित प्राणी की मृत्यु—दैहिक जीवन का अंत—यह दर्शाता है कि वह जीवित प्राणी भौतिक संसार से आध्यात्मिक संसार में चला गया है, जबकि एक नए दैहिक जीवन का जन्म यह दर्शाता है कि जीवित प्राणी आध्यात्मिक संसार से भौतिक संसार में आ गया है और उसने अपनी भूमिका ग्रहण करनी और निभानी शुरू कर दी है। चाहे प्राणी का प्रस्थान हो या आगमन, दोनों आध्यात्मिक संसार के कार्य से अविभाज्य हैं। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक संसार में आता है, तब तक परमेश्वर द्वारा आध्यात्मिक संसार में उचित व्यवस्थाएँ और परिभाषाएँ पहले ही तैयार की जा चुकी होती हैं, जैसे कि वह व्यक्ति किस परिवार में आएगा, किस युग में आएगा, किस समय आएगा, और क्या भूमिका निभाएगा। इसलिए इस व्यक्ति का संपूर्ण जीवन—जो काम वह करता है, और जो मार्ग वह अपनाता है—जरा-से भी विचलन के बिना, आध्यात्मिक संसार में की गई व्यवस्थाओं के अनुसार चलेगा। इसके अतिरिक्त, दैहिक जीवन जिस समय, जिस तरह और जिस स्थान पर समाप्त होता है, वह आध्यात्मिक संसार के सामने स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है। परमेश्वर भौतिक संसार पर शासन करता है, और वह आध्यात्मिक संसार पर भी शासन करता है, और वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के साधारण चक्र को विलंबित नहीं करेगा, न ही वह उस चक्र की व्यवस्थाओं में कभी कोई त्रुटि कर सकता है। आध्यात्मिक संसार के आधिकारिक पदों के सभी परिचारक अपने-अपने कार्य करते हैं, और परमेश्वर के निर्देशों और नियमों के अनुसार वह करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए। इस प्रकार, मनुष्य के संसार में, मनुष्य द्वारा देखी जाने वाली हर भौतिक घटना व्यवस्थित होती है, और उसमें कोई अराजकता नहीं होती। यह सब-कुछ सभी चीजों पर परमेश्वर के व्यवस्थित शासन की वजह से है, और साथ ही इस तथ्य के कारण है कि उसका अधिकार प्रत्येक वस्तु पर शासन करता है। उसके प्रभुत्व में भौतिक संसार, जिसमें मनुष्य रहता है, के अलावा मनुष्य के पीछे का अदृश्य आध्यात्मिक संसार भी शामिल है। इसलिए, अगर मनुष्य अच्छा जीवन चाहते हैं, और अच्छे परिवेश में रहने की आशा करते हैं, तो संपूर्ण दृश्य भौतिक संसार प्रदान किए जाने के अलावा उसे वह आध्यात्मिक संसार भी प्रदान किया जाना चाहिए, जिसे कोई देख नहीं सकता, जो मानवजाति की ओर से प्रत्येक जीवित प्राणी को नियंत्रित करता है और जो व्यवस्थित है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 191

विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र

हमने अभी पहली श्रेणी के लोगों, अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में चर्चा की। अब हम द्वितीय श्रेणी के, विभिन्न आस्था वाले लोगों के बारे में चर्चा करते हैं। “विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र” एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, और इसकी कुछ समझ होना तुम लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है। पहले, हम इस बारे में बात करते हैं कि “आस्था वाले लोगों” में “आस्था”: यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म, इन पाँच प्रमुख धर्मों में से किन्हें संदर्भित करती है। अविश्वासियों के अतिरिक्त, इन पाँच धर्मों में विश्वास करने वाले लोगों का विश्व की जनसंख्या में एक बड़ा अनुपात है। इन पाँच धर्मों में से जिन्होंने अपनी आस्था से करियर बनाया है, वे बहुत थोड़े-से हैं, फिर भी इन धर्मों के बहुत अनुयायी हैं। जब वे मरते हैं, तो भिन्न स्थान पर जाते हैं। किससे “भिन्न”? अविश्वासियों से—उन लोगों से, जिनकी कोई आस्था नहीं है—जिनके बारे में हम अभी बात कर रहे थे। मरने के बाद इन पाँचों धर्मों के विश्वासी किसी अन्य स्थान पर जाते हैं, अविश्वासियों से भिन्न किसी स्थान पर। किंतु प्रक्रिया वही रहती है; आध्यात्मिक संसार उनके बारे में उसी तरह उस सबके आधार पर निर्णय करेगा, जो उन्होंने मरने से पहले किया था, जिसके बाद तदनुसार उनके बारे में कार्रवाई की जाएगी। लेकिन कार्रवाई करने के लिए इन लोगों को किसी अन्य स्थान पर क्यों भेजा जाता है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। क्या है वह कारण? मैं तुम लोगों को इसे एक उदाहरण से समझाऊँगा। लेकिन इससे पहले कि मैं बताऊँ, तुम मन में सोच रहे होगे : “ऐसा शायद इसलिए हो, क्योंकि परमेश्वर में उनका थोड़ा विश्वास होता है! वे पूर्ण अविश्वासी नहीं होते।” किंतु यह कारण नहीं है। उन्हें दूसरों से अलग रखने का एक महत्वपूर्ण कारण है।

उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म को लो : मैं तुम्हें एक तथ्य बताऊँगा। कोई बौद्ध सबसे पहले वह व्यक्ति होता है, जो बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गया है, और वह ऐसा व्यक्ति है, जो जानता है कि उसका विश्वास क्या है। जब बौद्ध अपने बाल कटवाते हैं और भिक्षु या भिक्षुणी बनते हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने आपको लौकिक संसार से पृथक कर लिया है और मानव-जगत के कोलाहल को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे प्रतिदिन सूत्रों का उच्चारण करते हैं और बुद्ध के नाम जपते हैं, केवल शाकाहारी भोजन करते हैं, तपस्वी का जीवन व्यतीत करते हैं, और अपने दिन तेल के दीये की ठंडी, क्षीण रोशनी में गुजारते हैं। वे अपना सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत करते हैं। जब बौद्धों का भौतिक जीवन समाप्त होता है, तो वे अपने जीवन का सारांश बनाते हैं, परंतु अपने हृदय में उन्हें पता नहीं होता कि मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे, किससे मिलेंगे, या उनका अंत क्या होगा : अपने हृदय की गहराई में उन्हें इन चीजों के बारे स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। उन्होंने अपने पूरे जीवन में आँख मूँदकर एक प्रकार का विश्वास करने से अधिक कुछ नहीं किया होता, जिसके बाद वे अपनी अंधी इच्छाओं और आदर्शों के साथ मानव-संसार से चले जाते हैं। ऐसा होता है एक बौद्ध के भौतिक जीवन का अंत, जब वह जीवित संसार को छोड़ता है; उसके बाद वह आध्यात्मिक संसार में अपने मूल स्थान पर वापस लौट जाता है। पृथ्वी पर लौटने और आत्म-विकास करते रहने के लिए इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा या नहीं, यह मृत्यु से पहले के उसके आचरण और अभ्यास पर निर्भर करता है। अगर अपने जीवन-काल में उसने कुछ गलत नहीं किया, तो शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म हो जाएगा और उसे पृथ्वी पर वापस भेज दिया जाएगा, जहाँ यह व्यक्ति एक बार फिर भिक्षु या भिक्षुणी बन जाएगा। अर्थात् वे अपने भौतिक जीवन के दौरान उसी तरह आत्म-विकास का अभ्यास करते हैं, जिस तरह से उन्होंने पहली बार आत्म-विकास का अभ्यास किया था, और फिर अपने भौतिक जीवन के समापन के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र में वापस आ जाते हैं, जहाँ उनकी जाँच की जाती है। इसके बाद, अगर कोई समस्या नहीं पाई जाती, तो वे एक बार फिर मनुष्यों के संसार में लौट सकते हैं, और फिर से बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो सकते हैं और इस प्रकार अपना अभ्यास जारी रख सकते हैं। तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद वे एक बार फिर आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, जहाँ अपने भौतिक जीवन की समाप्ति पर वे हर बार जाते हैं। अगर मानव-जगत में उनकी विभिन्न योग्यताएँ और व्यवहार आध्यात्मिक संसार की स्वर्गिक आज्ञाओं के मुताबिक होते हैं, तो इसके बाद वे वहीं रहेंगे; उनका फिर मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा, न ही उन्हें पृथ्वी पर बुरे कार्यों के लिए दंडित किए जाने का कोई जोखिम होगा। उन्हें फिर कभी इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा। इसके बजाय, अपनी परिस्थितियों के अनुसार, वे आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई पद ग्रहण करेंगे। इसे ही बौद्ध लोग “बुद्धत्व की प्राप्ति” कहते हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति का मुख्य रूप से अर्थ है आध्यात्मिक संसार के एक पदाधिकारी के रूप में सिद्धि प्राप्त करना, और उसके बाद पुनर्जन्म लेने या दंड भोगने का कोई जोखिम न होना। इसके अतिरिक्त, इसका अर्थ है अब पुनर्जन्म के बाद मनुष्य होने के कष्ट न भोगना। तो क्या अभी भी उनका पशु के रूप में पुनर्जन्म होने की कोई संभावना होती है? (नहीं।) इसका मतलब है कि वे कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए आध्यात्मिक संसार में ही बने रहेंगे और उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। बौद्ध धर्म में बुद्धत्व की सिद्धि की प्राप्ति का यह एक उदाहरण है। जहाँ तक यह सिद्धि प्राप्त न करने वालों की बात है, आध्यात्मिक संसार में लौटने पर वे संबंधित पदाधिकारी द्वारा जाँच और सत्यापन के भागी होते हैं, जो यह पता लगाता है कि जीवित रहते हुए उन्होंने परिश्रमपूर्वक आत्म-विकास का अभ्यास नहीं किया था या ईमानदारी से बौद्ध धर्म द्वारा निर्धारित सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप नहीं किया था; इसके बजाय, उन्होंने कई दुष्कर्म किए थे, और वे अनेक दुष्ट आचरणों में संलग्न रहे थे। तब आध्यात्मिक संसार में उनके बुरे कार्यों के बारे में निर्णय लिया जाता है, जिसके बाद उन्हें दंड दिया जाना निश्चित होता है। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। तो इस प्रकार का व्यक्ति सिद्धि कब प्राप्त कर सकता है? उस जीवन-काल में, जिसमें वह कोई बुरा कार्य नहीं करता—जब आध्यात्मिक संसार में उसके लौटने के बाद यह देखा जाता है कि उसने मृत्यु से पूर्व कुछ गलत नहीं किया था। तब वे पुनर्जन्म लेते रहते हैं, सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप करते रहते हैं, अपने दिन तेल के दीये के ठंडे और क्षीण प्रकाश में गुजारते रहते हैं, जीव-हत्या या मांस-भक्षण से परहेज करते हैं। वे मनुष्य के संसार में हिस्सा नहीं लेते, उसकी समस्याओं को बहुत पीछे छोड़ देते हैं, और दूसरों के साथ कोई विवाद नहीं करते। इस प्रक्रिया में, अगर उन्होंने कोई बुरा कार्य नहीं किया होता, तो आध्यात्मिक संसार में उनके लौटकर आने और उनके समस्त क्रियाकलापों और व्यवहार की जाँच हो चुकने के बाद उन्हें तीन से सात बार तक चलने वाले जीवन-चक्र के लिए एक बार पुनः मनुष्य के संसार में भेजा जाता है। अगर इस दौरान कोई कदाचार नहीं किया जाता, तो बुद्धत्व की उनकी प्राप्ति अप्रभावित रहेगी, और विलंबित नहीं होगी। यह समस्त आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र का एक लक्षण है : वे “सिद्धि प्राप्त” करने और आध्यात्मिक संसार में कोई पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं; यही बात है, जो उन्हें अविश्वासियों से अलग बनाती है। पहली बात, जब वे अभी भी पृथ्वी पर जी रहे होते हैं, तो आध्यात्मिक संसार में पद ग्रहण करने में सक्षम रहने वाले लोग कैसा आचरण करते हैं? उन्हें निश्चित करना चाहिए कि वे कोई भी बुरा कार्य बिलकुल न करें : उन्हें हत्या, आगजनी, बलात्कार या लूटपाट नहीं करनी चाहिए; अगर वे कपट, धोखाधड़ी, चोरी या डकैती में संलग्न होते हैं, तो वे सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में, अगर कुकर्म से उनका कोई भी संबंध या संबद्धता है, तो वे आध्यात्मिक संसार द्वारा उन्हें दिए जाने वाले दंड से बच नहीं पाएँगे। आध्यात्मिक संसार उन बौद्धों के लिए उचित प्रबंध करता है, जो बुद्धत्व प्राप्त करते हैं : उन्हें उन लोगों को प्रशासित करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, जो बौद्ध धर्म में और आकाश के वृद्ध मनुष्य पर विश्वास करते हैं—उन्हें एक अधिकार-क्षेत्र आबंटित किया जा सकता है। वे केवल अविश्वासियों के प्रभारी भी हो सकते हैं, या बहुत गौण कर्तव्यों वाले पदों पर भी हो सकते हैं। ऐसा आबंटन उनकी आत्माओं की विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार होता है। यह बौद्ध धर्म का एक उदाहरण है।

