अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र समझाता है और चेलों ने यीशु को खाने के लिए भुनी हुई मछली दी
अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र समझाता है
लूका 24:30-32 जब वह उनके साथ भोजन करने बैठा, तो उसने रोटी लेकर धन्यवाद किया और उसे तोड़कर उनको देने लगा। तब उनकी आँखें खुल गईं; और उन्होंने उसे पहचान लिया, और वह उनकी आँखों से छिप गया। उन्होंने आपस में कहा, “जब वह मार्ग में हम से बातें करता था और पवित्रशास्त्र का अर्थ हमें समझाता था, तो क्या हमारे मन में उत्तेजना न उत्पन्न हुई?”
चेलों ने यीशु को खाने के लिए भुनी हुई मछली दी
लूका 24:36-43 वे ये बातें कह ही रहे थे कि वह आप ही उनके बीच में आ खड़ा हुआ, और उनसे कहा, “तुम्हें शान्ति मिले।” परन्तु वे घबरा गए और डर गए, और समझे कि हम किसी भूत को देख रहे हैं। उसने उनसे कहा, “क्यों घबराते हो? और तुम्हारे मन में क्यों सन्देह उठते हैं? मेरे हाथ और मेरे पाँव को देखो कि मैं वही हूँ। मुझे छूकर देखो, क्योंकि आत्मा के हड्डी माँस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो।” यह कहकर उसने उन्हें अपने हाथ पाँव दिखाए। जब आनन्द के मारे उनको प्रतीति न हुई, और वे आश्चर्य करते थे, तो उसने उनसे पूछा, “क्या यहाँ तुम्हारे पास कुछ भोजन है?” उन्होंने उसे भुनी हुई मछली का टुकड़ा दिया। उसने लेकर उनके सामने खाया।
आगे हम पवित्रशास्त्र के उपर्युक्त अंशों पर नज़र डालेंगे। पहला अंश पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के रोटी खाने और पवित्रशास्त्र को समझाने का वर्णन करता है, और दूसरे अंश में प्रभु यीशु के भुनी हुई मछली खाने का वर्णन है। ये दो अंश परमेश्वर के स्वभाव को जानने में तुम्हारी किस प्रकार सहायता करते हैं? क्या तुम लोग प्रभु यीशु के रोटी और फिर भुनी हुई मछली खाने के इन विवरणों से प्राप्त तसवीर के प्रकार की कल्पना कर सकते हो? क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि यदि प्रभु यीशु तुम लोगों के सामने रोटी खाता हुआ खड़ा होता, तो तुम लोगों को कैसा महसूस होता? अथवा यदि वह तुम लोगों के साथ एक ही मेज पर भोजन कर रहा होता, लोगों के साथ मछली और रोटी खा रहा होता, तो उस क्षण तुम्हारे मन में किस प्रकार की भावना आती? यदि तुम महसूस करते कि तुम प्रभु के बेहद करीब हो, कि वह तुम्हारे साथ बहुत अंतरंग है, तो यह भावना सही है। यह बिलकुल वही परिणाम है, जो अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु इकट्ठे हुए लोगों के सामने रोटी और मछली खाकर लाना चाहता था। यदि प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद लोगों से सिर्फ बात की होती, यदि वे उसकी देह और हड्डियों को महसूस न कर पाते, बल्कि यह महसूस करते कि वह एक अगम्य पवित्रात्मा है, तो वे कैसा महसूस करते? क्या वे निराश नहीं हो जाते? निराशा अनुभव करके क्या लोग परित्यक्त महसूस न करते? क्या वे अपने और प्रभु यीशु मसीह के बीच एक दूरी महसूस न करते? परमेश्वर के साथ लोगों के संबंध पर यह दूरी किस प्रकार का नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती? लोग निश्चित रूप से भयभीत हो जाते, वे उसके करीब आने की हिम्मत न करते, और