प्रश्न 2: लेकिन मैंने न तो परमेश्वर को देखा है, और न ही ये देखा है कि परमेश्वर कैसे कार्य करते हैं और कैसे दुनिया पर प्रभुत्व रखते हैं। मेरे लिए परमेश्वर को समझना और स्वीकार करना मुश्किल है। इतने सालों तक धार्मिक विश्वासों का अध्ययन करने के बाद, मुझे लगता है कि धार्मिक विश्वास सिर्फ़ एक आध्यात्मिक सहारा है और मानव जाति की आध्यात्मिक शून्यता को भरने का एक साधन मात्र है। जिन्‍होंने भी परमेश्वर पर विश्वास रखा, क्या वे अंत में मर नहीं गये? किसी ने भी नहीं देखा कि कौन सा व्यक्ति स्वर्ग गया और कौन सा नरक। मैं सभी धार्मिक मान्यताओं को बहुत ही अस्पष्ट और अवास्तविक समझाता हूँ। वैज्ञानिक विकास और मनुष्य की प्रगति के साथ, हो सकता है कि धार्मिक विश्वासों को छोड़ और हटा दिया जाएगा। हमें अभी भी विज्ञान पर विश्वास करने की ज़रूरत है। केवल विज्ञान ही ऐसा सत्य और वास्तविकता है, जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। हालांकि, विज्ञान ने परमेश्वर के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया है, लेकिन यह परमेश्वर के अस्तित्व की गवाही भी नहीं देता है। अगर विज्ञान वास्तव में यह तय कर सकता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है और यह गवाही देता है कि परमेश्वर सभी चीजों पर प्रभुत्व रखते हैं, तब हम भी परमेश्वर पर विश्वास करेंगे। हम कम्युनिस्ट सिर्फ विज्ञान पर विश्वास करते हैं। केवल विज्ञान पर विश्वास करके और विज्ञान का विकास करके ही मनुष्य समाज की प्रगति जारी रहेगी। विज्ञान मनुष्य समाज की कई वास्तविक समस्याओं को हल कर सकता है। परमेश्वर पर भरोसा करके लोगों को क्या मिल रहा है? थोड़ी देर की आध्यात्मिक शांति के अलावा, इसका और क्या फायदा है? यह किसी भी व्यावहारिक समस्या को हल नहीं कर सकता। इसलिए, परमेश्वर पर विश्वास करने से विज्ञान पर विश्वास करना ज़्यादा वास्तविक है, कई गुना अधिक व्यावहारिक। हमें विज्ञान पर विश्वास करना होगा।