हमने जिन पाँच धर्मों की बात की है, उनमें ईसाई धर्म अपेक्षाकृत विशेष है। ईसाइयों को विशेष क्या बनाता है? ये वे लोग हैं, जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यहाँ कैसे सूचीबद्ध किया जा सकता है? यह कहने पर कि ईसाइयत एक प्रकार की आस्था है, निस्संदेह उसका संबंध केवल आस्था से होगा; वह केवल एक प्रकार का अनुष्ठान, एक प्रकार का धर्म होगी, और उन लोगों की आस्था से बिलकुल अलग चीज होगी, जो ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मेरे द्वारा ईसाइयत को पाँच प्रमुख “धर्मों” के बीच सूचीबद्ध किए जाने का कारण यह है कि इसे भी यहूदी, बौद्ध और इस्लाम धर्मों के स्तर तक घटा दिया गया है। यहाँ अधिकतर लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते कि कोई परमेश्वर है या वह सभी चीजों पर शासन करता है, उसके अस्तित्व पर विश्वास तो वे बिलकुल भी नहीं करते। इसके बजाय, वे मात्र धर्मशास्त्र की चर्चा करने के लिए धर्मग्रंथों का उपयोग करते हैं, और लोगों को दयालु बनना, कष्ट सहना और अच्छे कार्य करना सिखाने के लिए धर्मशास्त्र का उपयोग करते हैं। ईसाइयत इसी प्रकार का धर्म बन गया है : वह केवल धर्मशास्त्र संबंधी सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करता है, मनुष्य का प्रबंधन करने या उसे बचाने के परमेश्वर के कार्य से उसका बिलकुल भी कोई संबंध नहीं है। वह उन लोगों का धर्म बन गया है, जो परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं, पर जिन्हें वास्तव में परमेश्वर द्वारा अंगीकार नहीं किया जाता। लेकिन, ऐसे लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर के पास भी एक सिद्धांत है। वह उन्हें अपनी मर्जी से उसी तरह बेमन से नहीं सँभालता या उनसे उसी तरह बेमन से नहीं निपटता, जैसा कि वह अविश्वासियों के साथ करता है। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा कि वह बौद्धों के साथ करता है : अगर जीवित रहते हुए कोई ईसाई आत्मानुशासन का पालन कर पाता है, कठोरता से दस आज्ञाओं का पालन करता है और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं के अनुसार परिश्रमपूर्वक व्यवहार करता है, और जीवन भर उन पर दृढ़ रह सकता है, तो उन्हें भी वास्तव में तथाकथित “स्वर्गारोहण” प्राप्त कर पाने से पहले उतना ही समय जीवन और मृत्यु के चक्र से गुजारना होगा। इस स्वर्गारोहण को प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक संसार में बने रहते हैं, जहाँ वे कोई पद लेते हैं और उसके एक पदाधिकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार, अगर वे पृथ्वी पर बुराई करते हैं—अगर वे बहुत पापी हैं और बहुत पाप करते हैं—तब वे अनिवार्यतः भिन्न-भिन्न तीव्रता से दंडित और अनुशासित किए जाएँगे। बौद्ध धर्म में सिद्धि की प्राप्ति का अर्थ है परमानंद की शुद्ध भूमि पर से गुजरना, किंतु ईसाइयत में इसे क्या कहा जाता है? इसे “स्वर्ग में प्रवेश करना” और “स्वर्गारोहण करवाया जाना” कहते हैं। जिन्हें वास्तव में स्वर्गारोहण करवाया जाता है, वे भी जीवन और मृत्यु के चक्र से तीन से सात बार तक गुजरते हैं, जिसके बाद, मर जाने पर, वे आध्यात्मिक संसार में आते हैं, मानो वे सो गए हों। अगर वे मानक के अनुरूप होते हैं, तो वे कोई पद ग्रहण करने के लिए वहाँ बने रह सकते हैं, और पृथ्वी पर मौजूद लोगों के विपरीत, साधारण तरीके से, या परंपरा के अनुसार, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा।