उनका उसे एक सम्मानित दूरी पर रखने का रवैया होता। तब से वे प्रभु यीशु मसीह के साथ अपने अंतरंग संबंध को तोड़ देते, और वापस मानवजाति और ऊपर स्वर्ग के परमेश्वर के बीच के संबंध की ओर लौट जाते, जैसा कि अनुग्रह के युग के पहले था। वह आध्यात्मिक देह, जिसे लोग छू या महसूस न कर पाते, परमेश्वर के साथ उनकी अंतरंगता का उन्मूलन कर देती, और वह उस अंतरंगता के अस्तित्व को भी, जो प्रभु यीशु मसीह के देह में रहने के समय स्थापित हुई थी, जिसमें मानवजाति और उसके बीच कोई दूरी नहीं थी, खत्म कर देती। आध्यात्मिक देह से लोगों में केवल डरने, बचने और निःशब्द टकटकी लगाकर देखने की भावनाएँ उभरी थीं। वे उसके करीब आने या उससे बात करने की हिम्मत न करते, उसका अनुसरण करने, उसका विश्वास करने या उसका आदर करने की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर मनुष्यों के मन में अपने लिए इस प्रकार की भावना देखने का इच्छुक नहीं था। वह यह नहीं देखना चाहता था कि लोग उससे बचकर निकलें या अपने आप को उससे दूर हटा लें; वह केवल इतना चाहता था कि लोग उसे समझें, उसके करीब आएँ और उसका परिवार बन जाएँ। यदि तुम्हारा अपना परिवार, तुम्हारे बच्चे तुम्हें देखें लेकिन तुम्हें पहचानें नहीं, और तुम्हारे करीब आने की हिम्मत न करें बल्कि हमेशा तुमसे बचते रहें, और जो कुछ तुमने उनके लिए किया, वे उसे समझ न पाएँ, तो इससे तुम्हें कैसा महसूस होगा? क्या यह दर्दनाक नहीं होगा? क्या इससे तुम्हारा हृदय टूट नहीं जाएगा? बिलकुल ऐसा ही परमेश्वर महसूस करता है, जब लोग उससे बचते हैं। इसलिए, अपने पुनरुत्थान के बाद भी प्रभु यीशु लोगों के सामने मांस और लहू के अपने रूप में ही प्रकट हुआ, और तब भी उसने उनके साथ खाया और पीया। परमेश्वर लोगों को एक परिवार के रूप में देखता है और वह मनुष्यों से भी यही चाहता है कि वे उसे अपने सबसे प्रिय व्यक्ति के रूप में देखें; केवल इसी तरह से परमेश्वर वास्तव में लोगों को प्राप्त कर सकता है, और केवल इसी तरह से लोग वास्तव में परमेश्वर से प्रेम और उसकी आराधना कर सकते हैं। अब क्या तुम लोग पवित्रशास्त्र के इन दो अंशों का उद्धरण देने के मेरे इरादे को समझ सकते हो, जिनमें प्रभु यीशु अपने पुनरुत्थान के बाद रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र को समझाता है, और चेले उसे खाने के लिए भुनी हुई मछली देते हैं?
ऐसा कहा जा सकता है कि कार्यों की जो शृंखलाएँ प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद कहीं और कीं, उनमें एक गंभीर विचार रखा गया था। वे उस दयालुता और स्नेह से भरी हुई थीं, जो परमेश्वर मानवजाति के प्रति रखता है, और वे दुलार और सूक्ष्म परवाह से भी भरी हुई थीं, जो वह उस अंतरंग संबंध के प्रति रखता था, जिसे उसने देह में रहने के दौरान मानवजाति के साथ स्थापित किया था। इससे भी अधिक, वे अतीत की उस ललक और लालसा से भी भरी हुई थीं, जो उसने देह में रहने के दौरान अपने अनुयायियों के साथ खाने-पीने के अपने जीवन के लिए महसूस की थी। इसलिए, परमेश्वर नहीं चाहता था कि लोग परमेश्वर और मनुष्य के बीच दूरी महसूस करें, न ही वह यह चाहता था कि मानवजाति स्वयं को परमेश्वर से दूर रखे। इससे भी बढ़कर, वह नहीं चाहता था कि मानवजाति