42. ईर्ष्या छोड़ी आराम से साँस ली

अंजिंग, चीन

जनवरी 2017 में, मुझे कलीसिया में सिंचन का कर्तव्य सौंपा गया। इस कर्तव्य में प्रशिक्षण का मौका पाकर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना, मैंने इसे ध्यानपूर्वक और अच्छे ढंग से निभाने का संकल्प लिया। कुछ समय बाद, भाई-बहनों की दशा सुधारने में उनकी मदद करने का काम हो या सभाओं में उनके साथ संगति करने का, मुझे कुछ अच्छे परिणाम हासिल हुए। मेरे बारे में मेरे भाई-बहनों और कलीसिया के अगुआओं की अच्छी राय थी। मैं अपने अच्छे काम से काफी खुश थी।

जून में, कलीसिया के अगुआओं ने इस काम में मेरे साथ काम करने के लिए बहन वेनजिंग को लगा दिया और ज़रूरत होने पर मुझसे बहन की मदद करने को कहा, इसके लिए मैं खुशी-खुशी राजी हो गयी। साथ में काम करते हुए मैंने पाया कि बहन वेनजिंग सत्य का अनुसरण करती है, उसकी काबिलियत और वाक्पटुता बहुत अच्छी है। यह देखकर मैं उससे थोड़ी सावधान हो गयी। मैं सोचने लगी : "थोड़े और प्रशिक्षण के बाद यह मुझसे आगे निकल जाएगी। हमारे भाई-बहन यकीनन इसका आदर करने लगेंगे, अगुआ इसकी प्रतिभा का पोषण करने में ज़्यादा समय बितायेंगे, और फिर कोई भी मेरा सम्मान नहीं करेगा।" जिसका मुझे डर था आखिरकार वही हो गया। एक दिन एक सभा के बाद, मैं अपनी और बहन वेनजिंग द्वारा लिखी गयी अनुभव गवाहियाँ देने के लिए कलीसिया की एक अगुआ से मिलने गयी। पढ़ने के बाद, मेरी कलीसिया की अगुआ मुस्करा कर बोलीं, "बहन वेनजिंग की गवाही और लेख बुरे नहीं हैं। इनमें कुछ व्यावहारिक अनुभव हैं, वह बहुत अच्छा लिखती है।" उनसे बहन वेनजिंग की ऐसी तारीफ़ सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने मन-ही-मन सोचा : "बहन वेनजिंग बहुत काबिल है, यह सही है। लेकिन काम में मैंने उससे ज़्यादा समस्याएँ सुलझायी हैं। इस मामले में मैं अभी भी उससे बेहतर हूँ। मुझे और कड़ी मेहनत करनी होगी—मैं उसे अपने से आगे नहीं निकलने दे सकती, वरना मैं अपना पद गँवा दूंगी।"

कुछ दिन बाद, बहन वेनजिंग ने एक और अनुभव गवाही लिखी। हमारी कलीसिया की अगुआ ने उसे पढ़ा, और फिर एक बार बहन वेनजिंग की काबिलियत और उस सकारात्मकता की तारीफ़ की, उन्होंने मुझे अपने लेख पर और अधिक ध्यान देने को कहा। उनकी बात सुनकर मैं तिलमिला उठी, यह सोच कर अगुआ को दोष देने लगी : "आप हमेशा वेनजिंग की काबिलियत को बहुत बढ़िया बताते हुए नहीं अघातीं। क्या वह मुझसे हर चीज़ में बेहतर है? बहन वेनजिंग को सिर्फ थोड़े-से सभा-स्थलों में भाग लेना पड़ता है, इसलिए उसके पास लेख लिखने के लिए बहुत समय बचता है। अगर मैं कलीसिया के काम में व्यस्त न होती, तो मेरे पास भी लेख लिखने का बहुत खाली समय होता।" मैं उसकी तारीफ़ सुन-सुनकर ऊब चुकी थी, इसलिए मैंने अपनी कलीसिया की अगुआ से दो-टूक कह दिया : "मैं भी लिख सकती हूँ।" एक हफ्ते बाद, कलीसिया की एक दूसरी अगुआ ने बहन वेनजिंग की अनुभव गवाहियों को बहुत अधिक व्यावहारिक बताकर उनकी तारीफ़ की, उसे और अधिक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया, जबकि मुझे भी उनकी तरह सक्रियता से लिखने को कहा। मैं वाकई परेशान हो गयी—वह बहुत थोड़े समय से यहाँ है और उसने दो अनुभव गवाहियां लिख डाली