इन सब धर्मों में, जिस अंत के बारे में लोग बात करते हैं और जिसके लिए वे प्रयास करते हैं, वह वैसा ही होता है, जैसा कि बौद्ध धर्म में सिद्धि प्राप्त करना; फर्क सिर्फ यह है कि “सिद्धि” भिन्न-भिन्न तरीकों से प्राप्त की जाती है। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन धर्मों के अनुयायियों के इस भाग के लिए, जो अपने आचरण में धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में समर्थ होते हैं, परमेश्वर एक उचित गंतव्य, जाने के लिए एक उचित स्थान उपलब्ध कराता है, और उन्हें उचित प्रकार से सँभालता है। यह सब तर्कसंगत है, किंतु यह वैसा नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। अब, ईसाइयत में लोगों का क्या होता है, इस बारे में सुनने के बाद, तुम लोग कैसा अनुभव करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि उनकी दुर्दशा अनुचित है? क्या तुम्हें उनसे सहानुभूति होती है? (थोड़ी-सी।) इसमें कुछ नहीं किया सकता; उन्हें केवल स्वयं को ही दोष देना होगा। मै ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर का कार्य सच्चा है; वह जीवित और वास्तविक है, और उसका कार्य संपूर्ण मानवजाति और प्रत्येक व्यक्ति पर लक्षित है। तो फिर वे इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? क्यों वे पागलों की तरह परमेश्वर का विरोध करते और उसे यातना देते हैं? इस तरह का परिणाम पाकर भी उन्हें स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए, तो तुम लोग उनके लिए खेद क्यों महसूस करते हो? उन्हें इस प्रकार से सँभाला जाना बड़ी सहिष्णुता दर्शाता है। जिस हद तक वे परमेश्वर का विरोध करते हैं, उसके हिसाब से तो उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए, फिर भी परमेश्वर ऐसा नहीं करता, वह बस ईसाइयत को किसी दूसरे साधारण धर्म की तरह ही सँभालता है। तो क्या अन्य धर्मों के बारे में विस्तार से जाने की कोई आवश्यकता है? इन सभी धर्मों की प्रकृति है कि लोग अधिक कठिनाइयाँ सहन करें, कोई बुराई न करें, अच्छे कर्म करें, दूसरों को गाली न दें, दूसरों के बारे में निर्णय न दें, विवादों से दूर रहें, और सज्जन बनें—अधिकांश धार्मिक शिक्षाएँ इसी प्रकार की हैं। इसलिए, अगर ये आस्था वाले लोग‌—ये विभिन्न धर्मों और पंथों के अनुयायी—अगर अपने धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन कर पाते हैं, तो वे पृथ्वी पर रहने के दौरान बड़ी त्रुटियाँ या पाप नहीं करेंगे, और तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद सामान्यतः ये लोग—जो धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में सक्षम रहते हैं—आम तौर पर, आध्यात्मिक संसार में कोई पद लेने के लिए बने रहेंगे। क्या ऐसे बहुत लोग होते हैं? (नहीं।) तुम्हारा उत्तर किस बात पर आधारित है? भलाई करना या धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना आसान नहीं है। बौद्ध धर्म लोगों को मांस खाने की अनुमति नहीं देता—क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अगर तुम्हें भूरे वस्त्र पहनकर किसी बौद्ध मंदिर में पूरे दिन मंत्रों का उच्चारण और बुद्ध के नामों का जाप करना पड़े, तो क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यह आसान नहीं होगा। ईसाइयत में दस आज्ञाएँ हैं, आज्ञाएँ और व्यवस्थाएँ, क्या उनका पालन करना आसान है? वह आसान नहीं है, है न? उदाहरण के लिए, दूसरों को गाली न देने को लो : लोग इस नियम का पालन करने में एकदम अक्षम हैं। स्वयं को रोक पाने में असमर्थ होकर वे गाली देते हैं—और गाली देने के बाद वे उन शब्दों को वापस नहीं ले सकते, तो वे क्या करते हैं? रात्रि में वे अपने पाप स्वीकार करते हैं! कभी-कभी दूसरों को गाली देने के बाद भी वे अपने दिल में घृणा को आश्रय दिए रहते हैं, और वे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि वे उन लोगों को किसी समय और ज्यादा नुकसान पहुँचाने की योजना बना लेते हैं। संक्षेप में, जो लोग इस जड़ हठधर्मिता के बीच जीते हैं, उनके लिए पाप करने से बचना या बुराई करने से दूर रहना आसान नहीं है। इसलिए, हर धर्म में केवल कुछ लोग ही वास्तव में सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि चूँकि इतने अधिक लोग इन धर्मों का अनुसरण करते हैं, इसलिए उनका एक बड़ा भाग आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए बने रहने में सक्षम रहता होगा? ऐसे लोग उतने अधिक नहीं होते; वास्तव में केवल कुछ लोग ही इसे प्राप्त कर पाते हैं। आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र में सामान्यतः ऐसा ही होता है। जो चीज उन्हें अलग करती है, वह यह है कि वे सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं, और यही बात उन्हें अविश्वासियों से अलग करती है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 192

परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुने हुए अंश)

इसके बाद हम उन लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में बात करते हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिए ध्यान दो : पहले, इस बारे में विचार करो कि परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को कैसे श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। (परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता।) बेशक इसमें दो हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में बात करते हैं, जिसमें बहुत कम लोग हैं। “परमेश्वर के चुने हुए लोग” किसे कहते हैं? परमेश्वर ने जब सारी चीजों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई, तो परमेश्वर ने उन लोगों का एक समूह चुना जो उसका अनुसरण करेंगे; बस इन्हें ही “परमेश्वर के चुने हुए लोग” कहा जाता है। परमेश्वर द्वारा इन लोगों को चुनने का एक विशेष दायरा और महत्व था। दायरा इसलिए विशेष है, क्योंकि वह कुछ चयनित लोगों तक ही सीमित था, जिन्हें तब आना चाहिए जब परमेश्वर कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है। और महत्व क्या है? चूँकि वह परमेश्वर द्वारा चयनित लोगों का समूह था, इसलिए इसका अत्यधिक महत्व है। कहने का तात्पर्य यह है कि, परमेश्वर इन लोगों को पूरा करना चाहता है और इन्हें पूर्ण बनाना चाहता है, और प्रबंधन का अपना कार्य पूरा हो जाने के बाद वह इन लोगों को प्राप्त कर लेगा। क्या यह महत्व अत्यधिक नहीं है? इस प्रकार, ये चुने हुए लोग परमेश्वर के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है। जहाँ तक सेवाकर्ताओं की बात है, ठीक है, एक पल के लिए हम परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के विषय को छोडकर पहले उनके उद्गमों के बारे में बात करते हैं। “सेवाकर्ता” का शाब्दिक अर्थ है वह, जो सेवा करता है। सेवा करने वाले लोग अस्थायी होते हैं, वे लंबे समय तक, या हमेशा के लिए सेवा नहीं करते, बल्कि उन्हें अस्थायी रूप से नियुक्त या भर्ती किया जाता है। उनमें से अधिकतर का उद्गम यह है कि उन्हें अविश्वासियों में से चुना गया था। वे पृथ्वी पर तब आए, जब यह आदेश दिया गया कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवाकर्ता की भूमिका ग्रहण करेंगे। हो सकता है कि वे अपने पिछले जन्म में पशु रहे हों, लेकिन वे अविश्वासी भी रहे हो सकते हैं। ऐसे हैं सेवाकर्ताओं के उद्गम।

हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में और बात करते हैं। जब वे मरते हैं, तो वे अविश्वासियों और विभिन्न आस्था वाले लोगों से बिलकुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान होता है, जहाँ उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूत होते हैं; यह ऐसा स्थान होता है, जिसका प्रशासन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से करता है। भले ही इस स्थान पर परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर को अपनी आँखों से नहीं देख पाते, फिर भी यह आध्यात्मिक क्षेत्र में किसी भी अन्य स्थान के असदृश होता है; यह एक अलग ही जगह होती है, जहाँ लोगों का यह हिस्सा मरने के बाद जाता है। जब वे मरते हैं, तो वे भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी जाँच-पड़ताल के भागी होते हैं। और जाँच-पड़ताल क्या की जाती है? परमेश्वर के दूत इस बात की जाँच करते हैं कि इन लोगों ने अपने संपूर्ण जीवन में परमेश्वर की आस्था में कौन-सा मार्ग लिया था, उस दौरान उन्होंने कभी परमेश्वर का विरोध किया अथवा उसे कोसा था या नहीं, और उन्होंने कोई गंभीर पाप या दुष्टता की थी या नहीं। यह जाँच इस प्रश्न का समाधान करती है कि उस व्यक्ति विशेष को वहाँ ठहरने दिया जाएगा या उसे जाना होगा। “जाना” का क्या अर्थ है? और “ठहरना” का क्या अर्थ है? “जाना” का अर्थ है कि अपने व्यवहार के आधार पर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे या नहीं; “ठहरने” दिए जाने का अर्थ है कि वे उन लोगों के बीच रह सकते हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाएगा। जो ठहरते हैं, उनके लिए परमेश्वर के पास विशेष व्यवस्थाएँ है। अपने कार्य की प्रत्येक अवधि के दौरान वह ऐसे लोगों को प्रेरितों के रूप में कार्य करने, या कलीसियाओं को पुनर्जीवित करने या उनकी देखभाल करने का कार्य करने के लिए भेजेगा। लेकिन इस कार्य को करने में सक्षम लोग पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से पुनर्जन्म नहीं लेते, जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनर्जन्म लेते हैं; इसके बजाय, वे परमेश्वर के कार्य की आवश्यकताओं और चरणों के अनुसार पृथ्वी पर लौटाए जाते हैं और उन्हें बार-बार पुनर्जन्म नहीं दिया जाता। तो क्या इस बारे में कोई नियम हैं कि उनका पुनर्जन्म कब होगा? क्या वे हर कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारंबारता में आते हैं? वे ऐसे नहीं आते। यह सब परमेश्वर के कार्य पर, उसके कार्य के कदमों पर और उसकी आवश्यकताओं पर आधारित है, और इसके कोई तय नियम नहीं हैं। एकमात्र नियम यह है कि जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने कार्य का अंतिम चरण पूरा करेगा, तो ये सभी चुने हुए लोग आएँगे और यह आगमन उनका अंतिम पुनर्जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण के दौरान प्राप्त किए जाने वाले परिणाम पर आधारित होता है—क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को पूरी तरह से पूर्ण कर देगा। इसका क्या अर्थ है? अगर, इस अंतिम चरण के दौरान, इन लोगों को पूरा बनाया और पूर्ण किया जाता है, तब उनका पहले की तरह पुनर्जन्म नहीं होगा; उनके मनुष्य बनने की प्रक्रिया और साथ ही पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी पूर्णतया समाप्त हो जाएगी। यह उनसे संबंधित है, जो ठहरेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते, वे कहाँ जाते हैं? जिन्हें ठहरने की अनुमति नहीं मिलती, उनका अपना उपयुक्त गंतव्य होता है। सबसे पहले, उनके कुकर्मों, उनके द्वारा की गई गलतियों और पापों के परिणामस्वरूप वे भी दंडित किए जाएँगे। दंडित किए जाने के पश्चात, जैसा परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल होगा, परमेश्वर या तो उन्हें अविश्वासियों के बीच या फिर विभिन्न आस्था वाले लोगों के बीच भेजने की व्यवस्था करेगा। दूसरे शब्दों में, उनके लिए दो संभावित परिणाम हो सकते हैं : एक है दंडित होना और पुनर्जन्म के बाद शायद किसी निश्चित धर्म के लोगों के बीच रहना, और दूसरा है अविश्वासी बन जाना। अगर वे अविश्वासी बनते हैं, तो वे सारे अवसर गँवा देंगे; लेकिन अगर वे आस्था वाले व्यक्ति बनते हैं—उदाहरण के लिए, अगर वे ईसाई बनते हैं—तो उनके पास अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणियों में लौटने का अवसर होगा; इसके बहुत जटिल संबंध हैं। संक्षेप में, अगर परमेश्वर का चुना हुआ कोई व्यक्ति कोई ऐसा काम करता है जो परमेश्वर के प्रति अपमानजनक हो, तो उसे अन्य किसी भी व्यक्ति के समान ही दंड दिया जाएगा। उदाहरण के लिए, पौलुस को लें, जिसके बारे में हमने पहले बात की थी। पौलुस एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है, जिसे दंड दिया जाता है। क्या तुम लोग समझ रहे हो कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का दायरा तय है? (अधिकांशतः तय है।) उसका अधिक हिस्सा तय है, लेकिन एक छोटा हिस्सा तय नहीं है। ऐसा क्यों है? यहाँ मैं सबसे स्पष्ट कारण का उल्लेख कर रहा हूँ : दुष्टता करना। जब लोग दुष्टता करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, तो वह उन्हें विभिन्न जाति और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है। यह उन्हें निराश छोड़ देता है और उनके लिए वापस लौटना कठिन बना देता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु चक्र से संबंधित है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 193

परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुने हुए अंश)

यह अगला विषय सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबंधित है। हमने अभी सेवाकर्ताओं के उद्गम के बारे में बात की है; यानी इस तथ्य के बारे में कि अपने पिछले जन्मों में अविश्वासी और पशु रहने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ। कार्य का अंतिम चरण आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से लोगों का एक समूह चुना है और यह समूह बहुत खास है। इन लोगों को चुनने का परमेश्वर का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। “सेवा” सुनने में कोई बहुत सुरुचिपूर्ण शब्द नहीं है, न ही यह सबकी इच्छाओं के अनुरूप है, लेकिन हमें यह देखना चाहिए कि यह किसकी ओर लक्षित है। परमेश्वर के सेवाकर्ताओं के अस्तित्व का एक विशेष महत्व है। कोई अन्य उनकी भूमिका नहीं निभा सकता, क्योंकि उन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया था। और इन सेवाकर्ताओं की भूमिका क्या है? परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा करना। अधिकांशतः, उनकी भूमिका परमेश्वर के कार्य में अपनी सेवा प्रदान करना, उसमें सहयोग करना, और परमेश्वर द्वारा अपने चुने हुए लोगों को पूरा करने में सहायता करना है। चाहे वे मेहनत कर रहे हों, कार्य के किसी पहलू पर काम कर रहे हों, या कोई निश्चित कार्य कर रहे हों, परमेश्वर इन सेवाकर्ताओं से क्या अपेक्षा करता है? क्या वह उनसे बहुत कठिन अपेक्षाएँ करता है? (नहीं, वह बस उनसे निष्ठावान रहने को कहता है।) सेवाकर्ताओं को भी निष्ठावान होना चाहिए। चाहे तुम्हारा उद्गम कहीं से हो, या परमेश्वर ने तुम्हें किसी भी वजह से चुना हो, तुम्हें परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे जाने वाले आदेशों के प्रति, और उस कार्य के प्रति जिसके लिए तुम उत्तरदायी हो, और उन कर्तव्यों के प्रति जिन्हें तुम निभाते हो, निष्ठावान होना चाहिए। जो सेवाकर्ता निष्ठावान होने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में समर्थ हैं, उनका परिणाम क्या होगा? वे बने रह सकेंगे। क्या ऐसा सेवाकर्ता होना, जो बना रहता है, एक आशीष है? बने रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या महत्व है? हैसियत में वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के असदृश दिखाई देते हैं, भिन्न दिखाई देते हैं। लेकिन वास्तव में वे इस जीवन में जिस चीज का आनंद लेते हैं, क्या वह वही नहीं है, जिसका आनंद परमेश्वर के चुने हुए लोग लेते हैं? कम से कम, इस जीवन में तो यह वही है। तुम लोग इससे इनकार नहीं करते, है न? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा भरण-पोषण, परमेश्वर के आशीष—कौन इन चीजों का आनंद नहीं लेता? हर कोई ऐसी प्रचुरता का आनंद लेता है। सेवाकर्ता की पहचान सेवा करने वाले के रूप में है, लेकिन परमेश्वर के लिए वह बस उन सब चीजों में से एक है जिनकी उसने रचना की है; बस उनकी भूमिका सेवाकर्ता की है। उन दोनों के ही परमेश्वर के प्राणी होने के नाते, क्या किसी सेवाकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति के बीच कोई अंतर है? वस्तुतः, नहीं। नाममात्र के लिए कहें तो, एक अंतर है; सार में और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका की दृष्टि से एक अंतर है—किंतु परमेश्वर लोगों के इस समूह के साथ गलत व्यवहार नहीं करता। तो इन लोगों को सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित क्यों किया जाता है? तुम लोगों को इस बात की कुछ समझ होनी चाहिए! सेवाकर्ता अविश्वासियों के बीच से आते हैं। जैसे ही हम यह उल्लेख करते हैं कि वे अविश्वासियों के बीच से आते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक बुरी पृष्ठभूमि साझा करते है : वे सब नास्तिक हैं और अतीत में भी ऐसे ही थे; वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे, और उसके, सत्य के और सभी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता रखते थे। वे परमेश्वर या उसके अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं? यह कहना उचित होगा कि काफी हद तक वे सक्षम नहीं हैं। जैसे पशु मनुष्यों के शब्द समझने में सक्षम नहीं हैं, वैसे ही सेवाकर्ता भी यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है या वह ऐसी अपेक्षाएँ क्यों करता है। वे नहीं समझते; ये बातें उनकी समझ से बाहर हैं, और वे अप्रबुद्ध रहते हैं। इस कारण से, उन लोगों के पास वह जीवन नहीं होता, जिसके बारे में हमने बात की है। बिना जीवन के, क्या लोग सत्य को समझ सकते हैं? क्या वे सत्य से सुसज्जित हैं? क्या उनके पास परमेश्वर के वचनों का अनुभव और ज्ञान है? (नहीं।) ऐसे हैं सेवाकर्ताओं के उद्गम। लेकिन, चूँकि परमेश्वर इन लोगों को सेवाकर्ता बनाता है, इसलिए उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी मानक हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता, न ही वह उनके प्रति बेपरवाह है। भले ही वे उसके वचनों को नहीं समझते और उनके पास जीवन नहीं है, फिर भी परमेश्वर उनके साथ दयालुता से पेश आता है, और जब उनसे उसकी अपेक्षाओं की बात आती है, तो फिर उसके मानक हैं। तुम लोगों ने अभी इन मानकों के बारे में बोला : परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना और वह करना, जो वह कहता है। अपनी सेवा में तुम्हें वहीं सेवा करनी चाहिए, जहाँ आवश्यक हो, और बिलकुल अंत तक सेवा करनी चाहिए। अगर तुम एक निष्ठावान सेवाकर्ता बन सकते हो, बिलकुल अंत तक सेवा करने में सक्षम हो, और परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश पूरा कर सकते हो, तो तुम एक मूल्यवान जीवन जियोगे। अगर तुम यह कर सकते हो, तो तुम रह पाओगे। अगर तुम थोड़ा अधिक प्रयास करते हो, अगर तुम थोड़ा अधिक परिश्रम करते हो, परमेश्वर को जानने का प्रयास दोगुना कर पाते हो, परमेश्वर को जानने के बारे में थोड़ा बोल पाते हो, उसकी गवाही दे सकते हो, और इसके अतिरिक्त, अगर तुम उसकी थोड़ी-बहुत इच्छा समझ सकते हो, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सकते हो, और परमेश्वर के इरादों के प्रति कुछ-कुछ सचेत हो सकते हो, तब एक सेवाकर्ता के तौर पर तुम अपनी नियति में बदलाव महसूस करोगे। और नियति में यह बदलाव क्या होगा? अब तुम सिर्फ बने ही नहीं रहोगे, तुम्हारे आचरण और तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षाओं और खोज के आधार पर परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से एक बनाएगा। यह तुम्हारी नियति में परिवर्तन होगा। सेवाकर्ताओं के लिए इसमें सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन सकते हैं। अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन जाते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका अब अविश्वासियों के समान पशुओं के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हाँ, और यह एक अच्छा समाचार भी है : इसका अर्थ है कि सेवाकर्ताओं को ढाला जा सकता है। ऐसी बात नहीं है कि सेवाकर्ता को जब परमेश्वर सेवा करने के लिए पूर्वनिर्धारित करता है, तो वह हमेशा ऐसा ही करेगा; ऐसा आवश्यक नहीं है। परमेश्वर उसे उसके व्यक्तिगत आचरण के आधार पर उपयुक्त तरीके से सँभालेगा और उत्तर देगा।