यह महसूस करे कि प्रभु यीशु पुनरुत्थान के बाद वह प्रभु नहीं रहा जो लोगों से बहुत अंतरंग था, कि वह अब मानवजाति के साथ नहीं है क्योंकि वह आध्यात्मिक लोक में लौट गया है, उस पिता के पास लौट गया है जिसे लोग कभी देख नहीं सकते या जिस तक वे कभी पहुँच नहीं सकते। वह नहीं चाहता था कि लोग यह महसूस करें कि उसके और मानवजाति के बीच हैसियत का कोई अंतर पैदा हो गया है। जब परमेश्वर उन लोगों को देखता है, जो उसका अनुसरण करना चाहते हैं परंतु उसे एक सम्मानित दूरी पर रखते हैं, तो उसके हृदय में पीड़ा होती है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि उनका हृदय उससे बहुत दूर है और उसके लिए उनके हृदय को पाना बहुत कठिन होगा। इसलिए यदि वह लोगों के सामने एक आध्यात्मिक देह में प्रकट हुआ होता जिसे वे देख या छू न सकते, तो इसने एक बार फिर मनुष्य को परमेश्वर से दूर कर दिया होता, और इससे मानवजाति गलती से यह समझ बैठती कि पुनरुत्थान के बाद मसीह अभिमानी, मनुष्यों से भिन्न प्रकार का और ऐसा बन गया है, जो अब मनुष्यों के साथ मेज पर नहीं बैठ सकता और उनके साथ खा नहीं सकता, क्योंकि मनुष्य पापी और गंदे हैं, और कभी परमेश्वर के करीब नहीं आ सकते। मानवजाति की इन ग़लतफहमियों को दूर करने के लिए प्रभु यीशु ने कई चीज़ें कीं, जिन्हें वह देह में रहते हुए किया करता था, जैसा कि बाइबल में दर्ज है : “उसने रोटी लेकर धन्यवाद किया और उसे तोड़कर उनको देने लगा।” उसने उन्हें पवित्रशास्त्र भी समझाया, जैसा कि वह अतीत में किया करता था। प्रभु यीशु द्वारा की गई इन सब चीज़ों ने हर उस व्यक्ति को, जिसने उसे देखा था, यह महसूस कराया कि प्रभु बदला नहीं है, वह अभी भी वही प्रभु यीशु है। भले ही उसे सूली पर चढ़ा दिया गया था और उसने मृत्यु का अनुभव किया था, किंतु वह पुनर्जीवित हो गया है और उसने मानवजाति को छोड़ा नहीं है। वह मनुष्यों के बीच रहने के लिए लौट आया था, और उसमें कुछ भी नहीं बदला था। लोगों के सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र अभी भी वही प्रभु यीशु था। लोगों के साथ उसका व्यवहार और बातचीत का उसका तरीका बहुत परिचित लगता था। वह अभी भी प्रेममय करुणा, अनुग्रह और सहनशीलता से उतना ही भरपूर था—वह तब भी वही प्रभु यीशु था, जो लोगों से वैसे ही प्रेम करता था जैसे वह अपने आप से करता था, जो मानवजाति को सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा कर सकता था। उसने हमेशा की तरह लोगों के साथ खाया, उनके साथ पवित्रशास्त्र पर चर्चा की, और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वह पहले के समान ही माँस और लहू से बना था और उसे छुआ और देखा जा सकता था। पहले की तरह के मनुष्य के पुत्र के रूप में उसने लोगों को अंतरंगता महसूस कराई, सहजता महसूस कराई, और किसी खोई हुई चीज़ को पुनः प्राप्त करने का आनंद दिलाया। बड़ी आसानी से उन्होंने बहादुरी और आत्मविश्वास के साथ इस मनुष्य के पुत्र के ऊपर भरोसा और उसका आदर करना आरंभ कर दिया, जो मानवजाति को उनके पापों के लिए क्षमा कर सकता था। वे बिना किसी हिचकिचाहट के प्रभु यीशु के नाम से प्रार्थना भी करने लगे, वे उसका अनुग्रह, उसका आशीष प्राप्त करने के लिए, और उससे शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए, उससे देखरेख और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करने लगे, और प्रभु यीशु के नाम से चंगाई करने लगे और दुष्टात्माओं को निकालने लगे।
