मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है (II)

29 मई, 2018

आगे, आओ इस अंश के इस अंतिम वाक्य पर एक नज़र डालें : "मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है।" क्या इस वाक्य का कोई व्यावहारिक पक्ष है? क्या तुम लोग इसके व्यावहारिक पक्ष को देख सकते हो? हर एक बात जो परमेश्वर कहता है, उसके हृदय से आती है, तो उसने ऐसा क्यों कहा? तुम लोग इसे कैसे समझते हो? हो सकता है, तुम लोग अब इस वाक्य का अर्थ समझ पाओ, लेकिन जब यह कहा गया था, तब बहुत लोग नही समझे थे, क्योंकि मानवजाति बस व्यवस्था के युग से बाहर निकली ही थी। उनके लिए सब्त से अलग होना बहुत कठिन बात थी, सच्चा सब्त क्या होता है, इसे समझने की तो बात ही छोड़ो।

"मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" वाक्य लोगों को बताता है कि परमेश्वर से संबंधित हर चीज़ भौतिक प्रकृति की नहीं है, और यद्यपि परमेश्वर तुम्हारी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है, लेकिन जब तुम्हारी सारी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी कर दी जाती हैं, तो क्या इन चीज़ों से मिलने वाली संतुष्टि तुम्हारी सत्य की खोज का स्थान ले सकती है? यह स्पष्टत: संभव नहीं है! परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप, जिसके बारे में हमने संगति की है, दोनों सत्य हैं। इनका मूल्य भौतिक वस्तुओं से नहीं मापा जा सकता, चाहे वे कितनी भी मूल्यवान हों, न ही इनके मूल्य की गणना पैसों में की जा सकती है, क्योंकि ये कोई भौतिक वस्तुएँ नहीं है, और ये हर एक व्यक्ति के हृदय की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन अमूर्त सत्यों का मूल्य ऐसी किसी भी भौतिक चीज़ से बढ़कर होना चाहिए, जिसे तुम मूल्यवान समझते हो, या नहीं? यह कथन ऐसा है, जिस पर तुम लोगों को सोच-विचार करने की आवश्यकता है। जो कुछ मैंने कहा है, उसका मुख्य बिंदु यह है कि परमेश्वर का स्वरूप और उससे संबंधित हर चीज़ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें हैं और उन्हें किसी भौतिक चीज़ से बदला नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँगा : जब तुम भूखे होते हो, तो तुम्हें भोजन की आवश्यकता होती है। यह भोजन कमोबेश अच्छा हो सकता है, या कमोबेश असंतोषजनक हो सकता है, किंतु यदि उससे तुम्हारा पेट भर जाता है, तो भूखे होने का वह अप्रिय एहसास अब नहीं रहेगा—वह मिट जाएगा। तुम चैन से बैठ सकते हो, और तुम्हारा शरीर आराम महसूस करेगा। लोगों की भूख का भोजन से समाधान किया जा सकता है, किंतु जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और तुम्हें यह एहसास होता है कि तुम्हें उसके बारे में कोई समझ नहीं है, तो तुम अपने हृदय के खालीपन का समाधान कैसे करोगे? क्या इसका समाधान भोजन से किया जा सकता है? या जब तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे होते हो और उसकी इच्छा तुम्हारी समझ में नहीं आती, तो तुम अपने हृदय की उस भूख को मिटाने के लिए किस चीज़ का उपयोग कर सकते हो? परमेश्वर के माध्यम से उद्धार के अपने अनुभव की प्रक्रिया में, अपने स्वभाव में परिवर्तन की कोशिश करने के दौरान, यदि तुम उसकी इच्छा को नहीं समझते