लेकिन, ऐसे सेवाकर्ता भी हैं, जो बिलकुल अंत तक सेवा नहीं कर पाते; ऐसे भी हैं जो अपनी सेवा के दौरान आधे रास्ते में ही प्रयास छोड़ देते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, साथ ही ऐसे लोग भी हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के कार्य का बड़ा नुकसान करते हैं और उसे बड़ी क्षति पहुँचाते हैं, और ऐसे सेवाकर्ता भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं, इत्यादि। ये असाध्य परिणाम क्या संकेत करते हैं? ऐसे सभी दुष्कर्म उनकी सेवाओं की समाप्ति के द्योतक होंगे। चूँकि अपनी सेवा के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत खराब रहा है, और चूँकि तुमने हद पार कर ली, इसलिए जब परमेश्वर देखेगा कि तुम्हारी सेवा मानक के अनुरूप नहीं है, तो वह तुमसे सेवा करने की तुम्हारी पात्रता छीन लेगा। वह तुम्हें और सेवा करने की अनुमति नहीं देगा; वह तुम्हें अपनी आँखों के सामने से, और परमेश्वर के घर से हटा देगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम सेवा नहीं करना चाहते? क्या तुम हमेशा दुष्टता नहीं करना चाहते? क्या तुम लगातार विश्वासघाती नहीं रहे? तो फिर, एक सरल उपाय है : तुमसे सेवा करने की तुम्हारी पात्रता छीन ली जाएगी। परमेश्वर की दृष्टि में, किसी सेवाकर्ता से उसकी सेवा करने की पात्रता छीनने का अर्थ है कि उस सेवाकर्ता के अंत की घोषणा कर दी गई है, और वह अब परमेश्वर की सेवा करने का पात्र नहीं रहेगा। परमेश्वर को अब इस व्यक्ति की सेवा की आवश्यकता नहीं है, और चाहे वह कितनी भी अच्छी बातें क्यों न कहे, वे बातें व्यर्थ होंगी। जब चीजें इस बिंदु तक पहुँच जाती हैं, तो परिस्थिति असाध्य बन जाती है; ऐसे सेवाकर्ताओं के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होता। और परमेश्वर ऐसे सेवाकर्ताओं से किस प्रकार निपटता है? क्या वह केवल उन्हें सेवा करने से रोक देता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है और उनके सुधरने की प्रतीक्षा करता है? वह ऐसा नहीं करता। सच में, जब सेवाकर्ताओं की बात आती है, तो परमेश्वर इतना प्रेमपूर्ण नहीं होता। अगर परमेश्वर की सेवा के प्रति किसी व्यक्ति का इस प्रकार का रवैया है, तो इस रवैये के कारण परमेश्वर उससे सेवा करने की उसकी पात्रता छीन लेगा, और उसे एक बार फिर वापस अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवाकर्ता को वापस अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसकी क्या नियति होती है? वह अविश्वासियों जैसी ही होती है : उसे किसी पशु के रूप में पुनर्जन्म दिया जाएगा और आध्यात्मिक संसार में वही दंड दिया जाएगा जो अविश्वासियों को दिया जाता है। इसके अलावा, इस व्यक्ति के दंड में परमेश्वर किसी तरह की व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि परमेश्वर के कार्य के लिए अब उस व्यक्ति की कोई प्रासंगिकता नहीं रहती। यह न केवल परमेश्वर में उसकी आस्था के जीवन का अंत होता है, बल्कि उसकी नियति का भी अंत होता है, साथ ही यह उसकी नियति की उद्घोषणा भी होती है। इस प्रकार, अगर सेवाकर्ता खराब ढंग से सेवा करते हैं, तो उन्हें स्वयं परिणाम भुगतने पड़ेंगे। अगर कोई सेवाकर्ता बिलकुल अंत तक सेवा करने में असमर्थ है, या उससे बीच में ही सेवा करने की उसकी पात्रता छीन ली जाती है, तो उसे अविश्वासियों के बीच फेंक दिया जाएगा—और अगर ऐसा होता है, तो उससे मवेशियों के समान ही, उसी प्रकार निपटा जाएगा, जैसे कि अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ निपटा जाता है। जब मैं इसे इस प्रकार कहता हूँ, तो तुम समझ पाते हो, है न?

ऊपर बताया गया है कि कैसे परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु चक्र को सँभालता है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी इस विषय पर बोला है? क्या मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के विषय पर कभी बोला है? दरअसल मैंने बोला है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के प्रति धार्मिक है। वह हर तरह से धार्मिक है। क्या तुम इसमें कहीं दोष ढूँढ़ सकते हो? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो कहेंगे : “क्यों परमेश्वर चुने हुओं के प्रति इतना सहिष्णु है? और क्यों वह सेवाकर्ताओं के प्रति केवल थोड़ा-सा ही सहिष्णु है?” क्या कोई सेवाकर्ताओं के लिए खड़े होने की इच्छा रखता है? “क्या परमेश्वर सेवाकर्ताओं को और समय दे सकता है, तथा उनके प्रति और अधिक धैर्यवान और सहिष्णु हो सकता है?” क्या ऐसा प्रश्न पूछना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) और यह सही क्यों नहीं है? (क्योंकि हमें सेवाकर्ता बनाकर वास्तव में हम पर उपकार किया गया है।) सेवाकर्ताओं को केवल सेवा की अनुमति देकर ही उन पर उपकार किया गया है! “सेवाकर्ता” की उपाधि और उस कार्य के बिना, जो वे करते हैं, ये सेवा करने वाले कहाँ होते? ये अविश्वासियों के बीच होते, मवेशियों के साथ जीते और मरते। परमेश्वर के सामने और परमेश्वर के घर में आने की अनुमति पाकर आज वे कितने अनुग्रह का आनंद लेते हैं! यह एक जबरदस्त अनुग्रह है! अगर परमेश्वर ने तुम्हें सेवा करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी उसके सामने आने का अवसर न मिलता। नरम शब्दों में कहूँ तो, अगर तुम बौद्ध धर्म को मानने वाले भी हो और तुमने सिद्धि भी प्राप्त कर ली हो, तो ज्यादा से ज्यादा तुम आध्यात्मिक संसार में छोटा-मोटा प्रशासनिक कार्य करने वाले ही होगे; तुम परमेश्वर से कभी नहीं मिलोगे, उसकी वाणी या उसके वचन नहीं सुनोगे, उसका प्रेम और आशीष महसूस नहीं करोगे, न ही तुम संभवतः कभी उसके आमने-सामने आ सकोगे। बौद्धों के पास केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते, और वे केवल अनुपालन और आज्ञापालन करते हैं, जबकि सेवाकर्ता कार्य के इस चरण में बहुत अधिक प्राप्त करते हैं! पहला, वे परमेश्वर के आमने-सामने आने, उसकी वाणी सुनने, उसके वचन सुनने, और उन अनुग्रहों और आशीषों का अनुभव करने में समर्थ होते हैं, जो वह लोगों को देता है। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिए गए वचनों और सत्यों का आनंद उठा पाते हैं। सेवाकर्ताओं को वास्तव में बहुत ज्यादा प्राप्त होता है! इस प्रकार, अगर एक सेवाकर्ता के रूप में तुम सही प्रयत्न भी नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें रखेगा? वह तुम्हें नहीं रख सकता। वह तुमसे ज्यादा अपेक्षा नहीं करता, फिर भी तुम वह सही ढंग से नहीं करते, जो वह कहता है; तुमने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया है। इसलिए, निस्संदेह, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नखरे नहीं उठाता, लेकिन वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करता। यही वे सिद्धांत हैं, जिनसे परमेश्वर कार्य करता है। परमेश्वर सभी लोगों और प्राणियों के साथ इसी तरह व्यवहार करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 194

परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु चक्र (चुना हुआ अंश)