जिस दौरान प्रभु यीशु ने देह में रहकर काम किया, उसके अधिकतर अनुयायी उसकी पहचान और उसके द्वारा कही गई चीज़ों को पूरी तरह से सत्यापित नहीं कर सके। जब वह सूली की ओर बढ़ रहा था, तो उसके अनुयायियों का रवैया पर्यवेक्षण का था। फिर, उसे सूली पर चढ़ाए जाने से लेकर क़ब्र में डाले जाने के समय तक उसके प्रति लोगों का रवैया निराशा का था। इस दौरान लोगों ने पहले ही अपने हृदय में उन चीज़ों के बारे में संदेह करने से एकदम नकारने की ओर जाना आरंभ कर दिया था, जिन्हें प्रभु यीशु ने अपने देह में रहने के समय कहा था। फिर जब वह क़ब्र से बाहर आया और एक-एक करके लोगों के सामने प्रकट हुआ, तो उन लोगों में से अधिकांश, जिन्होंने उसे अपनी आँखों से देखा था या उसके पुनरुत्थान का समाचार सुना था, धीरे-धीरे नकारने से संशय करने की ओर आने लगे। केवल जब अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने थोमा से उसका हाथ अपने पंजर में डलवाया, और जब प्रभु यीशु ने भीड़ के सामने रोटी तोड़ी और खाई, और फिर उनके सामने भुनी हुई मछली खाने के लिए बढ़ा, तभी उन्होंने वास्तव में इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ही देहधारी मसीह है। तुम कह सकते हो कि यह ऐसा था, मानो माँस और रक्त वाला यह आध्यात्मिक शरीर उन लोगों के सामने खड़ा उन्हें स्वप्न से जगा रहा था : उनके सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र वह था, जो अनादि काल से अस्तित्व में था। उसका एक रूप, माँस और हड्डियाँ थीं, और वह पहले ही लंबे समय तक मानवजाति के साथ तक रह और खा चुका था...। इस समय लोगों ने महसूस किया कि उसका अस्तित्व बहुत यथार्थ और बहुत अद्भुत था। साथ ही, वे भी बहुत आनंदित और प्रसन्न थे और भावनाओं से भरे थे। उसके पुनः प्रकटन ने लोगों को वास्तव में उसकी विनम्रता दिखाई, मानवजाति के प्रति उसकी नज़दीकी और अनुरक्ति अनुभव कराई, और यह महसूस कराया कि वह उनके बारे में कितना सोचता है। इस संक्षिप्त पुनर्मिलन ने उन लोगों को, जिन्होंने प्रभु यीशु को देखा था, यह महसूस कराया मानो एक पूरा जीवन-काल गुज़र चुका हो। उनके खोए हुए, भ्रमित, भयभीत, चिंतित, लालायित और संवेदनशून्य हृदय को आराम मिला। वे अब शंकालु या निराश नहीं रहे, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि अब आशा और भरोसा करने के लिए कुछ है। उनके सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र अब हर समय उनका पृष्ठरक्षक रहेगा; वह उनका दृढ़ दुर्ग, अनंत काल के लिए उनका आश्रय होगा।