हो या यह नहीं जानते कि सत्य क्या है, यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते, तो क्या तुम बहुत व्याकुल महसूस नहीं करोगे? क्या तुम अपने हृदय में ज़बरदस्त भूख और प्यास महसूस नहीं करोगे? क्या ये एहसास तुम्हें तुम्हारे हृदय में शांति महसूस करने से रोकेंगे नहीं? तो तुम अपने हृदय की उस भूख की भरपाई कैसे कर सकते हो—क्या इसके समाधान का कोई तरीका है? कुछ लोग खरीददारी करने चले जाते हैं, कुछ लोग मन की बात कहने के लिए मित्रों को खोजते हैं, कुछ लोग लंबी तानकर सो जाते हैं, अन्य लोग परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ते हैं, या वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए और कड़ी मेहनत और प्रयास करते हैं। क्या ये चीज़ें तुम्हारी वास्तविक कठिनाइयों का समाधान कर सकती हैं? तुम सभी इस प्रकार के अभ्यासों को पूर्णत: समझते हो। जब तुम शक्तिहीन महसूस करते हो, जब तुम परमेश्वर से प्रबुद्धता पाने की दृढ़ इच्छा महसूस करते हो जो तुम्हें सत्य की वास्तविकता और उसकी इच्छा ज्ञात करा सके, तो तुम्हें सबसे ज़्यादा किस चीज़ की आवश्यकता होती है? तुम्हें जिस चीज़ की आवश्यकता होती है, वह भरपेट भोजन नहीं है, और वह कुछ उदार वचन नहीं हैं, देह का क्षणिक आराम और संतुष्टि का तो कहना ही क्या—तुम्हें जिस चीज़ की आवश्यकता है, वह यह है कि परमेश्वर तुम्हें सीधे और स्पष्ट रूप से बताए कि तुम्हें क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, तुम्हें स्पष्ट रूप से बताए कि सत्य क्या है। जब तुम इसे समझ लेते हो, चाहे थोड़ा-सा ही क्यों न समझो, तो क्या तुम अपने हृदय में उससे अधिक संतुष्ट महसूस नहीं करोगे, जितना कि अच्छा भोजन करने पर महसूस करते हो? जब तुम्हारा हृदय संतुष्ट होता है, तो क्या तुम्हारा हृदय और तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व सच्ची शांति प्राप्त नहीं करता? इस उपमा और विश्लेषण के द्वारा, क्या तुम लोग अब समझे कि क्यों मैं तुम लोगों के साथ इस वाक्य को साझा करना चाहता था, "मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है"? इसका अर्थ है कि जो परमेश्वर से आता है, जो उसका स्वरूप है, और उसका सब-कुछ किसी भी अन्य चीज़ से बढ़कर हैं, जिसमें वह चीज़ या वह व्यक्ति भी शामिल है, जिस पर तुम किसी समय विश्वास करते थे कि उसे तुमने सबसे अधिक सँजोया है। अर्थात्, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के मुँह से वचन प्राप्त नहीं कर सकता या उसकी इच्छा को नहीं समझता, तो वह शांति प्राप्त नहीं कर सकता। अपने भविष्य के अनुभवों में तुम लोग समझोगे कि मैं क्यों चाहता था कि आज तुम लोग इस अंश को देखो—यह बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर जो कुछ करता है, वह सब सत्य और जीवन होता है। सत्य वह चीज़ है, जिसकी लोग अपने जीवन में कमी नहीं कर सकते, और यह वह चीज़ है, जिसके बिना उनका कभी काम नहीं चल सकता; तुम यह भी कह सकते हो कि यह सबसे बड़ी चीज़ है। यद्यपि तुम उसे देख या छू नहीं सकते, फिर भी तुम्हारे लिए उसके महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता; यही वह एकमात्र चीज़ है, जो तुम्हारे हृदय में शांति ला सकती है।