जब आध्यात्मिक संसार में विभिन्न प्राणी कुछ गलत करते हैं, या अपने कार्य ठीक ढंग से नहीं करते, तो परमेश्वर के पास भी उनसे निपटने के लिए उसी के अनुरूप स्वर्गिक अध्यादेश और निर्णय हैं; यह निरपेक्ष है। इसलिए, परमेश्वर के कई-हजार-वर्षीय प्रबंधन-कार्य के दौरान गलत काम करने वाले कुछ कर्तव्यपालक नष्ट कर दिए गए हैं, जबकि कुछ—आज तक—हिरासत में हैं और दंडित किए जा रहे हैं। आध्यात्मिक संसार में हर प्राणी को इसका सामना करना ही पड़ता है। अगर वे कुछ गलत करते हैं या कोई दुष्टता करते हैं, तो वे दंडित किए जाते हैं—और यह वैसा ही है, जैसा कि परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के साथ करता है। इस प्रकार, चाहे आध्यात्मिक संसार हो या भौतिक संसार, परमेश्वर जिन सिद्धांतों पर काम करता है, वे बदलते नहीं। तुम परमेश्वर के कार्यकलाप देख पाओ या नहीं, उनके सिद्धांत नहीं बदलते। हमेशा से ही, सभी चीजों के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और सभी चीजों को सँभालने के उसके सिद्धांत समान रहे हैं। यह अपरिवर्तनीय है। परमेश्वर अविश्वासियों में से उन लोगों के प्रति दयालु रहेगा, जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में से उन लोगों के लिए अवसर बचाकर रखेगा, जो अच्छा व्यवहार करते हैं और दुष्टता नहीं करते, और उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रबंधित सभी चीजों में अपनी भूमिका निभाने देगा, और वह करने देगा जो उन्हें करना चाहिए। इसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और उन लोगों के बीच जो उसके चुने हुए हैं, परमेश्वर अपने इन सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करता। वह हर उस व्यक्ति के प्रति दयालु रहता है, जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करने में सक्षम है, और हर उस व्यक्ति से प्रेम करता है, जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है। केवल इतना ही है कि इन विभिन्न प्रकार के लोगों—अविश्वासियों, विभिन्न आस्थाओं वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—को वह जो प्रदान करता है, वह भिन्न होता है। उदाहरण के लिए अविश्वासियों को लो : हालाँकि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और परमेश्वर उन्हें जंगली जानवरों के रूप में देखता है, फिर भी सब बातों के बीच उनमें से हर एक के पास खाने के लिए भोजन होता है, उनका अपना एक स्थान होता है, और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो लोग दुष्टता करते हैं, वे दंड पाते हैं और जो भलाई करते हैं, वे आशीष पाते हैं और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? आस्थावान लोगों के मामले में, अगर वे पुनर्जन्म-दर-पुनर्जन्म अपने धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन कर पाते हैं, तो इन सभी पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः उनके लिए अपनी उद्घोषणा करता है। इसी प्रकार, आज तुम लोगों के मामले में, चाहे तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो या कोई सेवाकर्ता, परमेश्वर समान रूप से तुम्हें राह पर लाएगा और स्वयं द्वारा निर्धारित विनियमों और प्रशासनिक आदेशों के अनुसार तुम लोगों का अंत निर्धारित करेगा। इस तरह के लोगों के बीच, विभिन्न प्रकार की आस्था वाले लोगों के बीच—यानी जो विभिन्न धर्मों से संबंधित हैं—क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी कहाँ हैं? क्या परमेश्वर ने उनकी आस्था में हस्तक्षेप किया है? नहीं किया है। और ईसाइयों का क्या? उसने उनकी आस्था में भी हस्तक्षेप नहीं किया है। वह उन्हें उनकी अपनी पद्धतियों का पालन करने देता है, वह उनसे बात नहीं करता, न ही उन्हें कोई प्रबुद्धता देता है, और इसके अलावा, वह उन पर कुछ भी प्रकट नहीं करता। अगर तुम्हें लगता है कि यह सही है, तो इसी तरह से विश्वास करो। कैथोलिक मरियम पर विश्वास करते हैं, और इस पर कि मरियम के माध्यम से ही समाचार यीशु तक पहुँचाया गया था; उनके विश्वास का ऐसा ही रूप है। क्या परमेश्वर ने कभी उनकी आस्था सुधारी है? परमेश्वर उन्हें पूरी स्वतंत्रता देता है; वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता और उन्हें रहने के लिए एक निश्चित स्थान देता है। क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही नहीं है? उसने उनके लिए भी सीमाएँ तय कर दी हैं, और उनकी संबंधित आस्थाओं में हस्तक्षेप किए बिना उन्हें रहने का स्थान लेने देता है। सब-कुछ सुव्यवस्थित है। और इस सब में तुम लोग क्या देखते हो? यही कि परमेश्वर के पास अधिकार है, लेकिन वह उसका दुरुपयोग नहीं करता। परमेश्वर सभी चीजों को सही क्रम में व्यवस्थित करता है और ऐसा व्यवस्थित तरीके से करता है, और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता निहित है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 195

स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत

एकमात्र परमेश्वर ही है, जो सभी चीजों पर शासन करता है, और सभी चीजों का संचालन करता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है उसे वही चलाता है, जो कुछ है उस सब पर वही शासन करता है, और जो कुछ है उस सबका भरण-पोषण वही करता है। यह परमेश्वर की हैसियत है और यही उसकी पहचान है। सभी चीजों के लिए और जो कुछ भी है उस सबके लिए, परमेश्वर की असली पहचान सृष्टिकर्ता और संपूर्ण सृष्टि के शासक की है। परमेश्वर की ऐसी पहचान है और वह सभी चीजों में अद्वितीय है। परमेश्वर का कोई भी प्राणी—चाहे वह मनुष्यों के बीच हो या आध्यात्मिक संसार में—परमेश्वर की पहचान और हैसियत का रूप धरने या उसका स्थान लेने के लिए किसी भी साधन या बहाने का उपयोग नहीं कर सकता, क्योंकि सभी चीजों में वही एक है जिसके पास यह पहचान, सामर्थ्य, अधिकार और सृष्टि पर शासन करने की क्षमता है : हमारा अद्वितीय स्वयं परमेश्वर। वह सभी चीजों के बीच रहता और चलता है; वह सभी चीजों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है। वह मनुष्य बनकर, मांस और लहू से बने मनुष्यों में से एक बनकर, लोगों के आमने-सामने आकर और उनके सुख-दुःख बाँटकर, अपने आप को विनम्र बना सकता है, जबकि साथ ही, वह उस सबको नियंत्रित करता है जो है, और उस सबका भाग्य और वह दिशा निर्धारित करता है, जिस ओर उसे जाना है। इसके अलावा, वह संपूर्ण मानवजाति की नियति का मार्गदर्शन करता है, और मानवजाति की दिशा निर्देशित करता है। इस तरह के परमेश्वर की सभी जीवित प्राणियों को आराधना करनी चाहिए, उसका आज्ञापालन करना चाहिए और उसे जानना चाहिए। इस प्रकार, चाहे तुम मानवजाति में से जिस भी समूह या जिस भी प्रकार से संबंधित हो, परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, उसके शासन को स्वीकार करना, और अपनी नियति के लिए उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए और किसी भी जीवित प्राणी के लिए एकमात्र विकल्प—आवश्यक विकल्प—है। परमेश्वर की अद्वितीयता में लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धार्मिक स्वभाव, उसका सार, और वे साधन जिनके द्वारा वह सभी चीजों का भरण-पोषण करता है, सभी पूरी तरह से अद्वितीय हैं; यह अद्वितीयता स्वयं परमेश्वर की असली पहचान निर्धारित करती है, और यह उसकी हैसियत भी निर्धारित करती है। इसलिए, सभी प्राणियों के बीच, अगर आध्यात्मिक संसार में या मनुष्यों के बीच कोई जीवित प्राणी परमेश्वर की जगह खड़ा होने की इच्छा करता है, तो सफलता वैसे ही असंभव होगी, जैसे कि परमेश्वर का रूप धरने का कोई प्रयास। यह तथ्य है। इस तरह के सृष्टिकर्ता और शासक की, जिसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान, सामर्थ्य और हैसियत है, मानवजाति से क्या अपेक्षाएँ हैं? यह हर एक को स्पष्ट होना चाहिए, और हर एक द्वारा याद रखा जाना चाहिए; यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 196

परमेश्वर के प्रति मानवजाति के विभिन्न रवैये

लोग परमेश्वर के प्रति जैसा बरताव करते हैं, वह उनकी नियति निर्धारित करता है, और यह भी कि परमेश्वर उनके साथ कैसा बरताव करेगा और उनसे कैसे निपटेगा। यहाँ पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बरताव करते हैं। आओ, हम इस बारे में सुनें और देखें कि उनका ढंग और रवैया, जिससे वे परमेश्वर के सामने आचरण करते हैं, सही हैं या नहीं। आओ, हम निम्नलिखित सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें :

1) एक प्रकार के व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से बेतुका होता है। ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर किसी बोधिसत्व या मानव-विद्या वाले पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब भी वे लोग आपस में मिलें तो तीन बार उसके सामने झुकें और प्रत्येक भोजन के बाद अगरबत्ती जलाएँ। नतीजतन, जब भी वे उसके अनुग्रह के प्रति अत्यधिक आभारी महसूस करते हैं और उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं, तो अकसर उनके अंदर इस तरह का आवेग उमड़ता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं, वह उस पवित्र प्राणी की तरह जिसकी वे अपने मन में लालसा रखते हैं, मिलने पर तीन बार झुकने और प्रत्येक भोजन के बाद अगरबत्ती जलाने का उनका तरीका स्वीकार कर पाए।

2) कुछ लोग परमेश्वर को उस जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं, जो सभी जीवितों के कष्ट हरने और उन्हें बचाने में सक्षम है; वे उसे उस जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं, जो उन्हें दुःख के सागर से दूर ले जाने में सक्षम है। परमेश्वर में इन लोगों का विश्वास बुद्ध के रूप में उसकी आराधना करना है। हालाँकि वे अगरबत्ती नहीं जलाते, बंदगी नहीं करते, भेंटें नहीं चढ़ाते, लेकिन हृदय की गहराई में यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर बस वैसा बुद्ध है, जो केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और परोपकारी हों, किसी जीवित प्राणी को न मारें, दूसरों को गाली देने से बचें, ईमानदार प्रतीत होने वाला जीवन जीएँ, और कोई बुरा काम न करें। वे मानते हैं कि वह उनसे केवल इन्हीं चीजों की अपेक्षा करता है; उनके हृदय में यही परमेश्वर है।

3) कुछ लोग परमेश्वर की आराधना ऐसे करते हैं, मानो वह कोई महान या प्रसिद्ध व्यक्ति हो। उदाहरण के लिए, वह महान व्यक्ति जिस भी तरह से बोलना पसंद करे, जिस भी लय में बोले, जिन भी शब्दों और जिस भी शब्दावली का उपयोग करे, उसका लहजा, उसके हाथ के संकेत, उसकी राय और कार्यकलाप, उसका आचरण—वे उस सबकी नकल करते हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान उनमें पूरी तरह से उत्पन्न हो जाती हैं।

4) कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, उन्हें लगता है कि वह सबसे ऊपर है, और कोई उसका अपमान करने का साहस नहीं करता—और अगर कोई ऐसा करता है, तो उस व्यक्ति को दंडित किया जाएगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना इसलिए करते हैं, क्योंकि सम्राट उनके हृदय में एक खास जगह रखते हैं। उनके विचार, तौर-तरीके, अधिकार और प्रकृति—यहाँ तक कि उनकी रुचियाँ और व्यक्तिगत जीवन—यह सब-कुछ ऐसा बन जाता है, जिसे समझना इन लोगों को आवश्यक लगता है; वे ऐसे मुद्दे और मामले बन जाते हैं, जिनके बारे में वे चिंतित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास हास्यास्पद है।