यद्यपि प्रभु यीशु पुनरुत्थित हो चुका था, फिर भी उसके हृदय और उसके कार्य ने मानवजाति को नहीं छोड़ा था। लोगों के सामने प्रकट होकर उसने उन्हें बताया कि वह किसी भी रूप में मौजूद क्यों न हो, वह हर समय और हर जगह लोगों का साथ देगा, उनके साथ चलेगा, और उनके साथ रहेगा। उसने उन्हें बताया कि वह हर समय और हर जगह मनुष्यों का भरण-पोषण और उनकी चरवाही करेगा, उन्हें अपने को देखने और छूने देगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि वे फिर कभी असहाय महसूस न करें। प्रभु यीशु यह भी चाहता था कि लोग यह जानें कि इस संसार में वे अकेले नहीं रहते। मानवजाति के पास परमेश्वर की देखरेख है; परमेश्वर उनके साथ है। वे हमेशा परमेश्वर पर आश्रित हो सकते हैं, और वह अपने प्रत्येक अनुयायी का परिवार है। परमेश्वर पर आश्रित होकर मानवजाति अब और एकाकी या असहाय नहीं रहेगी, और जो उसे अपनी पापबलि के रूप में स्वीकार करते हैं, वे अब और पाप में बँधे नहीं रहेंगे। मनुष्य की नज़रों में, प्रभु यीशु द्वारा अपने पुनरुत्थान के बाद किए गए उसके कार्य के ये भाग बहुत छोटी चीज़ें थीं, परंतु जिस तरह से मैं उन्हें देखता हूँ, उसके द्वारा की गई छोटी से छोटी चीज़ भी बहुत अर्थपूर्ण, बहुत मूल्यवान, बहुत प्रभावशाली और भारी महत्व रखने वाली थी।
यद्यपि देह में काम करने का प्रभु यीशु का समय कठिनाइयों और पीड़ा से भरा हुआ था, फिर भी मांस और रक्त की अपनी आध्यात्मिक देह के प्रकटन के माध्यम से, उसने उस समय के मानवजाति को छुड़ाने के अपने कार्य को देह में पूर्णता और कुशलता से संपन्न किया था। उसने देह बनकर अपनी सेवकाई की शुरुआत की और मनुष्यों के सामने अपने दैहिक रूप में प्रकट होकर उसने अपनी सेवकाई का समापन किया। मसीह के रूप में अपनी पहचान के माध्यम से नए युग की शुरुआत करते हुए उसने अनुग्रह के युग की उद्घोषणा की। मसीह के रूप में अपनी पहचान के माध्यम से उसने अनुग्रह के युग में अपना कार्य किया और अनुग्रह के युग में अपने सभी अनुयायियों को मज़बूत किया और उनकी अगुआई की। परमेश्वर के कार्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह जो आरंभ करता है, उसे वास्तव में पूरा करता है। इस कार्य में कदम और योजना होती है, और वह परमेश्वर की बुद्धि, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसके अद्भुत कर्मों, उसके प्रेम और दया से भी भरपूर होता है। निस्संदेह, परमेश्वर के समस्त कार्य का मुख्य सूत्र मानवजाति के लिए उसकी देखभाल है; यह उसकी परवाह की भावनाओं से ओतप्रोत है, जिसे वह कभी अलग नहीं रख सकता। बाइबल के इन पदों में, अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु द्वारा की गई एक-एक चीज़ में मानवजाति के लिए परमेश्वर की अपरिवर्तनीय आशाएँ और चिंता प्रकट हुई, और साथ ही प्रकट हुई मनुष्यों के लिए परमेश्वर की कुशल देखरेख और दुलार। शुरू से लेकर आज तक इसमें से कुछ भी नहीं बदला है—क्या तुम लोग इसे देख सकते हो? जब तुम लोग इसे देखते हो, तो क्या तुम लोगों का हृदय अनजाने ही परमेश्वर के करीब नहीं आ जाता? यदि तुम लोग उस युग में रह रहे होते और प्रभु यीशु पुनरुत्थान के बाद तुम लोगों के सामने मूर्त रूप में प्रकट होता जिसे तुम लोग देख सकते, और यदि वह तुम लोगों के सामने बैठ जाता, रोटी और मछली खाता और तुम लोगों को पवित्रशास्त्र समझाता, तुम लोगों से बातचीत करता, तो तुम लोग कैसा महसूस करते? क्या तुम खुशी महसूस करते? या तुम दोषी महसूस करते? परमेश्वर के बारे में पिछली ग़लतफहमियाँ और उससे बचना, परमेश्वर के साथ टकराव और उसके बारे में संदेह—क्या ये सब ग़ायब नहीं हो जाते? क्या परमेश्वर और मनुष्य के बीच का रिश्ता और अधिक सामान्य और उचित न हो जाता?