हैं, कलीसिया की अगुआ उसकी तारीफ़ कर रही हैं। मुझे यह कर्तव्य निभाते हुए थोड़ा समय बीत चुका है लेकिन मैंने सिर्फ एक ही लिखी है—कलीसिया की अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी कि मैं अपना समय व्यवस्थित नहीं कर पा रही हूँ या मैं अपनी गवाहियां लिखने के लिए कष्ट नहीं उठाना चाहती या कीमत नहीं चुकाना चाहती? बहन वेनजिंग की बढ़िया काबिलियत के आगे मैं कमज़ोर पड़ गयी थी, और अब उसने ये लेख लिख डाले थे, इसलिए अगुआ पक्के तौर पर सोचेंगी कि वह मुझसे बेहतर है। अगर वह ऐसे ही लेख लिखती रही, तो क्या मैं और भी बदतर नहीं लगूंगी? मैंने तय कर लिया कि मुझे उसे व्यस्त रखने का रास्ता ढूँढ़ना होगा, ताकि उसे ये लेख लिखने का समय ही न मिले, और अगुआओं की नज़रों में हम दोनों में कोइ ख़ास फ़र्क न दिखे। कलीसिया में अपना रुतबा बनाये रखने के लिए, मैंने उस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया और बहुत-से संगति-बैठक समूह उसके जिम्मे कर दिये। इसके बाद हर दिन उसे बहुत व्यस्त देखकर मैंने सोचा कि उसकी कुछ जिम्मेदारियां वापस लेने की पेशकश करूँ। फिर मैंने सोचा : "अगर तुम इतनी व्यस्त नहीं रहोगी, तो तुम्हारे पास वो लेख लिखने का समय होगा। तुम्हें व्यस्त रखना ही उत्तम है।" एक शाम, मैंने उसे एक लेख लिखते देखा, तो मैंने सख्त लहजे में उससे उन सभी समूहों के काम की विस्तृत जानकारी माँगी जिनकी वह प्रभारी थी, तब मुझे पता चला कि कुछ नये विश्वासियों की समस्याएँ नहीं सुलझायी गयी थीं। मैंने उसे डांटकर कहा कि वह अपने काम पर ध्यान नहीं दे रही है। मेरी फटकार के बाद, उसने अपना सिर झुका लिया और कुछ नहीं कहा।

एक महीने बाद, कलीसिया की एक अगुआ ने देखा कि बहन वेनजिंग उन समूहों के साथ ज़्यादा कामयाबी हासिल नहीं कर पायी है, जिनकी ज़िम्मेदारी उसके पास है, कुछ समस्याएँ रह गयी हैं, जिन्हें उसने नहीं सुलझाया है, तब उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि आखिर क्या चल रहा है। मैंने मन-ही-मन सोचा : "उसके बारे में आपकी राय बहुत ऊँची है, लेकिन अब आप जान गयी हैं कि वह अपने काम में ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर पायी है, इसलिए अब आप उसके बारे में बहुत ऊँची राय नहीं रखेंगी!" लेकिन, मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि उन्होंने मुझसे उसकी और अधिक मदद करने को कहा! मैं इस बात के खिलाफ थी। मैंने सोचा, "आप सिर्फ बहन वेनजिंग के बारे में सोचती हैं। उसकी काबिलियत मुझसे बेहतर है। अगर मैं उसकी मदद करती रही, तो आखिरकार वह मेरी जगह ले लेगी।" मैंने बहाने बनाना शुरू कर दिया, लेकिन कलीसिया की अगुआ ने मेरी स्थिति भाँप ली। उन्होंने मेरी स्वार्थपरता और नीचता को उजागर कर दिया और कहा कि मैं परमेश्वर के घर के कार्य का मान नहीं रख रही हूँ। उन्होंने यह भी कहा कि बहन वेनजिंग की काबिलियत बहुत बढ़िया है और वह प्रशिक्षण के लायक है, मुझे उसके साथ संगति करके उसकी और अधिक मदद करनी चाहिए, मुझे सिर्फ अपने रुतबे और शोहरत की फ़िक्र नहीं करनी चाहिए। बाद में, मैंने मजबूरन ही बहन वेनजिंग से पूछा कि क्या उसे अपने काम में कोई मुश्किल पेश आ रही है। मैंने देखा कि वह मेरे कारण लाचार है और