क्या तुम लोगों की सत्य की समझ तुम्हारी अपनी अवस्थाओं के साथ एकीकृत है? वास्तविक जीवन में तुम्हें पहले यह सोचना होगा कि कौन-से सत्य तुम्हारे सामने आए लोगों, घटनाओं और चीज़ों से संबंध रखते हैं; इन्हीं सत्यों के बीच तुम परमेश्वर की इच्छा तलाश सकते हो और अपने सामने आने वाली चीज़ों को उसकी इच्छा के साथ जोड़ सकते हो। यदि तुम नहीं जानते कि सत्य के कौन-से पहलू तुम्हारे सामने आई चीज़ों से संबंध रखते हैं, और सीधे परमेश्वर की इच्छा खोजने चल देते हो, तो यह एक अंधा दृष्टिकोण है और परिणाम हासिल नहीं कर सकता। यदि तुम सत्य की खोज करना और परमेश्वर की इच्छा समझना चाहते हो, तो पहले तुम्हें यह देखने की आवश्यकता है कि तुम्हारे साथ किस प्रकार की चीज़ें घटित हुई हैं, वे सत्य के किन पहलुओ से संबंध रखती हैं, और परमेश्वर के वचन में उस विशिष्ट सत्य को देखो, जो तुम्हारे अनुभव से संबंध रखता है। तब तुम उस सत्य में अभ्यास का वह मार्ग खोजो, जो तुम्हारे लिए सही है; इस तरह से तुम परमेश्वर की इच्छा की अप्रत्यक्ष समझ प्राप्त कर सकते हो। सत्य की खोज करना और उसका अभ्यास करना यांत्रिक रूप से किसी सिद्धांत को लागू करना या किसी सूत्र का अनुसरण करना नहीं है। सत्य सूत्रबद्ध नहीं होता, न ही वह कोई विधि है। वह मृत नहीं है—वह स्वयं जीवन है, वह एक जीवित चीज़ है, और वह वो नियम है, जिसका अनुसरण प्राणी को अपने जीवन में अवश्य करना चाहिए और वह वो नियम है, जो मनुष्य के पास अपने जीवन में अवश्य होना चाहिए। यह ऐसी चीज़ है, जिसे तुम्हें जितना संभव हो, अनुभव के माध्यम से समझना चाहिए। तुम अपने अनुभव की किसी भी अवस्था पर क्यों न पहुँच चुके हो, तुम परमेश्वर के वचन या सत्य से अविभाज्य हो, और जो कुछ तुम परमेश्वर के स्वभाव के बारे में समझते हो और जो कुछ तुम परमेश्वर के स्वरूप के बारे में जानते हो, वह सब परमेश्वर के वचनों में व्यक्त होता है; वह सत्य से अटूट रूप से जुड़ा है। परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप अपने आप में सत्य हैं; सत्य परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। वह परमेश्वर के स्वरूप को ठोस बनाता है और उसका स्पष्ट विवरण देता है; वह तुम्हें और अधिक सीधी तरह से बताता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है और वह क्या पसंद नहीं करता, वह तुमसे क्या कराना चाहता है और वह तुम्हें क्या करने की अनुमति नहीं देता, वह किन लोगों से घृणा करता है और वह किन लोगों से प्रसन्न होता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के पीछे लोग उसके आनंद, क्रोध, दुःख और खुशी, और साथ ही उसके सार को देख सकते हैं—यह उसके स्वभाव का प्रकट होना है। परमेश्वर के स्वरूप को जानने और उसके वचन से उसके स्वभाव को समझने के अतिरिक्त जो सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है, वह है व्यावहारिक अनुभव के द्वारा इस समझ तक पहुँचने की आवश्यकता। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को जानने के लिए अपने आप को वास्तविक जीवन से हटा लेता है, तो वह उसे प्राप्त नहीं कर पाएगा। भले ही कुछ लोग हों, जो परमेश्वर के वचन से कुछ समझ प्राप्त कर सकते हों, किंतु उनकी समझ सिद्धांतों और वचनों तक ही सीमित रहती है, और परमेश्वर वास्तव में जैसा है, वह उससे भिन्न रहती है।