बाइबल के इन सीमित अध्यायों की व्याख्या से, क्या तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव में किसी खामी का पता चलता है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर के प्रेम में कोई मिलावट मिलती है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि में कोई धोखा या बुराई दिखती है? निश्चित रूप से नहीं! अब क्या तुम लोग निश्चितता के साथ कह सकते हो कि परमेश्वर पवित्र है? क्या तुम निश्चितता के साथ कह सकते हो कि परमेश्वर की प्रत्येक भावना उसके सार और उसके स्वभाव का प्रकाशन है? मैं आशा करता हूँ कि इन वचनों को पढ़ लेने के बाद तुम लोगों को इनसे प्राप्त होने वाली समझ से सहायता मिलेगी और वे अपने स्वभाव में परिवर्तन और परमेश्वर से भय मानने के तुम्हारे प्रयास में तुम लोगों को लाभ पहुँचाएँगे, और वे तुम लोगों के लिए ऐसे फल लाएँगे जो दिन प्रति दिन बढ़ते ही जाएँगे, जिससे खोज की यह प्रक्रिया तुम लोगों को परमेश्वर के और करीब ले आएगी, उस मानक के अधिकाधिक करीब ले आएगी जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। तुम लोग सत्य का अनुसरण करने से अब और विमुख नहीं रहोगे और तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि सत्य की और स्वभाव में परिवर्तन की खोज एक कष्टप्रद या निरर्थक चीज़ है। इसके बजाय, परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और उसके पवित्र सार की अभिव्यक्ति से प्रेरित होकर तुम लोगों में रोशनी के लिए ललक होगी, न्याय के लिए ललक होगी और तुम लोग सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के इरादे पूरे करने की आकांक्षा करोगे, और तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए व्यक्ति बन जाओगे, एक वास्तविक व्यक्ति बन जाओगे।
आज हमने उन कुछ चीज़ों के बारे में बात की है, जो परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में की थीं, जब उसे पहली बार देहधारी बनाया गया था। इन चीज़ों से हमने उसके द्वारा देह में व्यक्त और प्रकट किए गए स्वभाव को और साथ ही उसके स्वरूप के प्रत्येक पहलू को देखा है। उसके स्वरूप के ये सभी पहलू बहुत ही मानवीय प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि उसके द्वारा प्रकट और व्यक्त की गई हर चीज़ का सार उसके अपने स्वभाव से अलग नहीं किया जा सकता। देहधारी परमेश्वर की हर पद्धति और उसका हर पहलू, जो मानवता में उसके स्वभाव को व्यक्त करता है, उसके अपने सार से मजबूती से जुड़ा है। इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर मनुष्य के पास देहधारण के तरीके का उपयोग करके आया। जो कार्य उसने देह में किया, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु देह में रहने वाले, भ्रष्टता में जीने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं—परमेश्वर द्वारा प्रकट स्वभाव और उसके द्वारा व्यक्त इरादे। क्या तुम लोग इसे समझने में सक्षम हो? परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप को समझने के बाद क्या तुम लोगों ने कोई निष्कर्ष निकाला है कि तुम लोगों को परमेश्वर के साथ कैसा बरताव करना चाहिए? अंत में, इस प्रश्न के उत्तर में, मैं तुम लोगों को तीन सलाहें देना चाहूँगा : पहली, परमेश्वर की परीक्षा मत लो। चाहे तुम परमेश्वर के बारे में कितना भी क्यों न समझते हो, चाहे तुम उसके स्वभाव के बारे में कितना भी क्यों न जानते हो, उसकी परीक्षा बिलकुल मत लो। दूसरी, हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ संघर्ष मत करो। चाहे परमेश्वर तुम्हें किसी भी प्रकार की हैसियत दे या वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कार्य सौंपे, चाहे वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कर्तव्य करने के लिए बड़ा करे, और चाहे तुमने परमेश्वर के लिए कितना भी व्यय और बलिदान किया हो, उसके साथ हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा बिलकुल मत करो। तीसरी, परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा मत करो। परमेश्वर तुम्हारे साथ जो कुछ भी करता है, जो भी वह तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, और जो चीज़ें वह तुम पर लाता है, तुम उन्हें समझते या उनके प्रति समर्पित होते हो या नहीं, किंतु परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा बिलकुल मत करो। यदि तुम इन सलाहों पर चल सकते हो, तो तुम काफी सुरक्षित रहोगे, और तुम परमेश्वर को क्रोधित करने की ओर प्रवृत्त नहीं होगे। हम अपनी आज की संगति यहीं समाप्त करेंगे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?