मुझसे खुलकर कुछ नहीं कहना चाहती। यह देखकर मुझे आत्मचिंतन करने के बारे में सोचना चाहिए था, लेकिन मैं उसे पसंद नहीं करती थी, मैंने मन-ही-मन सोचा : "मैंने तो उसकी मदद करने की कोशिश की, लेकिन वह कुछ बताना ही नहीं चाहती।" धीरे-धीरे मेरी आत्मा काली होती चली गयी। कलीसिया के कार्य की चर्चा करते समय, मैं बहुत-सी जाहिर समस्याओं की अनदेखी कर देती। उस पर मेरी जितनी नज़र पड़ती, मैं उसकी मौजूदगी से उतनी ही नाराज़ हो जाती। एक दिन मैंने उसे कोई गलती करते हुए देखा, मैं नाराज़ हो गयी, और उसे सख्ती से फटकार कर कहा, "हमने इस समस्या पर पहले ही चर्चा कर ली है, तुमने इसे अभी तक नहीं सुलझाया। लेख लिखते समय तो तुम बहुत ध्यान देती हो—लेकिन निराशा की बात है यह कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम ऐसा नहीं कर पाती!" इसके बाद, बहन वेनजिंग मेरे कारण बहुत लाचार महसूस करने लगी, और फिर उसने गवाहियां लिखने की हिम्मत नहीं की। मैं जान गयी थी कि मैंने उसका दिल दुखाया है, लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकती थी—मैं न चाह कर भी उस पर नाराज़ हो जाती थी। मेरा दिल भी दुखी था, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे इस स्थिति से बाहर निकाले।

अगले दिन, एक सभा के दौरान, बहन वेनजिंग ने कहा कि उसे लगता है कि उसमें बहुत ज़्यादा खामियां हैं, वह यह कर्तव्य निभाने योग्य नहीं है और पहले वाले काम पर लौट जाना चाहती है। यह सुनकर, मैंने तुरंत सोचा : "क्या यह सब उस पीड़ा के कारण है जो मैंने उसे दी है? अगर यह सच है, तो मैंने सचमुच कुछ बुरा किया है।" मैं थोड़ा भयभीत हो गयी। मैंने उससे इन सबका कारण जानना चाहा, और उसकी मदद करने के लिए परमेश्वर की इच्छा के बारे में संगति की। उसके साथ संगति करने से उसके हाल में बहुत सुधार हुआ और मुझे बड़ी राहत मिली जब उसने कहा कि वह इस कर्तव्य को निभाते रहने की इच्छुक है। तभी, कलीसिया की एक अगुआ वहां आयीं। जब उन्हें पता चला कि मैं बहन वेनजिंग को बेबस कर रही थी और वेनजिंग मेरे साथ काम नहीं करना चाहती थी, तो वे मेरे साथ सख्ती से निपटीं। उन्होंने कहा, "जब तुम उसको कुछ गलत करते हुए देखती हो तो तुम उसके साथ शांति से संगति क्यों नहीं कर सकती? क्यों नहीं उसकी मदद कर सकती? इसके बजाय तुम नाराज होकर उससे बुरे ढंग से पेश आती हो। तुम्हारे काम के परिणाम भी पिछले दिनों बहुत बुरे रहे हैं—तुम्हें ईमानदारी से आत्मचिंतन करना चाहिए।" उनकी बात मेरे दिल में चुभ गयी। मेरी आँखों में आंसू आ गये, मुझे महसूस हुआ कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं विरोध करने लगी : "अगर हाल के दिनों में काम में सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा था, तो ऐसा सिर्फ मेरी वजह से नहीं हुआ—सिर्फ मेरे साथ ही सख्ती से क्यों निपटा गया?" फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : "यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख़्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता को प्रकट करने के लिए या तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। यह सच था—परमेश्वर की अनुमति से ही मेरा इन सब लोगों, घटनाओं और चीज़ों से सामना हो रहा था। ऐसा नहीं है कि कलीसिया की अगुआ जानबूझ कर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थीं; मेरा स्वभाव ही भ्रष्ट है, जिसे मुझे आत्मचिंतन कर ठीक करना चाहिए। मुझे बहाने बनाना और शिकायत करना बंद कर देना चाहिए—जो भी घट रहा है उसे मुझे आज्ञाकारी हृदय के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा सोचने पर, घटी हुई घटनाओं को लेकर मेरी शिकायत थोड़ी कम हो गयी।