5) कुछ लोगों की परमेश्वर के अस्तित्व में एक विशेष आस्था होती है और यह आस्था गहन और अटल होती है। चूँकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान बहुत उथला होता है और उन्हें उसके वचनों का ज्यादा अनुभव नहीं होता, इसलिए वे उसकी आराधना एक मूर्ति के रूप में करते हैं। यह मूर्ति ही उनके हृदय में परमेश्वर होती है; यह कुछ ऐसी होती है जिससे उन्हें लगता है कि उन्हें डरना चाहिए और जिसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण करना चाहिए। वे परमेश्वर को एक ऐसी मूर्ति के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें जीवनभर अनुसरण करना चाहिए। वे उस लहजे की नकल करते हैं जिसमें परमेश्वर बोलता है, और बाहरी तौर पर वे उन लोगों की नकल करते हैं, जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अकसर ऐसे काम करते हैं, जो सरल, शुद्ध और ईमानदार प्रतीत होते हैं, यहाँ तक कि वे इस मूर्ति का एक ऐसे साझेदार या साथी के रूप में अनुसरण करते हैं, जिससे वे कभी अलग नहीं हो सकते। उनके विश्वास का रूप ऐसा ही होता है।

6) एक प्रकार के लोग ऐसे होते हैं, जो परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़ने और बहुत उपदेश सुनने के बावजूद अपने हृदय की गहराई से यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार के पीछे उनका एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामदी होना चाहिए, या उस तरह से उसकी स्तुति और सराहना करनी चाहिए जो अवास्तविक हो। वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है, जो चाहता है कि वे इस तरह से व्यवहार करें। इसके अलावा, वे मानते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो वे किसी भी समय उसका क्रोध भड़का सकते हैं, या गलती से उसके विरुद्ध पाप कर सकते हैं, और इस तरह पाप करने के परिणामस्वरूप परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा। उनके हृदय में इसी तरह का परमेश्वर होता है।

7) और फिर अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो परमेश्वर में आध्यात्मिक पोषण ढूँढ़ते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे इस संसार में रहते हैं, वे शांति या आनंद से रहित हैं, और उन्हें कहीं आराम नहीं मिलता। जब उन्हें परमेश्वर मिल जाता है, तो उसके वचनों को देखने-सुनने के बाद वे अपने हृदय में गुप्त आनंद और उल्लास पाने लगते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे मानते हैं कि उन्होंने आखिरकार एक ऐसी जगह खोज ली है, जो उनकी आत्मा को प्रसन्न करेगी, और उन्होंने आखिरकार ऐसा परमेश्वर प्राप्त कर लिया है, जो उन्हें आध्यात्मिक पोषण देगा। परमेश्वर को स्वीकार कर लेने और उसका अनुसरण शुरू करने के बाद वे खुश हो जाते हैं, और उनका जीवन संतुष्ट हो जाता है। इसके बाद वे अविश्वासियों की तरह व्यवहार नहीं करते जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन में उत्सुकता से प्रतीक्षा करने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर उनकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को बहुत हद तक पूरा कर सकता है और उनके मन और आत्मा, दोनों में एक बड़ा सुख ला सकता है। अनजाने ही वे इस परमेश्वर को छोड़ने में असमर्थ हो जाते हैं, जो उन्हें ऐसा आध्यात्मिक पोषण देता है, और जो उनकी आत्मा और पूरे परिवार के लिए प्रसन्नता लाता है। वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास को आध्यात्मिक पोषण से ज्यादा कुछ लाने की जरूरत नहीं है।

क्या तुममें से कोई परमेश्वर के प्रति ये उपर्युक्त विभिन्न रवैये रखता है? (हाँ।) अगर परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में किसी व्यक्ति के हृदय में इनमें से कोई रवैया हो, तो क्या वह सच में परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ है? अगर किसी के हृदय में इसमें से कोई रवैया है, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या ऐसा व्यक्ति स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास करता है? (नहीं।) चूँकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम किसमें विश्वास करते हो? तुम जिसमें विश्वास करते हो, अगर वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी मूर्ति में, या किसी महान आदमी में, या किसी बोधिसत्व में विश्वास करते हो, या फिर तुम अपने हृदय में स्थित बुद्ध की आराधना करते हो। इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार के विश्वास और रवैयों की वजह से लोग अपनी अनुभूति के परमेश्वर को अपने हृदय में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपने रवैये और कल्पनाएँ रखते हैं, और इसके बाद वे उन्हें प्रतिष्ठापित करने के लिए पकड़ लेते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार के अनुचित रवैये रखते हैं, तो इसका क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को नकार दिया है और एक नकली परमेश्वर की आराधना कर रहे हैं; यह संकेत देता है कि परमेश्वर में विश्वास करते हुए वे उसे अस्वीकार कर रहे हैं और उसका विरोध कर रहे हैं, और वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं। अगर लोग इस प्रकार के विश्वास बनाए रखेंगे, तो उन्हें किन परिणामों का सामना करना पड़ेगा? इस प्रकार के विश्वासों के साथ क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के निकट आ पाएँगे? (नहीं, वे नहीं आ पाएँगे।) इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण वे परमेश्वर के मार्ग से और भी दूर भटक जाएँगे, क्योंकि वे जिस दिशा की खोज करते हैं, वह उस दिशा से ठीक विपरीत है जिसमें परमेश्वर चाहता है कि वे जाएँ। क्या तुम लोगों ने कभी “रथ उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाने” की कहानी सुनी है? यह ठीक उत्तर की ओर रथ चलाकर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। अगर लोग परमेश्वर में इस बेढंगे तरीके से विश्वास करेंगे, तो तुम जितनी अधिक कोशिश करोगे, उतना ही परमेश्वर से अधिक दूर हो जाओगे। इसलिए मैं तुम लोगों को यह चेतावनी देता हूँ : इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, यह देख लो कि तुम सही दिशा में जा रहे हो या नहीं? अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करो, और स्वयं से यह पूछना निश्चित करो, “क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ, वह सभी चीजों का शासक है? क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ, वह मात्र ऐसा है जो मुझे आध्यात्मिक पोषण देता है? क्या वह मेरी मूर्ति मात्र है? यह परमेश्वर, जिसमें मैं विश्वास करता हूँ, मुझसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर वह सब अनुमोदित करता है, जो मैं करता हूँ? क्या मेरे सभी कार्य और गतिविधियाँ परमेश्वर को जानने की खोज के अनुरूप हैं? क्या वे मुझसे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है? क्या जिस मार्ग पर मैं चलता हूँ, वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और अनुमोदित है? क्या वह मेरी आस्था से संतुष्ट है?” तुम्हें अकसर और बार-बार अपने आप से ये प्रश्न पूछने चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो, तो परमेश्वर को संतुष्ट करने में सफल हो सकने के लिए पहले तुम्हारे पास एक स्पष्ट चेतना और स्पष्ट उद्देश्य होने चाहिए।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 197

वह रवैया जो परमेश्वर चाहता है कि मानवजाति उसके प्रति रखे

वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता—या कम से कम, वह उतनी अपेक्षा नहीं करता, जितनी लोग कल्पना करते हैं। अगर परमेश्वर ने कोई वचन न कहे होते, या अगर उसने अपना स्वभाव या कर्म व्यक्त नहीं किए होते, तो परमेश्वर को जानना तुम लोगों के लिए बहुत कठिन होता, क्योंकि लोगों को उसके इरादों और इच्छा का अनुमान लगाना पड़ता; ऐसा करना बहुत कठिन होता। लेकिन, अपने कार्य के अंतिम चरण में परमेश्वर ने बहुत-से वचन कहे हैं, बहुत-सा कार्य किया है, और मनुष्य से कई अपेक्षाएँ की हैं। उसने अपने वचनों में, और अपने कार्य की बड़ी मात्रा में लोगों को बता दिया है कि वह किसे पसंद करता है, किससे घृणा करता है, और उन्हें किस प्रकार का मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद लोगों के हृदय में परमेश्वर की अपेक्षाओं की सटीक परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे अस्पष्ट रूप से परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, न अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और न ही वे अस्पष्टता और शून्यता के बीच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। इसके बजाय, वे उसके कथन सुनने में समर्थ हैं, उसकी अपेक्षाओं के मानक समझने और उन्हें प्राप्त करने में समर्थ हैं, और परमेश्वर लोगों को वह सब बताने में मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है, जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज, अगर लोग अभी भी नहीं जानते कि परमेश्वर क्या है और उसकी उनसे क्या अपेक्षाएँ हैं; अगर वे नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए, न ही यह कि परमेश्वर में विश्वास या उससे व्यवहार कैसे करना चाहिए—तो इसमें एक समस्या है। ... परमेश्वर की मनुष्य से, और जो उसका अनुसरण करते हैं उनसे, सही अपेक्षाएँ निम्नानुसार हैं। अपना अनुसरण करने वालों से उसकी पाँच अपेक्षाएँ हैं : सच्चा विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण, पूर्ण समर्पण, सच्चा ज्ञान और हार्दिक आदर।