हम अभी जिस बारे में संवाद कर रहे हैं, वह सब बाइबल में दर्ज कहानियों के दायरे में है। इन कहानियों के माध्यम से, और घटित हुई इन चीज़ों के विश्लेषण के माध्यम से, लोग उसके स्वभाव और उसके स्वरूप को, जो उसने प्रकट किया है, समझ सकते हैं, जो उन्हें परमेश्वर के हर पहलू को और अधिक व्यापकता से, अधिक गहराई से, अधिक विस्तार से और अधिक अच्छी तरह से समझने देता है। तो क्या परमेश्वर के स्वभाव के हर पहलू को जानने का एकमात्र तरीका इन कहानियों के माध्यम से जानना ही है? नहीं, यह एकमात्र तरीका नहीं है! क्योंकि राज्य के युग में परमेश्वर जो कहता है और जो कार्य वह करता है, वे परमेश्वर के स्वभाव को जानने में, और उसे पूरी तरह से जानने में लोगों की बेहतर सहायता कर सकते हैं। किंतु मुझे लगता है कि बाइबल में दर्ज कुछ उदाहरणों और कहानियों के माध्यम से, जिनसे लोग परिचित हैं, परमेश्वर के स्वभाव को जानना और उसके स्वरूप को समझना थोड़ा आसान है। यदि मैं तुम्हें परमेश्वर को जानने में सक्षम करने के लिए न्याय और ताड़ना के उन वचनों और सत्यों को, जिन्हें आज परमेश्वर प्रकट करता है, शब्दशः लेता हूँ, तो तुम इसे बहुत उबाऊ और थकाऊ महसूस करोगे, और कुछ लोग तो यहाँ तक महसूस करेंगे कि परमेश्वर के वचन सूत्रबद्ध प्रतीत होते हैं। परंतु यदि मैं बाइबल की इन कहानियों को उदाहरणों के रूप में लेता हूँ, ताकि परमेश्वर के स्वभाव को जानने में लोगों को मदद मिल सके, तो वे इसे उबाऊ नहीं पाएँगे। तुम कह सकते हो कि इन उदाहरणों की व्याख्या करने के दौरान, उस समय जो परमेश्वर के हृदय में था, उसका विवरण—उसकी मनोदशा या मनोभाव, या उसके विचार और मत—लोगों को मनुष्य की भाषा में बताए गए हैं, और इस सबका उद्देश्य उन्हें यह समझाना और महसूस कराना है कि परमेश्वर का स्वरूप सूत्रबद्ध नहीं है। यह कोई पौराणिक या कुछ ऐसा नहीं है, जिसे लोग देख और छू नहीं सकते। यह कुछ ऐसा है, जो सचमुच मौजूद है, जिसे लोग महसूस कर सकते हैं और समझ सकते हैं। यह चरम लक्ष्य है। तुम कह सकते हो कि इस युग में रहने वाले लोग धन्य हैं। वे परमेश्वर के पिछले कार्य की विस्तृत समझ प्राप्त करने के लिए बाइबल की कहानियों का उपयोग कर सकते हैं; वे उसके द्वारा किए गए कार्य से उसके स्वभाव को देख सकते हैं; वे उसके द्वारा व्यक्त किए गए इन स्वभावों से मानवजाति के लिए परमेश्वर की इच्छा को समझ सकते हैं, और उसकी पवित्रता की ठोस अभिव्यक्तियों और मनुष्यों के लिए उसकी देखरेख को समझ सकते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर के स्वभाव के अधिक विस्तृत और गहरे ज्ञान तक पहुँच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि तुम सभी लोग अब इसे महसूस कर सकते हो!