उत्तर: नास्तिकता सबसे अधिक विज्ञान की वकालत करती है, यहाँ तक कि विज्ञान को सत्य और धर्म समझने लगती है। अगर विज्ञान सत्य होता तो, इतने सारे वैज्ञानिक सिद्धांत कुछ समय तक अस्तित्व में रहने के बाद क्यों झूठे ठहराए गए या गलत साबित हुए? इससे पता चलता है कि विज्ञान पूरा सत्य नहीं है। क्या विज्ञान मनुष्य समाज की सबसे ज़्यादा वास्तविक समस्याओं को हल कर सकता है? क्या विज्ञान मनुष्य के भ्रष्टाचार को दूर कर सकता है? क्या विज्ञान दुनिया के अँधेरे और बुराई को मिटा सकता है? क्या विज्ञान लोगों को परमेश्वर की पहचान करा सकता है? क्या विज्ञान मानव जाति को खुशियाँ और शांति दे सकता है? अब जब विज्ञान चरम सीमा तक विकसित हो चुका है, तो इसके नतीजे क्या हैं? विज्ञान ने मानव जाति को ख़ुशी और शांति नहीं दी है। बल्कि, इसने युद्ध और विपत्तियाँ पैदा उत्पन्न की है जो मानव जाति के विनाश का ख़तरा पैदा करती हैं। पर्यावरण को नष्ट कर दिया गया है। प्राकृतिक और जैविक खाद्य-पदार्थ गायब हो गए हैं। क्या यह सच नही हैं? विज्ञान के विकास के बाद, ज़्यादा से ज़्यादा लोग विज्ञान पर विश्वास करने लगे, परमेश्वर से इन्कार और उनका विरोध करने लगे, जिस वजह से मानव जाति की तबाही बढती गई। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। ... विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम : ये मनुष्य को केवल अस्थायी सांत्वना देते हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी मनुष्य पाप करता और समाज के अन्याय का रोना रोता है। ये चीज़ें मनुष्य की अन्वेषण की लालसा और इच्छा को दबा नहीं सकतीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था और मनुष्यों के बेतुके त्याग और अन्वेषण केवल और अधिक कष्ट की ओर ही ले जा सकते हैं और मनुष्य को एक निरंतर भय की स्थिति में रख सकते हैं, और वह यह नहीं जान सकता कि मानवजाति के भविष्य या आगे आने वाले मार्ग का सामना किस प्रकार किया जाए। यहाँ तक कि मनुष्य विज्ञान और ज्ञान से भी डरने लगता है, और खालीपन के एहसास से और भी भय खाने लगता है। ... यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर के उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो वह देश या राष्ट्र पतन के मार्ग पर, अंधकार की ओर चला जाएगा, और परमेश्वर द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। जब मनुष्य विज्ञान का समर्थन करता है और उस पर विश्वास करता है, तब वह स्वाभाविक रूप से सत्य से इन्कार करेगा और परमेश्वर से इन्कार करेगा। इसका परिणाम क्या होगा? जब मनुष्य विज्ञान में विश्वास करने लगता है, तब वह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के कार्य और उद्धार को स्वीकार करने से मना करेगा, और वह परमेश्वर का विरोध भी कर सकता है। जब मनुष्य परमेश्वर को छोड़ देता है, तब उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं रहती, इसलिए मनुष्य को परमेश्वर का आशीर्वाद मिलना बंद हो जाता है। अब जबकि मनुष्य विज्ञान की वकालत करता है, बुराई का समर्थन करता है, और दुनिया के रीति-रिवाज़ों का पालन करता है, तो उसका परिणाम यह है कि मनुष्य और परमेश्वर के बीच की दूरी बढ़ती जाती है। पूरी दुनिया में अँधेरा और बुराई दिन-ब-दिन बढती जा रही है और परमेश्वर का विरोध भी बढ़ता ही जा रहा है। मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ रहे संघर्ष और युद्धों ने मानव जाति के लिए तरह-तरह की विपत्तियाँ पैदा की हैं। क्या आप कह रहे हैं कि विज्ञान मानव जाति को बुराई और पापों से बचा सकता है? क्या विज्ञान अंत के दिनों में मनुष्य को तबाही से बचा सकता है? क्या विज्ञान मनुष्य को एक अच्छी मंज़िल तक पहुँचा सकता है? ये मानव जाति के परिणाम और मंजि़ल से जुड़े कई अहम मुद्दे हैं जिन्हें विज्ञान हल नहीं कर सकता। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि विज्ञान सत्य नहीं है; वह मनुष्य को बचा नहीं सकता। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के द्वारा की गई सत्य की अभिव्यक्ति मानव जाति के उद्धार के लिए है। अगर मानव जाति सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय और शुद्धिकरण प्राप्त कर सकती है, तो वह तबाही के बीच परमेश्वर की सुरक्षा भी प्राप्त कर सकती है और परमेश्वर का राज्य आने तक बची रह सकती है। यह परमेश्वर का वादा है। मनुष्य परमेश्वर के वचन पर विश्वास कर उसे स्वीकार कर सकता हो या नहीं, फिर भी वह तबाही के अंत के बाद परमेश्वर के वचनों को पूरा होते हुए देख सकता है। लेकिन तब अफ़सोस करने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी।