इन पाँच बातों में परमेश्वर चाहता है कि लोग अब उस पर सवाल न उठाएँ, और न ही अपनी कल्पनाओं या अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोणों का उपयोग करके उसका अनुसरण करें; उन्हें किन्हीं कल्पनाओं या धारणाओं के आधार पर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहिए। वह चाहता है कि उसका अनुसरण करने वाले सभी पूरी वफादारी से अनुसरण करें, न कि आधे-अधूरे मन से या बिना किसी प्रतिबद्धता के। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, तुम्हारा परीक्षण करता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुमसे निपटता है और तुम्हारी काट-छाँट करता है, या तुम्हें अनुशासित करता है और तुम पर प्रहार करता है, तो तुम्हें उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, शर्तें नहीं रखनी चाहिए, तर्क तो बिलकुल नहीं करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्ण होनी चाहिए। परमेश्वर संबंधी ज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका लोगों में सबसे ज्यादा अभाव है। वे अकसर परमेश्वर पर ऐसी कहावतें, कथन और वचन थोप देते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, और विश्वास करते हैं कि ये वचन परमेश्वर सबंधी ज्ञान की सबसे सटीक परिभाषा हैं। वे नहीं जानते कि ये कहावतें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क और अपने ज्ञान से आती हैं, परमेश्वर के सार से जरा-सा भी संबंध नहीं रखतीं। इसलिए, मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ कि जब उस ज्ञान की बात आती है जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में हो, तो वह सिर्फ यह नहीं कहता कि तुम उसे और उसके वचनों को पहचानो, बल्कि यह भी कहता है कि परमेश्वर संबंधी तुम्हारा ज्ञान सही हो। भले ही तुम केवल एक वाक्य ही बोल सको, या केवल थोड़ा-सा ही जानते हो, लेकिन यह थोड़ा-सा जानना सही और सच्चा हो, और स्वयं परमेश्वर के सार के अनुरूप हो। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर अपनी किसी अवास्तविक और अविचारित स्तुति या सराहना से घृणा करता है। इससे भी अधिक, जब लोग उससे हवाई बरताव करते हैं, तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर संबंधी विषयों की चर्चा के दौरान लोग तथ्यों की परवाह न करते हुए बात करते हैं, मनमाना और बेझिझक बोलते हैं, जैसा उन्हें ठीक लगे वैसा बोलते हैं, तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे नफरत करता है, जो यह मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं और उससे संबंधित अपने ज्ञान की डींगें मारते हैं, उससे संबंधित विषयों पर बिना किसी रोक-टोक के चर्चा करते हैं। उपर्युक्त पाँच अपेक्षाओं में से अंतिम अपेक्षा हार्दिक आदर करना थी : यह परमेश्वर की उनसे परम अपेक्षा है, जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी को परमेश्वर का सही और सच्चा ज्ञान होता है, तो वह परमेश्वर का सच में आदर करने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है। यह आदर उसके हृदय की गहराई से आता है; यह आदर स्वेच्छा से दिया जाता है, परमेश्वर द्वारा डाले गए दबाव के परिणामस्वरूप नहीं। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम उसे किसी अच्छे रवैये, आचरण या बाहरी व्यवहार का कोई उपहार दो; बल्कि वह चाहता है कि तुम अपने हृदय की गहराई से उसका आदर करो और उसका भय मानो। यह आदर तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बदलाव होने, परमेश्वर संबंधी ज्ञान और परमेश्वर के कर्मों की समझ प्राप्त करने, परमेश्वर का सार समझने और तुम्हारे द्वारा इस तथ्य को स्वीकार करने के परिणामस्वरूप आता है कि तुम परमेश्वर के प्राणियों में से एक हो। इसलिए, आदर को परिभाषित करने के लिए “हार्दिक” शब्द का उपयोग करने में मेरा लक्ष्य यह है कि मनुष्य यह समझें कि परमेश्वर के लिए उनका आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।

अब उन पाँच अपेक्षाओं पर विचार करें : क्या तुम लोगों में से कोई पहली तीन अपेक्षाएँ पूरी करने में सक्षम है? इसके द्वारा मैं सच्चे विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण और पूर्ण समर्पण का उल्लेख कर रहा हूँ। क्या तुम लोगों में से कोई इन चीजों में सक्षम है? मैं जानता हूँ कि अगर मैंने पाँचों अपेक्षाएँ कही होतीं, तो निस्संदेह तुम लोगों में से कोई सक्षम न होता, लेकिन मैंने संख्या घटाकर तीन कर दी है। इस बारे में सोचो कि तुम लोग ये चीजें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या “सच्चा विश्वास” प्राप्त करना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) यह आसान नहीं है, क्योंकि लोग प्रायः परमेश्वर पर प्रश्न उठाते हैं। और “निष्ठापूर्ण अनुसरण” के बारे में क्या विचार है? इस “निष्ठापूर्ण” का क्या अर्थ है? (अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूरे मन से।) अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूरे मन से। तुमने बिलकुल सही कहा! तो क्या तुम लोग यह अपेक्षा पूरी करने में सक्षम हो? तुम्हें और कड़े प्रयास करने होंगे, है न? फिलहाल, तुम्हारा यह अपेक्षा पूरी करने में सफल होना बाकी है! “पूर्ण समर्पण” के बारे में क्या खयाल है—क्या तुमने इसे पा लिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी नहीं पाया है। तुम बार-बार अवज्ञाकारी और विद्रोही हो जाते हो; तुम प्रायः सुनते नहीं, आज्ञापालन नहीं करना चाहते, या सुनना नहीं चाहते। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें जीवन में प्रवेश करने के बाद लोग पूरा करते हैं, लेकिन तुम लोगों को अभी उन्हें पूरा करना बाकी है। इस प्रकार, फिलहाल क्या तुम लोगों में अपार संभावना है? आज मेरे ये वचन सुनने के बाद, क्या तुम लोग चिंतित महसूस करते हो? (हाँ!) यह सही है कि तुम्हें चिंतित महसूस करना चाहिए। चिंतित होने से बचने की कोशिश मत करना। तुम लोगों की ओर से मैं चिंतित महसूस करता हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं में नहीं जाऊँगा; निस्संदेह यहाँ कोई भी उन्हें पूरा करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुम लोगों ने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हें किन लक्ष्यों के साथ और किस दिशा में खोज करनी चाहिए और अपने प्रयास समर्पित करने चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ : जब तुम ये पाँच अपेक्षाएँ पूरी कर लोगे, तब तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर लोगे। उनमें से प्रत्येक अपेक्षा एक संकेतक है, और साथ ही, व्यक्ति के जीवन में प्रवेश की परिपक्वता का अंतिम लक्ष्य भी। यहाँ तक कि अगर मैंने इन अपेक्षाओं में से एक भी विस्तार से बोलने के लिए चुनी होती और तुमसे उसे पूरा करने की अपेक्षा की होती, तो उसे प्राप्त करना भी आसान न होता; तुम्हें एक निश्चित मात्रा में कठिनाई झेलनी होगी और एक निश्चित मात्रा में प्रयास करने होंगे। तुम लोगों की मानसिकता कैसी होनी चाहिए? वैसी ही, जैसी कैंसर के उस मरीज की होती है, जो ऑपरेशन-टेबल पर जाने की प्रतीक्षा कर रहा होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हो और अगर तुम परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हो और उसकी संतुष्टि हासिल करना चाहते हो, तो जब तक तुम एक निश्चित मात्रा में कष्ट सहन नहीं करते और एक निश्चित मात्रा में प्रयास नहीं करते, तब तक तुम ये चीजें प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे। तुम लोगों ने बहुत उपदेश सुना है, लेकिन सिर्फ उसे सुनने का यह मतलब नहीं कि वह उपदेश तुम्हारा है; तुम्हें उसे आत्मसात करना चाहिए और ऐसी वस्तु में रूपांतरित करना चाहिए, जो तुम्हारी हो। तुम्हें उसे अपने जीवन में आत्मसात करना होगा, और अपने अस्तित्व में लाना होगा, तुम्हें इन वचनों और उपदेश को अपनी जीवन-शैली का मार्गदर्शन करने देना होगा, और अपने जीवन में अस्तित्वगत मूल्य और अर्थ लाने देना होगा। जब ऐसा होगा, तब तुम्हारा इन वचनों को सुनना सार्थक हो जाएगा। अगर मेरे द्वारा बोले गए वचन तुम्हारे जीवन में कोई सुधार नहीं लाते या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं जोड़ते, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता। तुम लोग इसे समझते हो, है न? इसे समझने के बाद, आगे क्या होता है, यह तुम लोगों पर है। तुम लोगों को काम में लग जाना चाहिए! तुम्हें सभी बातों में ईमानदार होना चाहिए! भ्रम में मत रहो; समय तेजी से गुजर रहा है! तुम लोगों में से अधिकतर लोग पहले ही दस साल से भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हैं। इन पिछले दस सालों को मुड़कर देखो : तुम लोगों ने कितना पाया है? और इस जीवन के और कितने दशक तुम्हारे पास बचे हैं? तुम्हारे पास ज्यादा समय नहीं बचा है। इस बारे में भूल जाओ कि परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है या नहीं, उसने तुम्हारे लिए कोई अवसर छोड़ा है या नहीं, या वह वही कार्य पुनः करेगा या नहीं—इन चीजों के बारे में बात मत करो। क्या तुम अपने जीवन के पिछले दस वर्षों का समय पलट सकते हो? हर गुजरते दिन और तुम्हारे द्वारा उठाए गए हर कदम के साथ तुम्हारे पास एक दिन कम हो जाता है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता! तुम परमेश्वर में अपनी आस्था से केवल तभी कुछ प्राप्त करोगे, जब तुम उसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज, यहाँ तक कि भोजन, कपडे या किसी भी अन्य चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण समझोगे। अगर तुम केवल तभी विश्वास करते हो जब तुम्हारे पास समय होता है, और अपनी आस्था के प्रति अपना पूरा ध्यान समर्पित करने में असमर्थ रहते हो, और अगर तुम हमेशा भ्रम में पड़े रहते हो, तो तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

पिछला: परमेश्वर को जानना IV

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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