प्रभु यीशु द्वारा अनुग्रह के युग में पूर्ण किए गए कार्य के दायरे में तुम परमेश्वर के स्वरूप का एक अन्य पहलू देख सकते हो। यह पहलू उसके देह के द्वारा व्यक्त किया गया था, और उसकी मानवता के कारण लोग उसे देखने और समझने में सक्षम थे। मनुष्य के पुत्र में लोगों ने देखा कि किस प्रकार देह में परमेश्वर ने अपनी मानवता को जीया, और उन्होंने देह के माध्यम से व्यक्त परमेश्वर की दिव्यता देखी। इन दो प्रकार की अभिव्यक्तियों ने लोगों को एक बिलकुल सच्चा परमेश्वर दिखाया, और इनसे वे परमेश्वर के बारे में एक भिन्न अवधारणा बना सके। किंतु संसार के सृजन और व्यवस्था के युग के अंत के बीच की समयावधि में, अर्थात् अनुग्रह के युग से पहले, लोगों द्वारा जो पहलू देखे, सुने और अनुभव किए गए, वे थे परमेश्वर की दिव्यता, परमेश्वर द्वारा अभौतिक क्षेत्र में की और कही गई चीज़ें, और वे चीज़ें, जो उसने अपने वास्तविक व्यक्तित्व से, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता था, व्यक्त की थीं। प्रायः, ये चीजें लोगों को यह महसूस कराती थीं कि परमेश्वर अपनी महानता में इतना बुलंद है कि वे उसके नज़दीक नहीं जा सकते। परमेश्वर ने सामान्यतः लोगों पर जो प्रभाव छोड़ा, वह यह था कि वह स्वयं को समझने-बूझने की उनकी क्षमता के भीतर और बाहर झिलमिलाता था, और लोग यहाँ तक महसूस करते थे कि उसके हर एक विचार और मत इतने रहस्यमय और मायावी हैं कि उन तक पहुँचने का कोई तरीका नहीं है, यहाँ तक कि वे उन्हें समझने-बूझने का प्रयास भी नहीं करते थे। लोगों के लिए, परमेश्वर से संबंधित हर चीज़ बहुत दूर थी, इतनी दूर कि लोग उसे देख नहीं सकते थे, उसे छू नहीं सकते थे। ऐसा लगता था कि वह ऊपर आकाश में है, और ऐसा प्रतीत होता था कि वह बिलकुल भी अस्तित्व में नहीं है। अत: लोगों के लिए परमेश्वर के हृदय और मन को या उसकी किसी सोच को समझना अलभ्य था, यहाँ तक कि उनकी पहुँच से बाहर था। भले ही परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में कुछ ठोस कार्य किए, और उसने कुछ विशेष वचन भी जारी किए और कुछ विशेष स्वभाव व्यक्त किए, ताकि लोग उसके बारे में कुछ सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकें और उसे समझ-बूझ सकें, फिर भी अंतत:, परमेश्वर के स्वरूप की ये अभिव्यक्तियाँ एक अभौतिक क्षेत्र से आई थीं, और लोगों ने जो समझा, जो उन्होंने जाना, वह फिर भी उसके स्वरूप का दिव्य पहलू ही था। इस अभिव्यक्ति से मानवजाति उसके स्वरूप की ठोस अवधारणा प्राप्त नहीं कर सकी, और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणा अभी भी "एक आध्यात्मिक देह, जिसके करीब जाना कठिन है, जो अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है" के दायरे में ही अटकी हुई थी। चूँकि लोगों के सामने प्रकट होने के लिए परमेश्वर ने भौतिक क्षेत्र की किसी विशिष्ट वस्तु या छवि का उपयोग नहीं किया था, इसलिए वे अभी भी मानवीय भाषा का उपयोग करके उसे परिभाषित करने में असमर्थ थे। अपने हृदय और मस्तिष्क में लोग परमेश्वर के लिए एक मानक स्थापित करने, उसे मूर्त मानवीय बनाने के लिए हमेशा अपनी भाषा का उपयोग करना चाहते थे, जैसे कि वह कितना ऊँचा है, वह कितना बड़ा है, वह कैसा दिखाई देता है, वह ठीक-ठीक क्या पसंद करता है और उसका व्यक्तित्व कैसा है। वास्तव में, अपने हृदय में परमेश्वर जानता था कि लोग इस तरह से सोचते हैं। वह लोगों की आवश्यकताओं के बारे में बहुत स्पष्ट था, और निस्संदेह वह यह भी जानता था कि उसे क्या करना चाहिए, इसलिए अनुग्रह के युग में उसने एक अलग तरीके से अपने कार्य को अंजाम दिया। यह नया तरीका दिव्य और मानवीय दोनों था। जिस समयावधि में प्रभु यीशु काम कर रहा था, उसमें लोग देख सकते थे कि परमेश्वर की अनेक मानवीय अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, वह नृत्य कर सकता था, वह विवाहों