"वार्तालाप" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 1: आप परमेश्वर पर कुछ सालों से ही विश्वास कर रही हैं। आप अभी भी एक नौसिखिया ही हैं। मैं अपनी ज़्यादातर ज़िंदगी गुजार चुका हूँ और दशकों तक धर्मों का अध्ययन किया है। मैं आपको ज़िम्मेदारी से बता सकता हूँ, इस दुनिया में कोई परमेश्वर नहीं है, और ना ही कोई उद्धारक है। परमेश्वर पर विश्वास करने का पूरा मामला ही बहुत उलझा हुआ है। यह पूरी तरह से अव्यावहारिक है। हम दोनों ही समझदार व्यक्ति हैं; हमें मामलों को तथ्यों और विज्ञान के आईने में देखना चाहिए। हमें भौतिकवाद और डार्विनवाद जैसे वैज्ञानिक सिद्धांतों पर विश्वास करना चाहिए। आपको परमेश्वर पर विश्वास करने की क्‍या ज़रूरत है? हम कम्युनिस्ट सिर्फ नास्तिकता और विकास के सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। आपको पता होना चाहिए कि डार्विन का विकास का सिद्धांत मानव जाति के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांतों में से एक है। विकास के सिद्धांत के अनुसार, हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि सब कुछ प्रकृति के कार्य से बना है। मनुष्य प्रकृति के जैविक विकास की प्रक्रिया की सांयोगिक उत्‍पत्ति है। मनुष्य का विकास वानरों से हुआ है। इसके लिए पर्याप्त सैद्धांतिक आधार है। इससे पता चलता है कि मनुष्य को परमेश्वर ने नहीं बनाया था। बाइबल में लिखे हुए वचन मिथक और दंतकथाएं हैं, जिन्हें गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। मैं आपको भौतिकवाद और डार्विनवाद के बारे में और ज़्यादा जानने की सलाह देता हूँ। ये बहुत ही व्यावहारिक सिद्धांत हैं जो दुविधाओं को दूर कर सकते हैं। मुझे लगता है कि जब आप इसे साफ तौर पर देखेंगी, तब आप धार्मिक विश्वासों को ठीक तरह से समझ पाएंगी और भ्रामक आस्था से बाहर आ जाएँगी। सिर्फ़ सीसीपी का अनुसरण करके ही आपका भविष्य अच्छा होगा।

अगला: प्रश्न 3: मैंने धार्मिक समुदाय के कई पादरी और एल्डर को यह कहते सुना है कि आप जिस पर विश्वास कर रही हैं, वह एक मनुष्य है, न कि यीशु मसीह। फिर भी आप यह गवाही देती हैं कि वह मनुष्य वापस आये प्रभु यीशु हैं, यानी, सर्वशक्तिमान परमेश्वर कार्य करने के लिए प्रकट हुए हैं। क्या आपको पता है कि कम्युनिस्ट पार्टी काफ़ी समय से एक पंथ के रूप में ईसाई धर्म और कैथलिक धर्म की निंदा करती रही है? और आप यह गवाही देने की हिम्मत कर रही हैं कि प्रभु यीशु लौट आये हैं, जो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं; क्या आप मुसीबत मोल नहीं ले रही हैं? कम्युनिस्ट पार्टी आपको कैसे माफ कर सकती है? कम्युनिस्ट पार्टी तो ईसाई और कैथोलिक धर्म को कुपंथ और और बाइबल को कुपंथी किताब घोषित करने की भी हिम्मत रखती है। यह एक खुला तथ्‍य है। क्या आप यह नहीं जानती? अगर सीसीपी दुनिया के कट्टर धर्मों की निंदा करके उन्‍हें नकार सकती है, तो वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकटन और कार्य की निंदा क्यों नहीं कर सकती? अगर सीसीपी बाइबल को कुपंथी पुस्‍तक घोषित कर सकती है, तो वह वचन देह में प्रकट होता है को क्‍यों छोड़ेगी? सार्वजनिक सुरक्षा संस्‍थाओं ने इस किताब की कई प्रतियों को ज़ब्‍त कर लिया है। कई लोग इसका अध्ययन कर रहे हैं। मुझे बस यही समझ नहीं आ रहा है। आप लोगों को सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करने की ज़रूरत क्या है? सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अंत के दिनों के मसीह साबित करने पर क्यों ज़ोर दिया जा रहा हैं? हम उनके परिवार की पृष्‍ठभूमि के बारे में सब जानते हैं। ठीक यीशु की तरह, जिन पर ईसाई धर्म विश्वास करता है, वे भी एक साधारण इंसान हैं यीशु, एक बढ़ई की संतान थे, उनके माता-पिता और भाई-बहन भी थे। वे बस एक साधारण इंसान थे। फिर भी पूरा ईसाई धर्म यीशु की परमेश्वर की तरह आराधना करता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर, जिन पर आप लोग विश्वास करते हैं, वे भी यीशु की तरह ही एक मनुष्य हैं। आपका इस बात पर ज़ोर देना कि वे परमेश्वर हैं, बहुत ही अस्वाभाविक है। एक साधारण इंसान पर विश्वास करने की वजह से आपको इतना अत्याचार और पीड़ा सहनी पड़ी है। क्‍या इसमें कोई फायदा है? मैंने सुना है कि कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपने परिवार और पेशे को छोड़ दिया है। मुझे समझ नहीं आता कि आपको इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करने से अंत में क्या हासिल होगा? आपका उनके परमेश्वर होने पर विश्‍वास करने का आधार क्‍या है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

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प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

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