उस रात मैं सो नहीं पायी। मैं बिस्तर पर पड़ी करवट बदलती रही, उस दिन की हर घटना मेरे दिमाग में बार-बार एक फिल्म की तरह चलती रही। मैं खुद से पूछती रही : "अगर परमेश्वर ने यह व्यवस्था की कि कलीसिया की अगुआ मुझसे निपटे और मेरी काँट-छाँट करें, तो मुझे इससे क्या सीख लेनी चाहिए? मैं बहन वेनजिंग के साथ किस तरह पेश आ रही थी?" मैं अच्छी तरह जानती थी कि उसकी काबिलियत अच्छी है, लेकिन मैंने उससे सीखने के बजाय—उससे स्पर्धा करने की कोशिश की। वह परमेश्वर की गवाही देने वाले लेख लिखना चाहती थी, लेकिन मैंने ऐसे लेख लिखने के उसके उत्साह को ख़त्म कर देने की कोशिश की थी। मैंने इतना दुष्ट काम कैसे किया? इसके पीछे मेरी सोच क्या थी, और कहाँ से मिली?

अगले दिन, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनकी प्रसिद्धि को चुरा लेंगे और उनसे आगे निकल जाएंगे, अपनी पहचान बना लेंगे जबकि उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! सिर्फ़ खुद के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, और सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचना और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो, और वह व्यक्ति एक प्रतिभाशाली इंसान बन जाता है, जिससे परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रवेश होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह पूरा किया है? तब क्या तुम अपने कर्तव्य के निर्वहन में वफ़ादार नहीं रहे हो? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है, यह एक तरह का विवेक और सूझ-बूझ है जो इंसानों में होनी चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दुष्टों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। परमेश्वर के वचनों में जो कहा गया था वह बिल्कुल मेरा अपना ही हाल था। यह स्पष्ट हो गया कि मैं अपनी बहन के साथ पहचान और शोहरत के लिए होड़ लगा रही थी। मैं शोहरत और रुतबे की अपनी आकांक्षा के जाल में फंस गयी थी और इसमें से बाहर नहीं निकल पा रही थी। जब से मैंने इस कार्य में बहन वेनजिंग के साथ काम करना शुरू किया और अनुभव गवाहियाँ लिखने की उसकी काबिलियत और जूनून को देखा, कलीसिया की अगुआओं द्वारा उसकी तारीफ़ होते देखा, तो मैं ईर्ष्यालु होकर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हो पायी। मैं खुद को उसकी प्रतियोगी बना रही थी, मैं मन-ही-मन उससे स्पर्धा कर रही थी। मैंने उसे बहुत-से बैठक समूहों का प्रभारी बना दिया, ताकि उसे लेख लिखने का समय न मिल सके, और जब उसके कर्तव्य में समस्याएँ खड़ी होने लगीं, तो न सिर्फ मैंने उसकी मदद नहीं की, बल्कि मैंने उसे डांट भी लगायी, इस हद तक कि वह निष्क्रिय और लाचार हो गयी। मुझे पता था कि उसकी काबिलियत अच्छी है, वह प्रशिक्षण के लायक है, और मुझे उसकी और अधिक मदद करनी चाहिए। लेकिन मैं उसकी काबिलियत से जलती थी, मैं नहीं चाहती थी कि कोई दूसरा मुझसे बेहतर हो। जब मुझे एहसास हुआ कि वह मुझसे बेहतर है, तो मैं ईर्ष्यालु और द्वेषपूर्ण हो गयी। अपने रुतबे और शोहरत को बनाये रखने के लिए, न सिर्फ मैंने उसकी मदद नहीं की, बल्कि मैंने उसका दमन किया और लेख लिखने के उसके उत्साह को नष्ट करने की कोशिश की। मैं बहुत दुर्भावनापूर्ण और घृणायोग्य थी! परमेश्वर ने मुझ पर कृपा की थी, सिंचन कार्य में प्रशिक्षण पाने का अवसर दिया था। लेकिन मैंने परमेश्वर के प्रेम को चुकाने के लिए अपना कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभाया, बल्कि मैं वेनजिंग की क्षमताओं से ईर्ष्या करती रही और शोहरत और फायदे के लिए उसके साथ स्पर्धा करती रही। मुझमें अंतरात्मा और समझ का पूरा अभाव था। मैं पछतावे और खुद को दोष देने में डूब गयी, तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, इस समस्या की जड़ का पता लगाने में मार्गदर्शन करने की विनती की।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके, मैं समझ पायी कि शोहरत और फायदा वो ज़ंजीरें हैं, जो शैतान हमें बांधने के लिए इस्तेमाल करता है, वो औजार हैं, जो शैतान हमें भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है। मैं शोहरत और फायदे की ज़ंजीरों और बंधनों से खुद को आज़ाद नहीं कर पायी थी, क्योंकि जीवन के मेरे उद्देश्य, विचार और नज़रिये हमेशा गलत थे। मेरा चाल-चलन परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं था, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था—मेरा चाल-चलन जीवन के शैतानी नियमों के अनुसार था, जो शैतान हमारे अंदर कूट-कूट कर भर देता है, "भीड़ से ऊपर उठो," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," और "लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए।" स्कूल की पढ़ाई हो या समाज में कार्य करना हो, मैं अव्वल बनने और भीड़ से अलग खड़े होने की अपनी आकांक्षा पूरी करने के लिए, दिन-रात शोहरत और फायदे के लिए संघर्ष करती रही। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, मैं शोहरत और रुतबे के कब्ज़े में ही जी रही थी। जब अपने कर्तव्य में भाई-बहन मेरी तारीफ़ करते और मुझे ऊंचा स्थान देते, शोहरत, फायदे और रुतबे की मेरी आकांक्षा पूरी होती, तो मैं अलग खड़े होने के उल्लास का आनंद लेती और बहुत खुश होती। लेकिन जब मैंने देखा कि बहन वेनजिंग मुझसे बेहतर है, तो मैं उसकी क्षमताओं से ईर्ष्या करने लगी थी। मुझे डर था कि वह मुझसे आगे बढ़ जाएगी और मेरे पद के लिए खतरा बन जाएगी, इसलिए परमेश्वर के घर के हितों या बहन की भावनाओं के बारे में रत्ती भर भी सोचे बिना, मैंने भरसक कोशिश की कि उसे दबाऊँ, उसका दमन करूँ। उस पल, मैं साफ़ तौर पर समझ गयी कि मैं शोहरत और फायदे की पूरी गुलाम बन चुकी हूँ, उन चीज़ों को पाने की कोशिश में मैंने अपनी अंतरात्मा और समझ गँवा दी है। मैं कपटी, दुर्भावनापूर्ण हो गयी हूँ, अधिक स्वार्थी और नीच प्रवृत्ति की होती जा रही हूँ, मैंने जो जीवन जिया वह और कुछ नहीं दानव शैतान की परछाईं है। शोहरत, फ़ायदा और रुतबा सचमुच में ऐसे औजार बन चुके थे, जिनके द्वारा शैतान ने मुझे भ्रष्ट करके परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसे धोखा देने के लिए जाल में फंसा लिया था। मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जिन्हें परमेश्वर के घर से पहले निकाल दिया गया था : उन्होंने सबसे अधिक रुतबे को महत्व दिया था। रुतबे के लिए उन्होंने अपने भाई-बहनों को दर-किनार कर उनका दमन किया था, लोगों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ दंड दिया और निकाल दिया था। अंत में, उन्होंने हर प्रकार की दुष्टता की और फिर वे हटा दिये गये। बहन वेनजिंग के प्रति अपने बर्ताव और जिस तरह से मैं उसके साथ पेश आयी, उसमें मैंने अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को प्रकट किया था, मुझे पता था कि अगर मैं परमेश्वर का न्याय और शुद्धिकरण स्वीकार न करूँ और सच्चाई से प्रायश्चित न करूँ, तो देर-सवेर, मैं भी उन मसीह-विरोधियों की तरह हटा दी जाऊंगी। मैंने समझ लिया कि मैं एक खतरनाक हालत में हूँ, मेरी आत्मा का अंधकार और मेरे कर्तव्य की विफलताएं परमेश्वर द्वारा मेरा कठोर न्याय और अनुशासन हैं। परमेश्वर की इच्छा यह थी कि मैं आत्म-चिंतन करके उस राह से पलट जाऊँ, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, मैं उस गलत राह को छोड़ दूँ, जिस पर मैं चल रही हूँ।

इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे अभ्यास के मार्ग की ओर मार्गदर्शन करने की विनती की। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "इस पर ग़ौर करें : यदि कोई व्यक्ति इन स्थितियों में फँसने से बचना चाहता है, स्वयं को इनसे बाहर निकालने में सक्षम होना चाहता है, और इन चीज़ों की दिक्कतों और इनके बंधनों से मुक्त होना चाहता है, तो उसे किस प्रकार के परिवर्तन करने चाहिए? उसे वास्तव में स्वतंत्र और मुक्त होने में सक्षम होने से पहले क्या प्राप्त करना चाहिए? एक तरफ़ तो उसे चीज़ों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए : यश, संपत्ति और पद तो केवल वे साधन और पद्धतियाँ हैं, जिन्हें शैतान लोगों को भ्रष्ट करने, जाल में फँसाने, उन्हें नुकसान पहुँचाने और उन्हें चरित्रहीन बनाने के लिए इस्तेमाल करता है। सैद्धांतिक रूप से, पहले तुम्हें इसकी स्पष्ट समझ हासिल करनी चाहिए। इतना ही नहीं, तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ना और अलग रखना सीखना चाहिए। ... तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आज़माकर देखो! अगर तुम इस तरह की स्थिति को बदलना चाहते हो, और इन चीज़ों से नियंत्रित नहीं होना चाहते हो, तो तुम्हें पहले इन चीज़ों को अलग करना होगा और इन्हें छोड़ना होगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। उनसे मैं यह समझ पायी कि जब ईर्ष्या के विचार मन में आयें, तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और अपने दोषपूर्ण इरादे को त्याग देना चाहिए, निजी हितों को छोड़ देना चाहिए, परमेश्वर के घर के कार्य को सबसे आगे रखना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए। हम सबकी अपनी खासियतें और कमज़ोरियाँ होती हैं—लेकिन परमेश्वर की इच्छा है कि हम सब दूसरों की खासियतों से सीखें और अपनी कमियों को पूरा करें, ताकि सभी अपने पद पर तैनात रहें और अपनी काबिलियत के अनुसार अपने प्रयोजन को पूरा कर सकें। बहन वेनजिंग अच्छी काबिलियत वाली थी, वह सत्य का अनुसरण करती थी। परमेश्वर के घर ने मेरे साथ काम करने के लिए उसकी व्यवस्था इसलिए नहीं की थी कि मैं उसकी क्षमताओं से ईर्ष्या करूँ और दिखावा करके उसके साथ होड़ लगाऊँ, बल्कि इसलिए कि मैं उसकी खासियतों से सीख सकूं और अपनी कमियाँ दूर कर सकूं। यह मेरे प्रति परमेश्वर की दया थी। मुझे अपना रवैया ठीक करना था; बहन वेनजिंग मुझसे बेहतर थी और उसकी अपनी खासियतें थीं, तो मुझे सच्चाई का सामना करना चाहिए, अपनी कमजोरियों और कमियों को स्वीकार करना चाहिए। मुझे बहन से सीखना चाहिए। मैं यह काम काफी समय से कर रही हूँ और सिद्धांतों को भी ज़्यादा समझती हूँ। इसलिए, मुझे अपनी बहन की मदद करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए, ताकि हम दोनों मिल-जुलकर अपना कर्तव्य निभा सकें।

बाद में मैं बहन वेनजिंग से मिली और अपने द्वारा प्रकट भ्रष्टताओं के बारे में उसे खुलकर बताया। मैंने उससे क्षमा माँगी, उसने दिल खोल कर मुझसे बात की और इस स्थिति में उसने जो कुछ सीखा उस बारे में मुझसे संगति की। उसने मुझे दिलासा दी और मुझे प्रोत्साहित किया, मैंने बहुत शर्मिंदा और दोषी महसूस किया। बाद में, जब भी मैं उसे अपने कर्तव्य में मुश्किल झेलते देखती, तो कभी-कभार सोचती : "अगर मैं इस समस्या को सुलझाने में उसकी मदद करूँगी, तो अगुआ देखेंगे कि वह बढ़िया काम कर रही है। कोई नहीं जान पायेगा कि उसकी मदद करने के लिए मैंने क्या किया। अलग दिखने और दिखावा करने का मौक़ा अकेले उसे ही मिलेगा।" इस वजह से मैं उसकी मदद करने से कतराती—लेकिन जल्दी ही मुझे समझ आ जाता कि एक बार फिर मैं उसके साथ शोहरत और फायदे के लिए स्पर्धा कर रही हूँ, तब मैं अपनी मंशाएं ठीक करने के लिए परमेश्वर की मदद की विनती करती, और फिर बहन की मदद करने की पहल करती। समय के साथ मेरी हालत सुधरती गयी। पहले मेरे दिल की गहराई में जो पीड़ा और निराशा हुआ करती थी, वह अब नहीं थी, बहन वेनजिंग के साथ भी मेरा रिश्ता अब पहले से कहीं अधिक मेलजोल का हो गया था। बहन वेनजिंग अब अपनी स्थिति या उसने जो कुछ हासिल किया उस बारे में खुलकर मेरे साथ संगति करती, मेरा दिल मिठास और उल्लास से सराबोर होने लगा।

इस अनुभव से गुज़र कर मैं अपनी ईर्ष्या और दुर्भावनापूर्ण इंसानियत की असली भ्रष्टता को पहचान सकी थी। इस वजह से मुझे खुद से घृणा हो गयी, साथ ही कुछ हद तक मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की व्यावहारिक समझ पाने में मदद मिली। इसने यह सीखने में मेरी मदद की कि अपनी इर्ष्या की ज़ंजीरों और बंधनों से कैसे बचा जाए, तब मैं परमेश्वर के वचन सत्य के अनुसार आचरण करने पर मिलने वाले सुकून और ठहराव का आनंद ले पायी। इससे मेरे अंदर सत्य का अनुसरण करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने और अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाने की इच्छा पैदा हो पायी। परमेश्वर के उद्धार का धन्यवाद!

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