में शामिल हो सकता था, वह लोगों के साथ संगति कर सकता था, उनसे बात कर सकता था और उनके साथ विभिन्न मामलों में चर्चा कर सकता था। इसके अतिरिक्त, प्रभु यीशु ने बहुत-सा ऐसा कार्य भी पूरा किया, जो उसकी दिव्यता दर्शाता था, और निस्संदेह यह समस्त कार्य परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। इस दौरान, चूँकि परमेश्वर की दिव्यता एक साधारण देह में उस रूप में साकार हुई थी, जिसे लोग देख और छू सकते थे, इसलिए अब उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि वह अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है, या वे उसके करीब नहीं जा सकते। इसके विपरीत, वे मनुष्य के पुत्र की हर गतिविधि, उसके वचनों और कार्य के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा या उसकी दिव्यता को समझने की कोशिश कर सकते थे। मनुष्य के देहधारी पुत्र ने अपनी मानवता के माध्यम से परमेश्वर की दिव्यता व्यक्त की और परमेश्वर की इच्छा को मानवजाति तक पहुँचाया। और परमेश्वर की इच्छा और स्वभाव की अभिव्यक्ति के माध्यम से उसने लोगों के सामने उस परमेश्वर को भी प्रकट किया, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता और जो आध्यात्मिक क्षेत्र में रहता है। लोगों ने स्वयं परमेश्वर को मूर्त रूप में, माँस और रक्त से निर्मित देखा। तो मनुष्य के देहधारी पुत्र ने स्वयं परमेश्वर की पहचान, हैसियत, छवि, स्वभाव और उसके स्वरूप जैसी चीज़ों को ठोस और मानवीय बना दिया। भले ही परमेश्वर की छवि के संबंध में मनुष्य के पुत्र के बाहरी रूप-रंग की कुछ सीमाएँ थीं, किंतु उसका सार और स्वरूप स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाने में पूर्णतः समर्थ थे—केवल अभिव्यक्ति के रूप में कुछ भिन्नताएँ थीं। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मनुष्य के पुत्र ने अपनी मानवता और दिव्यता, दोनों रूपों में स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाई। हालाँकि इस दौरान परमेश्वर ने देह के माध्यम से कार्य किया, देह के परिप्रेक्ष्य से बात की और मानवजाति के सामने मनुष्य के पुत्र की पहचान और हैसियत के साथ खड़ा हुआ, और इसने लोगों को मानवजाति के बीच परमेश्वर के सच्चे वचनों और कार्य को देखने-सुनने और अनुभव करने का अवसर दिया। इसने लोगों को विनम्रता के बीच उसकी दिव्यता और महानता के संबंध में अंतर्दृष्टि और साथ ही परमेश्वर की प्रामाणिकता और वास्तविकता की एक प्रारंभिक समझ और परिभाषा भी प्रदान की। भले ही प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किया गया कार्य, कार्य करने के उसके तरीके और उसके बोलने का परिप्रेक्ष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व से भिन्न थे, फिर भी उसकी हर चीज़ वास्तव में स्वयं परमेश्वर को दर्शाती थी, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था—इससे इनकार नहीं किया जा सकता! अर्थात्, परमेश्वर चाहे किसी भी रूप में प्रकट हो, वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में बात करे, या किसी भी छवि में वह मानवजाति के सामने आए, वह अपने सिवाय किसी को नहीं दर्शाता। वह न तो किसी मनुष्य को दर्शा सकता है, न ही भ्रष्ट मानवजाति को दर्शा सकता है। परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

संबंधित सामग्री

प्रभु यीशु की फरीसियों को डाँट

10. फरीसियों द्वारा यीशु की आलोचना मरकुस 3:21-22 जब उसके कुटुम्बियों ने यह सुना, तो वे उसे पकड़ने के लिए निकले; क्योंकि वे कहते थे कि उसका...

अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र समझाता है

13. अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र समझाता है लूका 24:30-32 जब वह उनके साथ भोजन करने बैठा, तो उसने रोटी लेकर...

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें